पुष्पेन्द्र पाल सिंह
(प्रधान संपादक : म.प्र. माध्यम, भोपाल)
पत्रकारिता की बात आते ही ललित सुरजन जी का चेहरा सामने उभर आता है। पत्रकारिता से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने ललित जी की पत्रकारिता से कुछ सीखा न हो। ललित जी को छात्र जीवन से ही सुनने और पढ़ने का मौका मिलता रहा है। उनसे मेरा बहुत लम्बा संपर्क रहा है। छात्र जीवन से ही हम उनसे किसी-न-किसी रूप में जुड़े रहे। उन्हें नजदीक से हमने पत्रकार और साहित्यकार के रूप में काम करते हुए देखा है। हमने एक पत्रकार के रूप में उनको सृजन करते हुए देखा है। मैंने जब यह याद करने की कोशिश की कि ललित जी से मेरा पहला परिचय कब हुआ? पहली मुलाकात और पहला परिचय दोनों में थोड़ा सा अंतर होता है। जब मैं विद्यार्थी था, डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में, तो उस समय मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ एक ही राज्य हुआ करते थे। छत्तीसगढ़ का गठन नहीं हुआ था और मध्यप्रदेश के प्रमुख अख़बारों में देशबन्धु का नाम लिया जाता था और उसके संवाददाता बाकायदा वहां सागर में होते थे। उनसे हमारी मुलाकात होती रहती थी। साथ ही देशबन्धु भी हमे पढ़ने को मिलता रहता रहता था। अख़बार के माध्यम से हम लोग अपने विद्यार्थी जीवन से ही थोड़ा-बहुत ललित जी के बारे में जानने-सुनने लगे थे और फिर जब हम पत्रकारिता पाठ्यक्रम करने के लिए पहुंचे तथा पत्रकारिता के विद्यार्थी बने, तब भी पत्रकारिता की तैयारी के लिए हम बाबूजी (आ.मायाराम जी), ललित जी और देशबन्धु को पढ़कर ही सबसे ज़्यादा जानकारियां हासिल करते थे।
ललित जी कि जो पत्रकारिता थी उसको हम बहुत गहरे रूप से देखते और समझते रहे हैं। उनके संपादक काल में देशबन्धु आकार लेता रहा। उसके अलग-अलग जो कंटेंट होते थे, उसको हम बड़े गहराई से देखते और उससे सीखते थे। 1996 में मैंने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में अध्यापक के रूप में ज्वाइन किया, तब मुझे ललित जी से पहली मुलाक़ात का मौका मिला। हालांकि मेरी एक भेंट ललित जी से पहले भी हुई थी क्योंकि सागर विश्वविद्यालय में जब जर्नलिज्म का विद्यार्थी था, तब एक लेक्चर देने के लिए विभाग में उन्हें आमंत्रित किया गया था, जिसे मुझे भी सुनने का मौका मिला था। उसी दौरान उनके बारे में जाना। ललित जी माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के महापरिषद के सम्माननीय सदस्य थे और उस सदस्य के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय जो कि देश का पहला पत्रकारिता विश्वविद्यालय था और हिंदी पत्रकारिता में सर्वाेच्च कार्य करने के लिए उसकी स्थापना की गई थी, उसको आकार देने वह उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। जब विश्वविद्यालय में मैं शिक्षक के रूप में काम कर रहा था, तब उनके साथ अच्छे से मिलने का हमे अवसर प्राप्त हुआ। वो हमारे लिए बड़े गौरव का क्षण था और उस समय मैंने उनके व्यक्तित्व को बहुत करीब से देखा और उसके बाद तो लगातार उनसे संपर्क होता रहा और फिर अंतिम समय तक उनसे मेरी बातचीत होती रही। कभी कवि सम्मेलनों, तो कभी अन्य मंचों पर उनसे मुलाकात होती रही। वे भोपाल जब भी आये, तब भी उनसे अक्सर मुलाकात होती रहती थी।
उनकी पत्रकारिता के बहुत से उदाहरण हमारे जेहन में है। उन्होंने जिस तरह की पत्रकारिता की, उससे हमे लगता था कि शायद ये काम देशबन्धु अथवा ललित सुरजन जी ही कर सकते हैं। हम लोग तो विद्यार्थी जीवन में भी देशबंधु पढ़ते थे और उसके बाद जब पत्रकारिता शिक्षक के रूप में काम शुरू किया, तब भी कई बार उनकी पत्रकारिता की शैली चर्चा में बनी रहती थी। ललित सुरजन जी के संपादन का ही प्रभाव था कि लगातार 10 वर्षों तक देशबन्धु को राष्ट्रीय स्तर का स्टेट्समैन ग्रामीण पत्रकारिता पुरस्कार मिला। ग्रामीण पत्रकारिता को नया आयाम देना ही ललित सुरजन जी की विशेषता थी। वो नए-नए विषयों पर रिपोर्टरों को काम करने के लिए कहते रहते थे। ये उनके संपादन में ही संभव था। देशबंधु समाचार पत्र को उन्होंने एक तरह से पत्रकारिता का प्रशिक्षण केंद्र भी बना दिया था और बहुत से लोगों को उन्होंने तैयार किया। उनका कहना था कि कोई भी रिपोर्टर कहीं भी जाये तो तैयारी के साथ जाए। इसलिए वे स्वयं तैयारी करवाते थे, उसके बाद उन्हें भेजते थे। उनका जो साहित्यिक योगदान था, वह भी उल्लेखनीय है। देशबन्धु का रविवारीय परिशिष्ट पूरी तरह से साहित्य पर केंद्रित होता था। वह दरअसल एक साहित्यिक पत्रिका की तरह था। उसमें फिल्म, संगीत, साहित्य, कविताएं, नाटक आदि होते थे।
कोई भी वक़्त हो, कोई भी मौका हो – ललित जी मालिक कम और सम्पादक ज़्यादा दिखाई देते थे, जो उनकी सबसे ख़ास बात थी। वे अपने कर्मचारियों और उनके परिवार की पूरी जानकारी रखते थे तथा उनकी ज़िम्मेदारियों को भलीभांति समझते थे। उनके व्यक्तित्व के इतने सारे आयाम हैं जिनपर हम घंटो चर्चा कर सकते है। उनको मैंने सदैव बहुत ही विनम्र, बहुत ही संवेदनशील, बहुत ही आत्मीय इंसान के रूप में पाया। आखिरी समय तक मेरी उनसे बातचीत होती रही। मैं उनसे हमेशा जुड़ा रहा। हमेशा वो पूरे उत्साह से लबरेज रहते थे। मुझे लगता है की ललित सुरजन जी का नाम इतिहास में दर्ज होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिए पत्रकारिता किस तरह की हो सकती है, इसके लिए वे पहले भी प्रेरणा देते थे और आगे भी देते रहेंगे। पत्रकारिता के मूल्यों को समझना हो तो ललित सुरजन जी को समझना आवश्यक है। उनकी स्मृतियों को भूला पाना बेहद मुश्किल है।
राजेश पांडेय
ललित जी के विराट व्यक्तित्व को शब्दों में समेटना बहुत कठिन है। उनकी शख्सियत के कई पहलू हैं। विविध रंग और तेवर हैं। वे एक साथ कई क्षेत्रों में सक्रिय थे। देशबन्धु के संपादन के साथ साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में उनकी निरंतर भागीदारी रहती थी। उनकी दृष्टि का विस्तार अनंत था। वे अपने समय से बहुत आगे थे। इसकी झलक अखबार के पन्नों में मिलती थी। जितने विविध विषयों पर नए कॉलम और फीचर देशबन्धु में प्रकाशित होते थे, शायद उस समय किसी अन्य हिंदी अखबार में नहीं होते थे। वे बाबूजी (देशबन्धु के संस्थापक-संपादक मायाराम सुरजन) की समृद्ध विरासत के सर्वथा योग्य उत्तराधिकारी थे। बाबूजी ने अख़बार को प्रतिष्ठा के जिस शिखर पर पहुंचाया, उस वैभव का उन्होंने और आगे विस्तार किया। ललित जी की सभी गतिविधियों में श्रेष्ठ मानवीय गुणों की झलक मिलती थी।
देशबन्धु में 25 वर्ष से अधिक समय गुजारने के साथ मुझे उन्हें कई बार नजदीक से देखने का अवसर मिला। उनसे संभवतः पहली मुलाकात 1972-73 में देशबन्धु, जबलपुर के बल्देवबाग स्थित दफ्तर में हुई थी। मुझे अखबार में आए बमुश्किल डेढ़-दो साल हुए होंगे। उन्होंने, मेरे काम, रुचि और पारिवारिक पृष्ठभूमि की बारीकी से जानकारी ली। अंतरराष्ट्रीय मामलों, विज्ञान, खेलों और फिल्मों में मेरी दिलचस्पी जानकर उन्हें इन विषयों पर लिखने का सुझाव दिया। शायद इसका ही प्रभाव था कि मैंने अंतरराष्ट्रीय विषयों और क्रिकेट पर लेखन की शुरुआत कर दी।
उनकी सक्रियता के दौर में देशबन्धु ने अखबारों की दुनिया में विशिष्ट पहचान बनाई थी। मुझे कई बार इसका अहसास हुआ। 1983 में भारत-पाकिस्तान के बीच नागपुर में क्रिकेट टेस्ट मैच था। मैं उस समय देशबन्धु, जबलपुर में पहला पेज देखता था। संपादक देवेंद्र सुरजन से मैंने आग्रह किया कि मैं टेस्ट मैच देखने नागपुर जाना चाहता हूं। वे तैयार हो गए। उन्होंने नागपुर में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश दुबे से कहकर प्रेस गैलरी के लिए प्रवेश पत्र की व्यवस्था कराई।
उन दिनों टेस्ट मैच के तीसरे दिन के बाद एक दिन खेल नहीं होता था। इसलिए मैंने खाली समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय जाने का निश्चय किया। वहां संयोग से संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस से मुलाकात हो गई। वे दक्षिण भारत के दौरे से लौटे थे। वे बिना किसी अपाइंटमेंट के मुझसे मिलने को तैयार हो गए। बातचीत के बीच अचानक उन्होंने पूछा – मायाराम जी कैसे हैं। इन दिनों कहां हैं। एक और वाकया देशबन्धु जैसे प्रादेशिक अख़बार की प्रसिद्धि के दर्शन कराता है। 1984 में प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और प्रेस फाउंडेशन ऑफ एशिया, मनीला ने नई दिल्ली में डेवलपमेंट रिपोर्टिंग पर एक सप्ताह की वर्कशॉप का आयोजन किया था। ग्रामीण पत्रकारिता में देशबन्धु की पहचान बन चुकी थी। ललित जी ने मुझे वर्कशॉप में भेजा। वहां कई अंग्रेजी और भाषाई अखबारों के रिपोर्टर आए थे। लगभग सभी देशबन्धु को जानते थे। उस समय अपने संस्थान को लेकर गौरव की अनुभूति होना स्वाभाविक थी।
देशबन्धु एक प्रादेशिक समाचार पत्र था लेकिन संपादकीय टिप्पणियों, खबरों के चयन, प्रस्तुतिकरण, कॉलम, फीचर, विशेषांकों, विशेषज्ञों के लेखों के मामले में उसका अंदाज किसी उत्कृष्ट राष्ट्रीय अखबार से कम नहीं था। इसके पीछे ललित जी और उनकी टीम की दृष्टि काम करती थी। अखबार की खबरों और अन्य सामग्री में निडरता, निष्पक्षता, संतुलन और सौम्यता झांकती थी। ये गुण ललित जी के व्यक्तित्व की पहचान थे। उनकी निर्भीकता लेखन के साथ सामान्य व्यवहार में दिखाई पड़ती थी। एक वाक़या है जिसका ज़िक्र उन्होंने “देशबन्धु के 60 साल लेखमाला” में किया है। 1979 में रायपुर में देशबन्धु के नए भवन के भूमि पूजन कार्यक्रम में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम लाल कौशिक ने ऐन मौके पर आने से इनकार कर दिया था। उनका नाम निमंत्रण पत्रों पर छप चुका था। एक रात पहले रायपुर सर्किट हाउस में ललित जी ने श्री कौशिक से मुलाकात के दौरान कहा- आज आप संसद सदस्य हैं, कल नहीं रहेंगे लेकिन देशबन्धु रहेगा और तब मैं पूछूंगा कि आपने हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया था।
कुछ और उदाहरणों पर गौर कीजिए। जुलाई-अगस्त 1997 में एक दिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का फोन आया। उन्होंने कहा, ललित जी सितंबर में पचमढ़ी में कांग्रेस का चिंतन शिविर है। इसमें आपका सहयोग चाहिए। श्री सिंह चाहते थे कि उस शिविर में किसी एक समय के भोज का आयोजन देशबन्धु की ओर से हो। ललित जी का जवाब था – दिग्विजय जी यह तो आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं। प्रेस वाले क्यों राजनीतिक दल के कार्यक्रम मेें लंच – डिनर देंगे। दिग्विजय सिंह ने कहा लेकिन दूसरे अख़बार तो दे रहे हैं। ललित जी ने कहा, वे दे रहे होंगे। उनको पद्मश्री चाहिए। राज्यसभा में जाना होगा। और भी कोई काम होगा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। मुझसे तो यह नहीं होगा। ज़ाहिर है, वे थोड़े से लाभ के लिए अपने सम्मान और गरिमा से समझौता नहीं कर सकते थे। इसी तरह 2003 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के लिए देशबन्धु को कांग्रेस पार्टी के विज्ञापन जारी नहीं किए गए थे। ललित जी ने मुख्यमंत्री अजीत जोगी को फोन किया। जोगी जी ने कहा, अमित से बात कर लीजिए। ललित जी का जवाब था, अमित से बात करने का सवाल ही नहीं। आपको विज्ञापन देना है तो दीजिए, वरना अखबार आपकी कृपा के बिना भी चल जाएगा।
किसी मुख्यमंत्री से इतनी बेबाकी से बिरले ही किसी अख़बार का मालिक या संपादक ही बात कर सकता था। इस साहस के पीछे नैतिकता, आदर्शों, मूल्यों और पेशे की गरिमा का कवच दमकता था। देशबन्धु ने अखबार की आड़ में किसी अन्य कारोबार को आगे नहीं बढ़ाया। इसकी झलक अखबार के तेवरों और ललित जी के लेखन में जगह-जगह पर मिलती है। उस समय दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। देशबन्धु को अपेक्षा के अनुरूप राज्य सरकार के विज्ञापन नहीं मिल रहे थे। वे इसका विश्लेषण करते हुए “देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इनकार” लेखमाला की एक किश्त में लिखते हैं- दिग्विजय सिंह अपने लिए राष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता बना रहे थे जिसमें देशबन्धु जैसे पूंजी विरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। उन्हें शायद अर्जुन सिंह के साथ हमारे संबंधों को लेकर भी संशय था क्योंकि उस समय मध्यप्रदेश से वे ही एक बड़े नेता थे जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बन सकती थी। व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी थी। यही आज का भी सच है।
उनकी लेखनी वर्तमान हालात और भविष्य की स्थितियों में झांकने की कोशिश करती है। राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक परिदृश्य के साथ पत्रकारिता की दुर्दशा का आईना भी पेश करती है। वे चौथा खंभा लेखमाला की एक कड़ी में लिखते हैं- दरअसल एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) की अवधारणा जिसने 1980 के आसपास भारतीय राजनीति में सेंध लगाना शुरू किया था, दस साल बीतते न बीतते उसका दमदार हस्तक्षेप हमारे नागरिक जीवन के लगभग हर पहलू में होने लगा था। समाचारपत्र व्यवसाय भी इसकी चपेट में आ चुका था। अखबार में संपादक नामक संस्था विलोपित हो रही थी तथा पूंजीपति मालिकों के नुमाइंदे पत्रकार बनकर सत्ताधीशों से रिश्ते बनाने लगे थे। राजनेता हों या अफसर उनके दैनंदिन कार्य इन नुमाइंदों की मार्फत सध जाते थे। उधर मालिकों के साथ उनकी व्यापारिक भागीदारी आम बात हो गई थी। दोनों पक्षों के लिए इसमें फायदा ही फायदा था। इस अभिनव व्यवस्था में वह अखबार इनके लिए गैर उपयोगी ही था जिसका कोई व्यावसायिक हित न हो और जिसकी रुचि इवेंट मैनेजमेंट की बजाय मुद्दों की पत्रकारिता करने की हो।
ललित जी का चिंतन मानवीयता, न्याय, समानता, स्वतंत्रता, उदारता, खुलेपन का पक्षधर था। वे सांप्रदायिकता, धर्मांधता, कट्टरता, संकीर्णता और किसी भी तरह के भेदभाव के खिलाफ थे। उन्होंने हमेशा अपने सहकर्मियों को काम करने की पूरी आजादी दी थी। वे वर्तमान कालखंड से आगे बढ़कर सोचने वाले स्वप्नदर्शी थे। उन्होंने हमेशा नई प्रतिभाओं और संभावनाशील लोगों को आगे बढ़ाया। वे देशबन्धु को मध्यप्रदेश का प्रतिनिधि अखबार बनाना चाहते थे। भोपाल में देशबन्धु को दोबारा स्थापित करने का सपना देखते थे। उन्होंने, इस मकसद से 1985 में भोपाल से साप्ताहिक देशबन्धु की शुरुआत की थी। रायपुर से आए गिरिजा शंकर संपादक थे। मुझे उनके सहयोगी के बतौर जबलपुर से भेजा गया था। 16 पेज के टेबलॉयड अख़बार ने पूरे प्रदेश में दस्तक दी थी। राज्य के लगभग सभी जिलों में उसके संवाददाता थे। साप्ताहिक देशबन्धु ने दैनिक अखबार के लिए अच्छी ज़मीन तैयार की थी। लेकिन, बदलते राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन और साधनों की कमी से दैनिक अखबार वांछित कामयाबी हासिल नहीं कर सका।
ललित जी ने मुझे देशबन्धु भोपाल में राजनीतिक संपादक और स्थानीय संपादक की जिम्मेदारी सौंपी थी। पूरे कार्यकाल में मुझे कभी भी किसी किस्म के दबाव का सामना नहीं करना पड़ा। काम करने की ऐसी छूट अकल्पनीय है। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद कभी मीटिंग में इन बातों का ज्यादा जिक्र नहीं होता था। संपादक से उनकी बातचीत खबरों, मुद्दों, कॉलम और अखबार के प्रस्तुतीकरण पर केंद्रित रहती थी। वे अपने सहयोगियों के काम में मीन-मेख निकालने की बजाय उसके अच्छे पहलुओं पर अधिक ध्यान देते थे। देशबन्धु में काम करने और प्रतिभा निखारने के जितने मौके मिलते थे, शायद वैसे बहुत कम हिंदी अखबारों में लोगों को नसीब होते होंगे। ललित जी अपने हर साथी की वास्तविक जरूरतों का ख्याल रखते थे। उनकी कोशिश होती थी कि स्टाफ़ को सभी जरूरी सुविधाएं और अवसर मिलें। सीमित संसाधनों के बावजूद देशबन्धु में आर्थिक रूप से समृद्ध अन्य अखबारों की तुलना में वेतन और सुविधाएं ठीक थीं।
मैंने 1998 में देशबन्धु छोड़कर दैनिक भास्कर, भोपाल में पत्रकारिता की अगली पारी शुरू की। उसके बाद भी उनसे लगातार संपर्क बना रहा। फोन पर देश- विदेश, समाज, पत्रकारिता सहित अन्य ज्वलंत मुद्दों पर उनसे चर्चा होती रही। उनसे बातचीत और उनके लेखन को पढ़ना किसी स्मरणीय सबक से कम नहीं रहता था। वे सही मायनों में आधुनिक पत्रकारिता के स्कूल थे। उनके पास असंख्य आइडिया रहते थे। देशबन्धु ने 1980 और 1990 के दशक में जिन आइडिया पर काम किया, उन्हें हम आज भी कई सफल अखबारों में नए कलेवर और साज-सज्जा के साथ लागू होते देखते हैं।
ललित जी से फोन पर मेरी अंतिम बातचीत उनके निधन से कुछ दिन पहले ही हुई थी। यह शायद नवंबर 2020 के अंतिम दिन थे। ललित जी दिल्ली में इलाज कराकर रायपुर लौटे थे। उन्होंने बताया, कि वे दीपावली के लिए रायपुर आए हैं। अब फिर दिल्ली लौटना है। वहां से लौटकर विस्तार से बात होगी। लेकिन वह दिन नहीं आया। 2 दिसंबर को उनके निधन की खबर मिली। हमारे जैसे लोगों के लिए वे महानायक थे। उनका मुस्कुराता, आत्मविश्वास से दीप्त चेहरा कुछ नया करने और लगातार जूझने की प्रेरणा देता है। हम तो कहेंगे, नमस्कार ललित जी ! फिर आना। आज की दुनिया में ललित जी जैसी शख़्सियत की बहुत ज़्यादा जरूरत है। मूल्यहीनता, निर्ममता और मतलब परस्ती के अंधकार में ललित जी की ऊर्जा, उत्साह और गरिमा अलग रास्ता दिखाते हैं।
गिरिजाशंकर
शायद 1970-71 की बात होगी। बाबूजी भारत-सोवियत मैत्री संघ (इस्कस) के प्रादेशिक प्रमुख थे। रायपुर के कॉफ़ी हाउस में इसी संस्था की बैठक थी, जिसमें मैं भी शामिल था। बैठक के बाद बाबूजी ने मुझसे कहा कि इस बैठक की एक खबर बना लो। बाबूजी ने यह मुझे काम क्यों सौंपा, पता नहीं क्योंकि मेरा पत्रकारिता से कोई नाता नहीं था। बहरहाल शाम को मैं ख़बर बनाकर उन्हें दिखाने देशबन्धु अख़बार – जिसके वे प्रधान संपादक थे, के दफ़्तर में गया। उन्होंने वह ख़बर पढ़ी और किसी को बुलाकर उसे अखबार में छपने भेज दिया। अगले दिन दो कालम में वह खबर छपी थी। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था कि मेरी लिखी खबर को बाबूजी ने बिना किसी संशोधन के पसंद किया और वह अख़बार में छप भी गई। मेरे पत्रकार बनने का इसे श्री गणेश कह सकते हैं।
तब ललित भैया हॉल में बैठते थे। बाबूजी के केबिन में उसके बाद मेरा निर्बाध आना जाना होने लगा। 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सीपीआई के बीच समझौता हुआ जिसके तहत रायपुर विधानसभा सीट कम्युनिस्ट पार्टी के सुधीर मुखर्जी के लिये कांग्रेस ने छोड़ दी थी और चुनाव में सहयोग भी कर रही थी। बाबूजी यानी मायाराम सुरजन का कांग्रेस व कम्युनिस्ट दोनों ही पार्टियों में अत्यधिक सम्मान था। लिहाजा इस चुनाव के वे एक तरह से समन्वयक थे। कम्युनिस्ट पार्टी में होने के कारण इस चुनाव के सिलसिले में मेरा बाबूजी के पास आना जाना और बढ़ गया। तब मुझे बाबूजी के क्रोध का कोई अनुमान नहीं था। हालांकि मुझे उनकी डांट जीवन में कभी नहीं झेलना पड़ी, जबकि उनके गुस्से की चर्चा मैं हर जगह सुनता रहता था।
काम के स्तर पर बाबूजी और ललित भैया के बीच कुछ असहमतियां रहती थी और मैं दोनों के बीच में सेतु का काम करता था, बावजूद इसके कि बाबूजी की निगाह में मैं ”ललित का आदमी“ था, बाबूजी के सुबह उठने से लेकर रात सोने तक मैं पूरे वक़्त उनके साथ रहता। आप सोच रहे होंगे कि मुझे ललित भैया पर लिखना है और मैं बाबूजी की बातें कर रहा हूँ। बाबूजी की बात तो करना ही था क्योंकि उनके बिना न मैं, और न ललित भैया कुछ थे। बहरहाल विधानसभा चुनाव के बाद बाबूजी का रायपुर रहना कम होने लगा और हॉल में बैठने वाले ललित भैया उनकी केबिन में बैठने लगे। ललित भैया से अधिक संपर्क नहीं होने के बाद भी बाबूजी की तरह कब उनसे मेरी निकटता हो गई, मुझे याद नहीं। हाँ, बाबूजी की तरह उनके पास मेरा आना जाना बढ़ता रहा और मैं उनके कुछ अधिक करीब होता चला गया।
इधर मेरी नौकरी जीवन बीमा में लग गई थी और मैं थियेटर में सक्रिय हो गया था। प्रख्यात नाटककार मोहन राकेश की स्मृति में नाट्य समारोह हमने आयोजित किया गया। तब तक ललित भैया से इतनी निकटता हो गई थी कि वे मेरे मार्गदर्शक से अभिभावक हो गए थे। दिसंबर की ठंड में एक दिन मैं और मेरा एक साथी सुबह 7 बजे समारोह की तैयारी में निकल रहे थे और उससे पहले ललित भैया से मिलने गए। यह मेरा लगभग रोज़ का सिलसिला बन गया था। हम लोग बातें कर रहे थे, तभी माया भाभी अंदर गई और अपने कमरे से एक शॉल लाकर मुझे ओढ़ाया और कहा कि इतनी ठंडी में बिना गरम कपड़े के तुम जा रहे हो। ऐसा दुलार तो मैंने अपने जीवन में पहली बार पाया था।
ललित भैया हमारे नाटकों में नियमित रूप से आते रहे। हालांकि तब उनका सार्वजनिक जीवन देशबंधु तक ही सीमित था। नाटक हो या न हो, मैं रोज ही शाम को ललित भैया के पास जाने लगा और उनके चेम्बर मैं बैठने लगा। बाबूजी या ललित भैया के चेम्बर में इस तरह जाना और वहां बैठना किसी के लिये भी आसान नहीं था। मैं तो अपनी नासमझी में ऐसा करता रहा और बाबूजी और भैया – दोनों ने मेरी नासमझी को मेरे अधिकार में बदल दिया। उनके द्वारा दिये गये इसी स्नेह भरे अधिकार के चलते मैं जीवन बीमा निगम की स्थायी सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर देशबन्धु में आ गया।
तब देशबन्धु नहरपारा में स्थित एक गोदामनुमा इमारत से निकलता था, जिसका का पूरा ढांचा लकड़ी का था। भौतिक साधनों के लिहाज से देशबन्धु उतना समृद्ध नहीं था, लेकिन बौद्धिक व पत्रकारिता के स्तर पर तब भी पूरे देश में देशबन्धु की अलग प्रतिष्ठा थी। बाबूजी यानी मायाराम सुरजन जी की जो प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि पत्रकारिता जगत में रही, वह बहुत कम पत्रकारों को हासिल हो पाती है। इस सम्मान और प्रतिष्ठा को ललित भैया ने न केवल कायम रखा बल्कि उसे और विस्तार दिया। बाबूजी और भैया के अलावा देशबन्धु में रामाश्रय उपाध्याय – जो पंडित जी के नाम से जाने जाते थे, राजनारायण मिश्र, सत्येन्द्र गुमाश्ता जैसे पत्रकार स्थायी स्तंभ थे जिनका अपना-अपना आभामंडल थे। इनके नियमित स्तंभों को पढ़ने व पसंद करने वाला अनेक व्यापक पाठक समूह हुआ करते थे।
ऐसे अति विशिष्ट और प्रतिभावान पत्रकारों के सानिध्य में अपनी पत्रकारिता शुरू करने का मौका ललित भैया ने मुझे दिया था जो किसी भी सुरक्षित, स्थायी और सरकारी नौकरी की तुलना में मुझे बेहतर लगा था। हालांकि उस समय की मेरी पारिवारिक और आर्थिक स्थिति ऐसा निर्णय लेने की इजाज़त नहीं देती थी। फिर भी ललित भइया और माया भाभी के स्नेह ने ऐसी ताकत मुझमें भर दी थी कि मैं दुस्साहिक निर्णय लेते हुए पत्रकारिता जैसे असुरक्षित पेशे में आ गया।
तब संपादक और रिपोर्टर के बीच जीवंत रिश्ता होता था। किसी और अखबार का तो पता नहीं लेकिन देशबन्धु में ललित भइया के साथ एक-एक खबरों को लेकर लगातार विमर्श होता। इस विमर्श में पत्रकारिता की जो सीख ललित भैया से मिली, वह किसी पत्रकारिता संस्थान व स्कूल में भी पाने की कल्पना नहीं की जा सकती। ख़बर कैसे और कहां से निकलती है, उसे कैसे डेवलप किया जाये, किन-किन कोणों से उसकी पड़ताल होनी है, उसकी भाषा क्या हो से लेकर खबर का सामाजिक सरोकार का ज्ञान ललित भैया से हर पल मिलता रहता।
पत्रकारिता के संस्कार उन्हें बाबूजी से विरासत में मिले थे। बाबूजी की तरह उन्होंने कभी फील्ड में जाकर रिपोर्टिंग की हो, ऐसा मुझे याद नहीं है, लेकिन फील्ड में रिपोर्टिंग कैसे की जाती है – इसके वे अपने आप में स्कूल थे। उनका पत्रकारिता का ज्ञान और उसकी व्यवहारिक समझ किसी को भी चमत्कृत कर देने वाला होता। फिर उनकी जानकारियों का कोष इतना समृद्ध था कि हर घटना का पूरा विवरण उन्हें कंठस्थ याद रहता। खासकर विश्व परिदृश्य का इतना ज्ञान उनको था कि वे इनसाइक्लोपीडिया लगते थे। आजकल जिस तरह हम लोग छोटी-मोटी जानकारियों के लिए गूगल बाबा की शरण में जाते रहते हैं, मैंने ललित भइया को कभी किसी संदर्भ ग्रंथ का सहारा लेते नहीं देखा, सब कुछ मय तारीख के उनकी स्मृति में समाया रहता।
उनकी याददाश्त का यह कमाल हर रोज तब देखने को मिलता जब संपादकीय लिखना होता था। हर घटना की पूरी पृष्ठभूमि और वर्तमान परिदृश्य वे धाराप्रवाह बोलते जाते और हम लोग, मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहते। उसमें जो जितना सीख सके, यह उस पर निर्भर करता था। दरअसल यही हमारी संपादकीय बैठक होती थी। संपादकीय तो पंडित जी लिखते थे, लेकिन उस पर चर्चा पूरी संपादकीय टीम करती थी।
प्रेस या पत्रकार की स्वतंत्रता क्या होती है, यह देशबन्धु में देखा जा सकता था। ख़बरों के स्तर पर, पेज ले-आउट के स्तर पर, खबरों की प्रस्तुति के स्तर पर पूरी छूट थी। बल्कि नये-नये प्रयोग के लिये ललित भैया स्वयं प्रोत्साहित करते थे। दिल्ली में पेज ले-आउट का एक माह का कोर्स था। भैया ने जब मुझे वहां जाने को कहा तो मेरा सवाल था कि रिपोर्टर का ले-आउट से क्या लेना-देना, तो उन्होंने कहा कि रिपोर्टर को यह समझ भी होनी चाहिए कि पेज पर उस ख़बर को कैसे प्रस्तुत किया जाए। पत्रकारिता का देश में कहीं भी आयोजित होने वाला कोई भी प्रशिक्षण कार्यक्रम हो, ललित भैया हम लोगों को अख़बार के खर्च पर वहां भेजते थे।
तब ग्रामीण पत्रकारिता जैसी कोई विधा विकसित नहीं हुई थी। इस विधा को ललित भैया ने पूरे देश की पत्रकारिता में स्थापित किया। बस्तर के आदिवासी जीवन की रिपोर्टिंग पर मुझे स्टेट्समेन का राष्ट्रीय ग्रामीण पत्रकारिता पुरस्कार मिला। लगभग एक दशक तक यह पुरस्कार हर वर्ष देशबन्धु के रिपोर्टरों को मिलता रहा। फांसी की आंखों देखी रिपोर्टिंग करने का दुर्लभ अवसर ललित भइया के प्रोत्साहन और सीख के चलते हमें मिल सका।
ख़बर कैसे निकलती है, इसका एक उदाहरण देना जरूरी है। एक दिन देशबन्धु में ‘संपादक के नाम पत्र’ स्तंभ में चार-पांच लाइन की एक चिट्ठी छपी थी कि रायगढ़ ज़िले के लुड़ेग में दो आने में टोकरा भर टमाटर बिक रहा है। इस पत्र पर उनकी नजर पड़ी और इस खबर के लिये मुझे रायगढ़ जिले के दुर्गम आदिवासी इलाके में भेज दिया, जहां तक पहुंचने के लिये आवागमन के साधन तक सुलभ नहीं थे। वहां मैंने देखा कि एक रुपये में 10-15 किलो टमाटर उड़ीसा, बिहार, बंगाल आदि के व्यापारी खरीद कर ट्रकों में भरकर ले जा रहे हैं। लौटकर मैंनेरिपोर्ट तैयार की ओर जब वह प्रकाशित हुई तो पूरे देश में तहलका मच गया। तब देशबन्धु की विश्वसनीयता का आलम यह था कि ख़बर पढ़कर अगले दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह उस गांव पहुंच गए और टमाटर की उचित कीमत दिलाने व साॅस- केचप फैक्ट्री खोलने की घोषणा की। यह और बात है उस घटना को बीते 4 दशक हो गए लेकिन कुछ नहीं खुला।
खबरों को लेकर बाबूजी से जुड़ी एक घटना का जिक्र समीचीन होगा। 1977 के लोकसभा चुनाव हो रहे थे। चुनाव प्रचार के दौरान आधी रात को दो दलों के कार्यकर्ताओं के बीच पथराव और चाकूबाजी की घटना हो गई। हम लोग नाइट ड्यूटी में थे। मुझे देशबन्धु में पूर्णकालिक हुए एक ही साल हुआ था। इस खबर को किस तरह दिया जाए, मुझे समझ में नहीं आ रहा था। मैंने बाबूजी को फोन लगाया। वे नींद से उठकर रात एक बजे प्रेस आये और पूरी खबर उन्होंने खुद बनाई। ऐसा कोई अखबार मालिक नहीं खांटी पत्रकार ही कर सकता था। बाबूजी और ललित भैया को हमने ऐसे ही खांटी पत्रकार और संपादक के रूप में देखा और उनसे पत्रकारिता सीखी।
बाबूजी और ललित भैया देशबन्धु के मालिक भी थे लेकिन उनकी पत्रकारिता पर उनका मालिक होना कभी हावी नहीं हुआ। दल्ली राजहरा में निजी ठेकेदारों के खिलाफ शंकर गुहा नियोगी का आंदोलन चल रहा था। फील्ड में जाकर मैंने रिपोर्ट तैयार की। उस खबर को रुकवाने के लिये कुछ ठेकेदार बाबूजी के पास पहुंचे और एक बड़ी राशि देशबन्धु की आजीवन सदस्यता के लिये देने की पेशकश की। उन दिनों छपाई की नई मशीन खरीदने के लिये बाबूजी खुद गांव-गांव शहर जाकर आजीवन सदस्य बनाने में लगे हुए थे। उस दौर में भी उन्होंने ठेकेदार की पेशकश ठुकरा दी और अगले दिन पूरे पेज पर शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई।
एक और वाकया, प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह अपने एक महत्वाकांक्षी राजनीतिक कार्यक्रम में सोनाखान आ रहे थे। मैंने वहां के आदिवासियों की दुर्दशा पर रिपोर्ट तैयार की थी। बाबूजी का अर्जुन सिंह बहुत आदर करते थे तथा दोनों के बीच बहुत घनिष्ठ संबंध थे। चूंकि वह स्टोरी अर्जुनसिंह को आहत करने वाली थी, इसलिये मुझे लगा था कि यह रोक दी जायेगी। ललित भैया ने कॉपी देखी और उसे और धारदार बनवाया। वह स्टोरी उसी दिन पहले पेज पर छपी जिस दिन मुख्यमंत्री आने वाले थे। पत्रकारिता का यह साहस देश की पत्रकारिता में दुर्लभ था और यही साहस बाबूजी और ललित भैया ने हम लोगों में पैदा किया।
देशबन्धु अपने साप्ताहिक साहित्यिक अंक के लिये जाना जाता था। ललित भैया स्वयं कवि थे, लेकिन इन अंकों के संपादन में वे छत्तीसगढ़ अंचल के वरिष्ठ रचनाकारों को जोड़ते।देशबन्धु का होली, दीपावली अंक का प्रकाशन संग्रहणीय होने के साथ-साथ किसी उत्सव से कम नहीं होता था। शहर व अंचल के दर्जनों साहित्यकार व बुद्धिजीवी देशबन्धु कार्यालय में एकत्र होते और मिलकर अंक की तैयारियां करते। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता जिसमें सबका एक साथ भोजन करना व गप्पें लगाना शामिल रहता। कवि और लेखकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार करने में ललित भैया और देशबन्धु का महत्वपूर्ण योगदान रहा। प्रगतिशील लेखक संघ तथा मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अगुवाई करते हुए उन्होंने पूरे छत्तीसगढ़ के गांव-गांव तक साहित्यिक चेतना पैदा करने का ऐतिहासिक काम किया। उनकी यह भूमिका बाबूजी की परंपरा का विस्तार था।
किसी संस्थान को परिवार कैसे बनाया जाता है, यह ललित भैया के प्रबंधन का अद्भुत गुण था। संपादकीय व प्रबंधन विभाग से इतर, कंपोजिंग, प्रिंटिंग तथा अन्य यूनिटों में काम करने वाले कर्मचारियों के स्कूली बच्चों की यूनिफार्म, किताब, कापी आदि की व्यवस्था वे स्वयं करते थे। (तब सरकारें यह काम नहीं करती थी) इतना ही नहीं उन बच्चों की प्रगति रिपोर्ट खुद देखते और जो बच्चा पढ़ाई में कमजोर होता, उसके लिये अतिरिक्त पढ़ाई की व्यवस्था करवाते तथा उन सभी बच्चों की आगे की पढ़ाई सुनिश्चित करते थे। शराब या किसी भी नशे से उन्हें नफ़रत थी। वे कोशिश करते कि देशबन्धु में काम करने वाले ऐसे व्यसनों से दूर रहें। फिर भी जो ऐसा नहीं कर पाते थे, उनका वेतन उनको न देकर उनके घर भिजवाया करते थे। गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस आदि में जब अखबार की छुट्टियां होती, उस दिन पूरे प्रेस के सभी कर्मचारियों को सपरिवार पिकनिक पर ले जाते ताकि सभी पारिवारिक रूप से जुड़ जाएं। यह परंपरा देशबन्धु की विशिष्ट पहचान बन गई थी।
पत्रकारिता के शुरूआती दौर में बिगड़ने और बहकने के नाना प्रकार के ख़तरे हर पत्रकार के सामने होते हैं। ऐसे दौर में इस ख़तरे से हमेशा बचे रहना मुझे बाबूजी और ललित भैया ने सिखाया और यही सीख ही मेरी ताकत रही है।
दिवाकर मुक्तिबोध
तीन दिसंबर को देशबन्धु परिसर में दोपहर के वक्त ललित सुरजन जी का अंतिम दर्शन मेरे लिए किसी देव-दर्शन से कम नहीं था। काँच से घिरे ताबूत में उनकी मृत देह रखी हुई थी। उन्हें गुजरे करीब बीस घंटे हो चुके थे लेकिन शांत चेहरे पर वैसी ही ताज़गी थी जिसे मैं बरसों से देखता आ रहा था। कुछ पल मैं उनके ताबूत के पास खड़ा रहा। एकटक उन्हें देखते। मन में एक लहर सी उठी – शायद बोल पड़ेंगे – दिवाकर , कैसे हो ! पर नहीं। वे चले गए थे। एकाएक। अपने पीछे एक विराट शून्य छोड़कर।
मुझे इस बात का सख़्त अफ़सोस है कि मैं उनसे लम्बे समय से नहीं मिल पाया। कोरोना ने दूरी बढ़ा रखी थी और जब वाट्सएप पर बीमारी की ख़बर मिली तो वे विशेष विमान से दिल्ली रवाना होने की तैयारी में थे। फिर मैसेज आया कि वे अस्थि रोग से पीड़ित हैं जिसके इलाज में काफ़ी समय लगेगा। अतः मित्रों से दूर रहेंगे पर फोन पर संदेश व ज़रूरी होने पर बातचीत होती रहेगी। वे अस्पताल में भरती हुए। मैंने चिंता व्यक्त की, जल्दी स्वस्थ होने शुभकामनाएं दीं। प्रत्युत्तर में उन्होंने आभार जताया। इसके बाद कोई संवाद नहीं हो सका। दरअसल मैं उनका दोस्त नहीं था, अनुज था। साथ होने पर औरों को वे मेरा परिचय वे इसी तरह देते थे। यह मेरे लिए बहुत सम्मान की बात थी। आख़िरकार दोस्त दोस्त होता है, अनुज अनुज। अनुज था पर मेरी उनसे बातचीत कम ही होती थी। लेकिन प्रत्येक प्रसंग पर वे घर जरूर आते थे। वे यह भी कहते थे, जब भी बुलाओगे, आऊँगा।
मुझे इस बात का भी अफसोस है कि दीवाली मनाने वे रायपुर आए पर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी। जिन दोस्तों को इसकी सूचना मिली ,उन्होंने जरूरी नहीं समझा कि इसे साझा किया जाए। यह तो ज़ाहिर है कि ललित जी ने अपने रायपुर आगमन की ख़बर नहीं लगने दी। शायद एकांतवास चाहते थे क्योंकि उन्हें चाहने वाले मित्रों, हितैषियों व शिष्यों की संख्या इतनी विशाल थी कि घर में मिलने-जुलने वालों का तांता लग जाता। इनमें मैं भी शामिल रहता। सूचना नहीं थी इसलिए मुलाक़ात का अवसर हाथ से निकल गया।
29 नवंबर को वे चिकित्सकीय परीक्षण के लिए नई दिल्ली के अस्पताल में थे। यह सामान्य प्रक्रिया थी लेकिन एकाएक मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की उनके स्वास्थ्य संबंधी चिंता व शुभकामना संदेश से आशंकाएं घनीभूत हुई कि स्थिति ठीक नहीं है। फिर ब्रेन हेमरेज व बाद में मृत्यु की ख़बर किसी सदमे से कम नहीं थी। मन में सन्नाटा सा खिंच गया। एक अजीब सी नैराश्य की भावना। बाद के चंद घंटे बड़े ख़राब गुजरे। बस ललित जी के साथ बीता देशबन्धु का समय याद आता रहा।
