ललित सुरजन
मैं पिपरिया (पचमढ़ी का रेलवे स्टेशन) में अपने दादा-दादी के साथ रहकर प्राथमिक शाला की पढ़ाई कर रहा था। यह 1952 की बात है। मैं दूसरी कक्षा में था और अक्षर जोड़ कर पढऩा मुझे आ गया था। जबलपुर से बाबूजी याने मेरे पिता स्व. मायाराम सुरजन ने उन्हीं दिनों नवभारत की पार्सल में मेरे लिए ‘चंदामामा’ भिजवाना शुरू किया। शब्द और साहित्य के संसार से यही मेरा पहला परिचय था। कुछ माह बाद 1953 में शायद गर्मी की छुट्टियों में मैं जबलपुर आया। बाबूजी अपने मित्र सेन्ट्रल टॉकीज के मालिक शिखरचंद जैन से किसी कार्यवश मिलने गए तो मुझे साथ ले लिया। मुझे उन्होंने वहां हाल में भेज दिया। सोहराब मोदी की फिल्म ‘झांसी की रानी’ चल रही थी। उसका कुछ हिस्सा शायद टेक्किलर था मुझे दौड़ते हुए घोड़े और चमकती हुई तलवारें ही याद रहीं। यह फिल्मों से मेरा पहला परिचय था।
उन दिनों चैथी में ही बोर्ड परीक्षा होती थी। उत्तीर्ण होकर आगे की पढ़ाई के लिए मैं जबलपुर आ गया। घर के पास नवीन विद्या भवन में पांचवीं में दाखिला हुआ। मकान मालिक और वकील मित्र एन.पी. श्रीवास्तव के समवयस्क पुत्र वीरेन्द्र और नरेन्द्र भी वहीं पढ़ते थे। एन.पी. कक्का आगे चलकर मध्यप्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष बने। स्कूल में गणेशोत्सव मनाया जा रहा था। अपने चंचल स्वभाववश मैंने कक्षा में नाम लिखवा दिया कि कल गणेश जी पर कविता पढ़ूंगा। शाम को दफ्तर से बाबूजी घर आए। उन्हें मैंने बताया कि मुझे कल कविता पढ़ना है। बाबूजी ने थोड़ी ही देर में मुझे दो पैराग्राफ की एक कविता गणेश जी पर लिखकर दे दी। कक्षा में मेरी धाक जम गई। अफसोस कि कविता को मैं संभाल कर नहीं रख सका। लेकिन यह कविता से और बाबूजी के कवि रूप से मेरा पहला परिचय था।
जबलपुर के घर में पुस्तकों के लिए खासकर बनाई दो अलमारियां थीं। वे आज साठ वर्ष बाद भी देशबन्धु लाइब्रेरी की शोभा बढ़ा रही हैं। इनमें ढेर सारी पुस्तकें थीं- हिन्दी और अंग्रेजी की। बाबूजी ने अपने इस घरेलू लाइब्रेरी को ‘ग्रंथ चयन’ का नाम दिया था। उसकी बाकायदा सील बनाई थी व हरेक पुस्तक की आवक-जावक के लिए लाइब्रेरी की तरह इन्डेक्स कार्ड बनाए थे। बाबूजी के अनेक मित्र उनसे पुस्तकें लेकर पढ़ा करते थे। डॉ. मदन श्रीवास्तव व डॉ. बी.पी. गुप्ता जैसे गैर-साहित्यिक मित्र घर पुस्तक लेने आते थे, यह मुझे याद है। बाबूजी ने मुझे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और छठवीं कक्षा पास होते न होते तक मैंने प्रेमचंद रचित ‘मानसरोवर’ आठों भाग, पंडित सुदर्शन की ‘तीर्थ यात्रा’ व ‘पत्थरों का सौदागर‘ एवं हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर मुंबई से प्रकाशित संपूर्ण शरत् साहित्य को पढ़ लिया था। समझा कितना था, यह कहना कठिन है। लेकिन बाबूजी ने पुस्तकों की दुनिया के दरवाजे मेरे लिए खोल दिए थे।
अगर मुझे ठीक याद है तो गोंदिया में 1955 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। शायद बाबूजी भी उसमें गए होंगे। गोंदिया से लौटकर पटना जाते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी जबलपुर आए। हमारे घर पर उनके सम्मान में प्रीतिभोज रखा गया। मुझे इतना स्मरण है कि हॉलनुमा बड़े से कमरे में खूब सारे लेखक पाटे पर बैठकर भोजन कर रहे हैं और साहित्य चर्चा चल रही है। इसके आस-पास ही सोवियत संघ से हिन्दी के परम विद्वान व रामचरित मानस के अनुवाद प्रोफेसर प्यौत्र वारान्निकोव जबलपुर आए। रामेश्वर गुरू के घर उनके लिए भोज का आयोजन हुआ। बाबूजी मुझे वहां ले गए। प्रोफेसर वारान्निकोव ने बघारी हुई दाल में जीरा देखकर पूछा- क्या इसी को दाल में काला कहते हैं? अगले दिन नवभारत में पहले पन्ने पर बाक्स में यह रोचक टिप्पणी छप गई। ऐसे अनुभवों ने मुझे रचनाकार और रचनाशीलता का सम्मान करना सिखाया।
ऐसी कुछ स्थितियां बनीं कि 1957 की 14 अक्टूबर को जबलपुर छोड़कर मैं सातवीं का विद्यार्थी नागपुर आ गया। अपने नए स्कूल में छमाही परीक्षा का नतीजा आने के बाद शायद पहली बार मैंने बाबूजी को पत्र लिखा। तीन-चार दिन के भीतर ही बाबूजी का प्यार भरा उत्तर आया। उन्होंने मेरे मूल पत्र को साथ में वापिस किया। कापी के पन्ने पर लिखे गए मेरे पत्र में सबसे ऊपर लाल स्याही से निशान लगा था। शेष पत्र में भी भाषा की त्रुटियों पर गोल निशान लगे थे। बाबूजी ने अपने पत्र में समझाया कि पत्र लिखते समय सबसे पहले हमेशा स्थान और तारीख लिखना चाहिए और यह कि लिखने में भाषा पर ध्यान देना चाहिए। मेरे लिए अगर यह पत्रकारिता का पहला पाठ नहीं तो भला और क्या था?
मैं जबलपुर के स्कूली दिनों के एक मार्मिक प्रसंग का उल्लेख करना चाहता हूं। मैं अपनी शाला में बालचर दल याने स्काउट का सदस्य था और उसमें बहुत उत्साह के साथ भाग लेता था। मेरे एक सहपाठी के पास स्काउट के लिए अनिवार्य खाकी कमीज नहीं थी। संभवतः उसकी आर्थिक स्थिति भी इस योग्य नहीं थी। अपनी दो कमीजों में से एक मैंने अपने मित्र को दे दी। कुछ दिन बाद सहमते-सहमते मैंने बाबूजी से एक और कमीज लेने की बात की। उन्होंने कारण पूछा और फिर नाराज हुए कि तुमने अपने दोस्त को पुरानी कमीज क्यों दी? वे फिर हम दोनों मित्रों को लेकर बाजार गए तथा दोनों के लिए एक-एक नई कमीज खरीदवा कर दी। बाबूजी की इस उदारता के सैकड़ों प्रसंग उनके संपर्क में आने वालों के पास हैं। मेरे लिए उनसे कुछ सीखने का यह एक और अवसर था।
एक और प्रसंग कुछ अलग मिजाज का। जबलपुर में लियोनार्ड थियॉसाफिकल कॉलेज के प्राचार्य श्री मैकवॉन के घर रोटरी क्लब की बैठक हुई। मुझे भी बाबूजी के साथ वहां जाने का अवसर मिला। मैकवॉन साहब का बेटा मेरी ही आयु का था। हम लोग खेलते-बतियाते रहे। चलते वक्त उसने मुझे ‘गुडनाइट’ कहा तो मैं उसका जवाब नहीं दे सका। पिपरिया से नया-नया आया था। गांव का लड़का गुडमार्निंग-गुडनाइट क्या समझता! बाबूजी पहले थोड़ा नाराज हुए कि तुम्हें भी अभिवादन करना चाहिए था। फिर मुझे शिष्टाचार के ये शब्द बहुत धीरज के साथ उन्होंने सिखाए। उन दिनों के बारे में सोचते हुए लगता है कि सचमुच नन्ही सी उम्र में कितना कुछ सीखने मिला।
ललित सुरजन
मायाराम सुरजन को पुस्तकों से बेहद लगाव था। यह उनका सबसे बड़ा व्यसन था ऐसा भी कहें तो गलत नहीं होगा। इसमें उन्हें अपने पिता से अवश्य प्रेरणा मिली होगी जो अत्यल्प साधनों के बीच भी समय-समय पर पुस्तकें खरीदते थे। 1920-30 के छोटे से गांव पिपरिया में उन दिनों किताब की दुकान भला क्या रही होगी, लेकिन दादाजी बंबई से सीधे अपनी रुचि की पुस्तकें वेंकटेश्वर प्रेस जैसे संस्थानों से बुलाते थे। बाबूजी के जिस ग्रंथ चयन को मैंने अपने बचपन में मात्र दो अलमारियों में देखा था, आज वह कई गुणा बढ़ चुका है और उसे ‘देशबन्धु लाइब्रेरी’ नामक सार्वजनिक पुस्तकालय के रूप में जाना जाता है।
बाबूजी के पढ़ने का दायरा यूं तो बहुत विस्तृत था, लेकिन मुख्यतः वे हिन्दी व विश्व साहित्य तथा समकालीन राजनीति व राजनीतिक इतिहास में ज्यादा रुचि रखते थे। अंग्रेजी और हिन्दी में प्रकाशित लगभग हर महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति बाबूजी के पुस्तकालय में होती थी। बाद के बरसों में समकालीन घटनाचक्र पर उनका अध्ययन बढ़ते गया था तथा साहित्यिक पुस्तकों को चुनने, खरीदने का जिम्मा एक तरह से मैंने ही ले लिया था। अपनी पसंद की नई से नई पुस्तकों की तलाश में बाबूजी के संपर्क विभिन्न शहरों के श्रेष्ठ पुस्तक भंडारों से विकसित हो गए थे। जबलपुर में सुषमा साहित्य मंदिर के जोरावरमल जैन या जोरजी, यूनिवर्सल बुक डिपो के शेष नारायण राय या राय साहब जैसे प्रबुद्ध पुस्तक विक्रेता तो उनके मित्र ही थे। भोपाल में लायल बुक डिपो, इंदौर में रूपायन, बंबई में न्यू एण्ड सेकेण्ड हैण्ड बुक हाउस व दिल्ली में ऑक्सफोर्ड बुक कंपनी के साथ उनका उधारी खाता साल भर चलता रहता था।
स्वाभाविक है कि पुस्तकों के ऐसे घनघोर पाठक की मित्रता अपने जैसे अन्य पुस्तक प्रेमियों से हुई होगी। वे जहां भी रहे हर जगह उनके मित्रों में एक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का रहा जो स्वयं अच्छी पुस्तकें खरीदते, पढ़ते और संभाल कर रखते थे। रायपुर में नगर निगम के सचिव शारदाप्रसाद तिवारी के साथ उनके आत्मीय संबंध पुस्तकों के कारण ही बने। यहीं बाबूलाल टॉकीज के कर्ताधर्ता सतीश भैय्या याने स्व. सतीशचंद्र जैन के साथ उनकी हर सुबह की बैठक अधिकतर पुस्तक चर्चा पर ही केन्द्रित होती थी। मेरे लिए यह दुःख का कारण है कि बाबूजी के द्वारा खरीदी गई पुस्तकों में से एक अच्छी खासी संख्या में नायाब पुस्तकें खो चुकी हैं। यह एक तो इसलिए कि बाबूजी के ठिकाने बार-बार बदलते रहे। एक शहर में रहे तो भी किराए के मकान बदलते रहे। इस आवाजाही में पुस्तकों का क्षतिग्रस्त होना या लापता हो जाना लाजमी था। यह भी हुआ कि अनेक पुस्तक प्रेमी मित्रों ने बाबूजी से उधार ली गई पुस्तकों को लौटाना उचित नहीं समझा। शायद ऐसी पुस्तकें उनके ज्यादा काम की रहीं।
1976 में जब मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के विदिशा सम्मेलन में बाबूजी ने अध्यक्ष का भार संभाला तो बिल्कुल शुरूआती दौर में उन्होंने जो कदम उठाए उनमें से एक सम्मेलन का पुस्तकालय स्थापित करने का था। अपने परम मित्र व सम्मेलन के प्रबंध मंत्री हनुमानप्रसाद तिवारी जिन्हें हम हनुमान चाचा कहते थे, के साथ जा जाकर उन्होंने कितने ही प्रबुद्धजनों से उनके पुस्तक संग्रह हासिल किए व सम्मेलन का एक अच्छा खासा पुस्तकालय खड़ा कर दिया। इसे बरकतउल्ला वि.वि. भोपाल से आगे चलकर पीएचडी हेतु अध्ययन करने मान्यता भी मिल गई। यही नहीं सम्मेलन के माध्यम से वे म.प्र. सरकार पर निरंतर दबाव बनाते रहे कि प्रदेश में पुस्तकालय अधिनियम बने ताकि यहां पुस्तकों के विकास को वांछित गति मिल सके। उनकी यह इच्छा अधूरी ही रह गई।
1980 में अर्जुनसिंह म.प्र. के मुख्यमंत्री बने। उनके पास अशोक वाजपेयी व सुदीप बनर्जी जैसे बुद्धिजीवी अधिकारियों की टीम थी। प्रदेश में पुस्तक आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी स्तर पर पुस्तक खरीद योजना इस अवधि में शुरू की गई। इसके लिए जो समिति बनी, बाबूजी उसके सबसे ज्येष्ठ सदस्य थे। इस समिति ने ऐसी पारदर्शी नीति बनाई कि बिना किसी भेदभाव के अच्छी पुस्तकें उचित दर पर खरीदी जा सकें। श्री सिंह के हटने के बाद यह योजना निरस्त कर दी गई। लेकिन उस अवधि में देश के लगभग हर अच्छे प्रकाशक के साथ बाबूजी का परिचय हुआ और वे आज भी सराहना करते हैं कि बाबूजी के मार्गदर्शन में जो नीति अपनाई गई थी उससे हर प्रकाशक को न्यायपूर्ण ढंग से लाभ हुआ। इसी वर्ष एक महत्वाकांक्षी साहित्यिक कार्यक्रम में दिल्ली के राजकमल प्रकाशन के अशोक महेश्वरी रायपुर आए तो मंच से उन्होंने बाबूजी का भावपूर्ण स्मरण किया। मैं उस कार्यक्रम में नहीं था और यह जानकारी मुझे बाद में मित्रों से मिली।
एक ओर बाबूजी जहां स्वयं श्रेष्ठ साहित्य के पाठक थे वहीं पुस्तक प्रकाशन क्षेत्र में अगर कोई प्रगति होती थी तो उससे उन्हें प्रसन्नता होती थी। हिन्द पॉकिट बुक्स में जब लेखक गुलशन नंदा का उपन्यास ‘झील के उस पार’ का पहला संस्करण पांच लाख कॉपी का छापा तो इसका नोटिस बाबूजी ने लिया तथा एक संपादकीय टिप्पणी स्वयं लिखी कि इससे पुस्तक प्रकाशन में कैसी संभावनाएं बन सकती हैं। यह बात अलग है कि उपन्यास उनकी रुचि के अनुरूप नहीं था और न उन्होंने उसे पढ़ा।
मैं ऊपर इस बात का जिक्र करना भूल गया कि म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में बाबूजी ने एक सहकारी प्रकाशन गृह स्थापित करने की योजना भी बनाई थी। उनकी कल्पना थी कि सम्मेलन के सदस्य व अन्य पुस्तक प्रेमी ऐसी योजना के सदस्य बनंे तथा वे जो वार्षिक सदस्यता शुल्क दें उसमें उन्हें प्रतिवर्ष एक निश्चित संख्या में नई पुस्तकें मिल जाएं। इसके लिए उन्होंने नियमावली आदि भी बना ली थी। लेकिन उनका यह प्रयोग आकार नहीं ले पाया। सम्मेलन के सदस्यों में अधिकतर ने योजना में दिलचस्पी नहीं ली। उनका ही अनुसरण करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ में हमने भी ऐसा एक प्रयत्न किया और सहकारी आधार पर ‘सुबह’ श्रृंखला में तीन किताबें छापीं। इसके बाद योजना ठप्प हो गई। बाबूजी ने फिर सम्मेलन के स्तर पर पुस्तक प्रकाशन का सिलसिला प्रारंभ किया उसमें संभवतः एक दर्जन से कुछ ज्यादा पुस्तकें छपीं। बाबूजी के बाद योजना वहीं खत्म हो गई।
ललित सुरजन
मुझे बाबूजी के साथ लंबी-लंबी यात्राएं करने के अनेक अवसर मिले। उन्हें एक अच्छी पुस्तक में जितना आनंद आता था, मन की मौज में की गई एक अच्छी यात्रा से भी वे उतने ही उत्फुल्ल होते थे। उन्हें अपने बचपन से लेकर तरुणाई तक पढ़ाई जारी रखने के लिए यहां-वहां भटकना पड़ा था। यह विवशता ही यदि आगे चलकर प्रिय व्यसन में परिवर्तित हो गई तो क्या आश्चर्य! जो कोई भी यात्रा पर उनके साथ हो तो, उसके लिए यह हमेशा एक अनूठा अवसर होता था। दैनंदिन जीवन की आपाधापी और अनथक तकलीफों से बाबूजी निश्चित रूप से थक जाते थे। यात्राएं उन्हें अपने आपको सहेजने, अपने स्वभाव में लौटने और आगे के लिए शक्ति संचित करने का अवसर देती थीं। उन्हें अखबारी काम के सिलसिले में अक्सर महानगरों के दौरे करना पड़ते थे। इस एकाकीपन का उपयोग वे ज्यादातर पुस्तकें पढ़ने में करते थे। लेकिन वे जब हम लोगों के या मित्र मंडली के साथ निकलते थे तो मानों उनके व्यक्तित्व का रूपांतरण हो जाता था।
यात्रा चाहे सड़क मार्ग से हो रही हो या रेल मार्ग से। उन्हें यहां से वहां तक का रास्ता ज्यों कंठस्थ होता था। कहाँ अच्छी चाय मिलती है, कहाँ गुलाब जामुन और कहा आलू बोंडे- उन्हें सब पता था। अगर ट्रेन से जा रहे हों तो ऐसा कोई स्टेशन आने पर वे खुद उतरकर हम लोगों के लिए व्यंजन लाने चले जाते थे। फिर भले ही डिब्बे तक वापिस आते-आते ट्रेन क्यों न चल पड़ी हो। सड़क मार्ग से जाने पर यह खतरा नहीं था। एक बार कार द्वारा पूरे परिवार के साथ भोपाल से ब्यावर-अजमेर-चित्तौड़ होते हुए नाथद्वारा जा रहे थे। रात को ब्यावर की एक धर्मशाला में रुके। सुबह चले तो उन्होंने बताया कि आगे सिरवाड़ नामक गांव में बहुत अच्छे परांठे बनते हैं। गांव आया। परांठे वाले भोजनालय में पहुंचे। शुद्ध घी नहीं था तो मुझे बस्ती में भेजा। मात्र 3 रुपए का एक सेर शुद्ध घी लेकर मैं आया तब थाल के आकार के परांठे सिके और सबने आनंद उठाया। जबलपुर-दमोह के बीच कटंगी के रसगुल्ले, बिलासपुर-कटनी के बीच खोडरी व खोंगसरा की चाय और बड़े, मंडला के पास बिछिया में खोवे की जलेबी और शिकारा में सुबह के नाश्ते का स्वाद सबसे पहिले बाबूजी के साथ ही मैंने लिया।
