डॉ. सुशील त्रिवेदी
ललित सुरजन समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य भारत की उस युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे जिसका आदर्श जवाहर लाल नेहरू थे। नेहरू के जीवन दर्शन के अनुरूप ललित अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चिन्तन में ‘‘लेफ्ट ऑफ द सेन्टर’’ मार्ग पर चलते थे। आम आदमी के सरोकार उन्हें अपने सरोकार लगते थे। सामाजिक और राजनीतिक चिन्ताओं के समाधान लिए वे सभी संवैधानिक उपाय करने को तत्पर रहते थे। ललित सुरजन एक युवा नायक के रूप में जीवन भर गांधी की अंहिसा और नेहरू के विश्वशांति के सिद्धांतों को साकार करने के लिए समर्पित रहे थे। उन्होंने भारत और अफ्रीकी देशों के बीच मैत्री बढ़ाने के लिए सांगठनिक प्रयास किये थे। वे युद्ध के विरुद्ध और विश्व शांति के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग और समर्थन जुटाने के लिए लगातार कार्य करते रहे थे।
ललित के लिए पत्रकारिता लोकतांत्रिक मूल्यों को साकार करने का एक माध्यम थी। उनकी पत्रकारिता के केन्द्र में सदैव सामान्य लोग और उनके सरोकार रहे। वे ‘‘देशबन्धु’’ को लोकतंत्र का चौथा खंभा नहीं मानते थे बल्कि लोकतंत्र के मूल तीन खंभों में से विधायिका और कार्यपालिका के लिए स्वस्थ प्रतिपक्ष और न्यायपालिका के लिए मित्र संवादकर्ता मानते हैं। ‘‘देशबन्धु’’ को स्वतंत्र पत्रकारिता के अनुरूप संचालित करने के कारण राजनीतिक और आर्थिक संकटों को झेलते रहना ललित सुरजन के जीवन का एक विशिष्ट अनुभव रहा। अपने सौम्य व्यक्तित्व और कुशल सम्प्रेषण कौशल के कारण सभी राजनीतिक दलों के शीर्षस्थ नेताओं से उनके निजी संबंध रहे और उन्होंने इन संबंधों का क्षेत्रीय विकास तथा जनकल्याण के लिए व्यवहार किया।
भारत के समाचार पत्र समूहों और मीडिया प्रतिष्ठानों में शीर्षस्थ ‘‘देशबन्धु’’ सामाजिक सरोकारों को लोकचर्चा के केंद्र में लाने वाली पत्रकारिता का एक स्कूल रहा है। इस समाचार पत्र को ग्रामीण पत्रकारिता के लिए अंग्रेजी दैनिक पत्र ‘‘द स्टेट्स मैन’’ का ग्रामीण पत्रकारिता का पुरस्कार 14 बार प्राप्त हुआ है। सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध पत्रकार और संपादक ललित सुरजन छत्तीसगढ़ के कई विश्वविद्यालयों और भारत शासन में शिक्षा मंत्रालय से संबद्ध अनेक समितियों में पदाधिकारी भी रहे थे। ‘‘देशबन्धु’’ के प्रधान संपादक के रूप में वे भारत के राष्ट्र स्तर के अनेक मीडिया संगठनों के पदाधिकारी रहे। किंतु उनकी प्रमुख पहचान ‘‘देशबन्धु’’ पत्र समूह में प्रशिक्षित और दीक्षित उन दर्जनों पत्रकारों के कुल गुरु के रूप में रही जो आज देश में पत्रकारिता और सामाजिक आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।
ललित सुरजन ने हिंदी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की थी किंतु इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान उनके स्वाध्याय के क्षेत्र रहे हैं। महाविद्यालयीन विद्यार्थी के रूप में उन्होंने छात्रों के लिए ‘‘स्नातक पत्रिका’’ सन् 1966 में ही निकालकर पत्रकार के रूप में अपनी एक अलग पहचान बनानी शुरू की थी। फिर समाचार पत्र के मुद्रण से लेकर संपादन तक का समावेशी अनुभव उन्होंने अपने पिता मायाराम सुरजन द्वारा स्थापित समाचार पत्र ‘‘देशबन्धु’’ में एक सामान्य प्रशिक्षु की भांति प्राप्त किया था। इसी दौरान उन्होंने देश और विदेश के शीर्ष मीडिया संस्थानों में अध्ययन किया था।
ललित सुरजन के व्यक्तित्व में प्राचीन भारतीय संस्कृति से जुड़ाव और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान में विश्वास का समन्वय था। वे एक ओर इतिहास, पुरातत्व, शिल्प और संगीत का अध्ययन करते थे तो दूसरी ओर समाज-विज्ञान और अर्थशास्त्र का ज्ञान अर्जित करते रहते थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था और इस वजह से वे समाज के सभी स्तरों पर क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर रूप से सम्पर्क और सम्प्रेषण सहजता से करते थे।
देश में सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के लिए कार्यरत सबसे महत्वपूर्ण संस्था इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट कल्चर (इनटैक) के साथ जुड़कर ललित सुरजन छत्तीसगढ़ में जमीनी कार्यक्रम संचालित करते रहे। इनटैक के माध्यम से उन्होंने छत्तीसगढ़ में पुरातत्व के प्रति युवा पीढ़ी में रुचि जागृत करने और पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक अभियान संचालित किये थे।
ललित सुरजन का शिक्षा और संस्कृति के प्रति जो सहज समर्पण था उसका एक प्रमाण यह है कि उन्होंने भारत की अत्यन्त प्रतिष्ठित सांस्कृतिक संस्था भारतीय विद्या भवन का केन्द्र रायपुर में स्थापित किया था। भारतीय विद्या भवन के कार्यकलाप का विस्तार करते हुए उन्होंने छत्तीसगढ़ में शिक्षा तथा संस्कृति के गुणात्मक प्रसार के लिए आधार भूमि तैयार की थी।
पत्रकारिता, साहित्य और षिक्षा से लेकर विश्व षांति तक के आंदोलनों से सक्रिय जुड़ाव के कारण ललित देश-विदेश की निरंतर यात्राएं करते थकते नहीं थे। बल्कि यात्रा करना उनके लिए शायद सबसे सुखकारी अनुभव था। यह अनुभव वह अपने लालित्यपूर्ण यात्रा वृत्तांतों में बांटते रहते थे।
ललित प्रतिबद्ध पत्रकार, संवेदनशील कवि, एक महत्वपूर्ण पत्र समूह के संपादक-संचालक, मीडिया-शिक्षा-गुरु, साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष, अंतरराष्ट्रीय मैत्री संगठनों के पदाधिकारी और संस्कृति कर्मी के रूप में जाने जाते थे। इन सभी विधाओं के गुण उन्हें अपने प्रतिष्ठित पिता और अग्रणी पत्रकार मायाराम सुरजन से विरासत में मिले हैं किंतु ललित ने अपने समय की नयी सोच, नयी तकनीक और नयी प्रवृत्ति को अपनाकर अपना अलग रचनाधर्मी व्यक्तित्व बनाया था।
क्यू-3, श्रीराम नगर, फेज-2,
शंकर नगर, रायपुर – 492007
मो. 098261 44434
लोक बाबू
‘अब इस अधिवेशन का क्या होगा ? लगता है आज यहां हम लेखकों की जल-समाधि होने वाली है!’- यह ललित सुरजन जी की आवाज थी। वह अपने लेखक साथियों सर्वश्री प्रभाकर चौबे, हरिशंकर शुक्ल, राजेश्वर सक्सेना और विनोद कुमार शुक्ल के साथ एक कार में बैठे थे। कार एक टेकरी पर खड़ी थी और चारों तरफ मुसलाधार पानी गिर रहा था। यह 1982 के जून का महीना था और मानसून ने समयपूर्व दस्तक दे दी थी। अविभाजित म.प्र. के अविभाजित दुर्ग जिले के दल्ली राजहरा माइन्स के छोटे से शहर में प्रगतिशील लेखक संघ का यह पहला संभागीय अधिवेशन आयोजित था और आयोजन स्थल की दी गई स्वीकृति वापस ले लिये जाने से आमंत्रित लेखक साथियों के साथ हम स्थानीय आयोजक भी परेशान थे। उस पर ये मूसलाधार बारिश। आयोजन अब कहां हो ? रायपुर, बिलासपुर, बालोद, राजनांदगांव, कवर्धा, धमतरी आदि जगहों से आते जा रहे मेहमानों को कहां ठहराया जाये ? जिस हायर सेकन्डरी स्कूल के विशाल हॉल की हमने मंजूरी ले रखी थी, उसके लिजलिजे और डरपोक प्राचार्य ने अब हमें मना कर दिया था। स्कूल की पीटीए कमेटी के कुछ दक्षिणपंथी पालकों ने प्राचार्य के कान भर दिये थे कि ये वामविचारों के लोंगों का जमावड़ा है, इन्हें यह स्कूल देना ठीक नहीं, गलत संदेश जायेगा। प्राचार्य और ज्यादा भयाक्रान्त हो गये थे।
तब मैं बीएसपी की नई-नई नौकरी में दो वर्ष पहले ही राजहरा आया था और स्थानीय प्रलेस इकाई का सचिव था। मेरे साथ लोकेन्द्र यादव, नसीम आलम नारवी और एच बी अग्रवाल जी थे। लोकेन्द्र यादव (तब बालोद से देशबंधु के अघोषित पत्रकार थे, जो कालान्तर में बालोद के विधायक भी हुए) और नसीम आलम जी ज्यादा सक्रिय थे। नसीम जी एटक यूनियन के नेता थे, मगर उनकी यूनियन से त्वरित सहायता की कोई उम्मीद नहीं थी। एच. बी. अग्रवाल जी अधिकारी वर्ग से थे और वे इस झंझट में पड़ना नहीं चाहते थे। अतः इस मौके पर हम (लोकेन्द्र यादव और मैं) जिनकी सहायता लेने जा रहे थे, वह शंकर गुहा नियोगी जी थे, जो छ.ग.मुक्ति मोर्चा के प्रसिद्ध नेता थे और उनसे नसीम जी की नहीं बनती थी। बिना नसीम भाई और अग्रवाल जी, जो इकाई के क्रमशः उपाध्यक्ष और अध्यक्ष थे, को बतलाए बिना हमने मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी से सहायता की अपील की थी। लोकेन्द्र जी ने तुरन्त एक पत्र लिखा और एक साथी के माध्यम से उनके पास भिजवाया था।
थोड़ी ही देर में दो जीपों में भरकर बहुत से मजदूर नेता (जिनमें नियोगी नहीं थे) सीधे प्राचार्य के बंगले में पहुॅंच गये। उनसे गरमागरम बहस करने लगे। मुझे और लोकेन्द्र को भी वहीं बुलवाया गया। हमारे पहुंचने तक प्राचार्य की घिग्घी बंध चुकी थी, मगर प्राचार्य हम दोनों के बॉस भी थे। हम नहीं चाहते थे कि इस आपातकाल में कुछ उलटा-सीधा हो, जबकि मजदूर उनको पीटने तक को तैयार लग रहे थे और हमें अधिवेशन का काम निकालना था। तब प्राचार्य ने ही रास्ता बतलाया कि, चूंकि हायर सेकेंडरी स्कूल के मेम्बरों ने आपत्ति की थी, अतः मैं फिलहाल उस हॉल को दे नहीं सकता, मगर मेरे अधीन यहां के अनेक प्राइमरी स्कूल आते हैं, आप लोग किसी भी स्कूल के हॉल और उसके सभी कमरों का इस्तेमाल कर सकते हैं ! हमने देरी नहीं की। जल्दी में एक स्कूल का नाम लिया। उन्होंने हामी भर दी और इस तरह तात्कालिक समस्या का समाधान निकाला गया।
भिलाई इस्पात संयंत्र की प्राइमरी शालाओं के भवन भी बड़े और शानदार थे, जो तब सरकारी हाई स्कूलों से भी बेहतर थे। किसी तरह अधिवेशन शुरु हुआ और ठीकठाक सम्पन्न भी हुआ। ललित भाई जी के आग्रह पर ही मैंने जीवन में किसी गोष्ठी में पहला आलेख पाठ किया था, जो स्वतंत्र भारत में मजदूर आन्दोलन के सन्दर्भ में था। ललित भाई और अन्य लोगों ने उसकी तारीफ की तो मुझ जैसे नये लेखक को बड़ी प्रेरणा मिली। राजनांदगॉंव में प्रभाकर चौबे जी द्वारा मजाक में कही गई एक बात याद आई। उन्होंने कहा था, गोष्ठियों मे दो प्रकार के आलेख पाठ होते हैं, एक अच्छा आलेख और दूसरा खराब आलेख। जो अच्छा आलेख होता है, वो मेरा होता है!…..संयोगवश यहां के कार्यक्रम में दूसरा आलेख था ही नहीं !
ललित जी का नाम आते ही नजरों में एक अनुशासित व्यक्ति, विचारवान कवि, प्रतिबद्ध पत्रकार, जिद के पक्के, स्वस्थ गोरे चिट्टे सुन्दर व्यक्ति की छवि कौंध जाती है, जो आपसे खुश हो तो पीछे दूर से भी आपको आवाज देकर पुकार ले और नाखुश हो तो आपके पास से गुजर जाए मगर आपको देखे भी नहीं। छत्तीसगढ़ अंचल में प्रलेसं के विस्तार में उनका सर्वाधिक योगदान रहा। उनकी वक्त की जबरदस्त पाबंदी और अनुशासन से हम जैसे नये साथी तब ज़रा डर भी जाते थे, मगर सम्मान करते थे।
म.प्र.हिन्दी साहित्य सम्मेलन और प्रगतिशील लेखक संघ के मेरे शहर राजनांदगांव में आयोजित अनेक कार्यक्रमों में मैं 1980 से श्रोता के रूप में शामिल होता रहा। तब बाबूजी (स्व.मायाराम सुरजन जी) जहां ‘सम्मेलन’ के कार्यक्रम में ज्यादा सक्रिय दिखते, तो ललित भाई ‘प्रलेसं’ के कार्यक्रम में ज्यादा सक्रिय दिखते थे। ललित भाई के पास नये लेखकों को जोड़ने के लिए ‘देशबन्धु’ जैसा हथियार हाथ में था, तो वरिष्ठ साथी लेखकों का साथ भी था, जिनमें से कुछ तो उनके अखबार में वेतनभोगी भी थे। बाबूजी और ललित भाई के कारण ‘प्रलेसं’ और ‘सम्मेलन’ के संयुक्त कार्यक्रम भी होते या दोनों संगठनों में एक दूसरे के आयोजनों में सहभागिता होती। ज़्यादातर तो ऐसे लोग थे जो दोनों संगठनों से जुड़े थे। बाद के काल में ललित भाई का दायरा और बढ़ता गया, पत्रकारिता के अलावा वे इन्टेक, विश्वशान्ति एकता परिषद, पर्यावरण और अन्यान्य संगठनों से भी जुड़ते गये, मगर उनकी कहीं भी सक्रियता में कमी नहीं आयी।
मुझे लेखन मे आगे बढ़ाने में ‘देशबंधु’ और ललित भाई का बड़ा योगदान था। 1982 से बाद के कुछ वर्षों तक हर तीसरे चौथे महीने देशबंधु के रविवारीय अवकाश-अंक में मेरी कहानी छपती थी। ललित भाई से थोड़ी निकटता बन जाने पर और डॉ. कमलाप्रसाद जी के आग्रह पर मैं भी ‘सम्मेलन’ का पूर्ण सदस्य बन गया था। भिलाई में मेरे स्थानांतरण के बाद ललित भाई से मेलजोल ज्यादा बढ़ गया। जबलपुर में हरिशंकर परसाई जी के निवास पर ‘प्रलेस’ की राज्य कार्यकारिणी की एक बैठक में मैं और चौबे जी उनके साथ थे। यहां भिलाई में दल्ली राजहरा की अपेक्षा ज्यादा स्पेस था। भिलाई के साथियों (रवि श्रीवास्तव, अशोक सिंघई आदि) के साथ मिलकर हमने प्रलेसं और सम्मेलन के राज्य स्तरीय अनेक आयोजन किये। देश के नामी लेखकों, कवियों, कलाकारों का सानिध्य प्राप्त किया। रवि श्रीवास्तव जी के साथ ही मैं भी लम्बे समय तक दुर्ग-भिलाई प्रलेसं इकाई का अध्यक्ष रहा। हर आयोजन में ललित भाई की सलाह से कार्यक्रम को हम अंतिम रूप देते थे।
आखिर के कुछ वर्षों, जब मैं बस्तर पर आधारित अपने उपन्यास के सिलसिले में अक्सर बस्तर प्रवास पर रहने लगा था, जबकि मुझे छ.ग.राज्य प्रलेसं का अघ्यक्ष बना दिया गया था, मेरी सक्रियता में उन्होंने कुछ कमी देखी तो मुझसे थोड़े नाराज़ से लगते थे। मगर जब उस उपन्यास के अंश पहल, कथादेश और अन्य कुछ पत्रिकाओं में उन्होंने देखा-पढ़ा तो उनकी नाराज़गी जाती रही। दिल्ली में रहते उन्होंने अपने ‘प्रस्थान’ के दो तीन सप्ताह पहले मुझसे मोबाइल में बात की थी। पूछा था, उपन्यास कहां छप रहा है, कब तक आयेगा ? मैंने बताया, राजपाल एण्ड सन्स में छप रहा है और इस आपात कोरोना-काल के कारण उसमें देरी हो रही है। आप चाहते हैं तो मैं उपन्यास की पीडीएफ कापी आपको ईमेल कर देता हूॅं। उन्होंने कहा – ‘मोबाइल या कंप्यूटर में पीडीएफ के साढ़े तीन सौ पृष्ठों को पढ़ पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है। मैं रायपुर लौटूंगा, तब तक तो किताब आ ही जायेगी, तभी पढूंगा !’ बस्तर में छिड़े अघोषित युध्द में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।
उनके रायपुर आने तक तो मेरा उपन्यास छपकर आया नहीं, मगर ललित भाई जिस रूप में यहां आये, उसकी हमने कल्पना नहीं की थी। दिल दहल गया। उनके न रहने से हमने अपने बीच से अपना हितैषी, एक अभिभावक खो दिया। वे इतने सारे संगठनों से जुड़े थे और सबमें इतने सक्रिय भी थे कि हमें अपने ऊपर लज्जा आती थी। उनका स्वर अब भी कानों में गूंजता रहता है -‘भई, मेरी फिक्र मत करो। मैं तो आ ही जाऊंगा। प्रदेश में तुम लोगों ने प्रलेसं की नई इकाइयाँ बनाई हैं, उनमें वैचारिक गोष्ठियां भी रखो। कोशिश करो कि शिविरों का आयोजन भी हो सके। बरसों से शिविरों का सिलसिला टूटा हुआ है, उसे शुरू करो। तारीख…..अभी कोरोना का संकट चल रहा है, तारीख मैं रायपुर लौटकर बताऊंगा !’
और हम उनकी तारीख का इंतजार करते रह गये। ललित भाई जी के आने की तारीख तो हमें नहीं मिली, इस कोरोना के जाने की तारीख का भी कोई ठिकाना नहीं!
311, लक्ष्मी नगर, रिसाली,
भिलाई नगर (छ.ग.) 490006
मो. 09977030637
जीवेश प्रभाकर
आवेग में कब से
उमड़ रहे हैं सरोवर
और लगातार
टूट रही हैं परछाइयां…
(ललित जी की कविता- थकी हुई ऑंखें, से)
किसी को याद करना अच्छा होता है, उनसे जुड़ना होता है, मगर संस्मरणों के लिए यादें अक्सर त्रासदी का अनुभव कराती हैं। ललित चाचाजी की याद करते ही एक तरंग भीतर हृदय की गहराइयों तक झकझोरती चली जाती है। ललित जी मेरे लिए छुटपन से ही ललित चाचाजी थे और ताउम्र चाचाजी ही रहे।
कहां से याद करूं ये बहुत कठिन सा लगता है। चौबे कॉलोनी का हमारा पुराना घर जहां मेरा बचपन बीता, वहां वे अक्सर आया करते। हमारा घर उनके पुराने घर जाने के रास्ते में पड़ता था, वे कई बार देर रात भी जी के पास रुक जाते और काफी समय तक लंबी बातें करते बैठ जाया करते। प्रेस , राजनीति, साहित्य से लेकर सामाजिक और पारिवारिक विषयों पर भी वे जी के साथ खुलकर बातें किया करते थे। इस दौरान वे मेरी मॉं के हाथों बना शक्कर का पराठा अक्सर बनवाकर खाते। बाद में मेरी पत्नी मीता के हाथों बने विभिन्न व्यंजन भी बहुत शौक और प्रेम से खाते रहे। वे खाने के बहुत शौकीन थे और छककर खाते थे।
स्कूल की पहली कक्षा में जाते हुए तो पता नहीं था मगर बाद में पता चला कि ललित चाचाजी ने ‘जी’ (पिता प्रभाकर चौबे) और कुछ अन्य बौद्धिक लोगों के साथ तत्कालीन एन एच 6 के उस पार डंगनिया में लगने वाली प्राथमिक शाला के एक भाग को चौबे कॉलोनी में खुलवाने के लिए बहुत संघर्ष किया और आखिरकार कॉलोनी लाकर ही दम लिया। ये उनकी जनसरोकारों की पहली बानगी थी जो मुझे हमेशा आकर्षित और प्रभावित करती रही। शाला के वार्षिक आयोजनों को उन्होंने सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों के माध्यम से नए स्वरूप में ढाला और इस स्कूल से पूरी कॉलोनी को जोड़ दिया। इन्हीं आयोजनों के जरिए एक सांस्कृतिक सोच मिली जो लगातार पुख्ता होती चली गई। शुरुआत में चौबे कॉलोनी शाला प्राथमिक रही और पूरे रायपुर में बेहतरीन प्राथमिक शालाओं में स्थान बनाया। स्कूल की स्थापना से लेकर इसके विकास में ललित जी और इस पूरे ग्रुप का महत्वपूर्ण योगदान रहा। आज यह मायाराम सुरजन शासकीय उच्चतर शाला के रूप में जानी जाती है।
बाबूजी यानी मायाराम जी सुरजन के साथ पिताजी बहुत आत्मीय रूप से जुड़े थे। जब वे चौबे कॉलोनी में रहने आए तो ये संबंध ललित जी और पूरे परिवार के साथ लगातार प्रगाढ़ होते चले गए। एक बार वे चाचाजी हुए तो अंत तक यह संबंध बना रहा और वे हमारे पूरे परिवार के लिए एक अभिभावक की तरह हो गए। शुरुआती भय के पश्चात धीरे धीरे वे अपनी मोहक सदाबहार मुस्कान और मिलनसार स्वभाव से हम सब बच्चों में भीतर तक घुल मिल गए। पारिवारिक संबंधों में इतनी आत्मीयता और अपनापन स्थापित हो गया कि उन्हें पूरा हक हासिल था। ‘जी’ के निधन के बाद तो लगभग हर कठिनाई या दुविधा के समय उन्हीं की सलाह लिया करते और वे भी हर मुश्किल वक्त में पूरी शिद्दत और आत्मीयता के साथ खड़े रहे।
स्कूल के दिनों में ललित जी जब भी घर आते तो थोड़ी झिझक रहा करती थी। ये झिझक बंबई से पढ़ाई खत्म कर लौटने के काफी बाद तक बनी रही मगर लिखने पढ़ने की रुचि ने आहिस्ता आहिस्ता उनके करीब ला दिया। प्रगतिशील लेखक संघ और साहित्य सम्मेलन के आयोजनों में वे न सिर्फ मुझे बल्कि मेरी तरह बहुत से युवाओं को शामिल होने के लिए प्रेरित करते । घर पर जी से साहित्य के साथ साथ विभिन्न मुद्दों की जानकारी मिलती और उनके प्रोत्साहन से लिखने पढ़ने की रुचि और बढ़ने लगी ।
ललित जी के पास एक बुद्धिमान और पढ़ाकू संपादक होने के चलते रचना की समझ बहुत गहरी हुआ करती थी। वे एक ही पाठ में रचना के गुण दोष निकाल लेने की क्षमता रखते थे। वे बहुत तेजी से पढ़ते थे मगर उनकी नज़र से कोई वाक्य क्या कोई शब्द भी छूट जाए ऐसा लगभग असंभव ही होता था। एक ही बार में वे रचना में प्रूफ की गलतियां और वाक्य विन्यास , उद्धरण और संदर्भों की प्रामाणिकता के साथ ही विषयांतर हो जाने का भी आकलन कर लेते थे। ये उनका अद्भुत गुण था।
उनका पहला कविता संग्रह, अलाव में तपकर, कुछ समय पूर्व ही आया था। इस पर एक गोष्ठी रखी गई थी। मै छुट्टियों में रायपुर आया हुआ था , उत्सुकतावश ही मैं इस गोष्ठी में भी शामिल हुआ था। तब मैं बहुत ही युवा था और बहुत समझ भी नहीं थी , हालांकि आज भी इसमें कोई बहुत हासिल नहीं है, गोष्ठी के बाद मैने उनका संग्रह पढ़ा था और कुछ अरसे बाद एक छोटा सा कविताओं का पुलिंदा लिख कर उन्हें दिया। उन्होंने उसे रख लिया और लगभग एक सप्ताह बाद मुझे बुलाकर कहा था, ये तुम्हारा युवा उत्साह और जोश है, पहले काफ़ी पढ़ो, फिर लिखना और लिखने के बाद हमेशा अपनी रचना का संपादन खुद करो, लगातार, जब तक संतुष्ट न हो जाओ। उनकी ये बात मुझे आज भी याद रहती है।