ललित जी ने छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को किस तरह समृद्ध किया, यह बताने की ज़रूरत नहीं। इसके गवाह हैं वे पीढ़ियां, वे पत्रकार जो उनके मार्गदर्शन मे दीक्षित हुए। चाहे वे देशबन्धु स्कूल से निकले हों या इतर समाचार संस्थानों मे कार्यरत रहें हों। सभी ने उनसे कुछ न कुछ, बहुत कुछ सीखा। वे अपने आप में पत्रकारिता के विश्वविद्यालय थे। इस विश्वविद्यालय से मैं भी दीक्षित हुआ। वे सभी से स्नेह रखते थे पर मैं उनका स्नेह पात्र इसलिए भी था क्योंकि मैं उस व्यक्ति का बेटा था जिनकी कविताओं पर , जिनके रचनाकर्म पर वे मुग्ध थे। मुझे याद है वह पहली मुलाकात जब मैं बीएससी प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था और वे शायद एम ए फाइनल के। बूढ़ापारा स्थित नई दुनिया ( बाद मे देशबन्धु ) में जब उनसे मेरा परिचय पिताजी के नाम के साथ कराया गया तो वे बेहद खुश हुए।
यह हमारा सौभाग्य है कि हिंदी साहित्य के रचनाकारों से जब कभी मेल-मुलाकात होती है तो वे यह जानकर आनंदित होते है कि हम एक ऐसे व्यक्ति की संतानें हैं जिन्हें युगप्रवर्तक कहा जाता है। ललित जी का भी अभिभूत होना इस दृष्टि से स्वाभाविक था। पचास बरस पूर्व हुई यह संक्षिप्त मुलाकात जल्दी ही प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गई जब मैने1969-70 में देशबन्धु में संपादकीय सहकर्मी के रूप में कदम रखा। अब वे संपादक के साथ ही बड़े भाई भी थे। उनसे पारिवारिक रिश्ते कायम हुए। मैं जितने वर्ष भी देशबन्धु में रहा, उनसे कुछ न कुछ नया सीखता रहा। उन्हें हमेशा पढ़ता रहा। उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक समझ इतनी गहरी थी कि समसामयिक घटनाओं पर उनका विश्लेषण बेहद सटीक व तथ्यपरक हुआ करता था।
देशबन्धु से अलग होने के बावजूद मैं उनका नियमित पाठक था। बीच-बीच में फोन पर अपनी प्रतिक्रिया देता। वे बोलते कुछ नहीं थे पर उनकी आवाज में प्रसन्नता का पुट बखूबी महसूस होता था। प्रसन्नता मुझे भी होती थी जब वे मेरे लिखे की तारीफ करते हालांकि ऐसे अवसर कम ही आते थे पर मुझे इस बात का संतोष रहता था कि वे भी मेरे पाठक हैं।
ललित जी ने खूब लिखा। अपने अखबार में नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के अलावा राजनीतिक टिप्पणियां, देशबन्धु के अब तक के प्रवास पर संस्मरण श्रृंखला। वे अच्छे कवि, लेखक, निबंधकार व यात्रा वृत्तांती भी थे। उन्होंने अपने प्रिय कवि गजानन माधव मुक्तिबोध जी पर भी समीक्षात्मक लेख लिखे। पिछले ही महीने दिल्ली में बीमारी के दौरान उन्होंने फ़ेसबुक पर वह जवाबी पत्र पोस्ट किया जो पिताजी ने सन 1961 में उन्हें लिखा था। उसे उन्होंने अमूल्य धरोहर बताया। अपने अंतिम दिनों में फ़ेसबुक पर उन्हें कविताएं पढते देखना-सुनना इस बात का संकेत था कि वे मानसिक रूप से बहुत मजबूत हैं तथा भयानक बीमारी कैंसर से लड़कर स्वस्थ हो रहे हैं लेकिन कविताओं से बेहद नज़दीकियों के बावजूद शायद उन्हें इस बात का मलाल था कि हिन्दी जगत में उन्हें कवि-लेखक के रूप में वैसे स्वीकार नहीं किया जिसके वे हकदार थे हालांकि प्रखर पत्रकार के रूप में देशभर में उनकी विशिष्ट पहचान थी। पत्रकार तो वे अद्वितीय थे ही, कवि भी उतने ही महत्त्वपूर्ण। हालांकि उनके साहित्यिक पक्ष का वास्तविक मूल्यांकन अभी होना शेष है।
विषयांतर के साथ एक अंतिम बात। छत्तीसगढ़ छोटा राज्य है पर प्रतिभाओं का विराट आकाश इस धरती पर मौजूद है, प्रत्येक क्षेत्र में मौजूद है। कला, साहित्य, संस्कृति के मामले में देश-दुनिया में इस राज्य की पहचान है। लेकिन अपनों को अपनाने में, उन्हें सम्मान देने में सत्ता प्रतिष्ठान ग़रीब है। क्या कारण है कि ललित जी जैसा समर्थ पत्रकार कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति नहीं बन सका जबकि उसकी स्थापना हुए पन्द्रह वर्ष बीत चुके हैं। देश के बहुत बड़े कवि व उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल अब तक भारत सरकार के राष्ट्रीय अलंकरण से वंचित क्यों हैं ? विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक कलावंत हैं जिनकी प्रतिभा को नया आकाश मिलना चाहिए। यहां बात क्षेत्रीयतावाद की नहीं है, यकीनन विद्वत्ता को इसके दायरे में नहीं बांधा जा सकता लेकिन यदि राज्य में प्रतिभाएं मौजूद हैं तो चयन में प्राथमिकता उन्हें मिलनी चाहिए। यह सरकार का दायित्व है। इसके लिए बेहतर समझ व इच्छा-शक्ति होनी चाहिए , सत्ता भले ही किसी भी राजनीतिक पार्टी की हो।
पन्द्रह वर्षों तक राज्य में भाजपा का शासन रहा, पत्रकारिता विश्वविद्यालय भी उसी ने शुरू किया। कितना अच्छा होता यदि इस विश्वविद्यालय के पहले कुलपति का सम्मान यहां के किसी वरिष्ठ व नामचीन पत्रकार को मिलता। वे ललित सुरजन हो सकते थे या गोविंद लाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र ,राजनारायण मिश्र या बसंत कुमार तिवारी। बहुत से नाम हैं जिन्होंने जीवन संघर्ष में तपकर पत्रकारिता को नया आयाम दिया है। नई ऊंचाइयां दी हैं। पर यह नहीं हो सका। ललित जी केवल विश्वविद्यालयों की कार्यपरिषद के सदस्य बनकर रह गये। चूंकि अब राज्य में कांग्रेस की सरकार है अतः उम्मीद की जा सकती है कि इन क्षेत्रों में बहुत बेहतर काम होगा तथा योग्य व्यक्ति ही सम्मानित होंगे।
( ललित जी पर बस इतना ही। दरअसल इसी वर्ष 25 जुलाई को वरिष्ठ पत्रकारों पर केंद्रित स्मरण श्रृंखला ‘” कुछ यादें, कुछ बातें ” में उन पर विस्तृत लेख प्रकाशित है। शुरुआत उन्हीं से की गई थी जिसे ब्लॉग पर देखा जा सकता है।)
दविन्दर कौर उप्पल
1984- 85 का वर्ष; सागर विश्वविद्यालय में नए-नए खुले पत्रकारिता विभाग में अध्यापन का दूसरा वर्ष था। अकेली नियमित अध्यापक होने के साथ मैं विभाग की अध्यक्षता भी कर रही थी। ईमानदारी से पढ़ाना एक आदत थी और अध्यक्ष के रूप में विभाग को विकसित और बेहतर करने के लिए बहुत सी योजनाएं बनाना और उन्हें पूरा करने की चुनौती भी थी।
उस समय तक, विभाग से अस्थाई जुड़े, स्थानीय पत्रकार और विभाग के विकास के लिए हमेशा सही और ईमानदार सलाह देने वाले, श्री भुवन भूषण देवलिया जी ने मुझे प्रदेश के स्थापित अख़बारों के संपादकों को विभाग से जोड़ने की सलाह दी। उनकी सूची में नई दुनिया के अभय छजलानी, मदन मोहन जोशी, रामशरण जोशी के साथ-साथ देशबन्धु से मायाराम सुरजन जी और ललित सुरजन जी थे। मेरी जानकारी में, उस समय प्रदेश के केवल इन्हीं दोनों समाचार पत्र संस्थानों के अपने पुस्तकालय थे।
” देशबन्धु से पिता – पुत्र में से किसको जोड़ा जाए? ” मेरे इस प्रश्न पर देवलिया जी ने कहा – ” दोनों को जोड़िए “।
विश्वविद्यालय के तात्कालिक कुलपति कुशल प्रशासक, श्री एम.बी. मल्होत्रा ने, नए स्थापित विभाग को सफलता से चलाने के लिए, मुझे किसी भी योग्य अतिथि विशेषज्ञों को बुलाने की पूरी स्वतंत्रता दे दी थी। मैंने मायाराम सुरजन जी को विभाग के “बोर्ड ऑफ स्टडीज” से जोड़ा और ललित सुरजन जी को यू.जी.सी. की “एक्सटेंशन लेक्चर स्कीम” के अन्तर्गत तीन व्याख्यान के लिए बुलाया। इस तरह देशबन्धु समाचार पत्र से जुड़ने की शुरुआत हुई।
जिस तरह बहुत से स्थापित पत्रकारों में विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभागों के अध्यापकों को कमतर समझने और स्वयं को श्रेष्ठ मानने का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है, वैसा ललित सुरजन जी में भी थोड़ा रहा होगा शायद। पर विभाग के दो दिन के आतिथ्य के और मेरे विद्यार्थियों से मिलने के बाद, हमारे विभाग और मेरे प्रति उनकी सोच बदल गई। उन्होंने प्रतिवर्ष, हमारे किन्हीं दो विद्यार्थियों को, छोटे से वजीफे और रहने की व्यवस्था के साथ इंटर्नशिप का अवसर देने का निमंत्रण दिया।
इसके बाद ललित सुरजन जी और देशबन्धु से थोड़ा बहुत संपर्क बना रहा। उनके नेतृत्व में, देशबन्धु ने ग्रामीण पत्रकारिता में, ऐतिहासिक काम किया।
2008 में, ललित सुरजन जी से मेरी आखिरी मुलाकात हुई थी। किसी चयन समिति में विशेषज्ञ बनकर रायपुर जाना हुआ था। विनायक सेन जेल में थे और मुझे उनकी पत्नी इलीना सेन से बात करने के लिए, उनका फोन नंबर चाहिए था। मैंने ललित सुरजन जी को फोन करके इलीना का नंबर मांगा तो उन्होंने मिलने के लिए शाम की चाय पर निवास पर बुला लिया। छत्तीसगढ़ में उस समय, देशबन्धु समाचार पत्र जैसी मूल्य आधारित पत्रकारिता, एक एक असहज स्थिति से गुजर रही थी। एक तरफ स्थितियों से समझौते करने वाले अखबार, तेजी से आगे बढ़ते हुए, एक दूसरे को पछाड़ने के मिशन में, समाचारों के उत्तेजक शीर्षक लगाने की पत्रकारिता लगे थे। उधर ललित सुरजन जी के लिखे संपादकीय और कविताओं दोनों में, मूल्य आधारित यथार्थ ही होता था।
जीवन के अंतिम समय तक अपनी रचनात्मकता में सक्रिय, ललित सुरजन जी वीडियो के माध्यम से अपनी लिखी और अपने द्वारा अनूदित कविताएं पढ़कर सुनाते रहे। उनके जीवन काल में देशबन्धु का आखिरी संपादकीय किसानों के पक्ष में था। और वीडियो पर उनकी पढ़ी आखिरी, हिंदी में उनके द्वारा अनूदित कविता – युद्ध के ख़िलाफ़ थी।
ललित सुरजन जी का इस तरह अपनी सक्रियता के बीच से यूं चले जाना कितना कुछ अधूरा छोड़ गया है।
स्मृतिशेष सुश्री उप्पल माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि में जनसंचार विभाग की अध्यक्ष थीं।
गोपाल राठी
अख़बारों की दुनिया में देशबन्धु का एक विशेष स्थान है l लोकतान्त्रिक मूल्यों में उसके दृढ़ विश्वास के साथ समाज और साहित्य से गहरे सरोकार के कारण उसकी अलग पहचान है l इस अख़बार के संस्थापक-संपादक बाबूजी यानी स्व.मायाराम जी सुरजन के बाद उसके प्रधान सम्पादक के रूप में श्री ललित सुरजन ने इस विरासत को आगे बढाने में महती भूमिका का निर्वाह किया l ललित भैया एक कुशल सम्पादक के साथ ही विचारक, लेखक, कवि और साहित्य सेवी थे l विभिन्न मुद्दों पर उनके लेखन से हम जैसे बहुत से लोग अपनी वैचारिक दिशा तय करते रहे l मेरी नज़र में अभी किसी हिन्दी अख़बार में उनके जैसा प्रखर और बहुमुखी प्रतिभा का कोई सम्पादक नहीं है l वे एक उम्दा कवि लेखक और पत्रकार थे l वे ऐसे बिरले सम्पादक थे जो अपने अखबार के अलावा अन्य अखबारों और पत्रिकाओं में भी नियमित लिखते थे l
देशबन्धु , देश के उन उँगलियों पर गिने जाने वाले अखबारों में है जिनका किसी तरह का कोई अन्य व्यापार नहीं है, जिसके संचालक स्वयं कलमजीवी पत्रकार रहे और जिनकी राज्यसभा में जाने या पद्म पुरस्कार प्राप्त करने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही l वर्तमान समय में जब मीडिया का कॉर्पोरेटीकरण हो चुका है तब एक स्वतंत्र अख़बार को ज़िंदा रखना आसान नहीं है l लेकिन ललित भैया के लिए पत्रकारिता एक मिशन थी , जो उनके सम्पूर्ण लेखन में झलकती है l सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से बहुत नज़दीकी थी लेकिन उन्होंने कभी इसका बेजा फायदा उठाने की कोशिश नहीं की l सरकारें बनती – बिगड़ती रहीं, लेकिन उनकी कलम की धार हमेशा जनता के पक्ष में झुकी रही l उनके लेखन में जनपक्षीय और प्रगतिशील मूल्यों और विचारों का विस्तार होता था l
स्व.मायाराम जी के ज्येष्ठ पुत्र ललित जी का पिपरिया से गहरा नाता रहा l उनका परिवार पिपरिया के समीपस्थ ग्राम खापरखेड़ा का मूल निवासी था l ललित भैया का जन्म उनके ननिहाल ग्राम उन्द्री, तहसील बुलढाणा जिला आकोला महाराष्ट्र में 22 जुलाई 1946 को हुआ था, लेकिन उनका बचपन खापरखेड़ा और पिपरिया में बीता l प्रारंभिक शिक्षा पिपरिया की जयप्रकाश प्राथमिक शाला में हुई l संयोग से में भी उसी स्कूल का विद्यार्थी रहा हूँ जहां अब एक व्यवसायिक काम्प्लेक्स बन गया है l अपनी पहली पाठशाला की स्थिति देखकर ललित भैया ने अपनी पीड़ा देशबंधु में लिखे एक लंबे लेख में व्यक्त की थी l
पिपारिया वासियों से सहज आत्मीयता और अपनापन उनके स्वभाव में थी l जो हर मिलने वाले को आल्हादित कर देती थी l आयु में वे हमसे बहुत बड़े थे और बौद्धिक स्तर में भी हम उनके पासंग नहीं थे लेकिन उनसे मिलकर हमने कभी अपने आपको बौना महसूस नहीं किया l यही ललित भैया की विशेषता थी l सोशल मीडिया पर मेरी सक्रियता को लेकर वे खुश रहते थे और कई बार अपनी असहमति से मुझे व्हाट्सएप / मैसेंजर पर जताते रहते थे l
वे जयप्रकाश प्राथमिक शाला पिपरिया में स्व. गुरुजी श्री खूबचन्द जी मंडलोई के विद्यार्थी थे l खूबचंद मंडलोई के नागरिक सम्मान और उनकी कृति के विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि के लिए उन्हें आमंत्रित किया तो विषम परिस्थितियों में सड़क मार्ग से रायपुर से पिपरिया आये थे l साथ मे माया भाभी भी थी l कार्यक्रम उनकी गरिमामय उपस्थिति में सम्पन्न हुआ था l यहां से लौटने के बाद उन्होंने अपनी पिपरिया यात्रा पर दो किस्तों में संस्मरण लिखे जो उनके पिपरिया से जुड़ाव का महत्वपूर्ण दास्तावेज है l
सबसे आत्मीय संस्मरण हमारी रायपुर यात्रा का था l गुरुजी खूबचन्द मंडलोई भिलाई में अपने बेटे के पास थे l उनका स्वास्थ्य लगातार खराब चल रहा था l गुरुजी जी सेहत देखने और उनसे मिलने पिपरिया से श्री तुलाराम बेमन प्रकाश मंडलोई किशोर डाबर और कैलाश सराठे और मैं स्वयं रायपुर होते हुए भिलाई गए l गुरुजी से भेंट हुई l उनके चेहरे की चमक बता रही थी कि वे हम लोगों से मिलकर अत्यंत प्रसन्न हुए थे l गुरुजी के यहां से हमने ललित भैया को फोन किया कि गुरुजी गंभीर रूप से अस्वस्थ है हम उन्हें देखने और मिलने भिलाई आये है l शाम को रायपुर से वापसी की ट्रेन पकड़ना है l अगर आप मिल सकें तो हमें खुशी होगी l ललित भैया ने कहा कि आओ और सबको लेकर आओ l हम शाम को सभी लोग उनके निवास पर पहुंचे तो ऐसा लगा कि भैया और भाभी हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे l
चाय-नाश्ते के बाद उन्होंने हम लोगों से पूछा – “तुम लोग रात के खाने का क्या करोगे” ? हमने कहा – ” भैया; हम सब लोग दो टाइम की पूड़ी अचार लेकर चले है इसलिए कोई समस्या नहीं होगी” l उन्होंने कहा – ” तुम्हारी पूड़ी हमें दे दो, हम खा लेंगे ” l हम बड़े धर्म संकट में पड़ गए कि अब क्या करें ? भैया हमारी दुविधा समझ गए और तत्काल भाभी के साथ नीचे आए और हम लोगों के झोले से पूड़ी अचार और खाने की सारी सामग्री बाहर निकलवा ली l और हम पांच लोगों के लिए तुरंत तैयार कराए भोजन के पैकेट रख दिए l जिनमें पूड़ी-सब्जी, अचार, मीठा-नमकीन, पानी की बोतल – सब था l हम मना ही करते रहे और भैया भाभी ने सारे पैकेट हमारी गाड़ी में रखवा दिए l सबको छोड़ने भैया भाभी और भाभी के छोटे भाई राजेंद्र चांडक जी हमें छोड़ने गाड़ी तक आए l उनकी इस आत्मीयता और अपनेपन से हम सब इतने अभिभूत हुए कि रास्ते भर हम उनकी ही चर्चा करते रहे l वे हमें अपने से छोटों की चिंता करने वाले अभिभावक नज़र आए l
मैंने उन्हें अप्रैल में देशबन्धु की वर्षगांठ की बधाई देने के लिए फ़ोन किया तो उनसे काफी लंबी चर्चा हुई थी l मैंने उन्हें बताया कि देशबन्धु और मेरी उम्र बिल्कुल एक है l महज दो दिन का फ़र्क है l देशबन्धु की शुरुआत 17 अप्रैल 1959 में राम नवमी के दिन हुई थी जबकि मेरा जन्म 15 अप्रैल का है l इसके बाद सिर्फ व्हाट्सएप पर संवाद होता रहा l उनके स्वास्थ्य को देखते हुए मैंने ही फ़ोन करना उचित नहीं समझा l उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति और वैचारिक प्रखरता का यह कमाल था कि वे अस्पताल में आई सी यू के बिस्तर पर बैठकर कविता सुनाते रहे ,देशबन्धु के लिए सम्पादकीय और लेख लिखते रहे,समसामयिक घटनाक्रम पर नज़र रखते हुए, अध्ययन करते रहे सोशल मीडिया में उपस्थित रहेl गम्भीर बीमारी के चलते रेडिएशन और कीमोथेरेपी की चिकित्सा की सघन प्रक्रिया से गुजरते हुए भी वे वैचारिक रूप से अंत तक सतत सक्रिय रहे l
ललित भैया हमारी वैचारिक ऊर्जा के प्रमुख स्रोत थे l उनका वियोग हम जैसे कई लोगो के लिए व्यक्तिगत क्षति है l उनका स्नेह हमेशा मिलता रहा, यह हमारा सौभाग्य है l ललित भैया को उनके परिजन दादा भैया कहकर बुलाते थे, लेकिन अपने परिवार के साथ-साथ वे एक वृहद वैचारिक परिवार -जिसमें हम सब शामिल हैं, के भी दादा भाई थे l उनके चले जाने से मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में जनपक्षीय पत्रकारिता का एक मजबूत स्तम्भ ढह गया l वे अपने पीछे जो समृद्ध वैचारिक विरासत छोड़ गए है उसे संवारना और उसे विस्तार देना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी l
लेखक विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लम्बे समय तक एकलव्य संस्था से जुड़े रहे हैं।
सचिन शर्मा
देशबन्धु के प्रधान संपादक ललित सुरजन जी, जिन्हें हम ‘बड़े भैया’ कहकर पुकारते थे, का निधन हम सबके के लिए, चाहे वह किसी भी तबके के हो बड़ा दुखद है। मेरे लिए देशबन्धु और बड़े भैया – दोनों ही काफ़ी महत्व रखते हैं। मेरी नियति शायद पत्रकार बनने की ही थी और इसीलिए अख़बार पढ़ने का शौक मुझे बचपन से रहा। रायपुर आने के बाद मेरे पिता जी ने देशबन्धु अखबार शुरू करवाया था और इसे मैं निरंतर पढ़ता रहा। उस समय मैं मेरी उम्र कम थी फिर भी मुझे कई समाचार धुंधले रूप से स्मरण में है। मुझे याद है कि उस समय देशबन्धु के द्वारा कई जनसमस्याओं को प्रमुखता से उठाया जाता था और श्रृंखलाबद्ध तरीके से लंबे समय तक उठाया जाता था और वह परिणाम तक पहुंचता भी था। यह बड़े भैया की जनोन्मुखी पत्रकारिता का नतीजा था। स्नातक हो जाने के बाद मैं लंबे समय तक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगा रहा। कुछ ऐसी परिस्थितियां आई कि कुछ मुद्दों पर हमें आंदोलन करना पड़ा, जिसे देशबन्धु ने प्राथमिकता के साथ स्थान दिया।
इसके साथ ही देशबन्धु के साथ फिर से जुड़ाव हुआ। तभी मैंने पत्रकारिता में आने का निर्णय लिया। एक वरिष्ठ पत्रकार के माध्यम से मैंने देशबन्धु के दफ्तर जाकर पत्रकारिता सीखने की इच्छा जताई। मेरी मुलाकात पहले राजीव जी से मुलाकात हुई, उसके बाद बड़े भैया से और मैंने वहां काम करना शुरू कर दिया। पहले विज्ञप्ति बनाना सीखा, फिर समाचार डेस्क पर काम किया। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि जल्द रिपोर्टिंग का मौका मिल गया। मैंने यूनिवर्सिटी बीट से काम करना शुरू किया। पूरी मेहनत और समर्पण के साथ काम करने की बड़े भैया की समझाईश मेरे लिए मूल मन्त्र थी। एक दिन उन्होंने कहा कि ‘‘विश्वविद्यालय में समस्याओं के अलावा कुछ सकारात्मक खबरें भी हैं, वहां पर विभिन्न विभागों में अच्छे शोध होते हैं, उन पर काम करो’’ उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने अच्छे-अच्छे शोध कार्यों पर रिपोर्ट्स तैयार कीं जो पहले पन्ने पर प्रकाशित हुईं। इस तरह अख़बारों में एक नई परंपरा की शुरुआत हुई।
ठंड और प्रदूषण पर आधारित मेरी एक स्टोरी मेरे नाम से छपी, जिसे काफी सराहना भी मिली। यह बड़े भैया की सकारात्मक सोच और व्यापक दृष्टिकोण का परिणाम था कि जिसके कारण पत्रकारिता में (तत्कालीन समय में) समाचारों या स्टोरी का नया ट्रेंड शुरू हुआ और मुझे यह भी पता लगा कि समाचार पत्र में जनसमस्या (जिसे नकारात्मक खबर भी कह दिया जाता है) के अलावा समाचारों का दूसरा रूप भी होता है, जिसके माध्यम से हम समाज में अच्छे कार्यों को भी सामने ला सकते हैं। सम्पादकीय विभाग की बैठक के बाद हम संवाददाताओं की ख़बरों पर लाल पेन से बनाए गए गोलों और कभी-कभार उनके द्वारा ली जाने वाली क्लास ने हमें काफी कुछ सिखाया। देशबन्धु ने मुझे करियर दिया और एक बार नहीं, बल्कि दो बार और खुलकर काम करने का मौका दिया। आज मैं जिस जगह हूं, उसमें बड़े भैया और उनके मार्गदर्शन में संचालित देशबन्धु की बड़ी भूमिका है। मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकता। आज बड़े भैया आज हमारे बीच नहीं है पर उनके द्वारा दी गई सीख हमेशा हमारे साथ रहेगी और हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी।
शिवाकांत वाजपेयी
1 दिसंबर को दिन में फ़ेसबुक पर ललित भैया के निधन और श्रद्धांजलि की खबरें देखी तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। मैने उनके छोटे भाई – पलाश जी को फोन लगाया तो पता चला कि उनकी हालत चिंताजनक है और वे डॉक्टरों की निगरानी में हैं। इस संक्षिप्त वार्तालाप से लगा कि वे पहले की तरह स्वस्थ होकर फिर उसी चिर -परिचित मुस्कान के साथ हम सबके बीच होंगे। लेकिन रात आठ बजे के आस-पास उनके निधन की डरावनी ख़बर आ गई। उनका जाना मध्यप्रदेश- छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता की अपूरणीय क्षति तो है ही – जिसने न केवल प्रदेश की बल्कि देश की एक पूरी पीढ़ी को अपनी रचनात्मक दृष्टि एवं व्यक्तित्व से प्रभावित और पोषित किया, बल्कि उनके उत्साहवर्धन से अनेक पत्रकारों ने देश एवं प्रदेश की स्वस्थ पत्रकारिता की परंपरा को भी समृद्ध किया। बाबू जी के निधन के पश्चात ललित भैया और देशबन्धु – दोनों एक दूसरे के पर्याय बन गए थे।
कम ही लोगों को मालूम होगा कि पुरातत्व में उनकी गहरी रुचि थी और उससे संबधित खबरों पर उनकी पैनी नज़र होती थी। उनकी तस्दीक के लिए वे स्वयं ही जहमत उठाते थे। इसी सिलसिले में एक बार उनसे जो परिचय हुआ वह पिछले सत्रह वर्षों तक जीवंत रहा। उनके निधन से कुछ दिनों पूर्व ही उनसे गुफ़्तगू भी हुई थी।
भारतीय सांस्कृतिक विरासत निधि (इंटेक) के वे छत्तीसगढ़ राज्य संयोजक के थे तथा उसके माध्यम से आयोजित की गई विरासत यात्राएं, परिचर्चाएं सेमिनार,डॉक्यूमेंटेशन और अन्य पुरातात्विक गतिविधियां उनके प्रयासों और बहुआयामी व्यक्तिव का अनमोल दस्तावेज है। इन्हीं सब के आयोजन -संयोजन के चलते कब उनसे प्रगाढ़ता हो गई पता ही नही चला। ललित भैया की एक विशेषता यह भी थी कि एक बार जो उनसे जुड़ा, वह उनका हो जाता था और वे हमेशा परिवार के सदस्य की भांति उसकी यथोचित सहायता के लिए भी हमेशा तत्पर रहते थे। आश्चर्य नहीं कि देश – विदेश में उनके मित्रों की एक लंबी फेहरिस्त है।
उनके स्तंभ-आलेख मुझे भी अन्य पाठकों की तरह प्रभावित करते रहे। उनके आग्रह पर ही लंबे समय तक पुरातत्त्व पर केंद्रित लेख भी नियमित रूप से देशबंधु में प्रकाशित करने का मुझे अवसर मिला। देश के शीर्षस्थ संपादकों में शुमार ललित भैया के साथ इतनी स्मृतियाँ और प्रसंग जुड़े हुए हैं, कि उन्हें एक साथ समेटकर यहाँ लिख पाना मुश्किल है उनकी चर्चा फिर कभी।
उनके न रहने से ऐसा लगता है कि एक ऐसा सलाहकार, मार्गदर्शक,अग्रज हमेशा के लिए चला गया है, जिससे कभी भी किसी भी विषय पर चर्चा की जा सकती थी। उनकी अनुपस्थिति की वेदना और दु:ख उनसे जुड़ा हुआ हर व्यक्ति महसूस कर रहा है…मैं भी व्यथित हूँ। ऐसा लगता है कि ललित भैया का जाना जैसे एक आश्वस्तकारी मुस्कान का खो जाना है।
उनकी स्मृतियों को सादर नमन, विनम्र श्रद्धांजलि।
लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के वरिष्ठ अधिकारी हैं।
सच्चिदानंद जोशी
ललित जी ने 29 नवंबर को जब अपने फेसबुक पेज पर कविता ” युद्ध करना है अनथक मेहनत ” पोस्ट की तब किसी को भी यह अहसास नही हुआ होगा कि कलम के इस असाधारण बौद्धिक योद्धा का यह अंतिम पोस्ट है। पिछले कुछ दिनों से वे असाध्य बीमारी से लड़ रहे थे और प्रायः प्रायः वे यह लड़ाई जीत चुके थे। इस दौरान उनसे एक दो बार बात हुई और कोरोना का प्रकोप थोड़ा कम हो जाने पर मिलना भी तय हुआ।
इससे पहले उन्होंने जब 27 अक्टूबर को कैमेरॉ न पैनी की कविता ” अगर इस जनम में ” अपने फेसबुक पेज से पढ़ी तो लगा कि वे बस अपने पुराने फॉर्म में आने ही वाले हैं। उन्होंने हर परेशानी और चुनौती का सामना इसी तरह तो किया था। उस कविता की पंक्तियां अभी भी गूंजती है कानों में :
अगर इस जनम में
अगर इस जनम में
किस्मत ने तुम्हारा साथ दिया तो
एक खिड़की खुलेगी
लड़ाई के मैदान में
दो सेनाओं के बीच,
और जब सिपाही
खिड़की से झाँकेंगे तो
उन्हें दुश्मन नज़र नहीं आएंगे,
वे वहाँ अपने बचपन को देखेंगे,
और वे लड़ना बंद कर देंगे
घर लौट जाएंगे
एक मीठी नींद सोने के लिए,
और जब उठेंगे तो पाएंगे
धरती के घाव भर गए हैं।
मूल अंग्रेज़ी- कैमेरॉन पैनी
(Cameron Penny)
16 वर्षीय छात्र (2005)
मिशिगन, यूएसए
अंग्रेज़ी से रुपांतर : ललित सुरजन
2009
एक सोलह वर्ष के युवा की कविता को पढ़ उसका अनुवाद करना और इस तरह नए विचारों का स्वागत करना ललित जी की विशेषता रही। इसलिए वे हमेशा युवा ही बने रहे , एक ऐसे युवा जो अपने साथ युवाओं को लेकर चलने में उन्हें उत्साहित करने में विश्वास रखते थे।
लगभग तीस साल का संबंध था उनसे। एक परिवार की तरह, एक बड़े भाई की तरह उनका हमेशा सम्मान किया। उन्होंने भी हमेशा छोटे भाई से स्नेह लुटाया। पत्नी मालविका को हमेशा बहु की तरह स्नेह और आशीष दिया। जब भी मन मे दुविधा हुई , उनसे जाकर सलाह ले ली। जब भी मन खिन्न हुआ, उनके पास बैठ कर अपना दुखड़ा रो दिया। उनके मन मे जब कोई विचार आया तो अधिकार पूर्वक बुलाकर समझा दिया। भोपाल से संबंध जुड़ा था जो रायपुर जाकर और पक्का हो गया। पत्रकारिता विश्वविद्यालय से तो उनका गहरा नाता था ही और उसमे उनका सतत मार्गदर्शन मिला। लेकिन इसके साथ साथ अन्य क्षेत्रों में भी उन्होंने मुझे खींच ही लिया जैसे रोटरी और इंटेक।
उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण उनकी मार्गदर्शी उपस्थिति हर जगह प्राप्त हो जाती थी। वे जितने विराट थे, उतने ही स्नेहिल भी थे। इसलिए न जाने कितनी बार उनके घर अत्यंत पारिवारिक वातावरण में भोजन करने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ी व्यंजनों के बारे मे उनका ज्ञान और आकर्षण हमेशा कौतूहल पैदा करता था। वे संबंधों को जतन से रखना जानते थे । इसलिए जब भी दिल्ली आते फ़ोन पर बात कर लिया करते। कभी कभी मुलाक़ात भी कर लेते। वे अपने विचारों के प्रति जितने आग्रही यह उतने ही सजग वे अपने संबंधों को लेकर भी थे। इसलिए उनके संबंध सभी से अत्यंत आत्मीय और घनिष्टता वाले होते थे।
अभी पता नही कितनी बातें , कितनी घटनाएं घुमड़ घुमड़ कर मन मे आ रही है। हर बात यही कहती नज़र आती है कि ललित जी कैसे यूँ हमे छोड़ कर जा सकते हैं। वे ऐसे हार मानने वालों में से तो नहीं थे। बल्कि वे तो हम सब को विजय के लिए प्रेरित करने वालो में से थे।
लेखक कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि, रायपुर के पूर्व कुलपति और वर्तमान में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली के सदस्य सचिव हैं।
अनंत मित्तल
ललित सुरजन जी से 2003-2005, छत्तीसगढ़ प्रवास में डेढ़ साल लम्बी घनिष्ठता रही। देशबन्धु में लिखवाने से लेकर ग्रामीण पत्रकारिता की कार्यशालाओं में ले जाने और मायाराम जी की स्मृति में वाद-विवाद-निबंध प्रतियोगिता का निर्णय कराने तक उन्होंने मुझे व्यस्त रखा। वहाँ अकेला नहीं होने दिया। रोज़ तीसरे पहर अपने ऑफ़िस में कॉफ़ी पिलाते और घंटा भर हम लोग देश- दुनिया की चर्चा करते। जानकारियों का भंडार थे वे।
उनसे परिचय भी रायपुर प्रेस क्लब में किसी विषय मेरे बोलने के बाद हुआ। मेरी बातें सुनकर वे खुद ही उठकर आए और अपना परिचय दिया। मैं चूंकि देशबन्धु का वहां नियमित पाठक हो गया था इसलिए उनकी लेखनी का प्रशंसक हो ही चुका था। चाय पीते-पीते हम लोग बाहर निकल गए और करीब घंटा भर बातें होती रहीं।
नेताओं आदि से मेरी अपनी शैली वाले तीखे सवालों से रायपुर में प्रेस के मठाधीश टाइप के पत्रकार मेरे पर आंखें तरेरे रहते थे, इसलिए ललित जी के साथ मेरी लंबी गपशप पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। बहरहाल, उन्होंने मुझसे पूछा कि दिन कैसे बीतता है तो मैंने बताया कि मैं वहां हाउस हस्बैंड था। धर्मपत्नी इरा झा, दैनिक हिंदुस्तान की ब्यूरो प्रमुख थीं और बेटा ईशान वहीं राजकुमार कॉलेज में 11वीं में पढ़ रहा था। उन्होंने कहा कि तीसरे पहर आप देशबंधु के दफ्तर आया करो, कॉफी पियेंगे। ईशान के स्कूल से आते ही साइकिल ले कर मैं ललित जी के पास पहुंच जाता। फिर पांच बजे तक बातचीत और कॉफी चलती। उसके बाद वे संपादकीय आदि में व्यस्त होते और मैं धर्मपत्नी जी के दफ्तर की ओर कूच कर जाता। यह सिलसिला काफी लंबा चला।
फिर उन्होंने देशबन्धु में नियमित लिखने का आग्रह किया तो संपादकीय पेज पर हफ्ते में एक दिन मैं छपने भी लगा। फिर 2004 का आम बजट आया तो उन्होंने मुझसे कहा कि उस पर त्वरित टिप्पणी लिखूं। पी चिदंबरम का बजट भाषण एक बजे खत्म हुआ और करीब तीन बजे मैं दो हजार शब्द का हाथ लिखा बजट विश्लेषण लेकर उनके पास पहुंच गया। उसे देखते ही वे आश्चर्य से बोले, इतना लंबा!! मैंने कहा – यदि अखबार में जगह कम हो तो काट लीजिए। उन्होंने कहा कि इतनी जल्दी इतना लंबा लिख लेने पर आश्चर्य कर रहा हूं, काटेंगे क्यों? मैंने बताया कि लिखने के मामले में मेरी रौ फूटती है और फिर लेखनी कहीं रुकती नहीं।
उन्होंने पढ़ा तो बोले कॉमा भी नहीं लगाते आप! मैंने बताया कि जनसत्ता में मेरे यशस्वी संपादक आदरणीय प्रभाष जोशी ने भी मेरी इस बात के लिए खिंचाई की थी मगर जब मैंने उन्हें बताया कि मैं रौ में लिखता हूं तो वे उत्साह से खुद ही मेरी कॉपी संपादित कर देते थे। ललित जी ने भी खुद वह बजट टिप्पणी संपादित की और पहले पन्ने पर उसे स्थान दिया। शीर्षक भी मेरा वाला ही रखा,” यूपीए के सामाजिक-आर्थिक वायदों को साधता बजट “। उसके बाद कॉफी का दौर चला और उन्होंने अपने संपादकीय के लिए भी मुझसे परामर्श किया। फिर बोले कि आप इतनी सरलता से गूढ़ आर्थिक शब्दावली कैसे लिख लेते हैं तो मैंने बताया कि कॉमर्स का हिन्दी माध्यम का छात्र रहा हूं और फिर प्रभाष जी ने जब वित्तीय -कृषि एवं आर्थिक मामलों पर मुझे लिखने को प्रोत्साहित किया तो उसी क्रम में मेरा दिमाग उन्हें सरल रूप देता चला गया।
बहरहाल, अगले दिन सुबह अखबार में वह विश्लेषण नमूदार हो गया। उसे मैं पढ़ ही रहा था कि ललित जी का फोन आ गया। मैंने उन्हें धन्यवाद कहा तो बोले ये बताओ कि इइ इकॉनॉमिक टाइम्स, दिल्ली में किसी से तुम्हारी कल के विश्लेषण पर, लिखने से पहले चर्चा हुई थी क्या? मैंने कहा कि कतई नहीं। तो बोले कि आज दोपहर में जल्दी आओ और खाना मेरे साथ खाओ। मैंने कहा ठीक है और डेढ़ बजे मैं उनके पास पहुंच गया। पहुंचते ही उन्होंने अपने स्टाफ को बुला लिया और अपने समाचार संपादक से कहा कि देशबन्धु में बजट टिप्पणी का शीर्षक और इकोनॉमिक टाइम्स की लीड का शीर्षक सस्वर पढ़ें। उन्होंने देशबन्धु में उपरोक्त शीर्षक पढ़ा और फिर इकोनॉमिक टाइम्स का शीर्षक पढ़ा जिसका हिंदी में अर्थ यही था, ” यूपीए के सामाजिक-आर्थिक वायदों को साधता बजट “। फिर उन्होंने और स्टाफ ने ताली बजाई। फिर स्टाफ से मेरा परिचय कराया और घर का खाना भी खिलाया। उस दिन उनकी आंखें में मैंने वैसा ही स्नेह मिश्रित प्रशंसा भाव देखा जैसा डब्ल्यूटीओ का ड्राफ्ट बनाने वाले डंकल का दिल्ली में इंटरव्यू कर लाने पर प्रभाष जी की आंखें में मैंने देखा था।
ललित जी, मायाराम सुरजन फाउंडेशन के तहत ग्रामीण पत्रकारिता पर दूरदराज तक वर्कशॉप करते थे और मुझे भी उनमें बोलने को साथ ले जाने लगे। उनके माध्यम से मैंने छत्तीसगढ़ का गैर-आदिवासी ग्राम्य परिवेश नजदीक से देखा और उंगलियां लाल कर देने वाला लाल भाजी और बैंगन का साग खूब खाया। आदिवासी परिवेश तो हिंदुस्तान के सौजन्य से 2003 के विधानसभा चुनाव में इरा जी की बस्तर-सरगुजा-जशपुर अंचलों में 6,500 किमी लंबी यात्रा में उनके अंगरक्षक की हैसियत से देख ही चुका था।
ललित जी के साथ उस बीच और भी अनेक सकारात्मक यादें हैं, मगर कभी लगा ही नहीं कि वे हमसे इतनी जल्दी दूर हो जाएंगे।
पथिक तारक
भैया जी (ललित सुरजन ) हमारे गांव कोमा (राजिम) 1979-80 में हम लोगों से मिलने आए थे. भैया जी के साथ प्रभाकर चौबे जी भी थे। हमारी ( यानी कि एकांत श्रीवास्तव,माझी अनंत, निर्मल आनंद और मैं पथिक तारक ) लिखी हुई रचनाएं जिसे हम कविता कहते थे, दरअसल हम कविता लिखना /रचना सीख रहे थे. यदा-कदा रायपुर स्थित अखबारों के रविवारीय अंक में छपने भी लगी थी।
भैया जी का यह आगमन हमारे गुरु पुरुषोत्तम अनासक्त जी के आग्रह पर हुआ था। भैया जी और चौबे जी हमारे साथ लगभग आधे दिन साथ रहे। हमारी लिखी हुई रचनाओं को तन्मयता और मनोयोग से वे सुनते रहे। मुझे अच्छी तरह याद है भैया जी ने हमारी पढ़ाई, हमारे जीविकोपार्जन के तौर-तरीकों, सामाजिक पृष्ठभूमि को भी बेहद नजदीक से जानने और समझने में अपनी रुचि दिखाई। हमारे लिए यह पहला अवसर था जब राजिम के बाहर से आए रचनाकारों ने हमको इस तरह से सुना हो और जाना हो। हमारे लिए तो यह खजाना था,जब हमारे सामने ‘हंसते हैं रोते हैं’ के स्तंभकार प्रभाकर चौबे और देशबन्धु के संपादक इस तरह से सामने थे।
भैया जी और चौबे जी ने हमें ज्यादा से ज्यादा पढ़ने का सुझाव दिया और पढ़ने योग्य किताबों के नाम और लेखकों के भी नाम से सुझाये। बातचीत में जब भैया जी को यह पता चला कि मैं रायपुर में पढ़ाई करता हूं तो उन्होंने रायपुर के कुछ लेखकों रचनाकारों के नाम और पते भी दिये और नियमित मिलने पढ़ने और इन सबसे जुड़ने को कहा। और मैं इस तरह ललित भैया जी से जुड़ता चला गया सच कहूं तो पुरुषोत्तम अनासक्त के बाद जो कुछ समझने – जानने और अपने को समृद्ध करने का अवसर ललित भैया जी से मिला वह वही खजाना है जिसे लेकर मैं इतराता हूँ। भैया जी अक्सर कार्यक्रमों में कोमा के इस यात्रा का जिक्र करते हुए कहते हैं कि हमें गांव की ओर लौटना चाहिए और उन्होंने एक नारा भी दिया ” चलो गांव की ओर ” । भैया जी ने अपने संस्मरण में भी इसका उल्लेख किया है।