जब 1959 में नई दिल्ली के प्रगति मैदान (अब) पहिले-पहल विश्व व्यापार मेला का आयोजन हुआ तो बाबूजी हम सबको वहां ले गए। नई दिल्ली स्टेशन के सामने लेडी हार्डिंग सराय में ठहरे। फरवरी की कड़कड़ाती ठंड में नहाने के लिए गरम पानी खरीदना पड़ता था। रोज शाम को मेला खुलते साथ हम वहां पहुंच जाते थे। सोवियत संघ, अमेरिका, ब्रिटेन के पंडालों के सामने लंबी-लंबी कतारें लगती थीं। चिकने मोटे कागज पर रंगीन छपे ब्रोशर मिलते थे। उनसे कागज व स्याही दोनों की सुगंध उठती थी। सोवियत पंडाल में स्पुतनिक का मॉडल भी था। यह शैक्षणिक यात्रा ही थी जिसमें शिक्षक के रूप में बाबूजी साथ थे। उसी समय अशोका होटल नया-नया बना था। बाबूजी हमें वहां लेकर भी गए और चाणक्यपुरी भी घुमाई। संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, तीन मूर्ति व राजघाट तो देखे ही देखे। इसके पहिले 1957 में देहरादून से लौटते हुए हम पहिली बार दिल्ली में रुके थे। एक रात दरियागंज में मोतीमहल में बिताई थी। वही जिसका बटर मसाला चिकन आज विश्वप्रसिद्ध है। तब लालकिला, कुतुबमीनार देखे और पहिली बार परांठावाली गली के परांठे चखे। उस समय यह हम म.प्र. वालों के लिए एक दुर्लभ व नया व्यंजन था।
ट्रेन से यात्रा साथ करने में कुछेक मजेदार प्रसंग घटित हुए। उज्जैन से टे्रन चली तो रात का समय लेकिन डिब्बे में रौशनी नदारद। बाबूजी ने चेन खींची। गार्ड आया। पहिले लाइट सुधारो, फिर गाड़ी आगे बढ़ाओ। यात्रियों की जान-माल का सवाल है। गार्ड ने विनती की- रतलाम जंक्शन आने दीजिए। खबर भेजता हूं। लाईट सुधर जाएगी। तब तक रेलवे पुलिस के दो सिपाही डिब्बे में तैनात कर देते हैं। इस पर बात बनी। एक बार हम मथुरा जंक्शन पर उतरे। टिकिट मथुरा कैंट याने एक स्टेशन बाद का था। टिकिट चैकर ने सोचा परिवार के साथ कोई तीर्थयात्री है। इससे रकम ऐंठी जाए। तुम्हारा टिकिट दूसरे स्टेशन का है। यहां कैसे उतरे। जुर्माना लगेगा। बाबूजी ने कुर्ते की बांहें मोड़ीं। चलो स्टेशन मास्टर के पास। वहीं जुर्माना पटाऊंगा। तीर्थयात्री समझकर ठगना चाहते हो। सजग नागरिक मायाराम सुरजन ने बाकायदा शिकायत पुस्तिका में शिकायत दर्ज की। बाद में खबर आई उस टिकिट चैकर पर आवश्यक कार्रवाई विभाग ने की। ऐसे कोई एक दर्जन भर किस्से होंगे।
ऐसी ही किसी यात्रा में दौलतराम सिंधी नामक एक गार्ड से उनकी मित्रता हो गई। इष्ट दर्शन के लिए दादा-दादी के साथ मैंने ही अनेक बार नाथद्वारा तक की यात्रा की तो बाबूजी तो और ज्यादा जाते होंगे। दौलतरामजी शायद नाथद्वारा के पास उदयपुर-मावजी जंक्शन-आबू रोड के पथ पर चलते थे। उनका घर आबू रोड में था। वे विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए थे। बाबूजी को अच्छी अंग्रेजी में अक्सर पत्र लिखा करते थे। मेरे विवाह पर उन्हें कार्ड गया। वे नहीं आ पाए, लेकिन आशीर्वाद का पत्र आया। इस मित्रता में बाबूजी एक बार आबू रोड गए। दौलतरामजी के घर रुके। एक समय का भोजन करके यात्रा के अगले पड़ाव की ओर बढ़े।
एक बार जबलपुर से हमें लेकर वे नैनीताल के लिए निकले। दमोह-कुंडलपुर होकर छतरपुर पहुंचते तक शाम हो गई। वह बुंदेलखंड में दस्यु सम्राट देवीसिंह के बारे में प्रचलित दंतकथाओं का दौर था। सारे परिवार के साथ रात को यात्रा करना उचित नहीं था। छतरपुर में तब कोई लॉज भी नहीं था। बाबूजी ने कार का रुख पुलिस थाने की ओर किया। थानेदार से बात की और रात को दरी बिछाकर गर्मी के दिनों में हमने थाने में लगे पेड़ों की छाया में रात्रि विश्राम किया। यह किस्सा 1962 की मई का है। दूसरा किस्सा 1959 की दीवाली की छुट्टियों का। ग्वालियर से शिवपुरी पहुंचे। वहां से कोटा जाना था। रास्ते में काली सिंध नदी पड़ी। रात का समय। पुल पर पानी। मारूति राव ड्राइवर जिन्हें हम मारुति मामा कहते थे साथ थे। बाबूजी ने कहा- मारुति! तुम आगे चलो। पानी ज्यादा समझ में आए तो बताना। वापिस आ जाएंगे। मारुति मामा ने पेड़ की टहनी को छड़ी बनाया। पुल पर पानी का अनुमान करते-करते आगे बढ़े। बाबूजी स्टीयरिंग पर। पांच मिनिट में गाड़ी पार हो गई। मैं आज तक तय नहीं कर पाया कि यह साहस था या दुस्साहस।
बाबूजी के साथ एक यात्रा प्रसंग का मनोरंजक जिक्र परसाईजी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी कहानी में किया था। दोनों मित्र बुंदेलखंड में कहीं कार्यक्रम के लिए बस से जा रहे थे। खचाखच भीड़ में जगह मिलना मुश्किल थी। बाबूजी खादी के धवल धोती-कुर्ता में और परसाईजी कुर्ता-पायजामा में। परसाईजी ने बस स्टेशन मैनेजर से कहा कि धोती कुर्ता वाले सज्जन महेश दत्त मिश्र लोकसभा सदस्य हैं, मैं उनका सचिव हूं। फिर क्या था। सामने की सीट उन्हें तुरंत दे दी गई। रास्ते में ड्राइवर-कंडक्टर ने अलग खातिर की।
यह जानना दिलचस्प है कि देश के किसी भी महानगर में बाबूजी बनते तक किसी होटल में नहीं ठहरते थे। तमाम शहरों में उनके मित्र थे और उन्हें बाबूजी को अतिथि बनाने में सुख ही मिलता था। दिल्ली में पीएस शेट्टी, बंबई में कीर्तिकृष्ण लडिय़ा, कलकत्ता में रामनिवास ढंढारिया और मद्रास में किशोरीलाल आसेरा के घर वे ठहरते थे। सबकी अलग-अलग रुचियां व स्वभाव, अलग-अलग पृष्ठभूमि व काम थे। लेकिन बाबूजी जितने आराम से टाइम्स ऑफ इंडिया के शेट्टी चाचा के साथ रह लेते थे, उतने ही मजे में राधावल्लभ संकीर्तन मंडली के संरक्षक ढंढारियाजी के घर ठहर जाते थे। बाबूजी के इन दूरवासी मित्रों के बारे में एक स्वतंत्र लेख ही लिखना होगा। दरअसल यात्रा के दौरान बाबूजी सुख-सुविधा को लेकर कभी भी अतिरिक्त चिंता नहीं करते थे। पैर फैलाने को जगह मिल जाए, इतना ही उनके लिए पर्याप्त था। पलंग-बिस्तर है तो ठीक, वरना उसकी भी जरूरत नहीं। ग्वालियर में प्रगतिशील लेखक संघ के महेश कटारे आदि मित्र यह देखकर चकित रह गए थे कि ग्वालियर के पास किसी गांव में रात को साहित्यिक कार्यक्रम समाप्त होने के बाद बाबूजी एक चबूतरे पर पेड़ के नीचे दरी बिछाकर ही सो गए थे, जब उनकी आयु 70 वर्ष के लगभग थी।
ललित सुरजन
पत्रकारिता में मायाराम सुरजन के अवदान से मोटे तौर पर लोग परिचित हैं, यद्यपि इस तस्वीर में रंग भरे जाना अभी बाकी है। किंतु बाबूजी के कृतित्व का एक दिलचस्प पहलू अभी तक लगभग अनजाना है। यह तथ्य उनके अनेक मित्रों को शायद मालूम नहीं था कि वे एक अच्छे गीतकार भी थे। मेरे पास बाबूजी की जो डायरियां हैं, उनसे पता चलता है कि 1939 के आसपास उन्होंने गीत लिखना प्रारंभ किया था। यह गीत यात्रा कोई पच्चीस वर्ष तक चलती रही। उनकी तीसरी और आखिरी कविता डायरी में 1952 से 62 के बीच लिखे एक गीत हैं और उसके बाद सिर्फ कोरे पन्ने हैं। अंतिम गीत की पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं-
‘आज अकेले चलो पांव रे! वे दिन बीत गए
सुख-सुहाग के दिन थोड़े थे जब बारात सजी
हर पड़ाव पर नेह निहोरे, यश सौगात बंटी’… आदि
मैं जहां तक समझ पाया हूं 1962 के अंत में जब वे जबलपुर नई दुनिया से पृथक हुए, उसके बाद लंबे समय तक उन्हें जो भीषण संघर्ष झेलना पड़े, उसमें वे अपने कवि को हाशिए पर डालकर भूल गए। मैं जब-तब एक पाठक की दृष्टि से इन गीतों को देखता हूं तो लगता है अगर बाबूजी निरंतर लिखते रहते तो समकालीन परिदृश्य पर एक समर्थ गीतकार के रूप में अपनी अलग पहिचान बना सकते थे।
यूं मुझे अक्सर यह सोचकर हैरानी होती है कि बाबूजी ने एक साहित्यिक के रूप में गीत विधा को क्यों चुना। क्या शायद इसलिए कि उनके विद्यार्थी जीवन में समर्थ गीतकारों की एक पूरी पीढ़ी दृश्य पर मौजूद थी! और किसी भी नए रचनाकार पर उनका प्रभाव न पडऩा असंभव था। बाबूजी के समकालीनों में भवानीप्रसाद मिश्र, मुक्तिबोध व धर्मवीर भारती आदि थे जिन्होंने गीत से ही अपनी साहित्य यात्रा प्रारंभ की थी। ऐसे में मायाराम सुरजन नामक तरुण भी गीत लिखे तो अचरज नहीं होना चाहिए, लेकिन मेरी हैरानी एक तो इस कारण से है कि जब वे अन्य मित्रों की भांति नई कविता की ओर बढ़ सकते थे, उन्होंने ऐसा नहीं किया। दूसरे, वे जिस रचना मंडल के सदस्य थे, उसमें उनके सहित लगभग सभी साहित्य को एक महत्तर उद्देश्य का माध्यम मानने वाले थे। वे सब शाश्वत साहित्य, रचना की स्वायत्तता जैसी धारणाओं से दूर थे तथा कविता उनके लिए मनोरंजन का शगल नहीं थी। और फिर, बाबूजी कविता के बजाय गद्य साहित्य ही प्रमुख रूप से पढऩा पसंद करते थे।
जो भी हो बाबूजी की गीत पंक्तियां रह-रहकर मेरे ओठों पर आ जाती हैं। उनका एक गीत है- ‘पल-प्रतिपल गलती काया को जीने का विश्वास चाहिए।’ इसे डॉ. चितरंजन कर ने कुछ अन्य गीतों के साथ बेहद खूबसूरत ढंग से स्वरबद्ध किया है। सुनो तो रोम-रोम झनझना उठता है। मनुष्य जीवन की सार्थकता का पुरजोर शब्दों में प्रतिपादन इस कविता में है। ऐसी ही उनकी एक अन्य कविता है- ‘जो जीवन से हार गया हो उसमें प्राण जगाओ साथी।’ इसी कविता से मैंने अपनी लेखमाला का शीर्षक उठाया है। मुझे विशेष तौर पर उनका एक गीत पसंद है जो कुछ-कुछ प्रेमगीत सा है- ‘तुम्हें लिखूं क्या पत्र, हृदय की भाषा पढ़ लो।’ इसमें आगे चलकर एक पंक्ति आती है-‘मैं हीरे सी हृदय मणि, तुम मन-मुंदरी में जड़ लो।’ अफसोस कि मुझे सिर्फ यत्र-तत्र पंक्तियां ही ध्यान आती हैं।
1961-62 में बाबूजी ने एक सुदीर्घ कविता लिखी। इसे उन्होंने प्रकशित भी किया- ‘अपयश’ के छद्मनाम से। इस मार्मिक कविता के कुछ बंध प्रस्तुत हैं-
‘यह तो प्रीति तुम्हारी ही थी जैसा चाहा मुझे बनाया
यह भी रीति तुम्हारी ही है कभी हंसाया कभी रुलाया…’
‘तुम खुश तो निशिचर रावण भी सोने की लंका का स्वामी
तुम नाखुश तो दशरथ नंदन हुए राजपथ से वनगामी’
‘तुमने सोचा सृष्टि तुम्हारी माया की मजबूर नहीं अब
ईष्या जब विवेक पर हावी कोई निर्णय क्रूर नहीं तब’
अंतिम पंक्तियां हैं-
‘इसलिए तुम अपने भेद न देना जग तो माया का विश्वासी
मैं अपने कांधे ओढ़ूंगा छलनामय निर्दाेष उदासी।’
मैंने जितना समझा यह गीत मानवीय रिश्तों की जटिल बनावट को खोलकर सामने रख देता है। यह तो मेरी राय हुई। बाबूजी को स्वयं अपना जो गीत प्रिय था, उसकी शुरुआत इस तरह से होती है- ‘बांधो री सखि! नेहदान की सीमा मेरी प्यास सदा अनबुझी रहेगी।’ जब कभी फुर्सत के क्षणों में हम बाबूजी के साथ बैठते और कुछ सुनाने की फरमाइश करते तो अक्सर बाबूजी यही गीत ठेठ कवि सम्मेलनी अंदाज में सुनाते। अगर कुछ और सुनाने की मांग होती तो वे ‘अंदांज’ फिल्म में मुकेश का गाया गीत- ‘झूम-झूम के नाचो आज आज किसी की हार हुई है, आज किसी की जीत’ ही सुनाते या फिर कुंदनलाल सहगल का ‘एक बंगला बने न्यारा।’
बाबूजी ने अपने गीतों के प्रकाशन में कभी रुचि नहीं ली। मैंने ही बीच-बीच में उनसे बिना पूछे डायरी से कविताएं निकालकर दीपावली विशेषांक जैसे अवसरों पर छाप दीं। वे कवि सम्मेलनों व गोष्ठियों में श्रोता के रूप में तो अक्सर जाते थे, लेकिन खुद का कवि रूप में परिचय कभी नहीं दिया। इसमें एक अपवाद हुआ। 22 जनवरी 1969 को मेरे विवाह की संध्या पर नागपुर में। गोधूलि वेला में बारात स्वागत की औपचारिकताओं के बाद बाबूजी सहित सारे लेखक-बाराती चले गए विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन के ‘मोर भवन’ में। वहां सम्मेलन की ओर से इन सबके सम्मान में काव्य गोष्ठी रखी गई थी। मध्यप्रदेश और विदर्भ से आए इतने सारे लेखकों के जुटने का यह अद्भुत अवसर था। बाबूजी के कवि होने का रहस्य जानने वाले किसी मित्र ने राज खोल दिया तो उन्हें कविता सुनाना ही पड़ी। वही- ‘बांधो री सखि! नेहदान की सीमा।’ अगले दिन स्थानीय समाचार में खबर छपी तो सबने आनंद लिया।
बाबूजी ने एक कविता मुझ पर भी लिखी। मैं ग्वालियर में था। 14 नवंबर याने बाल दिवस। बुआजी पाँच माह अस्पताल में बिताकर घर लौट रही थीं। उसी दिन मकान मालिक के बेटे का जन्मदिन था। अनुपम भैया और मैं उसमें चले गए। बुआजी घर आईं तो हम नदारद थे। फूफाजी और बाबूजी दोनों बहुत बिगड़े। बाबूजी ने मुझे गुस्से में एक चाँटा भी जड़ दिया। वे उसके बाद भोपाल रवाना हो गए। रास्ते में कविता लिखी और भोपाल पहुँचते साथ अगले दिन मुझे पोस्ट कर दी। पहिली पंक्ति है-‘दिल के टुकड़े, परम लाड़ले बहुत दुःखी जो तुमको मारा।’ इसके आगे इसमें आगे बाल दिवस का जिक्र है कि चाचा नेहरू के जन्मदिन पर ऐसा नहीं करना था। अपनी यात्राओं के अकेलेपन में किसी शाम मुंबई की चैपाटी पर बैठे-बैठे उन्होंने सारे परिवार के लिए एक गीत रचा-‘सब अपनों से दूर यहाँ मैं शून्य गगन में देखा करता।’ इसमें उन्होंने अपने माता-पिता, पत्नी और चारों बच्चों (1956) को एक-एक पद समर्पित किया।
ललित सुरजन