वे युवाओं से संवाद बनाने में बहुत यकीन करते थे। न सिर्फ साहित्य बल्कि सामाजिक और राजनैतिक विमर्शों और आयोजनों में वे लगातार युवाओं की भागीदारी के लिए प्रयासरत रहते। मैं युवा था और मेरा सौभाग्य था कि मुझे उनका सानिध्य और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। मैं जवानी के जोश और जिज्ञासा से ओत प्रोत था और बहुत जल्दी साथियों के साथ बहस में उत्तेजित होकर उलझ पड़ता था। वे बहुत धैर्य से मेरी बात सुनते और अपनी सदाबहार मुस्कुराहट से मुझे परास्त कर देते। मैं समर्पण कर देता और फिर वे मेरे भीतर की जिज्ञासा और अर्धसत्य को अपने तर्कों और ज्ञान से साफ़ कर मुझे पूरी जानकारी देते। उनके पास जानकारियों के साथ ही ज्ञान का एक विशाल समुद्र था। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वे पढ़ने का समय निकाल ही लेते। कभी चर्चा में वे बताते कि तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वे लगभग रोज ही 4-5 घंटे पढ़ने का समय निकाल लेते थे।
सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि वे साहित्य के साथ ही हर क्षेत्र के समसामयिक अध्ययन को भी उतनी ही रुचि एवं तन्मयता से पढ़ते। पूर्व पीढ़ी के लेखकों का तो उन्होंने वृहत अध्ययन किया ही था मगर महत्वपूर्ण यह था कि आधुनिक दौर के युवा और एकदम नए लेखकों तक की अद्यतन जानकारी उन्हे रहती थी। उनमें प्रतिभा को पहचानने की अद्भुत पारखी दृष्टि थी जिससे वे नए व प्रतिभाशाली युवा लेखकों को अपने अखबार और पत्रिका में प्रकाशित कर प्रोत्साहित भी करते। हिन्दी के साथ ही वे विश्व साहित्य से भी लगातार जुड़े रहते। मैं कई बार उनसे अंग्रेजी की नई उल्लेखनीय किताबों की जानकारी लिया करता और पढ़ता। साहित्य जगत की हलचलों की भी उन्हें पूर्ण और प्रामाणिक जानकारी हुआ करती । उनके पढ़ने और पुस्तक प्रेम का ही परिणाम था कि देशबंधु प्रेस की लाइब्रेरी में हर विषय की नई और चर्चित किताब शामिल की जाती रही जिसका लाभ सभी पुस्तक प्रेमियों को मिलता। उन्हें अपनी लाइब्रेरी की लगभग हर पुस्तक की जानकारी रहती और वे लगभग सभी पुस्तकें पढ़कर ही लाइब्रेरी में मंगवाते। वे न सिर्फ खुद पढ़ाकू थे बल्कि पढ़ने वालों से मिलकर भी वे सबसे ज्यादा प्रसन्न होते और उनसे फिर लगातार संपर्क बनाए रखते।
वृहत्तर क्षमताओं में उन्हें किसी भी एक विधा में बांधकर देखा नहीं जा सकता। वे लेखक, पत्रकार,संपादक के साथ साथ एक सुलझे हुए संगठनकर्ता थे। चाहे प्रगतिशील लेखक संघ हो, साहित्य सम्मेलन, शांति एवं एकजुटता संगठन या इंटैक या कोई भी संगठन हो, वे लगातार सक्रिय रहते और दूसरों को भी सक्रिय बनाए रखते। सांगठनिक गतिविधियों के विविध आयोजनों में उनकी सक्रियता और समर्पण हम सबके लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। उनकी नज़र में कोई भी काम छोटा नहीं होता था। वे सबकी क्षमता और सामर्थ्य से परिचित होते और उन्हें उसी के अनुरूप जवाबदारी सौंपते। उनके पास जबरदस्त टाइम मैनेजमेंट था। सबसे बड़ी और उल्लेखनीय बात जो हमें कभी कभी परेशानी में भी डाल देती थी वो ये कि वे समय के बहुत पाबंद थे। कोई भी मीटिंग, गोष्ठी या आयोजन हो वे समय पर शुरू कर देते , फिर चाहे मुख्य अतिथि भी न पहुंच पाया हो। हम सबने उनसे यह सीखा और आज भी हमारी कोशिश होती है कि हम इसे अपनाएं।
अपनी बीमारी के दौरान भी वे लगातार साहित्यिक व सामाजिक रूप से सक्रिय रहे और लगातार अपना कॉलम लिखते रहे। सोशल मीडिया के अनेक मंचों पर भी वे सक्रिय रहे। दीपावली पर जब वे रायपुर आए तो हम सपरिवार उनसे मिलने गए, वे बहुत तरोताजा और उत्साहित थे। रायपुर वापस आकर फिर सक्रिय होने की बात लगातार कर रहे थे। मगर अफसोस तो यह है कि समय के तमाम मैनेजमैंट में मृत्यु का अपॉइंटमेंट नहीं होता। उनका यूँ अकस्मात चले जाना मेरे लिए ही नहीं बल्कि हमारे पूरे शहर के बौद्धिक और सिविल सोसायटी के लिए एक अपूरणीय क्षति है। एक गहरा आघात है सभी जागरूक और संवेदनशील तबके के लिए जो हमेशा सामाजिक साहित्यिक एवं राजनैतिक मुद्दों पर उनके मार्गदर्शन और नेतृत्व की अपेक्षा करता था। वे आज हम सबके लिए एक ऐसा खाली स्थान छोड़ गए हैं जिसका भर पाना आसान नहीं है। वे सदा हमारे दिलों में अपनी विशेष जगह बनाए रहेंगे।
शुक्ला प्रोव्हीजन के पास,
रोहिणीपुरम, रायपुर ( छत्तीसगढ़)
मो. 09425506574
jeeveshprabhakar@gmail.com
वसन्त निरगुणे
ललित सुरजन के बारे में सोचता हूं तो लगता है ,एक सुदर्शन ,एक सुविचारित,एक सुघड़,सुसंस्कृत व्यक्ति का चेहरा मेरे सामने उभरता है। जो “ललित” हो, ऊपर से “सुरजन” हो। जन में जितने भी सुर ( देवता) लगा लो। वह “सुरजन” है। सुर का एक अर्थ स्वर होता है। मतलब ललित में जितने भी स्वर लगा लो,उनकी मधुरता सातों सुरों में उतनी ही मिलेगी, जितनी सुर संगीत में समाई है। ललित सुरजन एक योग्य पिता मायाराम सुरजन के योग्य बड़े पुत्र थे। मायाराम तो आखिर मायाराम यानी एक जादूगर थे, उनके नाम और काम दोनों में एक अद्भुत आकर्षण था। ऐसे पिता के बेटे ललित सुरजन में बाबूजी के कुछ न कुछ रक्तीय गुण अवश्य आने चाहिये। मायाराम जी के नाम से संबोधित करने में उनसे नजदीकी प्यार पाने की ललक रखते थे। मैं भी उन्हें बाबूजी ही कहता था।
ललित जी से मेरा परिचय रायपुर में आयोजित पहले जगार में होती है. तब से लगाकर अब तक उनसे रायपुर में जब भी गया, उनसे मुलाकात का सिलसिला बनता अथवा रायपुर को छूकर बस्तर की तरफ आना जाना होता तो कम से कम फोन पर चर्चा जरूर हो जाती थी। फोन के अंत में वे एक बात हमेशा कहते-अगली बार मेरे लिये समय निकाल कर मिलने जरूर आयें। मुझे कहना पड़ता – जगार में मुझे पांच छ: दिन रायपुर रहना पड़ता है, तब आपसे लंबी भेंट करूंगा। पहले जगार में पहली भेंट भी बड़ी आत्मीयता से हुई।मुझे और अन्य अधिकारियों को उन्होंने देशबंधु के आफिस में आमंत्रित किया। हम दो तीन लोग उनसे मिलने उनके चेम्बर में गये। देखा- एक भद्र और गंभीर व्यक्ति किताब के पन्ने पलट रहा है।हमें दखते ही उन्होंने पहले किताब टेबल पर रख खड़े होकर दोनों हाथ जोड़ – आइए….आइए….बैठिये कहा। बैठ गये तो ललित जी बोले-जगार की रूपरेखा के बारे में हमारे पत्रकार आपसे कुछ बात करना चाहते है। एक कक्ष में मैंने व्यवस्था कर दी है। हम उस कक्ष में बैठे, तब तक वे भी आ गये। जगार के बारे में सारी वार्तालाप उन्होंने की। खासकर छत्तीसगढ़ी प्रदर्शनकारी और रूपंकर कलाओं की विस्तार से चर्चा हुई। दूसरे दिन लगभग एक पूरे पेज पर जगार के स्वरूप की चर्चा की गई। संभवत: इस तरह का प्रदर्शनकारी और शिल्पों पर केन्द्रित आयोजन वह भी जिसमें आदिवासी कला की बहुलता रखी गई थी, देश का पहला समागम कहा जा सकता है। जिसमें लगभग तीन सौ शिल्पकार अपना हुनर दिखाने और बिक्री करने आये थे। जहाँ बस्तर शिल्प सर्वाधिक थे। इसलिये उन्होंने उसकी भाषा विन्यास पत्रकारिता के साथ साहित्यकारों की लेखनी की तरह किया था। चाय पान के बाद विदा हुए तो वे बोले – मैं जगार के उद्घाटन में उपस्थित रहूंगा। यह जगार होने के एक दिन पहले की घटना थी।
लेकिन उस वार्ता में जिस एक सजग जिज्ञासु की तरह उत्कण्ठा थी उसमें लग रहा था,ललित जी केवल एक पत्रकार ही नहीं, बल्कि और भी बहुत कुछ हैं। उनमें आदिवासियों के जीवन को बहुत गहराई से जानने की छटपटाहट देख कर मैं चौका था। उनमें अपने पिता की तरह प्रगतिशीलता मौजूद थी। बल्कि उनसे आगे ले जाने की त्वरिता और प्रतिबद्धता मुझे साफ साफ दिखाई दे रही थी।यह सब बिना शब्द के ललित जी की देहभाषा से मेरे जेहन में उतर रहा था।जो शब्दों के सामर्थ्य के बाहर था। उस दिन से मेरे मस्तिष्क में जो छबि बनी,उसे ललित ने कभी खंडित नहीं होने दी।बल्कि मेरे जनजातीय कामों को देख सुनकर उन्होंने एक पूरी आश्वस्ति सी बना ली थी कि निरगुणे जी ने जो रास्ता चुना है,वह कुछ अलग ही है। उन्होंने कभी मुझे प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहा। लेकिन जनजाति कार्य की मित्रों से चर्चा के समय वे मेरा नाम अग्रिम पंक्ति में रखते थे। मुझे आकर मित्र लोग बताते थे, तब ललित भाई की वह सौम्य,सजग और समावेशी छबि सदैव मेरे मन मस्तिष्क में अखंडित रहती।
आज वे नहीं हैं। मौत से लड़ते लड़ते जिस अंदाज में अपनी कविताएं फेसबुक पर वे पढ़ते थे, यह देखकर तो आत्मविश्वास की आत्मा तक डगमगा जाये,और कह उठे – “यह मृत्युंजयी कौन है ? जो अपनी कविता में जीवन के यथार्थ को आखरी समय में भी इतनी खुशी से बिना शिकन के ढूंढने में लगा है, उसके पास समय नहीं था,फिर भी वह समय के पार जाने की जिद पाले था।
विनम्र श्रद्धांजलि…..
एक सफर ऐसा भी
अमर विचारों का,समय के पार जाने का,
जो कभी नदी की धार की तरह
रुकता नहीं,
समय कभी थकता नहीं,
भले ही हम न होंगे।
एच.आई.जी. 7
उमा विहार
कोलार रोड, भोपाल
मो. 094759 39358
डॉ. दामोदर खड़से
‘बस्तर के विलुप्त वनों में
डूबते चंद्रमा के सामने
अपने साथ होने का बयान
देने के लिए खड़े हैं उदास
भूरे, बदरंग, नीलगिरी के वृक्ष
सब कुछ सच-सच कहने के लिए
बैठी हैं, बरसों से
थकी प्यासी चट्टानें
नदियों के निर्लज्ज विस्तार में’
ललित सुरजन
कविता अपने समय का सच्चा इतिहास होती है। कविता अपने वर्तमान का बयान होती है। सूचनाओं की भीड़ में, समाचारों के शोर में, राजनीति की उठापटक में, व्यापार की अन-लोलुपता में कई जीवन अपने शर्त को शब्द नहीं दे पाते। भुक्तभोगी होने के बावजूद वे खुलकर बयान नहीं कर सकते। ऐसे समय को कविता अपनाती है और स्थितियों को जन-जन तक पहुंचाती है। ऐसी ही कविताएं ललित सुरजन की कलम से प्रवाहित होती रहीं। उपर्युक्त कविता की एक-एक पंक्ति आदिवासी क्षेत्र बस्तर की भीतरी दास्तां गवाही दे रही है। वन विलुप्त हो रहे हैं, चंद्रमा डूब रहा है, वृक्ष उदास हैं, चट्टानें थकी-प्यासी हैं और नदियां निर्जल हैं… प्रकृति पर हो रहे आक्रमण, अत्याचार आर आघात की कहानी कहती ललित सुरजन की यह कविता एक बयान है जो आने वाली पीढिय़ों को सच बताएगी और इसके दोषियों को कटघरे में खड़ा कर जिरह करेगी।
ललित सुरजन एक कवि, लेखक, विचारक, पत्रकार, संपादक जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रहे। वे उत्कृष्ट वक्ता रहे। अपने वक्तव्यों की मौलिकता लेकर वे धाराप्रवाह वैचारिक उहापोहों से मंचों को सार्थक करते। लेखनी से सटीक संदेश शब्दों में पिरोते। कविताओं के माध्यम से जन-जन तक पहुंचते। संपादक के रूप में राष्ट्र के नव-निर्माण के लिए स्थितियों की समीक्षा करते और सत्ता पर अंकुश रखने का सार्थक प्रयास कर जन-कल्याण के महत्वपूर्ण सुझाव देते। इस तरह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का विकास ध्यान में रखकर, दिशा-निर्देश करते। आज जबकि पत्रकारिता भी व्यावसायिकता के शिकंजे में दिखाई देती है, ऐसी स्थिति में उन्होंने देशबन्धु के माध्यम से स्वस्थ पत्रकारिता का एक आदर्श प्रस्तुत किया। उनका संपादकीय स्थितियों का आईना होता और बयान झकझोर देता।
बहुत बेबाकी से अपनी बात वे कहते। इस धुंधलके में ऐसी स्पष्टवादिता विरले ही कर पाते हैं। उनके विचारों में, सोच में, दृष्टि में स्पष्टता थी, इसलिए वे ऐसा कर पाते थे। इतने व्यापक पत्रकारिता- क्षेत्र की चुनौतियों एवं आह्वान का उनकी सुदृढ़ प्रबंधन शैली ने डटकर मुकाबला किया। उन्होंने कभी स्थितियों से समझौता नहीं किया। निर्भीक होकर वे अपनी बात कहते-लिखते रहे। इसी संघर्ष ने उनके व्यक्तित्व को नई ऊंचाई दी। उन्होंने समर्थ पत्रकारों की नई पीढ़ी बनाई। जनपक्षधर विचारों को प्राथमिकता दी। अपने मूल्यों के साथ कभी समझौता नहीं किया, इससे कई नई चुनौतियां उनके सामने आईं, लेकिन वे झुके नहीं। देशबन्धु के संपादन के साथ ही उन्होंने अक्षर पर्व मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया और साहित्य के क्षेत्र में एक उदाहरण प्रस्तुत किया। इस पत्रिका में भी वे समसामयिक विषयों पर प्रस्तावना के रूप में अभिव्यक्त होते रहे।
कोई डेढ़ दशक पहले की बात होगी। मैं अपने कार्यालयीन काम से रायपुर गया था। जैसे ही, रायपुर का कार्यक्रम बना, मैंने उन्हें फोन किया और उनसे मिलने की इच्छा जताई। उन्होंने सहर्ष समय दिया। मैं निर्धारित समय पर पहुंचा था, पर उन्हें किसी अत्यावश्यक काम से दिल्ली जाना पड़ा था। मैं उन्हें अपनी पुस्तक भेंट करना चाहता था, सो पुस्तक वहां सौंप दी थी। बाद में जब फोन पर बात हुई तो उन्हें न मिल पाने का अफसोस था। पर वह पुस्तक सम्पर्क को गहराती रही। हज़ारों बातें होती रहती हैं। कुछ दिनों बाद मुझे रेल मंत्रालय के एक काम से बिलासपुर जाना हुआ। मन हुआ कि अम्बिकापुर भी हो आऊं। उस इलाके में मैं अपना बचपन छोड़ आया हूं। मैंने फ़ोन पर यह बात ललित जी को बताई। वे बोले, ज़रूर जाइए… वहां काफी लेखक मित्र हैं, उनसे मिलकर आपको बहुत अच्छा लगेगा। उन्होंने मुझे वेदप्रकाश अग्रवाल का फोन नंबर दिया और उनसे मिलने का आग्रह किया। अंबिकापुर पहुंचने के बाद मैंने वेदप्रकाश अग्रवाल जी से संपर्क किया। तय समय पर मैं पहुंचा तो देखा कि ‘साम्य’ पत्रिका के संपादक विजय गुप्त जी तथा शहर के कुछ लेखक बंधु पहले से अग्रवाल जी के घर पधारे हुए हैं। शानदार गोष्ठी हुई। नए मित्र मिले और वेदप्रकाश अग्रवाल जी से स्थायी आत्मीयता सघन होती गई। उनके कविता संग्रह ‘ओ सरगुजा’ और ‘अस्मिता’ उस मुलाकात की जीवंतता का स्मरण कराते रहते हैं।इस तरह ललित सुरजन मित्रता के पुल निरंतर बनाते रहे। 2012 से अम्बिकापुर में नया मित्र परिवार श्री ललित सुरजन के माध्यम से बढ़ता रहा है।
अकोला में जून 2015 को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी की ओर से हिंदी साहित्य पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। इसका संयोजन डॉ. रामप्रकाश वर्मा ने किया था। नरेश सक्सेना और डॉ. प्रतापराव कदम आमंत्रित थे। ललित सुरजन जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। अकोला उनके लिए विशेष महत्व रखता था। इस जिले के बालापुर तहसील के उन्द्री नाम स्थान में ललित सुरजन जी का जन्म उनके मामा श्री मोहता के घर हुआ, इसलिए भावनात्मक लगाव इस इलाके से उनका बना रहा। कार्यक्रम के दौरान श्री मोहता उनसे मिलने भी आए थे। इतने महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित अतिथि की उपस्थिति में कार्यक्रम तो उत्कृष्ट होना ही था। मैं अपने गृह नगर अकोला में श्री सुरजन जी से मिलने आना चाहता था, पर समय पर अकादमी के आवश्यक कार्यवश मुझे मुंबई रह जाना पड़ा, और यहां उनकी मुलाकात से मैं वंचित रह गया। बाद में, मुझे मालूम हुआ कि ललित सुरजन जी ने अकोला के लिए दो दिन का समय रखा था। पहले दिन उन्होंने कवि- सम्मेलन में भाग लिया। बहुत मन से उन्होंने कविताएं सुनाईं और कार्यक्रम की सफलता को नई ऊंचाई दी। मैं इधर अफसोस करता रहा कि इतने उत्कृष्ट कवि के सान्निध्य ओर उनकी कविताओं के रसास्वादन का अवसर मुझसे छूट गया।
फोन पर हम निरंतर जुड़े रहे। हर हफ्ते वे अपना लेख मुझे वाट्सएप पर भेजा करते। बाद में, मुलाकात का एक और अवसर आया। मुक्तिबोध के नगर राजनांदगांव में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का दो दिवसीय कार्यक्रम 22-23 फरवरी 2019 को आयोजित था। इस कार्यक्रम के उद्घाटक के रूप में ललित सुरजन जी को प्रमुख अतिथि के नाते आना था। मुझे दूसरे दिन एक विषय पर बोलना था। मिलने का अच्छा अवसर था, मैं उत्साहित था। पर ट्रेन के विलंब के कारण मैं दोपहर 4.00 बजे पहुंच पाया। ललित जी का संबोधन प्रारंभ में ही था। उन्हें और किसी कार्यक्रम में आगे जाना था। उनके वहां से रवाना होने पर मैं राजनांदगांव पहुंचा और अफ़सोस करता रह गया। परंतु, मित्र-साहित्यकारों ने बताया कि उन्होंने ललित सुरजन जी ने हिंदी-मराठी के अंतर्सबंधों की गहन चर्चा की। निमंत्रण पत्रिका में मेरा नाम देखकर विशेष उल्लेख मेरा किया कि वे (मैं) भले ही अब पुणे में हों, पर मूल रूप से छत्तीसगढिय़ा हैं। उन्हें अच्छी तरह याद रहा कि मैं अम्बिकापुर में पला-बढ़ा हूं। अनुपस्थिति में भी उनके मन-मस्तिष्क अपने आपको पाकर मैं धन्य हो उठा और उनसे न मिल पाने का अफसोस और बढ़ गया। उनका व्यक्तित्व ही इतना व्यापक था कि परिचितों को उनकी आत्मीयता अनायास ही मिल जाती।
लोक-संस्कृति उनका प्रिय विषय रहा। आदिवासियों का जीवन उन्हेंं आकर्षित करता रहा। लोक-गीत, लोक संगीत, लोक नृत्य, लोक-कला में जीवन की मौलिक परछाई को अनुभव करते। उनकी कविताओं और लेखन में इसे यत्र-तत्र-सर्वत्र महसूस किया जा सकता है। शोषित, उपेक्षित, गरीब और समाज के अंतिम पंक्ति में बैठे व्यक्ति के लिए उनके मन में हमेशा ही सहानुभूति होती। यह भाव कभी प्रत्यक्ष, कभी कविता आलेखों में अनायास ही उभर आता। लोक संस्कृति में रमते। सार्वजनिक जीवन में शुचिता को लेकर वे आग्रही होते। जहां कहीं आवश्यक होता वे तीखी टिप्पणी करने से न चूकते। व्यवस्था को लेकर उनकी सोच, उनके विचार बहुत स्पष्ट होते। कभी उन्होंने ढुलमुल रवैया नहीं अपनाया। जो भी लगा बेलाग-बेलौस व्यक्त कर दिया। कभी नफा-नुकसान का गणित नहीं सोचा। प्रतिभा की परख, उसके संरक्षण और संवर्धन में उन्होंने कभी कोर-कसर नहीं रख छोड़ी। एक संपादक, प्रखर पत्रकार, लेखक तो वे थे ही, इससे ऊपर वे मनुष्य के रूप में उदार, परहितकारी और भद्रता लिए हुए थे। इसीलिए उनका आभा-मंडल हमेशा दमकता होता। उनकी कविता में प्रभावोत्पादकता और गतिशीलता होती। समय के पार झांकने की, आकलन करने और परिणामों का संकेत करने की उनकी अद्भुत क्षमता थी। इसीलिए उनकी कविता अपने समय की गवाही देती लगती हैं।
कवि वर्तमान का विश्लेषण करता है और भविष्य का आकलन भी। इस बीच पीढिय़ों के छूटते, लुप्त होते और कभी-कभी विद्रूप होती स्थितियों से कवि संवाद भी करता है। ललित सुरजन की ‘बाईसवीं सदी’ की कविता में कुछ ऐसा ही दृश्य दिखाई देता है। इस कविता का उद्धरण देने का लोभ-संवरण नहीं हो नहीं हो पा रहा है:
मैं बाईसवीं सदी में
एक वृक्ष के नीचे खड़ा था
इसे बीसवीं सदी में
किसी सीमेंट कंपनी ने रोपा था
दुनिया के तमाम वृक्ष
कट जाने के बाद
यह अकेला पेड़ बचा था
जिसे साल-बोरर
छेद नहीं पाया था
बाईसवीं सदी के
ध्वस्त महानगर में यह वृक्ष
बीसवीं सदी में हासिल
उन्नति का प्रमाण था
पेड़ की अनगिनत मंज़िलों में
असंख्य कमरे थे और
उनमें एक भी खाली नहीं था
थे असंख्य दरवाज़े लेकिन
उनमें एक भी खुला नहीं था,
बाईसवीं सदी में
जी रहे थे
बीसवीं सदी के सयाने,
बाईसवीं सदी की हवा में
सांस ले रहे थे
वे बहुत बुद्धिमान थे
पवित्र विचारों से ओतप्रोत
और उन्हें अपने पर गर्व था,
वे भविष्य पढ़ लेने का
दावा करते थे और
समय की नदी में वे
उल्टे लौट सकते थे
सृष्टि के पहिले दशक तक,
वे साहसी आखेटक थे और
अक्सर मृगों का पीछा करते
इतिहास में बिलम जाया करते थे
वे पृथ्वी के कण-कण में
प्रभु की महिमा देखते थे और
सर्वत्र व्याप्त हो जाना चाहते थे,
वे स्वदेश में रहते थे और
उनके वंशधर
प्रवास पर आया करते थे
इस तरह वे
अयोध्या और अमेरिका में
एक साथ जी सकते थे,
बीसवीं सदी की वसुधा में
बहुत छोटा था उनका कुटुंब
वे सचमुच कर्मयोगी थे
उद्यमी और उदार,
उनके स्पर्श में पारस था
चारों तरफ बिखरा सोना-ही-सोना
उनकी आत्मा भी कुंदन,
उन्होंने बहाई समृद्धि की नदियाँ
केला की बाढ़ में उफनी कालिंदी
बरसे उपहारों पर उपहार
चकित हुए गोवर्धनधारी
बीसवीं सदी में था
कितना कुछ करने का अवसर
धर्म और धन में था
कितना अद्भुत संबंध!
नूतन और पुरातन का
था कैसा मणिकांचन योग !
पूरब और पश्चिम में
था कैसा अनुपम सौहार्द्र !
बीसवीं सदी के सयाने
बाईसवीं सदी के सपनों में डूबे,
अकेले वृक्ष की छाया से मैं
वर्तमान में लौटा
अपनी सदी से डरा-डरा
ललित जी की इस कविता में वर्तमान और भविष्य, धर्म और धन तथा मनुष्य की आकांक्षा और उड़ान के बीच अपनी सदी के डर का सूक्ष्म रूपायन देखा जा सकता है। उन्होंने विदेशी कविताओं के अनुवाद भी बहुत खूब किए हैं। अनुवाद भी बहुत खूब किए हैं। अनुवाद ऐसे कि अनुवाद ही न लगे। मौलिक- सा प्रवाह और प्रभाव छोड़ती कविता का एक अंश-
हुजूर!
हुजूर!
क्या मुझे इजाज़त है कि
किसी दिन मैं पड़ौसी से दुआ-सलाम कर सकूं
या फिर अपने दबे हुए आँसुओं की लड़ी से
किसी मुसाफिर के लिए
बुन सकूँ एक मफलर ?