एक कवि के रूप में मेरी थोड़ी बहुत जो पहचान बन पाई है और प्रगतिशील लेखक संघ, भारतीय जन नाट्य संघ , छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन में जुड़ने का अवसर भी मिला है तो केवल ललित भैया के कारण। भैया जी के सानिध्य का प्रतिफल ही है कि अपने आप को इस यात्रा में समृद्ध कर पाया। आज भी हम चारों – एकांत श्रीवास्तव, मांझी अनंत, निर्मल आनंद,और मैं पथिक तारक लिख रहे हैं तो उन्हीं के स्नेह और मार्गदर्शन से। काश, वे कुछ साल और हमारे बीच रह पाते।
हरिकिशन शर्मा
बड़े से बड़े संकट में भी चेहरे की मुस्कान फीकी नहीं पड़ने देना और अपनी परेशानियों को ढँक लेना सुरजन रिवार की विशिष्ट पहचान रही है। अपने पत्रकार जीवन की शुरुआत मैंने 1971 में इसी परिवार के सानिध्य में की। इस पाठशाला से निकले सैकड़ों पत्रकारों में – जो देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी पहचान बना चुके हैं मैं भी शामिल हूं, यह मेरे लिये गर्व की बात है। तीन पीढ़ियों के मुखिया बाबू जी (मायाराम सुरजन) से लेकर से लेकर संस्थान के प्रमुख सभी के आदरणीय ललित भैया में आत्मीयता का विशिष्ट गुण विद्यमान था। एक बार उनसे मिलने वाला हर खास और आम व्यक्ति उनके परिवार का सदस्य बनकर गौरवान्वित होता था। समाचार पत्र संस्थान की व्यावसायिक समस्या या घर परिवार की हर छोटी-बड़ी बात को उतनी ही गंभीरता से सुनना और उसका निराकरण सम्मानजनक ढंग से करना उनका विशिष्ट गुण था। लगभग 5 दशक के इस साथ में 26 वर्ष संस्थान की सेवा के बावजूद अंतिम समय तक उनका स्नेह और मार्गदर्शन मिलना ही मेरी पूंजी है।
संबंध बनाने और निभाने की कला मैंने उनसे ही सीखी। जहां तक अपने संस्मरणों को उकेरने की बात हैं तो उनका कोई ओर-छोर नहीं है। मैं यहां अपने सेवाकाल और संस्थान से अलग होने के समय का एक-एक संस्मरण ही प्रस्तुत कर रहा हूं।
संस्थान के सेवाकाल में मेरा स्थानांतरण बिलासपुर कार्यालय में किया गया। इस बात की जानकारी मेरे ज़िले के तत्कालीन कलेक्टर श्री विवेक ढांड को लगी। संयोग से ललित जी और श्री ढांड की मुलाकात कटघोरा विश्राम गृह में हो गई। दोनों पूर्व परिचित ही नहीं अच्छे मित्रों में से थे। अधिकार पूर्वक ढांड साहब ने कहा वे (हरिकिशन) नहीं जाएंगे, आप किसी दूसरे को बिलासपुर भेज दें। यह जानकारी उन्होंने मुझे अंबिकापुर आकर दी। संयोग से उनके जाने के 5 वर्ष बाद मुझे बिलासपुर कार्यालय में कार्यभार (प्रांतीय टेबल पर) ग्रहण करना पड़ा। वहां के ब्यूरो प्रमुख श्री नथमल शर्मा को प्रबंधन का यह निर्णय अटपटा लगा।
यह भी एक संयोग ही था कि उन दिनों बिलासपुर संभाग के बिलासपुर कोरबा रायगढ़ और अंबिकापुर सभी जगह शर्मा ( नथमल, किशोर, शशि और मैं ) ब्यूरो प्रमुख थे। संस्थान की महत्वपूर्ण बैठकों में भी शर्माओं की इस चौकड़ी की चर्चा हंसी-मज़ाक में होती थी इसी बीच मेरे पास एक विकल्प था और मैं वहां से लंबी छुट्टी लेकर बालाघाट से एक दैनिक नए समाचार पत्र की प्रस्तावित योजना पर चला गया। वहां पहुंचकर साझेदारी के इस पत्र की तैयारी पूरी कर प्रकाशन तिथि की घोषणा के बाद संस्थान को अपना इस्तीफा भेजा। बालाघाट के ब्यूरो प्रमुख हीराधर वर्मा ने भी अपना इस्तीफा भेजा जो तत्काल स्वीकृत हुआ।
4 दिन बाद ही मुझे ललित जी का एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि ‘ऐसे निर्णय दूर रहकर पत्रों से नहीं होते, तत्काल रायपुर आकर मिलें’। यह आदेश उनके विश्वास और पारिवारिक संबंधों की एक कड़ी थी। मुंबई हावड़ा मेल से शाम 4:30 बजे रायपुर पहुंच कर मैं सीधे प्रेस गया। मिलते ही उन्होंने घर के मुखिया की तरह प्रश्न किया ‘हरि, कहां से आ रहे हो’, जवाब था ‘बालाघाट से’। ‘कब निकल रहा है अखबार’, मैंने कहा 1 नवंबर को मध्यप्रदेश स्थापना दिवस पर। ‘बच्चे कहां हैं’, अंबिकापुर में। ‘कब से नहीं गए, 2 माह से’। ये सवाल-जवाब खत्म होते ही उन्होंने कहा- तुम मेरे साथ कल जबलपुर चलो। हीराधर का इस्तीफा तो मिलते ही स्वीकार हुआ, तुम्हारे बारे में निर्णय नहीं लिया जा सका।अच्छा,एक काम करो, आज ही अंबिकापुर जाकर पहले बच्चों से मिल लो और दो दिन बाद जबलपुर पहुंचो। मैं उनके इस आदेश की अवहेलना नहीं कर सका। मेरे मुंह से केवल यही निकला था कि मां-बाप के बाद यदि हरि संबोधन और स्नेह मिला तो केवल आपसे। यह कहकर मैं अंबिकापुर होते हुए जबलपुर पहुंच गया।
कालांतर में संस्थान से अलग हो जाने के बावजूद मेरे पारिवारिक निर्णयों में उनका मार्गदर्शन हमेशा मिलता रहा। मेरा बड़ा बेटा प्रेम विवाह करना चाहता था। लड़की के विजातीय होने, अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक बंधनों के कारण मैं इसके लिए तैयार नहीं था। बेटे को समझाने की तमाम कोशिशों में असफल होने पर बात ललित जी तक पहुंची। मुझे लगा, शायद उनके समझाने पर बेटा मान जाए। उन्होंने मुझे बुलाकर सीधे कहा- ‘समय के साथ दिनेश का निर्णय सही है, इसमें इतना परेशान क्यों हो रहे हो’। ‘इस साहस के लिए तो मैं उसकी पीठ थपथपाऊंगा’। उनकी यह सोच उनके प्रगतिशील विचारों की परिचायक थी। मैं भी यही सोचकर मौन रहा कि जोड़े तो ऊपर से ही बनकर आते हैं।
यहाँ मैंने ललित भैया के मानवीय गुणों और आत्मीय संबंधों की चर्चा की है। इन सबके अतिरिक्त पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में उनके सानिध्य में जो मिला, वही मेरी पूंजी है।
अम्बिकापुर
कुमद लाड
अक्टूबर 1985 में ललित सुरजन जी से मेरा परिचय हुआ था। उस समय ‘‘रायपुर सिटी जेसीज़ एवं यूथ जेसीज़’’ द्वारा एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। उस प्रदर्शनी में मैंने इस्तेमाल हो चुकी पुरानी डाक टिकटों से एक ग्रामीण महिला का पोस्टर बना कर रखा था। उस पोस्टर पर मुझे विशेष पुरस्कार प्राप्त हुआ था। गुरुदेव प्रभाकर चौबे जी ने उसी कार्यक्रम में मेरा परिचय स्व. श्री ललित सुरजन जी से करवाया था। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद डाक टिकट और उसके कलात्मक उपयोग पर उनसे चर्चा भी हुई। उसके बाद चौबे जी के माध्यम से अनेक कार्यक्रमों में उनसे मुलाकात होती रही।
‘‘मायाराम सुरजन फाउंडेशन, रायपुर’’ के अंतर्गत विद्यालय स्तर पर ‘‘संवाद’’ कार्यक्रम प्रारंभ किया गया। अपने विद्यालय की (ल.ना.कन्या उ.मा.वि.) कार्यक्रम प्रभारी होने के कारण प्रत्येक कार्यक्रम के आयोजन पर मुझे उनके विचार और मार्गदर्शन का लाभ मिला। सन् 1992 से सन् 2000 तक लगभग प्रतिवर्ष विद्यालय स्तर पर नियमित रूप से यह कार्यक्रम आयोजित कर छात्राओं की साहित्यिक अभिरुचि को विकसित करते रहे। आगे भी हमने अपने विद्यालय में इस कार्यक्रम को जारी रखा।
भारतीय सांस्कृतिक विरासत निधि (इन्टैक) के रायपुर अध्याय के गठन के साथ ही मुझे उसकी गतिविधियों से जोड़ा गया। विद्यालयीन स्तर पर नगर दर्शन एवं कार्यशालाओं का आयोजन होता था। उसमें भी मुझे सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ। दिसंबर 2001 में उनके द्वारा हमारे विद्यालय में ‘‘छत्तीसगढ़ इतिहास एवं संस्कृति’’ विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया गया। सन् 2002 में ‘‘छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर’’ विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया गया। इसमें छत्तीसगढ़ के अनेक महत्वपूर्ण स्थानों, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों की विस्तृत जानकारी हमें प्राप्त हुईं। रायपुर, राजिम, चंपारण, ताला, मल्हार, रायगढ़ जैसे स्थानों की विशेष महत्वपूर्ण जानकारियां भी दी गई।
उनके मार्गदर्शन में एक विशेष कार्यक्रम में मेरी सहभागिता रही वह था ‘‘पश्चिमी घाट की जैव विविधता’’। इसमें दिखाई गई फिल्म एवं प्राप्त जानकारी का मुझे दक्षिण भारत भ्रमण और भूगोल अध्यापन में बहुत लाभ मिला। ‘‘इन्टैक’’ रायपुर द्वारा नदियों पर किये गये कार्य एवं उनकी विस्तृत रिपोर्ट पढ़ने का अवसर भी मुझे मिला। खारून नदी पर मिली जानकारी बहुत ही रोचक लगी। इन्टैक और संवाद कार्यक्रमों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन रायपुर इकाई के साथ जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके कारण ही प्रदेश एवं देश के अनेक साहित्यकारों के कार्यक्रमों को देखने एवं सुनने का अवसर मिला। मायाराम सुरजन फाउंडेशन के अंतर्गत प्रतिवर्ष दिये जाने वाले, पुरस्कृत किये जाने वाले महानुभावों से भी इस कड़ी के द्वारा परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ।
अपनी सेवानिवृत्ति के बाद उनके आग्रह पर ही मैंने इन्टैक की आजीवन सदस्यता ग्रहण की। अक्टूबर 2018 में मैंने इन्टैक रायपुर अध्याय से दिल्ली में तीन दिनों की कार्यशाला में सहभागिता की। उसका बहुत अच्छा अनुभव मिला। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की इन्टैक गतिविधियों की जानकारी भी मिली। इसकी विस्तृत रिपोर्ट मैंने रायपुर अध्याय में प्रस्तुत भी की थी। इन्टैक के क्विज़, पेंटिंग, निबंध जैसे कार्यक्रमों में आज भी मेरी सहभागिता बनी है। समाचार पत्र कैसे छपते हैं यह जानकारी देने के लिये उन्होंने स्वयं हमें देशबन्धु प्रेस का भ्रमण करवाया था। वास्तव में ललित सुरजन जी एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे। उनमें समाज के प्रत्येक वर्ग के कार्यों के प्रति असीम सहानुभूति थी। साहित्य, कला, संस्कृति अथवा कोई भी चर्चा का विषय हो स्व. सुरजन जी बड़ी ही आत्मीयता से उस पर प्रकाश डालकर विषय की बोझिलता को कम कर देते थे।
सुरजन जी के कार्यक्रमों से मुझे जोड़ने वाली कड़ी थे प्रभाकर चौबे सर। इन लोगों की प्रेरणा से ही छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु देश के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। चौबे सर पहले ही चले गए और अब सुरजन जी भी हमारे बीच नहीं हैं किन्तु प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनसे जो जानने और सीखने को मिला, वह आज भी हमारे मस्तिष्क में उनकी स्मृतियों को संजोये हैं।लेखिका सेवानिवृत्त व्याख्याता हैं
रमण मंदिर के समीप, फाफाडीह,
रायपुर (छ.ग.)
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स्वरूपचंद जैन
ललित सुरजन अकस्मात अपनी जीवन यात्रा से विलग हो नई यात्रा की ओर अग्रसर हो गए। अपने पीछे वे एक निर्वात को जन्म दे गए। समय-समय पर उनके साथ बिताए क्षण मानस पटल पर किसी चलचित्र की तरह दिखने लगते है। तब लगता है कि उनका साथ कितना अनमोल था। देशबन्धु के सुधि पाठकों को इनसे प्रतिदिन नया बोध मिलता रहता था। इस कार्य ने उन्हें अजरता प्रदान की है। पर इसके साथ उनके सामाजिक पहलू में दोस्ती और दोस्तो का स्थान बहुत अहम रहा है। विविध आयामों में उन्होंने कार्यकर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उनकी विचार शैली एक प्रबुद्ध चिंतक की थी जो मानव-मानव में समानता की पोषक थी। इसे लेकर ये सदैव अपने विचारों को लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से जनसाधारण के बीच प्रसारित करने हेतु तत्पर रहते थे।
मेरे साथ उनका बहुत लंबा दोस्ती का सफर रहा है। दुर्गा कॉलेज रायपुर में मैं एम.कॉम का विद्यार्थी था और ललित एम.ए. के छात्र थे। विभिन्न आयोजनों में हम दोनों सक्रियता से भागीदारी करते थे। यह सक्रियता दोस्ती में कब बदल गई, इसका पता ही न चला। पर मित्रता का यह वृक्ष हम दोनों के बीच उनके अंतिम क्षणों तक फलता-फूलता रहा। फिर जब वे विवेकानंद नगर से चौबे कॉलोनी में रहने आए, जहाँ मैं पहले से ही निवासरत था, तो हमारे रिश्ते और प्रगाढ़ होते चले गए। तब हम सबने मिलकर ‘‘चौबे कॉलोनी लेडीज़ क्लब’’ का गठन किया। इसमें सदस्यता तो महिलाओं की ही थी परंतु हर काम में सक्रियता पुरूषों के साथ पूरे परिवार की हुआ करती थी। चौबे कॉलोनी के सरकारी स्कूल के विकास में इस लेडीज़ क्लब ने महती भूमिका अदा की है। नए कमरे बनवाने, पीने के पानी की व्यवस्था करने जैसे कामों के लिए धन की व्यवस्था आनंद मेला आयोजित कर की जाती थी। क्लब के सभी सदस्य द्वारा घर पर बने सामान का विक्रय कर उससे प्राप्त धन राशि स्कूल के विकास हेतु लगाते थे। यह क्रम बीसियों वर्षों तक चलता रहा जिसने कॉलोनी के अनेक परिवारों को ‘‘एक परिवार’’ में तब्दील कर दिया।
रोटरी क्लब, रायपुर भी में हम साथ-साथ रहे। एक नये ‘‘रोटरी क्लब मिड टाउन’’ की स्थापना का दायित्व मुझे दिया गया। मैंने ललित को तैयार कर उन्हें नए क्लब के अध्यक्ष का दायित्व सौंपा। दोनों क्लबों के माध्यम से जन सेवा के अनेक कार्यों में हमने साथ-साथ भागीदारी की। कालांतर में ललित रोटरी के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर भी बने। अपने कार्यकाल की डिस्ट्रिक्ट कॉन्फ्रेंस उन्होंने राजकुमार कॉलेज, रायपुर में आयोजित की, जिसमें मैंने महती जिम्मेदारी निभाई। उस कॉन्फ्रेंस में ललित का साथ हमेशा के लिए एक यादगार बन गया। 1985 में रायपुर में हुई रोटरी कॉन्फ्रेंस के दौरान ललित ने इनरव्हील डिस्ट्रिक्ट की स्थापना का निर्णय करवाया तब मैं कॉन्फ्रेंस चेयरमैन था। इनरव्हील की पहली अध्यक्षा उन्होंने अपनी भाभी और मेरी धर्मपत्नी श्रीमती ललिता जैन को बनाया। डिस्ट्रिक्ट नया होने से नये क्लबों के गठन और पुराने क्लबों में हेतु साल भर पूरे डिस्ट्रिक्ट में, जो कि पूरे छत्तीसगढ़ और ओडिशा में फैला हुआ था, बार-बार चक्कर लगाने पड़े। रोटरी की गतिविधियों में हम दोनों का साथ अनेक यादगार क्षणों को हृदय में अंकित कर गया।
हम सभी मित्र अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे और एक दूसरे से मिलने के लिए अवकाश कम ही होता था, इसलिए हम लोगों ने “We 7” (वी 7) क्लब का गठन किया। इसके 7 सदस्य थे ललित, कैलाश सिकारिया, शांतिलाल श्रीश्रीमाल, हरिकिशन खंडेलवाल, महेन्द्र कोठारी, धर्मेन्द्र कोठारी और मैं। फाफाडीह चौक स्थित अजंता होटल में प्रतिदिन चाय पर हम सबका मिलना अनिवार्य था। चाहे जितनी भी व्यस्तता हो, ठीक 5 बजे प्रत्येक सदस्य को वहां पहुंचना होता था और सब के साथ चाय इत्यादि के बाद जिन्हें जल्दी जाना हो वो जा सकता था, बाकी सब बैठकर चर्चा, हंसी-मजाक करते थे। इस प्रयोग से हमारा तनाव कम होता गया जिसकी झलक सबके चेहरों पर दिखने लगी। फिर धीरे-धीरे इस बैठक में कभी-कभार हमने किसी प्रबुद्ध व्यक्ति को बुलाना शुरू किया, जिनसे चर्चा कर कई गंभीर मसले हल हो जाया करते थे।
एक बार ललित एक आठ-नौ इंच लोहे का टुकड़ा लेकर उस बैठक में आए। उन दिनों अखबार के लिए कम्पोजिंग का काम ‘‘मोनोटाइप’’ मशीनों पर होता था। उसमें अक्षरों के सांचे को ‘‘प्लंजर पिन’’ की सहायता से पिघलते सीसे पर दबाया जाता था। इस तरह इच्छित अक्षर ढलकर लाइन में लग जाता था। ललित जो टुकड़ा लाए थे वह उसी मशीन का प्लंजर पिन था। उस समय श्री महेन्द्र कोठारी के पास लेथ वर्कशॉप था और ललित उनसे जानना चाहते थे कि यह पुर्जा उनके वर्कशॉप में बन सकता है या नहीं। चूंकि मोनोटाइप मशीनें इंग्लैंड से आती थीं और उनके पुर्जे भी वहीं से मंगवाने पड़ते थे। चाय पर उस दिन की बैठक में महेन्द्र कोठारी ने भरोसा दिलाया कि वे प्लंजर पिन बना देंगे। उन्होंने प्रेस जाकर मशीन का जायजा लिया और महज 3 दिन बाद की बैठक में हुबहू नया प्लंजर पिन पेश कर दिया। इस तरह ललित की समस्या का समाधान तो हुआ ही, महेन्द्र कोठारी के लिए भी व्यापार का नया रास्ता खुल गया। उन्होंने पूरे भारत वर्ष में घूम-घूमकर अखबारों को मोनो मशीन के लिए वह पुर्जा दिया।
इस तरह जीवन के लंबे सफर में एक अच्छे मित्र का होना कितना महत्वपूर्ण एवं फलदायी होता है, यह हम ललित के जीवन आयामों से भली-भांति समझ सकते हैं। मेरा उनका साथ इतने लंबे समय तक रहा वह मेरा सौभाग्य है।
लेखक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं और रायपुर के महापौर तथा विधायक रह चुके हैं।
रामकृष्ण भावे
जुलाई 2020 में जब मैं ललित के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में उसके लिये वीडियो बना रहा था तब मेरी मन:स्थिति अलग थी। मन में था कि देर-सबेर हमारी मुलाकात होगी और वह मेरे वीडियो को स्वयं देखेगा। वीडियो देखते ही वह बचपन और युवावस्था के दिनों में खो जायेगा। अभी सब कुछ बदल गया है- अकल्पनीय हो गया है, सब कुछ। इस बार स्मृतियों में मैं खो रहा हूं, और लोग पढ़ेंगे। बस, वह नहीं होगा साथ देने के लिये।
स्मृतियों की बात आती है तो मन खो जाता है 60-65 साल पहले के दिनों में। 10-12 वर्ष का हम उम्र सुदर्शन बालक ललित मेरे घर (जबलपुर) अक्सर कैंची स्टाइल मेंं साइकल चलाते हुए आया करता था। घर से लोगों को उसे प्यार भी मिलता। जो हाजि़र रहता उसके सामने पेश किया जाता। उसे मेरी माँ के बनाये हुए गुलकंद, मुरब्बा, नीबू का शरबत विशेष भाते थे। प्रायमरी उत्तीर्ण करने के बाद हम लोगों को नवीन भवन (नेपियर टाउन, जबलपुर) में प्रवेश मिला था। हम अपने कक्षा शिक्षक श्री मूलशंकर तिवारी जी के प्रिय विद्यार्थियों में से थे।
कक्षा में अपने उत्तरों में वह देश-विदेश की विभिन्न जानकारियों को प्रस्तुत कर हम सबको बहुत प्रभावित करता रहता था। यह उसमें पूज्य बाबूजी (स्व. मायाराम जी) के संस्कारों के ले रहे स्थान का परिचायक था।
कुछ दिनों बाद वह अगली पढ़ाई के लिये जबलपुर से बाहर चला गया। याद नहीं कि हायर सेकंडरी उत्तीर्ण होने तक (1961) हम लोग मिले हों।
1961 में जब मैं महाकौशल महाविद्यालय में था, तब ललित ने भी वहां दाखिला लिया। यह हम लोगों के लिये अत्यंत सुखद था। उसके विषय अर्थशास्त्र, हिंदी साहित्य, राजनीति विज्ञान थे तथा मेरे अर्थशास्त्र, संस्कृत व दर्शनशास्त्र विषय थे। पर इसके साथ अनिवार्य विषय सामान्य अंग्रेजी और सामान्य हिन्दी (निबंध) भी थे। इनके कारण हमारे संबंध अच्छे से बने रहे। अर्थशास्त्र का अध्यापन प्रो. एल.एस. चौहान, प्रो. एस.के. डे, प्रो. सरकार जैसे प्राध्यापक थे। अंग्रेजी के लिये प्रो. बी.जी. टंडन थे। हिन्दी प्रो. श्रीमती कमला जैन, प्रो. श्रीमती सागरोध, डॉ. एन.डी . साहू पढ़ाते थे। सभी प्राध्यापक विज्ञान और गंभीर प्रकृति के थे। डॉ. साहू हिन्दी साहित्य में जबलपुर वि.वि. में पहले पी.एच.डी. धारक थे। उन दिनों महाविद्यालयों में रैगिंग की घटनाएं कम होती थी। एकाध दफा मैं उसका शिकार हुआ पर ललित ने ऐसा कोई अनुभव नहीं बताया।
एक दिन की बात है वह किसी कक्षा में लगभग दस मिनिट देर से हांफते-हांफते आया। सामान्य तौर पर कोई इतनी देर होने पर आता नहीं पर उसने प्राध्यापक से अनुमति मांगी। प्राध्यापक भी कुछ सेकण्ड अवाक् होकर देखते रहे और पूछा- इतने लेट कैसे हो गये? उसने कहा कि मैं प्रेस से आ रहा हूं, वहां देर हो गई। प्राध्यापक महोदय ने फिर प्रश्नार्थक मुद्रा में उसे देखा तो उसने कहा कि वह समाचार पत्र (नई दुनिया) में पत्रकारिता के काम में हाथ बंटा रहा है। मुझे पूज्य बाबूजी की पृष्ठभूमि ज्ञात थी। इसलिये मैं समझ गया कि घर के संस्कारों में पत्रकारिता के गुण विकसित हो रहे हैं।
उन दिनों मेरी उसके पास (डिलाइट टॉकीज के पास स्थित प्रेस) और श्रीनाथ की तलैया वाले घर में जाना होता था। वह घर में छोटे भाई बहनों को प्यार और स्नेह से रख बड़े भाई का $फजऱ् खूब निभाता था। वे भी उसे खूब प्यार और सम्मान देते। एकाध बार मुझे उसके हाथों से बने पूड़ी और पकौड़े का स्वाद चखने का मौका मिला व उसके नये हुनर का पता चला।
1964 में हम बी.ए. पास हुए। उस वर्ष के दीक्षांत समारोह में हमने उत्साह से भाग लिया और अगले दिन कॉलेज से मिले गाउन के साथ हमारे मित्र नारायण के यहां फोटो सेशन भी किये। वह अपना कैमरा लाया था और उसने हमारे यादगार चित्र लिये। बी.ए. के बाद वह अपने अध्ययन और व्यवसाय (पत्रकारिता) के सिलसिले में रायपुर आ गया। उसके बाद हम रायपुर में मिलते रहे।
रायपुर की यादें आगे फिर कभी।
अजय चंद्रवंशी
ललित सर नही रहे ! कुछ दिन तक तो यह महसूस नहीं कर पाया, क्योंकि उनसे नियमित मुलाकात तो होती ही नहीं थी।मगर तीन-चार माह के अंतराल के लगभग मुलाकात हो जाती थी। पिछले आठ-दस वर्षों से यही क्रम रहा। अक्सर छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, एप्सो, इंटेक या अन्य किसी साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम में उनके बुलावे पर हम लोग जाते थे। संख्या कम-अधिक होते रहती थी। सर संतोष व्यक्त करते थे कि कवर्धा से भी लोग आये हैं। समयलाल भैया के कारण पिपरिया को कभी नहीं भूलते थे। कवर्धा-पिपरिया उनके लिए एक ही था।
मैंने 1998-99 में अक्षर पर्व के एक दो अंक देखे थे। ललित सर का नाम मैंने पढ़ा होगा, लेकिन याद नहीं है। सन 2005 तक मुझे उनकी कोई स्मृति नहीं थी। इस अवधि में ‘हंस’ पढ़ता था, बाकी पत्रिकाओं के कभी कहीं कोई यदि अंक मिल जाने पर ही उन्हें पढ़ना हो पाता था। ‘हंस’ भी बहुत जुगाड़ से मिलता था, जिसे 2002 के लगभग से पढ़ना शुरू किया। अख़बार भी केवल दैनिक भास्कर देख पाता था। देशबन्धु से अनभिज्ञ था। उनके निधन के बाद सोशल मीडिया पर लोगों की पोस्ट देखकर अहसास हुआ कि सब उन्हें कितना चाहते थे । उनके न रहने के बाद पहली बार जब छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की बैठक हुई तब एक अजीब सी कमी महसूस हुई, क्योंकि पिछले आठ-दस वर्षों से जबसे मैं सम्मेलन से जुड़ा हूँ, ऐसा कभी नही हुआ था। लेकिन इस हक़ीक़त को दिल को स्वीकार करना ही पड़ा।
ललित सर की जो सबसे बड़ी बात मुझे लगी वह है उनका उदात्त और सहज व्यक्तित्व। कार्यक्रमों में वे सबसे बिना ‘छोटे-बड़े’ के भेद के बात करते थे, उनका हाल पूछते थे। चाय-नाश्ते-खाने का पूछते थे। यहां तक कि उन्हें ध्यान रहता था कि हम लोग बस या कार से पांच बजे-छः बजे शाम के लगभग रायपुर से निकल रहे हैं तो नौ बजे के आसपास कवर्धा पहुचेंगे, इसलिए वे उस समय फोन करके पूछते थे कि पहुंच गए या नहीं। इसी तरह कार्यक्रम शुरू होने का समय जैसे ही आता वे घूम-घूमकर सबको बैठने को कहने लगते। यही क्रम भोजन अथवा चाय के बाद भी चलता। किसी भी कारण से यदि कार्यक्रम निर्धारित समयानुसार नहीं चलता तो उनके चेहरे में बेचैनी साफ दिखाई देने लगती।
ललित सर अनुशासन प्रिय थे। अनुशासन का ख़ुद पालन करते थे और दूसरों से भी यही अपेक्षा रखते थे। धमतरी रचना शिविर(2017) की एक घटना मैं भूल नहीं पाता। वहां यह नियम था कि सब लोग भोजन, नाश्ता, चाय के बाद अपना बर्तन स्वयं साफ करें। सभी पालन कर रहे थे। एक दिन चाय के बाद किसी ने बिना कप धोए उसे बेसिन में रख दिया। ललित सर स्वयं थोड़े गुस्से में उसे धोने लगें। सब को पता लगा तो अवाक रह गए। कार्यक्रमों में कुर्सियां ठीक करते तो उन्हें कई बार देखा जाता था।खाना अक्सर सबसे आख़िर में लेते। ज़ाहिर है यह सब उनसे सहज ढंग से होता था, उनमें प्रदर्शनप्रियता की तो कोई कल्पना भी नही कर सकता। नवम्बर 2019 में वे और महेंद्र मिश्र जी एप्सो के जिला इकाई कबीरधाम के तत्वावधान में गांधी जी की महत्ता पर कार्यक्रम में आये थे। कवर्धा में ये उनका आखिरी कार्यक्रम साबित हुआ।
सन 2005 में मेरे मित्र उमेश पाठक ने बताया कि देशबन्धु और भारतीय सांस्कृतिक विरासत निधि ( इंटेक) द्वारा सकरी नदी यात्रा का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें हम लोगों को भी जाना चाहिए। यात्रा के एक दिन पहले रायपुर से नदी यात्रियों का एक दल सर्किट हाउस कवर्धा में आया कुछ भाषण हुए। हम लोगो को बैग और टी शर्ट दिया गया। वहां से शाम को चिल्फी ले जाया गया। जहां रात्रि विश्राम के बाद सुबह हमे चिल्फी रेंगखार में मुड़वाही के पास ले जाया गया, जहां से सकरी नदी का उद्गम माना जाता है। ललित सर मैम के साथ वहां तक आये थे,फिर हम लोग मुड़वाही से सकरी नदी के किनारे-किनारे शाम को भोरमदेव पहुंचे। वहां सर अपनी टीम के साथ उपस्थित थे। इस तरह तीन दिन तक पैदल सकरी नदी की यात्रा करते हम बेमेतरा जिला के ग्राम गोपाल भौना पहुंचे जहां सकरी नदी और हाफ नदी का संगम है।
इस पूरी यात्रा में सर लगातार अपनी टीम के साथ व्यवस्था में लगे रहते थे। पिपरिया क्षेत्र में समयलाल जी और डॉ मनोहर चन्द्रवंशी भी सहयोगी रहे। वहां से रायपुर गए जहां समापन कार्यक्रम हुआ। मुझे याद नहीं कि इस यात्रा में मैंने ललित सर से कुछ बात भी की हो। उस समय मेरी आदत ही कुछ ऐसी थी ! इसके बाद फिर उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ। इस बीच एक दो बार ‘अक्षर पर्व’ में प्रकाशन के लिए मैंने गज़लें भेजीं लेकिन वे प्रकाशित नहीं हुईं। एक बार रचनाएं लौटकर आई तो साथ में एक दो लाइन की टिप्पणी थी ‘आपकी रचनाओं के विचार अच्छे हैं मगर प्रस्तुतिकरण पर अभी और मेहनत कीजिये और अच्छे शायरों को पढ़िए’।
इसके बाद सन 2008 में छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य अधिवेशन भिलाई में हुआ। 2008 में ही जनवरी में रवि श्रीवास्तव जी एक कवि सम्मेलन में कवर्धा आए थे उसमे मैं भी शामिल हुआ था। सम्भवतः मेरे विचारों के कारण उन्हीने मेरा नम्बर नोट कर लिया था और जब प्रलेस का अधिवेशन हुआ तो मुझे आमंत्रित किया। एक बार फिर वहां ललित सर को देखा, सफेद कुर्ता-पैजामा पहने वे एक सत्र का संचालन कर रहे थे। बहस का विषय सम्भवतः लोक पर संकट को लेकर था। वे हर जिले से बोलने के लिए प्रतिनिधि बुला रहे थे। कबीरधाम जिले से सम्भवतः केवल मैं ही गया था। डरते-झिझकते मैंने अपने नाम की पर्ची उन तक पहुँचा दी। वे ख़ुश हो गए कि कवर्धा से कोई तो आया है। मुझे बुलाया गया तो मुश्किल से दो-तीन मिनट बोला जिसमे मेरा मुख्य जोर लोक और नागर का विभाजन न कर सर्वहारा की बात करने की बात कही। इसमें मैंने डॉ रामविलास शर्मा का ज़िक्र किया था। मैंने ठीक-ठाक ही बात की थी शायद, क्योंकि अध्यक्षीय भाषण में खगेन्द्र ठाकुर जी ने मेरा दो बार उल्लेख किया और बोलने के बाद मेरी पीठ थपथपाई। यहां भी मैंने ललित सर से कोई बात नहीं की।
मैं अपने ढंग से लिखता पढ़ता रहा। एक-दो लघु पत्रिकाओं में रचनाएं छपती भी रहीं। 2010- 11 में मित्र सुनील गुप्ता ‘तनहा’ ने शारदा संगीत विद्यालय कवर्धा में साहित्यिक कार्यक्रम रखा था, जिसमे समयलाल विवेक जी पिपरिया से आये थे। यों तो उनसे 2005 में सकरी नदी यात्रा के समय मुलाकात हो गई थी लेकिन उसके बाद उनसे कोई संपर्क नहीं था। इस कार्यक्रम में उनसे बातें हुईं फिर मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हुआ। इस मुलाकात में समयलाल जी ने बताया कि वे जैसे मुझे ही ढूंढ रहे थे। कारण पूछने पर बताया कि ललित भैया मुझे अक्सर कहते हैं कि कवर्धा में एक अजय चन्द्रवंशी है, उनसे जरूर सम्पर्क करो। मुझे खुशी हुई कि ललित सर जैसे व्यक्ति मुझे याद रखते हैं। अक्षर पर्व में रचनाएं भेजने, एकाध लघु पत्रिका में छपने और प्रलेस के राज्य अधिवेशन के कारण उन्हें मेरा ध्यान रहा हो।
इसके बाद समयलाल जी के साथ हम लोगों का छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, एप्सो, इंटेक के कार्यक्रम में रायपुर जाना प्रारम्भ हो गया। इसी बीच 2012 में शाक़िर अली जी भी कवर्धा आ गए, जिससे कवर्धा के साहित्यिक कार्यक्रमों में गतिशीलता आई। उनके साथ और सम्पर्क से भी हम लोग रायपुर, दुर्ग-भिलाई, बिलासपुर, जगदलपुर आदि जगह कार्यक्रमों में जाने लगे। रायपुर के कार्यक्रमों में लगातार जाते रहने से ललित सर से सम्पर्क बढ़ता गया। हमने कवर्धा में भी पाठक मंच का गठन कर लिया और पुस्तक पढ़कर उसकी रिपोर्ट भेजते रहे। छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य के सम्मेलनों में सर अक्सर खैरागढ़ और कवर्धा के पाठक मंच की सक्रियता की तारीफ़ करते थे। कभी-कभार जबलपुर से लौटते वक़्त वे कवर्धा और पिपरिया में थोड़ी देर रुकते और साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के बारे में ही बात करते, हम लोगों को प्रोत्साहित करते।
धीरे-धीरे मुझे सम्मेलन के कार्यक्रमों में कविता पढ़ने का अवसर मिलने लगा। शुरुआत में ग़ज़ल ही पढ़ा करता था, और मुझे इस रूप में ही लिया जाता रहा। फिर कविताएं पढ़नी शुरू की बहुत छोटी-छोटी हुआ करती थी। आलोचनात्मक गद्य और भोरमदेव के इतिहास से मेरा लगाव पहले से था, पढ़ता रहता था, लिखता कम था। इसका एक कारण छपने के लिए किसी मंच का न होना भी था। फेसबुक से जुड़ने से एक मंच मिला तो लिखता गया। पाठक मंच की किताबों पर भी लिखता रहा। कई लोगों ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। ललित सर भी जब भी मिलते प्रोत्साहित करते। देशबन्धु और नवभारत के रविवारीय अंक में कई आलेख छपे। अक्षर पर्व में भी कविताएं और और आलेख छपे।
ललित सर को इससे बहुत ख़ुशी होती थी। वे लिखने पढ़ने वाले युवाओं को बहुत प्रोत्साहित करते थे। मेरी तरह और मुझसे पहले भी कई लोग थे जिनको उन्होंने खूब प्रोत्साहित किया। इस तरह मैं सम्मेलन से जुड़ता गया और मुझे 2019 का सम्मेलन का ‘राजनारायण मिश्र स्मृति पुनर्नवा पुरस्कार’ प्रदान किया गया। जनवरी 2020 में सम्मेलन का यह पुरस्कार-सम्मान समारोह हुआ और मार्च के आते- आते कोरोना का तांडव शुरू हुआ। देशभर में लॉकडाउन हुआ। इस बीच सर ने एक बार मुझे फोन कर अपने आस-पास के ज़रूरतमंद लोगों की अपने ग्रुप के साथ मदद करने को कहा था। लॉक डाउन बढ़ता गया, फिर थोड़ी ढील मिली। हमेशा सक्रिय रहने वाला व्यक्ति को इस तरह ठहराव खलता है। वाट्सअप ग्रुप में सर ने एक-दो बार वृंदावन हॉल में सीमित संख्या में कार्यक्रम करने की इच्छा जाहिर की थी, मगर यह हो न सका। फिर अचानक उनकी बीमारी और इलाज के लिए दिल्ली जाने की सूचना मिली। वे व्यक्तिगत रूप से भी वाट्सअप से अपने स्वास्थ्य लाभ की सूचना देते रहे और सम्मेलन के एक ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी में वे स्वस्थ भी नज़र आये। फिर उसके बाद नवंबर 2020 के आखिर में उनके अस्वस्थ होने की सूचना मिली और फिर दो दिसम्बर को उनके निधन का समाचार मिला।
मेरा सम्पर्क सही मायनों में उनसे पिछले आठ-नौ सालों से ही था। इस दौरान मैंने उनके व्यक्तित्व के विविध आयाम देखे। कई ऐसे लोगों को देखा जिन्होंने अपनी आत्मकथा अथवा कोई अन्य किताब सर के बार-बार प्रेरित करने पर लिखी है। उनके लगन और व्यक्तित्व को देखकर बहुत लोग कार्यक्रमो में सहयोग करते थे। वे बहुत कम संसाधन में जन सहयोग के कार्यक्रम करा लेते थे। लेकिन मैंने कभी नहीं देखा कि उन्होंने किसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा के व्यक्ति को मंच दिया हो या उनसे सहयोग लिया हो। वे लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते थे। उनके सारे कार्यक्रम कहीं न कहीं प्रगतिशील जीवन मूल्यों को आगे बढ़ाने वाले ही होते थे।
सर नए लोगों को बेहद प्रोत्साहित करते थे। अपनी पीढ़ी का तो हमने देखा है, मगर उनके निधन के बाद उनसे सम्बंधित संस्मरणो को पढ़ने से पता चलता है कि वे हमेशा से ऐसा करते रहे हैं। देशबन्धु और अक्षर पर्व में बहुतों को छापा, बहुतों को पत्रकारिता से जोड़ा और प्रशिक्षित किया। यही कारण है कि देशबन्धु को पत्रकारिता की पाठशाला कहा जाता है।उनके जाने के बाद उनके प्रति लोगों का प्यार अकारण नहीं है। उनका कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत था। वे बहुत प्रकार के लोगों और संस्थाओं से जुड़े थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने बहुत सारे काम किए होंगे। ज़ाहिर है कई लोगों के साथ उंनकी असहमतियां रही होंगी, कुछ गलतियाँ भी उनसे हुई होंगी। यह बात उनके मित्र, उनके सहकर्मी बेहतर जानते होंगे, मगर उनके जीवन की सकारात्मकता इतनी विशाल है कि लोग उनके उदात्त व्यक्तित्व को ही याद रखते हैं। आज जब वे नहीं हैं तो उनके विजन – जो कि प्रगतिशील-लोकतांत्रिक मूल्यों को आगे ले जाने का है, को आत्मसात करना और उस पर लगातार काम करते रहना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
अजय चंद्रवंशी, कवर्धा ( छग)
प्रो.सेवाराम त्रिपाठी
सफलता और सार्थकता का निर्धारण करना बड़ी अजीब पहेली है। बहुत सारे लोग किसी भी तरह से सफल तो होते हैं लेकिन सार्थक और मूल्यवान नहीं। उसी तरह कई लोग ऐसे भी होते हैं जो सार्थक होते हैं लेकिन सफल नहीं। कुछ थोड़े से लोग ऐसे भी होते हैं कि वे दोनों होते हैं यानी सार्थक भी और मूल्यवान भी। ललित सुरजन की कोटि कुछ इसी तरह की है, ऐसा मुझे लगता है। ललित सुरजन का जन्म 22 जुलाई 1946 को हुआ था। वे आज हमारे साथ भौतिक रूप में होते तो पचहत्तर वर्ष पूरे कर चुके होते। जो आदमी हर 22 जुलाई को बिना नागा सुबह सात से आठ बजे के बीच मुझे विगत तीसेक वर्षों से फोन करता रहा था, वह कोई सामान्य आदमी तो हो सकता नहीं। कुछ तो खास है उसमें। आज सुबह उसकी आवाज़ सुनने को मैं तरसता रहा। सरकारी आंकड़े में मेरा जन्म 22 जुलाई ही है जबकि है वास्तव में दीवाली। ललित भाई मुझ से चार वर्ष पांच महीने बड़े थे। मेरे और बाबूजी यानी मायाराम सुरजन के संबंध पिता -पुत्र जैसे रहे हैं और इस बात को ललित भाई बखूबी जानते थे। बाबू जी के न रहने पर उन्होंने मेरे बड़े भाई की भूमिका निभाई। वे अक्सर मेरे हालचाल लेते रहते थे। यूं तो बातें अक्सर होती रहती थीं, जिनका मेरे पास कोई रिकॉर्ड नहीं है,लेकिन उनका प्यार भरा फ़ोन 22 जुलाई को ज़रूर, हर हालत में आता ही था। बातें पंद्रह बीस मिनट ज़रूर होती। वह स्नेह से भीगी आवाज़, उसकी ध्वनियां, वह खनकदार संगीत आज नहीं सुन सका। अब हैं तो उनके द्वारा किए गए काम। पत्रकारिता की दुनिया और साहित्य से संबद्धता के तमाम महत्वपूर्ण बिखरे हुए सूत्र और भूमिकाएं। संबंधों के निर्वाह का कोई मतलब होता है या शास्त्र निर्मित होता है तो वह श्रेय ललित सुरजन को ही जाएगा।