संस्मरण और पत्र लेखक एक साहित्यिक के रूप में मायाराम सुरजन का जो महत्वपूर्ण योगदान है, वह उनके संस्मरणों से है। ‘मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के’ शीर्षक से उन्होंने जो लेखमाला लिखी, जो बाद में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुई, में न सिर्फ प्रदेश का राजनैतिक इतिहास है, बल्कि वे दुर्लभ राजनैतिक संस्मरण भी हैं। इसके अलावा उन्होंने कुल मिलाकर शताधिक संस्मरण लिखे होंगे जो एक ओर लेखक की गहरी संवेदनशीलता को प्रतिबिंबित करते हैं तो दूसरी ओर उनके विराट अनुभव व सजग विश्व दृष्टि को। ‘अंतरंग’ व ‘इन्हीं जीवन घटियों में’ शीर्षक से प्रकाशित दो पुस्तकों में अधिकतर संस्मरण संकलित हैं, लेकिन अब भी अनेक वृत्तांत पुस्तक रूप में सामने आना बाकी हैं। मायाराम सुरजन उन कुछ संस्मरण लेखकों में हैं जिन्होंने अपने आसपास के जीवन से ऐसे पात्र उठाए हैं जिन पर गुणी लेखकों की नजर सामान्यतः नहीं जाती। प्राथमिक शाला के शिक्षकगण मास्टर नब्बू खाँ, सन्नूलाल जैन, मदनगोपाल पुरोहित, भिड़े जी, कॉलेज के प्राध्यापक श्रीमन्नारायणजी, पन्नालाल बलदुआ, भगवत शरण अधौलिया- इस तरह से लगभग 10-12 गुरुओं को उन्होंने बहुत उदार एवं कृतज्ञ मन से भावभीनी श्रद्धांजलि दी है। वे बाबूसिंह पर भी लिखते हैं जो प्रेस में एक भृत्य के रूप में सेवाएं देते रहे और पं. रामाश्रय उपाध्याय पर भी जो देशबन्धु के संपादक थे। अपने ड्राइवर मारूति राव माने की वृद्ध मां पर ‘आई’ शीर्षक से उन्होंने जो मर्मस्पर्शी संस्मरण लिखा है, उसे पढ़कर मेरी ही आंखों में न जाने कितनी बार आंसू आए होंगे। बाबूजी जिनके संपर्क में आए ऐसे महामनाओं व साहित्यिक विभूतियों पर भी संस्मरण लिपिबद्ध किए हैं। इन सब में निस्संग निश्छल तरलता का प्रवाह प्रारंभ से अंत तक देख सकते हैं।बाबूजी ने 50-60 के बीच अपने अनेक दिवंगत मित्रों पर भी लिखा जैसे जगदलपुर में जनसंपर्क अधिकारी रहे भगवानसिंह मुस्तंजर, नवभारत में सहयोगी कृष्णकुमार तिवारी उर्फ छोटे भैय्या, पुस्तक विक्रेता जोरजी, जबलपुर फुटबाल संघ के महबूब अली आदि। राजेंद्र प्रसाद अवस्थी ‘तृषित’ (आगे चलकर कादंबिनी के संपादक) तब नवभारत में साहित्य संपादक थे। उन्होंने नागपुर से, बाबूजी को पत्र लिखा कि आप ऐसे संस्मरण मत लिखा कीजिए जो रुला डालते हों। भोपाल के अस्पताल में कवि विपिन जोशी का निधन हुआ तो बाबूजी ने अखबार के लगभग पूरे पेज में ‘विपिन जोशी के नाम स्वर्ग में चिटठी’ लिखी। इसमें उन्होंने हिंदी लेखक की जीवन स्थितियों का गहरा व सटीक चित्रण किया। मुझे लगता है कि हमारे समीक्षकों व साहित्यिक पत्रिकाओं का ध्यान मायाराम सुरजन के संस्मरण साहित्य पर जाना चाहिए।बाबूजी के गद्य लेखन में जो प्रवाह, सादगी व तरलता थी, उसे संस्मरणों के अलावा उनके लिखे पत्रों में भी देखा जा सकता है। हिन्दी और अंग्रेजी पर उनका समान रूप से अधिकार था तथा अपने उर्दूदां मित्रों के साथ खतो-किताबत करने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं होती थी। मुझे हमेशा लगते रहा है कि प्रेमचंद की भाषा में जो सादगी है वही बाबूजी और उनके अनन्य मित्र परसाई जी के लेखन में है। बाबूजी ने अपने पचास वर्ष पूरे करने पर एक संस्मरणात्मक लेख लिखा था उस पर उनके और परसाई जी के बीच अखबार के माध्यम से ही जो पत्राचार हुआ वह बेहद रोचक है। इसे बाद में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने परसाईजी के संस्मरणों के अन्तर्गत पुनप्र्रकाशित किया। सुप्रसिद्ध गीतकार नईम के साथ उनका जो पत्र व्यवहार चलते रहा वह भी खासा दिलचस्प है। इसमें उर्दू भाषा और साहित्य पर उनकी गहरी समझ का परिचय मिलता है।उनके पत्र लेखन की खूबसूरती सिर्फ साहित्यकारों को लिखे पत्रों तक सीमित नहीं थी। एक अखबार के संचालक होने के नाते उन्होंने जो व्यवसायिक पत्र लेखन किया, वह भी उनकी भाषा सामथ्र्य व अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है। 1975-80 तक पत्र के लिए विज्ञापन जुटाने हेतु महानगरों तक बाबूजी यात्राएं किया करते थे। वे एक-एक हफ्ते बाहर रहकर लौटते और आने के तुरंत बाद टाइपराइटर पर बैठ जाते। यात्रा में उन्होंने अगर तीस विज्ञापनदाताओं से भेंट की तो वे उनमें से हरेक को व्यक्तिगत धन्यवाद पत्र लिखते। अंग्रेजी में लिखे इन पत्रों का पहला पैराग्राफ कभी भी समान नहीं होता था याने बाबूजी तीस लोगों को तीस तरह से चिटठी लिखते थे।1970 में नेशनल हेराल्ड लखनऊ की एक पुरानी छपाई मशीन रायपुर संस्करण के लिए खरीदने की बात चली। इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र पंडित उमाशंकर दीक्षित नेशनल हेराल्ड का कामकाज देखते थे। बाबूजी ने उन्हें अंग्रेजी में पत्र लिखा और उसमें अपना परिचय देते हुए एक स्थान पर उल्लेख किया कि आप अगर मेरे बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहते हैं तो पंडित डी.पी. मिश्रा या पी.सी. सेठी से पूछ सकते हैं। इस पत्र से दीक्षित जी बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने मशीन हमें उधार में दे दी। जिसका पैसा कुछ समय बाद चुकाया गया। यही नहीं उन्होंने बाबूजी को नेशनल हेराल्ड का डायरेक्टर बनने का प्रस्ताव तक दे दिया। एक बार बाबूजी के वरिष्ठ सहयोगी पंडित रामाश्रय उपाध्याय ने एक प्रभावशाली राजनैतिक परिवार से जुड़े राजनेता पर कोई व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर दी जो नेताजी को नागवार गुजरी। उन्होंने उग्र स्वर में बाबूजी को शिकायती पत्र भेजा तथा सुसंस्कृत न होने का आरोप लगाया। बाबूजी ने बेहद संयत भाषा में उनको उत्तर लिखा। इसकी एक इबारत कुछ इस तरह थी- ‘हम सामान्य लोग हैं। शिष्ट समाज के कायदे क्या जानें। संस्कृति और सम्पत्ति आपको तो विरासत में मिली है, लेकिन आपके पत्र में यदि उस संस्कृति का थोड़ा परिचय मिलता तो बेहतर होता।’ बाबूजी इसी तरह मजे में बड़े से बड़े वार झेल जाते थे और जब उत्तर देते थे तो ऐसे ही सधे तरीके से कि सामने वाला पानी-पानी हो जाए।
ललित सुरजन
‘देखो! वे गरीबी से आगे बढ़े। लंबे समय तक मुश्किलों का सामना किया। उनके मन में भय बना रहता है कि कहीं पुराने दिन लौटकर न आ जाएं। इसलिए वे कृपणता का व्यवहार करते हैं।’ बाबूजी के एक अपेक्षाकृत संपन्न मित्र के बारे में मेरे पूछने पर बाबूजी की यह टिप्पणी थी।
‘लेकिन आपने भी तो बचपन से अब तक घोर मुसीबतें झेलीं। आप कंजूस क्यों नहीं बने।’ मैंने बात आगे बढ़ाई।
‘मेरे भाग्य में जो लिखा है, वह मुझे मिल रहा है। मेरे माध्यम से अगर किसी को कुछ मिलता है तो यह उसका भाग्य है। मुझे अगर कभी जरूरत आन पड़ी तो फिर हाथ-पैर मारेंगे। डर किस बात का।’ यह बाबूजी का उत्तर था।
इसके आगे उन्होंने मुझे समझाया कि सफलता प्राप्त व्यक्ति सब एक जैसे नहीं होते। गुरबत और मुसीबतों का सामना तो बहुतों ने किया होगा, लेकिन उनमें से बहुत ऐसे होते हैं जो अतीत को याद करके घबराते हैं और हाथ खींचकर चलते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो संघर्षों से जीवन-शक्ति ग्रहण करते हैं। आत्मविश्वास पाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि बाबूजी इस दूसरी श्रेणी के ही व्यक्ति थे। बचपन और बाद के संघर्षों का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘धूप-छाँह के दिन’ में किया है, लेकिन वह भी निस्संग होकर। न कोई अतिरंजित बखान और न प्रदर्शन कर सहानुभूति बटोरने की कोशिश।
मायाराम सुरजन ने जीवन में प्राप्त सफलताओं पर कभी अनावश्यक अभिमान नहीं किया तथा समाज व भाग्य को ही वे इसका श्रेय देते रहे। असफलताओं को भी उन्होंने भाग्य-देवता का प्रसाद ही माना। उन्होंने जो कुछ भी अर्जित किया, उसे बाँटने में उन्हें संतोष मिलता था। यह सिलसिला 1945 से ही शुरू हो गया था, जब उन्होंने बी.कॉम. की उपाधि हासिल कर नौकरी शुरू कर दी थी। नागपुर, जबलपुर, भोपाल या रायपुर- बाबूजी जहाँ भी रहे, हमारा घर हमेशा मित्रों, परिचितों व संबंधियों का आशियाना बना रहा। कोई प्रेस में प्रशिक्षण लेने आ रहा है। कोई शहर में रहकर पढ़ाई पूरी करना चाहता है। किसी कन्या का विवाह नहीं हो रहा है सो भैयाजी या बाबूजी के संपर्कों से हो जाएगी। कोई उनके बेटे का मित्र है तो कोई मित्र के मित्र का पुत्र। किसी को बेहतर चिकित्सा की जरूरत है। और यह भी कि गर्मी की छुट्टी के बाद कोई बच्चा अपने घर वापिस लौट रहा है। यहां उसके समवयस्क बच्चे रह रहे हैं तो तय कर लिया- अच्छा तुम भी यहीं रहो। हम तुम्हारे बाबूजी से बात कर लेते हैं। ऐसी उदारता, ऐसी निश्छलता और ऐसी वत्सलता। शायद इसी को देखकर थोड़ी देर के लिए घर पधारी सुप्रसिद्ध अभिनेत्री दीना पाठक ने कहा- मैं भी आपको अब मायाराम नहीं, बाबूजी ही कहूंगी। शायद इसीलिए 1986 में मुंबई में रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन हुआ तो डॉ. ए.बी. बावडेकऱ ने डिस्चार्ज करते वक्त बिल मांगने पर लेटर हैड पर ‘विद् कॉम्प्लीमेंट्स’ लिखकर दे दिया। इतने बड़े डॉक्टर। वे भी पहिली बार मिले अपने इस मरीज को तीसरे दिन से बाबूजी का संबोधन देने लगे।
यह बाबूजी का समुद्र जैसा विशाल हृदय ही था जिसमें सबके लिए जगह थी और अपने पराए जैसी कोई भावना नहीं थी। प्रेस में पहले तो सब उन्हें भैय्या जी कहकर ही संबोधित करते थे, लेकिन जब मैंने भी काम करना प्रारंभ किया तो वे धीरे-धीरे सबके लिए बाबूजी बन गए। उनके उदात्त मन की छोटी सी झलक एक प्रसंग से मिलती है। 1970 में श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री थे। जबलपुर में छात्रों ने उनके प्रवास पर आने पर उग्र प्रदर्शन किया। लाठी चार्ज में बहुत से छात्र घायल हुए जिनमें शरद यादव, रामेश्वर नीखरा आदि शामिल थे। नीखरा विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। बाबूजी कुलपति प्रभुदयाल अग्हिोत्री के पास गए। अनुरोध किया कि घायल बच्चों को देखने आपको अस्पताल चलना चाहिए। आश्वस्त किया कि मैं साथ में हूं, कोई गड़बड़ी नहीं होगी। कुलपति ने उनकी बात मानी और इस तरह विद्यार्थियों का आक्रोश ठंडा पड़ा। इसके बाद बाबूजी ने छात्रों को भोपाल मुख्यमंत्री से मिलने भेजा। उनके नाम एक व्यक्तिगत पत्र भी लिखा। शुक्ल जी ने छात्रों की बातें सुनी और संतोषजनक समाधान किया। आंदोलन समाप्त हो गया। शरद यादव और रामेश्वर नीखरा दोनों राजनीति में बहुत ऊपर तक पहुंचे लेकिन उनकी स्मृतियों में बाबूजी आज भी जीवित हैं।
एक छोटा लेकिन मनोरंजक वाकया रायपुर में देखने मिला। बाबूजी अस्वस्थ थे और अस्पताल में थे। राजनारायण मिश्र याने हम लोगों के ‘दा’ से किसी बात पर वे बेहद नाराज हुए। अस्पताल में दा को बुलाकर कहा कि कोई दूसरी जगह ढूंढ लो। दा सुनकर चुपचाप चले आए। उन्हें अगले दिन फिर तलब किया गया। ‘सुना है बहू बीमार है। उसके ठीक होते तक तुम काम कर सकते हो।’ दा मुस्कुराते हुए वापिस आए। दा की पत्नी याने ममता भाभी सचमुच अस्पताल में भर्ती थीं। यह जानकारी पाकर बाबूजी का गुस्सा उतर गया और पारिवारिक चिंता ने उसका स्थान ले लिया। इसी तरह एक बार कुछ लोग शिकायत लेकर पहुंचे- ‘आपके यहां दीपचंद काम करता है, उसने हमारी लड़की को छेड़ा है।’ बाबूजी ने उनको आश्वस्त किया कि ऐसा दुबारा नहीं होगा। दीपचंद के बड़े भाई फोरमैन दुलीसिंह को बुलाया- ’ लड़का बड़ा हो गया है। इसके लिए जल्दी से लड़की ढूंढो और शादी करवा दो।’ अपने आसपास के लोगों की इस तरह की जो फिक्र उन्होंने की, वह बेजोड़ ही कही जाएगी।
जब उन्होंने रायपुर से अखबार निकालने का इरादा किया तो उनके साथ काम करने वालों में ऐसे चालीस लोग थे जो बिना किसी गारंटी के एक नितांत अपरिचित स्थान में आकर काम करने के लिए स्वेच्छा से सामने आ गए। इन सबका यही कहना था कि आप सुख-दुःख में जैसा भी रखेंगे हम रहेंगे। कालांतर में इनमें से कुछ लोग परिस्थितिवश अन्यत्र जरूर गए, लेकिन अधिकतर रिटायरमेंट की उम्र तक और कुछ तो अपने अंतिम समय तक बाबूजी के साथ जुड़े रहे। ‘देशबन्धु’ की नींव के पत्थर यही लोग थे।
मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि बाबूजी के रूप में ऐसे पिता व मार्गदर्शक मिले जो अप्रतिम मानवीय संवेदनाओं से भरपूर थे तथा जिन्होंने कभी गरीब-अमीर, ऊंच-नीच, छुआछूत या स्वधर्म-विधर्म की धारणा में विश्वास नहीं रखा। मैं अन्यत्र लिख चुका हूं कि मेरे आत्मीय मित्र जमालुद्दीन ने बेटी का विवाह तय किया तो उनके स्वर्गवासी माता-पिता के रिक्त स्थान पर बाबूजी के नाम से निमंत्रण पत्र जारी हुआ। कुल मिलाकर यह बाबूजी की ही देन है कि मानवीय संबंधों के पालन में हमारा परिवार संकीर्णता और पूर्वाग्रहों से काफी हद तक बचा रहा है।
ललित सुरजन
मुझे बचपन में सड़क पर कहीं दो रुपए का नोट पड़ा मिला। घर आकर दादी को बताया तो वे तुरंत मुझे लेकर मंदिर गईं और नोट ठाकुरजी को अर्पित करवा दिया। एक बार और ऐसा हुआ। माँ (दादी के लिए हमारा यही संबोधन था। बाबूजी उन्हें बाई कहते थे) ने यही सीख अपनी इकलौती संतान मायाराम को उसके बचपन में दी होगी।
हम सपरिवार वृंदावन में छुट्टियाँ मना रहे थे। बुआजी मंदिर गईं। लौटीं तो उनके पैरों में दूसरी चप्पलें थीं। बाबूजी की नजऱ पड़ी। ‘विमल! ये किसकी चप्पलें पहिन आईं।’
‘भैया! मेरी चप्पलें शायद कोई और पहिनकर चला गया। ढूंढ़ी, नहीं मिलीं। मैं भी जो पैरों में फिट आईं, पहिनकर आ गई।’
बाबूजी इस पर नाराज हुए। ‘जाओ, अभी, वापिस रखकर आओ। चोरी, वह भी मंदिर में जाकर।’
रुऑंसी बुआजी (स्व.विमल पुरोहित) उल्टे पैर मंदिर गईं। उनके पीछे-पीछे बाबूजी भी गए। मंदिर से नंगे पैर लौटते वक्त बराबर में नई चप्पलें दिलवाईं।
ऐसे ही एक प्रसंग में मुझे बाबूजी से एक करारा थप्पड़ खाना पड़ा। ऋषिकेश में पैदल घूमते-घूमते आम के पेड़ों पर कैरियाँ लदी दिखीं। अनुपम भैया और मैंने 4-6 कैरियाँ तोड़ लीं कि शाम के भोजन में चटनी बनाएंगे। बाबूजी इस बीच आगे बढ़ गए थे। हम लोगों को साथ न देखकर वापिस लौटे। कैरियाँ देखीं और माजरा समझ आ गया। पहिले बरसे- कैरियाँ वापिस पेड़ में लगाकर आओ। हम हतप्रभ। दंड मिला। फिर चैकीदार को ढूंढा। उसे कैरी की अनुमानित कीमत चुकाई। उसके बाद हमें सीख- पेड़ सरकार के हैं। तुम्हारा उन पर अधिकार नहीं है। आगे से ऐसी गलती मत करना।
उनके व्यक्तित्व का एक और पहलू ध्यान आता है। 1961-62 डाक से अखबार भेजने पर मात्र दो पैसे का टिकिट लगता था। मैंने अंतर्देशीय या लिफाफे पर 2-2 पैसे के पाँच टिकिट लगा दिए। बाबूजी की नजऱ पड़ गई। बहुत शांति से उन्होंने समझाया- डाक टिकिट विदेश से छपकर आते हैं। इसमें बहुमूल्य विदेशी मुद्रा लगती है। बाजू में पोस्ट ऑफिस है। तुम वहां जाकर दस पैसे का एक टिकिट खरीद सकते थे। चार टिकिट में जो कागज- छपाई लगी, वह बच जाती। जरा से आलस में तुमने देश का नुकसान कर दिया। उनकी सीख आज भी कानों में गूंजती है, लेकिन फिर मन खुद से पूछता है- कोई है जो आज की नई पीढ़ी को ऐसी मूल्यवान शिक्षा दे सके।
यह तो विदेशी मुद्रा बचाने की बात थी, लेकिन अपव्यय उन्हें बिलकुल बर्दाश्त नहीं था। प्रेस में आते-जाते उन्हें एक पिन भी फर्श पर गिरी दिखती तो उसे उठाकर पिनकुशन में लगा देते। दूसरी तरफ रोजाना आने वाली डाक में यदि किसी पत्र पर डाकखाने की मोहर लगना छूट जाती तो वे तुरंत स्याही से काट देते कि कोई दोबारा उस टिकिट का उपयोग न करे। उनका तर्क बहुत सीधा था। टिकिट का प्रयोजन पूरा हो गया है। उसे दुबारा उपयोग में लाना देश के साथ धोखाधड़ी है।
बाबूजी स्वाधीनता संग्राम के संस्कारों में पगे हुए व्यक्ति थे। अपनी पीढ़ी के लाखों देशवासियों की भांति उन्होंने भी अपने मन में स्वाधीन भारत के निर्माण अथवा विकास के प्रति ढेरों कल्पनाएं की थीं, कितने ही सपने संजोए थे। यह निष्ठा अंतिम समय तक उनके साथ बनी रही। मैं जब सातवीं में पढ़ रहा था, तब उन्होंने ‘आई.एन.एस. डफरिन’ का दाखिला फार्म मंगवाया। भारतीय नौसेना के इस प्रशिक्षण पोत पर संभवतः 12 साल की आयु में कैडेट भर्ती किए जाते थे, जिन्हें अन्य विषयों के साथ सामरिक प्रशिक्षण भी दिया जाता और पढ़ाई पूरी होने पर जो नौसेना अधिकारी बन जाते। बाबूजी मुझे वहां भेजना चाहते थे, लेकिन उसी समय कुछ ऐसे कारण बने कि मैं ‘डफरिन’ पर जाने की बजाय नागपुर पहुंच गया। कुछ साल बाद ही भारत पर चीनी आक्रमण हुआ तो बाबूजी ने तत्काल जबलपुर में सेना भरती कार्यालय में अपना आवेदन जमा किया कि देश पर आए इस अभूतपूर्व संकट के समय वे अपनी सेवाएं एक सैनिक के रूप में देना चाहते हैं। बाबूजी की उम्र तब 40 वर्ष की लगभग थी। उनका आवेदन खारिज कर दिया गया तो उन्होंने सैनिक मुख्यालय दिल्ली को अपील की, लेकिन वहां से भी धन्यवाद पत्र के साथ मनाही आ गई।
