ललित सुरजन

22-07-1946 - 02-12-2020

अपने पिता और देशबन्धु के संस्थापक-संपादक स्व.श्री मायाराम सुरजन अर्थात बाबूजी की स्मृति में उनके जीवन संघर्षों और उनसे हासिल ज़िन्दगी के सबक पर लिखी गयी संस्मरण माला है। इसका शीर्षक बाबूजी की ही एक कविता की पंक्ति- जो जीवन से हार गया हो, उसमें प्राण जगाओ साथी, से लिया गया है।

17 अप्रैल 1959, रामनवमी के दिन से दैनिक देशबन्धु का प्रकाशन शुरू हुआ। निष्पक्ष और मूल्यपरक पत्रकारिता के रास्ते में आने वाली कई चुनौतियों का सामना करते हुए देशबन्धु ने जब अपने 60वें बरस में प्रवेश किया, तब इस सफर का लेखा-जोखा देशबन्धु के साठ साल शीर्षक से प्रकाशित लेखमाला में ललित जी ने किया। बाबूजी के साथ पहले दिन से देशबन्धु की यात्रा के साक्षी रहे ललित जी ने खट्टे-मीठे, तीखे-कड़वे हरेक अनुभव का जिक्र इस लेखमाला में किया है।

अपने आखिरी दिनों में देशबन्धु चौथा खंभा बनने से इनकार शीर्षक के तहत ललित जी देशबन्धु के संघर्षों की दास्तां लिख रहे थे। इस श्रृंखला के कुछ आलेख उनके जाने के बाद भी प्रकाशित हुए। दरअसल, यह 'देशबन्धु के साठ साल' लेखमाला की अगली कड़ी थी और इसमें बाबूजी की लेखमाला 'मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के' की झलक मिलती है।

सम्पादकीय

देश-विदेश की समसामयिक घटनाओं, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक पहलुओं से जुड़े विषयों और इन से संबंधित फैसलों, नीतियों पर पैनी निगाहों और सधी कलम से लिखे उनके संपादकीय समयातीत हैं। एक संपादक को किस तरह संतुलन के साथ अपने विचार पाठकों के सामने रखने चाहिए और फिर पाठकों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता देनी चाहिए, ये सीख ललित जी के संपादकीय आलेखों से मिलती है।

आलेख

ललित जी ने 1995 से हर गुरुवार आलेख लिखने की शुरुआत की, लेकिन परिस्थितिजन्य कारणों से यह सिलसिला नियमित नहीं चल सका। 2002 से उन्होंने फिर साप्ताहिक आलेख लिखने की शुरुआत की और फिर उनके अंतिम क्षणों तक यह सिलसिला नहीं टूटा। गुरुवार को उनके आलेखों का पाठक बेसब्री से इंतजार करते थे, क्योंकि इसमें विषयों की विविधता के साथ हर बार लेखन का नया आस्वाद पाठकों को मिलता था।

ललित सुरजन के लिए कहा जा सकता है कि वे व्यक्ति नहीं संस्था थे। उनकी गतिविधियों और परिचय का दायरा अथाह था। देश-विदेश में लोगों से उनके जीवंत संपर्क थे। बरसों-बरस रिश्तों को कैसे सहेजा जाता है, यह उनसे सीखा जा सकता है। उनकी याद से जुड़ी कई बातें, किस्से, प्रसंग इन संस्मरणों में पढ़े जा सकते हैं, जो उनके मित्रों, आत्मीयजनों ने लिखे हैं।

लेखन की इस विधा में ललित जी की कलम अतुलनीय है। एक अच्छे संस्मरण के लिए अच्छी स्मृति के साथ निष्पक्षता भी जरूरी है, जो उनके लिखे संस्मरणों में साफ नजर आती है। उनके संस्मरणों का दायरा भी अत्यंत विस्तृत था, क्योंकि दुनिया भर में अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े लोगों से उनका जीवंत संपर्क था। किसी जिज्ञासु की तरह वे हर नयी चीज़ में रुचि लेते थे और अपने अनुभवों का खजाना और समृद्ध करते थे। इसलिए उनके लिखे संस्मरण व्यक्ति परिचय से आगे बढ़कर नए विषयों और जीवन के नए आयामों से पाठकों का परिचय कराते हैं।