मैंने दस-ग्यारह बजे के बीच सर्वमित्रा को फ़ोन लगाया। पहले तो उसका फोन उठा ही नहीं। बाद में सर्वमित्रा का ही फोन आया। दस -बारह मिनट तक बातें होती रहीं। ललित भाई के विभिन्न आयामों के बारे में। उसने बताया कि पिता जी ने इस बात को कई बार मुझसे बताया था। आपके आत्मीय रिश्तों की बातें वे जब -तब किया करते थे। एक छोटा हिस्सा यह भी समझें। एक दिन मैंने सर्वमित्रा को फोन किया। उसमें सर्वमित्रा ‘जी’ संबोधन था। उसने कहा – अंकल आप तो जी मत कहा कीजिए, मुझे कष्ट भी होता है और दुःख भी। तब से सामान्य है।
कुछ यादों का ज़िक्र करना चाहता हूं। मित्र सुबोध श्रीवास्तव की बेटी की शादी का। मैं भोपाल में ही था। शादी के दिन ललित जी रायपुर से आए थे। मुझे भी इसमें शामिल होना था। इसलिए विजय अग्रवाल के साथ मुझे लेने द्वारिका पुरी स्थित मेरे निवास पर आए। हम सभी आयोजन स्थल गए। उस में अनेक साथी आए थे जिनमें कोलकाता से शंभुनाथ, जबलपुर से ज्ञानरंजन, अजित हर्षे, पूर्णचंद रथ, ओम भारती स्मरण आ रहे हैं। ललित जी जिस खुलूस, अपनापे और प्यार से मिले, वह छवि मेरे भीतर आज तक बसी हुई है। एक और कार्यक्रम की याद आ रही है। पिपरिया में मैं जुलाई 82 से नवम्बर 1984 तक महाविद्यालय में पदस्थ था। ललित जी के चाचा श्री हरनारायण सुरजन मेरे साथी प्राध्यापक थे और उनका बेटा लव मेरा विद्यार्थी था। वहीं का एक प्रसंग है।मेरे अनुजवत मित्र और मुझे गुरु कहने वाले शिष्य गोपाल राठी का फोन आया कि आपको हर हाल में पिपरिया आना है। ललित सुरजन भी आ रहे हैं। श्री खूबचंद मंडलोई का नागरिक सम्मान है। मंडलोई जी मेरे बुजुर्ग मित्र रहे हैं पिपरिया में और ललित भाई के अध्यापक भी। उनकी एक पुस्तक – अपयश का आचमन ,जो कैकेयी पर केंद्रित थी, उसका लोकार्पण भी है। इसमें ललित सुरजन सपत्नीक आए थे। मैं और मेरी पत्नी शांति भी शरीक हुए थे। ललित भाई कितनी कठिनाई से कार द्वारा सीधे रायपुर से पिपरिया आए थे अपने गुरु के कार्यक्रम में। आज के दौर में रिश्तों की ऊष्मा का भयानक क्षरण हुआ है, लेकिन उन्हें गुरु का सम्मान और संबंधों के व्याकरण ने ही बांधा था। ललित सुरजन का पैतृक गांव खापरखेड़ा पिपरिया से थोड़ी ही दूर पर है। वे क्षण भी अविस्मरणीय हैं।
इसी तरह पत्रकारिता पर केन्द्रित एक आयोजन में शायद मई 1999 में वे रीवा विश्वविद्यालय आए थे। विषय था 2001 में मीडिया का स्वरूप। उस दिन भी वे मीडिया के बदलते स्वरूप पर बेबाकी से बोले और जिस तरह पूंजीवाद मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश में था और आज जो उसका वीभत्स रूप दिख रहा है उस पर उन्होंने अपने अंदाज में बेपर्दा किया था।
उनका मिलना, बतियाना , उन्मुक्त ढंग से हंसना, मुझे ऐसा लगता जैसे स्नेह का निर्झर बह रहा है। एक प्रसंग और स्मरण आ रहा है।संभवतः नवम्बर 2018 में वे कुंवर अर्जुन सिंह व्याख्यान माला में रीवा विश्वविद्यालय आए थे। साथ में भाभीजी भी थीं। कार्यक्रम के एक दिन पूर्व वे रीवा आ गए थे। विषय था उच्च शिक्षा की चुनौतियां। रात में उनका खाना मित्र प्रो. विजय अग्रवाल के यहां था और व्याख्यान के पश्चात दूसरे दिन मेरे यहां होना निर्धारित था। बाहर उन्हें कार्यक्रम के तत्काल बाद निकलना था , ऐसा उन्होंने मुझे बताया। विश्वविद्यालय में ही उन्होंने मुझसे माफ़ी मांग ली। भाई, व्यस्तता की वजह से इस बार नहीं, अगली बार ज़रूर आऊंगा। काफ़ी समय तुम लोगों के साथ गुजारूंगा। फिर वह दिन नहीं आ सका। केवल उनका वादा ही बचा है। जो अब पूरा होने वाला नहीं है।
मैं अनुभव करता हूं कि बाबू जी (मायाराम सुरजन) के निधन के पश्चात वे मुझे और चाहने लगे थे। उन्होंने बाबू जी की कमी को कभी महसूस नहीं होने दिया। एक वाकया याद आ रहा है। शायद 1984 का है। हम अनेक साथी प्रलेस के प्रांतीय अधिवेशन में जगदलपुर गए थे। उस आयोजन में यूं तो भारत और विदेशों से कई लोग शामिल हुए थे। उनमें एक थे हरिशंकर परसाई और दूसरे थे कैफ़ी आज़मी। मैं, परसाई जी और कैफ़ी आज़मी साहब लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। जिसमें मैं चुपचाप बैठा इन दोनों मित्रों की बातें सुन रहा था। एक चुहल याद आ रही है। परसाई जी ने पूछा। कैफ़ी साहब, वह ज़माना मैं अभी से अनुभव कर रहा हूं जब आपको लोग आपकी वजह से नहीं, बल्कि आपकी बेटी शबाना आज़मी के कारण जानेंगे। है कि नहीं। कैफ़ी साहेब हां में सर हिला रहे थे। परसाई जी की बात बाद में सच साबित हुई। इसी तरह बच्चन जी को लोग अमिताभ बच्चन के पिता के तौर पर जानते हैं। कार्यक्रम आयोजित होने के बाद वहां से हम लोग सीधे रायपुर आ गए। लंबी यात्रा थी। रायपुर में एक जगह हम ठहरा दिए गए। यह लगभग सुबह आठ बजे का समय था। जल्दी- जल्दी नहाया धोया और सीधे ललित सुरजन के घर पहुंचे। चाय, हल्का फुल्का नाश्ता भी हो गया। सबकी लंबी -लंबी यात्राएं थीं। किसी ने हंसी -हंसी में कह दिया कि इतनी लंबी यात्रा ललित सुरजन के यहां से भूखे ही करेंगे क्या? यह तो एक तरह से ललित जी की बेइज्जती ही है। बस क्या था। ललित बोले – मुझे पच्चीस मिनट का समय दीजिए। दरअसल, हम लोगों की तीस लोगों से अधिक की मंडली थी। इतने लोगों का एक साथ इंतज़ाम कोई छोटी-मोटी बात तो न थी। अलबत्ता काम वाली बाई आ गई थी। मैं उनके साथ थोड़ा अन्दर चला गया तो पता चला कि न तो इतना आटा है और न सब्जी। कुछ अगल बगल की बाईयां आईं। आसपास से ही अन्य जिंसों का इंतजाम हुआ। एक सवा घंटे के भीतर सब लोगों का भरपेट भोजन हुआ । यह दिलदारी भी आसान नहीं थी।
किसी को भी दुविधा हो सकती है कि ललित, लेखक बड़े हैं या पत्रकार। उनकी अंतर्दृष्टि को विकसित करने में बाबूजी यानी मायाराम सुरजन का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने सामाजिक – सांस्कृतिक क्षेत्रों में सक्रिय रूप से काम किया है। उनका कहना है कि”ठेठ शब्दों में आप मुझे अख़बार का मालिक कह सकते हैं किन्तु मैं अपने में मालिक नामक प्रजाति का कोई गुण नहीं पाता। मैं अपने मूल चरित्र में पत्रकार हूं और मानता हूं कि पत्रकारिता मेरे लिए सिर्फ़ जीवन यापन का साधन नहीं, बल्कि एक महत्तर सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह करना भी है।.बहरहाल इस बात का संतोष है कि एक पत्रकार के नाते मैंने अपनी कलम का उपयोग अपनी शर्तों पर किया है।(आत्मकथ्य)
ललित सुरजन ने कविताएं, निबंध और यात्रा वृतांत भी लिखे हैं। बाद के दौर में वे कविताओं से लगभग दूर हो गए थे लेकिन उनके अंदर कविता का एक घर था। बानगी के तौर पर एक अंश पढ़ें- “हम अभागों की बात क्या/बातों में न चुभन होती न तुर्शी/हम न कांटों के हुए न फूलों के/झर जाते हैं शब्द भी/हम बटोर नहीं पाते/उनके लिए शब्द नमक हैं/शब्दों का टूटना और/क्षणों का रीतना हमें/एक से दर्द में भिगो देता है/क्षण उनके कर्ज़दार हैं।”
मीडिया और पत्रकारिता पर उनकी एक किताब आई थी – ‘तुम कहां हो जॉनी वॉकर’। उसी तरह अंग्रेजी में लेखों का एक संग्रह आया था, द बनाना पील नाम से। समकालीन परिवेश में घट रही घटनाओं के प्रति वे हमेशा सजग और चिंतित होते थे। इधर वे देशबन्धु के साठ साल पूरे होने पर एक लेख माला लिख चुके थे। उसी तरह उसमें पत्रकारिता चौथा खंभा बनने से इंकार भी शामिल है। अक्षर पर्व में वे नियमित आलेख लिखा लिखते थे। जिनका पुस्तक रूप में प्रकाशन होना अभी शेष है। बेटी सर्वमित्रा से आज ही मेरी बातचीत हो रही थी कि ललित भाई की रचनावली तो आती रहेगी। फिलहाल उनका लगभग तीन – साढ़े तीन सौ पृष्ठों का एक संचयन ज़रूर निकलना चाहिए। इससे उनकी रचनात्मक दुनिया का खुलासा हो सकेगा। साथ ही उनकी चिंता के तमाम महत्वपूर्ण पक्ष खुल सकेंगे।
ललित जी में बाबूजी की तरह जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष तमाम महत्वपूर्ण रूपों में उनके ईमानदार संवेदन और मानवीय मूल्यों की व्यापक पहचान और गहन कंसर्न रहे हैं। उनकी एक बेहद जरूरी और पत्रकारिता से जुड़ी टिप्पणी सबके सामने रखना चाहता हूं। यही नहीं रखना चाहता हूं उनकी जुड़ाव की दुनिया भी। ‘इस समय मीडिया और पत्रकारिता का क्षेत्र अनेक आशंकाओं से घिरा हुआ है। यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि देश का नागरिक पत्रकारिता पर बहुत विश्वास करता है। जैसे सरकार नहीं सुनेगी, न्याय व्यवस्था नहीं सुनेगी तो मीडिया और पत्रकारिता ज़रूर सुनेगी और नागरिकों की स्वतंत्रता की हर हाल में हिफाजत करेगी। पत्रकारिता संबंधी आलेखों में मैंने भी ये प्रश्न रखे हैं’। ललित सुरजन तो इसी संसार में जीते थे और इस तरह की तमाम चिंताएं भी करते थे। अपने अंतस के संसार को प्रकट भी करते थे। बेलौस और बिना किसी हिचक के। इस भयावह संकट की बात वे बिना किसी लाग लपेट के सार्वजनिक भी करते थे। उदाहरण के रूप में उनकी अनेक बातों में से केवल दो बातें रख रहा हूं। (1)”पत्रकार से यह अपेक्षा हर वक़्त की जाती है कि वह जनता की आवाज़ को उठाएगा और आदमी के जीवन में जो मुश्किलात हैं उन्हें हल कर में सहायक बनेगा। क्या यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि पत्रकारिता देश की जनांकांक्षाओं पर खरी उतरी है? कम से कम मेरा उत्तर नहीं में है। (राग भोपाली, सितंबर 2013, पृष्ठ 52) पत्रकारिता की स्थिति को लेकर उनके मन में कई तरह के रेले आते थे। बहुत दुख और ग्लानि के साथ उन्होंने लिखा भी है। (2)”मैं देख रहा हूं कि भारतीय मीडिया में इस समय बहुत बड़बोलापन है। यह शायद इसलिए कि मीडिया की आत्मा खोखली हो चुकी है। शायद इस ग्लानि पर पर्दा डालने के लिए ऊंचे स्वर में बातें की जा रही हैं। इस तरह से मीडिया अपने आप से कब तक छल करता रहेगा?”(तुम कहां हो जॉनी वॉकर, पृष्ठ, 48)
यह अवसर ललित सुरजन की निष्ठा, ईमानदारी और पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गए कामों को स्मरण करने का है। कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से वे लगातार जूझ रहे थे, अपनी बेटियों के पास दिल्ली में; लेकिन निरन्तर विश्वास और ऊर्जा से ओतप्रोत। लगता था कि वे किसी तरह बीमार नहीं है। उनकी चेतना बीमारी के दौर में भी सक्रिय रही है। कभी अहसास ही नहीं हुआ कि यह स्थिति भी बन जाएगी। समय ज़रूर लगेगा लेकिन वे ठीक होकर ही लौटेंगे।निधन के दो दिन पहले उनसे बातें हुई थीं। कह रहे थे जल्दी ही लौट रहा हूं ठीक – ठिकाने से काम करने के लिए। आत्मविश्वास से लबरेज वे बातें मेरे भीतर गूंजती हैं।लौटे तो नहीं लेकिन अपने पीछे वे साहित्य – संस्कृति के और पत्रकारिता के मूल्य छोड़ गए हैं। उन्हें सहेजना और उस दायित्व को संभालना हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है।
ललित जी के अनेक पक्ष थे। वे बहुत पढ़ने- लिखने वाले, सामाजिक सरोकारों को महसूस करने वाले और रिश्तों की ऊष्मा को अनुभव करने वाले जागरूक इंसान रहे हैं। उनके ज़मीर और निष्ठा को धीरे – धीरे अनुभव किया जा सकेगा। वे एकदम टकराने वाले आदमी नहीं थे। हर चीज़ को बेहद गंभीरता से लेते थे। उन्हें मैंने उन्हें न तो हड़बड़ी में देखा और न उतावलेपन में। इस समय की जद्दोजहद और नज़ाकत को भी समझने की ज़रुरत है। सब कुछ बहुत तेज़ी से बदलता जा रहा है। अन्याय, अत्याचार और भरमाने के कट ऑउट दिन ब दिन बड़े हो रहें हैं। जनतंत्र को खोखला किया जा रहा है। मनुष्यता अप्रासंगिक बनाई जा रही है। सभी चीज़ों का आयतन सिकुड़ समिट रहा है। धीरे -धीरे इस वातावरण ने लोगों के भीतर चुप्पी भर दी है। उनके मेरे द्वारा सुने गए भाषण की गूंज जीवित है। यह भाषण उन्होंने रीवा विश्वविद्यालय में कुंवर अर्जुन सिंह स्मृति भाषण माला में दिया था। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के तमाम महत्वपूर्ण सवाल उसमें गुंथे थे। देश के नागरिकों पर और खासकर हमारे सद्भाव, सहयोग और बहुसंख्यक समाज की टूटती हांफती वास्तविकताओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य में थे।
अभी हम उनकी वास्तविकता का मूल्यांकन, विश्लेषण पूरी तरह से करने की स्थिति में नहीं हैं। कभी उन्होंने यह भी कहा था कि बाज़ार ने हमारी वैचारिकता छीन ली है। हमारा पहला कदम यह है कि ललित सुरजन की रचनात्मकता, साहित्य – संस्कृति और जीवन के विविध आयामों में किए जाने वाले कामों को गहराई से देखें। उनकी पत्रकारिता के ताप और सरोकारों को महसूस कर उन अछूते पहलुओं पर विचार करें; जो उनकी चिंताओं के केंद्र में रहे हैं। पत्रकारिता से ही उनका असली चेहरा झांकता था। उनकी दृष्टि का पैनापन और चीज़ों को समझने की क्षमता का मैं विशेष रूप से कायल रहा हूं। पत्रकारिता की दुनिया में काम करते हुए ही जीवन -जगत की वास्तविकताओं को समझने का प्रयत्न रहा है उनका। पत्रकारिता की दुनिया में उनके संबंधों का विस्तार रहा है। उसी के समानांतर साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में भी। युवाओं से उनकी अपेक्षाएं बहुत थीं। उनका एक कथन ध्यान में आता है।”वे पढ़ें, अपने ज्ञान का विस्तार करें, विविध विषयों को पढ़ें, मैं साहित्य ही नहीं, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र पढ़ने की जरूरत पर भी जोर देता हूं। जितना ज्यादा पढ़ोगे हम उतना ही सीखेंगे। हम दूसरों के अनुभव से भी सीखते हैं। आज बाज़ार ने नई पीढ़ी से उसकी वैचारिकता छीनी है। यह ख़तरनाक है। उसे तरह तरह के प्रलोभनों में उलझाया जा रहा है।”
अपने इस अनूठे अग्रज को याद करता हूं और सतत एक नई ऊर्जा अनुभव करता हूं। कहते हैं कि आदमी के न रहने पर हमारे अन्दर कुछ टूट ज़रूर जाता है, लेकिन उसकी अनुगूंज हमारे भीतर हमेशा के लिए बस जाती है।उनकी स्मृति को नमन।
रजनीगंधा
06, शिल्पी उपवन,
अनंतपुर, रीवा
मो. 07987921206।
डॉ. दीपक पाचपोर
यह कुछ ऐसा ही है जैसे कमरे में घुटन बढ़ रही हो और बाहर से रोशनी लाने वाले झरोखे बंद हो जाएं या फिर किसी अंतहीन सुरंग से बाहर निकलने की आप कोशिश कर रहे हों और हाथों में थामी टॉर्च एकाएक बुझ जाए। देशबन्धु के प्रधान संपादक ललित सुरजन का निधन ऐसे वक्त हुआ, जब हमारे आसपास का अंधेरा लगातार बढ़ता जा रहा है और वे ही हमारे हाथों में थामी हुई गिनी-चुनी मशालों में से एक थे। ऐसे वक़्त में जब लेखन और पत्रकारिता से जुड़े लोग जनविरोधी शासकों के दरबारों में अपनी जगह बनाने में मशगूल रहे, वे अपनी कलम को थामे एन उस जगह पर अडोल खड़े रहे, जहां उनकी और पत्रकारिता की सर्वाधिक आवश्यकता होती थी। लोकतंत्र के एक-एक दरकते पाये के बीच देश में ललित जी जैसे गिने-चुने ही पत्रकार व लेखक रह गये थे जो जनतंत्र के मूल्यों को थामने की दिशा में अपनी कलम लगातार अड़ाते रहे हैं। इस घटाटोप में वे एक ऐसे प्रकाश स्तम्भ की तरह थे जो लोकतांत्रिक आदर्शों पर आधारित समाज बनाने की दिशा में सक्रिय लोगों और संगठनों को सहारा देते रहे हैं। पत्रकारिता के मूलभूत उद्देश्यों से जगह भी हटे या इंच भर भी सरके बगैर उन्होंने जनपक्षधरता के मूल्यों से संपन्न लेखनी का दामन कभी नहीं छोड़ा।
अपने पिताश्री मायाराम सुरजन की थमाई सरोकारी पत्रकारिता की कलम रिले रेस के बैटन की तरह उन्होंने थामी और उस मिशन को सतत आगे बढ़ाते रहे जो उन्हें विरासत में मिली थी। बहुत कम उम्र से पत्रकारिता और लेखन की राह पकड़ने वाले सबके ललित भैया पांच दशकों से भी अधिक समय तक अपनी कलम को किसी शमशीर की तरह भांजते रहे और हाशिये पर खड़े लोगों को शोषण से सुरक्षा प्रदान करने का काम निस्वार्थ भाव से करते रहे। वे अपनी कलम की स्याही को उनके लिए तर करते रहे जिनकी आवाज़ उठाने का दायित्व पत्रकारिता का ही है। प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्षता और समानता के तत्वों से सानकर उन्होंने अपने दर्शन और अभिव्यक्ति को पुष्ट किया था। आपातकाल के बाद 1977 के काल में पूरे भारत के मोह भंग, 1980 के सोवियत संघ के विखंडन, 1989 के मंडल के झंझावात, 1991 में आई नयी वैश्विक अर्थव्यवस्था, बाबरी मस्जिद का विध्वंस, सामाजिक ध्रुवीकरण, कट्टरपंथ का उदय जैसे अनेक घटनाक्रमों से गुजरते भारत को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर टिप्पणी करते हुए वे कभी भी उस रौ में नहीं बहे, जिसमें बहती हुई देश की मीडिया आज गंगा को गटर में बदल चुकी है। उन्होंने देशबन्धु को उस पाप का भागीदार नहीं बनने दिया। नतीजतन, विज्ञापनों और प्रसार की प्रतिस्पर्धा में बहुत-बहुत पिछड़ जाने के बावजूद उन्होंने अपनी और प्रकाशन की प्रतिष्ठा को बनाए रखा। इसमें वर्षों पहले काम करके जा चुके और अलग-अलग जगहों पर ऊंचे मकाम हासिल किये हुए पत्रकार और लेखक मानते हैं कि उनकी मानसिक बुनावट और वैचारिक गठन को खाद-पानी देशबन्धु की न्यूज़ डेस्क पर ही मिला था।
ललित सुरजन ऐसे पत्रकार रहे हैं, जिन्होंने देश और दुनिया को तेजी से बदलते हुए देखा था। समाज को आधुनिक बनाने में जिन तत्वों और लोगों का योगदान था, उनके प्रति आजन्म उऋण होने का उपक्रम ही उनकी पत्रकारिता थी। लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाये रखने, सामाजिक व आर्थिक बराबरी, संसाधनों और अवसरों की सभी के लिए एक सी उपलब्धता, शोषणविहीन समाज की स्थापना, विश्व बंधुत्व, सामाजिक समन्वय और सौहार्द्रता के गुणों को अपने में समेटे हुए ललित सुरजन का लेखन लंबे समय तक एक मशाल की तरह उन लोगों को रास्ता दिखाता रहेगा, जो अक्सर दिग्भ्रमित होकर या तो पाला बदलते हैं अथवा हथियार ज़मीन पर रख देते हैं।
देशबन्धु को अगर एक प्रकाशन से अधिक ‘पत्रकारिता की पाठशाला’ कहा जाता है तो उसका कारण यही है कि वे इसमें काम करने वालों को अपनी सामाजिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक दृष्टि से लगातार विकसित और संपन्न करते गये हैं। परिवार की लेखकीय विरासत उनकी आधारभूमि थी तो सतत पठन-पाठन और खुद को अद्यतन रखने की लालसा उन्हें बाकी पत्रकारों से मीलों-मील आगे बनाये रखती थी। लोक में उनका विश्वास जबर था। समाज के लगभग हर क्षेत्रों में उनकी गजब की दखल थी। देश के ज़्यादातर प्रसिद्ध लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी उनसे गलबहियां कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे। इस शख्स की बाछें समाज के चारों ओर इतनी विस्तृत फैली थीं, कि यकायक इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो जाता था कि रायपुर जैसे एक छोटे से शहर में और वह भी छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के पहले तक एक सुदूर कोने में बसे हुए कस्बेनुमा नगर में बैठकर उन्होंने देश के बौद्धिक जगत को अपने आगोश में ले रखा था। सच्चे मायनों में वे एक लोक संग्राहक थे। अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो), हिन्दी साहित्य सम्मेलन, जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, विश्वविद्यालय, कई एनजीओ और अनेकानेक संगठनों और संस्थाओं से उनका घनिष्ठ संबंध रहा। उनका विस्तार समाज के शीर्ष व्यक्तियों से लेकर निचले स्तरों तक के लोगों से बना हुआ था। व्यक्तिगत संबंधों की उनकी ऊष्मा को उनसे मिलकर ही अनुभव किया जा सकता था।
राजनीति और साहित्य के अलावा इतिहास, संस्कृति, भाषा, मानवशास्त्र, पुरातत्व, पर्यटन, समाजशास्त्र, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, विज्ञान जैसे अनेकानेक विषयों में उनकी न केवल रुचि थी बल्कि वे उन पर साधिकार लिखते थे। उनका दृष्टिकोण बेहद वैज्ञानिक हुआ करता था लेकिन भारतीय स्वस्थ परंपराओं का वे उतना ही सम्मान भी करते थे। किसी भी तरह के अंधविश्वासों और कुप्रथाओं से उन्होंने उस पूरी पीढ़ी को बचाए रखा जो उनके सानिध्य में आई या जिन्होंने उनसे पत्रकारिता की घुट्टी पी थी। आज उनके हाथों बड़े किये हुए ऐसे ही अनेक लेखक और पत्रकार समाज में लोक जागरण और लोक शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। यही पीढ़ी जातिवाद, साम्प्रदायिकता, छुआछूत, ऊंच-नीच जैसे सामाजिक जहर से लड़ने का भी काम कर रही है; और इसी पीढ़ी को उन्होंने लोकतंत्र के लिए लड़ने का जज़्बा और हौसला दोनों ही प्रदान किया है।
उनका प्रदीर्घ अनुभव, देश और विदेश की अनगिनत यात्राएं, लोक जुड़ाव, अध्ययन और लेखन ने ललित जी को एक चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया बना दिया था। किसी भी जानकारी के लिए उनके पास जाया जा सकता था। या तो उनके पास उत्तर मौजूद होता था अथवा वांछित जानकारी के मिलने का स्रोत वे बता देते थे, जो कोई व्यक्ति, किताब अथवा संगठन कुछ भी हो सकता था। इन जानकारियों ने ही उनके संस्मरणात्मक लेखों को खूब पठनीय, रोचक और संग्रहणीय बनाया था। उनके लेखों में संदर्भों और उदाहरणों की भरमार होती थी। देशबन्धु के 60 साल पूरे होने पर उन्होंने एक लंबी लेख माला लिखी थी। वह खत्म होते न होते उन्होंने ‘देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार’ लिखना शुरू किया था। संयोग देखिए कि आज के देशबन्धु के प्रथम पृष्ठ पर उनके निधन की खबर छपी है और छठवें पृष्ठ पर इस कॉलम की 26वीं (एकाएक खत्म हुई आखिरी) कड़ी का प्रकाशन हुआ जो उन्होंने अपनी असाध्य बीमारी से जूझते हुए लिखी। इस किस्सागो का वह अंतिम उपहार था जो वे हम सबके पढ़ने के लिए मुकम्मल व्यवस्था करके चले गये। इसलिए लगता है कि ललित सुरजन का निधन मानों उनकी हजारों-हजार उंगलियों से होने वाला प्रचुर और जनोपयोगी लेखन का एक झटके से यकायक थम जाना है।
बेहद दुख के बावजूद अगर फलसफाना अंदाज में कहा जाए और भारतीय अध्यात्म का सहारा लिया जाए तो यह तो मानना ही होगा कि ‘मृत्यु अटल है’ लेकिन ललित जी को अलविदा कहने के पहले अगर यह सोचा जाए कि उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि कैसे दी जा सकती है, तो हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र की रक्षा, समतामूलक व न्यायपूर्ण समाज की स्थापना से ही उनकी आत्मा को सच्ची शांति प्राप्त हो सकती है।
विदा, ललित भैया! उम्मीद है कि आपने लोकतंत्र के जो पहरुए निर्मित किये हैं और अपने पीछे निगरानी की जो कलमबंदी की है वह देश को अराजकता, तानाशाही और अजनतंत्रीय व्यवस्था में तब्दील न होने देने के लिए वह सब कुछ करेगी, जो आपने अपने जीवन में स्वयं करके दिखाया है।
6 दिसंबर 2020
डॉ. अमिता
बात 2, 3 मार्च 2011 की है। अवसर था राजीव गांधी शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अंबिकापुर में मीडिया पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का। उस दौरान मैं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से जनसंचार में पीएच.डी. कर रही थी। वहीं से संगोष्ठी में सहभागिता हेतु हम अंबिकापुर आये थे। उस समय तक ललित सुरजन सर से मेरा कोई परिचय नहीं था। इस संगोष्ठी में खाने के दौरान मेरी उनसे थोड़ी-बहुत बातचीत हुई। ललित सर और जाने-माने भाषाविद् प्रो. चितरंजन कर दोनों हमसे थोड़ी दूरी पर ही साथ में बैठकर खाना खा रहे थे। वहीं पर उन्होंने हमसे पूछा कि तुम लोग कहाँ से आये हो? उन दोनों की सहजता ऐसी थी कि खुद ही मुझसे और मेरे तत्कालीन मित्र (जो बाद में मेरे जीवनसाथी बने) से बातचीत की शुरुआत की। फिर उन्होंने सत्र प्रारंभ होने से पहले कहा कि चलो अब तुम लोगों को सुनना है। उनकी इस बात को सुनकर और सर के बारे में जानकर एक अनजाना भय सा पैदा हो गया था। वहां उपस्थित अधिकांश लोग ललित सर को सुनने के लिए ही उपस्थित हुए थे। मुझे तो समझ में नहीं आ रहा था कि इतने बड़े व्यक्ति के सामने मैं अपनी बातों को कैसे रख पाऊँगी? दिमाग में ये सारी बातें उथल-पुथल मचा ही रही थी कि तभी संचालक ने मेरे नाम की घोषणा कर दी। किसी तरह मंच पर पहुँचकर मैंने अपनी बात रखी। मेरी बात सुनने के बाद ललित सर ने मेरे लिए जो कहा वह किसी पुरस्कार से कम नहीं था। सारा डर, भय एक ही झटके में खत्म हो गया था। कार्यक्रम खत्म होने के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तुम्हे छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के कार्यक्रम में बुलाऊँगा। तुम बहुत अच्छा बोलती हो, तुम बढिय़ा कर सकती हो।
फिर ललित सर ने हमें छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के लिए आमंत्रण भिजवाया और इस तरह वर्धा से छत्तीसगढ़ आने का सिलसिला ऐसा शुरू हुआ कि यही राज्य मेरे जीवनयापन का ठिकाना बन गया। कुछ ही समय बाद मुझे छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन की कार्यकारिणी का सदस्य बना दिया गया। ललित सर छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष का दायित्व लंबे समय तक संभालते रहें। सभी कार्यक्रमों में उनकी सक्रियता अद्भुत थी। उनकी सक्रियता और उर्जा देखकर कहीं भी उनके उम्र का एहसास ही नहीं होता था।
मैं जब पहली बार छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन के कार्यक्रम में शामिल होने आयी, तब मुझे लगा था कि हम जैसे विद्यार्थियों को यहां कौन तवज्जो देगा? लेकिन हम सीखने और सुनने के लिहाज से कार्यक्रम में शामिल होने का मन बना कर आये थे। जब हम कार्यक्रम में पहुंचे, तब सब कुछ बिल्कुल अलग था। वहां हमारे लिए भी लगभग वैसी ही व्यवस्था की गई थी, जैसे अन्य अतिथियों के लिए। ललित सर ने जब भी हमे कार्यक्रम में बुलाया, वहां हमें भरपूर सम्मान दिया और पूरा ध्यान रखा। कभी किसी उपेक्षा का एहसास नहीं होने दिया। सर मंच से बोला करते थे कि प्रदेश स्तरीय कार्यक्रम अमिता और संतोष के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से आने से अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो जाता है। उनका यह वाक्य आज भी मेरे कानों में गूंजता है। मुझे विश्वास नहीं होता था कि इतनी बड़ी हस्ती कैसे हम जैसे साधारण विद्यार्थियों का इस प्रकार स्वागत कर सकती है। लेकिन ऐसा करना ललित सर जैसे व्यक्तित्व के लिए कोई नई बात नहीं थी। उनके इसी स्वभाव के कारण लोग उनसे जुड़े रहना चाहते थे। वे कार्यक्रम में शामिल सभी अतिथियों के साथ समान व्यवहार के साथ ही पेश आते थे। पूरे कार्यक्रम के दौरान उनका ध्यान सभी पर बराबर बना रहता था। सभी से एक-एक करके उनके पास जा-जाकर पूछा करते थे कि खाना खाया कि नहीं। कार्यक्रम में लगभग सभी का नाम लेकर पुकारते हुए एक-एक कर सभी लोगों की राय पूछते थे कि कैसे साहित्य को विस्तार दिया जाए? छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन को और बेहतर कैसे बनाया जाए? जब कार्यक्रम खत्म हो जाता था, तब भी वे तबतक अपनी गाड़ी में नहीं बैठते थे, जब तक सभी लोगों के लिए गाड़ी की व्यवस्था नहीं हो जाती थी। एक बार तो मुझे और मेरे पति को गाड़ी नहीं उपलब्ध हो पाई थी, तब ललित सर ने हमे खुद ही अपनी गाड़ी से पहले होटल तक छोड़ा और तब वे अपने घर गये।
2012 की बात है। हमे एक बार फिर छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन में शामिल होने के लिए आमंत्रण मिला था। हर बार की तरह इस बार भी हम वर्धा से कार्यक्रम में शामिल होने के लिए रायपुर पहुंचे थे। मैंने ललित सर को बताया कि सर हमने शादी कर ली है। उन्होंने ने जैसे ही इस बात को सुना, तुरंत मंच पर बुलाकर हमारा स्वागत करते हुए बधाई और आशीर्वाद दिया। फिर शाम के सत्र में समापन के दौरान सर ने घोषणा कि हर बार अमिता और संतोष इस कार्यक्रम में मित्र के तौर पर शामिल होते थे, किंतु इस बार दोनों पति-पत्नी के रूप में शामिल हुए हैं। इसलिए आज सबको इनकी शादी की खुशी में मैं अपनी ओर से आइसक्रीम और मिठाई खिलाऊँगा। कार्यक्रम में जब भी शामिल होने आई, सर ने मुझे मंच पर किसी-न-किसी रूप में ज़रूर बुलाया और सब से मेरा परिचय कराया। सर का यह आत्मीय और अपनेपन से भरपूर व्यवहार जेहन में ऐसे समा गया कि सोच-सोचकर आंखें नम हो जाती है। सर का जो ओहदा था, उसका उन्होंने कभी हम लोगों को एहसास तक नहीं होने दिया। वे हमेशा एक साधारण व्यक्ति की तरह ही सरल और सहज बने रहते थे। अधिकांश लोग छोटी-छोटी उपलब्धियों को हासिल करते ही लोगों को फोन उठाना बंद कर देते हैं, या फोन का जवाब नहीं देते हैं, वहीं ललित सर तमाम व्यस्तता के बावजूद फोन भी उठाते थे और यदि किसी कारणवश फोन नहीं भी उठाते थे तो समय मिलते ही वापस जरूर कॉल करते थे। मृत्यु से दो दिन पहले (30.11.2020) मैंने सर से तबीयत पूछने के लिए फोन किया तो किसी कारणवश उन्होंने फोन नहीं उठाया। फिर लगभग एक घंटे बाद उनका फोन आया। फोन उठाते ही उन्होंने पूछा – और अमिता कैसी हो? मैंने बोला, ठीक हूँ सर। आपकी तबीयत कैसी है? सर ने कहा मेरी तबीयत बिल्कुल ठीक है। तुम्हारा क्या चल रहा है? मैंने कहा सर बस थोड़ा-बहुत लिखना-पढ़ना चल रहा है। तब सर ने बोला कि ठीक है खूब लिखो-पढ़ो, खूब आगे बढ़ो। मैंने कहा जी सर आपके मार्गदर्शन की जरूरत है हमें, आप जल्दी आ जाईए। उन्होंने कहा हां, मैं जल्दी ही छत्तीसगढ़ वापस लौटकर आऊँगा, तब तुम सबसे मिलूंगा। लेकिन मुझे नहीं पता था कि छत्तीसगढ़ जल्दी लौटकर आने की बात कहकर वे किसी और राह पर जाने की तैयारी कर रहे थे। सर छत्तीसगढ़ लौटकर तो जरूर आये, लेकिन सिर्फ एक शरीर के रूप में और हम सब उनसे मिल भी नहीं पाये। सर को इस तरह शांत देखना असहनीय पीड़ा से गुजरने जैसा है। सर का इस प्रकार अपने गृह राज्य लौटना हमेशा अविश्व।सनीय ही प्रतीत होगा।
यों तो सर से लॉकडाउन के दौरान भी ऑनलाईन कार्यक्रम में मुलाकात हुई थी, लेकिन भौतिक रूप से आखिरी मुलाकात 2019 के छत्तीसगढ़ प्रदेश साहित्य सम्मेलन में हुई थी। इस कार्यक्रम में मैंने उन्हें अपनी किताब ‘नदियां उदास बहती है’ भी भेंट की थी। सर से जैसे ही मुलाकात हुई मैंने वह किताब उन्हें दे दी। किंतु उन्होंने मुझसे कहा कि मैं यह किताब तुमसे मंच पर लूंगा। फिर उन्होंने मेरी और मेरी किताब की प्रशंसा करते हुए मंच पर बुलाया और तब मेरी किताब को स्वीकार किया। उन्हेें जब भी सुनने का मौका मिलता था, ऐसा लगता था जैसे उनके चेहरे से कोई दैवीय ओज निकल रही हो। उनकी बातों को सुनने पर लगता था कि अनवरत सुनती रहूं। कई विद्वानों को सुनने पर बोरियत का एहसास होने लगता है, लेकिन सर को सुनने पर कभी ऐसा नहीं लगता था। मंच पर जाते ही संचालक से वे सबसे पहले यह पूछते थे कि मुझे कितनी देर बोलना है, बता दीजिए। उन्हें जितना समय दिया जाता था, वे तय समय के भीतर ही अपना वक्तव्य खत्म कर देते थे। किसी कार्यक्रम को भी बिल्कुल तय समय पर शुरू और खत्म करना उनकी प्राथमिकता में शामिल रहता था। नये रचनाकारों, लेखकों को प्रोत्साहित करना भी उनकी प्राथमिकता थी। इसी प्राथमिकता के कारण सर ने हमे भी जोड़ा था। नई प्रतिभाओं को उभारने और दूरदराज के क्षेत्रों के विद्यार्थियों में भी साहित्य के प्रति रुचि जगाने के लिए निरंतर रचना शिविरों का आयोजन कर स्वरयं प्रशिक्षण देते थे। मेरा पहला लेख भी 31 अगस्त 2011 को देशबन्धु अख़बार में ही छपा था जो कि किन्नरों पर केंद्रित था।
तमाम व्यस्तताओं के बावजूद उन्होंने कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि उनके पास समय नहीं है। कार्यक्रम के बीच में जब भी उन्हें समय मिलता था, हम लोगों के साथ बैठकर काफी देर तक बातचीत किया करते थे। उस दौरान (2011-12) मुझे पीएच.डी. से संबंधित सामग्री मिलने में भी काफी दिक्कतें आ रही थी। जब मैंने सर से इसकी चर्चा की, तब उन्होंने अविलंब कई जगह फोन लगाकर मुझसे बात कराई और उन्हें मेरी मदद करने के लिए कहा। देशबन्धु के पुस्तकालय से भी मुझे काफी सहयोग मिला। सर गुरु घासीदास के नाम पर स्थापित छत्तीसगढ़ के एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय को लेकर भी अपनी चिंता व्यक्त किया करते थे। वे विश्वविद्यालय की कुल परिषद के सदस्य थे। एक बार वे बिलासपुर किसी कार्यक्रम में शामिल होने आये थे। उस दौरान गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के अध्यक्ष डॉ.एस.के. लांझियाना और सचिव डॉ. हरित झा ने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। उनसे जैसे ही मैंने इस बारे में बात की, तो उन्होंने तुरंत रजामंदी दे दी। उन्होंने कहा कि हम होटल ईस्ट पार्क में रुके हैं, तुमलोग वहीं आ जाना। फिर सर से घंटों वहां बातचीत होती रही। उनके आत्मीय व्यवहार से किसी को भी नहीं लगा कि उनकी पहली मुलाकात हो रही है। उन्होंने हम लोगों को रायपुर आने का भी आमंत्रण दिया और हर प्रकार के सहयोग का आश्वासन की बात भी कही।
आज सर हमारे बीच शारीरिक तौर पर भले ही मौजूद नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्मीयता, सहजता और लोकप्रियता सदा लोगों के बीच बनी रहेगी। उनमें लोगों को जोड़ने की जो कला थी, वह बिरले ही कर सकते हैं। उनके असमय चले जाने से ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे मुझे छत्तीसगढ़ से जोड़ने की कड़ी भी समाप्त हो गई है। मन के भीतर एक खालीपन महसूस हो रहा है। एक ऐसा खालीपन जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना बेहद मुश्किल है। उनकी कमी मुझे हर पल कचोटती रहेगी। उनका व्यवहार, उनकी आत्मीयता, सहजता, सरलता मेरे लिए अविस्मरणीय है। राष्ट्रीय स्तर की शख्सियत होते हुए भी उन्होंने हमे जो महत्व दिया, उसे ताउम्र नहीं भुलाया जा सकता। उनके व्यसक्तित्व। की अमिट छाप मेरे मन-मस्तिष्क में हमेशा बनी रहेगी। इतने बड़े विद्वान व्यक्ति का अचानक चले जाना पत्रकारिता और साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति तो है ही साथ ही मेरी व्यक्तिगत क्षति भी है। इस भारी मन को लगातार सांत्वना देने की कोशिश कर रही हूँ लेकिन यह मानने को तैयार नहीं कि सर हमारे बीच से चले गये हैं। सर के व्यक्तित्व का हम अपने जीवन में थोड़ा भी अनुकरण कर सके, तो वह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सहायक प्राध्यापक
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय
बिलासपुर (छ.ग.)