इसके बाद एक लंबा अरसा गुजर गया। 1977 के आसपास नागार्जुन ने तीखे स्वर में एक कविता लिखी- ‘किसकी है छब्बीस जनवरी किसका पंद्रह अगस्त है सब यहाँ मस्त हैं लोग यहाँ मस्त हैं।’ किसी पत्रिका में यह कविता पढ़ी। हमारे संपादकीय सहयोगियों को पसंद आई और संभवतः 1979 के गणतंत्र दिवस परिशिष्ट में उसे हमने प्रमुखता के साथ, बल्कि विशेष साज-सज्जा के साथ पुनप्र्रकाशित कर दिया। जब यह अंक बाबूजी ने देखा तो मर्माहत हुए। उन्हें यह कतई अच्छा नहीं लगा कि 26 जनवरी अथवा 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्व को हम उल्लास के बजाय शंकाकुल दृष्टि से देख रहे हैं। उनकी पीड़ा कविता को लेकर नहीं, 26 जनवरी पर उसके छपने को लेकर थी। वे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इस महान दिन को देख रहे थे और जाहिर है कि राजनैतिक जीवन में आई गिरावट के बावजूद जनतांत्रिक व्यवस्था के प्रति उनकी आस्था में कोई कमी नहीं आई थी।
साध्य और साधन दोनों की पवित्रता के प्रति बाबूजी के मन में गाँधीवादी आग्रह था। यहाँ मैं उन दो प्रसंगों का उल्लेख करना चाहूंगा जो मेरी बी.ए. अंतिम की परीक्षा से ताल्लुक रखते हैं। बाबूजी के परम् मित्र अजय चैहान के छोटे भाई विजय चैहान ने 1964 की बी.ए. परीक्षा का राजनीतिशास्त्र का द्वितीय प्रश्नपत्र तैयार किया। उन्होंने स्नेहवश मुझे कुछ प्रश्नों के संकेत दे दिए। बाबूजी ने देखा कि कल पेपर है और मैं पढ़ नहीं रहा हूं। उन्होंने मुझे पूछा तो मैंने बता दिया कि मुझे छोटे भैया (विजय चैहान) ने महत्वपूर्ण प्रश्न तैयार करवा दिए हैं। वे माजरा समझ गए। बड़े भैया, छोटे भैया की खूब खबर ली कि लड़के को बिगाड़ते हो। रातोंरात पेपर बदला गया और अगले दिन मुद्रित की जगह साइक्लोस्टाइल्ड पर्चा हमें हल करना पड़ा। गनीमत है कि मैं पढ़ाई में अच्छा था।
1964 में ही मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन में जबलपुर विश्वविद्यालय में बी.ए. हिन्दी में सर्वाधिक अंक पाने वाले विद्यार्थी को सुभद्रा कुमारी चैहान स्वर्णपदक देने का निर्णय लिया। परीक्षा परिणाम आया तो मुझे ही सर्वाेत्तम अंक मिले थे-150 में 117 याने प्रावीण्य। बाबूजी ने उस वक्त स्वर्णपदक देने का निर्णय स्थगित करवा दिया कि वे स्वयं सम्मेलन की कार्यकारिणी के सदस्य थे और उनके पुत्र को स्वर्णपदक मिलने से गलत संदेश जाएगा।
ललित सुरजन
एक पत्रकार के रूप में मायाराम सुरजन के कृतित्व का अवलोकन हम करें, उसके पूर्व शायद यह उचित होगा कि उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं से अवगत हो लें। उनकी एक पुस्तक के ब्लर्व पर मैंने यह जानकारी दी है कि जब बाबूजी का निधन हुआ तब उनके बैंक खाते में मात्र तीन हजार (3,000/-) की राशि जमा थी। हमने उनकी स्मृति में मायाराम सुरजन फाउंडेशन की स्थापना की तो यह राशि उसके काम में लाना चाहते थे। लेकिन बैंक को उत्तराधिकार प्रमाण पत्र चाहिए था तथा इस छोटी सी रकम को हासिल करने में शायद उससे दुगनी राशि वैधानिक औपचारिकताओं में खर्च हो जाती सो यह राशि बैंक को ही समर्पित हो गई। जिस व्यक्ति ने अपने पचास साल के व्यवहारिक जीवन में समाचार पत्रों का प्रबंधन किया हो व पत्र स्थापित किए हों, उसके पास कोई निजी पूंजी न हो, यह आश्चर्यजनक प्रतीत हो सकता है, लेकिन बाबूजी इस मामले में पूरी तरह निस्पृह थे। मुझे जब 1984 में स्वामी प्रणवानंद पत्रकारिता सम्मान के साथ 5,000/- की पुरस्कार राशि मिली तो भोपाल में मेरी अनुपस्थिति में उन्होंने यह सम्मान तो ले लिया किंतु पुरस्कार राशि वहीं न्यास अध्यक्ष को वापिस सौंप दी कि ललित को इसकी जरूरत नहीं है। इस राशि का आप अन्यत्र बेहतर उपयोग कर सकते हैं।
इसी तरह का दूसरा आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि उनके पास अपने जीवनकाल में स्वयं का कहने के लिए कोई घर नहीं था। हम भाईयों के अपने घर बन सकें, इसके लिए उन्होंने अवश्य प्रयत्न और सहायता की किंतु खुद का घर नहीं बनाया। यह एक संयोग है कि मेरे पास भी न तो अपना मकान है और न ही जमीन का कोई टुकड़ा। बाबूजी इन मामलों में शायद कहीं अपने पिता से प्रेरित हुए होंगे। उनके पास गांव में बहुत थोड़ी कृषि भूमि और एक छोटा सा कबेलू वाला घर था। जब बाबूजी नवभारत के जनरल मैनेजर बने और वेतन 500 रुपए प्रति माह हुआ तो दादाजी ने अपनी नाममात्र की अचल संपत्ति भी अपने दो विश्वस्त या आत्मीय साथियों को भेंट कर दी। ‘भैया (यानी बाबूजी) अब खूब अच्छे से कमा रहे हैं। मुझे अब संपत्ति की जरूरत नहीं है।’ 1956 में राजधानी बनने के बाद स्वाभाविक रूप से भोपाल का विस्तार प्रारंभ हुआ। पत्रकार के रूप में बाबूजी को एकदम मौके की जगह मालवीय नगर में भूखंड की पेशकश सरकार की ओर से हुई। बाबूजी ने अपने मालिक रामगोपाल माहेश्वरी के लिए भूखंड आबंटित करवाया, लेकिन अपने लिए नहीं लिया। उनके चचेरे भाई भगवानदास माहेश्वरी ने उन्हें बिना बताए उनके नाम पर अपने पास से रकम भर प्लॉट ले लिया, लेकिन आगे चलकर बाबूजी ने वह भूखंड भी उन्हीं को वापिस सौंप दिया। रायपुर में अवश्य एक-दो बार अवसर आए और उनकी इच्छा भी हुई कि मकान बना लिया जाए, लेकिन सीमित साधन हमेशा प्रेस की जरूरतों के काम आते रहे व निजी स्थायित्व की भावना हाशिए पर डाल दी गई। रायपुर की चैबे कॉलोनी में एक मकान मेरे नाम पर बना। वह भी उनके स्नेही मित्र बैंक प्रबंधक गिरधरदास डागा के दबाव व हिम्मत के कारण। इस घर में हमारा कोई बीस साल डेरा रहा, लेकिन एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री की कोपदृष्टि के शिकार अखबार के कर्ज पटाने में यह घर भी भेंट चढ़ गया।
बाबूजी के मित्र अक्सर कहा करते थे कि मायाराम जी रेत में नाव चलाते हैं। याने गाँठ में पैसा नहीं है, लेकिन किसी न किसी तरह पेपर रोज निकल ही जाता है। इस ‘किसी न किसी तरह’ में परिवार से संबंधित एक मार्मिक तथ्य भी शामिल है। 1975 में उन्होंने अपनी बड़ी बहू माया को एक पत्र भोपाल से भेजा- ‘देशबन्धु प्रारंभ करने के समय बाई (माँ) के गहने बिके। बाद में तुम्हारी बाई (याने मेरी माताजी) के और अब तुम्हारे गहने भी प्रेस की जरूरत के काम आए। मुझे इसकी बेहद पीड़ा है और तुम पर गर्व। पत्र का भाव लगभग यही था कि परिवार का तीन पीढिय़ों का स्त्रीधन व्यापार के घाटे उठाने में लगा दिया गया और इससे वे मन ही मन बेहद आहत थे। दरअसल, ऐसी स्थितियाँ इसलिए बनीं, क्योंकि बाबूजी ने पत्रकारिता के मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। इसकी विस्तृत चर्चा मैं आने वाले दिनों में करूंगा। स्वयं बाबूजी की आत्मकथा में इन स्थितियों की झलकियाँ हैं। यहां उनके व्यक्तिगत का एक विरोधाभास भी देखने मिलता है।’
बाबूजी एक ओर जहाँ अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करते थे, वहीं वे किसी हद तक भाग्यवादी भी थे। जबलपुर के सुप्रसिद्ध ज्योतिविद् पं. बाबूलाल चतुर्वेदी उनके मित्र थे तथा उनसे वे हमेशा सलाह-मशविरा करते थे। इसके अलावा उनकी अनेक ज्योतिषियों व भविष्यवक्ताओं से अच्छा खासा संपर्क था। नई दुनिया के पृथ्वीधराचार्य याने एम.जी. ढाते से भी वे पत्र लिखकर सलाह लेते थे। हम सब भाई-बहिनों की कुंडलियाँ उन्होंने बनवाईं। विवाह के समय उनका मिलान वगैरह भी करवाया। उनकी अपनी कोई 20-25 कुंडलियाँ बनी होंगी। उनके पुस्तक संग्रह में हस्तरेखा अध्ययन की पुस्तकें थीं तथा वे स्वयं शौकिया तौर पर हस्तरेखा देख लेते थे। उसके बावजूद यह सच्चाई अपनी जगह है कि उन्होंने निजी या व्यवसायिक निर्णयों में कभी ज्योतिषियों की सलाह पर अमल नहीं किया। एक बार कुछ हफ्तों के लिए उन्होंने अंगूठी पहनी। वह भी उतार दी। मुझे लगता है कि भविष्यवेत्ताओं की राय वे जैसे अपना मनोबल बढाने के लिए ही लेते थे। पंडितजी ने कहा कि सब मंगल हो मंगल होगा और वे इतना सुनकर ही स्वयं को आने वाले समय के लिए तैयार कर लेते थे।
यही स्थिति पूजा-पाठ को लेकर थी। कर्मकांड में उनका विश्वास अत्यन्त क्षीण था। अपनी माँ के निधन के बाद उनकी पूजा पेटी बाबूजी ने ली और संभवतः माँ की स्मृति का सम्मान करने के लिए ही उन्होंने उसके बाद प्रतिदिन लगभग पाँच मिनिट की पूजा करना प्रारंभ किया। यह जून 1966 की बात है। इसके पूर्व मैंने उन्हें कभी घर पर पूजा करते नहीं देखा। रायपुर में शाम को घर लौटते समय वे गोपाल मंदिर, सदर बाजार लगभग रोज ही आते थे, लेकिन वहां भी सदर बाजार के मित्रों से भेंट व गपशप करना ही प्रमुख उद्देश्य होता था। मेरे व परिवार के अन्य विवाहों में उन्होंने कभी गणेश स्थापना नहीं करवाई और न ही दीपावली पर हमारे घर में लक्ष्मी पूजन की प्रथा रही। इन मौकों पर वे कुटुंब के इष्ट देव श्रीनाथजी को ही साक्षी बनाते रहे। हाँ, यदि परिवार के किसी सदस्य ने या प्रेस में किसी सहयोगी ने पूजा व कर्मकांड संबंधी कोई सुझाव दे दिया तो उसे वे मान लेते थे। ‘अच्छा भाई, तुम्हारी इच्छा है तो यह भी कर लो।’ कुल मिलाकर वे आस्तिक तो थे, लेकिन अंधविश्वासी कतई नहीं।
उनकी सादगीपूर्ण जीवन शैली और आस्तिकता का एक मिला-जुला रूप देखने मिला छोटे भाई देवेंद्र के विवाह में। रायपुर के निकट दार्शनिक-संत महाप्रभु वल्लभाचार्य के जन्मस्थान चंपारन के मंदिर में देव का विवाह संपन्न हुआ। उस समय एक छोटी सी धर्मशाला थी। उसमें ही दोनों पक्ष के सदस्य ठहरे तथा बिना किसी आडंबर के शुभ कार्य पूरा हुआ। कुछ साल बाद इस प्रसंग को विस्तार के साथ दोहराया गया। देव से छोटे दीपक का विवाह निश्चित हुआ। बाबूजी ने इसे सामूहिक विवाह का स्वरूप दिया। दीपक व ममेरे भाई श्याम के साथ तीन अन्य जोड़े इसमें शामिल हुए। तब तक चंपारन में दो धर्मशालाएं निर्मित हो चुकी थीं। एक में सारी बारातें ठहरीं व दूसरी में सभी कन्या पक्ष। बाबूजी ने एक मिसाल सामने रख दी। इसका थोड़ा बहुत अनुसरण आज भी हो जाता है, लेकिन शादी-ब्याह में आडंबर तजने के लिए भारतीय समाज आज भी पूरी तरह से तैयार नहीं है, इस हकीकत को हम जानते हैं। अपने सामाजिक विचारों के कारण बाबूजी को यदा-कदा परेशानी भी झेलनी पड़ी। छोटी बहिन इति का विवाह तय करने में दो-तीन घरों से यही सूचना दबे स्वर में मिली कि मायाराम जी दहेज नहीं लेते तो न लें, लेकिन दहेज देंगे नहीं तो उनके घर संबंध करने में क्या लाभ! ऐसे अवसरों पर बाबूजी स्वयं को यही कहकर समझा लेते थे- जो भाग्य में लिखा है वही होगा।
ललित सुरजन
अपने पचास साल के पत्रकार जीवन में मायाराम सुरजन के विभिन्न राजनीतिक दलों और सत्ताधीशों के साथ अलग-अलग स्तर पर रिश्ते रहे। मुख्य बात यह है, कि एक पत्रकार के रूप में बाबूजी ने राजनेताओं के साथ सदैव एक सम्मानजनक दूरी रखी। जिनके साथ उनकी वैचारिक सहमति थी, उन्होंने कभी भी उनके निकट होने का प्रयत्न नहीं किया, और न ही जिनसे व्यक्तिगत या वैचारिक मतभेद हुए उनके प्रति कोई दुर्भावना मन में रखी। वे स्वाधीनता संग्राम के दौर की उपज थे तथा देश प्रदेश की राजनीति में उनकी सक्रिय दिलचस्पी थी; वे मध्यप्रदेश की राजनीति को जितनी बारीकी से जानते थे वह बेमिसाल थी, लेकिन इसे आधार बनाकर उन्होंने पत्रकारिता से इतर कोई महत्वाकांक्षा मन में नहीं पाली।
मायाराम सुरजन के पत्रकार जीवन का प्रारंभ 1943 में होता है। वे वर्धा में बी.कॉम. के विद्यार्थी थे तथा मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने वर्धा नगर विद्यार्थी हिन्दी साहित्य परिषद का गठन किया था। इसमें उन्होंने ‘प्रदीप’ नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका भी प्रकाशित की जिसके दो अंक सौभाग्य से देशबन्धु लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। इस पत्रिका में उनके सहयोगी थे टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा और सुखचैन बासल। श्री टिकरिहा ने आगे चलकर छत्तीसगढ़ में एक लेखक पत्रकार के रूप में अपना स्थान बनाया व श्री बासल जबलपुर में वाणिज्य के प्राध्यापक बने। अच्छे सुन्दर नीले रंग के लाइन वाले कागज पर बाबूजी की हस्तलिपि में ही उस पत्रिका का ज्यादातर लेखन हुआ। विद्यार्थियों की इस पत्रिका से ही ज्ञात हो जाता है कि बाबूजी के राजनैतिक विचार किस दिशा में विकसित हो रहे थे।
मैंने जो दो अंक देखे उनमें से एक में यरवदा जेल में कस्तूरबा गांधी के अस्वस्थता पर चिंता प्रकट करते हुए संपादकीय है। दूसरे अंक में राष्ट्रमाता कस्तूरबा के निधन पर शोक विह्वल संपादकीय श्ऱद्धांजलि है। इन दोनों लेखों में ब्रिटिश सरकार की खुली आलोचना है। आश्चर्य नहीं कि इस कारण विद्यार्थी मायाराम पर सरकार की निगाहें टेढ़ी हुई हांे लेकिन उन पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई। इसके दो कारण हो सकते हैं- एक तो यह कि स्नेहिल प्राचार्य श्रीमन्नारायण जी ने उन्हें किसी तरह से वर्धा से अपने गांव भिजवा दिया और दूसरे यह कि वर्धा के उस समय के पुलिस अधीक्षक राय साहब करतारनाथ के हम उम्र बेटे प्रेमनाथ के साथ उनकी मित्रता हो गई थी। ये वही प्रेमनाथ हैं जिन्हें हम हिन्दी फिल्मों के एक चर्चित अभिनेता के रूप में जानते हैं। 1962 में पिता की मृत्यु के बाद प्रेमनाथ बंबई छोड़कर कुछ समय के लिए जबलपुर आ बसे थे। तब दोनों मित्र अरसे बाद फिर मिले।
वर्धा में अपने छात्र जीवन के दौरान बाबूजी, गांधीजी, पंडित नेहरू तथा अन्य महान स्वाधीनता सेनानियों के संपर्क में आए। लेकिन उन पर वैचारिक रूप से गांधी और नेहरू का ही प्रभाव पड़ा। मैंने बाबूजी की सुरुचि सम्पन्नता को देखा है और उसमें नेहरूजी की नफासत की झलक महसूस की है। दूसरी ओर उनमें भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति वैसी ही निस्पृहता थी जो बापू की याद दिलाती थी। इस तरह अपने निजी आचरण और सिद्धांत दोनों में उन्होंने इन दो महान नेताओं की प्रेरणा ली, ऐसा मुझे अकसर महसूस होता है। वे 1945 में नौकरी करने नागपुर आ गए। यहां उन्होंने नौकरी के साथ-साथ लॉ कॉलेज में भी प्रवेश लिया। इस दौरान नवभारत में अपने वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी शैलेन्द्र कुमार के कारण वे वामपंथियों के नजदीक आए तथा इसी दौर में उन्हें ए.बी. वर्धन जैसे मित्र भी मिले। बाबूजी स्टूडेंट फेडरेशन में सक्रिय हुए तथा प्रगतिशील लेखक संघ में भी राजीव सक्सेना आदि उनके मित्र बने। इस तरह अपनी तरूणाई में ही उन्होने वाम रुझान के साथ मध्यमार्ग (लैफ्ट ऑफ सेंटर) को अपनाया तथा तमाम झंझावातों के बीच भी उन्होंने इस पथ को नहीं छोड़ा।