और क्या मुझे इजाज़त है कि
बिना किसी परमिट के
गुलाबों की वेदी पर चढ़
बसंत के खुशनुमा बागों में भटक सकूँ? …
(फरीदा हसनज़ाद मुस्तफावी,
मूल फारसी व अंग्रेजी अनुवाद)
हिन्दी अनुवाद : ललित सुरजन
इस तरह ललित सुरजन बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। सामाजिक, सांस्कृतिक और पत्रकारिता जगत में उनकी अपनी पहचान थी, साथ ही, साहित्यिक क्षेत्र में भी उनका उतना ही दखल था। उनकी राजनैतिक चेतना निर्विवाद थी। इस दृष्टि से उनका चिंतन स्पष्ट था। वे इसको उजागर भी करते रहे। वक्ता के रूप में अपने मौलिक चिंतन को वे सार्वजनिक रूप से प्रकट करते रहे। मित्रों के लिए वे सदा उपलब्ध होते। सम्बन्धों को, रिश्तों को वे जीवन में सर्वोपरि मानते। इसीलिए उनका मित्र परिवार पूरे देश में फैला हुआ है। संपादक के रूप में वे जन-जागरण में केंद्रित रहे। साहित्यकार के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और विशिष्ट रही है। साहित्यकार संसार से विदा होने के बाद भी उसका साहित्य समाज में अपनी भूमिका अदा करता रहता है। ललित सुरजन ने कितनी ही कविताओं का सृजन किया, साथ ही विश्व की उत्कृष्ट रचनाओं का अनुवाद कर हिंदी पाठकों को अद्वितीय उपहार भी सौंपा है। जिन कविताओं के उन्होंने अनुवाद किए वे महत्वपूर्ण व सार्थकता लिए हुए हैं। सृजनशील कवि जब कविता का अनुवाद करता है, तब अनूदित कविता सजीव हो उठती है।
आश्चर्य केवल यह होता है कि समय को उन्होंने अपनी व्यस्तता के बीच कैसे साधा? पर लगता है जो व्यक्ति जितना व्यस्त होता है वह किसी न किसी तरह अपनी रुचि के काम के लिए समय निकाल ही लेता है। अख़बार प्रकाशन की चुनौतियों के बीच उनका मन कविता में रमता रहा। इसीलिए इतनी कविताएं पाठकों को मिल सकीं। उनकी कविताओं में उनके गहनतम अनुभूतियों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है। कविताएं और उनका समृद्ध लेखन उनकी मशाल को निरंतर प्रज्ज्वलित रखेंगे।
बी-503-504, हाई ब्लिस,
कैलाश जीवन के पास,
धायरी, पुणे- 411 041
damodarkhadse@gmail.com
मो. 09850088496
कल्याण कुमार चक्रवर्ती
ललित जी हमें छोड़ कर दुनिया से चले गये। उन्होंने ऐसे समय में दुनिया छोड़ी जब मीडिया अब तक के सबसे विकट संकट के दौर में है। वे विवेकशील अन्तश्चेतना की पत्रकारिता के अनुपम उदहारण थे। उनका जाना ऐसे कठिन समय में हुआ जब पत्रकारिता की आज़ादी विश्वासघाती हमलों का निरंतर शिकार बन रही है। उसकी भारतीय लोकतंत्र बचाने में अपेक्षित महत्वपूर्ण और सजग उपस्थिति खतरे में है। भारतीय लोकतंत्र के तीन आधार स्तंभों -न्यायपालिका, संसदीय व्यवस्था और कार्यपालिका को अपने संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण अथवा उनका दुरुपयोग करने के खिलाफ ललित जी हमेशा लिखते रहे। इस दायित्व में उन्होंने कभी चूक नहीं की। कभी उत्साहवर्धन कर ,कभी सलाह और कभी चेतावनी देकर वे संवैधानिक व्यवस्था के तीनों अंगों को अपने दायरे में काम करने के लिए आगाह करते रहे। सरकारों और कॉर्पोरेट घरानों की सांठगांठ से विकास के नाम पर जंगलों और पहाड़ों को बर्बाद करने की घातक मुहिम के खिलाफ लगातार संघर्ष में ललितजी गरीबों और आदिवासियों की प्रामाणिक आवाज थे। उनकी कविताओं ,उनके निबंधों के साथ उनके नृतत्वशास्त्रीय जुड़ाव में करोड़ों दबे-कुचले और निरुपाय गरीबों के लिए अथाह करुणा की गूंज थी।
मेरी ललित जी और उनके पिता स्व. मायाराम सुरजन जी से पहली बार 1980 के दशक में मुलाकात हुई। तब में शिक्षा माफिया से लड़ रहा था। शिक्षा व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार था। सामूहिक नक़ल, परीक्षा परिणामों में व्यापक हेरफेर और तबादलों में जबरदस्त धांधली का दौर था। इस बीमारी के खिलाफ मेरी लड़ाई में पिता और पुत्र में मेरा भरपूर साथ दिया। मैंने जनभागीदारी के जरिए मध्यप्रदेश के दूरदराज इलाकों में स्कूली शिक्षा का ढांचा सुधारने की मुहिम चलाई। ललितजी ने इस अभियान का अपने अख़बार के जरिये बढ़-चढ़कर समर्थन दिया।
जब छत्तीसगढ़ बना तब यह नव स्वतंत्र राज्य भीषण गरीबी और नक्सलियों के हिंसक राजद्रोह से ग्रस्त था। धन्नासेठो के गिरोहों द्वारा गरीब आदिवासियों के शोषण का बोलबाला था। मैंने दूर-दराज में बसे गरीब आदिवासी समुदायों में मदद पहुँचाने की पहल की ,आदिवासियों में जनभागीदारी के जरिये जंगल सुरक्षित करने का अभियान चलाया और साथ ही यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि आदिवासियों के लिए चलाई जा रही सरकारी योजनाओं का लाभ उन तक ठीक -ठीक पहुंचे। ललित जी ने इन प्रयासों में मेरा साथ दिया।
मेरा प्रयास था कि आदिवासी विकास की धारा में इस तरह जुड़ें कि उनकी संस्कृति और जड़ों से उनका जुड़ाव अक्षुष्ण रहे। विकास की प्रक्रिया में संस्कृति मात्र ऊपरी प्रसाधन का जरिया न दिखे। ललितजी ने इस अभियान में खुद को पूरी तरह जोड़ा। हमारा जोर वृक्षारोपण की बजाय जंगलों के स्वाभाविक पुनर्जनन पर था। हम चाहते थे कि जंगलों की जैव-विविधता और सामुदायिक ज्ञान परम्परा पर आदिवासियों और वनवासियों के साथ हमारा परस्पर संवाद हो। इस दिशा में ललित जी का विशद ज्ञान और सक्रिय सहयोग मेरे प्रयासों के लिए बहुत लाभकारी साबित हुआ। हम दोनों इस बात के कायल थे कि छत्तीसगढ़ के ग्रामीणों से यह सबक सीखा जाना चाहिए कि संस्कृति और प्रकृति के बीच परस्पर अमिट सम्बन्ध का कैसे सम्मान किया जाता है। ये ग्रामीण खुद को सांस्कृतिक बुनावट का बुनकर मानने की बजाय उसका हिस्सा मानते हैं। उनके लिए जंगल उनका बसेरा है ,आजीविका का साधन है, पुरखों की धरोहर का स्त्रोत है और पीढ़ी -दर -पीढ़ी सतत बना रहने वाला प्यार है।
नए बने छत्तीसगढ़ राज्य में व्यवस्था अपरिपक्व और बेहाल थी, प्रशासनिक ढांचा बेढंगा था। पुनर्गठन की प्रक्रिया जारी थी। ललितजी की समझ और करुणामय प्रकृति प्रदेश की दुरावस्था सुधारने में मेरे बहुत काम आई। उन्होंने प्रशासनिक व्यवस्था के गठन के बाद उसे संवारने में भी मेरा साथ दिया।
ललित जी और उनके परिवार ने ,कह सकते हैं कि, अपने इर्द-गिर्द शिष्टता ,गरिमा और समझदारी का नखलिस्तान रचा है। उनकी दिलचस्पी से ही यह संभव हुआ कि छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मेरी किताब , ” वाकिंग विथ शिवा : कॉग्निटिव रूट्स ऑफ़ इंडियन आर्ट्स ,आर्किओलॉजी एंड रिलीजन ” का रायपुर में विमोचन किया। क़िताब के हिंदी अनुवाद में भी ललित जी का बड़ा योगदान था।
मुझे याद है कि लोक शिक्षण संचालक के रूप में मैंने ललितजी की दोनों बेटियों सुरभि और तिथि को उनके स्कूल में पुरस्कार दिया था। हाल ही में मेरी ललितजी की नातिन भुवन्या से भी बात हुई थी। बातचीत भुवन्या के अपने नाना की वर्षगांठ पर भेजे गए ऑडियो विज़ुअल सन्देश पर थी। यह बधाई ललित जी के लिए उनके जीते जी नातिन की और से अंतिम आदरांजलि साबित हुई।
ललितजी ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी युवकों में से मानवशास्त्रियों का एक शानदार समूह खड़ा किया था। मीडिया उद्योग में इस समूह की आज सम्मानजनक स्थिति बन गई है।
राज्य -सत्ता के बेजा इस्तेमाल से पीड़ित गरीब और सताए हुआ लोगों का ललितजी हमेशा पक्ष लेते थे। उनकी हमेशा कोशिश रहती थी कि सरकार ,चाहे वह किसी भी राजनितिक दल की हो, अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से नहीं डिगे। वे गरीबों की सेवा के सही मिशन को पूरा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाते थे।
छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक धरोहरों के संरक्षण की दिशा में ललितजी का योगदान अप्रतिम है। उन्होंने राज्य में बिखरी ऐतिहासिक धरोहरों के सर्वेक्षण और दस्तावेजीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया था।
ललित जी और उनके परिवार ने पत्रकारिता में सभ्य आचरण और विमर्श का जैसा लोकाचार स्थापित किया है वह उनके पत्र समूह देशबन्धु को हमेशा जीवित रखेगा, भले ही आज मीडिया और समाज में चापलूसी का वातावरण सघन होता जा रहा हो।
ललित जी एक राष्ट्रीय धरोहर हैं। वे एक युगीन व्यक्तित्व बन गए हैं।
एल एक्स 20501,
उत्सा लक्ज़री कांडोविले
एक्शन एरिया 1ए,
न्यू टाउन, राजरहाट
कोलकाता – 700163मो. 098188 57536
धनंजय वर्मा
उम्र के अस्सी पार छह के- जिस दौर से गुजर रहा हूं, उसमें आदमी आम तौर पर अतीतजीवी हो ही जाता है। अभी उस दिन पूरा वक्त, मन रायपुर में भटकता रहा। 1953 से 1957 तक छत्तीसगढ़ कॉलेज में पढ़ा- वहीं से बी.ए. किया और सागर से एम.ए. करने के बाद 1959-60 में वहीं से अध्यापकी शुरू की। रायपुर की याद आए, और मायाराम जी याद न आएं, ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने ज्ञानपीठ, दिल्ली से 2019 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ख़ुतूत से नुमायां हम-दम निकाली और मायाराम सुरजन वाला अध्याय फिर पढ़ने लगा। पूरा पढ़कर उठा ही था कि समावर्तन का अंक आ गया। उसमें एक खबर पर नज़र पड़ी और मैं चौक गया- ललित सुरजन नहीं रहे ! सारा काम-धाम छूट गया। देर इतनी हो चुकी थी कि किसी से बात भी नहीं कर पाया। …
चल दिए छोटे-बड़े, जिनसे था लुत्फ़-ए-जिन्दगी
अब किसको मुझ पर नाज़ हो, नाज़ मैं किस पर करूं…
मायाराम जी की पत्र-कथा का समापन इसी शेर से हुआ था, और अब ललित के प्रसंग में फिर वही शेर गूंज रहा है।
ललित सुरजन से मेरा परिचय मायाराम जी के माध्यम से ही हुआ था। 1957 में मायाराम जी से पहले परिचय से लेकर 31 दिसम्बर 1994 को उनके चले जाने तक भोपाल-नरसिंहपुर-जबलपुर-रायपुर और फिर भोपाल- पूरा कथावृत फिर घूम गया। मेरे जीवन मेें उनकी क्या अहमियत है, इसका बयान मैं इस पत्र-कथा के अलावा जनवरी 1995 में उन पर स्मृति लेख और फिर उनके अवदान पर एक लेख – साहित्य और पत्रकारिता के संगम में लिख चुका हूं। पत्र-कथा में ललित से जुड़ा एक प्रसंग है- जो फिर याद आ गया।
हम लोग मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के एक वार्षिक अधिवेशन (शायद मन्दसौर) से लौटे थे। दादा कविवर हरिनारायण व्यास घर आए थे। कुछ देर बाद सहचर-मित्र कमला प्रसाद भी आ गए। उसी दिन सम्मेलन की नयी कार्यकारिणी के मनोनयन की घोषणा हुई थी। महामंत्री के रूप में ललित सुरजन का नाम था। इसी पर हमारी चर्चा होने लगी। मैंने कमला से कहा-हम लोग जिसका आदर- सम्मान करते हैं, चाहते हैं कि दूसरे भी उनका वैसा ही आदर-सम्मान करें। हमें कभी यह अच्छा नहीं लगेगा कि मायाराम जी पर कोई कभी उंगली उठाए। इसके लिए जरूरी है कि हम भी किसी को कोई मौका न दें। अब सम्मेलन, देशबन्धु तो है नहीं नहीं, वह एक सार्वजनिक संस्था है और मायाराम जी उसके अध्यक्ष-अमानतदार हैं। उनसे तो यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अपने सुपुत्र को इस तरह मनोनीत करेंगे। मैं ललित की योग्यता या अध्यक्ष के विशेषाधिकार पर सवाल नहीं उठा रहा हूं, उनके मनोनयन के औचित्य पर सोच रहा हूं। अक्षय कुमार जैन, उसके महामंत्री थे, अब वे कार्याध्यक्ष हो गए हैं। मैं संयुक्त मंत्री, तुम साहित्य मंत्री, यहां तक तो ठीक लेकिन आज क्या हमें ललित सुरजन के निर्देशन में काम करना पड़ेगा? मैं अपनी बात कहूं- छह साल जूनियर अशोक वाजपेयी के मातहत काम करना तो, अपने पारिवारिक कारणों से, सरकारी चाकरी की मजबूरी थी, सो अल्ला-अल्ला खैर सल्ला – वह संकटकाल तो बीत गया। अब क्या ग्यारह साल जूनियर के मातहत काम करना पड़ेगा? हम लोग कांग्रेस के वंशवाद की तो मज़म्मत करते हैं, वहां उसी तरह के वंशवाद का समर्थन कैसे कर सकते हैं?
दूसरे या तीसरे दिन देशबन्धु कार्यालय सहायक मनोहर हमीदिया कॉलेज आया। मैं अपने कमरे में था। उसने कहा- बाबू जी ने आपको याद किया है।… कमला प्रसाद ने शायद मायाराम जी से चर्चा की होगी। घर लौटते हुए मैं मायाराम जी के बंगले पहुंचा। उनके चेहरे पर तनाव था। उनकी तरह का पारदर्शी व्यक्ति अपने मनोगत भावों को गोपन रख ही नहीं सकता था। विस्तार से हमारी चर्चा हुई। उसकी तवालत में जाए बगैर, किस्सा कोताह, मेरी सारी असहमति, अनुरोध और करबद्ध प्रार्थना को मंसूख करते हुए उन्होंने मुझे महामंत्री मनोनीत किए जाने का संशोधन जारी कर दिया। उसे स्वीकार करने का लगभग आदेश। प्रेम की तानाशाही के आगे तो अच्छे-खासे अकडख़ां भी अपने सारे हथियार डाल कर समर्पण कर देते हैं। बहरहाल…
जबलपुर में सम्मेलन का अधिवेशन हुआ। पहली बार महामंत्री के रूप में प्रतिवेदन मुझे पेश करना था। माँ की अस्वस्थता के चलते अस्त-व्यस्तता की वजह से मेरी तैयारी पूरी नहीं थी। ललित सुरजन का व्यवहार भी सहज नहीं था। किसी प्रसंग में मुझे लगा कि मायाराम जी भी ख़फ़ा हो गए हैं। फितरतन आशंकाओं से घिरा रहने वाला मैं, वहां से लौटकर 09 जून 1989 को मैंने सम्मेलन के महामंत्री पद से अपना इस्तीफा, मायाराम जी को, रायपुर के पते पर भेज दिया। उसके बाद के घटनाक्रम को दोहराने की जरूरत नहीं है। अंतत: सम्मेलन से मुक्त होने के बाद भी मायाराम जी से सम्बन्ध अंत तक बने रहे बल्कि उनकी अंतरंग प्रगाढ़ता में वृद्धि होती रही।
याद आते हैं कुछ पूर्व प्रसंग! रायपुर से मायाराम जी ने 04 जुलाई 1981 के अपने लम्बे पत्र में अन्य सारी बातों के साथ लिखा था- चि. ललित ने बताया कि वे बेटे जी को प्रवेश दिला आए हैं। जब फार्म भिजवाने से प्रवेश दिलाने का कष्ट हम उठा रहे हैं तो हम दूसरे किसी को अभिभावक कैसे होने देंगे? तुम न भी चाहोगे तब भी यह काम हम ही करेंगे।… मेरे बड़े बेटे कार्तिकेय ने जियोलॉजी लेकर प्रथम श्रेणी में बी.एससी. की परीक्षा पास की थी। वह एप्लाइड जियोलॉजी में एम.टेक करना चाहता था, लेकिन स्थानीय विद्यार्थी को वरीयता के निरंकुश प्रावधान के चलते उसका प्रवेश सागर विश्वविद्यालय में नहीं हुआ। वैकल्पिक व्यवस्था में रायपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में उसका प्रवेश ललित ने ही करवाया। हालांकि अंतत: उसने अपने प्रोफेसर की सलाह पर जियोलॉजी में ही एम.वी.एम. भोपाल से ही एमएससी. किया।
1983-84 में मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की एक परियोजना के अंतर्गत मैं छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों में मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र, प्रगतिशीलता के प्रतिमान आदि विषयों पर व्याख्यान दौरे पर था। रायपुर में मेरे व्याख्यान का आयोजन ललित ने ही करवाया था। 1985 से 1990 तक मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की मुख-पत्रिका के संपादन के दौरान भी ललित का भरपूर सहयोग मिला। भवभूति अलंकरण के अलंकरण पट्ट-ताम्र पत्रों में प्रशस्ति पत्र आदि को उत्कीर्ण करवाने का काम भी ललित के जिम्मे था। और 1986 में मेरी बड़ी बेटी मनीषा के जगदलपुर में विवाह के अवसर पर मायाराम जी के आशीर्वाद लेकर ललित ही आए थे। … इन सबको याद करके मैं पशेमानी भी महसूस कर रहा था कि मेरी वजह से खामखाँ मायाराम जी और ललित को अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ा। बहरहाल जो हो चुका था उसे रद्द तो किया नहीं जा सकता था।
16 दिसम्बर 1997 का ललित का एक खत है: लघु कथाओं पर आपका साक्षात्कार अक्षर पर्व (मासिक) के प्रथम अंक के लिए एकदम उपयुक्त और प्रासंगिक है। लघु पत्रिकाओं के बारे में आपके विचारों से भी मैं स्वयं को सहमत पाता हूं। कोचीन विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर श्री अरविन्दाक्षन के विद्यार्थी मधु वासुदेवन ने अपनी शोध-परियोजना के अंतर्गत लघुपत्रिकाओं पर मेरा एक साक्षात्कार लिया था। उसे ही ललित ने अक्षर पर्व के प्रवेशांक में छापा था- लेकिन साक्षात्कार के रूप में नहीं, प्रश्नों को हटाकर लेख की शक्ल में। कोई और होता तो मैं उसका तीखा प्रतिवाद करता, लेकिन ललित ने उसका ऐसा सुन्दर सम्पादन किया था कि मुझे भी लगा कि साक्षात्कार से बेहतर तो लेख ही हो गया है।
देशबन्धु (दैनिक) के साथ अक्षर पर्व (मासिक) के सम्पादन से ललित ने साहित्यिक पत्रकारिता की शानदार परम्परा की निरन्तरता कायम की। महावीर प्रसाद द्विवेदी और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की सरस्वती, प्रेमचंद और अमृत राय के हंस, अज्ञेय के प्रतीक, नरेश मेहता की कृति बदरी विशाल पित्ती की ‘कल्पना’ और रमेश बक्षी के ‘ज्ञानोदय’ की परम्परा में अक्षर पर्व एक नया संस्कार और नवाचार लेकर आया।
वर्ष 2000 में हरिशंकर परसाई पर लिखे गए अपने लेखों के पुस्तकाकार प्रकाशन के सिलसिले में मैंने परसाई के व्यक्तित्व की समग्रता में पेश करने के मकसद से उनके 67 (सड़सठ) पत्रों के आधार पर एक लंबा आलेख खुतूत की नुमायाँ परसाई लिखा और इसे ललित को इस निवेदन के साथ भेज दिया कि वे चाहें तो इसे किश्तों में छाप सकते हैं। ललित का विचार था कि किस्तों में छापने पर उसका समेकित प्रभाव नहीं पड़ेगा, अत: वह पूरा का पूरा अक्षर पर्व के एक ही अंक रचना वार्षिकी: (जून-जुलाई)2000 में पृष्ठ 123 से 144 तक पूरे बाईस पृष्ठों में प्रकाशित हुआ। ललित ने उसे पत्र-संवाद लिखा। सितम्बर 2000 के अक्षर पर्व उस पर अनुकूल और प्रतिकूल आठ दस प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हुईं। प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं पर स्पष्टीकरण देने की मेरी पहल पर ललित ने कहा- कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। क्या जरूरी है उनकी हर बात का जवाब देना?
11 जनवरी 2001 के पत्र में ललित ने लिखा: पहले बधाई लें। परिभाषित परसाई पुस्तक पूरी नहीं पढ़ पाया हूं। शुरू के तीन अध्याय पढ़ लिए हैं। शैलेष मटियानी प्रसंग भी। व्यंग्य का रचना शास्त्र बेहद सुलझा हुआ, सटीक लेख है। मुझे अक्षर पर्व के पहले अंक में प्रकाशित आपका लेख याद आ गया। व्यंग्य को आपने हास्य से इस बारीकी से अलग कर दिया है, जैसे सर्जन के चाकू से अपेंडिक्स अलग कर दिया हो। मैंने पुस्तक में शैलेष मटियानी की जगह शैम का प्रयोग किया है।
डॉ. श्याम कश्यप ने 12 दिसम्बर 2007 के पत्र में लिखा है मैं हालांकि शैम को पहचान नहीं पाया, पर इससे क्या फर्क पड़ता है कि व्यक्ति कौन है, यह तो हिन्दी साहित्य संसार की एक प्रवृत्ति है और आपने इसकी अच्छी खबर ली है।लेकिन ललित ने इसे पहचान लिया जो इस बात का साक्ष्य है कि समकालीन हिन्दी साहित्य के परिदृश्य पर ललित की नज़र कितनी पैनी और वेधक थी। 2003 में मेरी पुस्तक लेखक की आज़ादी प्रकाशित हुई। इसके समर्पण-पृष्ठ की इबारत है: मायाराम सुरजन की याद में ललित सुरजन को सस्नेह। 21 अगस्त 2003 के पत्र में ललित ने लिखा लेखक की आज़ादी का पुरोवाक मैंने पढ़ लिया है। अंतिम लेख भी। बीच-बीच में कुछ अन्य निबन्ध भी। संकलन की शक्ल में यह तीखी, तल्ख सच्चाइयों से लबरेज डब्ल्यू.एम.डी. (वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन) की तरह सामने आई है। यह इस सवाल का भी एकमुश्त उत्तर है कि धनंजय वर्मा को गुस्सा क्यों आता है। सुविधाओं के लिए समर्पण करने वालों के लिए आपका यह निबन्ध संग्रह बहुत असुविधाजनक होगा। पुरोवाक् का यह अंश काबिले जिक्र है: क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारी बातें अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचें ? मायाराम जी का सवाल था। वे हम लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि हमारे सैद्धान्तिक और साहित्यिक, दार्शनिक और चिन्तनपरक लेखों को आम पाठक तक पहुंचाने के लिए न केवल उन्हें संक्षिप्त होना चाहिए बल्कि उनका भाषायी सम्भार भी हल्का करना ज़रूरी है। उनकी प्रेरणा और पहल पर ही सम्मेलन की विचार आलेख सेवा शुरू हुई थी जिसके अन्तर्गत लिखे गए निबन्धों की मेरी दो पुस्तकों में से यह पहली पुस्तक थी। उसका अंतिम लेख मायाराम जी पर है- साहित्य और पत्रकारिता का संगम।
सामान्यतः मैं अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में लिखने या बतियाने से परहेज करता हूं लेकिन 2006 में भोपाल के एक स्थानीय समाचार पत्र ने अपने एक स्तम्भ के जरिए लेखकों के आत्मकथात्मक लेखों की एक श्रृंखला शुरू की। शर्त यह थी कि दो-दो टाइप्ड पृष्ठों की चार किस्तों में आपकी समग्र आत्मकथा समेट ली जाए। स्तम्भ के प्रभारी युवा-लेखक-पत्रकार ने मुझसे भी अनुरोध किया। शब्दों की दी हुई सीमा में बंधकर लिखने से मैं हमेशा बचता रहा हूं, फिर भी मैंने कोशिश की और अपनी यादों की कूचगर्दी को उनवान दिया – धिक जीवन को, जो पाता ही आया विरोध।आलेख भेजने के बाद दो-तीन महीनों इंतज़ार किया। पता चला- संपादक महोदय ने वह स्तम्भ ही स्थगित कर दिया है। मैंने उसे अक्षर पर्व के लिए भेज दिया। ललित का, 20 अक्टूबर 2006 का खत है:आपका संस्मरण-;धिक जीवन को, जो पाता ही आया विरोध। हम देशबन्धु के अवकाश अंक में प्रकाशित करेंगे ताकि छत्तीसगढ़ के गैर साहित्यिक नागरिक भी इसे पढ़ सकें। इस वृतान्त में ऐसा बहुत कुछ है जिसे साहित्य की दुनिया के बाहर रहने वालों को भी जानना-समझना चाहिए।
समावर्तन के सितम्बर 2015 अंक के चिट्ठी-पत्री स्तम्भ में ललित सुरजन का यह पत्र छपा- मैं समावर्तन में सबसे पहले धनंजय वर्मा की पत्र-कथा पढ़ता हूं। इस (अगस्त 2015) अंक में वे एक छोटी सी चूक कर गए। 1975 में न तो अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे आर न उस समय कोई परसाई-जोशी विवाद हुआ था। आशा है, वे आगामी अंक में वस्तु-स्थिति स्पष्ट करेंगे। इसी संदर्भ में एक और अनुरोध है- वे अन्यों द्वारा उन्हें लिखे गए पत्र प्रकाशित कर रहे हैं, पर स्वयं उन्होंने क्या लिखा था क्या उत्तर भेजा, वह भी प्रकाशित होता तो बात पूरी बनती।
मैंने समावर्तन (अक्टूबर 2015) में उत्तर दिया-;आप;समावर्तन में सबसे पहिले मेरी पत्र-कथा पढ़ते हैं, आपकी इस नवाजिश का शुक्रिया। एक चूक हो गयी, छोटी-सी नहीं बड़ी भारी ! लिखने की रौ में लापरवाही हो गयी। इसका वाकई खेद है। याद आया- तब तो अर्जुन सिंह शिक्षा मंत्री भी नहीं रहे थे। भोपाल में युवराज संजय गांधी की रैली के बाद, सर्किट हाउस में उनका दरबार लगा था। उसमें अशोक वाजपेयी के निर्देशानुसार बुद्धिजीवियों के डेलिगेशन की ओर से संस्कृति पर उनका लिखा ज्ञापन सौंपने, जब सत्येन कुमार के साथ मुझे उस दरबार में हाजिर होना पड़ा था तब देखा था- पूर्व मुख्यमंत्री पी.सी. सेठी एक अंधेरे-से कोने में खड़े थे और युवराज के साथ बहैसियत मुख्यमंत्री-श्यामाचरण शुक्ल थे।…परसाई के वक्तव्य पर शरद जोशी ने अपना एतराज जताया था- कार्यक्रम के बाद- अशोक वाजपेयी के बंगले की लॉन पर-भींगती शाम-वेट डिनर के दौरान, दोनों में विवाद हुआ था।
ललित सुरजन के पत्रों को पेश करने का मकसद खुदा के वास्ते, आत्मश्लाघा न समझा जाय। दरअसल, ये पत्र सनद हैं तो मेरे प्रति ललित के स्नेह-सम्मान, सद्भाव और सदाशयता की।…जून 2017 में मेरी बड़ी बेटी मनीषा महापात्र मुझे अपने साथ रायपुर ले गयी। अगस्त के पहले हफ्ते तक वहीं रहा। एक दिन ललित से मिलने का कार्यक्रम तय हुआ। बेटी मुझे पहुंचाकर अपने किसी काम से चली गयी। ललित स्वयं मुझे लेने नीचे आए। छड़ी और उनके सहारे सीढ़ियां चढ़कर हम दफ्तर पहुंचे। मायाराम जी की यादों के साये सारा वक्त मंडराते रहे। लेकिन चेहरे-मोहरे, बोली-बानी में मायाराम जी का चेहरा सुपर इम्पोज़ होता रहा। देर तक बातें होती रहीं। ललित बार-बार मुझे अतीत से निकालकर वर्तमान में लाते रहे। लेकिन वर्तमान भी तो हर पल अतीत में समाता जा रहा है। वह व्यतीत होकर हमेशा के लिए विद्यमान होता जा रहा है।
बेटी के वापस आते ही मैंने ललित से विदा ली। ललित भी कुछ भावुक हुए। मुझे क्या मालूम था कि उनसे यह मेरी आखिरी मुलाकात है। कैसी विडम्बना है कि अब ललित के लिए भी थे का प्रयोग करना पड़ रहा है। वो जाने किसका शेर है:
कहानी है तो बस इतनी है, इस फ़रेबे-ख्वाबे हस्ती की,
कि आँखें बन्द हों और आदमी, अफसाना बन जाए!