मजीद शेख, कैम्ब्रिज
ललित सुरजन से मेरी पहली मुलाकात वेल्स के कार्डिफ में हुई थी, वर्ष 1977 में। हम दोनों प्रसिद्ध थॉमसन फाउंडेशन, जिसका स्वामित्व तब द टाइम्स ऑफ लंदन के पास था, के चार माह के पाठ्यक्रम सीनियर एडिटोरियल टेक्निक्स’ में भाग लेने अपने-अपने देशों से आए थे।
वह भारत के रायपुर से था और मैं पाकिस्तानी पंजाब के लाहौर से। उपमहाद्वीप से मेरे अलावा पांच भारतीयों का एक समूह आया था, जबकि बांग्लादेश का एक पत्रकार था। इस्लामाबाद में नौकरशाही ने पहले मुझे एनओसी देने से इनकार कर दिया था क्योंकि मैं ‘द पाकिस्तान टाइम्स’ में कार्यरत था, जिसे बाद में सैन्य तानाशाह जिया उल हक ने बंद करवा दिया था। इस्लामाबाद ब्यूरो चीफ़ एच. के. बुर्की – जो पहले भारत के एक राष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी थे, के प्रभाव से 25 मिनट के भीतर पीएम के शीर्ष नौकरशाह स्वयं मेरे आवश्यक दस्तावेज जुटाने के लिए मुझसे संपर्क कर रहे थे।
कार्डिफ़ में राष्ट्रमंडल देशों से आए हम सब व्यक्तियों का एक अच्छा समूह बन गया था। अफ्रीकियों, सुदूर पूर्वी देशों और भारत के पत्रकारों से संवाद का यह मेरा पहला अनुभव था। शीर्ष ब्रिटिश पत्रकार हमें पढ़ा रहे थे, और हमें अपना उत्कृष्टतम दिखाने के लिए तैयार कर रहे थे। पहले तीन दिनों के भीतर भारतीयों से मेरी जान-पहचान हो गई, और ललित उनके समूह का स्वाभाविक नेता था।
हम इंटरनेशनल हाउस में ठहरे थे, जिसके डाइनिंग हॉल में हमारा भोजन होता था। चौथे दिन मैंने देखा कि भारतीयों का समूह एक कोने में एकत्रित था, और उनके चेहरे पर निराशा थी। मैंने जाकर उनसे पूछा कि क्या हुआ है तो ललित ने बताया, हम सभी शाकाहारी हैं और यहाँ पोर्क और बीफ़ परोसा जा रहा है और यहां तक कि सब्जियां भी चर्बी में पकाई जा रही हैं।
मैंने अपनी दादी और पिता से हिंदू खानपान की आदतों के बारे में बहुत सारी बातें सुनी थीं। लाहौर से होने के कारण मेरी उपमहाद्वीपीय सहानुभूति जाग उठी और मैंने तुरंत इस समस्या का समाधान निकालने के बारे में सोचा। मैंने उनसे सिर्फ एक दिन की मोहलत मांगी और सुझाव दिया कि हम सभी छात्रावास की रसोई में एक साथ भोजन करेंगे, भोजन मैं पकाऊँगा। भारतीयों ने मुझे कुछ शक की निगाह से देखा, उनमें से एक ने सोचा कि शायद मैं कोई शरारत करूँगा। ललित ने मुस्कुराते हुए कहा, ठीक है बॉस, देखते हैं कि आप क्या कर सकते हैं, आप भरोसे के लायक लगते हैं।
अगली दोपहर मैंने अपने पाठ्यक्रम निदेशक से बात की और जल्दी निकल गया। मैं जिस बस में चढ़ा था, किस्मत से उसके ड्राइवर एक सिख थे। मैंने शुद्ध पंजाबी में उन्हें अपनी दुविधा बताई। उन्होंने पूछा कि क्या मैं लाहौर से हूँ। आप कैसे जानते हो? इसलिए कि हमने लाहौरी मेहमाननवाज़ी के बारे में सुना है। उन्होंने मुझे एक बड़े भारतीय स्टोर का रास्ता बताया और वहां मैंने चावल, दाल, आटा, आलू, प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन, हरी मिर्च, अचार, मसाले और कुछ और चीजें खरीदीं। इंटरनेशनल हाउस वापस आकर मैंने भात, तवा फुल्का, मसूर दाल, आलू भुजिया और सलाद बनाया।
भारतीय समूह थोड़ी आशंका के साथ रसोई में आया, लेकिन मेज पर लगे भोजन को देखकर सब टूट पड़े। आधे घंटे बाद, पांच तृप्त भारतीयों के साथ गहरी उपमहाद्वीपीय कामरेडशिप का दृश्य बन गया। उनमें से दो ने वास्तव में मेरे हाथों को चूम लिया। यह एक ऐसी दोस्ती की शुरुआत थी जो तब से अभी तक चली आ रही है।
अगले तीन महीनों में मैंने उन्हें देसी घी के परांठे और अन्य स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन खिलाए। इस प्रक्रिया में मैंने ठाना कि लाहौर लौटने तक मैं भी शाकाहारी रहूंगा। ललित ने इस बात को बहुत सराहा। फिर पढ़ाई आगे बढ़ी, कई परीक्षाएँ हुईं, और मैंने कक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया। अफ्रीकी, सिंगापुर और मलेशिया के पत्रकारों से जान-पहचान बढ़ना भी बहुत सुखद था। एक मलेशियाई महिला मुझे कुछ विशेष रूप से पसंद करने लगी, तब ललित ने खुद उसे समझाने का जिम्मा लिया कि वह एक लाहौरी है और शादीशुदा है। वह तब भी मुझमें दिलचस्पी ले रही थी। ललित ने लौटकर कहा यार, तेरे हाथ में जादू है, तुम्हारे बनाए खाने, तुम्हारी पत्रकारिता में और यहाँ तक कि तुम्हारे सहपाठी भी तुमसे प्यार करते हैं। दरअसल वह मुझे चिढ़ा रहा था।
हमारे बीच लंबी बातचीत होती थी, जिसमें हर बार कुछ नई जानकारी और ज्ञान होता था, किताबों के प्रति हमारे साझा प्रेम से हम और करीब हो गए थे। लेकिन सभी अच्छी बातों का अंत जल्द निकट आ गया। मेरे लौटने पर उसने मुझे एक बहुत ही अच्छा पत्र लिखा और फिर पाकिस्तान में माहौल बदल गया। जनरल जिया उल हक शासन ने जल्द ही हमारे अख़बार को बंद कर दिया और मुझे गिरफ्तार कर लिया गया और कोड़े मारे गए। कुछ दिनों बाद मुझे इंग्लैंड से एक पत्र मिला। यह ललित का पत्र था जो उसने रायपुर से लिखकर लंदन में एक मित्र के माध्यम से भिजवाया था। वह मेरे लिए सबसे ज्यादा चिंतित था।
फिर इंटरनेट क्रांति आई और हमने संदेशों का आदान-प्रदान करना शुरू कर दिया, प्रत्येक संदेश तृप्ति देने वाला होता था। दिन पर दिन चीजें खराब होती गईं, और मैंने लाहौर के दैनिक डॉन के लिए काम करना शुरू कर दिया और लाहौर के इतिहास पर एक साप्ताहिक कॉलम शुरू किया, जो पिछले 17 वर्षों से जारी है। मुझे सुखद आश्चर्य है कि ललित ने उन्हें हर सप्ताह पढ़ा और अपनी टिप्पणी भेजी। मैंने एस्टन से डॉक्टरेट किया था जिसके बाद कैंब्रिज में इतिहास का प्रोफेसर बना। मेरे कॉलम पढ़कर जब ललित बहुत खुश होते थे तो मुझे व्हाट्सएप संदेश भेजते थे। यहां तक कि उन्होंने उनमें से कुछ के अनुवाद देशबन्धु में छापे। वह उन्हें खाइयों को पाटने वाला बताते थे जिनसे एक दिन पुनर्मिलन की आस बंधती है। मेरी भी भावना कुछ ऐसी ही थी, खासकर जबसे मैंने संस्कृत सीखी थी और वेदों को पढ़ा था।
फिर कुछ दिनों पहले ही यह दुखद खबर मिली। उस जैसे शानदार व्यक्ति मरते नहीं हैं बल्कि एक महान यात्रा पर निकल जाते हैं। उसने अन्वेषण, सीखने, सच की खोज और उसे पूरी सच्चाई से सामने लाने की परंपरा अपने पीछे छोड़ी है। उसकी बेटियां उस परंपरा को जारी रख रही हैं। मेरे लिए यह ऐसा नुकसान है जो मेरे अंदर हमेशा रहेगा। मैं उम्मीद करता हूँ कि उसकी राख के कुछ अंश रावी नदी में जा मिले होंगे, जिसके किनारे दशराजन युद्ध हुआ था। उस नदी में वे राजकुमार भरत के अंश से जा मिलेंगे, ऐसी नदी जो हमारी भूमि की एकता का केंद्रबिंदु है – वह भूमि जहां से ललित सुरजन आए थे।
03 जनवरी 2021
सुधेश
देशबन्धु दैनिक और अक्षर पर्व के यशस्वी संपादक श्री ललित सुरजन हमारे बीच नहीं रहे। दो दिसम्बर को उन का देहान्त हो गया। श्री ओम थानवी की फेसबुक पर प्रकाशित टिप्पणी से मुझे यह दुखद सूचना मिली ।सुरजन जी की पुण्यात्मा को अपनी श्रद्धांजलि देता हूँ।
लगभग तीस वर्षों पहले जबलपुर में आयोजित प्रगतिशील लेखकों के सम्मेलन में मुझे उन के पिताजी श्री मायाराम सुरजन के दर्शन करने और उन्हें सुनने का सौभाग्य मिला था । वे भी यशस्वी पत्रकार थे और देशबन्धु की शुरुआत उन्होंने ही की थी। सुरजन नाम से वह मेरा प्रथम परिचय था। सुरजन अर्थात देव तुल्य जन, बल्कि यों भी कह सकता हूँ कि देवता के समान जन। वैसे मायाराम सुरजन जी जनता के जन थे, अर्थात् श्रमिक पत्रकार। योग्य पिता के योग्य पुत्र श्री ललित सुरजन ने देशबन्धु को ऊंचाइयों तक पहुँचाया। पहले वह सिर्फ़ रायपुर और जबलपुर से निकलता था, आज रायपुर और दिल्ली सहित कई स्थानों से एक साथ निकलता है।
मुझे याद आ रहा है जब देशबन्धु का प्रकाशन दिल्ली से हुआ तो मेरे पास एक मुद्रित निमंत्रण पत्र आया जिस में देशबन्धु को दिल्ली से शुरू करने के कार्यक्रम में पहुँचने का आग्रह किया गया था। बीमार होने के कारण मैं उस में नहीं पहुंच सका। पर दो तीन दिनों के बाद मैं ने ललित सुरजन से टेलीफोन पर बात कर अपनी स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने लगभग छह महीनों तक मुझे देशबन्धु डाक से मुफ़्त भेजा।
फ़ोन पर ललित जी से कई बार बातें हुईं। एक बार फ़ोन पर उन्होंने कहा कि अक्षर पर्व के लिए प्रेषित मेरी एक लम्बी कविता ऑक्टोपस को वे देशबन्धु के विभिन्न संस्करणों में एक साथ छापना चाहते हैं। मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी। वह कविता छपी और उस अंक को मेरे पास डाक से भेजा गया।
अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि ललित सुरजन जी स्वयं गुणी होने के साथ गुण पारखी भी थे। अक्षरपर्व में उन का हर सम्पादकीय सूचनाओं का भंडार होता था , जिस से उन के ज्ञान के भंडार का पता चलता था। पत्रकारों के सामने प्राय: सूचनाओं का अम्बार होता है, जिस में से उन्हें अपने काम की बात चुननी होती है, जैसे मानसरोवर में हंस को मोती चुनना होता है।
ललित जी अक्षरपर्व और देशबन्धु में नियमित रूप से अलग अलग लिखते थे। उन के सम्पादकीय आलेखों से उनके विस्तृत ज्ञान का पता चलता था। उनके पाण्डित्य को देख कर मैं उन्हें पण्डित यानी ब्राह्मण समझता था। बाद में उन के वणिक होने का पता चला। ऐसा प्रबन्ध कौशल वणिक में ही हो सकता है। वास्तव में वे सब जातियों से ऊपर थे।
गद्य में आकंठ डूबे रहने के बावजूद ललित सुरजन जी एक कवि भी थे। मैं ने उन की कविताएँ पढ़ी हैं। वे यात्राओं के शौक़ीन भी थे। उनकी अमेरिका यात्रा का विस्मृत संस्मरण मैंने अक्षर पर्व में पढ़ा है। ऐसे कवि, लेखक और मूर्धन्य पत्रकार का दुनिया से चला जाना हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता के लिए एक बड़ी क्षति है।
( लेखक जवाहरलाल नेहरू विवि के पूर्व प्राध्यापक हैं)
20 दिसंबर 2020
रमाकांत श्रीवास्तव
ललित सुरजन की उस चिट्ठी में जरा भी लालित्य नहीं था। ललित ने खखुआकर लिखा था- ‘अभी कुछ दिनों पहले डॉक्टर कमला प्रसाद रायपुर आये थे। उनसे बातचीत के दौरान लगा कि आपने उनसे कोई ऐसी बात कही है जिससे उनके मन में मेरे प्रति गलतफहमी होने की संभावना है। आशा है आप भविष्य में मेरे और मित्रों के बीच भ्रम फैलाने जैसा कुछ नहीं करेंगे।’ मैं भौंचक्का! शब्द ठीक यही नहीं थे किन्तु मजमून यही था। ‘तुम’ नहीं ‘आप’! ‘आप’ जैसा पाप हमारे बीच से काफी पहले गायब हो चुका था। इतना ही नहीं ‘मेरे और मित्रों के बीच’ का अर्थ हुआ कि मैं मित्र मंडली से बाहर हूँ। रही गलतफ़हमी वाली बात, तो ईश्वर को पूरी तरह गैरहाजिर मान कर सत्य कह दूं कि ऐसी हरकत मैंने कभी नहीं की।
स्वभाव से मैं जल्दी उत्तेजित होने वाला व्यक्ति नहीं हूँ। अपने आस-पास के लोगों का मनोविज्ञान और उनके स्वभाव को समझने की कोशिश करने की बुरी आदत भी मुझमें है। कुछ ऊटपटांग घटित होने पर घटना से जुड़े व्यक्ति मुझे कहानी के पात्र नजर आने लगते हैं। तब मैं खैरागढ़ में था। मैंने ललित के पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया। जब रायपुर प्रवास में ललित से मेरी भेंट हुई तो उस बाबत हमारी बातचीत हुई। चीज़ें साफ़ हुईं। गलतफ़हमी दूर हुई तो ललित थोड़े से लजाकर हंसे और बोले- ‘अब यार, उस बात को छोड़ो।’ उन्हें उस मुद्रा में देखना दिलचस्प होता। उनका गोरा चेहरा लाल हो जाता, सिर थोड़ा झुक जाता और वे हंसने लगते। कुछ ही क्षणों में सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। धुला-पुंछा। शिकवे-शिकायत ख़त्म और ललित अपनी किसी नई योजना पर बात करने लगते। हो सकता है कि ऐसा सबके साथ न होता हो। ललित सुरजन स्वभाव से स्नेही, भावुक, कर्मठ, आदर्शवादी किन्तु थोड़े तुनक मिजाज और ज़िद्दी थे। बावजूद इसके उनमें इतना धैर्य और सौहार्द्र भी था कि लगातार नये मित्र उनसे जुड़ते जाते।
अपने एक और प्रिय मित्र काशीनाथ के लिये मैंने निदा फ़ाज़ली के एक शेर के माध्यम से जो कहा वही ललित के लिये भी कहना ठीक होगा ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना’ ललित सुरजन में कई आदमी सुस्पष्ट दिखलाई देते। इसे दो तरह से देखा ने जा सकता है। एक तो उनके स्वभाव में भिन्न स्तरों की भाव लहरें उठतीं। दूसरे, सफल संपादक, अद्भुत संगठनकर्ता, संवेदनशील कवि और गद्यलेखक, जिज्ञासु यायावर, अच्छे अनुवादक यानी ऑल इन वन व्यक्तित्व। वे कई काम एक साथ कर लेते थे। यह केवल उनके पत्रकार होने के कारण नहीं है कि विभिन्न व्यवसायों से जुड़े तीन पीढ़ियों के लोग उनसे निकटता का अनुभव करते हैं, लेखक, पत्रकार, शिक्षक, डाक्टर, वकील, विद्यार्थी, व्यापारी, उद्योगपति, राजनेता, अफसर, संस्कृति कर्मी, एक्टिविस्ट आदि उनके परिचित हैं। कितनी अच्छी बात है कि अपराधियों और भ्रष्टों से वे अचूक दूरी बना लेते थे। और भी पत्रकार हैं जिनके परिचय का दायरा ललित की तरह ही व्यापक होगा क्योंकि यह उस व्यवसाय की सहज सुविधा, मांग और कभी कभी मजबूरी भी होती है। किन्तु ललित जैसा मैत्री बोध कम देखने में आता है। ललित के एक और गुण का मैं कायल हूँ। वह है, राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक सामाजिक परिस्थितियों का व्यापक सामान्य ज्ञान। कुल मिलाकर- ज़ालिम में थी इक बात कुछ इसके सिवा भी।
अपने यशस्वी पत्रकार पिता मायाराम जी की कुछ विरासतें ललित ने सम्हाल कर रक्खीं। ‘देशबन्धु’ अखबार को कभी मुक्तिबोध ‘न्यूज़ पेपर ही नहीं व्यूज़ पेपर भी’ कहा करते थे। मायाराम जी का झुकाव वामपंथी था और नेहरू द्वारा निर्मित राजनैतिक संस्कृति में उनका विश्वास था। अखबार निकालने के लिये उन्होंने न तो धन कुबेरों से सहायता ली और न ही सरकार से कोई समझौता किया। वे विशुद्ध पत्रकार थे। अख़बार निकालने के अलावा अन्य कोई व्यवसाय उनका नहीं था। संघर्ष के दिनों में कभी-कभी तो दोस्तों से पैसे उधार लेकर देशबन्धु का प्रकाशन होता था।
आज विज्ञापनों से युक्त कई-कई पृष्ठों के रंगीन अखबार भी निकल रहे हैं जो मालिकों के व्यवसाय को बढ़ाने और उनके राजनैतिक प्रभाव क्षेत्र में इजाफा करने में सहायक हैं। प्रजातंत्र के इस खंभे में अन्य स्तम्भों की तरह ही दरारें पड़ चुकी हैं किन्तु ललित ने पिता द्वारा निर्मित परंपरा को कायम रखा। उनका भी कोई साइड बिजनेस नहीं है। वही वामपंथी विचार और नेहरूवादी सांस्कृतिक दृष्टि। संपादकीय में साफ़गोई। प्रजातंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की मूल्यगत चेतना का समर्थन। यह लगभग नियम है कि संपादक किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं होगा और पत्र किसी पार्टी विशेष के प्रति पक्षपात नहीं करेगा। वैचारिक स्तर पर सैद्धांतिक पक्षधरता जरूर रहेगी।
मायारामजी के समय में ‘देशबन्धु’ का विकास हुआ और उसके संस्करणों की संख्या बढ़ी। इसके कई कारण हैं- राजनैतिक सामाजिक और शायद ललित के पारिवारिक भी। मैं उनसे पूरी तरह परिचित नहीं हूँ और न कभी जानने की कोशिश की। किन्तु यह स्पष्ट है कि बड़ी वित्तीय पूंजी के शिकंजों में फंसी इस व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा गलाकाट है। सोद्देश्य कुछ कर पाने के रास्ते कठिन से कठिनतर होते जा रहे हैं। दिखावे और रंगीनी के इस उन्मादी समय में ‘देशबन्धु’ की सादगी लोगों को आकृष्ट नहीं कर पाती। छत्तीसगढ़ में ऐसे कई पत्रकार हैं जिन्होंने पत्रकारिता के गुर ‘देशबन्धु’ में काम करते हुए सीखे और फिर दूसरे अखबारों में चले गये। ‘देशबन्धु’ के पारिवारिक वातावरण के बावजूद यदि किसी ने अपने आर्थिक हित को चुना तो वो उसे दोषी कैसे माना जा सकता है। नतीजा ग्राहक संख्या की कमी के रूप में स्पष्ट दिखलाई देता है। इस समस्या के पेंचों से हम परिचित नहीं हैं किन्तु हम जैसे मित्र अपना क्षोभ प्रकट करते थे कि ललित को ‘देशबन्धु’ की तरफ अधिक ध्यान देना चाहिए। दुनिया के अन्य पचड़ों के लिये और लोग हैं। एन.जी.ओ. के चक्करों में ज्यादा ना उलझें। विभिन्न आयोजनों में वे ‘हॉट केक’ हैं पर मेरी इच्छा होती है कि ललित देशबन्धु, प्रलेस, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, एप्सो, बाल स्वराज जैसे उपक्रमों तक अपने को सीमित कर लें। इसलिये भी कि दिल के मरीज़ रह चुके थे। वे इन संगठनों को मजबूत बनायें और लेखन में जुटें। एक अच्छे लेखक को अपने लिये कछ अधिक समय निकालना चाहिए। अभी तो मैं यही आश्चर्य करता हूँ कि उन्होंने जितना कुछ लिखा और अनुवाद कार्य किया उसी के लिये उन्होंने समय कैसे निकाल लिया। शायद यह एक अभ्यास को विकसित करने के कारण हुआ।
मायारामजी की एक अन्य विरासत को ललित ने न केवल सम्हाला बल्कि उसे और गतिशील भी बनाया। मायाराम जी और डॉक्टर कमला प्रसाद ने मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन को देश की सर्वाधिक सक्रिय साहित्यिक संस्थाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलवाया था। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सभी मित्रों ने एक स्वर में छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में ललित सुरजन को चुना। इस बात का उल्लेख जरूरी है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन और छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के बीच सांगठनिक स्तर पर सौहार्द्र है। हमारे कई महत्वपूर्ण साथी दोनों संगठनों में सक्रिय हैं। मैं प्रलेस का अध्यक्ष था और छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन की कार्यकारिणी का स्थायी आमंत्रित सदस्य था। ललित साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष थे और प्रलेस के संरक्षक मंडल के सदस्य। प्रभाकर चौबे प्रलेस के महासचिव और साहित्य सम्मेलन की स्थायी समिति के सदस्य। ललित सुरजन पर बात करते हुए, दोनों संगठनों की सक्रियताओं में उनकी भूमिकाओं का विवरण अलग अलग देना जरा कठिन काम है अतः कुछ आयोजनों की मिली-जुली चर्चा करना ही ठीक होगा।
मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि प्रगतिशील लेखक संघ में मुझे लाने के दोषी ललित सुरजन और प्रभाकर चौबे थे। तो मुझे सबसे ज्यादा इन्हें ही झेलना पड़ा। यह ज़रूर है कि सहमति-असहमति की स्थितियों के बावजूद हमारी दोस्ती की हरारत में कभी कमी नहीं आई। इसका प्रभाव छत्तीसगढ़ के हमारे संगठनों पर भी पड़ा। गिराने-उठाने, झूठी प्रशंसा-निंदा, लेग पुलिंग जैसी हरकतें हमारे बीच नहीं हैं। साफ़गोई की कमी नहीं थी। 1974 में म.प्र. साहित्य परिषद् का कबीर-प्रसंग आयोजन रायपुर में हुआ। तब शानी परिषद के सचिव थे। परसाई जी उस आयोजन में आये थे। उसी समय परसाई की उपस्थिति में रायपुर प्रलेस का गठन हुआ। 1978 मार्च महीने में राजिम के निकट चम्पारण में प्रलेस का पहला शिविर आयोजित किया गया। वहाँ की धर्मशाला में तीन दिनों के उस शिविर में छत्तीसगढ़ के काफी लेखक शामिल हुए। मलय जी और पुन्नीसिंह जी तब राजनांदगांव में थे अतः शिविर में महत्वपूर्ण साथियों के रूप में शामिल थे। डॉ. राजेश्वर सक्सेना तो हमारे पथ प्रदर्शक शुरू से ही थे। छत्तीसगढ़ के साथी रायपुर में एकत्र हुए। वहाँ स्पेशल बस पर बाकायदा प्रगतिशील लेखक संघ का बैनर लगा था, जिस पर सवार होकर हम लोग अपने गंतव्य तक गये। यह शिविर ललित सुरजन के दम पर हुआ। इसके बाद तो छत्तीसगढ़ में प्रलेस और हिन्दी साहित्य सम्मेलन के शिविरों का सिलसिला चल निकला। रायपुर, दुर्ग, भिलाई, राजनांदगांव, राजहरा, कवर्धा, कुरुद, कांकेर, सरोना, बिलासपुर, अंबिकापुर, बचेली, पाण्डुका में हम लोगों ने शिविर किये। विभिन्न शहरों के हमारे साथियों का सहयोग रहता, किन्तु संयोजन में ललित की प्रमुख भूमिका से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। ‘देशबन्धु’ के नेटवर्क का इस्तेमाल दोनों ही संगठनों के लिये किया जाता। शिविरों के अलावा गोष्ठियां होतीं, छत्तीसगढ़ भर के लेखक साथी एकत्र होते। बड़ी संख्या में नये लेखक, पाठक, संस्कृति कर्मी शामिल होते। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ का सर्वाधिक सक्रिय अंचल छत्तीसगढ़ था। योजना पटु ललित की तारीफ़ में मैं रत्ती भर भी अतिश्योक्ति नहीं कर रही हैं। उनके इस गुण के कायल कई संगठन हैं। 2009 में तो एप्सो ने काहिरा स्थित मुख्यालय को संभालने के लिये ललित को चुनकर मिस्र भेजा जहां ललित ने उत्साह पूर्वक काम शुरू किया लेकिन विशेष परिस्थितियों के कारण कुछ माह के बाद ललित वापस आ गये। अच्छा ही हुआ। दोस्त मित्र और परिवार के लोग खुश हुए।
छत्तीसगढ़ में आयोजित होने वाले दो सार्थक उपक्रमों का मैं अत्यंत प्रशंसक रहा हूँ। दोनों ही आयोजनों की कल्पना और संयोजन ललित ने किया। निर्णय और कार्य प्रणाली में बेशक कई साथियों का सक्रिय सहयोग है। एक शानदार टीम वर्क के द्वारा ही कार्य सम्पन्न होते हैं। छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने निर्णय लिया कि साहित्य के प्रति युवा पीढ़ी में रुचि विकसित करने के लिये शालाओं और महाविद्यालयों के विद्यार्थियों से सीधा संपर्क किया जाए। ‘विशुद्ध’ लेखकों को यह बात कुछ अद्भुत लग सकती है, क्योंकि उनकी मान्यता तो यह है कि लिख दिया बस, आगे का काम औरों का है। हाँ, वे यह ज़रूर चाहते हैं कि उन्हें पढ़ा जाए। साहित्य हाशिये पर जा रहा है, हिन्दी का स्पेस घट रहा है इस बात की चिंता ही नहीं, क्षोभ भी है लेकिन इस स्थिति के प्रति गोष्ठियों में चर्चा करना भर उनका कर्तव्य है। साहित्य सम्मेलन से जुड़े कुछ रचनाकारों ने इस कार्य में हाथ बंटाया। भिलाई के दो कवि मित्रों रवि श्रीवास्तव और संतोष झांझी ने पूरी गंभीरता से इस योजना को रूप दिया और इसमें उन्होंने आनंद भी उठाया। वे शिक्षण संस्थाओं में जाकर रचनाएं सुनाते और विद्यार्थियों की रचनाएं सुनते। रायपुर तथा अन्य शहरों तक इस योजना का विस्तार हुआ। यह काम अभी भी जारी है। इसी वर्ष जून माह में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें शालाओं के युवा छात्रों ने हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की रचनाओं का पाठ आमंत्रित श्रोताओं की उपस्थिति में किया। कुछ वर्ष पूर्व युवा रचनाकारों का शिविर राष्ट्रीय अभयारण्य बारनवापारा में आयोजित किया गया था। प्रदेश और प्रदेश के बाहर के रचनाकारों ने रिसोर्स पर्सन के रूप में दो दिनों तक प्रतिभागियों के साथ रह कर उनसे संवाद किया। चंद्रकांत देवताले अभिभूत होकर उस शिविर को याद करते थे। छ.ग. प्रदेश साहित्य सम्मेलन अपने स्तर पर पाठक मंच चलाता है।
दूसरा अनोखा उपक्रम था छत्तीसगढ़ में बच्चों के अख़बार का प्रकाशन। यूनीसेफ के अनुदान से मायाराम सुरजन फाउन्डेशन और ‘देशबन्धु’ के सहयोग से लगभग पांच वर्षों तक ‘बाल स्वराज’ शीर्षक से अखबार प्रकाशित हुआ जिसका लक्ष्य बच्चों के अधिकारों की रक्षा और बालश्रम के दोहन के विरुद्ध सजगता पैदा करना था। मायाराम सुरजन फाउन्डेशन के प्रबंध न्यासी और देशबन्धु समूह के प्रधान संपादक ललित सुरजन की यह महत्वाकांक्षी योजना थी जो अद्भुत सफलता से सम्पन्न हुई। इस महती योजना को रूपायित करने के लिये अटूट उत्साह, ईमानदारी और निरंतर सजग श्रम की जरूरत थी। यह ललित की संगठन क्षमता ही थी कि एक शानदार और समर्पित टीमवर्क निर्मित हो सका। इस उपक्रम के केन्द्र पहले प्रत्येक जिले में एक-एक थे फिर इसका विस्तार सभी विकासखण्डों यानी सौ केन्द्रों में हुआ। हर केन्द्र में दस-बारह बच्चे बाल पत्रकार होते थे जो रिपोर्टर का काम करते थे। हर केन्द्र पर एक स्थानीय निरीक्षक या निर्देशक होता था जो नगर में सामाजिक कार्यों से जुड़ा होता था। बाल पत्रकारों की औसत उम्र 13-14 वर्ष की रही होगी जिनमें आधी से अधिक संख्या लड़कियों, आदिवासियों और अनुसूचित जातियों के विद्यार्थियों की होती थी। वे गर्व से कहते थे हम बाल पत्रकार हैं। उनकी रिपोर्ट में बालश्रम से जूझते, पढ़ाई से वंचित और किसी भी स्तर पर पीड़ित बच्चों की सप्रमाण खबरें होती थी। अधिकारियों, नेताओं, नागरिकों से बेबाक साक्षात्कार बाल पत्रकारों ने लिये।
विराट स्तर पर होने वाली इस सार्थक मुहिम की प्रशंसा व्यापक रूप से हुई। यूनीसेफ़ के प्रतिनिधि खासे प्रभावित हुए। इस काम में ढेरों साथी जुड़े। काम को सही सही अंजाम देने के लिये कई स्तरों पर कार्यकर्ता थे। नगर, ज़िले, ज़ोन – जैसे स्तरों पर सहयोगी थे। इस अद्भुत अखबार के संपादन कार्य को समय-समय पर सर्वमित्रा सुरजन, प्रभा टांक, मालती चांडक और माया सुरजन ने सम्हाला। श्रीमती माया सुरजन अंत तक संपादन के कठिन और समय-साध्य काम में जुटी रहीं और मीटिंग होने पर अपनी सुस्पष्ट राय प्रकट करती रहीं। ‘देशबन्धु’ में ललित के सहयोगी तथा ललित के रिश्तेदार राजेन्द्र चांडक के विषय में कुछ कहने के लिये शब्द कम पड़ते हैं। उनकी सजगता, श्रम, लौह अनुशासन और पंचवर्षीय सक्रियता देखकर मैं दंग रह गया। मैंने उन्हें ‘इंतज़ाम अली’ का खिताब दे रखा है। मैं इस उपक्रम में कोर कमेटी के सदस्य के रूप में जुड़ा। मैंने दूसरों के श्रम के मुकाबले कुछ भी नहीं किया किन्तु जब मैं बाल पत्रकारों, प्रशिक्षकों, साथियों को एकत्र होकर चर्चा करते हुए देखता था तो मेरी आत्मा को एक अजीब सी ताकत मिलती थी। इस उपक्रम से जुड़ना मुझे सार्थकता को बोध देता था। यह दौलत मेरी और ललित की मित्रता का सुफल था।
इन महत्वपूर्ण आयोजनों में एक संलग्नक यह जोड़ना चाहता हूँ कि सांस्कृतिक निधि को सुरक्षा देने वाली संस्था इन्टेक के छत्तीसगढ़ अध्याय के संयोजक के रूप में ललित ने सराहनीय कार्य किया। इस अराजक और संस्कृति विरोधी समय में यह जरूरी काम था। वक्त की रफ़्तार यूं है कि संस्कृति कर्म और साहित्यिक संगठनों की गतिविधियों में अवरोध पैदा होते गये पर जहां तक ललित का सवाल है उनकी व्यस्तताएं बढ़ती गई हैं। अख़बार के काम से वे अपने आपको धीरे-धीरे अलग करते गये। यहां तक कि मैं कभी कभी उन्हें ‘विजिटिंग एडीटर’ कहताथा- विजिटिंग प्रोफेसर की तर्ज पर। आठवें-नौवें दशक में जब हम लोग छ.ग. में खूब सक्रिय थे तब ललित बड़े लोगों के अंतर्राष्ट्रीय क्लबों की आलोचना करते थे पर फिर या तो उनका विचार बदला या वे उन लोगों की पकड़ में आ गये। 1993-94 में वे रोटरी क्लब के मंडल अध्यक्ष भी बने। यह अलग बात है कि वहां भी उन्होंने नई दृष्टि और गंभीरता से काम किया। मैं अभी भी कभी-कभार उन्हें लाट साहब कह कर बुलाता था। समान विचार वाली कई संस्थाओं से भी वे जुड़े थे और उनके आयोजनों में वे शिरकत करते थे।