उनके जीवनकाल में पहले सीपी एवं बरार और फिर नए मध्यप्रदेश में अधिकतर समय कांग्रेस का ही शासन रहा। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ उनके परस्पर विश्वास के संबंध रहे। दूसरी तरफ साम्यवादियों ने भी उन्हें अपने निकट समझा। कांग्रेस से टूटकर निकले समाजवादियों के साथ भी उनके आत्मीय संबंध बने रहे। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि जनसंघ अथवा भाजपा के नेताओं के साथ भी उनके संबंध सदैव सौजन्यपूर्ण बने रहे। यहां एक प्रसंग का उल्लेख करना उचित होगा। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। मुख्यमंत्री कैलाश जोशी राजकीय यात्रा पर पहली बार रायपुर आए। विमानतल पर देशबन्धु के तत्कालीन चीफ रिपोर्टर गिरिजाशंकर उनसे मिले तो जोशी जी ने सवाल किया- मायाराम जी कहां हैं? गिरिजा ने बताया कि – वे जबलपुर में हैं तो जोशी जी बोले- ये क्या बात हुई। मैं तो आज उनके साथ भोजन करने की सोचकर आया था। जब जोशी जी दुबारा रायपुर आए तो हमारे घर भोजन करने आए। राजनीति और पत्रकारिता दोनों ही क्षेत्रों में संबंधों का ऐसा निर्वाह बिरले ही देखने मिलता है।
1977-80 के बीच प्रदेश में जनता पार्टी के तीन मुख्यमंत्री हुए। कैलाश जोशी के अलावा सुन्दरलाल पटवा के साथ बाबूजी और देशबन्धु के संबंध सौजन्यपूर्ण ही रहे। श्री वीरेन्द्र कुमार सखलेचा इसका अपवाद थे। 1978 में किरंदुल गोलीकांड की जैसी रिपोर्ट देशबन्धु में छपी एवं सखलेचा सरकार की जो मर्यादित आलोचना अन्य प्रश्नों पर हुई वह मुख्यमंत्री को नागवार गुजरी। श्री सखलेचा ने इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि बाबूजी ने अपने लेखों में उनकी प्रशासनिक क्षमता की सराहना भी की थी तथा काम के बदले अनाज जैसी योजना को पत्र का पूरा समर्थन दिया था। उनके कार्यकाल में देशबन्धु के विज्ञापनों में भारी कटौती हुई तथा हमें अपना भोपाल संस्करण मजबूरन बंद करना पड़ा। अनेक वर्षों बाद संसद के सेंट्रल हॉल में सखलेचा जी से मेरी भेंट हुई तब उन्होंने स्वीकार किया कि देशबन्धु को समझने में उनसे चूक हुई थी।
ललित सुरजन
मध्यप्रदेश में मायाराम सुरजन संभवतः एकमात्र ऐसे पत्रकार थे जिन्हें पूरे प्रदेश के राजनैतिक इतिहास व भूगोल का ज्ञान था। उन्होंने नागपुर से पत्रकारिता शुरू की तो उस दौरान विदर्भ को नजदीक से जाना समझा। इसी दौरान उन्होंने छत्तीसगढ़ की राजनीति का भी निकट से परिचय प्राप्त किया। वे जब जबलपुर आए तो महाकौशल को तो स्वाभाविक रूप से उन्होंने देखा ही, विंध्य प्रदेश से भी वे परिचित हुए क्योंकि जबलपुर नवभारत का प्रसार पूरे विंध्य प्रदेश में था। जबलपुर में रहते हुए ही 1952 में उन्होंने नवभारत का भोपाल संस्करण प्रारंभ किया तथा नया राज्य बनने के बाद 1956 में वे भोपाल चले गए। इस अवधि में उन्होंने मध्यभारत की राजनीति का भी गहन अध्ययन किया। अपने इस ज्ञान और अनुभव के बलबूते ही वे मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास पर ‘मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के’ जैसी पुस्तक लिख सके।
इस तथ्य का उल्लेख करना आवश्यक है कि 1945 में बाबूजी ने पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि विज्ञापन विभाग में एक क्लर्क के रूप में अपने कर्मजीवन की शुरूआत की थी। उनकी सहज रुचि पत्रकारिता में थी इसलिए वे संपादकीय विभाग की कार्यप्रणाली का भी साथ-साथ अध्ययन करते रहे। यही नहीं उन्होंने व्यवस्था विभाग के अन्य पहलुओं को भी बारीकी से जाना। यह उनकी कार्यकुशलता व लगन का ही परिणाम था, कि रामगोपाल माहेश्वरी ने जब जबलपुर से नवभारत प्रारंभ करने का निर्णय किया तो बाबूजी को व्यवस्था का प्रभार देकर जबलपुर भेजा। जबलपुर संस्करण के पहले संपादक कुंजबिहारी पाठक अक्खड़ प्रवृत्ति के थे, जिनके लिए कार्यालय के अनुशासन में बंधना संभव नहीं था इसलिए बहुत जल्दी, छह-आठ माह के भीतर ही बाबूजी को संपादक एवं व्यवस्थापक दोनों प्रभार एक साथ संभालना पड़े। यह संभवतः वह बिन्दु है जहां उन्हें अपने मनचाहे क्षेत्र में काम करने का अवसर उन्हें मिला। इस अवधि में राजनीति, कला, साहित्य, शिक्षा, खेल इत्यादि तमाम क्षेत्रों में उनके परिचय विकसित हुए। हरिशंकर परसाई, अजय चैहान व हनुमान प्रसाद वर्मा जैसे सुख-दुःख के साथी उन्हें इस दौरान मिले। अपने सहयोगियों के रूप में उनके साथ श्यामसुन्दर शर्मा, रघुनाथप्रसाद तिवारी, हीरालाल गुप्त, श्यामबिहारी पटेल व प्रेमशंकर धगट इत्यादि पत्रकार जुड़े जिन्होंने आगे चलकर पत्रकारिता अथवा जनसंपर्क में यश अर्जित किया।
भोपाल से उन दिनों कोई अखबार नहीं निकलता था। नवभारत के विस्तार के लिए बाबूजी ने इसे उपयुक्त अवसर समझा तथा 1952 में टेबलायड आकार में नवभारत का भोपाल में प्रकाशन शुरू हुआ। प्रखर पत्रकार प्रेम श्रीवास्तव इसके स्थानीय संपादक बने। संभवतः माहेश्वरी जी के मन में यह कल्पना थी कि उनके तीनों पुत्रों के पास अपना एक-एक स्वतंत्र प्रभार हो तथा इसी से प्रेरित होकर भोपाल की यह पहल हुई। उस समय किसी को कल्पना नहीं थी कि नया मध्यप्रदेश बनेगा और भोपाल उसकी राजधानी होगी। दरअसल जब राज्य पुनर्गठन का फैसला अंतिम रूप से हो गया तब जबलपुर को राजधानी बनाने के आंदोलन में बाबूजी ने बहुत सक्रियता के साथ भाग लिया व अग्रणी भूमिका निभाई। यद्यपि इस आंदोलन का कोई वांछित परिणाम नहीं मिला। जब तय हो गया कि राजधानी भोपाल में बनेगी तो भोपाल के टेबलायड आकार को संपूर्ण समाचार पत्र का रूप देने में बाबूजी जुट गए। जबलपुर कार्यालय से चुने हुए लोगों की एक टीम इस कार्य को अंजाम देने भोपाल गई।
उस समय तक भोपाल नवभारत इब्राहिमपुरा मोहल्ले में एक किराए के मकान में स्थापित था। कांग्रेस नेता लाला मुल्कराज की इस कोठी में पहली मंजिल पर ट्रेडिल मशीन लगी थी जिस पर पेपर छपता था। 1956 में जहांगीराबाद में किराए का एक बड़ा मकान ढूंढा गया और प्रेस वहां चला गया। इब्राहिमपुरा का घर हमारा निवास बन गया। नीचे दरवाजे पर बाबूजी के नाम की जो तख्ती लगी थी वह वहां लगभग पचास साल तक लगी रही। लाला जी अथवा उनके बाद उनके बेटों ने इस नेमप्लेट को शायद स्नेह के वशीभूत होकर नहीं हटाया। कुछ माह बाद ही बाबूजी ने जहांगीराबाद के किराए के मकान को खरीदने का विचार किया और यह सौदा पक्का हो गया। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि 1957 में दशहरे के दिन नवभारत के अपने भवन में गृहप्रवेश का कार्यक्रम रखा गया। इसके लिए बाबूजी नागपुर से माहेश्वरी जी के सबसे छोटे पुत्र श्री विनोद को कार से भोपाल लाए। इस यात्रा में मैं और नागपुरवासी मेरे बुआजी के बेटे अनुपम भैया भी साथ में थे। नागपुर से भोपाल तक की सड़क उस समय कैसी रही होगी, पाठक इसकी कल्पना कर सकते हैं। सुबह के निकले हम शाम छह-सात बजे नर्मदा पार कर बुधनी पहुंचे और उसके आगे कच्ची सड़क पर रास्ता भटक गए। दो तीन घंटे बाद किसी तरह सही रास्ते पर लौटे। गांव के रिश्ते से विनोद बाबूजी को मामाजी कहते थे। अनुपम भैया तो भांजे थे ही। इसीलिए बाबूजी ने पुरानी कहावत को याद किया कि मामा-भांजे को एक नाव में कभी साथ नहीं बैठना चाहिए।
1957 में ही मध्यप्रदेश की पत्रकारिता के इतिहास में मायाराम सुरजन ने एक नया अध्याय जोड़ा। उन्होंने नए प्रदेश की राजधानी से अंग्रेजी का पहला समाचार पत्र निकालने की योजना बनाई। माहेश्वरी जी ने प्रारंभ में इसमें रुचि नहीं दिखाई लेकिन वे अंततः राजी हुए तथा भोपाल से मध्यप्रदेश क्रॉनिकल का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। उन दिनों भोपाल एक बहुत छोटा शहर था- नए मध्यप्रदेश के बड़े शहरों में पांचवें क्रम पर। अंग्रेजी पत्र के लिए संपादक मिलना मुश्किल था। बाबूजी ने नागपुर में अपने दो मित्रों के.पी. नारायणन और शिवराज सिंह से संपर्क किया जो क्रमशः हितवाद और नागपुर टाइम्स में काम कर रहे थे तथा उन्हें अपने साथ भोपाल आने के लिए राजी किया। श्री नारायणन इस पहले अंग्रेजी पत्र के संपादक बने। बाबूजी समूह के महाप्रबंधक थे, लेकिन अपने से उम्र में बड़े नारायणन साहब को उन्होंने हमेशा आदर दिया और जरूरत पड़ने पर उनके केबिन में जाकर ही उनसे बातचीत की।
ललित सुरजन
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गत साठ वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता का जो विकास हुआ उसमें मायाराम सुरजन का योगदान अग्रणी रहा। उन्होंने नागपुर, जबलपुर और भोपाल में काम करते हुए पत्रकारिता को एक स्वस्थ व निरंतर विकासशील स्वरूप प्रदान किया तथा पत्रकारों की ऐसी कम से कम दो पीढ़ियां तैयार कर दीं जिन्होंने आगे चलकर न सिर्फ मध्यप्रदेश बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान कायम की। 1959 में जब बाबूजी रायपुर आए तब यहां से सिर्फ एक ही समाचार पत्र निकलता था- महाकौशल। लेकिन बाबूजी द्वारा अखबार शुरू करने के निर्णय से मानो तालाब के स्थिर जल में हलचल मच गई।
आनन-फानन में नवभारत व युगधर्म भी यहां आ गए। यही नहीं, वर्षों बाद जब बाबूजी ने सतना जैसे एक छोटे नगर से अखबार निकालने का साहस जुटाया तो वह भी कुछ सालों के भीतर ही एक प्रमुख प्रकाशन केन्द्र बन गया। ग्वालियर से भी एक संपूर्ण समाचार पत्र निकालने की योजना उन्होंने बनाई थी। यद्यपि इस पर अमल होने के पूर्व ही उन्होंने योजना से अपने आपको पृथक कर लिया।
मुझे लगता है कि अपने प्रथम एवं एकमात्र नियोक्ता रामगोपाल माहेश्वरी की तरह बाबूजी की भी इच्छा थी कि उनके पांचों बेटों के पास पत्र के अपने-अपने संस्करण हों। इसीलिए रायपुर और जबलपुर से देशबन्धु के प्रकाशन के बाद उन्होंने भोपाल से 1974 में पत्र का तीसरा संस्करण प्रारंभ किया जो विपरीत परिस्थिति के कारण 1979 में बंद करना पड़ा। इसके बाद 1985 में सतना संस्कारण प्रारंभ हुआ तो उनकी इच्छा को ही मूर्तरूप देने के लिए भोपाल से देशबन्धु के पुर्नप्रकाशन एवं बिलासपुर से पांचवां संस्करण निकालने का उपक्रम मैंने किया। यद्यपि तब तक भोपाल से बाबूजी का मन उचट चुका था। उन्होंने मुझसे कहा- ‘मुझे पूर्व में भोपाल दो बार छोडऩा पड़ा। यह शहर मुझे रास नहीं आता।’ यह विडंबना ही है कि उसी भोपाल में उनका देहावसान हुआ। 1974 में जब पहली बार भोपाल से देशबन्धु शुरू हुआ तो उन्होंने नवभारत के अपने पुराने सहयोगी स्वाधीनता सेनानी भाई रतनकुमार जी को पहला संपादक नियुक्त किया। भाई साहब को 1975 के उपचुनाव में कांग्रेस टिकिट भी मिला, लेकिन वे जीत नहीं सके एवं श्री बाबूलाल गौर के राजनैतिक जीवन का अभ्युदय यहीं से प्रारंभ हुआ। मैं उस दिन भोपाल में ही था जब चुनाव प्रचार करने निकले गौर साहब देशबन्धु कार्यालय आए और बाबूजी से शुभकामनाएं भी प्राप्त कीं। ऐसी राजनीति की आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपने एक और पुराने साथी श्यामसुंदर शर्मा को शासकीय सेवा से इस्तीफा दिलवाकर बाबूजी उन्हें सतना संस्करण का संपादक बनाकर लाए। वे फिर लगभग दस वर्ष तक हमारे साथ बने रहे।
देशबन्धु के अनेक शुभचिंतक अक्सर चिंता व्यक्त करते हैं कि आप लोगों को व्यापार करना नहीं आता। मित्रों की यह राय शायद सही हो क्योंकि बाबूजी ने पत्रकारिता को कभी व्यापार माना ही नहीं। हम लोगों से वे कहा करते थे कि जिस दिन पैसा कमाना होगा उस दिन किराने की दुकान खोल लेंगे। लेकिन बाबूजी के समय से ही एक और बात कही जाने लगी थी कि देशबन्धु पत्रकारिता का स्कूल है और यह बात सही भी है। बाबूजी ने एक आदर्श शिक्षक और अभिभावक की भूमिका निभाते हुए अपने युवतर सहकर्मियों को तैयार किया। उन्हें काम करने के लिए एक खुला व जनतांत्रिक वातावरण दिया तथा वे समाज में अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बना सकें, इसके लिए भी सदैव प्रोत्साहित किया। पहले और आज भी अखबारों में जो दमघोंटू वातावरण देखने मिलता है, पत्रकारों पर जिस तरह की बंदिशें लगाई जाती हैं व संपादक संस्था का जिस तरह से ह्रास कर दिया है बाबूजी की कार्यशैली उसके ठीक विपरीत थी। इसीलिए सन् 63 में ‘अब्बन’ के नाम से सुपरिचित के.आई. अहमद जब सेंट्रल सिल्क बोर्ड में चले गए तो वहां से उन्होंने बाबूजी को पत्र लिखा कि मैं यहां आ जरूर गया हूं, लेकिन मुझे आप ललित का बड़ा भाई समझिए। आपका जो भी आदेश होगा उसका मैं पालन करूंगा। यह ठीक है कि अपने-अपने कारणों से पत्रकारों का आना-जाना चलता रहा, लेकिन उनमें से अधिकतर बाबूजी को उसी भावना से देखते रहे जो अब्बन जी के पत्र में व्यक्त हुई।
दरअसल, बाबूजी उस दौर के पत्रकार थे जिसमें अधिकतर भाषाई पत्रकार स्वयं ही अपने अखबार निकाला करते थे। अंग्रेजी की बात अलहदा थी जहां व्यापारी घरानों द्वारा पत्रों का संचालन होता था। बाबूजी के अनेक समकालीन पत्रकारिता के गुरों को जानते थे तथा अधिकतर की पृष्ठभूमि स्वाधीनता संग्राम की होने के कारण उनमें एक सामाजिक दायित्व बोध भी था। इनमें से कईयों ने आगे चलकर पत्रकारिता को विशुद्ध व्यवसायिक रूप दे दिया लेकिन यह बाबूजी ही थे जिन्होंने अपना रास्ता नहीं छोड़ा। यह निश्चित रूप से एक कठिन साधना थी। एक व्यवसाय के रूप में अखबार का संचालन और दूसरी ओर पत्रकार के रूप में मूल्यों का संवर्धन। बाबूजी अगर चाहते तो देश की राजधानी में सुख सुविधाओं का भोग व आत्मप्रचार करते हुए महान पत्रकार बनने का गौरव पा सकते थे, लेकिन उन्होंने उस पक्ष को नहीं चुना। वे तो मानो अपने जैसे अनेक मायाराम तैयार कर देना चाहते थे। हम लोगों को वे बार-बार समझाया करते थे कि हमारी इज्जत हर सुबह चार आने में बिकती है। उनका आशय था कि अखबार प्रतिदिन पच्चीस पैसे में बिकता है और इसे खरीदने वाला आपके बारे में अच्छी या बुरी कैसी भी राय बना सकता है। इसलिए एक पत्रकार को हमेशा सचेत व निर्लिप्त रहकर ही काम करना चाहिए। उनकी जैसी सीख ऐसे निर्मल भाव से देने वाले पत्रकार उस समय भी कम ही थे तथा आज तो उसकी कल्पना करना भी दूभर है।
ललित सुरजन
25 जून 1975 को सारे देश को चैंकाते हुए आपातकाल लागू हुआ। इसका असर समाचार पत्रों पर भी पड़ा। मध्यप्रदेश में संघ परिवार के मुखपत्र युगधर्म के सभी संस्करणों का प्रकाशन शासकीय आदेश से रुकवा दिया गया। प्रदेश शासन का यह निर्णय बाबूजी को नागवार गुजरा। जिस व्यक्ति ने अपने छात्र जीवन में पत्रकार कलम का उपयोग अंग्रेज सरकार के खिलाफ लिखने में किया हो उसे स्वतंत्र देश में अखबार पर बंदिश भला क्यों पसंद आती! वे भोपाल में मुख्यमंत्री प्रकाशचंद्र सेठी से मिले और अपनी आपत्ति दर्ज करवाई, कि जनतांत्रिक देश में किसी भी अखबार पर अंकुश लगाना एक गलत कदम है। बाबूजी ने युगधर्म के कर्मचारियों की रोजी-रोटी छिन जाने की चिंता भी व्यक्त की। मुख्यमंत्री ने बाबूजी की बात को समझा। उत्तर दिया कि प्रतिबंध लग गया है तो तीन महीने तक तो जारी रहेगा ही, लेकिन उसके बाद उठा लिया जाएगा। वैसा ही हुआ।