मार्फ़त डॉ. निवेदिता वर्मा,
एफ 2/31, आवासीय परिसर,
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन- 456 010,
मो.: 094250 19863,
महेश कटारे
ललित सुरजन-पत्रकारिता में जाना पहचाना नाम। बड़े – बड़े नामचीन लोगों से परिचय। पता नहीं उठक – बैठक कितने बड़ों के साथ रही होगी। शायद ऐसे बड़े कम ही होंगे, क्योंकि ललित सुरजन ने पत्रकारिता के मिशन को अपने पिता के देहांत के बाद भी न तो उद्योग या व्यवसाय में बदला, न ही उसे किसी कारोबार की बैसाखी ही बनाया। … तो इस आदमी ने धन भले ही कम कमाया हो, अथाह प्रतिष्ठा ज़रूर कमाई। ललित सुरजन से मेरा परिचय पत्रकार नहीं, कवि के रूप में हुआ था, और वही बना भी रहा। गौर वर्ण, खुलते हुए कद वाले लगभग हमउम्र, थोड़े गंभीर और वरिष्ठ लेखकों की सेवा में तत्पर इस युवक को मैंने रायपुर में पहली बार तब देखा था जब म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के प्रांतीय अधिवेशन के लिए हम सब जगदलपुर जा रहे थे। छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख अखबार – देशबन्धु के मालिक – संपादक मायाराम सुरजन का पुत्र छोटे से बड़े लेखकों की सुविधा और परिचर्या में भाग दौड़ करता हुआ। मैं भी प्रलेस में नया था, इतना कि प्रो. कमला प्रसाद यदि हमें झाड़ू लगाने, फर्श बिछाने-उठाने जैसा काम भी सौंप देते तो दायित्व के गर्व से भर जाते। तब मेरा परिचय ललित सुरजन से नहीं हो पाया था।
हमारा असल परिचय हुआ इप्टा के प्रांतीय अधिवेशन में, जो कुछ वर्षों बाद रायपुर में हुआ। इन अधिवेशनों में रचना-कर्म, साहित्यिक मान्यताओं और उत्तरदायित्वों को लेकर बड़ी टक्करें होती थी। लगता था कि साहित्य ही नहीं। देश के भविष्य पर भी सब यहीं, इसी बैठक में तय हो जाएगा। इन टक्करों की चिंगारियां, यदा-कदा लपटें भी हम नये लोगों तक भी आ पहुंचतीं। लगता था कि क्रांति तो आसपास ही टहल रही है, हमें तो बस उसका हाथ पकड़कर अपने द्वार या कविता – कहानी तक लाना है। खैर…
रायपुर तब संभागीय मुख्यालय और एक प्रमुख नगर तो था… महानगर और राजधानी नहीं बना था। हां छत्तीसगढ़ में राजधानी जैसा ही था और सन 2000 में मध्यप्रदेश के विभाजन के उसे वो दर्जा हासिल भी हो गया। रायपुर की सबसे अधिक दूरी शायद हम ग्वालियर वाले ही तय करते थे। ग्वालियर, प्रदेश के उत्तरी छोर पर और रायपुर दक्षिणी कोने की ओर। अधिवेशन के अंतिम दिन इप्टा का कोई नाटक होना था उसके अगले दिन हमें ट्रेन मिलनी थी।
रायपुर की एक प्रसिद्धि और थी कि वह शुक्ल बंधुओं का शहर था। श्यामाचरण शुक्ल कदाचित राजिम से प्रतिनिधित्व करते थे। प्रदेश की सत्ता पर कांग्रेस का वर्चस्व था और कांग्रेस में शुक्ल बंधुओं की तूती बोलती थी, जिसे अब विंध्य से अर्जुन सिंह और मालवा से प्रकाशचंद सेठी मंद कर रहे थे। छत्तीसगढ़ में भी मोतीलाल वोरा उभर आये थे। वामपंथियों के निशाने पर तब जनसंघ या भाजपा नहीं, कांग्रेस होती थी और कांग्रेस ने ‘निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय’ की तर्ज पर वामपंथियों को साहित्य, संस्कृति का ‘खेल मैदान’ संभला दिया था और इसमें संदेह नहीं कि वामपंथियों ने इसे राज्य से केंद्र तक बखूबी संभाला हुआ था। इप्टा तो अपने जन्म अर्थात सन 1943 में अंग्रेजी राज से ही जनता के सांस्कृतिक मंच के रूप में विख्यात हो चुका था। इस आयोजन की देशबन्धु में भरपूर रपटें छप रहीं थी…। एक अखबार और था वहां, जिसका नाम स्मरण में नहीं है… कुल मिलाकर आयोजन की पर्याप्त चर्चा थी।
पूर्व के रायपुर पड़ाव और इस यात्रा के बीच इतना अंतर था कि रायपुर में अब मुझे भी बाबूजी यानि मायाराम सुरजन और प्रभाकर चौबे नाम से जानने लगे थे। मैं म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दो रचना शिविरों में भाग ले चुका था। किसी कार्यक्रम के संदर्भ में मेरा नाम भी देशबन्धु में छप गया था और उन दिनों अखबार में छपा नाम थोड़ा-बहुत महत्वपूर्ण हो जाना लगता था। बहरहाल उस आखिरी शाम को एक आदरणीय ने पूछा- देशबन्धु कार्यालय चल रहे हो? वहां दो रिक्शे खड़े थे जिसमें सवारियां तीन थीं यानि एक कोई और साथ लिया जा सकता था। ये हमारे वरिष्ठ लोग थे। सबके चेहरों पर आयोजन के सफल, विधिवत संपन्न होने की आश्वस्ति व प्रसन्नता थी। ऐसे में आदमी स्वयं को थोड़ा मुक्त कुछ हल्का सा अनुभव करता है। मैं तुरंत उसके साथ सवार हो गया और हम लोग रामसागरपारा स्थित देशबंधु परिसर जा पहुंचे। छत्तीसगढ़ में पारा छोटे गांव-कस्बे या बड़े मोहल्ले को कहा जाता है।
प्रभाकर चौबे वहां नहीं मिले,हालांकि इप्टा के आयोजन में भी वह बहुत सक्रिय रहे। ललित जी सबको अपने कक्ष में ले गए। स्मरण नहीं कि वह भूतल पर था या प्रथम तल पर। वहां चाय पीते हुए कार्यक्रम बना कि नाटक के समय तक कहीं बैठ लिया जाए, जिसमें कुछ सुनना-सुनाना हो सके। देशबन्धु परिसर में यह बैठक हो नहीं सकती थी क्योंकि वह एक वैष्णव परिसर है। तय हुआ कि घंटे – आध घंटे ही तो बैठना है तो वहीं बैठ लेंगे। ‘वहीं’ का आशय था रायपुर की सड़कों के किनारे बने झोपड़ीनुमा रेस्तरां, जिनमें आर्डर देने पर खाना भी मिल जाता था। एकाध टेबिल दो- चार कुर्सियों या स्टूल होते या एक-दो बैंच। ज़मीन पर चटाई व्यवस्था तो रहती ही थी। प्राय: झोपड़ी रेस्तरां के मालिक का परिवार भी वहीं या आसपास बसा होता।
कार्यक्रम स्थल से कुछ ही दूरी पर स्थित ऐसे ही एक रेस्तरां पर हम सभी आ उतरे। ललित जी व चौबे जी दोनों ही प्रगतिशील वैष्णजन थे, पर आतिथ्य की व्यवस्था ललित जी की ही थी… रायपुर उनका शहर था। शीघ्र ही गोष्ठी जम गई। रेस्टोरेंट मालिक तत्परता से सेवा में जुट गया और मालकिन मुदित मन से पकौड़ियाँ तलने में व्यस्त हो गई। उस गोष्ठी में प्रभाकर चौबे जी ने अपना व्यंग्य सुनाया था और ललित जी ने जो कुछ कविताएं। तब मेरे सामने यह भेद खुला कि इतने बड़े अखबार को संभालने वाला उम्र में मुझसे कुछ ही बड़ा यह व्यक्ति कवि भी है। इसके बाद मेरे मन की झिझक समाप्त हो गई। मैंने देखा और पाया है कि कोई कितना ही समर्थ, संपन्न, नेता या नौकरशाह ही क्यों न हो साहित्य के आंगन में उतरते ही डीक्लास यानि वर्गहीन हो जाता है- वह एक बेहतर मनुष्य के रूप में नज़र आने लगता है। … फिर भी जो हाथी दांत की मीनार पर चढ़ा रहता है उसकी चारण भले ही स्तुति व परिक्रमा करे पर उसे प्रतिष्ठा नहीं मिलती। चारण तो पद से उतरने पर किसी दूसरे को पकड़ ही लेते हैं।
तो उस झोपड़ी रेस्तरां में हमने पहली बार हाथ मिलाया, मैंने उनकी कविताओं की प्रशंसा की, उन्होंने मुझसे देशबन्धु के लिए कहानी मांगी। देशबन्धु के साहित्यिक अंक की बहुत प्रतिष्ठा थी। मुझे लगा और शायद मैंने कहा भी था कि ललित जी की कविताओं पर मुक्तिबोध का प्रभाव है। मुक्तिबोध यूं भी प्रगतिशील कविता के आदर्श माने जाते थे- नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर और जिनका नाम अब प्रगतिशील भी भूल से गये हैं, वे शील जी मिलाकर पंज प्यारे हुआ करते थे कविता के। मैं आज भी मानता हूं कि ललित सुरजन की कविताएं अपने भीतर अनेक अर्थ छवियां और संदर्भ समेटे होती हैं। यथार्थ से मुठभेड़ का उनका अनुभवगम्य अहसास उनके प्रश्नाकुलता के बीच घटित होता है।
रायपुर जैसा ही एक संयोग एक बार इलाहाबाद में बना था। मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बाराती कक्ष में रुका था और ललित जी और चौबे जी वहीं निकट एक होटल में। मैं मिलने पहुंचा तो वह अकेले मिले। चौबे जी कहीं निकल गए थे। ‘चलिए वो आते हैं तब तक चाय हो जाए’- यह ललित जी का प्रस्ताव था। चाय पूरी हुई पर प्रभाकर चौबे की प्रतीक्षा बनी रही। ‘तो महेश जी आपको कुछ कविताएं सुनाई जायें’- यह दूसरा प्रस्ताव था। और चौबे जी के आने तक कविताओं का दौर चलता रहा। हम लोगों ने खाना भी सामूहिक नहीं, अलग होटल में खाया।
आशय यही कि साल दो साल में जब भी मुलाकात होती और अवकाश मिलता तो कविता हमारे बीच या साथ हो लेती। यूं मैंने उनके व्याख्यान भी सुने हैं। साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण व विरासत संरक्षण जैसे अनेक क्षेत्रों में उनकी रुचि और सक्रियता रही है। वह अच्छे वक्ता रहे। पर उनकी प्रशासकीय/व्यवस्थापकीय क्षमता के बारे में मुझे ज्ञान नहीं है- हाँ एक बार मैं हिन्दी सम्मेलन छत्तीसगढ़ के कार्यक्रम में गया था तो चाण्डक जी ने रेलभाड़े के साथ ऑटो भाड़ा जोड़कर लिफाफा दे दिया। ललित जी ने पांच सौ रुपये और दिलवाये। कहा- ‘भाई! लेखकों के कुछ और भी खर्चे होते हैं’।
– तो लेखकों से उनका व्यवहार निहायत दोस्ताना था। व्यावसायिक संबंध तो सैकड़ों लोगों से होंगे ही पर सुकून वे पढ़ने-लिखने वालों के साथ ही पाते थे। संपादक होने के नाते कलमगीरी उनका धर्म था और आजीविका भी। किन्तु वह तो कलम की हमाली रही होगी होगी, अपन मन रखने के लिए उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता की खिड़की खोल ली थी और वह थी ‘अक्षर पर्व’ में प्रस्तावना। मैं नहीं जानता कि इन्हें संग्रह का रूप दिया गया है या नहीं पर यदि ये पुस्तकाकार रूप में हो तो साहित्य के मूल्यवान दस्तावेज की भांति सहेजे जायेंगे। विशेषत: रचना वार्षिकियों और विशेषांकों की प्रस्तावना हमारी समग्र पीढ़ी के समय की रचनाधर्मी चिंता का दर्पण होने की संयुति (माद्दा) रखती है। इनमें ललित सुरजन का अपना रचनाकार खुलकर बोलता है।
एक यात्रा में जाते और लौटते हुए कार में हमारा दिनभर का साथ रहा जिसमें करने के लिए बस बातें ही बातें थीं, तब मैंने जाना कि उनके प्रिय कथाकार भीष्म साहनी हैंं। इनकी कहानी ‘पाली’ और नाटक ‘हानूश’ से तो ललित सुरजन इतने प्रभावित लगे कि वे ब्यौरेवार बोलते जा रहे थे। मैंने इन दोनों रचनाओं को पढ़ा था। ‘हानूश’ का तो दर्शक भी रहा था पर मेरे स्मरण में ये रचनाएं उस तरह न थीं जिस प्रकार डूबकर ललित बताते जा रहे थे। यूं तो जाने कहां से चर्चा में ‘जादुई यथार्थ’ भी आ गया था। वैसे तब साहित्यिक बहसों में फूको, जॉक देरिदा(विखंडनवाद) रोली वार्थ (पाठ की स्वायत्तता) गैब्रियल गार्सिया मार्खेज़ (जादुई यथार्थ) के बड़े बौद्धिक हल्ले थे। ललित जी ने बताया कि ‘जादुई यथार्थ’ का मतलब यह है कि वो जादू जैसा है, जादू नहीं है। वह भौतिक नियमों को ही प्रकट करता है जिन्हें न जानने के कारण हम या पाठक उसे अलौकिक समझ लेता है।
मेरा यह दावा कतई नहीं कि हम एक – दूसरे से अंतरंग रहे, पर उनके जाने के बाद स्मरण करने पर यह जरूर लगता है कि कोई-कोई मित्र ऐसी रिक्तता दे जाता है जो कभी नहीं भरती। वह व्यक्ति जाते हुए दुनिया को थोड़ी सूनी, थोड़ी अपंग सी बना जाता है और तब हमें उसका होना ज़रूरी लगने लगता है।
निराला नगर,
सिंहपुर रोड, मुरार
ग्वालियर- 474006
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मलय
मुझे ठीक से समय तो याद नहीं है-लेकिन जब मैं जबलपुर समाचार में काम करता था, तब हीरालाल गुप्त जी के जरिए मुझे मायाराम जी ने बुलाया और नौकरी दी। तभी या उसके बाद मैंने ललित सुरजन को जाना था। वे राजेन्द्र स्नेह के साथ रहा करते थे, जो जबलपुर समाचार में मेरी तरह ही नौकरी करते थे। उन्हीं दिनों की बात है जब मुक्तिबोध जी नागपुर से जबलपुर आए थे, उन्होंने शाम को राजनारायण मिश्र के सभापतित्व में साहित्यिक गोष्ठी का उद्घाटन किया था। यह जबलपुर नगर निगम के सभागार में हुआ था। उस समय मुक्तिबोध जी को पैरों में अपरस हुआ था, जिस पर वे रोज़ दाल बांधते थे। दूसरे दिन गोष्ठी श्री महेश दत्त मिश्र के घर पर हुई। तब वे भवानी प्रसाद तिवारी के बाजू में रहा करते थे। यहीं पर मुक्तिबोध जी ने अंधेरे में लम्बी कविता सुनाई थी। लेकिन इससे पहले इस कविता की रचना पर अपना वक्तव्य दिया था। इस गोष्ठी में जगदीश श्रीवास्तव और सुशील तिवारी ने भी भाग लिया था। गोष्ठी की रूपरेखा मायाराम जी के साथ ललित ने तैयार की थी। उस समय ललित महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर में अध्ययन करते थे। जब मायाराम जी जबलपुर से रायपुर चले गये तो ललित जी और राजनारायण मिश्र भी रायपुर आ गये। उस समय में दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में अध्यापन करने लगा था।
इसी समय भवानी प्रसाद मिश्र ने अपने सरला प्रकाशन दिल्ली से मेरी दूसरी कविता पुस्तक ‘फैलती दरार में’ में प्रकाशित की थी। इसकी भूमिका श्रीकांत वर्मा ने लिखी थी। ललित ने इस कविता पुस्तक की 30 प्रतियां मित्रों को बांटी और उसका पूरा मूल्य मुझे चुकता किया। परसाई जी मायाराम जी के साथ-साथ ललित सुरजन जी पर भी बहुत विश्वास करते थे, या यह कहें कि बहुत से निर्णय लेने में मायाराम जी व ललित का ही सहयोग लेते थे। यह उनका विश्वास ही था कि परसाई जी महीने डेढ़ महीने रायपुर में मायाराम जी के घर पर ही रहे। मायाराम जी और ललित ने उन्हें मुक्तिबोध सृजन पीठ, सागर विश्वविद्यालय जाने के लिए मनवा लिया था। इस तरह वे सागर मुक्तिबोध पीठ पर आरूढ़ हुए, मुझे भी अपने साथ ले गए। मैं उस समय शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, जबलपुर में प्राध्यापक था। मेरे प्राचार्य डॉ. एस.के. मिश्र ने मुझे 15 दिन का अवकाश प्रदान किया, जिससे मैं परसाई जी के साथ सागर रह सकूं। यहां यह कहना समीचीन होगा कि परसाई जी, मायाराम जी और ललित के बहुत नजदीक या परिवार के सदस्य की तरह ही थे। मायाराम जी के अनायास चले जाने पर परसाई मौन हो गये। भले ही उन्होंने डॉ. कमला प्रसाद के दबाव में आकर मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन की पत्रिका ‘विवरणिका’ में एक-डेढ़ पेज मायाराम जी पर लिखा, लेकिन बाद में कुछ नहीं लिखा। शायद इससे ललित का परसाई जी से थोड़ा विचलन हुआ था।
इसी तारतम्य में उन्होंने परसाई जी द्वारा लिखे डॉ. धनंजय वर्मा के पत्र को ‘अक्षर पर्व’ पत्रिका में प्रकाशित किया, जो एक वाद-विवाद का कारण भी बना। यह शायद मेरा दृष्टिकोण ही हो सकता है। असल में मायाराम जी के अपने विचारों और प्रगतिशील मूल्यों की छड़ी को ललित को दे गये थे। वास्तव में ललित, मायाराम जी के रास्ते पर ही चल पड़े थे या यह कहें मायाराम जी ने रायपुर आकर अपने दृष्टिकोण और मूल्यों की बानगी लेकर गुरु जी (श्री हरिशंकर शुक्ल) को तैयार किया। बाद में ललित जी का काव्य संग्रह ‘अलाव में तपकर’ प्रकाशित भी करवाया। वे चाहते थे कि ललित जी पत्रकार ही न रहें, बल्कि कवि या साहित्यकार के रूप में स्थापित हो जायें, तभी उनकी समक्ष और पैनी दृष्टि निरंतर सर्वहारा वर्ग के लिए नया रास्ता तैयार कर सकती है।
चूंकि मैं अपने आपको इसी परिवार का सदस्य मानता था और ललित भी मुझे उसी तरह महत्व देते थे। ऐसी कई गोष्ठियां हुई हैं, जिसमें मैं उनके परिवार के सदस्य की तरह ही शामिल था। रायपुर में एक साहित्यिक गोष्ठी रविशंकर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट रजिस्ट्रार श्री नंदकिशोर तिवारी ने रखी थी, मैं राजनांदगांव से इस गोष्ठी में पहुंचा था। इस गोष्ठी में तीन कवि- प्रमोद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ला और ललित सुरजन ने अपनी कविताएं पढ़ी थीं। मैंने इन तीनों पर अपना आलेख लिखा था, जो मेरी (रचनावली) में प्रकाशित है। मुझे याद है कि अमरकंटक में मप्र हिन्दी साहित्य सम्मलेन के रचना शिविर हुआ था, जो छह दिन तक चला। इसमें मेरे विद्यार्थी तरुण गुहा नियोगी ने सरई कहानी लिखी और उसका पाठ किया। इन शिविरों में ललित की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी।
इसी तरह कवर्धा में भी एक शिविर लगा था। जहां पर, सभी सुबह- सवेरे टहलने जाया करते थे। मायाराम जी स्वयं तो आठ बजे उठते थे। लेकिन हम लोग कमलाप्रसाद मैं स्वयं, ललित, राजेन्द्र शर्मा और रमाकांत श्रीवास्तव के साथ और भी लेखक सुबह की घुमक्कड़ी किया करते थे। और आते ही सभी को जगाते थे ताकि गोष्ठी समय पर शुरू हो सके। यहीं सुबह-सवेरे मैंने अपनी कविता ‘है हवा जमनी’ कविता सुनाई थी। इस समय, कमला प्रसाद, राजेश्वर सक्सेना, ललित और रमाकांत श्रीवास्तव भी उपस्थित थे। इस कविता को सुनते ही राजेश्वर सक्सेना ने कहा कि यह कविता मुक्तिबोध की नकल है। मैंने कहा कि मैं आपको पूरी कविता देता हूं, आप तैयार करके बताइए अगली गोष्ठी में। इस पर राजेश्वर कहने लगे कि उन्हें इसके लिए छह महीने चाहिये। इस समय इस टीका टिप्पणी में ललित भी अवाक रह गये थे। वे बात को अच्छी तरह जानते थे। वे सक्सेना जी की बात को ठीक नहीं मानते थे। इस तरह ललित जी हमारे बीच बने रहे, अपनी सहज धर्मिता, प्रगतिशीलता और रचनात्मक धर्मिता के साथ। बाद में वे मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के कोषाध्यक्ष भी हो गये।
ललित के कहने पर ही मैं रायपुर गया था, प्रसंग था प्रभाकर चौबे का छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सम्मान। मैं रायपुर पहुंचा, यह समारोह रविशंकर विश्वविद्यालय के सभागार में था। ललित जी इस कार्यक्रम के आयोजक थे। मैंने प्रभाकर चौबे जी को सम्मान दिया और फिर अपना वक्तव्य दिया, उस समय ललित भी मंच पर थे। उन्होंने मुझसे कविता सुनाने का अनुरोध किया, मैंने तीन चार छोटी कविताएं सुनाई जिसमें एक कविता मेरी पत्नी पर केन्द्रित थी। जिसने उन्हें प्रभावित किया। किन्तु श्री शरद कोकास के कहने पर मैंने लम्बी कविता भी सुनाई। इस पर ललित ने कहा कि पत्नी की सहज कविता के बाद आपको लम्बी कविता नहीं पढ़ना था। ललित का कहना बिल्कुल ठीक था, जो मैंने महसूस ही नहीं किया, बल्कि समझा भी।
यही वह समय था जब ललित ने मुझे राजनांदगांव आने के लिए विवश किया और मैं वहां गया भी। उसी समय दुर्ग में मैंने मित्र जीवनचंद कोठारी से मुलाकात की, राजनांदगांव में श्री एम.आर. काले, थान सिंह वर्मा और भारती डोल के श्री कन्हैयालाल अग्रवाल से भी मिला। बाद में ललित ने मुझे अंबिकापुर आने के लिए कहा, लेकिन मैं जा न सका, किंतु फोन पर उनसे अक्सर कई मुद्दों पर बातचीत होती रही। वे अंदर तक अपनी जीवटता, प्रगतिशीलता और सर्वहारा की प्रतिबद्धता से कभी दूर नहीं हुए, बल्कि और भी पक्के रूप से प्रतिबद्ध रहे।
विनोद साव
यह वर्ष 1990 की बात होगी जब मैं रायपुर में ‘देशबन्धु’ कार्यालय गया, जिसके स्वामी-संपादक ललित सुरजन थे। यह दादाजी पतिराम साव का प्रिय अखबार तो था ही और हम बचपन से इसे पढ़ते हुए बड़े हुए थे; अब इसमें छपने का अवसर आ रहा था। ललित जी से कथाकार परदेशीराम वर्मा ने परिचय करवाया।तब ललित जी ने पूछा था कि ‘आपकी विधा क्या है?’ उस दिन जाना कि साहित्य में कोई लेखक तब होता है जब वह किसी विधा विशेष में कलम चलाता है। उम्र तीस पार हो गई थी पर तब तक विधा का कोई अता-पता नहीं था केवल सामयिक संदर्भों में ही लेख लिखे जा रहा था।
आखिरकार मेरी व्यंग्यात्मक लेखन शैली को देखकर देशबन्धु के अवकाश अंक में उसे एक व्यंग्य रचना घोषित कर छाप दिया गया। फिर छपा.., फिर छपा और फिर छपा। और मुझे व्यंग्यकार समझा जाने लगा। तब देशबन्धु में हरिशंकर परसाई जैसे महान व्यंग्यकार के स्तंभ चला करते थे। उनके ‘सुन भई साधो’ व्यंग्य का एक स्तम्भ पहले छपा करता था। बाद में ‘पूछिए परसाई से’ जैसा एक ज्ञानवर्द्धक स्तम्भ धूम मचा रहा था। फिर व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे तो थे ही।
हर साल मनाई जाने वाली परसाई जयंती पर ‘एक बार मैंने पूछिए परसाई पर’ ही अपना वक्तव्य दिया, तब ललित जी ने उस स्तम्भ की पृष्ठभूमि बताई और यह बताया कि किस तरह परसाई जी ने सामान्य ढंग से पूछे जाने वाले प्रश्नों को अपने उद्भट और सरोकार युक्त ज्ञान से उसे लोकशिक्षण और जनमत निर्माण का एक अत्यंत उपयोगी स्तम्भ बना दिया था, जिसकी पाठक प्रतीक्षा करते थे। तब देशबन्धु लिक्खाड़ लेखकों का जमघट बना और अनेक लेखक वहां से स्थापित होकर निकले। ठीक वैसे ही जैसे पत्रकारिता के प्रशिक्षण का एक उत्कृष्ट केंद्र भी देशबन्धु प्रेस को ही माना गया। मायाराम सुरजन जी से मिली वैचारिक पत्रकारिता की विरासत का निर्वाह ललित जी ने भिन्न माध्यमों से अपने अंतिम समय तक किया।
ललित जी के विचारों पर परसाई का बड़ा गहरा प्रभाव दिखता था. वे अक्सर परसाई पर बोलते थे। विचारधारा और प्रतिबद्धता, अध्ययन और दृष्टि, ज्ञान और स्मरण शक्ति जैसी परसाई की खूबियों को ललित जी के भी चिंतन में चिन्हित किया जा सकता था। वे फोन पर कितनी ही बातें किया करते थे । . ललित सुरजन और उनके आजीवन सहयोगी प्रभाकर चौबे की वैचारिक चेतना में परसाई की प्रतिबद्धता, नेहरूवाद, उनकी वैश्विक राजनीतिक दृष्टि, उनका सामाजिक सरोकार और आंदोलनकारी रूप जब तब मुखर हो उठता था और वह उनके कर्मों में दिखता भी था। प्रभाकर चौबे के तो व्यंग्य स्तम्भ का नाम ही परसाई की पहली कृति ‘हंसते हैं रोते हैं’ के नाम से चला करता था। यह स्तम्भ २५ बरस तक चला जो संभवतः किसी अख़बार में लम्बा चलने वाला पहला स्तम्भ था।
लेखक होने की दिशा में मैंने अपने पैसे से जो पहली किताब खरीदी वह परसाई के संस्मरणों की किताब थी ‘हम इक उम्र से वाकिफ हैं’। इसमें परसाई जी ने एक जगह लिखा है कि ‘ललित सुरजन अपने बचपन से मेरा साथी रहा है’। परसाई और ललित जी की उम्र में बड़ा अंतर था। शायद यही कारण हो कि वे उन्हें अपना गुरु जैसा मानकर उनके विचारों से प्रेरित होते रहे। फिर ललित जी के प्रभाव में जो लेखक आए, उनमें भी यह वैचारिक प्रखरता दीख पड़ती थी।
लेखक समाज के लिए उनका यह ध्यानाकर्षण महत्वपूर्ण था कि ‘प्रेमचंद परसाई को निरंतर ‘कोट’ करते रहना चाहिए’। वे कहते थे कि ‘जब हम स्कूलों में जाते हैं तो वहां विद्यार्थियों में साहित्य के संस्कार डालने के लिए हमें ‘प्रेमचंद क्लब’ का गठन करवाना चाहिए। इसके माध्यम से ही स्कूलों में आयोजन संपन्न हों’। तब रवि श्रीवास्तव के साथ मिलकर भिलाई व अन्यत्र कुछ स्कूलों में ऐसा करवाने में हम लोग सफल भी हुए। प्रेमचंद जयंती में उन्होंने प्रेमचंद की चुनी हुई कहानियों का विद्यार्थियों द्वारा पाठ करवाने के लिए स्कूलों में भेजा और पाठ करवाया।
पत्रकारिता और साहित्य के बीच एक सशक्त सेतु थे ललित सुरजन। उन्होंने इन दोनों स्तरों पर खूब काम किया और लोगों को अधिकाधिक जोड़ा। वे छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे और उसके वैचारिक-साहित्यिक उद्द्रेश्यों को लेकर पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में आयोजन करते रहे।विशेषकर स्कूलों कालेजों में साहित्यिक शिविर के चार चार दिनों के आयोजन करवाते थे । इन शिविरों में विधा विशेषज्ञ लेखक आलोचक उपस्थित होते थे और छात्रों द्वारा प्रस्तुत कविता कहानियों के पाठ को सुनकर उन पर अपने विचार रखा करते थे। कविता पाठ के कई आयोजन सुदूर गांवों में ग्रामवासियों के बीच संपन्न किए जाते थे। यह विद्यार्थियों व ग्रामवासियों के लिए एक दुर्लभ और आल्हादकारी अनुभव होता था।
पत्रकारिता हो या साहित्य अपने कार्यक्रमों में समाज को बौद्धिक वैचारिक धरातल पर जोड़ने की बेचैनी को पत्रकारिता की डेस्क और साहित्य की टेबल के बीच उनमें बखूबी देखा जा सकता था… और ये छटपटाहट चाहे वे जितनी भी संस्थाओं से जुड़े रहे वहां बरक़रार रही। वे प्रगतिशील लेखक संघ, भारतीय सांस्कृतिक निधि (इन्टेक), शांति एवं एकजुटता समिति (एप्सो) या रोटरी क्लब जहां भी हों उनकी योजनाओं को जन-सरोकार युक्त और ज़मीनी बनाने की चेष्टा में वे हरदम लगे रहे। इन तमाम संगठनों में वे साहित्यकारों पत्रकारों को साथ लेकर जूझते रहे । .
