सुबह पाँच बजे
पूरनमासी के दिन
बहुत से घरों में जब
शुरु हो गई हो तैयारी
सत्यनारायण की कथा की,
बस्तर के विलुप्त वनों में
डूबते चंद्रमा के सामने
अपने सच होने का बयान
देने के लिए खड़े हैं उदास
भूरे, बदरंग, नीलगिरि के वृक्ष,
सब कुछ सच-सच कहने के लिए
बैठी हैं, बरसों से
थकी-प्यासी चट्टानें
नदियों के निर्जल विस्तार में,
इधर पूरब के आकाश में
क्षिप्र उदित हो रहा है
मई का सूरज,
उधर डूब रहा है
उमस भरी रात का सभापति
चौदहवीं का चंद्रमा
भूरा, बदरंग, निस्तेज
उदास और कुम्हलाया हुआ,
नदी, पहाड़, पेड़ और चाँद
नहीं हैं जिनके
सच का सरोकार
सरपट दौड़ रहे हैं
उदीयमान सूरज के साथ।
21.05.2000
अभी-अभी
सरसों के खेत से
डुबकी लगाकर निकला है
आम का एक बिरवा,
अभी-अभी
सरसों के फूलों पर
ओस छिड़क कर गई है
डूबती हुई रात,
अभी-अभी
छोटे भाई के साथ
शरारत करती चुप हुई है
एक नन्हीं बिटिया,
अभी-अभी
बूढ़ी अम्माँ को सहारा दे
बर्थ तक लाई है
एक हँसमुख बहू,
अभी सुबह की धूप में
रेल लाईन के किनारे
उपले थाप रही है
एक कामकाजी औरत,
अभी सुदूर देश में
अपने नवजात शिशु के लिए
किताब लिख रहा है
एक युद्ध संवाददाता,
अभी मोर्चे से लौट रहा है
वीरता का मैडल लेकर
अपने परिवार के पास
एक सकुशल सिपाही,
अभी मैंने
अवध की शाम
नहीं देखी है,
अभी मैं जग रहा हूँ
लखनऊ के पास
अपना पहिला सबेरा,
और खुद को
तैयार कर रहा हूँ
एक खुशनुमा दिन के लिए।
06.02.1999
मैने खींची तस्वीर
जगन्नाथपुरी में
समुद्र पर सूर्योदय की,
तैरती डोंगियों और
हवा में ठहरे जाल की,
लेकिन मछुआरों को
कर दिया मैंने
दृश्य से नदारद,
मैने खींची तस्वीरें
बस्तर और बालाघाट में,
साल और सागौन के जंगलों की
और तेंदूूपत्ते की,
लेकिन दूर हटा दिया मैंने
बीडी पत्ता तोड़ते और
साल बीज बीनते मजदूर को,
मैने खजुराहो-कोणार्क में
हालीबिड-बेलूर में खींची तस्वीरें
यक्ष, किन्नर और देवताओं की,
नृत्य करती रमणियों की,
और मिथुन मुद्राओं की,
लेकिन शिल्पी की,
पचासवीं पीढ़ी की,
कर नहीं पाया मैं तलाश,
मैंने मैसूर में चित्र लिए
राजप्रासाद के और दशहरे के,
हाथी की सवारी के,
चांदी के दरवाज़े
और सोने के छत्र के,
लेकिन अंग्रेज बहादुर ने दिए
जो तमगे, खिताब और सनद
उनकी तस्वीरें लिए बिना
ही लौट आया मैं,
जबलपुर से आकर बैठे महादेव
तंजौर के मंदिर में
मैंने उनकी तस्वीर उतारी,
उन्होंने बनाया जो उत्तर से
दक्षिण का पुल,
देखा उसे मंदिर में ही,
बाहर सड़क पर आने पर
हो गया वह
मेरी आंखों से ओझल,
हसदो- बैराज पर खड़े होकर
उतारी मैंने
सूर्यास्त की तस्वीर,
हीराकुड, गंगरेल में भी
लिए मैंने बांध के चित्र,
स्लूस गेट और नहरों के,
लेकिन चले गये जो मजदूर
और इंजीनियर खेमा उखाड़कर
कैमरा पीछा नहीं कर पाया उनका,
मैं आमसभाओं में गया
और जलसों में,
लिए राजपुरुषों के फोटो
शिलान्यास करते हुए
उद्घाटन करते हुए
और भाषण-उपदेश देते हुए,
मैंने उनके चेहरों की
चमक को किया कैद,
कैमरा घुमाया भीड़ पर भी
उसके चित्र भेजे अखबारों में,
लेकिन सामने बैठे लोग
थे निर्विकार या थी
उनके मन में बेचैनी,
मैं पकड़ नहीं पाया,