देशबन्धु को सामान्य तौर पर कांग्रेस समर्थक अखबार माना जाता रहा है। दरअसल इस पत्र की परंपराएं नेहरूवादी रही हैं। आपातकाल के पूर्व जो अराजकता की स्थिति थी वह हमारी दृष्टि से चिंताजनक थी और जब आपातकाल लागू हुआ तो शुरुआती समय में देशबन्धु ने उसका स्वागत ही किया था। इसके बावजूद मायाराम सुरजन ने विरोधी विचार के एक अखबार को बचाने के लिए अपनी ओर से प्रयत्न किया तो इसे पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों के रक्षा के एक प्रयत्न के रूप में देखा जा सकता है। उस दौर में आगे चलकर जब संजय गांधी का प्रादुर्भाव हुआ तो उसका समर्थन इस पत्र ने नहीं किया। डेढ़ साल के उस दौर में संजय गांधी की एकाध तस्वीर छपी हो तो छपी हो वरना उनके कार्यक्रमों व कारनामों को देशबन्धु ने समर्थन नहीं दिया। दरअसल, बीस सूत्रीय कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर भी बाबूजी के मार्गदर्शन में इस पत्र द्वारा लगातार प्रश्न उठाए जाते रहे।
आपातकाल के दौरान ही सेठी जी की जगह श्यामाचरण शुक्ल दुबारा प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे। 1976 में रायपुर में संभवतः होली मिलन के कार्यक्रम में शुक्ल जी ने देशबन्धु के संपादक पं. रामाश्रय उपाध्याय से मजाक के लहजे में ही कहा होगा कि आपातकाल है, आप संभल कर लिखिए वरना मुश्किल में पड़ जाएंगे। उनकी इस बात से पंडित जी बेहद कुपित हुए और बाबूजी से चर्चा कर अगले ही दिन शुक्ल जी की शिकायत करने इंदिरा गांधी से मिलने रवाना हो गए। उन अठारह महीनों में समय-समय पर ऐसे और भी प्रसंग घटित होते रहे। छोटे-मोटे अफसरों ने सेंसरशिप को आधार बनाकर कुछ एक बार धमकाने की कोशिश की लेकिन हम लोग इससे अविचलित रहे आए। राज्य सरकार के स्तर पर हमारे विरुद्ध कदम शायद इसलिए भी नहीं उठाया गया कि देशबन्धु किसी राजनीतिक एजेंडे के तहत काम नहीं कर रहा था और यह बात सत्ताधीश भी जानते थे।
बाबूजी ने वैचारिक प्रतिबद्धता को व्यक्तिगत संबंधों के आड़े नहीं आने दिया और न व्यक्तिगत संबंधों को पत्र की नीतियों पर हावी होने का अवसर दिया। 1969 में हमारे यहां कम्पोजिंग के लिए इंग्लैण्ड से मोनोटाइप मशीन आयात की गई। बैंक से ऋण स्वीकृत हुआ ही था कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया व आयात प्रक्रिया खटाई में पड़ गई। उस समय संघ परिवार के नागपुर स्थित मराठी मुखपत्र तरूण भारत के प्रबंध संचालक भैय्या साहब खांडवेकर से मित्रता काम आई। उन्होंने बैंक ऑफ महाराष्ट्र के महाप्रबंधक से बातचीत की और रुकी हुई प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में मददगार हुए। इसी मोनोटाइप मशीन से जुड़ा हुआ एक और प्रसंग है। चूंकि यह छत्तीसगढ़ में ऐसी पहली मशीन थी तो स्थानीय प्रेसों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो इस मशीन को चला सके। इसलिए बाबूजी ने कम्पोजिंग विभाग के कुछ सुयोग्य कर्मचारियों को कलकत्ता के मोनोटाइप स्कूल में प्रशिक्षण लेने भेजा। एक साल बाद नवभारत रायपुर में भी यही मशीन आई तो उसके तत्कालीन संपादक गोविंदलाल वोरा के अनुरोध पर बाबूजी ने अपने दो ऑपरेटरों फेरहाराम व लीलूराम साहू को दूसरी शिफ्ट में काम करने के लिए नवभारत भेजा कि ये दोनों उनके कर्मियों को प्रशिक्षण दे सकेंगे। बाद में ऐसा कुछ हुआ कि नवभारत प्रबंधन ने इन दोनों को कुछ ज्यादा आकर्षक प्रस्ताव देकर अपने यहां रोक लिया। फेरहाराम वहीं के हो के रह गए, लेकिन लीलूराम का मन नहीं लगा और अपने आप घर लौट आए। वे कालांतर में प्रेस विभाग में मेरे सबसे सुयोग्य सहयोगी सिद्ध हुए। लीलूराम को कोई काम सौंप देना याने बिल्कुल निश्चिंत हो जाना था। जब नित नई बदलती टेक्नालॉजी के साथ कदम मिलाकर चलना संभव नहीं रहा तभी वे रिटायर हुए। बात थोड़ी भटक गई। मुख्य मुद्दा तो यही था कि व्यापार में प्रतिस्पर्धा करते हुए भी सौजन्यपूर्ण संबंध कैसे निभ सकते हैं, इसकी मिसाल बाबूजी ने पेश कर दी थी।
पत्रकार मायाराम सुरजन के मूल्यबोध का एक और उदाहरण दिया जा सकता है। देशबन्धु के भवन निर्माण हेतु शासन से जो भूखण्ड आबंटित हुआ उससे काफी लोगों को तकलीफ पहुंची। 1977 में दशहरे के दिन रायपुर के सारे समाचार पत्रों में खबर छपी कि देशबन्धु को कांग्रेस शासन द्वारा जमीन आबंटित की गई थी; अब जनता पार्टी का राज है तो इसे निरस्त कर देना चाहिए। यह खबर दैनिक महाकौशल में भी छपी जो प्रदेश में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता का अखबार था। मैंने दुःखी मन से सारे संपादकों को फोन किए। युगधर्म के संपादक बबन प्रसाद मिश्र को फोन पर मैंने याद दिलाया कि युगधर्म को कांग्रेस के जमाने में भूखण्ड मिला था और युगधर्म ने जो कंपनी बनाई थी उसके शेयर खरीदने वालों में कांग्रेसी भी शामिल थे तो फिर हम पर आघात करने से क्या हासिल हो रहा है। मैंने शुक्ल जी को भी फोन किया और नागपुर फोन कर अपने समवयस्क विनोद माहेश्वरी को भी। बहरहाल हम लोगों के मन में यह धारणा बनी कि यह समाचार गोविन्दलाल वोरा की प्रेरणा से प्रकाशित हुआ है। इसलिए जब अर्जुनसिंह जी ने उन्हें ‘अमृतसंदेश’ के लिए जमीन आबंटित की तो सारे संपादकीय साथी बाबूजी के पास पहुंचे कि हम लोग अब बदला लेंगे तथा वोरा जी को आबंटित जमीन के खिलाफ अभियान चलाएंगे। बाबूजी ने बहुत शांत भाव से पूछा कि खबर छापने से तुम्हारा क्या नुकसान हुआ। थोड़ी मानसिक वेदना, थोड़ी भागदौड़, थोड़ी कानूनी लड़ाई, लेकिन जमीन तुम्हारे भाग्य में थी तो तुम्हें मिलकर रही। जो उनके भाग्य में है उन्हें मिलेगा। अपना दिमाग इन फालतू कामों में लगाने की जरूरत नहीं है। उनकी इस समुद्र जैसी गंभीरता के सामने हम क्या कहते। वापिस लौट आए। लेकिन इस निस्संगता का लाभ यही मिला कि आगे चलकर वोरा परिवार के साथ हमारे सौजन्यपूर्ण संबंध बने जो तीसरी पीढ़ी तक निभ रहे हैं।
ललित सुरजन
देशबन्धु का रायपुर संस्करण 1979 से अपने निजी भवन में है। यह पहली अचल सम्पत्ति है जो बाबूजी अखबार के लिए तैयार कर सके, लेकिन इसके लिए भी उन्हें न जाने किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा। एक प्रसंग का जिक्र तो मैंने पिछले अध्याय में ही कर दिया है। इसके अलावा और भी जो दिक्कतें आईं उन सबका विवरण बाबूजी की आत्मकथा ‘धूप छांह के दिन‘ में देखा जा सकता है। किंतु ऐसे दो प्रसंग जिनका मैं प्रत्यक्षदर्शी ही नहीं भागीदार भी रहा हूं का जिक्र संभवतः यहां किया जा सकता है।
जब बाबूजी ने देशबन्धु के लिए ऑफसेट मशीन खरीदने की योजना बनाई तो यह भी आवश्यक हो गया कि उसके लिए उपयुक्त भवन हो। नहरपारा की जिस पुरानी इमारत में रूड़ाभाई के आशीर्वाद और उनके पुत्र कांतिभाई की सज्जनता से हमारा काम निकल रहा था, वह अब नई मशीन और उसके सरइंतजामों के लिए नाकाफी था। भूखण्ड तो हमारे पास था, लेकिन प्रश्न था कि भवन बनाने के लिए रकम कहां से जुटाई जाए। म.प्र. वित्त निगम ने मशीन और भवन के लिए 52 लाख रुपए का ऋण स्वीकृत कर दिया था लेकिन 25 प्रतिशत मार्जिन मनी याने तेरह लाख रुपए का इंतजाम तो करना ही था। हमारे ऋण प्रकरण में वित्त निगम के क्षेत्रीय प्रबंधक श्री वी.एन. गर्ग ने बहुत ही सद्भाव का परिचय देते हुए सहायता की लेकिन ये आपातकाल के बाद का समय था तथा प्रेस की स्वाधीनता की दुहाई देने वाले हमें परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे।
खैर, तेरह लाख की राशि उस समय के हिसाब से बहुत ज्यादा थी। हमें ओवर इन्वायसिंग या अंडर इन्वायसिंग का खेल न तब समझ आता था, न आज समझ आता है। ऐसे समय देशबन्धु के सबसे वरिष्ठ सहयोगी (नियुक्ति क्रम में) दुर्ग जिला प्रतिनिधि धीरजलाल जैन ने एक विचार सामने रखा। उन्होंने अखबार के तत्कालीन ग्राहक शुल्क का गुणा-भाग करके बताया कि यदि हम छह सौ रुपए के आजीवन ग्राहक बना लें तो दो हजार ग्राहकों से प्राप्त रकम से मार्जिन मनी का प्रबंध हो जाएगा। यह प्रस्ताव बाबूजी को जंच गया, लेकिन उन्होंने योजना राशि छह सौ के बजाय एक हजार कर दी। योजना का नाम भी आजीवन के बजाय स्थायी ग्राहक योजना रखा। बाबूजी सहित सारे वरिष्ठ सहयोगी इस योजना को मूर्तरूप देने में जी-जान से जुट गए। हम लोगों ने अंबिकापुर और जशपुर नगर से लेकर दंतेवाड़ा तक की यात्राएं कीं। देशबन्धु की अपनी साख, स्वच्छ छवि व निजी संबंधों का लाभ मिला। अधिकतर लोगों को यही लगा कि वे ‘अपने’ अखबार की प्रगति में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। उनमें से बहुत से लोग आज भी हमारे बीच मौजूद हैं और देशबन्धु से उन्हें पहले की तरह अभी भी लगाव है।
जाहिर है कि इस तरह से तो राशि धीरे-धीरे कर आना थी, लेकिन मशीन का आर्डर पहले से दे दिया गया था, बयाना पट चुका था, भवन का निर्माण भी प्रारंभ हो चुका था। ऐसे समय सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने हमारी मदद की। बाबूजी के मित्र गिरधरदास डागा ने अपने महाप्रबंधक आदि से चर्चा कर हमारे लिए ब्रिज लोन या स्थायी लोन का प्रबंध कर दिया ताकि काम रुके न। ग्राहक योजना का पैसा जैसे-जैसे आता गया ऋण खाते में जमा होता गया। ‘अखण्ड आनंद’ और ‘कल्याण’ जैसी धार्मिक पत्रिकाओं में ऐसी योजनाएं पहले से तो थीं लेकिन देश में ऐसे समाचारपत्र द्वारा प्रयोग करना यह पहला अवसर था। इसकी चर्चा टाइम्स ऑफ इंडिया आदि अखबारों में भी हुई। देशबन्धु ‘पत्र नहीं मित्र’ का हमारा दावा सार्थक हुआ। जब हम ग्राहक बनाने निकलते थे तो मजाक में कभी-कभी पूछा जाता था- आजीवन ग्राहक आप बनाने चले हैं तो किसका जीवन ‘अखबार का’ या ‘हमारा’। हम भी उसी भाव से जवाब देते थे कि मनुष्य के जीवन का तो कोई भरोसा नहीं, लेकिन इस अखबार का जीवन जरूर बहुत लंबा है।
जब भवन बनने की बात आई तो भूमिपूजन किस रूप में हो, इस पर भी विचार किया। रायपुर के तत्कालीन संसद सदस्य और केंद्रीय पर्यटन मंत्री पुरुषोत्तमलाल कौशिक को मुख्य अतिथि बनाना तय हुआ। वे पुराने समाजवादी एवं लड़ाकू जननेता थे। इस नाते उनका हम सम्मान करते थे। कौशिक जी ने अपनी सहमति दे दी। कार्ड छपकर वितरित हो गए लेकिन जिस सुबह भूमिपूजन होना था उसकी पूर्व रात्रि को उन्होंने अचानक नागपुर होते हुए दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना लिया। हमें जैसे ही सूचना मिली आधी रात को मैं और बाबूजी उनसे मिलने सर्किट हाउस पहुंचे। बाबूजी के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने। कौशिक जी चर्चा समाप्त करने का मौन संकेत देते हुए बाथरूम चले गए। बाबूजी भी उठ खड़े हुए। मैंने उनसे आज्ञा ली कि मैं भी उनसे एक मिनट बात करके देखता हूं। मैं बाथरूम के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। कौशिक जी बाहर निकले तो मैंने पूछा तो आप नहीं आएंगे तो उन्होंने कहा- हां। मैं नहीं रुक सकता। मैंने फिर कुछ उद्दण्डता के साथ ही कहा- आज आप संसद सदस्य हैं, शायद कल नहीं भी रहेंगे, लेकिन देशबन्धु तो निकलता रहेगा और तब मैं किसी दिन पूछूंगा कि आपने हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया था।
देशबन्धु के जबलपुर संस्करण के भू-आबंटन का प्रसंग भी इसी तरह से कड़वे-मीठे अनुभव लेकर आया। एक भूखण्ड हमें मौके की जगह पर आबंटित हो गया था। उसी दरम्यान विधानसभा चुनाव सामने आ गए। एक दिन एकाएक प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष सुरेश पचैरी रायपुर मुझसे मिलने आए। ‘आपको जमीन आबंटन से एक वर्ग विशेष में असंतोष है, इसका असर कांग्रेसी उम्मीदवार ललित श्रीवास्तव के चुनाव पर पड़ेगा। मुख्यमंत्री चाहते हैं कि आप फिलहाल इस भूखण्ड को वापिस कर दें। इसके बदले आपको दूसरा भूखण्ड चुनाव के बाद आबंटित कर दिया जाएगा।’ मैं स्वयं निर्णय लेने की स्थिति में तो था ही नहीं, बाबूजी को खबर की तो उनका सुलझा हुआ उत्तर मिला कि जिन्होंने जमीन दी है वही वापिस चाहते हैं तो कर देते हैं। बाद में जो होगा देखा जाएगा। हमने वैसा ही किया। चुनाव हुए तथा अर्जुनसिंह दुबारा मुख्यमंत्री बने। दो दिन बाद वे पंजाब के राज्यपाल नियुक्त कर दिए गए। फिर दूसरा भूखण्ड मिलने में जो पापड़ बेलना पड़े उसका अलग ही किस्सा है।
ललित सुरजन
देशबन्धु का रायपुर संस्करण 1979 से अपने निजी भवन में है। यह पहली अचल सम्पत्ति है जो बाबूजी अखबार के लिए तैयार कर सके, लेकिन इसके लिए भी उन्हें न जाने किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा। एक प्रसंग का जिक्र तो मैंने पिछले अध्याय में ही कर दिया है। इसके अलावा और भी जो दिक्कतें आईं उन सबका विवरण बाबूजी की आत्मकथा ‘धूप छांह के दिन‘ में देखा जा सकता है। किंतु ऐसे दो प्रसंग जिनका मैं प्रत्यक्षदर्शी ही नहीं भागीदार भी रहा हूं का जिक्र संभवतः यहां किया जा सकता है।
जब बाबूजी ने देशबन्धु के लिए ऑफसेट मशीन खरीदने की योजना बनाई तो यह भी आवश्यक हो गया कि उसके लिए उपयुक्त भवन हो। नहरपारा की जिस पुरानी इमारत में रूड़ाभाई के आशीर्वाद और उनके पुत्र कांतिभाई की सज्जनता से हमारा काम निकल रहा था, वह अब नई मशीन और उसके सरइंतजामों के लिए नाकाफी था। भूखण्ड तो हमारे पास था, लेकिन प्रश्न था कि भवन बनाने के लिए रकम कहां से जुटाई जाए। म.प्र. वित्त निगम ने मशीन और भवन के लिए 52 लाख रुपए का ऋण स्वीकृत कर दिया था लेकिन 25 प्रतिशत मार्जिन मनी याने तेरह लाख रुपए का इंतजाम तो करना ही था। हमारे ऋण प्रकरण में वित्त निगम के क्षेत्रीय प्रबंधक श्री वी.एन. गर्ग ने बहुत ही सद्भाव का परिचय देते हुए सहायता की लेकिन ये आपातकाल के बाद का समय था तथा प्रेस की स्वाधीनता की दुहाई देने वाले हमें परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे।
खैर, तेरह लाख की राशि उस समय के हिसाब से बहुत ज्यादा थी। हमें ओवर इन्वायसिंग या अंडर इन्वायसिंग का खेल न तब समझ आता था, न आज समझ आता है। ऐसे समय देशबन्धु के सबसे वरिष्ठ सहयोगी (नियुक्ति क्रम में) दुर्ग जिला प्रतिनिधि धीरजलाल जैन ने एक विचार सामने रखा। उन्होंने अखबार के तत्कालीन ग्राहक शुल्क का गुणा-भाग करके बताया कि यदि हम छह सौ रुपए के आजीवन ग्राहक बना लें तो दो हजार ग्राहकों से प्राप्त रकम से मार्जिन मनी का प्रबंध हो जाएगा। यह प्रस्ताव बाबूजी को जंच गया, लेकिन उन्होंने योजना राशि छह सौ के बजाय एक हजार कर दी। योजना का नाम भी आजीवन के बजाय स्थायी ग्राहक योजना रखा। बाबूजी सहित सारे वरिष्ठ सहयोगी इस योजना को मूर्तरूप देने में जी-जान से जुट गए। हम लोगों ने अंबिकापुर और जशपुर नगर से लेकर दंतेवाड़ा तक की यात्राएं कीं। देशबन्धु की अपनी साख, स्वच्छ छवि व निजी संबंधों का लाभ मिला। अधिकतर लोगों को यही लगा कि वे ‘अपने’ अखबार की प्रगति में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। उनमें से बहुत से लोग आज भी हमारे बीच मौजूद हैं और देशबन्धु से उन्हें पहले की तरह अभी भी लगाव है।