यद्यपि ‘देशबन्धु’ का दिल्ली संस्करण 2008 से निकलने लगा। सर्वमित्रा के संपादन में ‘अक्षर पर्व’ मासिक का प्रकाशन भी हुआ, किन्तु जितना मैं जानता हूँ ‘देशबन्धु’ की प्रसार संख्या में कमी आई है। आज की बाज़ारवादी प्रतिस्पर्धा में जिस रंगीनी, विज्ञापन बहुल मनोरंजकता (जो कभी कभी सस्तेपन पर भी उतरती है) और सरकारी कृपाकांक्षा का आधार चाहिए। वह ‘देशबन्धु’ के पास नहीं है। अभी भी जिस सादगी और वैचारिकता पर वह खड़ा है उसके लिये भी हौसले की ज़रूरत है। इन सबके बावजूद हम कई मित्र ललित की अख़बार सेअधिक संलग्नता की अपेक्षा करते रहे हैं। मैं और प्रभाकर, अपना अधिकार मानते हए कुछ अधिक मुखर हो जाते थे। ख़ास तौर से तब, जब उन्हें दिल की तकलीफ़ हुई थी, हम उनसब चाहते थे कि वे अपनी जीवन पद्धति को नया रूप दें। भले ही यायावरी करें। देश-विदेश खूब घूमें पर एक अच्छे लेखक को अपने लिये समय निकालना चाहिए।
मैं कई वर्षों से सामाजिक सांस्कृतिक मुद्दों पर ‘देशबंधु’ में लेखन करता रहा हूँ। एक बार एक अन्य पत्रकार मित्र के आग्रह एक दूसरे अख़बार में भी लेख भेजने लगा था। ललित एकदम भन्ना गये और बोले तुम्हारी चिंताधारा और उस अखबार के मूल स्वर में खासा विरोधाभास है। क्या हमने कभी तुम्हारी उपेक्षा की? मैंने शायद दो महीने में ही वहाँ लिखना बंद कर दिया। मैं ललित जैसे मित्र को नाराज़ नहीं करना चाहता था। फिर, उनका भन्नाना सही था। पर इस बिन्दु पर इतना तो कह दूं कि ललित अपनी तुनक मिजाज़ी छोड़ देते तो अच्छा होता। किसी भी उम्र में सही अभ्यास किया जा सकता है। अपनी ज़िद और तुनकमिजाजी से उनके जिन संबंधों में अवरोध ज़रूर आया होगा। ललित मुझसे अक्सर कहते – यार हम लोग मित्र से कुछ अधिक हैं। यह सही है। हमारे संबंध पारिवारिक थे। जब रायपुर छोड़कर स्थायी रूप से भोपाल में बसने की मैंने योजना बनाई तो सबसे अधिक क्षुब्ध ललित हुए। मुझसे और मेरी पत्नी से खफ़ा हुए। उपदेश दिया कि मेरा सहज आशियाना छत्तीसगढ़ है अतः रायपुर में ही रहूं। उनकी बात सही थी किन्तु रायपुर से भोपाल रवाना होते समय ललित को फोन किया… ‘जा रहा हूं… यह जानते हुए भी कि भोपाल में ललित सुरजन और प्रभाकर चौबे नहीं हैं।’
उत्तर कथा
जिस सत्य को मैं पहले से ही जानता था उसका भोक्ता बनने पर समझ में आया कि अपनी बरसों पुरानी जगह छोड़कर नए शहर में आकर किस तरह के खालीपन का अनुभव होता है। इस खालीपन का कारण जिगरी दोस्तों का अभाव और जीने के तरीके का बदलाव होता है। भोपाल में सब कुछ था। दीदी, भाइयों, बेटे-बहू की उपस्थिति और उतने ही आत्मीय मित्र जिन्हें छत्तीसगढ़ में छोड़ आया था। वे संगठन और सांस्कृतिक संस्थाएं जिनमें काम करता था और जिन से अपनी पहचान का बोध होता था और आज भी होता है। सुबोध, स्वयं प्रकाश, पूर्णचंद, शैली, ओम भारती, अर्चन, कमला प्रसाद, भगवत रावत, राजेश जोशी के अलावा एक विस्तृत मित्र संसार भी बाहें फैलाए खड़ा था। एक चमकदार और भरा पूरा परिदृश्य झील, पहाड़ियां और एक लगभग सुंदर शहर।
इस सबके बीच खैरागढ़ के रोज मिलने वाले मित्र जो एक बड़े परिवार की संरचना बनाते थे। ललित और प्रभाकर की अनुपस्थिति सालती थी। प्रभाकर और ललित से फोन पर बातचीत होती थी। ललित जिन कामों में लगे थे उन्हें पहले ही की तरह गति दे रहे थे। देशबंधु अख़बार की स्थिति दिनों दिन कमज़ोर होती जा रही थी और ललित ने अपने दामाद राजीव पर अधिकांश भार डाल रखा था। राजीव दिल्ली में रहते थे और डिजिटल संस्करण को अधिक समय दे रहे थे, जो स्वाभाविक था। देशबन्धु का कुछ विस्तार एक साहित्यिक पत्रिका अक्षर पर्व के अवतार के रूप में सामने आया। संपादन का दायित्व सर्वमित्रा (सुरभि) संभाल रही थी उसी की भूमिका ललित लिखते थे। विभिन्न समस्याओं पर गहरी संवेदनशीलता राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की गहरी समझ और सहज गतिशील भाषा का प्रभाव वैसा ही था। अपने यायावर स्वभाव की तुष्टि यात्राओं के जरिए कर ही रहे थे। पत्नी के साथ यूरोप की यात्रा पर निकलने के पहले फोन पर बात की और लौटकर अपने संस्मरण भी लिखे। ललित को मैं एक ऐसे स्वप्नदर्शी संगठनकर्ता के रूप में मानता रहा हूं जो सपनों को मूर्त रूप देने में पूरी लगन से जुड़ जाते थे। शायद ही किसी पत्रकार की पहचान मित्रता और सहयोगियों का दायरा इतना बड़ा रहा हो। उनके प्रति लोगों का प्रेम और आदर भाव देखकर उनकी लोगों से जुड़ने की अद्भुत क्षमता थी कल्पना कोई भी कर सकता है। मुझे प्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय करने का काम मुख्य रूप से ललित और प्रभाकर चौबे ने किया। आठवें नौवें दशक में छत्तीसगढ़ में हम तीनों ने मिलकर प्रलेसं की कमान संभाली। महत्व श्रृंखला के आयोजन हुए। लगभग 15 इकाईयों के गठन और वहां होने वाली गोष्ठियों में ललित का योगदान सर्वाधिक होता था।
मायाराम जी के बाद छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद का कार्यभार ललित को साग्रह सौंपा गया था। हम सभी जानते थे कि पूरी निष्ठा से सार्थक आयोजन करने की क्षमता और साधन के साथ सम्मेलन को सक्रिय संस्था बनाने के लिए ललित से बेहतर कोई दूसरा नाम नहीं हो सकता। लेखकों और गंभीर पाठकों और सहयोगियों के साथ मिलकर सम्मेलन गतिशील हुआ। क्योंकि ललित प्रगतिशील लेखक संघ के साथ गंभीरता से जुड़े थे। अतः हम मित्रों की मंशा दोनों संगठनों की स्वतंत्रता और मौलिकता को बरकरार रखने की थी। दावे से कह सकता हूं कि यह पूरी इमानदारी से संभव हो सका। प्रगतिशील लेखक संघ और सम्मेलन मित्र संस्थाएं रहीं। सम्मेलन के कार्य सजगता से प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित होते रहे। प्रजातांत्रिक मूल्य, समाजवादी चेतना और धर्मनिरपेक्षता को ललित ने हमेशा ध्यान में रखा। कार्यकारिणी की बैठक और खुली चर्चाएं नियमित रूप से होती। मैंने अपने आसपास के संगठनों में इतनी गंभीरता से बैठक होती हुई नहीं देखी। मैंने कोई भी पद लेने से परहेज किया। अपना विचार स्पष्टता से बतलाया कि जब तक मैं छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ का अध्यक्ष हूं। मैं किसी अन्य संगठन का पदाधिकारी नहीं बनूंगा। तब ललित ने मुझे सम्मेलन की कार्यकारिणी का स्थाई आमंत्रित सदस्य बनाया। छत्तीसगढ़ जब तक मैं रहा। हमने मिलकर काम किया। ललित के कुछ अभिनव कार्यों ने छत्तीसगढ़ की साहित्यिक बिरादरी को जोड़ा। उन्होंने सरोजिनी नायडू जयंती पर प्रतिवर्ष गीत यामिनी आयोजन किया। यह कार्यक्रम जनसहयोग से विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जाता रहा। इसी तरह छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से आयोजित पाठक मंच का कार्यक्रम अपने ढंग का अनोखा उपक्रम बना। यह सरकारी अनुदान से चलने वाला पाठक मंच नहीं है। इसके केंद्रों को किताबें सम्मेलन की ओर से दी जाती थी। आज के दौर में इस तरह के गैर सरकारी आयोजन कर लेना एक कठिन काम तो है ही।
विगत चार-पांच वर्षों से छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने एक अभिनव आयोजन प्रारंभ किया। यह ललित के नेतृत्व में आकार लेने वाला सार्थक आयोजन अभी तक जारी है। हमारे समाज में साहित्य धीरे-धीरे गैर ज़रूरी चीज होता जा रहा है उसे हाशिए पर डाल दिया गया है। विशेष रूप से हिन्दी भाषी समुदाय की अपनी भाषा और उसके साहित्य के प्रति उदासीनता अपने चरम पर है। इस स्थिति के प्रति एक शिकायत का भाव लेखकों और गंभीर पाठकों में होना स्वाभाविक है। राजनैतिक सामाजिक परिदृश्य में हर दिशा में बाज़ार और उसका खेल है। अधिकांश हिंदी भाषी राज्यों के संस्कृति विभाग लाखों रुपए ऐसे कवि सम्मेलनों पर खर्च करते हैं जहां चुटकुले सुनाए जाते हैं, इनके बीच बीच में चार छह पंक्तियां तथाकथित कविताओं की होती हैं, मदारी की तरह उनकी मांग होती है अगली पंक्तियों पर आपकी तालियां चाहूंगा संचालक रटे रटाये जुमलों में यह भी संकेत करता है भाई तालियां कमजोर हैं इतना सुनते ही समझदार श्रोताओं का ताली बजाने का जोश बढ़ता जाता है।
सवाल यह है कि इस स्थिति को बदलने की कोई कोशिश संभव है क्या? कोशिश छोटी भी हो सकती है। ललित ने एक योजना बनाई जिसे नाम दिया गया चलो गांव की ओर शायद इस शीर्षक की प्रेरणा कवि दिनकर की काव्य पंक्ति ‘चलो कवि वन फूलों की ओर’ से मिली हो। खैरागढ़ के हमारे मित्र जीवन यदु, गोरेलाल चंदेल और डॉक्टर प्रशांत झा (होम्योपैथी के कुशल डॉक्टर) इस योजना में प्रबंधकारी बने। चंदेल और प्रशांत झा की गहरी पैठ अंचल के गांवों में है। एक समय था जब छत्तीसगढ़ गणेश उत्सव और दुर्गोत्सव के समय गांवों में कवि सम्मेलन होते थे। जिसमें हिंदी और छत्तीसगढ़ी के कवि हिस्सा लेते थे। वे राष्ट्रीय स्तर के कवि भले ना रहे हो लेकिन छत्तीसगढ़ अंचल की जनता मैं उनकी खासी पहचान थी और सम्मान था। स्वतंत्र छत्तीसगढ़ राज्य की आवाज उन्हीं कवि सम्मेलनों के मंचों से उठी थी। उस लुप्त हो चुकी परंपरा को किसी हद तक पुनर्जीवित करने का श्रेय ललित के नेतृत्व में हमारे मित्रों को जाता है। गीत यामिनी का जो आयोजन आमतौर पर शहरों में होता था, उसे गांवों में किया जाने लगा। जिसमें आश्चर्यजनक सफलता मिली यह बेहद दिलचस्प है कि गांव के लोगों ने उसे लगभग उत्सव की तरह स्वीकार किया। पेंड्री, इटार, पांडादेह, बेजतला, खजरी जैसे कई गांवों में कवियों का स्वागत बाजे – गाजे के साथ किया गया। यह स्वप्रेरित है नेताओं की तरह से अपनी साधन से अपने लिए माला और शॉल खरीदने की परंपरा से हटकर। श्रोताओं की खासी उपस्थिति कवियों के लिए भी आंतरिक प्रसन्नता का कारण बनी। मैं इस बात से अभिभूत हूं कि ललित की असमय और अकस्मात मृत्यु हो गई। लेकिन इस आयोजन में भाभी जी (श्रीमती माया सुरजन) शामिल हुई। मित्रों ने भी संकल्प लिया है कि यह आयोजन भविष्य में जारी रहेगा।
इसी सिलसिले में एक और विशिष्ट आयोजन को रेखांकित करना जरूरी लगता है प्रेमचंद की जयंती साहित्यिक सांस्कृतिक संगठनों का लगभग अनिवार्य आयोजन है। सभी मंचों से गंभीर विचार-विमर्श होता है और प्रेमचंद की प्रासंगिकता को सभी रेखांकित करते हैं। वे भी जो प्रेमचंद की पासबुक की छानबीन करने को बड़ा शोध कार्य मानते हैं। छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से 5 वर्ष पहले प्रेमचंद जयंती के दिन 100 ग्रामों में एक साथ कार्यक्रम हुए। जरा कल्पना करें कि एक अच्छी टीम व्यापक पहचान विश्वास और शिक्षा के बिना क्या यह संभव है। सौ गांवों की शालाओं और चौपालों में प्रेमचंद की कहानी की प्रति उपलब्ध कराई गई। स्कूल में तो उपलब्ध थी ही। छात्रों, शिक्षकों तथा पंचों और सामान लोगों ने इसमें हिस्सा लिया। रचना पढ़ी गई और उस पर बातचीत हुई। इस अनोखे कार्यक्रम की चर्चा सारे देश में होनी चाहिए थी। लेकिन यह शायद तभी संभव नहीं है वैसे भी हमारे अखबार चैनल और हमारे सांस्कृतिक मंच बड़े नामों के आदत वचनों को दौरा कर अपने को धन्य समझने के अभ्यस्त हो गए हैं। किसी बड़ी हस्ती का आश्चर्य व बुनियादी कामों से अधिक काम तो है ही लाभदायक भी है। यह आयोजन अब 3 सौ गांव तक विस्तार पा चुका है। इस समाज के साथ कि नेताओं मंत्रियों – संत्रियों को इससे दूर रखा जाएगा। एक गांव में स्त्रियों ने इस आयोजन करने का दायित्व लिया।
ललित का इस दुनिया से जाना बड़ी क्षति है, हम जैसे मित्रों की व्यक्तिगत पीड़ा है पर यह हमारे समाज के सक्रिय संस्कृति कर्मी और शानदार व्यक्तित्व का चला जाना भी है। दिल्ली में ललित का इलाज हो रहा था तभी ललित मस्ती से हंसते बोलते थे, ठीक भी हो रहे थे। उस दौरान जब हम लोग एक दूसरे को फोन तो हेलो करने के बाद कुछ देर तक ठेका लगा कर हंसते। हंसने की शुरुआत ललित करते। बेशकीमती ठहाके ही मेडिकल बुलेटिन होते उसी दौर में पहले की ही तरह प्रसन्न चित्त भाव से उन्होंने अपनी कविता पाठ का वीडियो जारी किया उनकी जिजीविषा अद्भुत थी। उसी दौरान के परिवार ने उनका 75 वां जन्मदिन मनाया उनकी नातिन अनन्या ने फोन करके आग्रह किया कि वे घर में सभी को सरप्राइज देने के लिए नाना के कुछ मित्रों द्वारा दी गई शुभकामनाओं का वीडियो बनाना चाहती है। मैंने मज़ा लेते हुए तीन चार मिनट का वीडियो अनन्या को भेजा। ललित लगभग स्वस्थ हो गए थे और फिर अपने काम में जुड़ने के लिए बेचैन थे। लेकिन अचानक तबीयत बिगड़ी कि सब कुछ खत्म हो गया। बहुत कुछ लिखा जा सकता है। पर यह कहना भी काफी नहीं होगा ज़ालिम में इक बात कुछ इसके सिवा भी है।
गिरीश पंकज
हिंदी पत्रकारिता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ललित सुरजन जी नहीं रहे । उनके जाने के साथ वैचारिक पत्रकारिता की एक कड़ी भी लुप्त हो गई। पत्रकारिता के क्षेत्र में देशबन्धु को वैचारिक प्रतिबद्धता का अख़बार माना जाता है और ललित जी ने इस परंपरा को अंतिम सांस तक बाधित होने नहीं दिया। वह वैचारिक पत्रकारिता के पर्याय थे। तमाम संकटों के बीच भी उनका अखबार अपनी वैचारिक धार के साथ प्रकाशित होता रहा। ललित जी एक ऐसे प्रकाशक के रूप में उभरे, जिसने अखबार के प्रबंधन का काम कम, अखबार को वैचारिक प्रकल्प के रूप में अधिक स्थापित किया। निधन के पहले तक वे अपने अखबार में धारावाहिक लेखन कर रहे थे, जिसका नाम ही उन्होंने दिया था – ‘देशबन्धु : चौथा खंभा होने से इंकार’। उसका छब्बीसवां भाग उनके निधन के दो दिन पहले ही प्रकाशित हुआ था। अपनी अस्वस्थता के दिनों में भी वे फेसबुक के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति दे रहे थे। कुछ चर्चित अंग्रेज़ी कविताओं का वे अनुवाद पोस्ट कर रहे थे और कविताओं का पाठ भी। काव्य पाठ करने वाले उनके वीडियो को फेसबुक में देखा जा सकता है।
ललित जी पत्रकारिता की उस परंपरा के अनुगामी थे, जिस परंपरा में एक पत्रकार साहित्यकार भी हुआ करता था। ललित जी समय-समय पर कविताएं भी लिखा करते थे। उनके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। कुटुमसर की अंधी मछलियों पर लिखी गई उनकी कविता मेरे जेहन में अब तक बरकरार है। यात्रा-संस्मरण की भी उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई। देशबन्धु के साहित्य-परिशिष्ट में उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती थी। उसमें छपने वाली रचनाएं देशबन्धु के सोच को दर्शाती थी। ललित जी ने वर्षों तक ‘अक्षर पर्व’ नामक साहित्य पत्रिका का प्रकाशन भी किया, जिसकी देश भर में अपनी विशेष पहचान बनी। ललित जी ने छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन नामक संस्था के माध्यम से समय-समय पर अनेक महत्वपूर्ण आयोजन भी किए, जिसमें छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण लेखक शामिल होते थे। उसके वार्षिक उत्सव में बाहर से भी वरिष्ठ लेखकों को बुलाकर उनके व्याख्यान कराए जाते थे। ललित जी ने अनेक रचना शिविरों का भी सफल आयोजन किया, जिस में शामिल होकर नये लेखकों को बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला। ललित जी सुरजन तो थे ही, सृजन कर्ता भी थे।
उनका अख़बार देशबन्धु नये पत्रकारों के लिए एक विद्यालय से कम नहीं था। देशबन्धु से निकलने वाले अनेक पत्रकार बाद में विभिन्न अख़बारों में सम्पादक भी बने। एक दौर था जब देशबन्धु में अनेक महत्वपूर्ण पत्रकार अपनी सेवाएं दे रहे थे। देशबन्धु ने ग्रामीण रिपोर्टिंग का भी एक सिलसिला शुरू किया था। स्टेट्समैन जैसे अंग्रेज़ी के नामचीन अखबार की ओर से देशबन्धु को ग्रामीण रिपोर्टिंग के लिए कई बार पुरस्कृत किया गया। ललित सुरजन जी के पिता मायाराम सुरजन जी भी अपने समय के बड़े पत्रकार थे। उनका लिखा हम लोग पढ़ा करते थे और अपनी समझ को विकसित किया करते थे। उनके जाने के बाद ललित जी ने अपने पिता की वैचारिक परंपरा को आगे बढ़ाया। वे नियमित रूप से अखबार में समसामयिक विषयों पर लिखते रहे। उनका बेबाक लेखन समकालीन राजनीति और समाज को मार्गदर्शक देने वाला होता था। जीवन के अंतिम दौर में वे नियमित रूप से जो कुछ लिख रहे थे, वह तो दरअसल एक तरह से राजनीतिक इतिहास ही था।
74 वर्ष की आयु में उनका यकायक चला जाना छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता का एक बड़ा नुकसान है। न केवल छत्तीसगढ़ का वरन हिंदी पत्रकारिता की क्षति है। हिन्दी पत्रकारिता में जो वैचारिक शून्यता दिखाई देता है, उसकी क्षतिपूर्ति ललित जी अपनी लेखनी के माध्यम से कर रहे थे। इस समय पत्रकारिता बाज़ारवाद की चपेट में है। तरह-तरह के समझौते करने वाले अखबार हमारे सामने विद्यमान हैं। पैसे कमाने के चक्कर में अनेक अखबारों में फूहड़ किस्म के विज्ञापन भी दिखाई देते हैं। लेकिन देशबन्धु ही एक ऐसा अख़बार रहा है, जिसने कभी इस तरह का कोई काम नहीं किया। यह सिर्फ ललित जी की वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण संभव हो सका। पत्रकारिता के मानदंडों को स्थापित करने में देशबन्धु का बड़ा योगदान है। उसकी अपनी एक समृद्ध लाइब्रेरी है, ऐसी लाइब्रेरी जो विद्यार्थियों के लिए शोध केन्द्र का काम करती है। समय-समय पर अनेक विद्यार्थी देशबन्धु जाते, लाइब्रेरी में बैठकर अध्ययन किया करते हैं। देशबन्धु इकलौता अखबार है जो सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध है। देशबन्धु के माध्यम से अनेक छात्रों को वजीफा दिया जाता है। इस अख़बार में साहित्य के लिए भरपूर स्पेस हुआ करता है। इसमें साहित्यिक आयोजनों को प्राथमिकता मिलती है
एक दौर था, जब देशबन्धु में अनेक साहित्यिक गोष्ठियां भी हुआ करती थीं । बाद में रजबंधा मैदान में ‘मायाराम सुरजन स्मृति लोकायन’ नामक सभा भवन बनने के बाद वहां भी निरंतर आयोजन होते रहे। कहने का मतलब यह है कि ललित जी निरंतर सृजनशील रहे और दूसरों के सृजन को गतिशील बनाने की दिशा में भी प्रतिबद्ध रहे। छत्तीसगढ़ भर में उनके अपने को चिन्हित लेखक थे जो उनके अखबार में निरंतर प्रकाशित होते रहे। जब कभी कोई साहित्य का आयोजन हुआ, तो ये लेखक उनके आग्रह पर दौड़े चले आते थे। उस आयोजन में शहर के अनेक साहित्य रसिक भी उपस्थित होते थे। ललित जी रोटरी इंटरनेशनल के गवर्नर भी रहे। कुछ सामाजिक प्रकल्पों से भी उनका गहरा नाता रहा। इस तरह वे ऐसे पत्रकार थे, जो सिर्फ लिखते नहीं थे वरन समाज के उनके लिए कुछ योगदान भी किया करते थे। पिछले कुछ वर्षों में बाहर से आ कर कुछ तथाकथित बड़े अख़बारों ने अपनी जगह बना ली मगर, देशबन्धु की अपनी लोकप्रियता कम न हुई। प्रखर वैचारिकता के कारण देशबन्धु के अपने पाठक यथावत बने रहे क्योंकि ललित जी ने इसे देखने वाला नहीं, पढऩे वाला अखबार बनाया। पढ़कर समझ विकसित करने वाला बनाया। मुझे विश्वास है ललित जी के जाने के बाद भी देशबन्धु उनकी परंपरा का निर्वाह करेगा और जो वैचारिक धार ललित जी के समय कायम थी, वह भविष्य में भी कायम रहेगी। उनको मेरा शत शत नमन।
13 दिसंबर 2020
गिरीश पंकज
हिंदी पत्रकारिता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ललित सुरजन जी नहीं रहे । उनके जाने के साथ वैचारिक पत्रकारिता की एक कड़ी भी लुप्त हो गई। पत्रकारिता के क्षेत्र में देशबन्धु को वैचारिक प्रतिबद्धता का अख़बार माना जाता है और ललित जी ने इस परंपरा को अंतिम सांस तक बाधित होने नहीं दिया। वह वैचारिक पत्रकारिता के पर्याय थे। तमाम संकटों के बीच भी उनका अखबार अपनी वैचारिक धार के साथ प्रकाशित होता रहा। ललित जी एक ऐसे प्रकाशक के रूप में उभरे, जिसने अखबार के प्रबंधन का काम कम, अखबार को वैचारिक प्रकल्प के रूप में अधिक स्थापित किया। निधन के पहले तक वे अपने अखबार में धारावाहिक लेखन कर रहे थे, जिसका नाम ही उन्होंने दिया था – ‘देशबन्धु : चौथा खंभा होने से इंकार’। उसका छब्बीसवां भाग उनके निधन के दो दिन पहले ही प्रकाशित हुआ था। अपनी अस्वस्थता के दिनों में भी वे फेसबुक के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति दे रहे थे। कुछ चर्चित अंग्रेज़ी कविताओं का वे अनुवाद पोस्ट कर रहे थे और कविताओं का पाठ भी। काव्य पाठ करने वाले उनके वीडियो को फेसबुक में देखा जा सकता है।
ललित जी पत्रकारिता की उस परंपरा के अनुगामी थे, जिस परंपरा में एक पत्रकार साहित्यकार भी हुआ करता था। ललित जी समय-समय पर कविताएं भी लिखा करते थे। उनके दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। कुटुमसर की अंधी मछलियों पर लिखी गई उनकी कविता मेरे जेहन में अब तक बरकरार है। यात्रा-संस्मरण की भी उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई। देशबन्धु के साहित्य-परिशिष्ट में उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती थी। उसमें छपने वाली रचनाएं देशबन्धु के सोच को दर्शाती थी। ललित जी ने वर्षों तक ‘अक्षर पर्व’ नामक साहित्य पत्रिका का प्रकाशन भी किया, जिसकी देश भर में अपनी विशेष पहचान बनी। ललित जी ने छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन नामक संस्था के माध्यम से समय-समय पर अनेक महत्वपूर्ण आयोजन भी किए, जिसमें छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण लेखक शामिल होते थे। उसके वार्षिक उत्सव में बाहर से भी वरिष्ठ लेखकों को बुलाकर उनके व्याख्यान कराए जाते थे। ललित जी ने अनेक रचना शिविरों का भी सफल आयोजन किया, जिस में शामिल होकर नये लेखकों को बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला। ललित जी सुरजन तो थे ही, सृजन कर्ता भी थे।
उनका अख़बार देशबन्धु नये पत्रकारों के लिए एक विद्यालय से कम नहीं था। देशबन्धु से निकलने वाले अनेक पत्रकार बाद में विभिन्न अख़बारों में सम्पादक भी बने। एक दौर था जब देशबन्धु में अनेक महत्वपूर्ण पत्रकार अपनी सेवाएं दे रहे थे। देशबन्धु ने ग्रामीण रिपोर्टिंग का भी एक सिलसिला शुरू किया था। स्टेट्समैन जैसे अंग्रेज़ी के नामचीन अखबार की ओर से देशबन्धु को ग्रामीण रिपोर्टिंग के लिए कई बार पुरस्कृत किया गया। ललित सुरजन जी के पिता मायाराम सुरजन जी भी अपने समय के बड़े पत्रकार थे। उनका लिखा हम लोग पढ़ा करते थे और अपनी समझ को विकसित किया करते थे। उनके जाने के बाद ललित जी ने अपने पिता की वैचारिक परंपरा को आगे बढ़ाया। वे नियमित रूप से अखबार में समसामयिक विषयों पर लिखते रहे। उनका बेबाक लेखन समकालीन राजनीति और समाज को मार्गदर्शक देने वाला होता था। जीवन के अंतिम दौर में वे नियमित रूप से जो कुछ लिख रहे थे, वह तो दरअसल एक तरह से राजनीतिक इतिहास ही था।
74 वर्ष की आयु में उनका यकायक चला जाना छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता का एक बड़ा नुकसान है। न केवल छत्तीसगढ़ का वरन हिंदी पत्रकारिता की क्षति है। हिन्दी पत्रकारिता में जो वैचारिक शून्यता दिखाई देता है, उसकी क्षतिपूर्ति ललित जी अपनी लेखनी के माध्यम से कर रहे थे। इस समय पत्रकारिता बाज़ारवाद की चपेट में है। तरह-तरह के समझौते करने वाले अखबार हमारे सामने विद्यमान हैं। पैसे कमाने के चक्कर में अनेक अखबारों में फूहड़ किस्म के विज्ञापन भी दिखाई देते हैं। लेकिन देशबन्धु ही एक ऐसा अख़बार रहा है, जिसने कभी इस तरह का कोई काम नहीं किया। यह सिर्फ ललित जी की वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण संभव हो सका। पत्रकारिता के मानदंडों को स्थापित करने में देशबन्धु का बड़ा योगदान है। उसकी अपनी एक समृद्ध लाइब्रेरी है, ऐसी लाइब्रेरी जो विद्यार्थियों के लिए शोध केन्द्र का काम करती है। समय-समय पर अनेक विद्यार्थी देशबन्धु जाते, लाइब्रेरी में बैठकर अध्ययन किया करते हैं। देशबन्धु इकलौता अखबार है जो सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध है। देशबन्धु के माध्यम से अनेक छात्रों को वजीफा दिया जाता है। इस अख़बार में साहित्य के लिए भरपूर स्पेस हुआ करता है। इसमें साहित्यिक आयोजनों को प्राथमिकता मिलती है
एक दौर था, जब देशबन्धु में अनेक साहित्यिक गोष्ठियां भी हुआ करती थीं । बाद में रजबंधा मैदान में ‘मायाराम सुरजन स्मृति लोकायन’ नामक सभा भवन बनने के बाद वहां भी निरंतर आयोजन होते रहे। कहने का मतलब यह है कि ललित जी निरंतर सृजनशील रहे और दूसरों के सृजन को गतिशील बनाने की दिशा में भी प्रतिबद्ध रहे। छत्तीसगढ़ भर में उनके अपने को चिन्हित लेखक थे जो उनके अखबार में निरंतर प्रकाशित होते रहे। जब कभी कोई साहित्य का आयोजन हुआ, तो ये लेखक उनके आग्रह पर दौड़े चले आते थे। उस आयोजन में शहर के अनेक साहित्य रसिक भी उपस्थित होते थे। ललित जी रोटरी इंटरनेशनल के गवर्नर भी रहे। कुछ सामाजिक प्रकल्पों से भी उनका गहरा नाता रहा। इस तरह वे ऐसे पत्रकार थे, जो सिर्फ लिखते नहीं थे वरन समाज के उनके लिए कुछ योगदान भी किया करते थे। पिछले कुछ वर्षों में बाहर से आ कर कुछ तथाकथित बड़े अख़बारों ने अपनी जगह बना ली मगर, देशबन्धु की अपनी लोकप्रियता कम न हुई। प्रखर वैचारिकता के कारण देशबन्धु के अपने पाठक यथावत बने रहे क्योंकि ललित जी ने इसे देखने वाला नहीं, पढऩे वाला अखबार बनाया। पढ़कर समझ विकसित करने वाला बनाया। मुझे विश्वास है ललित जी के जाने के बाद भी देशबन्धु उनकी परंपरा का निर्वाह करेगा और जो वैचारिक धार ललित जी के समय कायम थी, वह भविष्य में भी कायम रहेगी। उनको मेरा शत शत नमन।
13 दिसंबर 2020
डॉ. राम प्रकाश
3 दिसम्बर को सवेरे छ: बजे मेरे मित्र सुभाष श्रावगी जी का फोन आया। उन्होंने कहा कि सुरजन जी नहीं रहे। श्रावगी जी की एक दिन पहले ही उनसे बातचीत हुई थी और मेरी पंद्रह दिन पहले। आघात लगा। यह सब कैसे हो गया। मेरी जब बातचीत हुई थी तो उन्होंने कहा था कि अब वे दिल्ली से रायपुर जाने वाले हैं। वाणी में वही ओज था। कीमोथेरेपी हुई थी, उसके बाद वे डॉक्टर की सलाह लेने वाले थे कि दिल्ली से रायपुर जाएँ या नहीं। 2020 का साल बड़ा मनहूस रहा। मैं और मेरा बेटा दोनों कोरोना से संघर्ष कर रहे थे तभी खामगांव से मेरे मित्र मदन राठी का फोन आया कि ललित सुरजन जी को कैंसर है। मैंने उनसे कहा सुरजन जी बड़े जीवट वाले आदमी हैं, संघर्षशील हैं। कैंसर उनका कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा। उनसे जब-जब भी बातें हुईं, वे स्वस्थ और प्रसन्न लगे।
श्रावगी जी के फोन के बाद स्मृतियाँ किसी रील की तरह घूम गईं। सन् 2010-11 की बात होगी। एक दिन रायपुर से फोन आया। बातचीत इस प्रकार हुई:
‘आप राम प्रकाश जी बोल रहे हैं’?
‘जी हाँ ! बोलिए….’