होता हैं ऐसा मेरे साथ अक्सर
खींचता हूँ फूल और
बागीचों की तस्वीरें
उनमें माली नहीं आ पाता
मंदिरों के चित्रों से
हो जाता है पुजारी गायब,
इमारतें छा जाती हैं
लेकिन कारीगर दिखाई नहीं देता,
इस कैमरे से काम
लेना नहीं आता मुझे,
सौंप दूंगा अपने बच्चों को इसे
वे मुझसे बेहतर और सही
तस्वीरें खींच पायेंगे।
16.09.1989
रोशनी का मेला है
चारों तरफ, शहर में
ऊपर-ऊपर
नियोन साइन, ट्यूब लाइट्स,
तेज पॉवर के लट्टू,
मरक्यूरी और सोडियम वैपर लैंप,
और उन सबसे ऊपर टिमटिमाते
लाल रौशनी के बल्ब,
टीवी और टेलीफोन की
मीनारों पर चेतावनी देते हुए,
मेले में बमुश्किल तमाम
अपने लिए जगह खोजता
अमावस से पहिले, किसी दिन,
मुरझाया सा चाँद
यहाँ-वहाँ टकराता, लड़खड़ाता,
रौशनी के सैलाब के नीचे
छाए अंधेरे से जूझता,
कहीं काले बादल
ब्लैककैट कमांडो,
कहीं पॉयलट कार के सिपाही
हवा के झोंके,
उसे धकियाते, दुरदुराते
चाक-चौबंद चकाचौंध में
मेले से बाहर फेंका जाता
रात के आखिरी पहर
थका, फीका, निस्तेज चाँद,
ठिठकता एक क्षण को
जाने के पहिले,
सलेटी चादर पर
वच्चे के धूल भरे पैर के निशान
की तरह,
और फिर
आहिस्ता खो जाता दूर कहीं,
दूर किसी एरोप्लैन की लुप्त होती
बत्ती की तरह,
पास यहीं कहीं तभी
गूंजती रेल के इंजन की सीटी,
फागुन के जाने का सिग्रल
चैत के आने का संकेत,
नए साल के साथ-साथ
नए चाँद आने की उम्मीद,
उम्मीद फिलहाल
अंधेरे और उजाले के बीच
कहीं ठहरी हुई,
चांद की उम्मीद
सुबह के उजाले में लापता,
अमावस की रात
जागती फिर से,
अमावस की रात
कि उम्मीद से कहीं ज्यादा डर,
डर बहुत गहरा,
चैत के चाँद को
हरने की जुगत में
बैठे जो हैं वे
घात लगाए,
वे जिन्होंने
चाँद से बच्चों को मारा,
चाँद सी बहनों-बेटियों को लूटा,
उजाले का किया जिन्होंने खून,
और चाँदनी को आग लगाई,
ले जाएंगे
चैत के चाँद को,
रखेंगे उसे सजाकर
रौशनी के मेले में
अपनी दूकान पर,
करेंगे गर्व के साथ
उसका इश्तिहार,
चैत के चाँद पर है
उनका एकाधिकार,
पूछती है साल की आखिरी
अमावस की सहमी हुई रात
भोर के तारे से,
शो-केस में जब
कैद होगा उसका उपहार
नए साल का चाँद,
उसे बचाने की
तरकीब क्या होगी?
2003
घोड़े की पीठ पर सवार
वह जीप की फटकी पर बैठा
एक पाँव बाहर किए
एक पाँव अंदर दिए
बाहर के पाँव सेे उसने
बासन्ती हवा को छुआ
दिसंबर की सर्दी को छुआ
एक पग से उसने मापी
रायपुर से आरंग-
महासमुंद-बागबाहरा की दूरी
एक डग से एक लोक मापा
एक पाँव भीतर रख सम्हल-सम्हल
मुश्किल से खोजी पांव भर जगह
दुनिया में टिक जाने के लिए
दोनों हाथों से कस कर पकड़ी
जीप की फटकी इस तरह
अपनी जिंदगी की लगाम थामी
कोशिश एक पूरी उम्र
ज़िंंदा रहने के लिये
छोटी-सी ज़िंदगी का हर दिन
हर पल जी लेने के लिए
कोशिश वक़्त से
काम पर पहुँचने की
कोशिश वक़्त पर
काम से घर लौटने की
थोड़ी-सी देर: ढेर सी चिंंता
पिटारा फिक्र का खुलता
समाया सागर जिसमें
अनचाही शंकाओं का
अनकही व्याकुलता जिसमें
घर के हर जन की,
उठती लहरें ऊँची-ऊँची
लौटती उसके घर लौटने पर
करते सब उसका इन्तज़ार
मुमकिन नहीं वह सहे इंतज़ार
किसी फुरसतिया बस का!