जाहिर है कि इस तरह से तो राशि धीरे-धीरे कर आना थी, लेकिन मशीन का आर्डर पहले से दे दिया गया था, बयाना पट चुका था, भवन का निर्माण भी प्रारंभ हो चुका था। ऐसे समय सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने हमारी मदद की। बाबूजी के मित्र गिरधरदास डागा ने अपने महाप्रबंधक आदि से चर्चा कर हमारे लिए ब्रिज लोन या स्थायी लोन का प्रबंध कर दिया ताकि काम रुके न। ग्राहक योजना का पैसा जैसे-जैसे आता गया ऋण खाते में जमा होता गया। ‘अखण्ड आनंद’ और ‘कल्याण’ जैसी धार्मिक पत्रिकाओं में ऐसी योजनाएं पहले से तो थीं लेकिन देश में ऐसे समाचारपत्र द्वारा प्रयोग करना यह पहला अवसर था। इसकी चर्चा टाइम्स ऑफ इंडिया आदि अखबारों में भी हुई। देशबन्धु ‘पत्र नहीं मित्र’ का हमारा दावा सार्थक हुआ। जब हम ग्राहक बनाने निकलते थे तो मजाक में कभी-कभी पूछा जाता था- आजीवन ग्राहक आप बनाने चले हैं तो किसका जीवन ‘अखबार का’ या ‘हमारा’। हम भी उसी भाव से जवाब देते थे कि मनुष्य के जीवन का तो कोई भरोसा नहीं, लेकिन इस अखबार का जीवन जरूर बहुत लंबा है।
जब भवन बनने की बात आई तो भूमिपूजन किस रूप में हो, इस पर भी विचार किया। रायपुर के तत्कालीन संसद सदस्य और केंद्रीय पर्यटन मंत्री पुरुषोत्तमलाल कौशिक को मुख्य अतिथि बनाना तय हुआ। वे पुराने समाजवादी एवं लड़ाकू जननेता थे। इस नाते उनका हम सम्मान करते थे। कौशिक जी ने अपनी सहमति दे दी। कार्ड छपकर वितरित हो गए लेकिन जिस सुबह भूमिपूजन होना था उसकी पूर्व रात्रि को उन्होंने अचानक नागपुर होते हुए दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना लिया। हमें जैसे ही सूचना मिली आधी रात को मैं और बाबूजी उनसे मिलने सर्किट हाउस पहुंचे। बाबूजी के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने। कौशिक जी चर्चा समाप्त करने का मौन संकेत देते हुए बाथरूम चले गए। बाबूजी भी उठ खड़े हुए। मैंने उनसे आज्ञा ली कि मैं भी उनसे एक मिनट बात करके देखता हूं। मैं बाथरूम के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। कौशिक जी बाहर निकले तो मैंने पूछा तो आप नहीं आएंगे तो उन्होंने कहा- हां। मैं नहीं रुक सकता। मैंने फिर कुछ उद्दण्डता के साथ ही कहा- आज आप संसद सदस्य हैं, शायद कल नहीं भी रहेंगे, लेकिन देशबन्धु तो निकलता रहेगा और तब मैं किसी दिन पूछूंगा कि आपने हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया था।
देशबन्धु के जबलपुर संस्करण के भू-आबंटन का प्रसंग भी इसी तरह से कड़वे-मीठे अनुभव लेकर आया। एक भूखण्ड हमें मौके की जगह पर आबंटित हो गया था। उसी दरम्यान विधानसभा चुनाव सामने आ गए। एक दिन एकाएक प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष सुरेश पचैरी रायपुर मुझसे मिलने आए। ‘आपको जमीन आबंटन से एक वर्ग विशेष में असंतोष है, इसका असर कांग्रेसी उम्मीदवार ललित श्रीवास्तव के चुनाव पर पड़ेगा। मुख्यमंत्री चाहते हैं कि आप फिलहाल इस भूखण्ड को वापिस कर दें। इसके बदले आपको दूसरा भूखण्ड चुनाव के बाद आबंटित कर दिया जाएगा।’ मैं स्वयं निर्णय लेने की स्थिति में तो था ही नहीं, बाबूजी को खबर की तो उनका सुलझा हुआ उत्तर मिला कि जिन्होंने जमीन दी है वही वापिस चाहते हैं तो कर देते हैं। बाद में जो होगा देखा जाएगा। हमने वैसा ही किया। चुनाव हुए तथा अर्जुनसिंह दुबारा मुख्यमंत्री बने। दो दिन बाद वे पंजाब के राज्यपाल नियुक्त कर दिए गए। फिर दूसरा भूखण्ड मिलने में जो पापड़ बेलना पड़े उसका अलग ही किस्सा है।
ललित सुरजन
यह 1980 की बात है। मध्यप्रदेश में राष्ट्रपति शासन समाप्त कर विधानसभा के चुनाव होना थे। मैं अपने दफ्तर में बैठा ही था कि खबर आई- प्रकाशचंद्र सेठी पांच-सात मिनट में पहुंच रहे हैं। वे उस दिन रायपुर आ रहे हैं यह तो पता था, लेकिन प्रेस आ जाएंगे इसका कोई अनुमान नहीं था। मैं उनका स्वागत करने के लिए मुख्य द्वार पर पहुंचा। कुछ ही क्षणों में सेठी जी आए। महापौर स्वरूपचंद जैन उनके साथ थे। सेठी जी ने कहा- प्रेस की बिल्डिंग दिखाओ। उनके आदेश का पालन किया। फिर उन्होंने सवाल दागा- तुम मायाराम जी को चुनाव क्यों नहीं लडऩे देते? प्रश्न सुनकर मैं थोड़ा हड़बड़ाया, फिर संभलकर जवाब दिया- मैं रोकने वाला कौन होता हूं, वे नहीं लडऩा चाहते होंगे। सेठी जी ने फिर कहा कि हम उनको पिपरिया (जिला होशंगाबाद) से लड़वाना चाहते हैं। उनसे पूछा तो मालूम पड़ा कि तुम मना कर रहे हो। अब तो प्रेस का भवन भी बन गया है। तुम उन्हें फ्री क्यों नहीं करते। मैंने हाथ जोड़कर कहा कि वे आपके मित्र हैं। दोनों मिलकर जो चाहे फैसला ले लें, लेकिन मैंने उन्हें नहीं रोका है।
वास्तव में बाबूजी की दलगत राजनीति अथवा चुनावी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। 1964-65 में जब द्वारिका प्रसाद मिश्र उन्हें साथियों (परसाई जी आदि) सहित कांग्रेस में लाना चाहते थे, तब भी बाबूजी ने उन्हें मना कर दिया। उसके बाद 1966 के राज्यसभा चुनाव में मिश्र जी ने बाबूजी को कांग्रेस के समर्थन से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव रखा तो बाबूजी ने मित्रों की सलाह मान ली। बाद में मिश्र जी अपने ही प्रस्ताव पर कायम नहीं रह सके। डॉ. राधाकृष्णन व के. कामराज के दबाव के चलते पत्रकार ए.डी. मणि को दूसरी टर्न के लिए मनोनीत कर दिया गया। बाबूजी मैदान में उतर चुके थे। जानते थे कि हारेंगे, लेकिन इस वादाखिलाफी को उजागर करने के लिए उन्होंने मैदान में बने रहना तय किया। उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के तीन वोट व कांग्रेस के दो या तीन वोट मिले। संभवतः दमोह के आनंद श्रीवास्तव, (जो नवभारत में उनके सहायक संपादक थे) हटा के जुगलकिशोर बजाज और गाडरवारा के लक्ष्मीनारायण खजांची (जिनसे पारिवारिक संबंध थे)।
इसके बाद भी एकाधिक बार प्रयत्न हुए कि बाबूजी राज्यसभा में जाएं। ऐसी पहल हर बार मित्रों की ओर से ही हुई। मित्रों का मन रखने के लिए बाबूजी अपना बायोडाटा तो भेज देते थे, लेकिन राजनीति में इस तरह आने की कोई गंभीर पहल उन्होंने नहीं की। राज्यसभा में जाने के लिए पत्रमालिक और पत्रकार जिस तरह के समझौते करते हैं और नेताओं की जिस तरह से खुशामद करनी होती है वह बाबूजी के स्वभाव के बिल्कुल विपरीत थी। वे ऐसा कर ही नहीं सकते थे। इसी तरह पुरस्कार एवं अलंकरण आदि की भी उन्होंने कभी चिंता नहीं की और न कोशिश। एक बार वी.सी. शुक्ल ने मुझसे पूछा- ललित! तुम नहीं सोचते कि मायाराम जी को पद्मश्री मिलना चाहिए? मेरा उत्तर था- मेरे सोचने से क्या होता है। सोचना तो आपको चाहिए और अगर आप सोच रहे हों तो बाबूजी पद्मभूषण के योग्य हैं, पद्मश्री तो काका हाथरसी तक को मिल जाती है। जाहिर है कि शुक्ल जी की सदिच्छा मुझसे बात करने तक सीमित थी। उसके आगे कुछ होना-जाना नहीं था।
चुनावी राजनीति का एक प्रसंग 1985 में फिर घटित हुआ। मेरे पास प्रस्ताव आया कि रायपुर ग्रामीण या मंदिर हसौद से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लडूं। मैंने संदेशवाहक को स्पष्ट मना कर दिया। इसके पहले बाबूजी से पूछा गया था कि हम ललित को टिकट देना चाहते हैं, आपको कोई आपत्ति तो नहीं। तब बाबूजी ने जवाब दिया था- ललित से सीधे बात कर लेना बेहतर होगा, लेकिन मैं जहां तक समझता हूं वे हां नहीं कहेंगे। बाबूजी ने यह बात मुझे नहीं बताई, लेकिन मैंने वही किया जो उनके मन में संभवतः था। दो-तीन साल बाद वही संदेशवाहक भोपाल-रायपुर विमान यात्रा में मिल गए। मुझसे पूछा शास्त्री जी (प्रोफेसर रणवीरसिंह शास्त्री) कैसा काम कर रहे हैं। मैंने कुछ जवाब दिया होगा। फिर उन्होंने कुछ दुःख के साथ कहा कि आपको गोल्डन अर्पाच्युनिटी मिली थी, उसे आपने ठुकरा दिया। मैंने इसका उत्तर यह कहकर दिया कि मैं पत्रकार के रूप में इस तरह बेहतर हूं कि मुझ से विधायकों के कामकाज के बारे में राय ली जा रही है। अगर आपका प्रस्ताव स्वीकार कर विधायक बन गया होता तो मेरे बारे में आप किसी और से पूछ रहे होते।
उपरोक्त प्रसंगों से यह तो स्पष्ट होता है कि एक समाचार पत्र के रूप में स्वाभाविक तौर पर बाबूजी की दिलचस्पी राजनीतिक घटनाचक्र पर रही, लेकिन इससे कोई व्यक्तिगत लाभ उठाने का प्रयत्न उन्होंने नहीं किया। जिन राजनेताओं के साथ उनके संबंध परस्पर विश्वास के थे वे बाबूजी से समय-समय पर परामर्श करते थे। ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख बाबूजी ने अपनी कलम से किया है। मुझे कुछ घटनाएं स्मरण आ रही हैं। 1962 की गर्मियों में हम लोग नैनीताल में थे। बाबूजी ने एक कागज पर तार का मजनून लिखा कि तार घर जाकर इसे भेज दो। प्रकाशचंद्र सेठी को उस दिन पंडित नेहरू ने पहली बार अपने मंत्रिमण्डल में शामिल किया था और बाबूजी उन्हें बधाई का तार भेज रहे थे। कालांतर में सेठी जी मुख्यमंत्री बनकर मध्यप्रदेश लौटे। 1972 में सेठी जी प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी पचमढ़ी में थे। बाबूजी भी बच्चों को लेकर वहां पहुंचे थे। सेठी जी से उनका मिलने का कार्यक्रम बना। उस दिन बाबूजी वापिस लौट रहे थे। कार में सामान लदा था। वे मुख्यमंत्री निवास पहुंचे। दिल्ली से आए नए स्टाफ ने बाबूजी को ठीक से नहीं पहचाना। कुछ देर रुककर वे गृहनगर पिपरिया आ गए। आधी रात को सेठी जी के सचिव पिपरिया के थानेदार को लेकर बाबूजी को ढूंढते हुए हमारे घर पहुंचे। बहुत माफी मांगी। अपनी नौकरी की दुहाई दी। बाबूजी को अगली सुबह फिर पचमढ़ी जाना पड़ा। वे सेठी जी से मिले और निज सचिव के प्रति उनके क्रोध को शांत किया।
पिछले अध्याय में मैंने ललित श्रीवास्तव का जिक्र कर आया हूं। वे 1973 में जबलपुर नगर निगम के पार्षद बनकर सक्रिय राजनीति में आए। मैं उन दिनों जबलपुर में था। रायपुर से बाबूजी ने ट्रंक काल किया (उस समय एसटीडी सुविधा नहीं होती थी) किशोरीलाल जी शुक्ल निगम चुनाव में पर्यवेक्षक बनकर पहुंच रहे हैं। ललित श्रीवास्तव को उनसे मिलवा दो और मेरी तरफ से कहो कि उन्हें अवसर दिया जाए। मैंने आदेश का पालन किया। चाचाजी (शुक्ल जी का संबोधन) ने यह कहते हुए श्रीवास्तव जी का टिकट पक्का कर दिया कि मायाराम जी के आदेश का पालन तो करना ही पडेग़ा।
ललित सुरजन
रायपुर से लगभग पौने दो सौ किमी की दूरी पर दुलारपाली नामक गांव हैं। अब यह महासमुंद जिले में हैं और लगभग भुला दिया गया है, लेकिन एक समय ऐसा था जब दुलारपाली लगातार सुर्खियों में रहा करता था। 1970 के दशक में इसे उन्नत कृषि के लिए प्रदेश के आदर्श ग्राम की मान्यता मिली हुई थी। देश भर से कृषि विशेषज्ञ और योजनाकार यहां आया करते थे। उस कालावधि में आर.पी. मिश्र कुछ समय के लिए रायपुर संभागायुक्त के रूप में पदस्थ रहे। श्री मिश्र ने अपने कार्यकाल में रायपुर में कैंसर अस्पताल बनाने में खासी दिलचस्पी ली थी। बाबूजी के साथ उनका अच्छा संपर्क था। मिश्र जी के अनुरोध पर बाबूजी एक बार उनके साथ दुलारपाली की यात्रा पर गए और लौटने के बाद उन्होंने इस आदर्श ग्राम पर उन्होंने विस्तृत फीचर्स लिखा।
इस प्रसंग का जिक्र मैंने इसलिए किया कि बाबूजी को एक पत्रकार के रूप में लिखने के लिए जिस समय और मानसिक अवकाश की आवश्यकता होती है वह उन्हें लंबे समय तक नहीं मिल पाया। लेकिन न तो भाषा पर उनकी पकड़ कभी कम हुई और न कभी विषय की गहराई में जाने से वे चूके। दुलारपाली वाला फीचर उनकी प्रखर पत्रकारिक क्षमता का एक बढ़िया उदाहरण है। ऐसे अवसर वे बीच-बीच में अपने लिए निकालते रहे। एक उदाहरण का जिक्र में खासकर करना चाहूंगा। 1967 में वी.वी. गिरी इंदिरा गांधी के समर्थन से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति चुनाव लड़ रहे थे। देश के राजनैतिक इतिहास की यह अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। इस बीच बाबूजी का बंबई जाना हुआ। बंबई-हावड़ा मेल से शाम को जब वे रायपुर स्टेशन पर उतरे तब तक परिणाम आ चुके थे। वी.वी. गिरी राष्ट्रपति निर्वाचित हो गए थे। चैबीस घंटे की यात्रा करके लौटे बाबूजी ने ट्रेन से उतरते साथ मुझसे सबसे पहला सवाल यही किया कि नतीजा क्या रहा। उन दिनों मोबाइल फोन वगैरह तो थे नहीं। मैंने नतीजा बताया तो बाबूजी ने पहले दफ्तर चलने का निर्देश दिया। उन दिनों हमारे यहां कार नहीं थी। रिक्शे से प्रेस आए। बाबूजी अपनी टेबल पर बैठे और विशेष संपादकीय लिखना प्रारंभ कर दिया। तीस चालीस मिनट में उन्होंने अग्रलेख लिखा, फिर संतुष्ट भाव से बोले कि चलो अब घर चलते हैं। उनकी यह सजगता और सक्रियता हम लोगों को भी चकित करने वाली थी।
बाबूजी जब लिखते थे तब दो-चार लोग बैठे भी हों तो उन्हें उलझन नहीं होती थी। पान की ट्रे सामने वाले की तरफ खिसका कर वे लिखने में मशगूल हो जाते थे। एक और प्रसंग याद आता है। श्रीपैरंबदूर में राजीव गांधी की हत्या हुई। रात को प्रेस से कोई मुझे खबर करने के लिए घर आया। मुझे प्रेस आना ही था लेकिन यह उचित समझा कि बाबूजी को भी इस त्रासद घटना से अवगत करा दिया जाए। मैंने उन्हें धीरे से उठाया और खबर बतलाई। तो वे उठ खड़े हुए और बोले दो मिनट रुको मैं भी साथ चलता हूं। बाबूजी दफ्तर आए। रात भर संपादकीय कक्ष में बैठे रहे। सुबह 9 बजे के लगभग बड़ी मुश्किल से हम उन्हें घर जाने के लिए राजी कर सके।
उनका लिखा एक और विशेष संपादकीय मुझे अब तक याद है ‘महाप्राण का महाप्रयाण’। जबलपुर में सेठ गोविंददास का हीरक जयंती या अमृत महोत्सव चल रहा था। मैथिलीशरण गुप्त सहित देश के नामी-गिरामी लेखक वहां उपस्थित थे। उसी बीच खबर मिली कि इलाहाबाद में निराला जी का देहावसान हो गया है। बाबूजी तुरंत दफ्तर आए और निराला जी को श्रद्धांजलि देते हुए प्रथम पृष्ठ के लिए यह संपादकीय लिखा। पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि राजनीति, साहित्य, कृषि जैसे विविध विषयों पर साधिकार लिखने वाले इस पत्रकार का ज्ञान भंडार कितना विपुल रहा होगा। एक अन्य उदाहरण और दिया जा सकता है। संभवतः 1966 में पहली बार रुपए का अवमूल्यन हुआ। उस समय रेडियो और टेलीप्रिंटर के अलावा तुरंत खबरें जानने का और कोई उपाय नहीं था। जो सीमित जानकारी मिलती थी उसी के आधार पर तात्कालिक विश्लेषण हो सकता था। बाबूजी ने अर्थशास्त्र में अपनी पैठ का परिचय देते हुए बतलाया कि अवमूल्यन जितने प्रतिशत किया गया है उसका डयोढ़ा प्रभाव रुपए की वास्तविक कीमत पर पड़ेगा और भारतीय अर्थव्यवस्था पर किस तरह प्रतिकूल असर होगा।