‘मैं रायपुर से ललित सुरजन बोल रहा हूँ’।
‘अरे वाह! बोलिए भाई साहब बोलिए’।
‘आपकी रचनाएँ मिलीं हैं। मैं उन्हें अक्षर पर्व में छाप रहा हूँ। इसमें एक रचना है अतिथि देवोभव। यह बड़ी अच्छी कविता है। बधाई’।
‘धन्यवाद। बहुत अच्छा आप मेरी रचनाओं को अक्षर पर्व में स्थान दे रहे हैं’।
इसी प्रकार कुछ परिचय की बातें हुईं। बातचीत से मुझे लगा कि सुरजन जी खुले रूप में बातें करते हैं। संपादक की ओढ़ी हुई गंभीरता उनके व्यक्तित्व में कहीं अनुभव नहीं हुई। अगले महीने ही रचनाएँ छपकर आ गईं। उसी समय मेरी पुस्तक ‘लहरों के विरुद्ध’ प्रकाशित हुई। वह पुस्तक मैंने उन्हें भेज दी। उन्होंने देशबन्धु में उसकी कई रचनाएँ छापीं। कविताएँ पता सहित छपी थीं। इस कारण पाठकों के पत्र मेरे पास आने लगे। इसी माध्यम से मैं रायपुर, भिलाई के साहित्यकारों से परिचित हुआ। सुरजन जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानकारी मिली। फोन पर बातें होती रहती थीं।
जून 2015 में अकोला की संस्था ‘राष्ट्रभाषा सेवी समाज’ के माध्यम से एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें मुख्य रूप से नरेश सक्सेना (लखनऊ), ललित सुरजन (रायपुर), और डॉ. प्रतापराव कदम को खंडवा से आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम दो दिनों का था परंतु कार्यक्रम के अध्यक्ष महाबीज के प्रबंध संचालक अरुण उन्हाळे जी थे। उनके बंगले पर साहित्यिक चर्चाएँ चला करती थीं। तीन दिन तक हम लोग साथ में रहे। कार्यक्रम में सुरजन जी ने मुख्य अतिथि के रूप में जो भाषण दिया उसकी स्मृति लोगों को आज भी है। उनके साहित्यिक रूप का परिचय अकोला वासियों को हुआ। उनके हंसमुख स्वभाव के कारण वे यहाँ की साहित्यिक मंडली से घुलमिल गए। अकोला के सुभाष श्रावगी और मुझसे उनकी निकटता अधिक बनी रही। मैं उनकी व्यस्तता को जानता था इसलिए छुट्टी के दिन शाम को लंबी बातचीत हुआ करती थी। उनका स्मित हास्य चेहरा भुलाए नहीं भूलता। अक्षर पर्व और देशबन्धु में उन्होंने मुझे बहुत छापा। वे आत्मीयता और संबंध बनाए रखने वाले व्यक्ति थे।
ललित सुरजन जी का जन्म अकोला से लगभग 50 कि.मी. दूर बुलढाणा जिले के उन्द्री नामक गाँव में ननिहाल में हुआ था। उनकी ससुराल नागपुर की है। इस कारण विदर्भ से उन्हें बड़ा स्नेह था। उनके मामा के पुत्र मोती सिंह मोहता अकोला के ख्याति प्राप्त वकील हैं। बेरार जनरल एजूकेशन सोसाइटी के अध्यक्ष कई वर्षों तक रहे हैं। अकोला आकर वे अपने रिश्तेदारों से मिले परंतु उनका मन तो साहित्यिक लोगों के बीच ही रमता था। तीन दिनों तक हम लोगों के साथ ही रहे। हमारे उन्हाले साहब आई.ए.एस. हैं। परंतु पद का घमंड बिल्कुल नहीं है। महाराष्ट्र के भोजन में ज्वार की रोटियाँ और बेसन बहुत पसंद किया जाता है। सुरजन जी, नरेश सक्सेना, प्रतापराव कदम, उन्हाले साहब और मैंने इस भोजन का आनंद लिया। उस समय न कोई बड़ा साहित्यकार न कोई आई.ए.एस.। सब केवल और केवल मित्र। जैसे बरसों से परिचित रहे हों। न काँटा, न छूरी और न चम्मच। जैसे वन भोज का आनंद लिया जा रहा हो। उसके बाद सुरजन जी ने अनेक संस्मरण सुनाए।
तीसरे दिन जब सुरजन जी रायपुर जाने के लिए अकोला रेल्वे स्टेशन पहुँचे तो प्लेटफार्म पर उन्होंने देखा कि अकोला के 15-16 लोग उन्हें विदाई देने के लिए उपस्थित हैं। वे भावुक हो गए। कहने लगे ‘यह यात्रा और यहाँ के लोग सदैव याद रहेंगे’। उसके बाद अक्षर पर्व के अंक के संपादकीय में यहाँ के राष्ट्रीय सम्मेलन के बारे में विस्तृत रूप से लिखा। वे अकोला सपरिवार आने वाले थे परंतु पत्नी की बीमारी के कारण अकेले ही आए। उन्हें दोबारा अकोला बुलाने की इच्छा मन में ही रह गई। रायपुर में प्रतिवर्ष सितंबर माह में वे साहित्य-सम्मेलन करते हैं। कई रुकावटों के कारण मैं वहाँ जा नहीं सका। यह संतोष की बात है कि महीने-दो महीने में उनसे बात हो जाया करती थी। उनकी आत्मीयता बेजोड़-बेमिसाल थी।
दो वर्ष पूर्व वे शिलांग स्थित नेहू (केन्द्रीय विश्वविद्यालय) में बतौर अतिथि आमंत्रित किए गए। विश्वविद्यालय के अतिथि गृह में न रुककर उन्होंने भाई के यहाँ रुककर भोजन करना उचित समझा। चलते समय उन्होंने श्याम बाबू की पत्नी पूनम से कहा ‘बेटा, मेरे पुत्र नहीं हैं। बहू कैसी होनी चाहिए, यह तुमसे अच्छा कौन समझ सकता है’। पूनम भावुक हो गई। आज भी वह दृश्य उसके सामने है।
न जाने कितनी-कितनी बातें, उनकी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। उनकी इच्छा थी कि हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल नामक पुस्तक लिखी जाए। इसमें दूर-दराज के क्षेत्रों में लिख रहे हिन्दी सेवियों का उल्लेख होना चाहिए। यह बड़ा शोध पूर्ण और श्रमसाध्य कार्य था। उनका कहना था कि कम प्रसिद्ध साहित्यकार भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं। हिन्दी के इतिहास में उनका और उनके साहित्य का उल्लेख होना चाहिए। निश्चित ही यह बड़ा काम है। सुरजन जी ने इसके लिए मेरे नाम का चयन किया था। मेरे लिए यह गर्व की बात थी कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा। गुजरात का एक विद्वान और छत्तीसगढ़ के एक साहित्यकार का चयन उन्होंने इस महत् कार्य के लिए किया था परंतु नियति के आगे किसकी चली है।
ललित सुरजन जी बहुत बड़े मनवाले थे। देश की पत्रकारिता के धुरी थे। चालीस से अधिक संस्थाओं से जुड़े रहे। छत्तीसगढ़ की साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र रहे। पत्रकारिता के प्राध्यापक भी रहे। पत्रकारिता, साहित्य और समाज सेवा की ऐसी त्रिवेणी दुर्लभ है। वे आजीवन संघर्षशील रहे। कभी निराश नहीं हुए। आज उनके बारे में लिख रहा हूँ तो उनका हँसमुख चेहरा मेरे सामने है। सचमुच वे देश के बन्धु थे। ललित व्यक्तित्व वाले। हमारे जैसे न जाने कितने लोगों के ऊर्जा-स्रोत बने रहे ललित सुरजन जी।
27 दिसंबर 2020
शेष नारायण सिंह
ललित सुरजन जी पंचतत्व में विलीन हो गए। छत्तीसगढ़ सरकार ने पूरे राजकीय सम्मान से उन्हें अंतिम विदाई दी। कोरोना के बाद के लॉकडाउन के दौरान पता लगा था कि उन्हें कैंसर था। रायपुर में थे, वहां कैंसर के इलाज की इतनी अच्छी व्यवस्था नहीं थी। उन्हें विशेष विमान से दिल्ली लाया गया। उनका इलाज सफलतापूर्वक चल रहा था। उनके रोज़मर्रा के कामकाज को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वे बीमार हैं। लेकिन काल को कुछ और मंज़ूर था और उन्हें ब्रेन हैमरेज हो गया और वे अनंत यात्रा पर चले गए। 74 साल की उम्र भी जाने की कोई उम्र है लेकिन उन्होंने हमको अलविदा कह दिया।
ओहदे के हिसाब से वे देशबन्धु अख़बार के प्रधान संपादक थे लेकिन इसके अलावा बहुत कुछ थे। वे एक सम्मानित कवि व लेखक थे। सामाजिक मुद्दों पर बेबाक राय रखते थे। दिल्ली में अपने आख़िरी महीनों में वे लेखन के काम में लगे रहे। फेसबुक पर उनकी नियमित मौजूदगी थी। अन्याय के खिलाफ उनकी कलम हमेशा चलती थी और उनके सहकर्मियों को सच्चाई के साथ लिखने के लिए प्रेरित करती थी। सत्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अद्वितीय थी। किसी भी सही काम के लिए आगे आकर शामिल होना उनकी फितरत थी। इसलिए उनके जानने वाले उन्हें एक सामाजिक कार्यकर्ता भी मानते हैं। वे साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सद्भाव व विश्व शांति से सम्बंधित मुद्दों पर हमेशा खुलकर बात करते थे।
दुनिया के कई देशों की उन्होंने यात्राएं की थीं। विश्व के देशों की संस्कृति और रीति-रिवाजों की जानकारी रखने का उनको बहुत शौक था। उनके स्तर का यात्रा वृत्तांत लिखने वाला मैंने दूसरा नहीं देखा। जहां भी जाते थे वहां के बारे में लिखते ज़रूर थे। उनके यात्रा वृत्तान्त पढ़कर लगता था कि पाठक वहीं कहीं मौजूद है। 2013 में नॉर्वे में संसद के चुनाव होने वाले थे। इत्तेफाक से उन्हीं दिनों मैं ओस्लो जा रहा था। उन्होंने मुझे एक शोध करने वाले विद्वान का संदर्भ दिया। जब मैं वहां गया तो चुनाव की कवरेज तो मैंने अपने मित्र शरद आलोक के साथ की लेकिन ओस्लो और बर्गेन के विद्वानों के बीच उनके उस शोधार्थी मित्र जैकबसन ने सम्मान दिलवाया। मुझे याद है किसी भी देश या संस्कृति के बारे में उनसे बात करने पर कुछ न कुछ नया ज़रूर मिल जाता था।
ललित सुरजन एक आला और नफ़ीस इंसान थे। देशबन्धु अख़बार के संस्थापक स्व मायाराम सुरजन के वे बड़े बेटे थे। मायाराम जी मध्यप्रदेश के नेताओं और पत्रकारों के बीच बाबू जी के रूप में पहचाने जाते थे। वे मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के मार्गदर्शक माने जाते थे। उन्होंने मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन को पुनर्जीवित किया और अपेक्षित सम्मान दिलवाया। वे नए लेखकों के लिए खास शिविर आयोजित करते थे और उनको अवसर देते थे। बाद में उनमें से बहुत सारे लेखक बहुत बड़े साहित्यकार बने, उनमें से एक महान साहित्यकार काशीनाथ सिंह भी हैं।
‘अपना मोर्चा’ जैसे कालजयी उपन्यास के लेखक डॉ. काशीनाथ सिंह ने मुझे एक बार बताया कि मायाराम जी ने उनको बहुत शुरुआती दौर में मंच दिया था। महान लेखक हरिशंकर परसाई जी से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे। बाबू जी के सारे सद्गुण ललित जी में भी थे। जब भी परसाई जी के बारे में उनसे बात की तो अपनेपन की आभा आसपास देखी जा सकती थी। रायपुर में उन्होंने शिक्षा ली थी। छात्र के रूप में ही उन्होंने कुछ मित्रों के साथ मिलकर कई साहित्यिक सम्मेलनों का आयोजन किया था।
उन्होंने 1961 में देशबन्धु में एक कनिष्ठ पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। उन्हें साफ़ बता दिया गया था कि अख़बार मालिक के बेटे होने का कोई विशेष लाभ नहीं होगा, अपना रास्ता खुद तय करना होगा, अपना सम्मान कमाना होगा, देशबंधु केवल एक अवसर है ,एक आदरणीय मंच है, वहां अपना स्थान अपनी मेहनत के बल पर बनाना होगा। ललित सुरजन ने वह सब काम किया जो एक नए रिपोर्टर को करना होता है। प्रबंधन का काम भी सीखा और बसों से लेकर बैलगाड़ी तक में यात्रा करके देशबन्धु को सतत आगे बढ़ाते रहे और अपने महान पिता के सही अर्थों में वारिस बने।
पिछले साठ साल की मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की हर राजनीतिक गतिविधि को उन्होंने एक पत्रकार के रूप में देखा, अपने स्वर्गीय पिता जी को आदर्श माना और कभी भी राजनीतिक नेताओं के सामने सर नहीं झुकाया। अपनी मृत्यु के पहले उन्होंने एक सीरीज लिखी। हर गुरुवार को देशबन्धु में उनका मुख्य आलेख होता था। जिस दिन उनकी मृत्यु की खबर अखबार के मुखपृष्ठ पर छपी, उस दिन भी सम्पादकीय पृष्ठ पर उनका मुख्य लेख था।
मध्यप्रदेश की राजनीति के बड़े नेताओं को बहुत लोग जानते होंगे लेकिन जब उनका लेख, ‘चौथा खम्भा बनने से इंकार‘ की कोई कड़ी छपती थी तो मुझे कुछ न कुछ नया जानने का अवसर मिलता था। मध्यप्रदेश के सभी बड़े नेताओं से उनका परिचय था। द्वारिका प्रसाद मिश्र और रविशंकर शुक्ल उनके पिता स्व मायाराम जी सुरजन के समकालीन थे, इस लिहाज से उनको वह सम्मान तो दिया लेकिन उनकी राजनीति का हथियार कभी नहीं बने। इन दो बड़े नेताओं के बाद की पीढ़ी के सभी नेताओं के बारे में ललित जी के अपने संस्मरण होते थे।
पत्रकारिता के सर्वोच्च मूल्यों की इतनी इज्ज़त करते थे कि कुछ नेताओं से निजी और घरेलू सम्बन्ध होने के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अपने अख़बार को किसी नेता के हित के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया। ललित जी बहुत ही विनम्र लेकिन दृढ़ व्यक्ति थे। उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। कई बार बड़ी कीमतें भी चुकाईं। अख़बार चलाने में आर्थिक तंगी भी आई और अन्य परेशानियां भी हुईं लेकिन यह अजातशत्रु कभी झुका नहीं। उन्होंने कभी किसी से दुश्मनी नहीं की। जिन लोगों ने उनका नुकसान किया उनको भी हमेशा माफ करते रहे, कभी भी बदला लेने की भावना से काम नहीं किया।
ललित जी का जाना मेरे लिए बहुत बड़ा व्यक्तिगत नुकसान है। जब कभी किसी विषय पर मैंने कुछ बहुत अच्छा लिखा तो सबसे पहला फ़ोन ललित जी का ही आता था। उनकी तारीफ़ को मैं अपने लेखन की सर्टिफिकेट मानता हूं और उन यादों को आजीवन संजोकर रखूंगा। अगर कभी कुछ गड़बड़ लिखा तो अख़बार के समूह सम्पादक राजीव जी को लिख देते थे कि शेष जी ने आज कुछ कमज़ोर लिखा है। उनके साथ दिल्ली के खान मार्किट में बाहरी संस की किताब की दुकान पर जाना एक ऐसा अनुभव है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह मेरे लिए एक शिक्षा की यात्रा भी होती थी।
उनकी रूचि की जो भी किताब छपी उसे उन्होंने अवश्य पढ़ा। बाहरी संस की दुकान पर काम करने वाला हर व्यक्ति उनको जानता था। उनके जाते ही उन किताबों को लाकर उनके सामने रख देता था जो नई-नई आई हुई रहती थीं। अभी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नई किताब आई है, उसका इंतजार वे बहुत बेसब्री से कर रहे थे। लेकिन वे उसे पढ़े बिना ही चले गए उनके जन्मदिन पर बधाई सन्देश भेजने के बाद मैं उनके फोन का इंतजार करता रहता था। दरअसल, उनके वास्तविक जन्मदिन और फेसबुक पर दर्ज जन्मदिन में एक दिन का अंतर था। अगर गलत दिन मैसेज लिख दिया तो फोन करके बताते थे, शेषजी आपसे गलती हो गई। जब किसी साल सही दिन पर मैसेज दिया तो कहते थे कि इस बार आपने सही मैसेज भेजा।
अफ़सोस, अब यह नौबत कभी नहीं आयेगी क्योंकि उनके जीवन में कराल काल ने एक पक्की तारीख़ लिख दी। वह उनकी मृत्यु की तारीख़ है। इस मनहूस तारीख़ को उनका हर चाहने वाला कभी नहीं भुला पायेगा। उनके अख़बार में मैं काम करता हूं लेकिन उन्होंने यह अहसास कभी नहीं होने दिया कि मैं कर्मचारी हूं। आज उनके जाने के बाद लगता है कि काल ने मेरा बड़ा भाई छीन लिया। आपको कभी नहीं भुला पाऊंगा ललित जी।
6 दिसंबर 2020
शेषनारायण सिंह नई दिल्ली में देशबन्धु के राजनीतिक संपादक थे, कोरोना के कारण 7 मई 2021 को उनका देहावसान हो गया।
सुनील कुमार गुप्ता
मुझे याद है 8 जून 2003 की वो तारीख़, जब भोपाल से रायपुर पहुंचने के तीसरे दिन ‘बहाना धर्मांतरण का, मंसूबा चर्च को मंदिर बनाने का’ शीर्षक के साथ मेरी एक ख़बर देशबन्धु के पहले पन्ने पर लीड छपी थी।. ख़बर छपते ही दुर्ग, राजनांदगांव, महासमुंद में अख़बार की प्रतियाँ जलाई जाने लगीं। दफ़्तर में हलचल थी, तभी सुबह-सुबह एक सहयोगी को भेजकर ललित जी ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और मुझे देखते ही बोले, ‘क्या सुनील ! आते ही हंगामा शुरू कर दिया’। फिर थोड़ा रुक कर ज़ोरदार ठहाका लगाया और बोले- ‘कीप इट अप, देशबन्धु को आदत है इन सबकी, और हां..सुनो, सच लिखने से कभी डरना मत’। ऐसे थे ललित जी, जो आखिरी सांस तक सही और सद्भाव के पक्ष में, सांप्रदायिकता और कूपमंडूकता के खिलाफ डटकर खड़े रहे। उनका साफ़ मानना था अगर आप सिद्धांतों और सच की पत्रकारिता कर रहे हैं, तो सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक दबाव झेलना आपकी नियति है।
ललित जी, जिन्हें हम सब ‘बड़े भैया’ कहते थे, पिछले साल नहीं रहे. वे 74 वर्ष के थे और दिल्ली के एक निजी अस्पताल में बुधवार 2 दिसंबर रात करीब 8 बजे उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं। पिछले कई महीनों से उनका कैंसर का इलाज चल रहा था और अचानक ब्रेन हेमरेज होने के बाद उन्हें फिर अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनका यूं चले जाना, मुझे ही नहीं, पूरे पत्रकारिता जगत को स्तब्ध कर गया और शून्य से भर गया। उनके साथ जुड़ी तमाम स्मृतियां मन-मस्तिष्क में उमड़ पड़ी। मैं ही नहीं, न जाने कितने पत्रकारों ने पत्रकारिता की शैशवावस्था में उनके सानिध्य में अपनी आंखें खोलीं। चलना, लिखना, पढ़ना और खुद को गढ़ना सीखा। उन्होंने जनपक्षधरता, मानवीय मूल्यों, सामाजिक सरोकारों और विकासपरक पत्रकारिता को जितना पल्लवित पोषित किया, एक दृष्टि दी, उसका उदाहरण बिरले ही मिलेगा. उनका साथ, उनकी हर बात एक शिक्षा देती थी. यही कारण रहा कि देशबन्धु, पत्रकारिता के एक स्कूल, एक रिसर्च संस्थान की तरह विकसित हुआ और देश को अनगिनत अच्छे पत्रकार दिए।
जनपक्षधरता का साथ नहीं छोड़ सकते
पत्रकारिता आज जब एक बहुत बड़ा व्यवसाय का रूप ले चुकी है, पूंजी लगाने वाले हर व्यक्ति को मुनाफा चाहिए, ऐसे दौर में हमेशा अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे ललित जी कहते थे कि ‘भाई ! मेरी नज़र में शहरों के साथ ही भारत गांवों में बसता है, मुझे ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता में सबसे ज़्यादा खुशी मिलती है। अख़बार की एक रिपोर्ट किसी व्यक्ति, स्थान या स्थितियों में बेहतर बदलाव का कारण बनती है, तो उससे बड़ी उपलब्धि और खुशी क्या हो सकती है, हम जनपक्षधरता का साथ नहीं छोड़ सकते’. यह एक बड़ी वजह रही कि देशबन्धु अपनी स्थापना से लेकर हमेशा आर्थिक चुनौतियों का सामना करता रहा। बता दें कि एक ऐसा अख़बार है, जिसे ग्रामीण पत्रकारिता के लिए सुविख्यात स्टेट्समैन अवार्ड लगभग एक दर्जन बार मिला है। इन सबके पीछे पिता स्व. मायाराम सुरजन के साथ ही ललित जी भी एक बड़े प्रेरणा स्त्रोत रहे। मै कार्यकारी संपादक के रूप में भोपाल और फिर रायपुर देशबन्धु में काम करते हुए खुद अनेक अवसरों का साक्षी रहा हूं कि कई विषयों पर मतभिन्नताओं के बावजूद ललित जी की सबसे बड़ी बात यह थी व्यक्तिगत हो या संस्थागत कार्य संस्कृति, कार्यप्रणाली को लेकर सहयोगियों की बात सुनने का उनमें धैर्य था। वे इसके लिए तत्पर रहते थे, सही को सुनने तैयार रहते थे और गलती सुधारने में जुट भी जाते थे. यह बात नई पीढ़ी में देखने को नहीं मिलती।
सामाजिक बदलावों के लिए प्रतिबद्ध रहे
ललित जी सामाजिक बदलाव के लिए आजीवन बेहद प्रतिबद्ध रहे। उनके दौर में ही रुचिर गर्ग, आलोक पुतुल, बसंत गुप्ता जैसे पत्रकारों ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों, नक्सलियों, उनकी जिंदगी, उनके इरादों को लेकर तथ्यपूर्ण, खोजी और सिस्टम को चौकन्ना करने व आइना दिखाने वाली दर्जनों समाचार कथाएं तैयार की। सुनील कुमार, गिरिजाशंकर जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार अपनी खोजी, राजनीतिक और प्रशासनिक खबरों से सिस्टम को एड़ियों पर रखते थे। मैं खुशकिस्मती मानता हूं कि ललित जी सानिध्य में रहते हुए मुझे इन सभी के साथ काम करने और सीखने का अवसर मिला। वे हमेशा संगठनों के अस्तित्व को जरूरी मानते थे और कहते थे कि आपस में बैठकर विचार-विमर्श करने से ही बदलावों के विचारों का बीजारोपण होता है। इसलिए आपस में बैठिए, बात कीजिए, कहीं भी कीजिए, वह कॉफ़ी हाउस हो, घर हो, बगीचा हो या संगठन का दफ़्तर।
अपने समय प्रबंधन पर गर्व
एक बार ललित जी से किसी ने पूछा कि पत्रकारिता और अख़बार के कामों में व्यस्त होने के बावजूद आप पढ़ने के लिए समय कैसे निकाल लेते हैं, तो उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि मैं अपना टाइम मैनेजमेंट ठीक से कर लेता हूं। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद रोज़ कम से कम 6 घंटे पढ़ने की मेरी आदत है. मेरी पहली प्राथमिकता पढ़ना, दूसरी घूमना और तीसरी लेखन है. पढ़ने से विचारों, घूमने से अनुभवों का संसार बढ़ता है और लेखन से आप अपने विचारों और दृष्टि को अभिव्यक्ति देते हैं। इसलिए हर पत्रकार को पढ़ना जरूर चाहिए, मैं तो कहूंगा कि पढ़ने की आदत बचपन से ही सबको डाली जानी चाहिए। सबको प्रेमचंद का कथा संग्रह मानसरोवर, महात्मा गांधी के सत्य के प्रयोग, हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाओं को जरूर पढ़ना चाहिए। जब अच्छा पढ़ेंगे, तो अच्छा लिखेंगे, ये मेरा विश्वास है। ललित जी ऐसे बिरले संपादकों में से रहे, जिनका स्तंभ पिछले 19 साल से हर सप्ताह लगातार छपता रहा।
संजीव खुदशाह
आज ललित जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी याद उन लोगों के जेहन में हमेशा बनी रहेगी जिन्होंने उन्हें पढ़ा है करीब से जाना है। मुझे याद है ललित सुरजन जी से पहली मुलाकात 2005 में हुई थी। मेरी किताब सफाई कामगार समुदाय इसी वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुई। मैं इसके लोकार्पण को लेकर चिंतित था। कुछ ही साल हुए थे रायपुर में आए। यहां मेरा कोई परिचित नहीं था। जांजगीर निवासी कवि और मेरे श्रद्धेय स्वर्गीय नरेंद्र श्रीवास्तव ने मुझे ललित सुरजन जी का फोन नंबर दिया और कहा तुम उनसे मिलो, वे तुम्हारी मदद करेंगे। मैंने अपने दफ़्तर से सुरजन जी को फोन मिलाया और उनसे मिलने चला गया। उन्होंने किताब देखी और प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा इस किताब को लिखते समय बताना था। हम इसे देशबन्धु में धारावाहिक प्रकाशित करते। बहरहाल उन्होंने पूछा, इसका लोकार्पण हुआ है या नहीं? मैंने कहा नहीं हुआ तो उन्होंने कहा – हम इसका लोकार्पण करेंगे लेकिन तुम्हें एक डेढ़ महीने इंतजार करना होगा। इस बीच उन्होंने समीक्षा लिखने हेतु प्रभाकर चौबे जी को एक किताब मुहैया कराई।
रायपुर के एक बड़े होटल में इसका लोकार्पण मायाराम सुरजन फाउंडेशन के बैनर तले संपन्न हुआ। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि रामपुर, उप्र के प्रसिद्ध लेखक कंवल भारती, नागपुर से आईं साहित्यकार सुशीला टाकभौरे और दिल्ली से कवि गंगेश गुंजन उपस्थित हुए थे। रायपुर के सारे अख़बारों में इस लोकार्पण की चर्चा हुई, दूरदर्शन ने भी इसे कवर किया था। उस समय इस प्रकार सुरजन जी का मुझसे एक अभिभावक के तौर पर रिश्ता बन गया। वह मेरा मार्गदर्शन करते। पत्रकारिता का मतलब मैंने उनसे ही जाना। मुझे याद है डीएमए इंडिया ऑनलाइन यूट्यूब चैनल के एक एपिसोड के साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा था की “पत्रकारिता कभी निष्पक्ष होकर नहीं की जा सकती। आपको यह तय करना होगा कि आप शोषक के पक्ष में है या शोषित के।” उनकी इस बात लोगों को बहुत गहरे तक प्रभावित किया और जो पत्रकारिता कर रहे हैं उनका मार्गदर्शन किया। यह वीडियो आज भी यूट्यूब में उपलब्ध है।
वे समय के बड़े पाबंद थे। मुझे याद है 2011 में हमने 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती का एक कार्यक्रम रखा था। उन्हें भी निमंत्रण दिया। वे कार्यक्रम के 5 मिनट पहले ही आ गए। इस समय हम तैयारी कर रहे थे। हमें बड़ी शर्मिंदगी हुई। इसी प्रकार वह अपना कोई भी कार्यक्रम तय समय पर ही शुरु कर देते थे। चाहे मेहमान या दर्शक आए या न आए। इस कारण उनके कार्यक्रम में लोग समय पर पहुंच जाते थे। उनसे ही हमने समय का महत्व सीखा और जब भी कार्यक्रम करते थे तो तय समय पर ही प्रारंभ करके तय समय पर खत्म कर देते थे। वे कहा करते थे कि “कार्यक्रम में लेटलतीफी का मतलब है जो मेहमान समय पर आए हैं उनकी बेइज्जती करना”। वे समानता की विचारधारा को बेहद महत्व देते थे। कोशिश करते थे कि उनके कार्यक्रम में वक्ताओं, मेहमानों में विविधता हो। महिलाओं को वह खास तवज्जो दिया करते थे।
इसके बाद छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन में मैं जुड़ गया। उनके द्वारा आयोजित संगोष्ठियों, कार्यक्रमों में बहुत सी बातें जानने सीखने को मिलीं।
बाद के दिनों में वे अपने लेख – संस्मरण आदि अपनी सहयोगी सरिता को बोल-बोल कर लिखवाया करते थे। इस दौरान उनके केबिन में प्रवेश की मनाही होती। वे जब भी मिलते तो पूछते संजीव क्या लिख रहे हो, हमेशा समकालीन विषयों पर बात करते थे। धार्मिक कट्टरवादियों और उनकी राजनीति की चर्चा के दौरान वे अक्सर निराश हो जाया करते थे। कहते थे इस देश का क्या होगा? अथक प्रयासों के बाद जो लोकतंत्र हमें मिला है, सब खत्म हो जाएगा।
वे तुनक मिजाज भी थे। कई बार ऐसा हुआ कि वे कार्यक्रम के दौरान किसी बात पर नाराज़ हो जाया करते थे। लेकिन ज़्यादातर समय खुशमिजाज़ ही रहते थे। सबसे अलग – अलग मिलते, एक सजग अभिभावक की तरह सब का ख्याल रखते और हालचाल पूछते। वे कहा भी करते थे कि अभी छत्तीसगढ़ में मैं सबसे वरिष्ठ पत्रकार हूं। सबसे उम्र में बड़ा हूं। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन के लगातार 20 सालों तक अध्यक्ष चुने गए। सोसायटी अधिनियम के सभी नियमों का कड़ाई से पालन करते थे। संस्था के लेखा-जोखा से लेकर गतिविधियों तक में पारदर्शिता रखते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि सभी कार्यक्रमों में हर सदस्यों की भागीदारी हो सके।
अंतिम दिनों में वे देशबन्धु प्रारंभ होने का इतिहास संस्मरण के रूप में लिख रहे थे। इसकी कड़ियां लगातार देशबंधु में प्रकाशित हो रही थी। “देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इनकार” उनकी यह लेखमाला पढ़ने से ज्ञात होता है कि किस प्रकार उनके पिता स्व. मायाराम सुरजन जी ने अख़बार को खड़ा किया और एक ऊंचाई तक पहुंचाया – बगैर अपने सिद्धांतों से समझौता किए। अविभाजित मध्यप्रदेश में देशबन्धु सर्वश्रेष्ठ अखबारों में गिना जाता था। आज भी वह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है।
उनकी कमी हमेशा खलती रहेगी, उनके जाने से बने शून्य को कोई नहीं भर सकता। हकीक़त में वे हमारे मार्गदर्शक थे और अभिभावक भी। उनके रचनात्मक अवदान को जानना और समझना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सादर नमन,
अक्षय नेमा
वर्तमान समय में सैद्धांतिक पत्रकारिता पर अटल रहने वाले कवि, पत्रकार व संपादक परम आदरणीय श्री ललित सर का जाना पत्रकारिता जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति का दिन है। ललित सर के कभी साक्षात दर्शन नहीं हो पाए, इस बात का दुख मुझे जीवन भर रहेगा। पर मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका स्नेहाशीष प्राप्त होता रहा है। मैंने जब भी किसी विषय पर आलेख या व्यंग्य भेजा उन्होंने उसमें बहुत सी बारीकियां बताई और उसे प्रकाशित भी किया। सर से मेरी बातें दर्जनों बार फोन पर हुई। एक बड़े अखबार के संपादक की ढेरों व्यस्तताएं होती हैं, यह जानते हुए भी बिना समय देखे उन्हें चाह जब फोन कर दिया करता था। कभी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मेरे फोन करने पर उनके काम में कोई व्यवधान हुआ हो। जब भी फोन करता, एक ओजस्वी आवाज़ दिमाग में चल रही सारी उलझनों को सुलझा देती। सर से जब भी बात होती, आखिर में उनका यही कहना होता कि बेटा जब भी रायपुर आना हो मिलना। पर अफ़सोस, मैं उनके दर्शन नहीं कर पाया।
एक प्रसंग याद आता है, जब मैंने उनसे ऐसे बात की थी जैसे कोई बच्चा अपने दादा से करता है। बच्चा किसी वस्तु के लिए जिद कर रहा हो और दादा उस बच्चे की ज़िद पूरा करने के लिए उसे आश्वस्त ही नहीं करते, बल्कि जल्द से जल्द उसे पूरा भी कर देते। दरअसल, मामला मेरी एक व्यंग्य रचना का था। मैंने एक व्यंग्य सर की मेल आईडी पर शाम करीब 5-6 बजे भेज दिया था। यह सोच कर कि दूसरे दिन यह अख़बार में प्रकाशित होगा। यही उम्मीद लेकर सोया भी। रात भर मेरे मन में लड्डू फूटते रहे। तब भी ठंड का ही समय था। जो उम्मीद लेकर सोया था अब उसे प्रत्यक्ष देखने का समय था। सुबह हो चुकी थी। घर तक पेपर करीब साढ़े 9 बजे पहुंच पाता था। इसलिए सुबह करीब 7 बजे ही गांव से 3 किलोमीटर दूर साइकिल से करकबेल स्टेशन (जिला-नरसिंहपुर) पहुंच गया। उस समय वहां अख़बार के बंडल खोले जा रहे थे। मैंने पेपर लिया और सबसे पहले साहित्य का पेज ही देखा, फिर संपादकीय पेज देखा पर मेरा व्यंग्य नहीं था।
मैं उदास मन से वापस गांव गया। दिन भर किसी काम में मन नहीं लग रहा था। इससे पूर्व शाम को जब भी कुछ भेजा, दूसरे दिन प्रकाशित हुआ था। तभी मन में आया कि क्यों न सर से इस बारे में बात की जाए। उस समय करीब दोपहर के 1 बज रहे थे। यह पूरी बच्चों वाली हरकत ही थी। मैंने बिना यह सोचे कि सर अभी व्यस्त होंगे या अखबार में प्रकाशित होने योग्य व्यंग्य न होगा, सर को फोन कर दिया। उन्होंने फोन उठाते ही पूछा – कैसे हो अक्षय…! मैंने सर को प्रणाम किया और एक बच्चे की तरह शिकायत की सर कल मैंने आपको एक व्यंग्य भेजा था वह प्रकाशित नहीं हो पाया हैै। सर थोड़े मुस्कुराए और कहा हमारा साहित्य का पन्ना जो मैडम देखती हैं, मैं उनसे बात करवा देता हूं, आप उन्हें ही भेज दिया करें। मैंने ‘जी सर’ कहते हुए फोन रख दिया। पांच मिनट भी नहीं हुए होंगे कि एक फ़ोन आया। उस तरफ से एक महिला ने कहा कि सर किसी मीटिंग में हैं, उन्होंने आप का नंबर दिया है, क्या आलेख भेजना चाह रहे हैं आप। मीटिंग का शब्द सुनते ही अपनी की हुई गलती पर गुस्सा आया कि बिना समय देखे सर को परेशान किया। मैडम को बताया कि जी मैंने एक व्यंग्य कल सर को भेजा था, उसी के बारे में बात कर रहा था। उन्होंने कहा उसे आप एक बार आप मुझे मेल कर दें। मैंने ऐसा ही किया और अगले दिन मेरा व्यंग्य प्रकाशित भी हो गया।
यह घटना भले ही बहुत छोटी मालूम हो, लेकिन यह ललित सर के धीरज, बड़प्पन और स्नेह की परिचायक है। ये गुण हर किसी में देखने को नहीं मिलते। सर के लेख पढ़ कर बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था, यह शिक्षा पूरी नहीं हो पाई थी और वे हम सबको छोड़कर चले गए। अगर मैं फिर उसी बच्चे की तरह उनसे ज़िद कर पाता तो यही कहता कि मैं आपके दर्शन के लिए रायपुर आ रहा हूं। मुझे आपका आशीर्वाद लेना है। और काश ! आज वे कह पाते कि आओ बेटा..! सर, आपका जाना बहुत बड़ी क्षति है। आपको सादर नमन।
4 दिसंबर 2020
मो. +91 94067 00860
राजेश बादल
भारत में अच्छे संपादकों – मालिकों की कड़ी का एक स्तंभ ढह गया। श्रद्धेय मायाराम सुरजन देशबन्धु के मुख्य शिल्पी थे। उन्होंने इस समूह को सपनों से निकालकर लाखों पाठकों के लिए आकार दिया। उनके बाद ललित जी ने ज़िम्मेदारी संभाली। ललित जी ने शिल्पकार की तरह इस कृति को सजाया, संवारा और तराशा। एक ज़माना था, जब अपने सामाजिक सरोकारों, ग्रामीण और खोजी पत्रकारिता के कारण देश भर में देशबन्धु की तूती बोलती थी। लगातार कई सालों तक ग्रामीण पत्रकारिता के लिए स्टेट्समैन अवॉर्ड देशबन्धु के पत्रकारों की झोली में जाता रहा। असल में ललित सुरजन और देशबन्धु खांटी मूल्यानुगत पत्रकारिता का पर्याय बन गए थे। उनका जाना हिन्दी पत्रकारिता के लिए बहुत बड़ा झटका है।
मैं मुड़कर देखता हूं तो चालीस साल पहले ललित जी से मुलाकात याद आती है । मुझे पत्रकारिता करते हुए तीन चार साल ही हुए थे। उन दिनों छतरपुर पत्रकार उत्पीड़न कांड में शानदार जीत के बाद हम लोग हिंदी पत्रकारिता में तेज तर्रार पत्रकारिता के लिए जाने जा रहे थे। मेरा एक लेख नई दुनिया के संपादकीय पन्ने पर छपा। शीर्षक था – छतरपुर कांड : परदे के पीछे की कहानी। यह अख़बार विनिमय व्यवस्था के तहत रायपुर भी जाता था। आलेख पढ़कर ललित जी ने मुझे पत्र लिखा। उन्हें आलेख पसंद आया था और इसी घटना पर आलेख देशबन्धु के लिए भेजने का आग्रह भी किया था। मैंने भेजा ।यह भी देशबन्धु के संपादकीय पृष्ठ पर छपा। जहां तक मुझे याद है, उसका शीर्षक था – दोषी प्रशासन का नकाब हटाने की सजा। यह आलेख पूरे छत्तीसगढ़ में बहुत चर्चित रहा। ललित जी ने यह बात मुझे पत्र लिखकर बताई। उन्होंने देशबंधु के लिए बुंदेलखंड की डायरी लिखने का आग्रह किया ।इस तरह देशबंधु के साथ नियमित लेखक के रूप में मेरा रिश्ता बना।
ग्यारह जुलाई 1981 को मैं एक बारात में रायपुर गया। मैंने अपने आने की सूचना ललित जी को पत्र लिखकर दी थी। उनका उत्तर आया और ग्यारह जुलाई की सुबह साढ़े ग्यारह बजे मैं उनके सामने बैठा था। पहली मुलाक़ात। लगा ही नहीं कि देशबन्धु जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र के संपादक और मालिक से मिल रहा हूं। करीब डेढ़ घंटे की बातचीत के बाद उनके साथ ही लंच लिया। मैं उनके अध्ययन, मज़बूत वैचारिक पक्ष के कारण बहुत प्रभावित था। मैं लौट आया। लेकिन उनके साथ नए रिश्ते की शुरुआत हो गई। मेरा स्तंभ देशबंधु में छपने लगा। कुछ समय बाद नई दुनिया के प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर ने मुझे अपनी टीम में शामिल किया। मैंने ललित जी को इसकी सूचना दी और बताया कि इंदौर जाने के कारण बुंदेलखंड की डायरी नहीं लिख सकूंगा। उनका उत्तर आया तो मैं दंग था। मेरे नई दुनिया ज्वाइन करने, ख़ासकर राजेंद्र माथुर के साथ काम करने के फ़ैसले से वे बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने लिखा था, राजेंद्र माथुर जी के साथ इस देश का हर हिंदी पत्रकार काम करना चाहता है। देशबन्धु की जिम्मेदारी नहीं होती तो मैं भी उनके संग काम करने का इच्छुक था। इस तरह हम लोगों का रिश्ता साल दर साल मजबूत होता गया। नवभारत टाइम्स, दैनिक नईदुनिया, परख और आज तक ज्वाइन करने से वे ख़ुश थे। अक्सर मेरी टीवी रिपोर्ट देखकर फोन भी कर दिया करते थे। वे वास्तव में अच्छे मार्गदर्शक, शानदार संपादक और शुभ चिंतक थे। टीवी कवरेज के चलते जब भी मुझे छत्तीसगढ़ जाने का अवसर मिलता, तो उनसे मुलाक़ात का मौका नहीं छोड़ता।
राज्यसभा टीवी पर मेरी बायोपिक फिल्मों की श्रृंखला उन्हें बहुत पसंद आती थी। ख़ासकर साहिर लुधियानवी,अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह, दुष्यंत कुमार, राजेंद्र माथुर और एस पी सिंह पर केंद्रित फिल्मों की उन्होंने फोन करके तारीफ़ की थी। सच बताऊं जब कोई ऐसा व्यक्ति आपके काम का मूल्यांकन करे, जो आपके पूरे सफर का साक्षी रहा है तो अच्छा लगता है। तीन चार बरस पहले उन्होंने बाबूजी यानी मायाराम सुरजन जी के जीवन पर एक बायोपिक बनाने के लिए कहा था। वे दिल्ली आए थे। बोले ,तुम ही यह काम कर सकते हो। मैंने कहा ज़रूर। जल्द ही राज्य सभा टीवी से मेरा अनुबंध पूरा हो जाएगा तो मैं यह फि़ल्म बनाऊंगा। उन्होंने सहमति प्रकट की। इसके बाद जब मैंने चैनल से त्यागपत्र दिया तो उनका फ़ोन आया। कहने लगे,अब तुम फ्री हो तो बाबूजी वाली फिल्म कर डालो। मैंने कहा कि ठीक है। मैं रिसर्च शुरू करता हूं। इस बीच एक दो बार ऐसा हुआ,जब वे दिल्ली आए तो मैं बाहर था और दो बार जब मैं रायपुर गया, तो वे वहां नहीं थे। इस तरह बायोपिक का काम टलता रहा। कोरोना काल आया तो फिर सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया। क्या जानता था कि ललित जी अपने उस सफर पर जाने की तैयारी कर रहे हैं, जहां से लौटकर कोई नहीं आता।
अलविदा ! ललित जी । आपका मार्गदर्शन और लेखन हमेशा याद रहेगा। भारत की हिंदी आंचलिक पत्रकारिता में राजेंद्र माथुर के बाद जो रिक्तता बनी थी, उसे रायपुर में बैठे ललित जी भरने का प्रयास कर रहे थे। अब फिलहाल ऐसा कोई चेहरा नहीं दिखाई देता।
मेरी श्रद्धांजलि।
5 दिसंबर 2020
लेखक राज्यसभा टीवी के पूर्व संपादक हैं.