फुरसत नहीं उसे बिलकुल भी
दुखते पैरों का दु:ख देखे
थकी हथेलियाँ सहलाए
जिंदगी की दौड़ में शामिल
करे आराम भी तो कैसे
जिसने सिर्फ चलना ही सीखा
कहीं रुक पाए तो कैसे
आज सोचता वह बस यही-
दो पैरों से नापी उसने
हज़ार-हज़़ार सालों की दूरी
इतिहास की किसी डाल से उतर
बनाया कहीं कंदरा में घर
चलकर फिर वहाँ से, पहुंचा
आज की सड़क तक
कभी दो हाथ हवा में उछाल
चीखा था वह आल्हाद से
फर्क समझ कर मनुष्य होने का
मनुष्य बनकर
दो हाथों से साधा
उसने बेकाबू घोड़े को
तराश कर पेड़, बनाया पहिया
पहिए को लाया वह
हवाई जहाज, जीपगाड़ी तक
दो पैरों से तीन डग चल
वह कहलाया त्रैलोक्य विजेता
दो हाथों से उतारकर वह
जमीन पर ले आया गंगा
हाथ की उंगली पर साधकर
चक्र सुदर्शन वह बना त्राता
लेकिन था भोलापन या
उसकी भलमनसाहत
दोस्ती का स्वांग रच
जो बन बैठे मालिक
उन्हें वह पहिचान न पाया
मित्रता का दम भरते
उन्होने माँगी मदद
सलाह लेने-देने का ढोंग किया
निभाई मित्रता उसने तो
दिया निश्छल मन से
पास था जो कुछ भी
घर, जमीन, खेती
पर कब पड़ी पैरों में बेड़ी
कैसे हाथों में हथकड़ी
रह गया बेखबर
कुछ जान न पाया
उठ नहीं पाया किस दिन तीसरा पग
रुक गई कब हाथों की थिरकन
बँध गयीं कब क्यों सीमाएं
वह कुछ समझ न पाया
बनाए थे कभी खुद जिसने रास्ते
बन गया वह कोल्हू का बैल
डलवा कर नकेल,
बँधवा कर आँखों पर पट्टी
बेबस चलने लगा वह
औरों की बतायी राह पर
आका ने हुक्म दिया
गुलाम उसे बजा लाया
हाँ, गुलाम ही रहा अब तक वह
अब टूटा रही है धीरे-धीरे
बहुत दिनों की बेहोशी
आँखों में दर्ज
हो रही है सच्चाई
कोशिश कर देख रहा है
चौकन्ना होकर सारा कारोबार
दिन प्रतिदिन, चाहे वह
चलता हो पैदल, बैठा हो
टपरा बस में, ठेले ट्रेक्टर में
या लटका हो जीप टैक्सी से
समझ रहा है
वक़्त बहुत कम है
अपने लिये शायद बिलकुल नहीं
शायद थोड़ा-सा
आने वालों के लिये
इसलिये अब वह जल्दी में है
काम बहुत बाकी है
कितना कुछ करना है
इसलिये अब कोशिश यही उसकी
वक़्त से काम पर पहुंचने की
वक़्त पर काम से घर लौटने की
पीठ पर उठाए
दुनिया का बोझ वह
बन गया था कच्छप अवतार
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे कछुआ बनना
मंजूर नहीं खोल में
सिमट कर रह जाना
मेहनत बहुत की उसने
चींटी की तरह
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे चींटी बनना
मंजूर नहीं उसे
पैरों तले मसले जाना
चींटी की रफ्तार जीते जाना
जीप पर बैठकर आज
सोचता वह-
बैठा है घोड़े की पीठ पर
इच्छा उसकी : दिन दौड़ें
सरपट घोड़े की भाँति
वक़्त बहुत कम : जल्दी-जल्दी
पूरे हो जाएं काम सारे
चाह यही उसकी, चले
खुद वह सूरज के रथ के आगे
और सपने सैर करें
चंदा की बग्घी में
वह जो अपने हाथों से
पृथ्वी रचकर हार गया
जीप की फटकी पर बैठा
ब्रम्हांड जीत लेना चाहता है
अपने बच्चों के लिए
घोड़े की पीठ पर सवार
वह जीप की फटकी पर बैठा
एक पाँव बाहर किए
एक पाँव अंदर दिए
बाहर के पाँव सेे उसने
बासन्ती हवा को छुआ
दिसंबर की सर्दी को छुआ
एक पग से उसने मापी
रायपुर से आरंग-
महासमुंद-बागबाहरा की दूरी
एक डग से एक लोक मापा
एक पाँव भीतर रख सम्हल-सम्हल
मुश्किल से खोजी पांव भर जगह
दुनिया में टिक जाने के लिए
दोनों हाथों से कस कर पकड़ी
जीप की फटकी इस तरह
अपनी जिंदगी की लगाम थामी
कोशिश एक पूरी उम्र
ज़िंंदा रहने के लिये
छोटी-सी ज़िंदगी का हर दिन
हर पल जी लेने के लिए
कोशिश वक़्त से
काम पर पहुँचने की
कोशिश वक़्त पर
काम से घर लौटने की
थोड़ी-सी देर: ढेर सी चिंंता
पिटारा फिक्र का खुलता
समाया सागर जिसमें
अनचाही शंकाओं का
अनकही व्याकुलता जिसमें
घर के हर जन की,
उठती लहरें ऊँची-ऊँची
लौटती उसके घर लौटने पर
करते सब उसका इन्तज़ार
मुमकिन नहीं वह सहे इंतज़ार
किसी फुरसतिया बस का!