इन सभी संगठनों में उनकी कार्य-योजना देखते बनती थी. कथाकार सतीश जायसवाल कहते हैं कि ‘हमारे आसपास सम्मेलनों कार्यकर्मों को संपन्न करने-करवाने में दो लोग बड़े दक्ष रहे हैं – कनक तिवारी और ललित सुरजन। इन दोनों के आयोजन कौशल में इनकी ‘माइक्रो प्लानिंग’ को देखा जा सकता है… फिर ललित जी तो और भी अनुशासनप्रिय और समय के पाबंद रहे। वे ‘मिनट-टू-मिनट’ कार्यक्रमों की प्रस्तुतियों को देखना चाहते थे। देर करने वाले किसी संचालक-संयोजक को झटक भी देते थे कि ‘यार… कौन सा तुम अपनी बेटी की शादी कर रहे हो जो लोगों का इंतज़ार करोगे… उनके नखरे उठाओगे’।
उनका व्यक्तित्व ऐसा खुशनुमा और चुम्बकीय था कि लोगों के बीच विशेषकर नौजवानों के वे यारबाश हो जाते थे। व्यवहार मधुर और मृदुभाषी। अपने विराट व्यक्तित्व के बावजूद वे सभा-स्थलों में छोटे बड़े काम को नहीं देखते थे और लोगों के यहां वहां पड़े जूठे गिलास-कप को भी उठाकर डस्टबिन में डाल दिया करते थे। वे लोगों का हाथ पकड़कर खिलाते पिलाते थे पर खुद खाते हुए कम दिखते थे। बल्कि समापन समारोह के बाद द्वार पर लोगों को विदा करने की ज़िम्मेदारी से डटे हुए दिखाई देते थे। महिला रचनाकारों के लिए कभी कोई विशेष सत्र का आयोजन करवाते थे तो उन्हें कार्यक्रम संयोजन की पूरी स्वतंत्रता देते हुए कि अपने ‘इस सत्र का विषय संचालन सब कुछ महिलाएं ही तय करें’। उन्होंने पत्नी व बेटियों को भी पढ़ने – लिखने और विचारपरक होने की प्रेरणा हमेशा दी। सर्वमित्रा से ‘अक्षरपर्व’ का संपादन करवाया, तरुशिखा फेसबुक में अपनी बौद्धिक प्रखरता के साथ चर्चा में हमेशा सक्रिय मिली।
वे संगठन के कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए अधिक यात्राएं तो करते थे पर उन्हें यायावरी का अलग से शौक भी बहुत था। देश-विदेश को घूमकर उन्होंने खूब देखा और वहां से आने के बाद अपनी यात्रा का वृत्तांत सुनाने में रस लेते थे। वे यात्रा वृत्तांत के अच्छे लेखक भी रहे। राजकमल प्रकाशन से उनका एक यात्रा-वृत्तांत छपकर आया। मुझे भी ललित सुरजन और ज्ञानरंजन ने यात्रा-वृत्तांत लेखन के लिए निरंतर प्रोत्साहित किया और इसलिए मेरे यात्रावृत्त ‘अक्षरपर्व’ और ‘पहल’ में प्रकाशित हुए। एक बार मैं सपत्नीक दुबई यात्रा पर था तब दिल्ली वाली फ्लाइट में ललित भैया मिले अपने दामाद के साथ। उन्होंने एयर होस्टेस से कहकर हमारे खाने के लिए उपमा भिजवा कर अपनेपन से हमें सराबोर कर लिया था। फ्लाइट में वे अपनी चेयर छोड़कर मेरे पास आ गए थे साथ यात्रा करने के लिए, फिर संकोच के साथ ये कह के उठ गए “अच्छा ठीक है तुम बहू के साथ ही रहो”।
ललित जी ने मेरे पहले यात्रा वृत्तांत ‘मेनलैंड का आदमी’ का ‘ब्लर्ब’ लिखा। यह साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। ‘पहल’ में छपे मेरे यात्रा वृतांत ‘कृष्णपक्ष के श्यामरंग’ को पढ़कर एक रात उनका फोन आया था… ‘हम समझते थे कि छत्तीसगढ़ में यात्रा वृतांत के हमीं एक लेखक हैं पर तुमने हमको भी पीछे छोड़ दिया’। फिर हा…हा…हा…करती उनकी उन्मुक्त हंसी सुनाई दी। अगर वे सामने हंसते हुए दिखते तब उनके मुंह में धवल दन्त-पंक्ति चमक उठती थी। एक बार हमारी बिटिया की शादी में वे माया भाभी सहित दुर्ग आए तब भी वे इसी तरह से बोल उठे थे.. कि ‘यार विनोद कौन बोलेगा कि तुम बेटी की शादी कर रहे हो.. हम समझते थे कि हमीं एक देवानंद हैं पर तुम भी हो’।
वे दो-टूक बोला करते थे चाहे सराहना हो या आलोचना। ऐसे कई मौके आए जब संपादक ललित सुरजन ने लेखकों को उनकी रचनाओं की कमियां भी गिनाईं। वे मतभेदों के बीच भी पूरी मस्ती में जिया करते थे लेकिन रचनात्मक, सार्थक और सरोकार युक्त जीवन के साथ। एक ऐसे समय में जब देश के वर्तमान घटनाक्रमों में उथल-पुथल की स्थिति मची हुई है तब उन पर बेबाकी से बोलने, अपनी राय देने और कुछ साहसिक पहल करने वाले ललित सुरजन की अनुपस्थिति तमाम रचनाकारों और संस्कृति-कर्मियों को खल रही है। वे विचार और सरोकार जगत की एक बड़ी शक्तिपीठ हो गए थे। यह समाज उनके विकल्प की बाट जोहेगा।
मुक्तनगर,
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रवि श्रीवास्तव
ललित भाई से मेरी पहली मुलाकात 1966 में हुई। जब वे कॉलेज के दिनों में रायपुर से “स्नातक” निकालते थे। उन्हीं दिनों राजिम से हम साथियों ने कृष्णा रंजन जी के साथ “बिम्ब” का प्रकाशन शुरू किया। वे अत्यंत कठिन दिन थे। शुरुआत हो चुकी थी। बिना रुके चलते रहे। इस निर्बाध सफर को 55 वर्ष बीत गए। पलक झपकते। लगता है कल ही की तो बात है महानदी में कितना पानी बहा। गंगरेल बांध बन गया। नया रायपुर, राजधानी बन गया। अभी तक आबाद नहीं हो पाई। लेकिन साहित्य की एकजुटता की फसल लहलहाती रही। उसने अकाल नहीं देखा। न सूखा, न अतिवृष्टि। मुंशी प्रेमचंद, मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई की परंपरा को साकार रूप देने में लगे रहे। यह तीनों ललित भाई के पसंदीदा साहित्यकार रहे। पंडित जवाहरलाल नेहरू सर्वप्रिय राजनेता। नई से नई किताब पढ़ने के शौकीन। पढ़ने का समय रोज ही निकाल लेते। कलम तो पत्रकार को रोज ही चलानी है। साप्ताहिक कॉलम लिखना ही लिखना है ।देश विदेश की यात्राओं का संयोग उनके जन्म कुंडली में था। दर्जनों देशों की यात्रा कर आए। जीवनसंगिनी अनेक यात्राओं में साथ रहीं। वे उनका का पूरा ख्याल रखते रहे। संस्मरण बांटने में कभी कोताही नहीं की। क्या-क्या याद किया जाए।
एक समय ऐसा भी था जब देशबंधु (तब नईदुनिया) सर्व सुलभ मंच था, अंचल के साहित्यकारों के लिए। रविवार का अवकाश अंक सबसे भेंट करा जाता। कविता हो या कहानी या व्यंग युवा प्रतिभाओं को सामने आने का पहला अवसर नई दुनिया में मिलता रहा। पहले पहल प्रकाशन पाने वाले अनेक साथी हैं, जो अब वरिष्ठ हो चले हैं ।उनके साथ हम मित्रों ने अनेक साहित्यिक यात्राएं की। क्या भूलूं क्या याद करूं। चर्चा, परिचर्चा, संवाद ,गोष्ठी व्याख्यान ,सम्मेलन, अधिवेशन कहां साथ नहीं रहा। वे यात्राओं को सहज बनाए रखने में माहिर थे। टूटती कड़ियों को जोड़ने में फेविकोल। बतरस के धनी। विनोद प्रिय। निंदा रस से दूर। समय के पाबंद। उनके पास संबंधों का जाल था। जिस का निर्वाह वे बखूबी करते रहे। जी जान से जुटने वाले भरोसेमंद साथियों की कभी कमी नहीं रही। लेकिन भरोसा तोड़ गए। ऐसा भी कोई जाता है ना हंसी ठिठोली। ना मेल मुलाकात की भरपाई। दिल्ली गए तो दिल्ली के होकर रह गए। जल्दी लौट कर आने का कह गए थे। वादा अधूरा ही रह गया। 2021 में होने वाले अलंकरण सम्मान समारोह का अभिनंदन पत्र लिख गए थे। ऐसी थी उनके काम करने की धुन। मलाल इस बात का है कि हमारे बीच से “हीरा” चला गया। चमक बरकरार रहेगी। यही तो ललित भाई की खासियत रही। हम मित्रों ने, उनके परिवार ने, एकबारगी अपना बहुत कुछ खो दिया, जिसकी पूर्ति संभव नहीं।
मध्यप्रदेश का बंटवारा हुआ। 1 नवंबर 2000 को नया छत्तीसगढ़ राज्य बना। जो साहित्यकार इस अंचल के सम्मेलन से जुड़े थे उन्हीं से 2001 में छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन बना। सर्वसम्मति से ललित भाई अध्यक्ष बने, मैं महामंत्री। 20 वर्ष गुजर गए, एक साथ काम करते। वह भी साहित्य का। जहां टकराव की स्थिति बनी रहती है। हमारे बीच कभी मनमुटाव नहीं हुआ। वैचारिक टकराव भी नहीं। एक ही मंजिल के राही। प्रतिबद्ध रहे। सबको साथ लेकर चलते रहे अनथक। यह सब ललित भाई की व्यवहार कुशलता, मृदुभाषिता, सूझबूझ और साफगोई से संभव हो सका। उनमें गजब की मिलन सारीता थी। ऐसा नहीं कि उन्हें गुस्सा नहीं आता था |आता रहा,लेकिन जल्दी ही सहज हो जाते। उनके भीतर कटुता के लिए कोई स्थान नहीं था। जिनसे वैचारिक तालमेल नहीं बैठता ,आदरयुक्त दूरी बनाये रखते। तभी वे एक सजग पत्रकार, सम्पादक व समाचार पत्र के प्रमुख होने के दायित्व का निर्वाह कुशलतापूर्वक कर सके। कवि होने का दंभ उन्होंने कभी नहीं पाला। लिखा भी खूब। दो चर्चित काव्य संग्रह आये, चार पांच यात्रा संस्मरण और निबंध संग्रह, पत्रकारिता पर एक किताब । कुछ संग्रहों की सामग्री तैयार कर गए।
ललित भाई स्वयं में एक संस्था थे। म.प्र के दिनों में प्रगतिशील लेखक संघ को गति देने में उनकी महती भूमिका रही। हर महत्वपूर्ण आयोजनों में उपस्थिति अनिवार्य रहती। अनेक शिविरों में उनकी भूमिका सूत्रधार की थी। फिलवक्त वे संरक्षक थे। छत्तीसगढ़ में इंटेक के विस्तार में पूरी निष्ठां व् लगनपूर्वक कार्य करते रहे। रायपुर,बिलासपुर,अंबिकापुर,खैरागढ़ ,सारंगढ़ ,दुर्ग-भिलाई चैप्टर इसके प्रमाण हैं, जहाँ निरंतर गतिविधियाँ संचालित हैं। राष्ट्रीय पदाधिकारी होने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ इंटेक के प्रमुख रहे। अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन ( ऐप्सो ) में उनका जुड़ाव शुरू से रहा। 2020 में समूचे छत्तीसगढ़ के प्रमुख शहरों में जिला इकाईयों का गठन हुआ। इस सिलसिले में अपने साथियों के साथ दौरा करते रहे। जनवरी 2020 में ऐप्सो का तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन रायपुर में हुआ। जो सम्मिलित हुए, उन्हें यह बताने की ज़रूरत नहीं कि कितनी गरिमा के साथ पूरे तीन दिन विचार-विमर्श होते रहे। अनेक विदेशी प्रतिनिधि भी सम्मिलित हुए। आयोजन रायपुर के लिए माइलस्टोन है।
लिखने के लिए बहुत कुछ है। ललित भाई युवा रचनाकारों को सामने लाने के लिए हमेशा कोशिश में रहते। छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन ने अनेक युवा रचना शिविर किये। प्रतिभाएं सामने आई|उचित मार्गदर्शन मिला। हालांकि ऐसे शिविर खर्चीले रहे,बजट से लगभग बाहर। लेकिन सहयोग मिलता रहा, शिविर होते रहे। कवि सम्मेलनों की गिरती साख को बचाए रखने के लिए भी सम्मलेन ने प्रयास किया। हर वर्ष भारत कोकिला सरोजिनी नायडू के जन्मदिवस की पूर्व संध्या “गीत यामिनी” का आयोजन होता है। अनेक शहर कस्बों में यह आयोजन हुआ, बीस वर्षों से इसकी निरंतरता बनी हुई है। अनेक नवोदित प्रतिभाएं सामने आई। पिछले सात वर्षों से “चलो गाँव की ओर” नाम देकर गीतयामिनी ग्रामीण कस्बों में हो रही है। खैरागढ़ के साथियों के सहयोग से इटार से लेकर भदेरा (पैलीमेटा) तक। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद ललित भाई अपनी उपस्थिति देते रहे। हमेशा भाभी जी साथ आईं। छत्तीसगढ़ के तमाम गीतकार हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के भाग ले चुके हैं।
इसमें अतिथि लेखक के नाम से भी एक आयोजन होता है। वह अपनी विधा पर बातचीत करे, उसका रचना पाठ हो। संस्था उनका व्याख्यान रखे। स्थानीय साहित्यकारों से वैचारिक आदान-प्रदान हो, आत्मीयता बने। आसपास के मनोरम या पुरातत्व महत्व के स्थल भ्रमण करावे। इस सोच के साथ अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकार आमंत्रित किए गए। एक और अभिनव योजना है- युवा व प्रतिष्ठित कवियों का एकल काव्य पाठ या कहानी पाठ। इसे भरपूर सराहना मिली। इसके अलावा हर वर्ष किसी न किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार की जन्म शताब्दी आती है। सम्मेलन उनके समग्र मूल्यांकन को ध्यान में रखकर एक प्रभावी व्याख्यान अवश्य रखता है। जन्म शताब्दी का आयोजन मुख्यालय के अलावा विभिन्न इकाइयां अपनी सुविधानुसार करती हैं। प्रबंधकारिणी की बैठक हर तीसरे माह होती है। जिनमें साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों को आमंत्रित करते हैं। ऐसे अवसर पर किताबों का विमोचन और उस पर संक्षिप्त टिप्पणी भी कार्यक्रम में शामिल होते हैं। यह सब बताने का मकसद इतना ही है कि सम्मेलन यह सब कार्य कागज़ों पर नहीं, हकीकत में करता है।
ललित भाई की सक्रियता संस्था को सोने नहीं देती। अपनी व्यस्तता के बावजूद साहित्यिक परिवार से उनका अटूट संपर्क बना रहता। है न हैरान करने वाली बात। वे 2 दिसंबर को चले गए लेकिन ,कार्ययोजना जनवरी तक की बना गए थे। 12 फरवरी गीत यामिनी के लिए खजरी { दिलीपपुर } खैरागढ़ के निकट तय हो चुका था। यह उनकी कार्यशैली थी जो सभी साथियों को चैतन्य बनाए रखती। हर गुरुवार उनकी प्रतीक्षा रहती। अपने कॉलम में कुछ नया लेकर आते। खुशी की बात है कि बिटिया सर्वमित्रा ने “दुनियादारी” शीर्षक से लिखना शुरू किया है। वही तेवर, वही अंदाज़।
और अंत में खैरागढ़ से लेकर राजनांदगांव, दुर्ग- भिलाई, बालोद ,रायपुर, राजिम, धमतरी ,कांकेर और जगदलपुर तक। अंबिकापुर से रायगढ़, कोरबा, जांजगीर, बिलासपुर ,कवर्धा ,बेमेतरा, बसना, सारंगढ़ और बागबाहरा तक हमारी सक्रिय इकाइयां हमारा संबल है। ललित भाई का हंसता, मुस्कुराता, अनुशासन प्रिय चेहरा हमेशा साथ बना रहेगा। उनके साथ चलने का सुख अपार है।
मो. 093005 47033
ओम भारती
‘लोग होली से पहले आते थे
और मित्रता के रंग में भीगने की
कामना के साथ
टेसू के फूल
तोड़कर ले जाते थे…
वृक्ष उनके लिये खुद को लुटा देते थे’
(ललित सुरजन की कविता ‘वृक्षमित्र’ से)
दिल्ली के चिकित्सकों को जब यह पता लगा कि मेरे हमख़याल-हमआवाज़ ललित की ज़िन्दगी की कीमती किताब के पृष्ठ भीतरी ख़राबी से ग्रस्त हैं, तब बहुत देर हो चुकी थी। प्रवीर ललित के ओजस्य को वह चित्रित तो क्या बाधित भी नहीं कर सकी थी। दुर्भाग्य कि वे अपनी वय के आठवें दशक के मध्य- जिसे अमृत वत्सर कहा जाता है- कैंसर के कब्जे में पाये गये, यह कर्कट रोग अभी भी असाध्य या दुर्दम्य है। एक दिसम्बर 2020 के ‘देशबन्धु’ के लिये ललित जी ने अंतिम संपादकीय कलमबंद किया और दो दिसम्बर की देर शाम में वे अनंत निद्रा की अपरिवर्तनीय यात्रा पर निकल गये, ‘वापसी नहीं’ की शर्त वाले किसी दूर-सुदूर तट पर जा पहुंचे।
कवि एच.डब्ल्यू लॉन्गफ़ेलो ने लिखा था कभी, कि हमारे हृदय ‘मफल्ड ड्रम्स’ यानि मोटे कपड़े में लिपटे हुए ढोलक हैं जो अंत्येष्टि की ओर दबी आवाज़ में कूच कर रहे हैं। लोग कहते हैं कि आदमी मुश्तेखाक़ ही तो है, कोई उसे माटी का चोला बताते और गाते हैं। मैं नाटक दर्शन की शरण नहीं ले रहा है। मृत्यु एक तथ्य है, सत्य है, दुर्निवार क्षति है, कवि-शायर भले ही निधन या इंतकाल को निरर्थक शब्द कहें, जगत में प्रवेश एवं निर्गम को छल वर्णित करें, वह है तो हकीकत। ललित सुरजन की सुदर्शन, शुभदर्शन, ‘अलाव में तपकर’ कुन्दन हुई काया अब हमें नहीं दिखेगी। ऊपर जिस सम्पादकीय का ज़िक्र मैंने किया है, उसमें उन्होंने कवि येट्स की उक्ति उद्धृत की थी- ‘थिंग्स फॉल अपार्ट, द सेन्टर कैन नॉट होल्ड’ इस पंक्ति का अभिप्रेत-अभिप्राय आज मैं यूं लेता हूं कि कैंसर के सामने उनके जीवन का केन्द्र नहीं टिक पाया। मुझे लगता है कि ललित (विलियम बटलर येट्स के ही लफ़्ज़ों में) गर्व के साथ खुली आंखों से हंसते हुए ही गए होंगे।
हम लोग बीती सदी की खुशनुमा सुदी से नई सदी की हौलनाक बदी में आ पहुंचे जीव हैं और चन्द महीनों से ही तो मानो बहुल दोषा अमावस्या के ‘तिमिर में तैरती अंधी मछलियां हैं, कौन जान सकता था कि कभी इस तरह भी जीना होगा।’ ‘ताला नीचे’- वाले इस कोविद-काल में (जिसकी ताली किसी के पास नहीं) न तो मैं मित्र और भाई ललित को कंधा दे सका, न ही उनकी आखिरी झलक ले सका। लिहाज़ा मेरे लिये तो वे मेरी अंतिम साँस तक जीवित हैं, और यह वाक्य कि ‘डेथ इज़ ए कंटिन्यूएशन ऑफ लाइफ’ एक कड़वे सच तथा मीठे झूठ के मानिन्द मेरे लोकपार होने तक मेरा संगी बना रहेगा।
‘डाउन द मेमोरी लेन’- यादों की गली में जाता हूं तो ध्यान में आता है कि ललित सुरजन सचमुच प्रियंवद थे, ‘मैं ही मैं’ चीखने वालों का प्रतिध्रुव थे, अहम्वद नहीं थे, अजात-शत्रु, शत्रुरहित कहना किसी को भी एक ‘फिक्टिशॅस’ भ्रामक विशेषण लगाना है, हाँ ललित सभी के सुमित्र-सर्वमित्र- बेशक थे (उनकी बेटी का भी नाम सर्वमित्रा है), जो भी उनसे मिलापी हुआ, उनके मैत्री-वलय में आ गया, ऐसी हर दिल अज़ीज़ शख्सियत के मीर, अमीर थे वे। धवल दन्तराशि वाली उनकी स्मिति तथा हँसी उनसे व उन पर फबती थी, सुहाती थी। वे हरसिंगार के पुष्प पसंद करते थे (हरसिंगार के हिन्दी में रात की रानी, पारिजात, शेफाली, शेफालिका… नाम भी चलते हैं) इसकी पंखुड़ियां सफ़ेद होती हैं और डंठल नारंगी। ये रात में खिलते हैं, सुबह होने तक झर जाते हैं। शक है कि वे भी दो दिसम्बर की रात में रोते रहे होंगे। (इस औषधीय पौधे को दुखों का पेड़ (वीपिंग ट्री) भी कहा गया है)।
खैर, ललित का जीवनोदय तत्कालीन ‘सी.पी. एंड बरार’ (अब महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र) में हुआ था। मराठी अखबारों ने उनके देहावसान को ‘पत्रकारिता ची मोठी हानी’ परिलक्षित किया, उन्हें ‘पुरोगामी विचारवंत, लेखक, कवि, आणि ज्येष्ठ पत्रकार’ निरूपित किया। कुछ आयाम छूटे हैं, किन्तु क्रम से मैं सहमत हूं, फिर, समाचार की अपनी सीमाएं भी होती हैं। वे एक ‘टॉप चीफ़ एडिटर’ थे, वास्तविक सम्पादक, निष्पादक, निर्माता थे। उस ‘रोल’ में उनका अंतिम आलेख- ‘हैदराबाद के सन्केत’ ‘समय के साखी’ लिखने वाले के एक ‘फाइनल’ दस्तावेज़- सा ज़ेहन में है (गवाही देता हुआ कि ललित अत्यंत प्रमित नपी-तुली बात करते थे, प्रविचय-छानबीन-करके, मीज़ान मिलाते हुए लिखते थे, बतौर प्रधान संपादक, पत्र-पत्रिकाओं को उन्होंने प्रखरता से प्रसाधित किया। वे ‘लोकल’ व ‘ग्लोबल’ बोध के चलते गाँवों से लेकर, विश्व के ओर-छोर तक की खबरों को जगह देते-दिलाते थे। भूमण्डलीय राजनीतिक दृष्टि एवं सामाजिक सरोकारों से सम्पन्न निर्भीक, निष्पक्ष, जनोन्मुख ‘जर्नलिज्म’ की प्रातिनिधिक प्रतिभा(प्रतिमा नहीं प्रतिमान)कहना चाहिए उन्हें।
संक्षेप में ललित ‘एक में अनेक’- ‘टेन इन वन’ थे। समस्त अभिदिशाओं वाली क्षमता, दक्षता तथा नैसर्गिक नेतृत्व की निपुणता से लबालब थे। शायद ही कोई अकेली ‘डिजिटल’, ग्रैफिकल-‘इमेज’ (अथवा ‘इमोजी’) हो, जो उनकी द्योतक-परिचायक बन सके। मेरे ‘मेमोरी बॉक्स’ में उनकी अकूत छवियां हैं, दुविधा दर पेश है कि उन्हें बिसार दूं, किनको प्राथमिकता से प्रस्तुत करूं, किस-किस का व्यामोह कभी आगे के वास्ते छोड़ दूं। 1994 के आरंभ से वे बाबूजी (स्मृति शेष मायाराम सुरजन) से मिली वैचारिक पत्रकारिता की ‘लीगेसी’ (विरासत) की श्रीवृद्धि करते रहे। वे योग्य पिता की सुयोग्य संतान साबित हुए- उन्हीं की भांति साहित्य और पत्रकारिता के बीच पक्का पुल ललित भी बने। एक कहनात हम और आप सुनते आये हैं- ‘पिता पे पूत, नसल पे घोड़ा, बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा।’- जिसकी तर्ज पर कह सकते हैं कि वे थोड़े नहीं, बहुत ज़्यादा निकले, उसके बाबत परसाईजी ने लिखा था- ‘ललित अपने बचपन से मेरा साथी रहा है’। इससे बढ़कर ‘कॉम्प्लीमेंट’ और क्या हो सकता है। इस कथन में वह आधार भूमि भी इंगित है जिस पर ललित ने स्वयं को खड़ा किया, ऊंचा उठाया। परसाई समेत बाबू जी के विशाल मित्र मंडल से सीखने की ललक उनमें थी, स्वयं को परिष्कृत करने की लगन भी।