प्रस्तावनाएं

साहित्यिक-मासिक पत्रिका अक्षर-पर्व में ललित जी की लिखी प्रस्तावनाएं विचारोत्तेजक रचनाओं का महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में सामान्य तौर पर लिखे संपादकीयों से अलग उनकी प्रस्तावनाएं हर बार नए विषय पर होती थीं, जो पाठकों को भरपूर मानसिक खुराक दिया करती थीं। इन प्रस्तावनाओं में वे विभिन्न विषयों के अलावा वे नयी किताबों की समीक्षात्मक चर्चा करते थे। देश भर के पाठक अक्षर पर्व में ललित सुरजन की लिखी प्रस्तावना का बेसब्री से इंतज़ार करते थे।

ललित जी के लिए यात्राएं करना जीवन से नया साक्षात्कार करने जैसा था। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों से लेकर विदेशों तक उन्होंने अनगिनत यात्राएं कीं और हर यात्रा में रास्ते से लेकर, मंजिल तक, हर पहलू को नए नजरिए से देखने और समझने का प्रयास किया। फिर अपने अनुभवों को संस्मरणों के रस में सराबोर कर पाठकों के लिए प्रस्तुत किया। ललित जी के यात्रा वृत्तांत जीवन अनुभवों का खजाना हैं, जिसे पढ़कर पाठक समृद्ध होता है।

चिट्ठी-पत्री

ललित जी की अनेकानेक खूबियों में एक खूबी थी, लोगों से उनका जीवंत संपर्क। किसी का भी फोन आए, वे तुरंत उठाते थे और अगर न उठा पाएं तो पलट कर खुद फोन करते थे। चिट्ठियों का जवाब भी वे तुरंत देते थे और जहां तक संभव होता था उनके पत्र हस्तलिखित ही होते थे। निजी, पारिवारिक या कामकाजी हरेक तरह के पत्र लेखन में उनका अनोखा अंदाज झलकता था। क्योंकि वे हर किसी को उसके व्यक्तित्व, ओहदे या रिश्ते के अनुरूप अलग-अलग तरह से खत लिखते थे।

ललित जी एक संवेदनशील, सहृदय इंसान थे और सही मायनों में विश्व नागरिक थे। इसलिए बेहतरीन पत्रकार होने के साथ-साथ अच्छे कवि, निबंधकार, समीक्षक और अनुवादक भी थे। उनकी कविताओं, यात्रा-वृत्तांतों, संस्मरणों और समीक्षाओं में पाठकों को विभिन्न रसों की अनुभूति होती थी। ललित जी ने अनेक विश्व कवियों की कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी किया।उनके दो कविता संकलन एवं पाँच निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी रचनाओं का भी विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

स्नातक

ललित सुरजन में नेतृत्व और पत्रकारिता की प्रतिभा संभवतः जन्मजात थी। अपने स्कूल के दिनों में सहपाठियों के साथ वे सामाजिक- सांस्कृतिक आयोजनों में बढ़-चढ़कर भागीदारी करते थे। कॉलेज जीवन में उन्होंने इन आयोजनों के साथ स्नातक नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। नाम के अनुरूप महाविद्यालयीन जीवन की गतिविधियों पर आधारित इस पत्रिका का संपादन-संयोजन ललित जी करते थे।

ऑडियो-वीडियो और तस्वीरें

नयी तकनीकी का कमाल है कि स्मृतियां केवल हृदय में नहीं, उपकरणों के जरिए भी संजो कर रखी जा सकती हैं। ललित जी के जीवन काल में हुए अनगनित कार्यक्रमों में बहुत से आयोजनों की ऑडियो या वीडियो रिकार्डिंग है। अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं में विशिष्ट व्यक्तियों के साथ उनकी ये जीवंत तस्वीरें अनमोल धरोहर हैं।

ललित जी के जीवन में पत्रकारिता, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां और सामाजिक कार्य सभी समानांतर एक जैसे महत्व के साथ चलते थे। साहित्य से लेकर समाजसेवा और पर्यावरण से लेकर जन शिक्षण तक अनेक संस्थाओं में उनकी सक्रिय और नियमित भागीदारी रही। इन संस्थाओं में वे निरंतर नए-नए आयोजन कराते थे और देश भर में अनेक संस्थानों के मंचों पर उनकी अनिवार्य़ उपस्थिति होती थी। इन संस्थाओं में दिए उनके भाषण इस बात को रेखांकित करते हैं कि समाज ने हमें जितना दिया, हमें उससे कहीं ज्यादा समाज को लौटाने का प्रयास करना चाहिए। उनके उद्बोधन वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का काम करते हैं।

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