फुरसत नहीं उसे बिलकुल भी
दुखते पैरों का दु:ख देखे
थकी हथेलियाँ सहलाए
जिंदगी की दौड़ में शामिल
करे आराम भी तो कैसे
जिसने सिर्फ चलना ही सीखा
कहीं रुक पाए तो कैसे
आज सोचता वह बस यही-
दो पैरों से नापी उसने
हज़ार-हज़़ार सालों की दूरी
इतिहास की किसी डाल से उतर
बनाया कहीं कंदरा में घर
चलकर फिर वहाँ से, पहुंचा
आज की सड़क तक
कभी दो हाथ हवा में उछाल
चीखा था वह आल्हाद से
फर्क समझ कर मनुष्य होने का
मनुष्य बनकर
दो हाथों से साधा
उसने बेकाबू घोड़े को
तराश कर पेड़, बनाया पहिया
पहिए को लाया वह
हवाई जहाज, जीपगाड़ी तक
दो पैरों से तीन डग चल
वह कहलाया त्रैलोक्य विजेता
दो हाथों से उतारकर वह
जमीन पर ले आया गंगा
हाथ की उंगली पर साधकर
चक्र सुदर्शन वह बना त्राता
लेकिन था भोलापन या
उसकी भलमनसाहत
दोस्ती का स्वांग रच
जो बन बैठे मालिक
उन्हें वह पहिचान न पाया
मित्रता का दम भरते
उन्होने माँगी मदद
सलाह लेने-देने का ढोंग किया
निभाई मित्रता उसने तो
दिया निश्छल मन से
पास था जो कुछ भी
घर, जमीन, खेती
पर कब पड़ी पैरों में बेड़ी
कैसे हाथों में हथकड़ी
रह गया बेखबर
कुछ जान न पाया
उठ नहीं पाया किस दिन तीसरा पग
रुक गई कब हाथों की थिरकन
बँध गयीं कब क्यों सीमाएं
वह कुछ समझ न पाया
बनाए थे कभी खुद जिसने रास्ते
बन गया वह कोल्हू का बैल
डलवा कर नकेल,
बँधवा कर आँखों पर पट्टी
बेबस चलने लगा वह
औरों की बतायी राह पर
आका ने हुक्म दिया
गुलाम उसे बजा लाया
हाँ, गुलाम ही रहा अब तक वह
अब टूटा रही है धीरे-धीरे
बहुत दिनों की बेहोशी
आँखों में दर्ज
हो रही है सच्चाई
कोशिश कर देख रहा है
चौकन्ना होकर सारा कारोबार
दिन प्रतिदिन, चाहे वह
चलता हो पैदल, बैठा हो
टपरा बस में, ठेले ट्रेक्टर में
या लटका हो जीप टैक्सी से
समझ रहा है
वक़्त बहुत कम है
अपने लिये शायद बिलकुल नहीं
शायद थोड़ा-सा
आने वालों के लिये
इसलिये अब वह जल्दी में है
काम बहुत बाकी है
कितना कुछ करना है
इसलिये अब कोशिश यही उसकी
वक़्त से काम पर पहुंचने की
वक़्त पर काम से घर लौटने की
पीठ पर उठाए
दुनिया का बोझ वह
बन गया था कच्छप अवतार
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे कछुआ बनना
मंजूर नहीं खोल में
सिमट कर रह जाना
मेहनत बहुत की उसने
चींटी की तरह
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे चींटी बनना
मंजूर नहीं उसे
पैरों तले मसले जाना
चींटी की रफ्तार जीते जाना
जीप पर बैठकर आज
सोचता वह-
बैठा है घोड़े की पीठ पर
इच्छा उसकी : दिन दौड़ें
सरपट घोड़े की भाँति
वक़्त बहुत कम : जल्दी-जल्दी
पूरे हो जाएं काम सारे
चाह यही उसकी, चले
खुद वह सूरज के रथ के आगे
और सपने सैर करें
चंदा की बग्घी में
वह जो अपने हाथों से
पृथ्वी रचकर हार गया
जीप की फटकी पर बैठा
ब्रम्हांड जीत लेना चाहता है
अपने बच्चों के लिए
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