मो. +91 99100 68399
शाहिद नक़वी
मैंने देशबन्धु में आकर कलम पकड़ना सीखा और पाया कि ये अख़बार नहीं, सचमुच सबका मित्र है। जैसा कि अख़बार खुद कहता है,पत्र नहीं मित्र। ललित जी ने ऐसे मापदंड स्थापित किए थे जिसमें पत्रकारिता के लिए पूरी आज़ादी थी। सम्पादक या मालिकान कभी किसी खबर में हस्तक्षेप नहीं करते थे। खबर किसी के खिलाफ हो, वह कितना भी बड़ा और ताकतवर व्यक्ति हो, देशबन्धु अपने पत्रकार से कोई सवाल नहीं करता था। अपने पत्रकारों की काबिलियत और ईमानदारी पर भरोसे का इससे अच्छा उदाहरण और कहीं नहीं मिलता।
रीवा में पत्रकारों के साथ पुलिस की बदसलूकी के विरोध में राजीव गांधी की सभा के बहिष्कार का फैसला लेना पड़ा था। उस समय सम्पादक और मालिक वहां मौजूद थे। वे सब के सब पत्रकारों के साथ वीआईपी दीर्घा को छोड़ कर चले आये। बाद में प्रशासन की मान मनौव्वल के बाद भी कोई वीआईपी दीर्घा में नहीं गया और जनता खबर से वंचित न रहे इस लिए आमजनों के बीच में खड़े होकर ख़बर बनी। विरोध की खबर भी बनी। आज शायद ये हिम्मत किसी मालिक या सम्पादक में नहीं है। मप्र में राष्ट्रपति शासन के दौरान भी देशबन्धु ने अपनी मुखरता पर कभी अंकुश नहीं लगाया। मैं खुद गवाह हूं कि मैंने शासन प्रशासन को जनता की परेशानियों से अवगत कराने और तंत्र की खामियों के खिलाफ लगातार समाचार बनाये। लेकिन कभी अख़बार मालिकों ने रोका नहीं। ये अखबार की विश्वसनीयता थी कि प्रशासन हर ख़बर पर संज्ञान लेकर तुरंत कार्रवाई करता था।
चाहे घपलों, अनियमितताओं की खबर हो या फिर नेताओं पर कोई खबर हो कभी सम्पादक की कैंची नहीं चली। मुझे कभी लगा नहीं कि देशबन्धु किसी दल का समर्थक है।ये सब बाबू जी और ललित जी की नीतियों की वजह से था।एक बार मुझसे हेडिंग में उर्दू शब्द ग़लत हो गया था। सम्पादकों का अपने पत्रकार की योग्यता पर भरोसा देखिए कि मुझसे पूछने से पहले शब्दकोश में उसको तलाशा गया और उर्दू विशेषज्ञ से उस शब्द के बारे में जाना गया। इसके बाद भी मुझसे उस शब्द को लिखने आशय पूछा गया। ये भी बड़ा तथ्य है कि विज्ञापन के लिए देशबन्धु में न कोई ख़बर छापी गई और न किसी की नाराजग़ी के डर से कभी कोई खबर रोकी गई। पत्रकारों और पत्रकार संगठन की खबरें भी बड़ी शिद्दत से प्रकाशित की जाती रही हैं।
नये लेखकों और पत्रकारों को अपनी पहचान बनाने और आगे बढ़ने का देशबन्धु पूरा मौका देता है। देशबन्धु की स्थापना भले ही मायाराम जी ने की लेकिन उसका स्वर्णिम युग तब आया जब ललित जी उसमें दाखिल हुए। वरिष्ठ संपादकों और पत्रकारों के सानिध्य में काम कर वे ऐसे मंजे कि आज देशबन्धु और ललित सुरजन का नाम एक दूसरे का पर्याय बन चुके हैं। अब वह सितारा हमेशा के लिए डूब गया है। ललित जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम उनके बनाए मापदंडों पर खरे उतरते रहें।
5 दिसंबर 2020
राजकुमार पांडेय
प्रगतिकामी सोच के साथ हिन्दी साहित्य की जो सेवा ललित सुरजन ने की उसे याद रखा जाएगा। ‘संदर्भ मध्य प्रदेश’ और ‘संदर्भ छत्तीसगढ़’ जैसे ग्रंथों का प्रकाशन हो या ‘अक्षर पर्व’ जैसी सुरुचिपूर्ण साहित्यिक पत्रिका या फिर छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में ‘हाईवे चैनल’ अख़बार जैसा प्रयोग करना – ललित जी लगातार नया करते रहे। सीमित संसाधनों वाले अखबार ‘देशबन्धु’ का सम्मान उन्होंने बढ़ाया ही. हाल के दिनों में दिल्ली आने के बाद फेसबुक पर उनके पोस्ट खूब पढ़े जाते रहे हैं।
ललित सुरजन हिन्दी के कुछ उन संपादकों के तौर पर याद रखे जाएंगे, जिन्होंने पूरी तरह अख़बार ही छापा. दरअसल आज के दौर में खालिस अख़बार का व्यवसाय चला पाना एक बेहद कठिन काम है। हां, कुछ लोग ज़रूर हैं जो अपने कमिटमेंट से खुद के अखबार चला रहे हैं। हालांकि ऐसे अखबार बस किसी तरह चल रहे हैं। उनमें दूसरे पत्रकारों के लिए रोज़गार तकरीबन नामुमकिन होता है। ऐसे लोगों का समर्पण भी काबिले तारीफ़ है, लेकिन अख़बार को अख़बार की तरह चलाना खर्चीला होता है और इसमें मुनाफा नहीं होता है। ये एक बड़ी वजह है कि व्यवसाय और उद्योग चलाने वाले घराने ही अख़बार चला पाते हैं। इससे उलट मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ और बाद में दिल्ली से छपने वाला देशबन्धु उंगलियों पर गिने जा सकने वाले ऐसे अख़बार के तौर पर स्थापित हो सका,जिसका संचालन पत्रकार के हाथों में था।
जनपक्षधर अखबार और सृजनशीलता भी
इससे भी कठिन होता है अपने मूल्यों के साथ अख़बार को चला लेना. जनपक्षधरता के साथ, प्रगतिशील सोच और पूरी सृजनशीलता को उसमें शामिल कर पाना। ललित सुरजन ने ये सब किया। उनकी दृष्टि वैश्विक साहित्य पर भी थी और जड़ें अपनी माटी से जुड़ी हुईं। यही कारण था कि उनके अख़बार में ब्रिटिश लेखक और पत्रकार फ्रेडरिक फोरसाइथ की रचनाओं के अनुवाद छपते थे तो गुजरात के अश्विन भट्ट का ‘आशका मांडल’ भी अनुदित होकर छपता था।
देशबन्धु की स्थापना ललित जी के पिता श्री मायाराम सुरजन ने की थी। मायाराम जी अपने दौर के स्थापित पत्रकार थे। उनकी मध्यप्रदेश की राजनीति में स्वाभाविक तौर पर इज्ज़त थी और उन्हें बाबूजी कहा जाता रहा। 1961 में ललित सुरजन ने देशबंधु से ही पत्रकारिता की शुरुआत की। ‘बाबूजी’ के अनुशासन में काम किया। ‘बाबूजी’ के उस समय के तक़रीबन सभी दिग्गज नेताओं से संपर्क थे, लेकिन उन्होंने कभी बेजा फ़ायदा नहीं लिया और ललित जी को भी अपने बूते ही अपनी जगह खोजनी पड़ी, जिसमें वे पूरी तरह सफल हुए।
देशबन्धु को बढ़ाया
‘बाबूजी’ के बाद अख़बार चलाने की जिम्मेदारी जब ललित जी के कंधों पर आई तो उन्होंने पूरी ईमानदारी से उसका निर्वाह किया. रायपुर के मुख्य संस्करण के अलावा मध्यप्रदेश के भोपाल, सतना, जबलपुर से भी देशबंधु के संस्करण निकल ही रहे थे. अखबार के सुचारू संचालन के लिए अलग-अलग संस्करणों की जिम्मेदारी अपने भाइयों को सौंप पर ललित जी ने बिलासपुर संस्करण निकाला. इसके बाद खासतौर से उन्होंने ‘हाईवे चैनल’ नाम से सांध्यकालीन अखबार रायपुर से शुरू किया. बाद में ये बिलासपुर, जगदलपुर और भोपाल से भी छपने लगा।
ललित जी की दूरदृष्टि
यह ललित सुरजन की दृष्टि ही थी कि उन्होंने संदर्भ छत्तीसगढ़ और संदर्भ मध्यप्रदेश जैसे दो महत्वपूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थ तैयार करवाए। ये दोनों ग्रंथ राज्य के बारे में जानकारियों का उस दौर के इनसाइक्लोपीडिया हैं। संदर्भ छत्तीसगढ़ के प्रकाशन के समय मध्यप्रदेश अविभाजित राज्य था, लेकिन छत्तीसगढ़ की स्थापना के लिए ये ग्रंथ आधार-पत्र साबित हुआ। इसके अलावा उन्होंने एक पत्रिका के रूप में अक्षर पर्व का प्रकाशन किया। साहित्य की इस पत्रिका के विशेषांक संग्रह करने योग्य होते रहे। ध्यान रखने वाली बात है, कि इस पत्रिका का प्रकाशन ऐसे समय में हुआ जब बहुत सारी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो रही थीं या बंद हो चुकी थीं।
नए लेखकों की तलाश
ब्रिटेन के थॉमसन फाउंडेशन की फेलोशिप पर पत्रकारिता के बारे में उन्होंने काम किया था. उनकी दृष्टि को इस बात से भी समझा जा सकता है कि देश में सबसे पहले उन्होंने ही अपने अख़बार के कॉलमिस्टों का विज्ञापन शुरू किया। उस दौर में देशबन्धु में इस तरह के विज्ञापन छपते थे कि अगले दिन अमुक का लेख पढ़िए और अख़बार पढ़ा भी जाता था। वे नए लेखकों को तलाशते भी रहते थे। वे चाहे पत्रकार न भी हों तो भी उनसे लिखवाते थे। जिससे लोगों को कुछ नया पढ़ने को मिले। ऐसे लेखकों में हरिशंकर परसाई, राजमोहन गांधी, प्रफुल्ल बिदवई, जे.एफ. रिबेरो और इंद्र कुमार गुजराल भी शामिल थे। देशबन्धु के पास पं.रामाश्रय उपाध्याय, राजनारायण मिश्र, बसंत तिवारी, सत्येंद्र गुमाश्ता और प्रभाकर चौबे जैसे उसके अपने लेखक तो थे ही।
संपादक तैयार किए
देशबन्धु में विभिन्न पदों पर काम कर चुके पत्रकार विनोद वर्मा याद करते हैं कि ललित जी युवा लोगों पर भरोसा करते थे। श्री वर्मा के मुताबिक एक सफल प्रबंधक वो है जो अपने नीचे काम करने वालों को प्रबंधक के तौर पर तैयार कर दे। उसी तरह से ललित जी ने अपने साथ काम करने वाले बहुत सारे युवा पत्रकारों को संपादक के तौर पर तैयार किया। एक ऐसा वक्त था जब मध्यप्रदेश के बहुत से अखबारों में देशबन्धु से निकले पत्रकार ही संपादक थे। यही नहीं, बीबीसी जैसी प्रतिष्ठित समाचार सेवा में भी देशबन्धु से निकले कई पत्रकारों ने काम किया जिनमें विनोद वर्मा भी शामिल हैं।
देशबन्धु में वरिष्ठ संपादक रह चुके सुदीप ठाकुर याद करते हैं कि ललित जी का अपने रिपोर्टरों और पत्रकारों में बहुत अधिक भरोसा रहता था। वे कहते हैं, कि 1996 में एक बार मैंने तत्कालीन संपादक सुनील कुमार से आग्रह करके फोटोग्राफर विनय शर्मा के साथ कालाहांडी की यात्रा की। सुनील जी ने जाने के लिए ज़रूरी न्यूनतम खर्च देकर भेजा। मैंने वहां से रिपोर्ट भेजी तो उसे देखकर ललित जी ने अपने एक रिश्तेदार से मेरे लिए और धन की व्यवस्था की, जिससे मैं वहां रह कर और रिपोर्टिंग कर सकूं।
ग्रामीण पत्रकारिता में योगदान
अपनी साहित्यिक सोच के साथ ही ललित जी ने ग्रामीण और विकासोन्मुखी पत्रकारिता पर पैनी नजर रखी. यही कारण है कि देशबन्धु को ग्रामीण पत्रकारिता के लिए कई बार प्रतिष्ठित स्टेट्समैन पुरस्कार मिला। मायाराम जी ने रूढ़िवाद और सांप्रदायिकता के विरुद्ध जो जोत जलाई थी, ललित जी ने उसकी चमक और बढ़ाई। कैंसर से पीड़ित होने के बाद इलाज के लिए दिल्ली आने पर उन्होंने फ़ेसबुक पर लिखना शुरू कर दिया था। उनके स्तंभ के पाठकों की संख्या अच्छी खासी थी. खासतौर से ‘देशबन्धु का चौथा खंभा बनने से इनकार’ शीर्षक से उनके लेख अत्यंत पठनीय थे।
रामचरित मानस में रुचि
इन सब के बाद भी उनका जुड़ाव प्राचीन हिंदी और संस्कृत साहित्य से कम नहीं था। कम लोगों को मालूम होगा कि तुलसी के रामचरित मानस और वाल्मीकि के रामायण की उन्हें गहरी जानकारी थी। मैंने भी देशबंधु के दिल्ली ब्यूरो में काम किया, लेकिन ललित जी से औपचारिक संबंध ही बने थे। इस वर्ष की शुरुआत में जब मैंने रायपुर यात्रा के दौरान उनसे रामचरित मानस पर चर्चा की तो उनकी दृष्टि की प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सका। मानस की चौपाइयां – दोहे और उनकी सही व्याख्या उन्हें किसी अध्येता की तरह याद थे। उस बैठक की छाप हमेशा मन में बनी रहेगी। उन्होंने कहा था – राजकुमार, राम चरित मानस की इस सही व्याख्या को लेकर हमें लोगों के बीच जाना चाहिए। लेकिन इस मुद्दे पर आगे कोई बात हो पाती और उसका कोई स्वरूप तय हो पाता, इससे पहले ही ललित जी एक ऐसी यात्रा पर चले गए जो अनंत होती है।
5 दिसंबर 2020
राजू पाण्डेय
आ.ललित जी के जाने के बाद आज स्वयं को अनाथ, असहाय,अकेला और अस्त व्यस्त अनुभव कर रहा हूँ। पिछले दो वर्षों में अनेक बार मुख्यधारा के मीडिया द्वारा जन सरोकार के मुद्दों की नृशंस और षड्यंत्र पूर्ण उपेक्षा से आहत होता रहा; भूख, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, कुपोषण, अशिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों को हाशिए पर डालकर जनता को धार्मिक-साम्प्रदायिक उन्माद की ओर धकेलने के अभियान की कामयाबी मुझे पीड़ित-व्यथित करती रही। लगता था कि हमारा अनथक परिश्रम सब व्यर्थ है – तब हताशा के इन क्षणों में पूज्य ललित जी से अपनी पीड़ा साझा करता था। कई बार लेखन छोड़ने का विचार मन में आया। लेखन और जीवन मेरे लिए समानार्थक हैं। यदि लेखन बंद होगा तो शायद जीवन भी ज़्यादा न चल पाएगा। वे इस बात को जानते थे। एक अवसर पर उन्होंने मेरे व्हाट्सएप संदेश का उत्तर देते हुए मुझे जो मार्गदर्शन दिया वह मेरे जीवन की अमूल्य धरोहर है। उन्होंने लिखा- यह अभूतपूर्व, अकल्पनीय कठिन और निर्मम समय है। यह वातावरण कैसे बना इस पर बहुत बात हो सकती है। लेकिन जब विचारहीनता का साम्राज्य हो, तब लोकशिक्षण के लिए अपने वश में जितना कुछ है, वह हमें करना ही है। कोई साथ न हो, तब भी हिम्मत नहीं खोना है। तुम जितना सोचते और लिखते हो वह बहुत मूल्यवान है और उसका दीर्घकालीन महत्व है। इस समय हम जो कर रहे हैं अर्थात लोकशिक्षण, वही करते रहना है। सामूहिक सम्मोहन जिस दिन उतरेगा, उस दिन यही लेखन और विचार काम आएंगे। हताश नहीं होना चाहिए।
ललित जी का व्यक्तित्व अनूठा था। निश्छलता, पवित्रता और सत्यनिष्ठा का तेज उनके चेहरे पर सदैव विद्यमान रहता था। उनकी भोली निर्मल मुस्कान सारे ताप हर लेती थी। उन्होंने अपने जीवन में असाधारण आदर और सम्मान अर्जित किया। विद्वान, योग्य और प्रतिभावान तो बहुत से व्यक्ति होते हैं लेकिन जब कोई व्यक्ति अपने आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों को जीना प्रारंभ कर देता है, आचार और विचार के अंतर को मिटा देता है तब वह महान बन जाता है, पूजनीय और अनुकरणीय बन जाता है। वे ऐसे ही विलक्षण व्यक्ति थे।
उन्होंने देशबन्धु को एक अख़बार से बहुत आगे ले जाकर एक संस्कार में तब्दील कर दिया। कितने ही लोग देशबंधु पढ़कर एक बेहतर मनुष्य बने। उन्होंने अपने जीवन में मानवीय संवेदना, तार्किक चिंतन और अभिव्यक्ति की शालीनता के महत्व को समझा। पत्रकारिता के पुरोधा स्व. मायाराम सुरजन जी ने पत्र नहीं मित्र की संकल्पना को साकार करने के लिए देशबंधु प्रारंभ किया था और पूज्य ललित जी के प्रयासों से देशबन्धु अपने पाठकों के दैनंदिन जीवन का हिस्सा बन गया। इस अख़बार के प्रशासन- संचालन में मालिक और कर्मचारी के औपचारिक संबंधों के लिए कोई स्थान न था, देशबन्धु से जुड़ा हर व्यक्ति देशबंधु परिवार का एक महत्वपूर्ण सदस्य था और लोक शिक्षण तथा जनरुचि के परिष्कार के मिशन के लिए समर्पित था। देशबन्धु ने अनेक प्रयोग किए। आजीवन सदस्यता अभियान के माध्यम से अपने पाठकों के साथ अटूट रिश्ता कायम किया गया।देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना के द्वारा सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह की अपनी परंपरा को विस्तार दिया गया।
पूज्य ललित जी इन दिनों देशबंधु चौथा खंभा बनने से इंकार नामक श्रृंखला लिख रहे थे। इसका स्वरूप संस्मरणात्मक था। इस श्रृंखला को असाधारण लोकप्रियता मिल रही थी। पत्रकारिता के विकास और इतिहास में अभिरुचि रखने वाले शोधार्थियों को इस श्रृंखला के बहुमूल्य और संग्रहणीय आलेखों की आतुर प्रतीक्षा रहती थी। जबकि राजनीति शास्त्र के अध्येता उन अनछुए पहलुओं से परिचित होकर चकित-चमत्कृत हो रहे थे जिन्होंने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और देश की राजनीति को नई दिशा दी थी। किंतु जैसे जैसे श्रृंखला आगे बढ़ती गई ललित जी स्वयं के प्रति निर्मम और निष्ठुर होते चले गए। उन्होंने अकल्पनीय रूप से तटस्थ और निस्संग होकर यह बताना प्रारंभ किया कि सिद्धांत निष्ठा, सत्य भाषण और मूल्य आधारित पत्रकारिता की उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ी; आज के कठिन और निर्मम समय में एक ईमानदार और सिद्धांतवादी व्यक्ति को किस तरह हाशिए पर डालने की कोशिश होती है, किस तरह उसे अव्यावहारिक बताकर महत्वहीन करने की कुचेष्टा होती है।
बहरहाल, इस लेखमाला की अंतिम कुछ कड़ियाँ मीडिया में आए घातक बदलावों और राजनीति तथा मीडिया की बढ़ती अवांछित और अनुचित नजदीकी को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। पूज्य ललित जी ने लिखा- लेकिन मुझे संदेह होता है कि मामला इतना सीधा नहीं था। दरअसल, एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) की अवधारणा जिसने 1980 के आसपास भारतीय राजनीति में सेंध लगाना शुरू किया था, दस साल बीतते न बीतते उसका दमदार हस्तक्षेप हमारे नागरिक जीवन के लगभग हर पहलू में होने लगा था। समाचारपत्र व्यवसाय भी उसकी चपेट में आ चुका था। अखबार में संपादक नामक संस्था विलोपित हो रही थी तथा पूंजीपति मालिकों के नुमाइंदे पत्रकार बन सत्ताधीशों से रिश्ते बनाने लगे थे। राजनेता हों या अफसर, उनके दैनंदिन कार्य इन नुमाइंदों की मार्फत सध जाते थे। उधर मालिकों के साथ उनकी व्यापारिक भागीदारी आम बात हो गई थी। दोनों पक्षों के लिए इसमें फायदा ही फायदा था। इस अभिनव व्यवस्था में वह अखबार इनके लिए गैर उपयोगी ही था, जिसका कोई अन्य व्यावसायिक हित न हो और जिसकी रुचि ईवेंट मैनेजमेंट की बजाय मुद्दों की पत्रकारिता करने में हो। कहना होगा कि दीर्घकालिक संबंधों की जगह तात्कालिक लाभ पर आधारित रिश्तों को तरजीह मिलने लगी थी। यह बदलाव हमारी समझ में तुरंत नहीं आया। (देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 22, 5 नवंबर 2020)।
12 नवंबर 2020 को प्रकाशित एक कड़ी में उन्होंने लिखा- एक ओर ये सारे उदाहरण थे तो दूसरी ओर यह सच्चाई भी थी कि देशबन्धु को सरकारी विज्ञापन देने में वही पुराना रवैया चलता रहा। हमारा कोई दूसरा व्यापार तो था नहीं, जिससे रकम निकाल कर यहां के घाटे की भरपाई कर लेते। धीरे-धीरे कर हमारी वित्तीय स्थिति डांवाडोल होती गई। इस परिस्थिति में देशबन्धु का सतना संस्करण बंद करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। मध्यप्रदेश वित्त निगम के ऋण की किस्तें समय पर पटा नहीं पाने के कारण एक दिन भोपाल दफ्तर पर वित्त निगम ने अपना ताला लगा दिया। किसी तरह मामला सुलझा तो भी एक दिन यह नौबत आ गई कि मैंने खुद होकर भोपाल संस्करण स्थगित करने का फैसला ले लिया। एक बार 1979 में जनसंघ (जनता पार्टी) के राज में भोपाल का अखबार बंद करना पड़ा था तो इस बार कांग्रेस के राज में वैसी ही स्थिति फिर बन गई। उधर जिस कानूनी अड़चन में हमें फंसा दिया गया था, उससे उबरने में अपार मानसिक यातना व भागदौड़ से गुजरना पड़ा। जो आर्थिक आपदा आई, उसके चलते अखबार की प्रगति की कौन कहे, बल्कि हम शायद बीस साल पीछे चले गए। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए संस्थान का मुखिया होने के नाते मैं खुद को ही दोषी मानता हूं।
दरअसल, मैं रायपुर में बैठकर कामकाज सम्हालता था। भोपाल जाना कम ही होता था। राजधानी का कारोबार कैसे चलता है, मैं उससे लगभग अनभिज्ञ था। देशबन्धु की कार्यप्रणाली भी संभवत: जरूरत से ज्यादा जनतांत्रिक थी। मैं पत्रकारिता की समयसिद्ध परंपरा के अनुरूप मान रहा था कि प्रधान संपादक को मुख्यमंत्री आदि से विशेष अवसरों पर ही मिलना चाहिए। मैंने हमेशा खुले मन से अपने सहयोगियों को प्रोत्साहित किया व उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के अवसर दिए। यह भी किसी कदर मेरी नासमझी थी जिसका खामियाजा अखबार को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भुगतना पड़ा। इसी सिलसिले में एक संक्षिप्त प्रसंग अनायास स्मरण हो आता है। एक नवोदित राजनेता से, जिनके साथ अच्छे संबंध थे, लंबे समय बाद मुलाकात हुई। मैंने सहज भाव से पूछा – बहुत दिनों बाद मिल रहे हो। उनका उत्तर था- आपके संवाददाता (नाम लेकर) से तो मिल लेते हैं। अब आपसे भी मिलना पड़ेगा क्या? इस उत्तर का मर्म आप समझ गए हों तो अच्छा है। न समझे हों तो भी अच्छा है।
इसी कड़ी में वे आगे बताते हैं कि किस प्रकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि चमकाने के इच्छुक राजनेताओं के लिए देशबन्धु जैसे पूंजीविरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। दूसरी तरह से कहना हो तो यही कहूंगा कि व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी था। यही आज का भी सत्य है।(देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 23, 12 नवंबर 2020)।
इन आलेखों को पढ़कर मैं बहुत व्यथित हो गया। मैंने उन्हें एक विस्तृत व्हाट्सएप संदेश भेजा जिसमें मैंने उनसे निवेदन किया कि स्वयं के प्रति इतना निर्मम मत बनिए। देशबन्धु की रगों में वैज्ञानिक चिंतन के प्रति दृढ़ विश्वास, देश की सामासिक संस्कृति के प्रति अटूट आस्था और मानव केंद्रित विमर्श के प्रति प्रतिबद्धता जैसे गुण रक्त की भाँति प्रवाहित हो रहे हैं। आज कॉर्पोरेट संस्कृति पर आधारित अखबारों का संवेदनहीन यांत्रिक संयोजन और धार्मिक असहिष्णुता, साम्प्रदायिक विद्वेष तथा निर्लज्ज व्यक्ति पूजा के रसायन से रचे गए समाचार जब किसी सुधी और सुहृदय पाठक को आहत कर देते हैं तो वह देशबन्धु के पन्नों में ही पनाह हासिल करता है। अराजक बौद्धिकता के षड्यंत्रपूर्ण साम्राज्य से अछूता देशबन्धु किसी शांति और प्रेम के द्वीप की भाँति लगता है जिसने दुर्लभ होती जा रही मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों को संजोकर रखा है। मैंने उन्हें लिखा कि देशबंधु एक जीवन शैली है जो कभी विलुप्त नहीं हो सकती। हो सकता है कि आज की मूल्यहीनता के दौर में हम जीवित अतीत बन जाएं किंतु गौरवशाली अतीत का हिस्सा बनना पतित वर्तमान का भाग बनने से कहीं बेहतर है।
मुझे यह आश्वासन देना आवश्यक लगा कि अपने वैचारिक संघर्ष में वे अकेले नहीं हैं, उनके सारे शिष्य और प्रशंसक उनके साथ खड़े हैं। किंतु अब मुझे अपनी भूल का अहसास हो रहा है, उनका एकाकीपन वैचारिक नहीं था, वे यह महसूस कर रहे थे कि उनका जीर्ण होता शरीर अब अधिक दिन उनका साथ नहीं दे पाएगा। यही कारण था कि उन्होंने किसी सच्चे मार्गदर्शक की भांति सच्चाई की राह में आने वाली कठिनाइयों की बेबाकी से चर्चा की ताकि हम रुमानियत के शिकार न हो जाएं और सच के लिए हमारा संघर्ष यथार्थ की कठोर बुनियाद पर टिका हो।
देशबन्धु को पत्रकारों की पाठशाला कहा जाता है। अब भी मेरे प्रदेश में जब कोई ऐसा पत्रकार मिलता है जिसकी खबरें तथ्यों पर आधारित होती हैं, जिसे सनसनी से परहेज है, जो जन सरोकार की पत्रकारिता करता है, जिसकी खबरें बुनियादी मुद्दों पर केंद्रित होती हैं और जिसकी अभिव्यक्ति में शालीनता होती है तो उससे पूछना ही पड़ता है कि तुमने पत्रकारिता कहाँ से सीखी? और उसका उत्तर प्राय: यही होता है कि वह या तो देशबन्धु से प्रत्यक्षत: जुड़ा रहा है या देशबंधु का नियमित पाठक रहा है। आज राष्ट्रीय फलक पर चर्चित और प्रशंसित होने वाले अनेक पत्रकार देशबन्धु के माध्यम से ही प्रशिक्षित हुए, किंतु ललित सुरजन जी की इससे भी बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने देशबन्धु के माध्यम से वैज्ञानिक चेतना संपन्न एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया जो इतना समर्थ और सक्षम है कि उसे धर्म और संप्रदाय के आभासी मुद्दों द्वारा भरमाया नहीं जा सकता।
देशबन्धु ललित जी की आत्मा में रचा बसा था, आज वे तो नहीं हैं किंतु जब तक देशबन्धु के माध्यम से शोषित-पीड़ित और दबे-कुचलों की आवाज़ बुलंदी से उठाई जाती रहेगी, जब तक साम्प्रदायिक षड्यंत्रों को बेनकाब कर मुहब्बत,अमन और भाईचारे का पैगाम फैलाया जाता रहेगा तब तक हम अपने आसपास ललित जी की स्नेहिल और आश्वासनदायी उपस्थिति का अनुभव करते रहेंगे।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
6 दिसंबर 2020
शीतेन्द्रनाथ चौधुरी
ललित जी का जाना सहसा मुझे विश्वास नहीं होता. हरदम लगता है वे सामने खड़े माइक पर बोल रहे हैं, चुस्त-दुरुस्त ऊर्जा से भर हुए और हम सामने बैठकर अन्य साथियों के साथ उन्हें ध्यान से सुन रहे हैं.
ललित भाई को हमने सबसे पहले देखा था 1976 में बतौली शांतिपारा में हमारे स्कूल के हॉल में आयोजित प्रलेस की एक गोष्ठी में. वहाँ उनके साथ रमाकांत श्रीवास्तव, प्रभाकर चौबे, डॉ. हरिशंकर शुक्ल और मशहूर कवि व गीतकार नारायण लाल परमार भी बैठे थे. उन सबों के बीच ललित जी एकदम अलग चुस्त- दुरुस्त ऊर्जा से भरे हुए खूबसूरत व्यक्तित्व के युवा लग रहे थे. बाद में पता लगा उस समय वे महज़ तीस साल के ही थे. अपने से बड़े रमाकांत जी व प्रभाकर जी का नाम लेकर ही पुकार रहे थे और उनके बीच एक अनौपचारिक दोस्ताना संबंध दिखाई पड़ रहा था. मेरा प्रलेस से कोई परिचय नहीं था. चूंकि मैं उस विद्यालय में व्याख्याता था और मेरा आवास भी एकदम नज़दीक था इसलिए मैं उत्सुकतावश वहाँ बैठ गया कि देखूं कि आखिर ऐसी गोष्ठियों में क्या होता है.
अतिथि लेखकों के सामने बैठे हुए युवा शिविरार्थियों में मैं केवल बतौली के वेद प्रकाश को जानता था, बाकी सब सहभागी अम्बिकापुर से आए हुए थे और उनसे मेरा कोई परिचय नहीं था. उस शिविर में जशपुर से तौहीद आलम भी आए हुए थे. वहीं बैठे-बैठे ललित जी ने एक कविता लिख दी और उन्हें अपनी रचना सुनाने को उत्सुक देखकर रमाकांत जी ने मज़ाक में कहा अब सुना ही डालो, नहीं तो तुम्हारे अंदर की बेचैनी खत्म नहीं होगी. और ललित जी ने भी देर नहीं की और झट सुना दी अपनी वह कविता, शीर्षक था शायद “चावल”. उस अवसर पर तौहिद आलम ने भी अपनी राजनीतिक चेतना पर आधारित एक कविता सुनाई थी जो देशबंधु में प्रकाशित होकर काफी चर्चित हुई थी. दो (कि तीन) दिन तक चले उस रचना-शिविर में कविताओं और कहानियों का पाठ हुआ और उन पर विस्तृत चर्चाएं हुईं और मंचस्थ अतिथि लेखकों द्वारा आवश्यक सलाह व दिशा निर्देश दिये गये.
यह मेरे लिए नया अनुभव था. इसी दरम्यान ललित जी से मेरा परिचय हुआ. नया और अपरिचित होने पर भी ललित जी ने मुझे हर चर्चा में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया. मुझे लगा उन्हें नये लोगों को संगठन से जोड़ने की अद्भुत क्षमता थी. आखिरी दिन शाम को विद्यालय-प्रांगण में काव्य पाठ का आयोजन किया गया था. इस अवसर पर मेरी पत्नी शुक्ला चौधुरी ने भी कविताएँ पढ़ीं जिनमें जनवादी संवेदना का आभास पाकर ललित जी को आश्चर्य हुआ कि उस समय इस सुदूर आदिवासी क्षेत्र में ऐसी घरेलू महिला भी है, जो जनवादी चेतना की कविताएँ लिखती हैं. वे बहुत खुश हुए और उन्होंने देशबन्धु में कविताएँ भेजने को कहा. ललित जी बाद में कई अवसरों पर बतौली में हुए अपने इस अनुभव का उल्लेख भी करते थे.
इस बतौली शिविर में हिस्सा लेकर ही मैं प्रलेस को जाना- समझा और मैं पुनरुत्थानवादी पारंपरिक संस्कारों के विपरीत प्रगतिशील मूल्यों से परिचित हुआ. उसके बाद मैं शुक्ला की कविताओं-कहानियों के साथ अपनी भी छोटी-मोटी रचनाएँ देशबंधु में भेजने लगा. ललित जी हमारी शुरुआती रचनाओं को छापकर हमें प्रोत्साहित करते रहे. हालांकि इसके पहले मेरे विज्ञान विषयक दो लेख मुक्ता पत्रिका में छप चुके थे मगर साहित्यिक रचनाएँ छपने का क्रम देशबन्धु अवकाश अंक से ही प्रारंभ हुआ. इस प्रकार रचनाकार के रूप में हम और संपादक के रूप में ललित जी के बीच संबंध कायम होने की शुरुआत थी. उन दिनों देशबन्धु अवकाश अंक में ‘पूछिए परसाई जी’ कॉलम की शुरुआत के साथ उन्होंने नवोदित रचनाकारों को जोड़ कर उसे एक आंदोलन का ही स्वरूप दे दिया था.
1980 में जब मैं पेंड्रा रोड में था ललित जी ने मुझे प्रलेस के कवर्धा शिविर में शिरकत करने और कहानी पाठ करने हेतु सूचित किया. मैंने वहाँ “अशक्त” शीर्षक से उन्हीं दिनों लिखी अपनी एक कहानी का पाठ किया और उस पर चर्चा हुई. उसके बाद तो म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अनेक शिविर आयोजित हुए जिनमें सबसे महत्वपूर्ण 1982 में गर्मी की छुट्टियों में आयोजित अमरकंटक कहानी शिविर था. हालांकि उस समय सम्मेलन के अध्यक्ष बाबूजी यानी श्री मायाराम सुरजन और महामंत्री कमला प्रसाद जी थे, परन्तु ललित जी की भी बड़ी भूमिका थी. सप्ताहकालीन इस शिविर में हमें अमरकांत, काशीनाथ सिंह, अब्दुल बिस्मिल्ला, स्वयंप्रकाश, अजित पुष्कल, डॉ.धनंजय वर्मा, डॉ.मलय, रमाकांत श्रीवास्तव जैसे अग्रणी कथाकारों एवं वरेण्य लेखकों का सानिध्य मिला. आज के नामचीन कथाकार महेश कटारे, राजेन्द्र लहरिया तथा लोक बाबू उस शिविर में हमारे सहभागी थे.
बाबूजी के बाद जब से अलग छत्तीसगढ़ प्रदेश बना तब से अंत तक ललित जी छ. ग. साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे. पिछले पाँच-छ: वर्षों में अम्बिकापुर, धमतरी तथा रायपुर में सम्मेलन की ओर से आयोजित कहानी शिविरों में जाने का मुझे अनुभव है. इनमें ललित जी ने उभरते युवा कहानीकारों का वर्कशॉप चलाया. कहानी में ललित जी प्रेम चंद परंपरा के हिमायती थे. कहानी शिविर में युवाओं को वे प्रेमचंद के कथासंग्रहों से कहानियों का चयन कर उनसे पाठ करवाते थे और उन पर चर्चा करवाते थे. वे प्रेमचंद के यथार्थवादी दृष्टि को महत्व देते थे. अम्बिकापुर शिविर में उन्होंने प्रेमचंद की “नशा” कहानी का पाठ करवाया और उस पर कथाकारों से वक्तव्य दिलवाये.
साहित्य सम्मेलन की ओर से उन्होंने प्रेमचंद जयंती पर विद्यालयों में जा कर प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियों का पाठ करवाने तथा उन पर चर्चा करने की इकाइयों को निर्देशित किया. उन्होंने हर जिले में पाठक मंच की इकाइयां गठित की थीं जिनमें महत्वपूर्ण किताबों पर पाठोपरांत चर्चा करवायी जाती और उसकी समीक्षा तथा रिपोर्ट सम्मेलन को भेजी जाती. इस तरह उन्होंने लोगों में पढ़ने की रुचि को विकसित करने का कदम उठाया. वे एक बड़े संगठनकर्ता तथा कार्यक्रमों के बहुत अच्छे संयोजक थे. कितने ही महत्वपूर्ण संगठनों के वे प्रमुख थे. पर्यावरण की उन्होंने गहरी चिंता की. एक संगठन वे पर्यावरण विषयक भी चलाते थे. जून 2016 की बात है, अंबिकापुर में साहित्य सम्मेलन के कार्यक्रम के दौरान, दिनभर कार्यक्रम पूरा कर शाम को भोजन से पहले वे अपनी पर्यावरण वाले संगठन के सदस्यों की बैठक लेते थे.
वे बेहद अनुशासन-प्रिय थे. समय पर उपस्थिति जरूरी मानते थे. कार्यक्रम के किसी भी आयटम, चाहे वह भोजन ही क्यों न हो, उसे छोड़कर अन्यत्र जाना उन्हें मंजूर नहीं था. उनका कहना होता कि आप जिस उद्देश्य से आए हैं उसके पूरा न होने तक उसे छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे. हर गोष्ठी में समय पर पहुंचना वे जरूरी मानते थे. जहाँ कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है वहाँ के नियमों का अक्षरश: पालन वे जरूरी मानते थे. अगर वहाँ धूम्रपान या मद्यपान निषेध है तो वे हर हाल में अनिवार्य रूप से इसे लागू करते थे. ललित जी लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पोषक थे. वैज्ञानिक चेतना, प्रगतिशीलता और मानवीय मूल्य उनके विचारों के मूल में थे. वे नेहरूवियन लीगेसी को आगे बढ़ाने में विश्वास करते थे.
देशबन्धु समूह के प्रधान संपादक के रूप में जिस तरह अखबार के विचार अभिव्यक्ति पृष्ठ पर नियमित रूप से लिखते थे, उसी तरह मासिक पत्रिका ‘अक्षर पर्व’ का प्रारम्भ उनके ही एक लेख से होता था. उसमें वे कभी पढ़ी हुई किसी नव प्रकाशित पुस्तक की समीक्षा करते थे अथवा राजनीतिक विचार विषयक लेख होता था. अगर वे कोई सद्य: प्रकाशित महत्वपूर्ण किताब पढ़ते तो वे उस पर ज़रूर लिखते थे. उन्होंने नाओमी क्लीन की शिकागो स्कूल के फ्रीडमैन पर लिखी किताब पढ़ी तो उसके ही सार- संक्षेप को अपने पृष्ठ पर लिखा कि किस प्रकार फ्रीडमैन के शिकागो स्कूल के उनके अनुयायी निकलकर लैटिन अमेरिकी देशों में फासीवादी तरीके से अपने विरोधियों का सफाया कर रहे थे.
पत्रकारिता के साथ ही साहित्य में भी उनका उल्लेखनीय योगदान है. उनके दो काव्य संग्रह ‘अलाव में तपकर’ और ‘तिमिर के झरने में तैरती अंधी मछलियां’, एक निबंध संग्रह ‘समय के साखी’, तीन यात्रा वृत्तांत ‘ दक्षिण के आकाश में ध्रुव तारा’, ‘नील नदी की सावित्री’ तथा ‘शरणार्थी शिविर में विवाह गीत’ और एक किताब ‘तुम कहाँ हो जानी वॉकर’ शीर्षक से भारतीय मीडिया पर कुछ बेबाक टिप्पणियां हैं. इसमें मीडिया के पतन की कहानी है. दरअसल उनकी खुद की पत्रकारिता मूल्य आधारित थी और उन्होने पत्रकारिता को हमेशा व्यावसायिकता से बाहर रखा.
ललित जी के अनुसार प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास ‘गोदान’ नहीं बल्कि ‘गबन’ है. इसी तरह विश्व साहित्य में उन्हें हेमिंग्वे का उपन्यास ‘The Old man and the Sea’ प्रिय था. इसमें बूढ़े मछुआरे की जिजीविषा को रेखांकित करते थे. नये कहानीकारों को वे प्रेम चंद, , चेखव और गोर्की की कहानियों को तथा परसाई जी के साहित्य को पढ़ने की सलाह देते थे. इधर अस्वस्थ होने पर इलाज के दौरान दिल्ली के अस्पताल से निकल कर भी वे सक्रिय थे. वे ऑनलाइन कविता- पाठ करते रहे जो अब यू-ट्यूब में भी उपलब्ध है. इनमें उनकी प्रिय कुछ उल्लेखनीय कविताएँ हैं- ‘नमक हलाल’, ‘सूखा पेड़, जलगली’, बाईसवीं सदी’, ‘पक्षियों के अभयवन में’, ‘अंधेर नगरी’, ‘रक्तबीज के फूल’ आदि.
ललित जी एक बड़े पत्रकार तथा साहित्यिक के अलावा एक सामाजिक कार्यकर्ता तथा विद्वान वक्ता भी थे. उन्हें रविशंकर विश्वविद्यालय, रीवा विश्वविद्यालय जैसे कई विश्वविद्यालयों में मुख्य वक्ता या मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित कर सम्मान दिया जाता था. वे अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करते थे. वे स्पष्टवादी थे और बिना लाग- लपेट के अपना विरोध दर्ज करते थे. जयपुर प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने किसी मामले में खुलकर अपनी असहमति प्रकट की थी. अन्य कई अवसरों पर उन्हें ऐसा करते देखा गया .
छ. ग. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अलावा ललित जी छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के भी एक प्रकार से प्रधान के रूप में थे. पदाधिकारियों के चयन में उनकी सलाह को पूरा सम्मान दिया जाता था. वे इन प्रादेशिक संगठनों के निर्माता थे. उनकी बातों को सभी लोग निर्विवाद रूप से स्वीकार करते थे. उनका नहीं रहना महज़ देशबंधु पत्र समूह ही नहीं, बल्कि इन दोनों संस्थाओं के साथ ही अन्य कई संस्थाओं के लिए अपूरणीय क्षति है. उनके जाने से दरअसल हमने अपने एक मार्गदर्शक आत्मीय साथी को खो दिया. उनकी स्मृति को नमन.
शीतेन्द्र नाथ चौधुरी
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