यहाँ यह उल्लेख उपयुक्त है कि ललित ने कई विद्यालयों में ‘प्रेमचंद-परसाई-क्लबों’ के मार्फत छात्रों से इन दिग्गजों की रचनाएं पढ़वाईं, वे स्वयं भी एक ‘चलता-फिरता स्कूल’ हुए। सीखने की चाह रखने वाले बच्चे (बड़े भी) उनसे पर्याप्त प्राप्ति करने लगे। बहुतेरे युवाओं-युवतरों के निमित्त वे बरगद-गंभीर गहरी छांह-युक्त विरछ थे, तरु थे। और वह पीढ़ी तरुशिखा के पिता को नहीं भूल सकती, उस वृक्ष को विस्मृत नहीं कर सकती जो उसके लिए खुद को लुटा देता था। मैं ज़ोर देकर कहता हूं कि व्यक्ति की कालजयिता नागर व लोक, दोनों से आगामी सृजनशीलों को पुकारकर प्रोत्साहन प्रश्रय देने में है, उन्हें ‘प्रोजेक्ट’ तथा ‘हाईलाइट’ करने में है। ललित ने यह किया, वे ज़मीन पर जमे हुए उस अम्बर पथ में भी थे, जहां से उनकी पारदृष्टि भावी संसार का सपना उतार रही थी।
उनके प्रयाण से दो दिन पूर्व तक लोग चाव से उनकी कविताएं उनसे सुन रहे थे- 1989 में रचित ‘भविष्य का इंतजाम’, 1998 में लिखी ‘सेतुबन्ध’ और उनके लिए अनुवादों से मुखातिब थे- दुन्या मिखाइल की- ”युद्ध करता है अनथक मेहनत’’ (जुलाई 2009), ‘मौन का एक क्षण’ (लैटिन अमेरिकी एक्टिविस्ट इमैनुएल ओर्तीज की कविता का तर्जुमा, फरीदा हसनज़ाद मुस्तफावी की ‘हुज़ूर, क्या मुझे इज़ाज़त है’ (फारसी के अंग्रेजी अनुवाद का भावान्तर… आदि, ललित के एक दिलचस्प लेख- ‘शारीरिक दूरी: कुछ अटपटे विचार- का चुटीलापन और शाह आलम के शासनकाल का ‘राम’ अंकित सिक्का उनकी यादों में खनखनाता रहेगा।’ ‘अक्षर पर्व’ और ‘देशबन्धु’ के अलावा भी पते थे जहाँ से ललित पातियाँ पढ़ाते रहे- ललित सुरजन ब्लॉगस्पॉट.काम वगैरह। इस सिलसिले में मुझे उनकी ‘पोस्ट’ की हुई दो कविताओं की सतरें सहसा कौंधी हैं-
1. ”बस्तर के विलुप्त वनों में/ डूबते चन्द्रमा के सामने/ अपने सच होने का बयान/ देने के लिए खड़े हैं उदास/भूरे बदरंग नीलगिरी के वृक्ष’’ – (बस्तर: सत्य की कथा)
– और –
2. ”अभी-अभी/सरसों के खेत से/डुबकी लगाकर निकला है आग का एक बिरवा// अभी-अभी सरसों के फूलों पर/ओस छिड़क कर गई है / डूबती हुई रात’’ – (लखनऊ के पास सुबह-सुबह)
सोचता हूं- क्या उनमें कवि का स्वयं के सच का बयान है? क्या गुमान में नहीं थे ललित, मान था उन्हें कि वे डूब में आ चुके हैं?…सवाल हैं जो मुझे-दुर्निवार दुख में, बदरंग उदासी में ठेल रहे हैं, शायद मैं भावाविष्ट हूँ और प्रसंगातंर ही विकल्प है।
बाबूजी को मैं इटारसी में अपने पिता के साथ बाल्यावस्था से देखता आया हूँ। पिताजी (कवि महेश प्रसाद भारती) के अनन्य मित्र व मेरे काव्य गुरु बालकृष्ण जोशी ‘विपिन’ (30.9.22 से- 18.8.61) अल्पायु में चल बसे थे। अमर कवि-गीतकार विपिन-चाचा की प्रथम कृति ‘साधना के स्वर’ का विमोचन उसके बाद हुआ (30.9.61)। लोकार्पण करने बाबूजी ही इटारसी आए थे। उसी कार्यक्रम में विपिन जी की स्मृति में रची कविता ‘गूंज रही है झंकारी तुम्हारी’ पर प्रथम पुरस्कार मुझे उन्हीं के हाथों मिला था। पारितोषिक लेने से पूर्व मैंने सहज भाव से उनके पाँव में प्राणिपात किया, पैर छुए। (आज यह सुधि आई, इस सबब कि ललित भाई के स्वर की झंकार मेरे कानों में अनुरंजित हो रही है)। 13 वर्ष के मुझ किशोर को उस आयोजन से विदित हुुआ कि मायाराम जी किस कद की हस्ती हैं।
1966- 70 के बरसों में साहित्यकार, संगठक, संपादक बाबूजी से समीप होना सुगम हुआ। (उसी दौरान किसी ने मुझे श्रीकृष्ण की तलैया में वह ठिकाना दिखाया था, जहां वे लगभग 3 साल रहे थे)। रांझी होस्टल से साइकिल पर परसाई चाचा के घर तक (राइट टाउन) में प्रायः हर हफ़्ते जाता था। वहीं जबलपुर के स्थानीय (प्रो. हनुमान वर्मा व अन्य) तथा बाहर से आये वरिष्ठों से संपर्क बना। वे सब सीख के सुलभ स्रोत थे जो मेरे ‘ग्रो’ करने में सहायक हुए। 1970 में मैंने जबलपुर से बी.ई. (ऑनर्स) की शिक्षा पूर्ण की, और साहित्यिक समाज में पुनरप्रवेशी हुआ। नयी कविता से नाता जुड़ा। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में जगह बनी। 1973-74 में जबलपुर में पुन: था। बलदेव बाग के पास मिलौनीगंज-पथ पर प्रारम्भ में ही ‘देशबन्धु’ या जहां मैं ब्रजेन्द्र पांडे, विजयदत्त श्रीधर ‘मामा’, विद्याभूषण दुबे (परसाई जी के भांजे) आदि मित्रों तक बहुधा पहुंचता था। वहीं मैं ललित से पहली बार रूबरू हुआ(ललित रायपुर से आये थे,उन्होंने बताया कि वे मुझे बराबर पढ़ते रहे हैं)। उनसे वह संक्षिप्त भेंट राजेन्द्र अग्रवाल ‘स्नेह’ ने कराई थी। तब यह कल्पना नहीं की थी मैंने कि कुछ अरसे बाद हम कैसे रिश्ते में कितने क़रीबी हो जायेंगे। यह निकटता हासिल होने का सन है 1977 ।
15 अक्टूबर 77 को मैंने बैंक के ‘टेक्निकल स्पेशलिस्ट कैडर’ में छत्तीसगढ़ क्षेत्र के एस.एस.आई फील्ड ऑफिसर के पद पर नई नौकरी का आगाज़ किया (पिता से प्राप्त गांधीवाद-आदर्शवाद-ईमानदारी ने मुझसे म.प्र. सिंचाई विभाग से इस्तीफ़ा दिलवा दिया था। भोपाल छूटने का मलाल तो मन में था, पर तसल्ली भी थी कि रायपुर में बाबूजी हैं, ‘देशबन्धु’ है। मेरा मुख्यालय था मालवीय रोड, रायपुर स्थित बैंक- शाखा। शाम 5 बजे ‘ब्रान्च’ के बड़े बाबू रामसरन शर्मा (कर्मचारी यूनियन के नामी नेता) ने कहा-आइये, आपको होटल छोड़ दूं। मेरा उत्तर था- ‘मुझे चौबे कालोनी जाना है, मायाराम सुरजन जी के यहां।’ इत्तेफ़ाक था कि कि शर्माजी चौबे कॉलोनी के ही रहवासी थे, उन्होंने बाबूजी के आवास तक ‘लिफ्ट’ दी। प्रारब्धवश बाबूजी घर ही थे, और ललित भी। पहले सामने हुए ललित- बातचीत हुई।
‘कब आये? कहां ठहरे हो?’
‘जय स्तंभ के पास’,
‘क्यों, स्टेशन से सीधे यहीं नहीं आ सकते थे? चलो कल होटल से ‘शिफ्ट’ हो जाना।’
ओह, कितना प्रेम-पगा था उनका उलाहना। ललित के हरसिंगार के फूल की शुभ्रता से सिंचित सहज स्वभाव ने मुझे जीत लिया। रात के भोजन के उपरांत ही होटल वापसी हुई। अपने नसीब पर नाज़ के साथ, कि नये शहर में पहला रोज़, और घर का खाना ही नहीं, घर भी मिला। इस उपलब्धि से जो कतई प्रवेक्षित नहीं थी, प्रविरल थी, एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न सी-अप्रत्याशित थी, मुझे रोमांच हो आया फिर, ललित से वह मुलाकात मृदुल मुस्कान से सगे (सौम्य मिलापी मनुष्य से मिलने सरीखी थी, उस प्रज्ज्वलित प्रदीप से जो अपने सम्पर्क में आने वाले के अन्तर्मन को आलोकित कर देता था। जहाने फानी से रुख्सत हो जाने के बाद भी वह आज भी मेरे नमन पथ पर चल रही है, यथावत, वैसी की वैसी! हू ब हू!!)
जिनसे दोस्ती निभाना है, मेरी निगाहें उनके शुक्ल पक्ष पर ही होती हैं, उनका दूसरा ‘फोर्ट नाइट’ (अंधेरा पखवाड़ा) मेरे विचार से उनका अपना, निजी होता है। ललित भी बाबूजी की तरह सहकर्मियों-अधीनस्थों पर क्रुद्ध-कुपित होते होंगे, मातहत उनके गुस्से से आहत भी होते होंगे, बाद में उन्हीं से राहत भी पाते होंगे। ऐसी किसी घड़ी का प्रत्यक्षदर्शी मैं कभी नहीं रहा। मुझे तो पिता-पुत्र यकीनन एक चुम्बकीय आकर्षण के धनी ही लगे, संस्कृत में कोमल शब्दों वाली रचनाओं को ‘ललित पद’ कहा गया है। ललित शैशव में ऐसी ही रचना प्रतीत हुए होंगे और उन्हें यह नाम दिया गया होगा। जब-जब मैंने उन्हें देखा है अधिकतर वे हल्के रंगों वाली ‘चेक’ छोटे चौखाने- की कमीज पहने मिले, जो पतलून में ‘इन’ की हुई रहीं। जबलपुर में अपनी उम्र से कमतर दिखने वालों के लिए एक ‘टैग’ (तमगा या बिल्ला) प्रचलित था- ‘चोर बॉडी’- फलाने की चोर बॉडी है- यानी ‘उम्र चुराने वाला शरीर’, यह अलंकार ललित पर लागू होता था। वे देव आनन्द नुमा ‘स्लिम’ देहयष्टि के थे। ‘इन लाइटर मोमेन्ट्स’- हल्के फुल्के पलों- में उनसे इस खासियत को ‘अंडरलाइन’ करते हुए की गई बातचीत याद आ गई:-
”आप एकदम अपने नाम का पर्याय हैं, ‘सिनोनिम्’ ‘‘
”कैसे ?’’
”संस्कृत में समानार्थक शब्द आपके लिये बताता है- ‘सुकुमारमतयांगानां विन्यासो ललितं भवेत्’- सुकुमार, सुंदर, प्रेम पूरित तन है जिसका…’’
”मालूम है तुम संस्कृत विशारद हो, अकारण अपना ज्ञान मुझ पर मत उड़ेलो’’
”बट यू आर टॅफ ऐन वेल- सुकुमारता के साथ मजबूत भी हैं, ‘एलिगेन्ट’ और खुशवन्त भी… हां, यादों के उजाले पाख की सप्तमी आपके नाम पर है- ‘ललित सप्तमी’, ‘‘
”अब तुम यह नहीं जोड़ देना कि ललितपुर भी मेरे नाम पर है!’’
यही प्रसंग एक मर्तबा और छिड़ा था, मेरे सठियाने यानी 60 का होने के आसपास, ललित ने मुझे भी अपनी आयु से छोटा दिखने वाला कहा तो मैंने जवाब में किसी का कथन ”क्वोट’’ किया- ‘टू मी ओल्ड एज़ 15 इयर्स ओल्डर दैन आई एम. आई एम 60, बट इफ देयर वर 15 मंथ्स इन एवरी ईयर, आई शैल बी 48’। उन्होंने फटाक से जड़ दिया-‘मार्क ट्वेन को भूल रहे हो?- ‘वेन युवर फ्रेंड्स बिगिन टू फ्लैटर यू ऑन हाउ यंग यू लुक, इट इज साइन यू आर गेटिंग ओल्ड।’
दो मित्रों की गुफ्तगू की इस कड़ी को संस्मरण में डालने के दो प्रयोजन हैं-पहला उद्देश्य तो यह ‘प्रूव’ करना है कि ललित भाई की ‘मेमोरी’ बिल्कुल ‘शार्प’ थी, तेज थी, तथा रिच थी। दूसरा मक़सद यह ज़ाहिर करना रहा कि अंग्रेज़ी पर उनका ज़ोरदार ‘कमांड’ था, अधिकार था। जाने कितने ‘क्वोटेशन्स’ उन्हें कण्ठस्थ थे जिन्हें वे मन चाहे मौके पर काम में ला सकते थे। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करना उनके लिए बायें हाथ का खेल था। इसकी मिसालें हम ऊपर देख चुके हैं। अंग्रेज़ी में उनकी एक पुस्तक है- ‘द बनाना पील’, यायावर ललित के यात्रा संस्मरण हैं- ‘शरणार्थी शिविर में विवाह गीत’, दक्षिण के अवकाश पर ध्रुवतारा, ‘नील नदी की सावित्री’, अन्य किताब ‘तुम कहां हो जॉनी वॉकर ’ मीडिया के ‘डिक्लाइन’ (अध:पतन) पर केन्द्रित हैं। ‘समय के साखी’ ने उनके निबन्धकार को पाठकों के सामने किया। लोग तो कुछ फर्लांग नाप लेने पर ही फूले नहीं समाते, लेकिन ललित सत्रह सौ साठ गज पर गड़े पत्थर हैं- ‘माइल स्टोन’ हैं। समय की रेत पर उनके ‘फुट प्रिन्ट्स’ बहुत साफ़ हैं, साफ़ बने रहेंगे।
अक्टूबर 77 में मुझे राजातालाब, इन्द्रावती कालोनी में किराये का अच्छा मकान मिल गया और मैं सपत्नीक रायपुर आ गया, उसी रोज़ हम दोनों चौबे कॉलोनी गएऔर बाबूजी के परिवार के सदस्य हो गए। वह घरोबा कायम हुआ जो है तथा रहा आयेगा, यह दोहराना आवश्यक है। इटारसी में मैं एक साहित्यिक पर्यावरण में पला-बढ़ा, इंदौर ‘पोस्टिंग’ हुई (1971) तो कवि रामविलास शर्मा, सरोज कुमार, राहुल बारपुते, राजेन्द्र माथुर, चंद्रकांत देवताले, सुदीप बनर्जी, सोमदत्त, हरेन्द्र कोटिया… से जुड़ाव रहा, तबादला हुआ भोपाल तो त्रिलोचन शास्त्री, वेणुगोपाल, अशोक वाजपेयी, भगवत रावत, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल… का सानिध्य था। रायपुर में बाबूजी के होने से मैं आश्वस्त था कि वहां भी विपुल साहित्य समान मिलेगा, दूसरे दिन ही उस समृद्ध समवाय में शामिल हो गया जिसमें प्रभाकर चौबे, डॉ. हरिशंकर शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल, ललित… थे।
शनै: शनै: मैं ललित को लेकर जिन जानकारियों से नावाकिफ़ था, उनसे अवगत हुआ। 1961 से (कॉलेज में पढ़ने के वक्त से) अख़बार का काम कर रहे उस युवा ने उसी साल (77) वेल्स-कार्डिफ़- से ‘टू टाइम्स ऑफ लन्दन’ के स्वामित्व ‘थॉम्पसन फ़ाउन्डेशन’ से वरिष्ठ पत्रकारिता के सबक सीखे थे। वह एक-तिहाई वर्ष का ‘कोर्स’ था- ‘सीनियर एडिटोरिअल टेक्निक्स’। रायपुर लौटकर ललित अपना क्षितिज विस्तृत करते हुए क्रियाशील थे। जब भी मैं रायपुर में होता, (‘फील्ड ड्यूटी’ होने से ) फुर्सत जुटाकर नहरपारा पहुंच जाता था, जहाँ देशबन्धु प्रेस था। उसी समय रामसागर पारा में नए भवन का काम भी प्रगति पर था। धीरे-धीरे मैं देशबन्धु परिवार की सदस्यता भी पा गया। रायपुर ‘हेडक्वार्टर’ में मैं तकरीबन चार साल था और 80 के अन्त में इंदौर स्थानांतरित हुआ था। तदनन्तर भी मुझे भिलाई, दुर्ग, रायगढ़, डभरा, चन्द्रपुर और बिलासपुर में रहने को मिला।
अन्तिम चरण मेंं प्रशासनिक, सतर्कता, निरीक्षण एवं प्रशिक्षण देने के दायित्व भी मुझे छत्तीसगढ़ से अपनाया रखने में सहायक बने। जब छत्तीसगढ़ पृथक प्रदेश के अस्तित्व में आया, तब भी मेरी छत्तीसगढ़ से अभिन्नता भंग नहीं हुई। 2008 में सेवानिवृत्ति के उपरान्त मैं जब भी रायपुर पहुंचा हूं, अपने ही घर में टिका हूं- आ.माया भाभी एवं ललित के स्नेहागार में, दस बरस बाद यह विच्छिन्न हुआ जब कोरोना की विपदा ने हरसू नाकाबंदी कर डाली। जो जहां था, वहीं ‘लॉक-अप’ में कैद हुआ, जीवन की उदासी को सुनता हुआ। कुछ विद्वान स्मृति को औजार, अपितु हथियार मान लेते हैं, जबकि वह आलय है, आवास है जिसमें हम बारहा भीतर-बाहर होते हैं, तहखाना है जिसमें तहें खुद भी उलट-पुलट हो जाती हैं।
भोपाल में भी ‘देशबन्धु’ एक जमाने से मेरी जानी पहचानी जगह जैसा रहा है। जहां (म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन में) पहले बाबू जी के पास जाया करता था। यह रिश्ता अब भी, पलाश जी की वजह से बदस्तूर कायम है। ललित के कनिष्ठ भ्राता पलाश सुरजन भी उन्हीं के नक्शे-पा पर चलते हैं, निधड़क, निडर रहकर। अब प्रेस ‘प्रेस कॉम्पलेक्स’ में है, आवास वहीं है-45 बंगले। यहां भी जब भी ललित आते, पूर्व-सूचना रहती थी और सुबोध श्रीवास्तव, डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव और मैं इन तक गोंठियाने पहुंचते थे। बातचीत निजी थोड़ी-बहुत होती, अधिकांश की तो मैं साहित्य-गोष्ठी ही कहता था, जिसके अध्यक्ष ललित होते थे। सुनना-सुनाना होता तो लौटने से रहे, यह सच्चाई हताशा से भर देती है। कोई भी कहानी जीवन से बड़ी नहीं होती। समय आहिस्ता-आहिस्ता हर बदन को अपनी रेती से रेतता है, सींवने उधेड़ता है, आग की तपिश से उसे मोम-सा पिघलाये जाता है।
भोपाल में बस गये लोगों के लिहाज़ से दो दिसम्बर की रात बेहद त्रासद है। 1984 आज भी हमें सिहराता कंपाता है, अपनी सांसों से बेशी तो कोई नहीं जीता, न ही कोई जान पाता है कि मौत की नाव उसके नजदीक ही डोल रही है, एक सम्मानित दूरी पर , ‘प्लीज माइंड द गैप’ की चुप्पी के पानी पर। परन्तु उस रात तो वह ‘टाइटेनिक’ सी विशाल थी, हजारों को ढोकर ले गई, वहीं दो दिसम्बर की यामा हमारे मित्र पर भी घात लगाये बैठी थी। वह सुहृद (जो 1977 में और बाद में भी) यह दोहराना नहीं भूलता था- ‘किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो बेहिचक बता देना’। ललित एक शानदार दोस्त थे और शालीन मेज़बान। एक ‘एडजेक्टिव’ (संस्कृत में)-‘आतिथेय’ उन्हीं के उपयुक्त है। उनका स्नेहास्पद होना मेरे लिये गर्व का विषय है, उनकी आवभगत- चाहे घर में, चाहे बाहर किसी चुनिंदा रेस्त्रां या आहार गृह में- नितांत सुखकर थी। तिस पर समर्थन माँगता यह प्रीतिकर जुमला- ‘ठीक है बॉस?’। सम्बन्धों-व्यक्तित्वों की थाह में जाकर निर्वाह करने वाले ऐसे सनेही अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, वे स्वयं की पथभ्रष्ट होने से बचाते चले। चाहते तो वे भी ‘स्वार्थों’ के टेरियर कुत्ते पाल सकते थे। सामाजिक सम्बद्धता व संवेदना की लौ, सदिच्छा, सदाशयता वाले ललित अपने प्रति भी सख्त थे, शोहरत के लिये शतरंज बिछाते शातिरों से अलहदा। चीजों को देखने के उनके तरीके- ‘वेज़ ऑफ़ सीइंग’- भी भिन्न थे उनके।
अनेक संस्थाओं-संस्थानों में (मंच पर, नेपथ्य में, ‘बैक स्टेज’ पर भी) ललित जी का अकूत योगदान रहा है- हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रगतिशील लेखक संघ, अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन, अफ्रो-एशियाई साहित्य मंच, ‘कोएलिशन फॉर न्यूक्लियर डिसआर्मामन्ट’, ‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज’ नेशनल अलायन्स ऑफ यंग आन्त्रप्रेनुअर्स’, ‘रोटरी इंटरनेशनल’ इत्यादि। मेरे इस वाक्य के कुछ पाठकों को अविश्वास घेर सकता है कि क्या वाकई एक आदमी इतनी विविध भूमिकाओं में इतना काम कर रहा होगा? मगर वक्त के विराट कैनवास पर बेहतरीन काम करने के लिये ललित के समक्ष मैदान पर मैदान थे- वन्य जीवन संरक्षण, जल सम्मेलन, हिरोशिमा दिवस, पुरातत्व, गाँव वालों के चौपाल पर साहित्य तथा कविता की आपूर्ति, वनग्रामों का भ्रमण… पृष्ठ पर पृष्ठ रंगे जा सकते हैं प्रत्येक पर।
जिन कार्य-कलापों से मैं अनभिज्ञ हूं, जो मुझसे छूट गये हैं, उन पर भी लिखा जाना चाहिए ताकि सनद रहे। आंतरिक लगाव और जवाबदारी के साथ जनयुद्ध के लिये कई मोर्चे संभालने वाले ललित का काम एक लंबी जीवनी, एक वृहद उपन्यास, वरन सम्पूर्ण रचनावली का हकदार हैं। सारांशत: वे ‘दस का दम’ रखने वाला प्रेरक, प्रबंधक, संगठक, संस्कृतिकर्मी, आन्दोलनकारी, मूल्यनिष्ठ आयोजक, निरभिमान प्रतिभावान, काव्य सृष्टा, गद्य-लेखक, अनुवादक थे। यह उन्हीं का तेज था, जिसने उन्हें सोच व तर्जे अमल में फाँक न रखने वाले शख्स में ढाल दिया, और वे अपने आप में एक संस्था का पर्याय हो गये। उन्हें ‘टेन इन वन’ करार देने में किसी को भी कंजूस नहीं होना चाहिए, हमें उनका पुनर्पाठ करना होगा-मंद गति से ठहर कर- ‘स्लो रीडिंग’ में उस एकाग्रता से जो किसी कलाकृति की ‘अंडर स्टैंडिंग’ की प्रथम शर्त होती है। एक विचार-दरिद्र देश-काल में ललित के मार्गदर्शी लेखन में पैबस्त उनके वजूद का सुरूर व नूर रहा आये, इस हेतु भी यह काम जरूरी है।
आइये, आरम्भ पर, पहले पन्ने पर, ललित जी की कविता की प्रथम पंक्ति पर वापस पहुंचते हैं- ”लोग होली से पहले आते थे’’। आज यह कितना साल रही है, जब इस वर्ष की होली से पहले वे चले गए। मैं हूं और चुप्पा चीत्कार में चिथड़ा हुआ हृदय है, जो बिलखता है, जैसे विषाद के विलाप में छुप रहा हो, भ्रान्ति होती है मानो ललित हैं, जस का तस और महफूज़, बारिश के बादलों की आड़ में अदृश्य आकाश, जो पुन: खुल जायेगा। जबकि दारुण सच्चाई है कि वे अब नहीं हैं जो मेरे इस बेतरतीब, बेसाख्ता लिखे को बाँच सकें। एक तरफ अपने बचे रहने की ग्लानि व बोध काटते हैं मुझे, दूसरी ओर गोया ललित कह रहे हैं- ‘रहो-ज़रूरी है रहना तथा कहना, लिव टू टेल द टेल’। रहे आओ, कहने व दिखाने के लिये वे कुछ अछूते दृश्य जिन्हें सिर्फ हमने देखा है।’
मित्रता के रंग में भिगो देने वाले मितवा को गंवा देने से दीर्ण मेरा दिल कलम पर मेरी कलाई व अंगुलियों के कसाव को शिथिल किए जा रहा है। एक वीरानी के दबाव में शब्द भी पकड़ से परे हो जाते हैं। दोस्त ललित, मेरे भाई, काश, तुम्हें और अधिक जान लिया होता मैंने! वास्तविकता तो यही प्रतीत हो रही है मुझे कि-
‘यही जाना कि कुछ नहीं जाना
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम!’
221/9 बी, साकेत नगर, भोपाल
मो. 094252 53263
संजीव खुदशाह
आज ललित जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी याद उन लोगों के जेहन में हमेशा बनी रहेगी जिन्होंने उन्हें पढ़ा है करीब से जाना है। मुझे याद है ललित सुरजन जी से पहली मुलाकात 2005 में हुई थी। मेरी किताब सफाई कामगार समुदाय इसी वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुई। मैं इसके लोकार्पण को लेकर चिंतित था। कुछ ही साल हुए थे रायपुर में आए। यहां मेरा कोई परिचित नहीं था। जांजगीर निवासी कवि और मेरे श्रद्धेय स्वर्गीय नरेंद्र श्रीवास्तव ने मुझे ललित सुरजन जी का फोन नंबर दिया और कहा तुम उनसे मिलो, वे तुम्हारी मदद करेंगे। मैंने अपने दफ़्तर से सुरजन जी को फोन मिलाया और उनसे मिलने चला गया। उन्होंने किताब देखी और प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा इस किताब को लिखते समय बताना था। हम इसे देशबन्धु में धारावाहिक प्रकाशित करते। बहरहाल उन्होंने पूछा, इसका लोकार्पण हुआ है या नहीं? मैंने कहा नहीं हुआ तो उन्होंने कहा – हम इसका लोकार्पण करेंगे लेकिन तुम्हें एक डेढ़ महीने इंतजार करना होगा। इस बीच उन्होंने समीक्षा लिखने हेतु प्रभाकर चौबे जी को एक किताब मुहैया कराई।
रायपुर के एक बड़े होटल में इसका लोकार्पण मायाराम सुरजन फाउंडेशन के बैनर तले संपन्न हुआ। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि रामपुर, उप्र के प्रसिद्ध लेखक कंवल भारती, नागपुर से आईं साहित्यकार सुशीला टाकभौरे और दिल्ली से कवि गंगेश गुंजन उपस्थित हुए थे। रायपुर के सारे अख़बारों में इस लोकार्पण की चर्चा हुई, दूरदर्शन ने भी इसे कवर किया था। उस समय इस प्रकार सुरजन जी का मुझसे एक अभिभावक के तौर पर रिश्ता बन गया। वह मेरा मार्गदर्शन करते। पत्रकारिता का मतलब मैंने उनसे ही जाना। मुझे याद है डीएमए इंडिया ऑनलाइन यूट्यूब चैनल के एक एपिसोड के साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा था की “पत्रकारिता कभी निष्पक्ष होकर नहीं की जा सकती। आपको यह तय करना होगा कि आप शोषक के पक्ष में है या शोषित के।” उनकी इस बात लोगों को बहुत गहरे तक प्रभावित किया और जो पत्रकारिता कर रहे हैं उनका मार्गदर्शन किया। यह वीडियो आज भी यूट्यूब में उपलब्ध है।
वे समय के बड़े पाबंद थे। मुझे याद है 2011 में हमने 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती का एक कार्यक्रम रखा था। उन्हें भी निमंत्रण दिया। वे कार्यक्रम के 5 मिनट पहले ही आ गए। इस समय हम तैयारी कर रहे थे। हमें बड़ी शर्मिंदगी हुई। इसी प्रकार वह अपना कोई भी कार्यक्रम तय समय पर ही शुरु कर देते थे। चाहे मेहमान या दर्शक आए या न आए। इस कारण उनके कार्यक्रम में लोग समय पर पहुंच जाते थे। उनसे ही हमने समय का महत्व सीखा और जब भी कार्यक्रम करते थे तो तय समय पर ही प्रारंभ करके तय समय पर खत्म कर देते थे। वे कहा करते थे कि “कार्यक्रम में लेटलतीफी का मतलब है जो मेहमान समय पर आए हैं उनकी बेइज्जती करना”। वे समानता की विचारधारा को बेहद महत्व देते थे। कोशिश करते थे कि उनके कार्यक्रम में वक्ताओं, मेहमानों में विविधता हो। महिलाओं को वह खास तवज्जो दिया करते थे।
इसके बाद छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन में मैं जुड़ गया। उनके द्वारा आयोजित संगोष्ठियों, कार्यक्रमों में बहुत सी बातें जानने सीखने को मिलीं।
बाद के दिनों में वे अपने लेख – संस्मरण आदि अपनी सहयोगी सरिता को बोल-बोल कर लिखवाया करते थे। इस दौरान उनके केबिन में प्रवेश की मनाही होती। वे जब भी मिलते तो पूछते संजीव क्या लिख रहे हो, हमेशा समकालीन विषयों पर बात करते थे। धार्मिक कट्टरवादियों और उनकी राजनीति की चर्चा के दौरान वे अक्सर निराश हो जाया करते थे। कहते थे इस देश का क्या होगा? अथक प्रयासों के बाद जो लोकतंत्र हमें मिला है, सब खत्म हो जाएगा।
वे तुनक मिजाज भी थे। कई बार ऐसा हुआ कि वे कार्यक्रम के दौरान किसी बात पर नाराज़ हो जाया करते थे। लेकिन ज़्यादातर समय खुशमिजाज़ ही रहते थे। सबसे अलग – अलग मिलते, एक सजग अभिभावक की तरह सब का ख्याल रखते और हालचाल पूछते। वे कहा भी करते थे कि अभी छत्तीसगढ़ में मैं सबसे वरिष्ठ पत्रकार हूं। सबसे उम्र में बड़ा हूं। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन के लगातार 20 सालों तक अध्यक्ष चुने गए। सोसायटी अधिनियम के सभी नियमों का कड़ाई से पालन करते थे। संस्था के लेखा-जोखा से लेकर गतिविधियों तक में पारदर्शिता रखते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि सभी कार्यक्रमों में हर सदस्यों की भागीदारी हो सके।
अंतिम दिनों में वे देशबन्धु प्रारंभ होने का इतिहास संस्मरण के रूप में लिख रहे थे। इसकी कड़ियां लगातार देशबंधु में प्रकाशित हो रही थी। “देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इनकार” उनकी यह लेखमाला पढ़ने से ज्ञात होता है कि किस प्रकार उनके पिता स्व. मायाराम सुरजन जी ने अख़बार को खड़ा किया और एक ऊंचाई तक पहुंचाया – बगैर अपने सिद्धांतों से समझौता किए। अविभाजित मध्यप्रदेश में देशबन्धु सर्वश्रेष्ठ अखबारों में गिना जाता था। आज भी वह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है।
उनकी कमी हमेशा खलती रहेगी, उनके जाने से बने शून्य को कोई नहीं भर सकता। हकीक़त में वे हमारे मार्गदर्शक थे और अभिभावक भी। उनके रचनात्मक अवदान को जानना और समझना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। सादर नमन,
नथमल शर्मा
‘कल से तुम्हारा अख़बार शुरू हो रहा है। बधाई, साथ ही यह भी कि अब और ज़िम्मेदारी बढ़ गई है तुम्हारी। ‘
30 अप्रैल 1991 को भैया यानी ललित जी ने फोन कर यह बात कही थी। हमेशा की तरह खनखनाती और ऊर्जा भरी आवाज़। इसके पहले और बाद में कई बार बातें हुई, फोन पर और आमने-सामने भी। पर आज भैया पर लिखते हुए इसी तरह शुरुआत हो गई। एक मई 1991 से देशबन्धु का बिलासपुर संस्करण शुरू हुआ। हम सब तैयारियों में जुटे हुए थे। और इसी बीच यह फोन आया था। रायपुर से बिलासपुर आने के कुछ समय बाद ही भैया पूछा करते थे, कि तुम अपना संस्करण कब शुरू कर रहे हो ? उस समय कुछ ठीक-ठाक जवाब होता नहीं था मेरे पास। बिलासपुर से उस समय कोई दैनिक नहीं निकलता था। शाम का अख़बार बिलासपुर टाइम्स, डी पी चौबे निकालते थे। छत्तीसगढ़ के दो प्रमुख दैनिक,देशबन्धु और नवभारत रायपुर से प्रकाशित होते।
नहीं, ये सब विस्तार से फिर कभी। अभी तो बात भैया यानी ललित जी की। ललित सुरजन की। देशबन्धु, भोपाल के संपादक और सबसे छोटे भाई पलाश सुरजन का पत्र काफ़ी पहले मिल गया था कि बड़े भैया पर कुछ लिखिए। तुरंत चाहता भी था लिखना। पर कुछ गंभीर निजी उलझनों के कारण लिखना शुरू ही नहीं कर पाया। पलाश जी को फोन कर कहा भी कि जरूर लिखना चाहता हूं। भेजता हूँ जल्दी ही। दरअसल यह जल्दी लगातार देर में बदलते गई। यूं तो ललित जी को हमेशा जल्दी रहा करती थी। जो काम हाथ में लिया है उसे जल्दी पूरा करो। पर सबको इस तरह छोड़ जाने की कोई जल्दी उन्हें नहीं थी। वे और जीना चाहते थे, बहुत जीना चाहते थे। इसलिए नहीं कि साधारण लोगों की तरह जिंदगी से कोई मोह था। वे बहुत काम करना चाहते थे। इस दुनिया को और खूबसूरत बनाने के लिए अपनी भूमिका शिद्दत के साथ लंबे समय तक निभाना चाहते थे।
इसीलिए पत्रकारिता के साथ ही अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मोर्चे पर वे जुटे रहे। वे कहते भी थे कि- पत्रकारिता में हम यूं ही भटकते हुए नहीं आ गए हैं। इसे अपनाया है तो प्रतिबद्धता के साथ, ज़िम्मेदारी के साथ। इस राह पर वे उम्र भर चलते रहे। मुकाम तक पहुंचे या नहीं यह तो वक़्त ही तय करेगा। हां, ये ज़रूर है कि उनकी उंगली थाम कर बहुत लोगों ने सफ़र शुरू किया। कुछ ही आखिर तक साथ चलते रहे। कुछ चलने का अभिनय करते रहे तो कुछ उंगली छोड़ दौड़ पड़े, और कहते रहे कि उनसे आगे निकल गए। ललित जी ने इस तरफ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। सामान्य व्यक्ति की तरह उन्हें अपनों से मिली तकलीफ़ से दुख ज़रूर होता रहा। ऐसा दुख कभी कभार तल्खी के साथ ज़ाहिर भी हो जाता। पर कुछ देर बाद उसी निश्छल ठहाके के साथ अगली किसी नई योजना पर काम करने में बिला जाता।
पलाश जी ने सही इशारा किया था कि उनका व्यक्तित्व इतना विशाल रहा, उनके संबंध इतने प्रगाढ़ और आत्मीय रहे कि जो भी लिखने बैठे एक किताब लिख देगा। पर शब्द सीमा का ध्यान रखने की बात कही थी। इसीलिए बस एक दो बातों के साथ बात अधूरी छोड़ता हूँ कि फिर कभी पूरी करूँ। मूल्य परक पत्रकारिता के ललित जी हिमायती रहे। गांव की रिपोर्टिंग के लिए प्रेरित करते रहे। इसीलिए मैंने छत्तीसगढ़ के न जाने कितने गांवों पर लिखा। मेरे बड़े भाई स्व. बंशीलाल शर्मा ने तो साइकिल से सैकड़ों गावों की यात्राएं की, जिनकी रिपोर्ट्स देशबन्धु में छपीं और बहुत चर्चित हुईं। मैंने भी ऐसे ही एक गांव बस्ती बगरा का दौरा किया। मध्यप्रदेश का रजत जयंती गांव बस्ती बगरा अब छत्तीसगढ़ में है। इसी गांव की रिपोर्टिंग के लिए मुझे अखिल भारतीय स्टेट्समेन अवार्ड मिला। कलकत्ता (अब कोलकाता ) से अवार्ड लेकर जब मैं भैया से मिलने और अवार्ड सौंपने पहुंचा तो उनकी खुशी देखते ही बनती थी। उतनी ही आत्मीयता और ललक के साथ उन्होंने चाय पिलाई और एक ठहाका लगाते हुए कहा कि यार,ये स्टेट्समेन अवार्ड वाले भी अजीब हैं। रिपोर्टर को तो अवार्ड और अखबार के संपादक को याद ही नहीं करते। ऐसी विनोदप्रियता भी उनके व्यवहार में थी।
प्रगतिशील लेखक संघ का छत्तीसगढ़ का महासचिव जब मैं बना और फिर बिलासपुर में राष्ट्रीय सम्मेलन का जिम्मा छत्तीसगढ़ ने लिया तब भी वे उतने ही खुश हुए और लगातार सुझाव देते रहे। बिलासपुर का राष्ट्रीय सम्मेलन बेहद सफल रहा और देश भर के लेखक हमेशा याद करते हैं। देशबन्धु एक परिवार की तरह ही हुआ करता और मैं इस परिवार का ऐसा सदस्य था जिसे बेहद आत्मीयता मिली। मुझे हमेशा लगते रहा कि मेरी अपने इस परिवार में बहुत ख़ास जगह है। हक है मेरा। एक बात और, 1976 में देशबन्धु से जुड़ा। पहले दिन जब ललित भैया ने मेरी मार्कशीट्स और स्कूल, कॉलेज के प्रमाण पत्र देखे तो उनमें से एक प्रमाण पत्र खींच कर अलग किया। ‘ये रस संघर्ष प्रतियोगिता क्या होती है ?’… कॉलेज के प्रथम वर्ष में हिंदी विभाग ने ये प्रतियोगिता करवाई थी। ढेर सारी पर्चियों पर हिन्दी के एक-एक रस का नाम लिखा था। जिसे जो पर्ची मिलती उस रस की कविता सुनानी होती। शायद नया और अच्छा लगा था उन्हें। न जाने कितनी बातें हैं। देशबन्धु की नियमित बैठकों में होने वाली बहस। प्रलेस के शिविरों और बैठकों में होने वाले विचार- विमर्श और उनके सुझाव। कितना कुछ है जो अनकहा ही रह जाएगा फिलहाल।
सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही स्तर पर ललित भैया को जूझते ही रहना पड़ा। इसलिए भी कि वे नकाब लगे चेहरे तत्काल पहचान लिया करते थे। सीधी और सपाटबयानी के कारण भी लोग अपना होने का दिखावा जरूर करते पर अपनापन निभाते नहीं। ललित भैया को इससे ज्यादा तकलीफ़ नहीं होती, पर दुखी होते कि ऐसे लोग सिस्टम को खत्म कर रहे हैं। इस खूबसूरत दुनिया को वे और खूबसूरत बनाना चाहते थे। वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ साथ ही उतने ही संवेदनशील भी थे जो चिड़ियों के चहचहाने से खुश होते और झरनों के शोर से आनंदित। मेहनतकश की पीड़ा से उतनी जल्दी दुखी भी होते और कुछ करने जुट जाते। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष हो या ‘कितनी बहार बिखरी है आंगन में’ ऐसी ही प्रतिबद्धता और कोमल भावों से उपजी हैं जो देश भर के अखबारों के लिए एक उदाहरण है। नेहरू के विचारों से सहमत ललित भैया जब जवाहरलाल पर बात करते तो उनकी आंखों में तैरते तरक्की के सपने को साफ़ देखा-पढ़ा जा सकता था। पर राजनीति तो बहुत निर्मम होती है उसकी चक्करदार सीढ़ियों में ऐसे न जाने कितने स्वप्न उलझ कर राह तलाशते रहे/ तलाश रहे हैं। ललित भैया ने उलझनों की कभी परवाह नहीं की क्योंकि उनका मकसद साफ़ था । मुक्तिबोध के शब्दों में कहूं तो उनकी पॉलिटिक्स क्लीयर थी।
भैया, आपके लिए “थे” लिखना पड़ेगा ऐसा कभी सोचा ही नहीं था। जाते सभी हैं पर आपको इस तरह नहीं जाना था। इतनी जल्दी तो क़तई नहीं। छत्तीसगढ़ के और देश भर के मेरे जैसे तमाम साथियों की आंखे नम हैं, पर जैसा कि आप कहा करते मुट्ठियां तनी रहनी चाहिए। हम कोशिश करेंगे कि कुछ बेहतर कर सकें ।
यशपाल जंघेल
आदरणीय ललित सुरजन जी से मेरे जुड़ाव का सिलसिला 2012-13 के आसपास शुरू होता है। जब राजधानी रायपुर में ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन’ ( जिसके वे आजीवन अध्यक्ष रहे ) द्वारा ‘दो दिवसीय युवा रचनाकार शिविर’ का आयोजन किया गया था। इस आयोजन में हिन्दी के सुपरिचित कवि श्री केदारनाथ सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आए हुए थे। इस आयोजन में जाने का सौभाग्य मुझे स्वर्गीय डॉ. गोरेलाल चंदेल के सौजन्य से हुआ। इस तरह ललित सुरजन जी से मेरा संबंध गोरेलाल जी के माध्यम से बना।
उक्त शिविर में मैं डॉ. चंदेल के साथ उनकी कार में खैरागढ़ से रायपुर गया। आयोजन, रायपुर में किस जगह रखा गया था, मुझे याद नहीं। डायरी लिखने की आदत न होने के कारण आयोजन की तिथियाँ भी मुझे याद नहीं आ रही हैं। बहरहाल हम इस आयोजन में दोपहर के करीब 12:00 बजे पहुंचे। मंच का संचालन खुद ललित सुरजन जी कर रहे थे। गौरवर्ण, गठा हुआ बदन, घने और सफेद बाल, सौम्य – दिव्य मुस्कान, दीप्त मुखमंडल। बोलते हुए ऐसा लगता था, मानो उनका संपूर्ण शरीर बोल रहा हो। उनकी सारी बातें तो याद नहीं, लेकिन एक बात मुझे अभी तक याद है। वे अपनी बिहार-यात्रा के संस्मरण सुना रहे थे। बिहार का कोई गांव है, जहां एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बना हुआ है। गांव वाले बड़े जतन से उस पुस्तकालय को चला रहे हैं और वहां हज़ारों की संख्या में पुस्तकें हैं। वहां केवल किताबों की मौजूदगी ही नहीं है, बल्कि वे पढ़ी भी जा रही हैं। उनके कहने का सार था कि हमारे यहां (छत्तीसगढ़ में) पढ़ने का वैसा माहौल नहीं है। वे स्वयं तो पढ़ते थे, साथ ही साथ अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को, ( जिसमें उनके समकालीन और युवा वर्ग दोनों शामिल हैं ) को पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे। खासकर युवा-वर्ग को पढ़ने के लिए वे बहुत प्रोत्साहित करते थे। वे बताते थे कि पढ़ना उनके लिए कितना जरूरी है। वे कहा करते थे – ‘जिस दिन मैं कुछ भी नहीं पढ़ता ( हालांकि ऐसा दिन बहुत कम आता है ) उस दिन मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मेरे दिमाग की नसें फटी जा रही हों। ‘
आयोजन के दोनों दिन केदारनाथ सिंह मौजूद थे। हालांकि उनकी स्वास्थ्यगत समस्याओं के कारण वे पूरे सत्र में मौजूद नहीं रहे। महत्वपूर्ण सत्रों में उनकी उपस्थिति रही। इस दौरान उन्होंने अपनी कुछ चुनी हुई रचनाओं का काव्य-पाठ भी किया। ‘इस्तीफा’ और ‘बुनाई का गीत’ – ये दो कविताएं मुझे याद आ रही हैं। कविता पढ़ने का उनका अंदाज़ लाजवाब था। कार्यक्रम में बाहर से आए हुए साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों को एक होटल में ठहराया गया था। रात में वरिष्ठ कवियों का रचना पाठ होना था। लेकिन अचानक ज़ोरों की आंधी आ गई। भोजन के लिए बनाया गया पंडाल धराशायी हो गया। बिजली भी चली गई और ऐसी गई कि रात भर नहीं आई। रायपुर जैसे शहर में रात भर बिजली का न होना हमारे लिए एक नई बात थी। लेकिन किसी को शिकवा-शिकायत नहीं रही। यह प्रकृतिजन्य स्थिति थी। खाना खाने के पश्चात वरिष्ठ कवियों का कवि-सम्मेलन शुरू हुआ। ‘कैंडल लाइट डिनर’ तो सुना था, लेकिन पहली बार ‘कैंडल लाइट कवि सम्मेलन’ देखने और सुनने को मिला।
इस सत्र में ललित जी खुद कविता पढ़ने के बजाय दूसरों को आगे करते रहे। पहले दिन के सत्र में भी युवा रचनाकारों द्वारा कविताएं और कहानियां पढ़ी गईं। इस कार्यक्रम में अंबिकापुर से आईं युवा कवयित्री डॉ. विश्वासी एक्का ने काव्य-पाठ किया, उनकी कविताओं ने सभी को प्रभावित किया । ‘लछमनिया का चूल्हा’ नामक कविता की गूँज आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में बनी हुई है। बाद में इसी शीर्षक से उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह प्रकाशित हुआ। अक्षर-पर्व के एक अंक की प्रस्तावना में ललित जी ने इस काव्य-संग्रह की समीक्षा भी लिखी थी। उनके संपादन में निकलने वाले मासिक पत्र ‘अक्षर-पर्व’ का इंतजार मुझे हर माह रहता था। उनकी प्रस्तावना गजब की होती थी। साहित्य ही नहीं अपितु समकालीन राजनीति, समसामयिक व ज्वलंत मुद्दे, विश्व- इतिहास, पत्रकारिता, सिनेमा आदि सभी विषयों पर उनके विचार इसमें प्रकाशित होते थे। उक्त आयोजन में मैंने छत्तीसगढ़ी में एक कहानी पढ़ी। ललित सुरजन जी ने मुझे आगे निरंतर लिखते रहने के लिए प्रोत्साहित किया और हिन्दी में भी लिखने का सुझाव दिया।
उनकी योजना थी कि गांव-गांव में प्रेमचंद क्लब बनें। साहित्य को आमजन तक पहुंचाने में उनके अनुसार प्रेमचंद के साहित्य से बेहतर और कोई विकल्प नहीं हो सकता, जो अक्षरशः सत्य भी है। उनकी इसी सोच का परिणाम है, कि ‘छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ और ‘पाठक मंच, खैरागढ़’ के संयुक्त प्रयास से प्रतिवर्ष 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती, खैरागढ़ अंचल के गाँव- गाँव में मनाई जाती है। उनके इस प्रयास में डॉ. गोरेलाल चंदेल और डॉ. प्रशांत झा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। मुझे गर्व है कि उनके इस आंदोलन में मुझे भी सम्मिलित होने का सौभाग्य मिला। प्रतिवर्ष हम सब मिलकर 31 जुलाई को साल्हेवारा वनांचल के लगभग 30-40 गांवों में प्रेमचंद-जयंती का आयोजन कर प्रेमचंद की कहानियों का पाठ करके उन कहानियों पर गांव वालों से चर्चा करते हैं। राजनांदगांव जिले के खैरागढ़ व छुईखदान विकासखंड के लगभग 4-5 सौ गांवों की चौपालों में प्रेमचंद की कहानियों को लेकर जाना और गांव वालों के साथ साहित्य पर बातें करना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। यह आयोजन अपने आप अद्भुत है, ललित सुरजन जी इसके प्रेरणा स्रोत हैं ।
2012-13 के बाद तीन साल तक ललित जी से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई, न ही फोन पर बात हुई। याद आता है 2017 का जून महीना। जब एक सुबह मेरे फोन की घंटी बजी। फोन उठाने पर उधर से आवाज आई – ‘ हैलो यशपाल ! मैं ललित सुरजन बोल रहा हूं, रायपुर से। ‘ मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। मैं हतप्रभ रह गया। उन्होंने कहा आगे कहा – ‘अक्षर-पर्व’ के अंक जून 2017 में मुक्तिबोध की कहानी पर तुम्हारी समीक्षा प्रकाशित हुई है, मुझे बहुत अच्छी लगी। रायपुर में कहानी-पाठ के बाद तुम्हारी कुछ खबर नहीं मिली। आज तुम्हारा लेख पढ़ने को मिला। इसी तरह आगे भी लिखते रहो। एक बड़े साहित्यकार, देशबन्धु के प्रधान संपादक, वरिष्ठ और ख्यातिलब्ध पत्रकार, छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष का इस तरह से एक युवा, अज्ञात साहित्य-प्रेमी को को फोन करना मेरे लिए किसी सपने से कम नहीं है। इससे मेरे पढ़ने और कुछ लिखने का हौसला बढ़ने लगा।
उसी वर्ष 5 से 8 अक्टूबर तक चार दिवसीय ‘विमला देवी लूनिया स्मृति युवा रखना शिविर’ धमतरी में आयोजित हुआ। ललित जी से दोबारा मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस आयोजन में प्रदेश के कोने-कोने से वरिष्ठ एवं युवा साहित्यकार आए हुए थे जिनमें से प्रमुख रूप से शामिल थे – प्रभाकर चौबे, त्रिभुवन पांडेय, महेंद्र मिश्र, तेजिंदर सिंह गगन, डॉ. गोरेलाल चंदेल ( सभी अब स्वर्गीय ) जया जादवानी, राकेश तिवारी, रवि श्रीवास्तव, संतोष झांझी, उर्मिला शुक्ल, विनोद साव, जयप्रकाश साव, सियाराम शर्मा, अजय चंद्रवंशी। ललित सुरजन जी एक अच्छे साहित्यकार ही नहीं, अपितु एक कुशल संगठनकर्ता व नेतृत्वकर्ता भी थे। यह आयोजन धमतरी के ‘अज़ीम प्रेम जी फाउंडेशन के विशाल भवन के सभागार में हुआ था। आयोजन के सभी प्रतिभागियों और साहित्यकारों के लिए एक नियम था, कि वे अपने खाने की थाली / प्लेट और गिलास स्वयं धोएं। लेकिन 2-3 सज्जनों ने अपनी प्लेट बिना धोए, वॉश बेसिन में रख दी। जब ललित सुरजन जी किसी सत्र में बोल रहे थे और इस बात की खबर उन्हें मिली, तो वे मंच से उठे और प्लेट धोने के लिए आगे बढ़ने लगे। उनका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। कुछ लोगों ने उन्हें रोका। मैंने पहली बार उन्हें इतना गुस्सा करते देखा । वे अनुशासन के पक्के और समय के पाबंद थे। उनके शब्दकोश में 10:00 बजे का अर्थ 10:00 बजे ही होता था। उनके नेतृत्व में छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रत्येक आयोजन में हमारे साथ सभी लोगों ने यह अनुभव किया है।
29 से 30 मार्च 2018 को छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘शताब्दी 1918-2018’ का आयोजन रायपुर में हुआ। इस आयोजन में मध्यप्रदेश और विदर्भ के भी वरिष्ठ साहित्यकार आए हुए थे। हम लोग मोटरसाइकिल से साल्हेवारा ( जिला – राजनांदगांव) से मेरे एक मित्र ज्ञानदास कुर्रे के साथ रायपुर गए। पंजीयन काउंटर पर ललित सुरजन स्वयं बैठे हुए थे, हम लोगों को देखकर वे अत्यंत प्रसन्न हुए। कार्यकर्ताओं को निर्देश देकर उन्होंने आयोजन स्थल के एक कमरे में हम लोगों ठहराया। जब भी इस तरह के आवासीय कार्यक्रम होते थे, चाहे रायपुर में हों या रायपुर के बाहर, ललित जी आयोजन स्थल पर ही रात्रि-विश्राम करते थे। साहित्यिक आयोजनों के प्रति उनकी जिम्मेदारी व कर्तव्यनिष्ठा इससे प्रमाणित होती है। वे नहा-धोकर सुबह लगभग 6:00 बजे चाय के लिए परिसर में निकलते थे। हम लोग इसी ताक में रहते थे और उनके साथ हो लेते थे । चाय पीते-पीते वे दुनिया-जहान की बातें हमें बताते थे ।
इतिहास, दर्शन, राजनीति, पत्रकारिता, साहित्य कोई भी विधा उनके ज्ञान के दायरे से बाहर नहीं थी। विश्वयात्रा के उनके अद्भुत संस्मरण हमें रोमांचित करते थे। हम चाहते थे, वे कहते रहें, हम सुनते जाएं। हम उनके साथ समय बिताने, बातचीत करने, उनके अनुभव संसार से परिचित होने का अवसर ढूंढते रहते थे। वे हमेशा कहते थे – ‘ राजनीति में लगातार विचारों की कमी होती जा रही है।’ इस आयोजन से लौटने के बाद अगली सुबह उनका फोन आया और कहने लगे ‘ हाँ, यशपाल, ठीक-ठाक पहुंच गए हो न ? तुम मोटरसाइकिल से आते हो इसलिए मुझे तुम्हारी चिंता लगी रहती है। ‘इस तरह की छोटी-छोटी ऐसी कई बातें हैं, जिनसे उनकी संवेदनशीलता का पता चलता है। उनके परिचितों का दायरा विदेशों से लेकर देश और प्रदेश के कोने-कोने तक फैला हुआ था। उनकी स्मृति गजब की थी। एक ही मुलाकात के बाद मुझे और मेरे कार्यस्थल साल्हेवारा को वे कभी नहीं भूले। जब भी मिलते थे, यहाँ की जीवन-शैली, आर्थिक व सामाजिक स्तर, बैगा जनजाति की लोक संस्कृति, रहन-सहन, जीवन स्तर आदि विषयों पर चर्चा होती थी।
इतिहास इस बात का गवाह है, कि साहित्य हमेशा सत्ता के प्रतिपक्ष में खड़ा रहता है। ललित जी भी सत्तापक्ष की कमज़ोरियों को अपने लेखों, संपादकीय, व्याख्यानों और साधारण बातचीत में उजागर करते रहते थे। इस कार्य में वे मीडिया की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका मानते थे। लेकिन वे मीडिया-जगत के सत्य से भी परिचित थे। वे अक्सर कहा करते थे – ‘ मीडिया में परोसे जाने वाले किसी भी तथ्य पर भरोसा मत करो। ‘ आजकल झूठ को भी सच की तरह सजा कर परोसा जा रहा है। इसलिए झूठ और सच में फ़र्क कर पाना आम आदमी के लिए ही नहीं, अपितु तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के लिए भी बहुत ही मुश्किल हो गया है । उनका मानना था कि सोशल मीडिया पर परोसी जा रही सामग्री के प्रति हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए। वे ज्ञानार्जन के लिए प्रमाणिक पुस्तकों को पढ़ने की सलाह हमेशा देते रहे।
उसी वर्ष यानी 2018 में ही ललित सुरजन से मिलने का दोबारा मौका मिला। अवसर था – इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ और छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संयुक्त तत्वाधान में ‘कहानी की रचना प्रक्रिया’ पर एक दिवसीय कार्यशाला। आयोजन 8 जुलाई को इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के नाट्य-विभाग में हुआ। इस अवसर पर प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’, मार्कंडेय की ‘हंसा जाइ अकेला’ दूधनाथ सिंह की ‘रक्तपात’, शेखर जोशी की ‘कोसी का घटवार’ आदि कहानियों का पाठ हुआ। तत्पश्चात उपस्थित विद्वानों ने इन कहानियों की विस्तृत समीक्षा की। कहानी के वास्तुशिल्प पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया। सुरजन जी भी इन कहानियों पर अपना मंतव्य व्यक्त किए। उन्होंने बातचीत के दौरान बताया कि प्रत्येक आदमी को प्रेमचंद की कहानियों से गुजरना चाहिए। वैसे तो उन्हें प्रेमचंद की सभी कहानियां पसंद थी, लेकिन उनकी ‘नशा’ कहानी की वे खूब तारीफ़ करते थे। वे केवल हिंदी ही नहीं अपितु अंग्रेजी साहित्य का भी ज्ञान रखते थे। वे कहते थे कि मैं हमेशा अपने साथ अंग्रेजी की एक डिक्शनरी रखता हूं। उनका मानना था कि विश्व की श्रेष्ठ पुस्तकों का हिंदी रूपांतर प्रायः नहीं मिलता है। इसलिए अंग्रेज़ी का ज्ञान होना भी आवश्यक है। ताकि हम विश्व के श्रेष्ठ व बहुमूल्य साहित्य से अपने आप को जोड़ सकें। वे एक साहित्यकार के लिए विदेशी साहित्य के साथ-साथ भारतीय साहित्य का ज्ञान होना भी आवश्यक मानते थे।
याद आती है 12 फरवरी 2021 की वह शाम। जब प्रतिवर्ष की भांति स्वर कोकिला सरोजिनी नायडू के जन्मदिन की पूर्व संध्या पर ग्राम- खजरी ( खैरागढ़) में कवि सम्मेलन ‘गीत यामिनी’ का आयोजन हुआ। पिछले वर्ष की भांति वहाँ सभी लोग आए हुए थे, लेकिन ललित सुरजन जी सबसे अलग ढंग से आए हुए थे, फोटो-फ्रेम के अंदर से मुस्कुराते हुए, गेंदे के फूल का हार पहने हुए। कैंसर से लड़ते हुए वे लगभग जीत ही गए थे, कि अचानक 1 दिसंबर 2020 को वे ब्रेन हैमरेज का शिकार हो गए और 2 दिसंबर को उन्होंने अंतिम सांस ली।’ उनका इस तरह से जाना, सबके लिए एक सदमे जैसा था। बेहद कठिन समय में और कुछ अनसुलझे सवालों को हमारी ओर उछाल कर वे चले तो गए, लेकिन थोड़ा-थोड़ा हमारे अंदर रह गए, हमारी यादों में, हमारी बातों में, हमारी स्मृतियों में, हमारे विचारों में, उनकी उपस्थिति का एहसास होता है। उनको याद करते हुए श्रीकांत वर्मा की यह पंक्ति ज़रूर याद आती है –
“वे कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है। “
सहायक शिक्षक
ग्राम + पोस्ट-साल्हेवारा
जिला-राजनांदगांव (छ. ग.)
मो. 09009910363
yjanghel71@gmail.com
जीवन यदु
एक दिन अचानक –
बेआवाज मगर भयानक
आँधी आई ।
एक भरा-पूरा पेड़ बरगद का
गिर गया जड़ से उखड़कर।
जिसकी छाया में –
विश्राम करते थे
अनेक थकित-पथिक ,
पथ-अन्वेषी
जिसकी जड़े फैली थी-
छत्तीसगढ़ की भूमि में
मगर शाखाएँ दूरन्त तक फैली थीं
प्रदेश से बाहर –
देश-विदेशों तक।
उसकी सघन शाखाओं के बीच
घोसलों में
संवेदना से भरे अनेक कल्पना-खगों के
अंडे थे संभावनाशील।
गिर गया छत्तीसगढ़ का बोधिवृक्ष
जो शांति-कपोतों का भी विश्राम स्थल था।
धरती को चूमने लगा वट-वृक्ष ,
उसकी शीतल छाया का एहसास
अब भी है हमारे पास –
हमारे दिलों के अंदर
किसी खत्म न होने वाली पूंजी की तरह।
ओ, मेरे बरगदी-छाया वाले अग्रज !
धरती को चूमने वाले अनुभव को-
देना चाहते थे कौन-सा रचनात्मक रंग-
ज्ञात नहीं किसी को ।
शीतल छाया का-
उपभोग करने वाले पथिक,
अपने रचनात्मक अंडों को सेने वाले –
नए रचनाशील खग-वृन्द,
भर गए हैं अपने बेघर होने के अहसास से
फिर भी वे तैयार नहीं हैं मानने
कि बरगद ने
चूम लिया था धरती को
जड़ों से विरक्त-सा।
भरे कंठों से गीत फूटे तो कैसे?
गीत स्वयं हो चुका है मौन ।
खैरागढ़ – 491881
कनक तिवारी
ललित की बीमारी की सुनी सुनाई ख़बर पर अस्पताल फोन लगाया था। ललित ने पूरे होशोहवास और उद्दाम के साथ कहा था – आप निश्चिंत रहिए। मैं इसे पराजित कर लौटूंगा और उसके बाद हुआ भी यही। बाद में लेकिन काल ने छल किया। पूरे जिस्म में दिमाग ही तो नियंता है। उसकी पर सोते वक्त हमला कर दिया। ललित का मस्तिष्क हथियार बना उसके सचेतन हाथ में होता, तो मौत हार जाती। मौत तब ही तो जीतती है जब वह बेईमानी करती है।
यह मेरे लिए दुर्योग हो गया कि ललित के जीवन के अंतिम दो तीन दिनों में मैं पूरी तौर पर उनसे संपर्क विहीन हो गया। कवर्धा के निकट चिल्फी में परिवार सहित वन भ्रमण के कारण कुछ क्षणों के लिए ही किसी से फोन संपर्क हो पाता था। न ठीक से आवाज़ सुनाई पड़ती और न ही वह फोन दुबारा जुड़ पाता। अचानक फेसबुक पर एक बुरी खबर मिली, तो उस पर भरोसा करते मैंने अपनी संवेदना जाहिर कर दी। तब तुरन्त अनुज मित्र विनोद साव का सन्देश मिला कि अभी जीवन सांस चल रही है। संघर्ष जारी है। मैंने फौरन अपनी खबर विलोपित कर की लेकिन संपर्क रहितता कायम रही। तीन दिसंबर को सुबह वापसी के समय ही पता लग पाया कि कल रात ललित की सांस थम गई। उसके धुक धुक करते रहने पर हम सबका भरोसा भी टिमटिमाता तो रहा था। आखिर सब बुझ ही गया। एक जीवन, पारस्परिक जीवंत रिश्ता और अपनी उम्मीदों पर हमारा आत्मविश्वास। कोई चला जाए तो सैकड़ों हज़ारों को उनसे अपने अपने संबंध कैलेंडर की परतों के उखड़ गए दिनों में डूब कर याद आने लगते हैं। ललित के लिए भी टीस ही तो हमारे खाते आई। हम खुद को समझाते रहेंगे कि काश ऐसा नहीं होना था! गिरी से गिरी हालत में दस दिन का वक्त तो ललित को मिलना था जिससे वे कुछ और कर पाते। पचास वर्षों से ज़्यादा का पारस्परिक अंतरंगता का रिश्ता रहा है। कई मौकों पर अकेले बैठकर हमने न जाने कितनी गुफ्तगू की है।
पत्रकारिक प्रतिबद्धताओं की अभिव्यक्ति की आज़ादियों, प्रतिबंधों और भूमिकाओं को लेकर भी हम अधिकतर एक राय और हमराह होते थे।मैं कुछ ज़्यादा निखालिस हिन्दुस्तानी बना रहता था। इस इलाके में भी यूरो-अमेरिकी या साम्यवादी मुल्कों की जिरह गाथाओं से न तो मुझे लगाव था और न ही उनसे सीखने की ललक रही। इस लिहाज से ललित का लगातार आधुनिक और समकालीन होते रहना, बहुत सी संसूचनाओं को जिरहबख्तर की तरह अपनी तर्क देह पर लादे रहना, मुझे उनमें समय के आयाम में चरैवेति कहता एक सक्रिय यायावर अचंभित भी करता रहता था।
ललित और मैं लगातार सहमति में कभी नहीं रहे। हम असहमत भी नहीं हो पाते थे। विचित्र द्वन्द्व था हमारे चारों और वैचारिक मुद्दों को लेकर अदृश्य परिधि का पहरा था। अंदर कई उपवृत्त थे, जहां हमारी अलग-अलग टेरिटरी थी। ललित वामपंथी, बल्कि कम्युनिस्ट, नेहरूवादी और संवैधानिक समझ की नस्ल के सेक्युलरिस्ट थे। मैं गांधी विचारों से प्रभावित नेहरू की प्रशंसा करता, दोनों के विचार फलकों के बीच के स्पेस में जद्दोजहद करता, डूबता उतराता ललित को आश्वस्त करता। कभी वे ठहाका लगाकर मुझे पराजित करने का विजयी दर्प अपनी मुस्कान पर छितरा देते। साहित्य में मध्य उससे थोड़ा सा दक्षिणपंथ की ओर दिखाई पड़ते। कई बड़े लेखकों से उनका परहेज तत्काल विह्वल होकर मुखर हो उठता था। उस आदमी में यही खासियत थी कि वह अपने पूर्वग्रह, प्रेम और प्रतिबद्धताओं के आरोह अवरोह के हिंडोलों पर चकरघिन्नी की तरह घूमने को भी शैशव के मासूम चेहरे की बानगी में बतियाने की ताब रखता था। मैं तो कई बातों को हजम कर लेता हूं। आदतन बहुत वाचाल होने के बावजूद कई बार जाहिर होने से सकुचाता भी हूं।
हिन्दी में स्नातकोत्तर कक्षा में ललित के भर्ती होने के बाद कुछ एक दिन मैंने विद्यार्थियों को पश्चिमी आलोचना शास्त्र पढ़ाया भी था। यह साइंस कॉलेज, रायपुर में हमारे युवोन्मत होने का दौर था। फिर कई कार्यक्रमों में एक दूसरे को हमने बुलाया। अन्य आयोजनों में शिरकत की। नत शिर होकर तथास्तु की शैली में वार्तालाप करने में भी ललित का जो परहेज कायम रहा, उसकी अनुगूंज के कारण मुझमें छत्तीसगढ़ में मेरे बचे खुचे दिनों के लिए वार्तालाप रहित खोखला अहसास अवसाद भर गया है। जब कुछ अरसा पहले उनकी एंजियोप्लास्टी हुई थी, तब भिलाई के मित्र रवि श्रीवास्तव और शायद अशोक सिंघई ने मुझे हड़बड़ाहट में फोन किया। मैंने तत्काल संपर्क किया तो जवाब मिला कि जिस आदमी का खुद भारी भरकम हार्ट ऑपरेशन हुआ है वह एंजियोप्लास्टी की खबर ले रहा है! और ठठाकर हंस पड़े। जब मैं ‘देशबंधु’ में लगातार हर सप्ताह छपना चाहता था, तो अपने सम्पादकीय अनुशासन का हवाला देते हुए ललित ने लिखा था कि एक अख़बार है जो अपने बारे में कहता है कि वह भारत का सबसे तेजी से बढ़ता अखबार है। अब कनक तिवारी भी कहते हैं मैं भारत का सबसे तेजी से बढ़ता लेखक हूं। देशबन्धु की अपनी सीमाएं हैं। यहाँ मैं कैसे खपाऊं!
मायाराम जी (बाबूजी) के असामयिक निधन के पहले ही मैं भोपाल में मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम का अध्यक्ष हो चुका था। बुरी खबर मिलते ही मैं उनके घर जल्द से जल्द पहुंचा था। तब तक कुछ ही ही लोग आ चुके थे। उन सबकी ओर मुखातिब ललित बेहद गंभीर चेहरा लिए कहीं भटकाव के जंगलों में गुम से गए थे। उनकी आंखें उनसे ही छल कर रही थीं कि यह सब क्या है? क्यों है? आखिर है ही किसलिए? जब मैं पहुंचा तो हमारे बीच का रिश्ता धौंकनी की तरह उन्मत्त हुआ कि अश्रुपूरित आंखें लिए ललित ने मुझे अपनी पूरी ताकत के साथ अपनी बाहों में भर लिया। जवाब में यही मैंने भी किया। तय नहीं हो रहा था कि दोनों के दिलों धड़कनें आपस में आलिंगनबद्ध होकर इतनी तेज धमक में बतिया रही हैं, तो बाकी देह की भूमिका का अर्थ ही क्या बचा ? कुछ याद नहीं, किसी व्यक्ति ने हमें अलग किया। वे कुछ क्षण थे जब दोनों को लगा था कि हम दोनों ने एक दूसरे से ज़्यादा अपने आपको पा लिया है। हम दोनों के बीच द्वन्द्व होने पर भी अब मनभेद नहीं होगा।
भोपाल में लघु उद्योग निगम और हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन रहते मैंने ‘देशबन्धु’ के विज्ञापनों में इज़ाफ़ा किया। दफ़्तरी नस्ल की आपत्ति आई कि विज्ञापन देने की नीति में प्रसार संख्या का आधार तय है। मैंने टीम लिखी कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के फलक को लेकर प्रसार संख्या नहीं, गुणवत्ता का आधार तय करने का अध्यक्ष को अधिकार है। उस पर कुछ न कुछ खिटपिट होती रहती थी लेकिन ‘देशबन्धु’ की बानगी में कुछ न कुछ ऐसे तेवर होते थे, जिनका समानांतर तो तब ढूंढा जाता, जब वे और कहीं होते। बाबूजी के असामयिक निधन से बहुत दुख होने के बाद एक तरह से मन उचाट हुआ। मैंने जबलपुर में हाउसिंग बोर्ड की कटंगा कॉलोनी का नामकरण मायाराम सुरजन नगर रखा। ललित ने कहा था, बल्कि लिखा होगा, कि क्या यह कर्ज चुकाना माना जाए? तो मैंने कहा नहीं अब मैं तुम्हारी पीढ़ी को कर्जदार बना रहा हूूं। सहमत नहीं हो तो चलो, दोनों बाबूजी से पूछ लेते हैं।
मैं ‘देशबन्धु’ के साहस का लगातार कायल रहा हूं। 19 नवंबर 1977 को भारत में ‘देशबन्धु’ अकेला अखबार था जिसने इंदिरा गांधी के पक्ष में मेरा लेख आपातकाल संबंधी कई किताबों की आलोचना करने के कारण छापा था। वह जन्मदिन इंदिरा गांधी के जीवन का सबसे श्रीहीन जन्मदिन था। ‘देशबन्धु’ अपने नवोन्मेषी मौलिक प्रयोगों का साहसिक उद्यम भी रहा है। एक बार ललित ने तय किया कि ‘देशबन्धु’ में जो समाचार सबसे बेहतर लगा हो, वह पाठक बताएं। संपादक को पसंद आया तो पाठक को एक साल तक ‘देशबन्धु’ मुफ्त मिलेगा। मैंने प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। एक छपे समाचार का केवल मुखड़ा भेजा। वह था ‘बृजलाल वर्मा भ्रष्टाचार दूर करेंगे’। जाहिर है, ललित ने फोन कर मुझे बताया कि साल भर देशबन्धु मुफ्त में पढ़िए।
ए.जी. नूरानी ने अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर आज़ादी के आंदोलन संबंधी एक बहुत तीखा लेख लिखा था। उस घटना को लेकर लोकसभा में काफी हंगामा हो चुका था। उस पूरे पाठ का लेख मेरा छपा क्योंकि संपादक के कहने से मैंने उसे पाठकीय सुलभ जिज्ञासा और भाषा के अनुकूल लिखने की संपादकीय पसंदगी का ध्यान रखा था। किस्से कई हैं। अब मेरे हिस्से में किस्से ही तो बचे। हम सबके हिस्से में भी। कहने में गुरेज नहीं है कि एक नया छोटा प्रदेश हो जाने से छत्तीसगढ़ में ऐसे बहुत कम ठौर- ठिकाने हैं जहां किसी सरकारी या सियासी रोब दाब की परवाह किए बिना संस्कृति, साहित्य, कला, पत्रकारिता, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी समस्याओं और कुशल संस्थागत प्रबंधन जैसे किसी भी विषय को लेकर कोई सार्थक तसल्लीबद्ध कुछ हासिल करने वाली बहस का कोई और अड्डा विकसित हो सके। होगा भी तो हम लोग अब वृक्ष की पीढ़ी के हैं, पौधों की तरह नहीं। भले ही पौधों के सामने हमको ही झुकना पड़ता है।
व्यक्ति ललित का महत्व तो रेखांकित हो ही चुका है। दरअसल, छत्तीसगढ़ के भूगोल में ललित सुरजन वक़्त के एक ख़ास दौर में अपनी ‘एक मेवो द्वितीयो नास्ति’ की सामाजिक भूमिका के लिए ज्यादा याद रखे जाएंगे। उनकी तुलना में कोई भी बुद्धिजीवी हमारे इलाके में दर्जनों संस्थाओं से सक्रिय रूप से संबद्ध नहीं रहा है। रायपुर सहित छत्तीसगढ़ में हो सकने वाली किसी भी सांस्कृतिक परिघटना के प्रवक्ता, प्रतीक, प्रस्तोता, सूत्रधार या प्रतिभागी के रूप में ललित एक अनिवार्य उपस्थिति थे। वही शीराज़ा बिखर गया है। दरअसल कोई विकल्प बचा ही नहीं, इस अर्थ में कि सबको जोड़कर रखने ओर हमराह बनाने के लिए सामाजिक समझ, साथीपन और संस्थागत सहयोग की ज़रूरत होती है। वक़्त ने यह सब ललित के ही जिम्मे किया था, खुद उनकी फ़ितरत के कारण। यादें कितनी भी घनी हों, धूमिल होती जाती हैं, क्योंकि व्यक्ति खुद वक़्त के आयाम में धीरे-धीरे विस्मृत हो जाने वाली इकाई का भी नाम है। भूमिका तो समाज सुरक्षित रखेगा। इस अर्थ में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता कि ललित सुरजन का कोई विकल्प हम खोज पाए हैं। यह एक ऐसी क्षति हो गई जिसे भुला देना आसान नहीं है। मुझे तो व्यक्तिगत स्तर पर ललित से लगातार सहमत, असहमत रहने का द्वन्द्व जीवन की धडक़नों में सुनाई पड़ता रहेगा।
सुबोध कुमार श्रीवास्तव
मुझे पत्र में तुम भी खुश, हम भी खुश लिखने वाला ललित मुझे दुखी कर गया, हमेशा के लिए। बेटी ने जब यह कहा कि, पापा, ललित चाचा नहीं रहे। देखिए यह पोस्ट। तो मैंने मोबाइल उठा लिया। विश्वास करना ही पड़ा। कई परिचितों, मित्रों ने ललित के ना रहने की दुखद खबर पोस्ट की थी। उसकी बीमारी की जानकारी तो थी ही। पहले भी वह बीमार हुआ था लेकिन तब उसने बीमारी को परास्त कर दिया था। मुझे उम्मीद थी कि इस बार भी वह बीमारी को परास्त कर हमारे बीच होगा लेकिन अनहोनी को कोई रोक भी नहीं सकता। यह वाक्य कि मृत्यु एक ऐसी अनहोनी है जो कभी ना कभी तो होनी ही है, बुरी तरह चुभने लगा। ललित को श्रद्धांजलि किन शब्दों में दूं, शब्दों ने हमारा साथ छोड़ दिया था। श्रद्धांजलि तो उसे मुझे देनी चाहिए थी उम्र में 2 वर्ष छोटा था मुझसे। ललित ने मुझे हमारी छह दशक पुरानी दोस्ती को धोखा दिया और वह भी कोरोना काल में, मैं उसे अंतिम विदाई भी ना दे सका। कांपते हाथों से मोबाइल उठाया। पलाश से बात करनी चाहिए पर रिंग जाती रही। स्वाभाविक था सभी परिजन सदमे में रहे होंगे। रमाकांत श्रीवास्तव, ओम भारती, शिवकुमार अर्चन, पूर्णचंद्र रथ से बात की। सभी की स्थिति एक जैसी भर्राई आवाज। बहुत बुरा हुआ। ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं था।
मैं चुपचाप जाकर रजाई ओढ़ कर लेट गया, लेटा रहा। जुलाई-अगस्त 1961 में ललित ने बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था। महाकौशल कला महाविद्यालय जबलपुर में मैं द्वितीय वर्ष का छात्र था। समान रुचि होने के कारण दोस्ती तो होनी थी। हुई भी और फली फूली भी बी.ए. करने के बाद ललित रायपुर चला गया। इन तीन वर्षों में शायद ही कोई दिन ऐसा रहा हो जब हम ना मिले हों। हम कुछ मित्रों की एक टोली सी बन गई थी कुछ नाम याद आ रहे हैं- मनोहर महाजन, मदन बावरिया, राजेंद्र अग्रवाल, महेश महदेल, रमेश मालवीय, कुलदीप सहगल, राजेंद्र नन्हेरिया, शिवप्रसाद द्विवेदी। अपने इन वर्षों के कार्यकाल के संबंध में ललित ने अक्षर पर्व, देशबंधु और राग भोपाली में लिखा भी है। मैं भी इन स्वर्णिम दिनों पर अपनी कलम चला चुका हूं। राग भोपाली के ललित सुरजन पर केंद्रित अंक में मैंने ललित पर जो लेख लिखा है उसमें युवा ललित की शैतानियां को भी दर्शाया है।
किसी मित्र के रहने पर उसके व्यक्तित्व बहुत कुछ लिखा जा सकता है। लेकिन उसके न रहने पर सिर्फ उसकी यादों को सहेजा जा सकता है। ललित के रायपुर चले जाने के बाद हमारा मिलना-जुलना कम होता गया। कटनी और रायपुर के बीच दूरी तो है ही। पहले खूब पत्र लिखे गए दोनों ओर से फिर टेलीफोन और फिर मोबाइल। ललित का व्यक्तित्व बहुआयामी, सो उसकी व्यस्तताएं बढ़ती रहीं, लेकिन उसने अपने मित्रों को कभी नहीं भुलाया। 1978 से 1982 तक चार वर्ष मैं बैतूल में रहा, वह दो बार वह मुझसे मिलने आया। रायपुर से जबलपुर आते जाते हुए कटनी में मुझसे मिलता रहा। यह तब की बात है जब वह ट्रेन से यात्रा करता था और बिलासपुर इंदौर पैसेंजर कम एक्सप्रेस ट्रेन 30 मिनट कटनी स्टेशन पर रुकती थी। वे दिन तो हवा हो गए लेकिन हम दोनों की मित्रता और आत्मीयता जिंदाबाद रही।
ललित कवि था, संपादक था, यायावर था पर इन विषयों पर में कुछ नहीं लिखूंगा। लिख भी नहीं सकता। उसके हज़ारों चाहने वाले हैं वे लिखेंगे ही।
मैंने एक ऐसा मित्र खो दिया जिसके कंधे पर सिर रखकर मैं रो सकता था।
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