बाबूजी का नियमित लेखन 1983 के अंत में प्रारंभ हुआ। हम उनसे प्रथम पृष्ठ पर आधा कॉलम का एक साप्ताहिक टिप्पणी लिखवाना चाहते थे। दो-तीन हफ्ते उन्होंने हमारी इच्छा के अनुसार कॉलम लिखा। लेकिन जल्दी ही उन्होंने उसे एक संपूर्ण कॉलम में परिवर्तित कर दिया। ‘दरअसल’ शीर्षक यह कॉलम 1994 में उनके निधन तक लगातार चलता रहा। अपने समय में यह हिन्दी का सर्वाधिक लोकप्रिय कॉलम बन गया था। बाबूजी के जीवनदर्शन का संपूर्ण आकलन इस लेखन से किया जा सकता है। ‘दरअसल’ शब्द एक तरह से बाबूजी का तकिया कलाम था। इसी नाते मैंने उन्हें शीर्षक सुझाया जो उन्हें तुरंत पसंद आ गया। इस कॉलम के अंतर्गत उन्होंने दस साल में लगभग पांच सौ लेख लिखे। जिन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित करने का काम चल रहा है।
1986 की जुलाई में बाबूजी को बारह दिन बंबई के डॉ. ए.बी. बावडेकर के अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। रीढ़ की हड्डी में आई मुंदी चोट के कारण उनका ऑपरेशन होना था। बंबई रवाना होने से पहले वे उस हफ्ते का कॉलम लिख गए थे। ऑपरेशन के तीसरे दिन उन्होंने मुझे कागज कलम लेकर बैठने के लिए कहा तथा डिक्टेक्शन देना शुरू कर दिया। कॉलम पूरा हुआ। मैंने पोस्ट ऑफिस जाकर उसे रायपुर भिजवा दिया। ऑपरेशन के लिए बिस्तर पर पडा व्यक्ति कॉलम नहीं लिखता तो स्वाभाविक माना जाता, लेकिन बाबूजी अपने पाठकों के प्रति इस सीमा तक उत्तरदायित्व मानते थे। यह ध्यान देने योग्य है कि वे लिखते समय अपनी स्मरणशक्ति का ही सहारा लेते थे तथा उन्हें कभी नोट्स देखने की जरूरत महसूस नहीं होती थी। उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण थी किंतु उनसे तथ्यों की चूक होने के अवसर विरल ही होंगे।
ललित सुरजन
देशबन्धु में स्तंभ लेखन की सुदीर्घ परंपरा है। परसाई जी के ‘सुनो भाई साधो’ व ‘पूछिए परसाई से’ जैसे नियमित स्तंभों ने अपार लोकप्रियता हासिल की। जबलपुर संस्करण में मूलतः प्रकाशित स्वाधीनता सेनानी महेशदत्त मिश्र का ‘खत जिनमें खुशबू फूलों की’ एवं अध्यापक चिंतक हनुमान प्रसाद वर्मा का ‘टिटबिट की डायरी’ आदि स्तंभों को भी पाठकों से भरपूर सराहना मिली। सतना संस्करण प्रारंभ हुआ तो वरिष्ठ राजनेता जगदीश जोशी, संस्कृति कर्मी प्रो. कमलाप्रसाद व लेखक देवीशरण ग्रामीण इत्यादि के नियमित कॉलम छपना प्रारंभ हो गए। यही नहीं, पत्र के रविवासरीय संस्करण के माध्यम से स्थानीय प्रतिभाओं को सामने लाने का काम देशबन्धु ने किया। ऐसे अनेक सुख्यात रचनाकार हैं जो ‘बाबूजी’ को अपनी पहली रचना छापने का उल्लेख करने के साथ स्मरण करते हैं। मध्यप्रदेश के किसी अन्य संपादक का ऐसा जीवंत संपर्क साहित्यिक बिरादरी के साथ नहीं रहा। राजेन्द्र अवस्थी, मलय, सोमदत्त, पुरुषोत्तम खरे, मोहन शशि इत्यादि लेखकों के बीच के कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने मायाराम सुरजन से पत्रकारिता के पाठ सीखे। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए पाठकों एवं सहकर्मियों की यह अपेक्षा स्वाभाविक ही थी कि स्वयं बाबूजी विशेष अवसरों पर नहीं, बल्कि नियमित रूप से लेखन करें।
हम सबकी यह इच्छा 1983 में जाकर पूरी हो सकी जब ‘दरअसल’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। समसामयिक प्रश्नों पर केंद्रित इन लेखों में विषय की जो विविधता है वह विस्मित करने वाली है। उनके लिए कोई विषय असाध्य नहीं था। जितनी सहजता से वे स्थानीय और गैर महत्वूपर्ण समझे जाने वाले मुद्दों की टीका करने में सक्षम थे, उतनी ही सहजता से उनकी लेखनी राष्ट्रीय व वैश्विक घटनाचक्र की व्याख्या करने में भी समर्थ थी। बाबूजी के लेखन की सबसे बड़ी खूबी भाषा की सादगी और सहज संप्रेषणीयता थी, यद्यपि समय-समय पर शैलीगत प्रयोग करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया। स्थानीय मुद्दे पर स्तंभ लेखन का एक उदाहरण हमें रायपुर के छात्रनेता अंजय शुक्ल से संबंधित किसी प्रसंग पर की गई टिप्पणी से मिलता है। सामान्य तौर पर कोई वरिष्ठ पत्रकार ऐसे विषय की अनदेखी ही करता, लेकिन बाबूजी ने इसे युवा पीढ़ी से संवाद स्थापित करने के एक उचित अवसर के रूप में लिया। उन्होंने ऐसा महसूस किया कि अगर युवा पीढी में दिशाहीनता और उच्छृंखलता आ रही है तो उस पर न तो मूकदर्शक बनकर रहा जा सकता है और न ही एकतरफा फैसला ही दिया जा सकता है। यहां मायाराम सुरजन एक पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि एक बार फिर शिक्षक और अभिभावक की भूमिका में सामने आते हैं। एक और अन्य प्रसंग का जिक्र मैं करना चाहूंगा जो बिल्कुल अलग किस्म का था। रायपुर के व्यापारी नेता लूनकरण पारख ने अपना नाम परिवर्तित कर लूनकरणसिंग पारख कर लिया। इसकी सूचना अखबारों में प्रकाशित हुई। यूं तो यह एक चर्चित व्यक्ति से जुड़ी छोटी सी खबर थी, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ क्या थे इसे बाबूजी ने ही समझा और शेक्सपियर के अंदाज में ‘नाम में क्या रखा है’ की व्याख्या कर दी।
एक समय रायपुर में एक गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई। बंजारी बाबा के नाम से प्रसिद्ध औघड फ़कीर के निधन के बाद उन्हें कहां दफनाया जाए उसे लेकर तनाव का वातावरण बन गया। जिले के स्वच्छ छवि वाले तेजतर्रार युवा कलेक्टर नजीब जंग पर धार्मिक पूर्वाग्रह से प्रेरित आरोप लगाए जाने लगे। उस कठिन समय में बाबूजी ने अपनी कलम उठाई और ‘सबको सन्मति दे भगवान’ के नाम से दस दैनिक लेखों की एक श्रृंखला लिख डाली। इसका रायपुर के सार्वजनिक वातावरण पर अपेक्षित प्रभाव पड़ा तथा सौहाद्र्र भाव टूटने से बच गया। उपरोक्त तीनों प्रसंग स्थानीय हैं लेकिन विषय अलग-अलग हैं। इनके अवलोकन से बाबूजी की विश्लेषण क्षमता और संपादकीय विवेक का अनुमान लगाया जा सकता है। दूसरी तरफ व्यापक मुद्दों पर भी वे लगातार लिखते रहे। अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव हो या कोरिया प्रायद्वीप में विमान गिराने की घटना या फिर संघ परिवार की एकात्मता यात्रा- बाबूजी की पैनी दृष्टि से कुछ भी बचता नहीं था। ‘दरअसल’ के प्रकाशन से जुड़े हुए एक तथ्य का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। अपने लिखे पर असहमति को बाबूजी भरपूर सम्मान देते थे। छत्तीसगढ़ के बागबाहरा निवासी पुरुषोत्तमलाल व्यास उनके लेखों पर लंबी-लंबी प्रतिक्रियाएं भेजते थे। आवश्यक समझा तो बाबूजी ऐसे पत्र को अपने कॉलम में उद्धृत कर देते थे और नहीं तो व्यासजी को पत्र का जवाब अवश्य लिखकर भेजते थे। ऐसे सुधी पाठकों से संवाद बनाए रखना पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों के अनुकूल ही था।
‘दरअसल’ के समानांतर एक और नियमित कॉलम लिखना बाबूजी ने 1985 में प्रारंभ किया। भोपाल से हमने ‘साप्ताहिक देशबन्धु’ शीर्षक से एक पत्र इस वर्ष प्रारंभ किया। इसे लोकप्रिय बनाने के लिए बाबूजी अगर नियमित कॉलम लिख सकें तो बहुत अच्छा होगा, यह विचार मन में आया। यह संभवतः साप्ताहिक देशबन्धु के संपादक गिरिजाशंकर का ही सुझाव था कि बाबूजी के निकट संपर्क प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के साथ रहे हैं तो उन पर संस्मरण लिखने का लाभ पत्र को मिलेगा। बाबूजी कॉलम लिखने राजी हो गए तथा इस तरह से ‘मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के’ लेखमाला की शुरुआत हुई। नए और पुराने मध्यप्रदेश के हर मुख्यमंत्री के साथ बाबूजी का संपर्क रहा। 1939 से 94 तक विदर्भ, मध्यप्रदेश, विंध्यप्रदेश, मध्यभारत और भोपाल रियासत इन सबको मिलाकर पन्द्रह या सोलह मुख्यमंत्री हुए। इनमें से अंतिम याने दिग्विजय सिंह को छोड़कर बाबूजी ने बाकी सब पर लिखा। श्री सिंह के कार्यकाल का आकलन करने के लिए उन्हें पर्याप्त समय नहीं मिल पाया। पत्रकारिता के इतिहास की दृष्टि से यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि मायाराम सुरजन प्रदेश के अकेले पत्रकार थे, जिन्होंने डॉ. एन.बी. खरे से लेकर सुन्दरलाल पटवा और दिग्विजय सिंह तक के कार्यकाल का अध्ययन और विश्लेषण किया। इस नाते ‘मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के’ (जो बाद में पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुई) के लेख इस प्रदेश की राजनीति का अध्ययन करने के लिए अनिवार्य संदर्भ सामग्री बन चुके हैं।
इन लेखों में बाबूजी ने संस्मरण शैली का प्रयोग किया है। जिसके बारे में वे लिख रहे हैं उससे व्यक्तिगत भेटों के चित्र उन्होंने उकेरे हैं तथा समय विशेष की उल्लेखनीय घटनाओं को एक वृहत्तर पृष्ठभूमि में देखने की कोशिश उन्होंने की है। अपनी रचना के इन जीवंत पात्रों में से कुछ के साथ बाबूजी के संबंध कुछ ज्यादा निकटता के रहे तो कुछ के साथ काम चलाऊ। किंतु अपने अध्ययन में उन्होंने तटस्थता का ही परिचय दिया है। जब इन लेखों की पुस्तक तैयार हुई तब बाबूजी अपने पुराने मित्र डॉ. शंकरदयाल शर्मा से उसका लोकार्पण करवाना चाहते थे जो उस समय उपराष्ट्रपति थे। शर्मा जी ने पुस्तक देखी, अपने ऊपर लिखा अध्याय पढ़ा; अपने बारे में लिखी कुछ बातें उन्हें प्रतिकूल लगी, उन्हें हटाने का मंतव्य प्रगट किया, लेकिन बाबूजी इस पर राजी नहीं हुए तो उन्होंने लोकार्पण करने से असमर्थता प्रगट कर दी।
ललित सुरजन
मायाराम सुरजन के विपुल लेखन का पुस्तक रूप में पहला संकलन ‘मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के’ माध्यम से सामने आया। इसलिए हमारी स्वाभाविक इच्छा थी कि इस पुस्तक का लोकार्पण जरा धूमधाम से हो। यूं तो कार्यक्रम रायपुर अथवा भोपाल में भी किया जा सकता था लेकिन हमारे संपादक मंडल की इच्छा दिल्ली में कार्यक्रम करने की थी। उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा मना कर चुके थे। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिंह से हमने संपर्क किया तथा उनके सुझाव पर लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल को मुख्य अतिथि की हैसियत से आमंत्रित किया गया। लेखक और पुस्तक दोनों का परिचय देने के लिए डॉ. नामवर सिंह से संपर्क किया, उन्होंने भी अपनी सहमति दे दी। अर्जुनसिंह कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे यह बात भी तय हो गई।
12 दिसम्बर 1992 को नई दिल्ली के आईफैक्स सभागार में कार्यक्रम रखा गया। मप्र से जुड़े अनेक राजनेता, अधिकारी, पत्रकार व साहित्यकार कार्यक्रम में आए। दिल्ली में बाबूजी के मित्र मंडली के बहुत सारे साथी भी जुटे तथा साहित्य व पत्रकारिता के अनेक नामचीन व्यक्ति भी। बाबूजी जैसे निस्संग व्यक्ति ने इस पूरे कार्यक्रम को सहज भाव से लिया, लेकिन इस अवसर पर में काफी रोमांचित था। मुख्य अतिथि शिवराज पाटिल ने पुस्तक पढ़ ली थी तथा उन्होंने बहुत सुन्दर तरीके से पुस्तक पर अपने विचार व्यक्त किए। अर्जुन सिंह तो कम शब्दों में ही ज्यादा बात कर जाते हैं, लेकिन नामवर जी ने निराश किया। उन्होंने शुरुआत ही इस बात से की कि मायाराम जी की पुस्तक मुझे मिल तो गई थी, लेकिन इसे मैं पढ़ नहीं पाया हूं। इसके बाद वे शब्दाडम्बर रचते रहे। उनसे ऐसे हल्के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी।
जब नामवर जी की बात निकली है तो बाबूजी के साथ जुड़े एक और प्रसंग का उल्लेख कर देना उचित होगा। अभी डेढ़-दो साल पहले किसी पत्रिका को दिए साक्षात्कार में नामवर सिंह ने बाबूजी पर सीधे-सीधे आरोप लगाया कि वे राजा राममोहन राय लायब्रेरी के अध्यक्ष बनना चाहते थे, इसलिए अर्जुनसिंह के कान भरकर नामवर जी को उस पद से हटवा दिया। यह वक्तव्य न सिर्फ असत्य है वरन् एक स्वर्गीय मित्र की स्मृति का अपमान भी है। दरअसल नामवरजी के कार्य से मंत्री जी संतुष्ट नहीं थे, उन्हें शिकायतें मिल रही थीं। नामवरजी को सीधे कुछ कहने के बजाय अर्जुन सिंह ने बाबूजी को माध्यम बनाया कि आप नामवर जी को इस्तीफा देने के लिए राजी कर लें वरना सरकार को उन्हें हटाने अपनी कार्रवाई करनी पड़ेगी। यानी अर्जुनसिंह नामवरजी की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देना चाहते थे। बाबूजी ने यह संदेशा यथास्थान पहुंचा दिया। वे जो दैनंदिन डायरी लिखा करते थे उसमें इस प्रसंग का उल्लेख है। इन दोनों प्रसंगों से मुझे धनंजय बैरागी के बंगला उपन्यास का शीर्षक याद आता है- ‘नमक का पुतला सागर में’। इस प्रसंग को यहीं छोड़ बाबूजी के लेखन के एक और पक्ष पर आगे बात करें।
जैसा कि हम देख आए हैं मप्र की राजनीति की जैसी समझ बाबूजी को थी वैसी उनके समकालीन किसी भी पत्रकार को नहीं थी। उनके संपर्कों का दायरा विशाल था तथा वे रायपुर, भोपाल, जबलपुर जहां भी हों, राजनेताओं के साथ उनकी भेंट मुलाकातों का सिलसिला लगातार चलता रहता था। आम चुनाव के पहले गहमागहमी कुछ और बढ़ जाती थी। कांग्रेस के टिकटार्थी यह आशा लेकर उनके पास आते थे कि वे अपने संपर्कों का उपयोग कर उन्हें टिकट दिलवा सकेंगे। बाबूजी ने इसमें कभी खास दिलचस्पी नहीं ली लेकिन एक काम वे अवश्य करते थे। इन भेंट मुलाकातों से उन्हें चुनाव पूर्व की स्थिति का काफी कुछ सही अनुमान हो जाता था। इसके आधार पर वे टिकट वितरण के पहले दस-पन्द्रह लेखों की एक श्रृंखला ‘हमारे राजनीतिक संवाददाता’ अथवा ‘विशेष संवाददाता’ के नाम से लिखा करते थे। इसमें वे मप्र की तीन सौ बीस (पहले 294) विधानसभा सीटों का विश्लेषण कर बतलाते थे कि कांग्रेस का कौन सा उम्मीदवार जीतने की स्थिति में है। वे हर सीट के लिए अपनी ओर से दो या तीन नामों का प्रस्ताव करते थे और हमने देखा कि कांग्रेस की चयन समिति अधिकांशतः इन्हीं नामों में से उम्मीदवार चुनती थी। यह पंचवर्षीय आकलन वे उस समय तक करते रहते जब तक कांग्रेस पार्टी में ऊपर से उम्मीदवार थोपने की प्रथा शुरू नहीं हो गई। जब उन्हें लगा कि पार्टी में आंतरिक जनतंत्र कमजोर हो गया है तब उन्होंने अपनी राय देना बंद कर दिया।
अपने गांधी-नेहरूवादी संस्कारों के कारण कांग्रेस पार्टी का यह क्षरण उन्हें व्यथित करता था तथा अपने कई लेखों में उन्होंने इस अवांछित परिपाटी के खिलाफ लिखा है। 1971 में जब श्यामाचरण शुक्ल को हटाकर प्रकाशचंद्र सेठी को मुख्यमंत्री बनाया गया तब भी बाबूजी ने उसके विरूद्ध लिखा। उनका साफ कहना था कि मुख्यमंत्री के चयन का अधिकार विधायक दल को ही होना चाहिए तथा ऊपर की मर्जी इस तरह लादे जाने से आगे चलकर पार्टी को नुकसान होगा। वे एक गंभीर समाजचिंतक के रूप में दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ पा रहे थे लेकिन इसकी कांग्रेस को जरूरत नहीं थी।
1972 के विधानसभा चुनावों में एक और रोचक प्रसंग घटित हुआ। इस साल कांग्रेस और सीपीआई के बीच चुनावी समझौता हुआ तथा साम्यवादी दल के लिए कांग्रेस ने पांच सीटें छोड़ दी। इसमें रायपुर की सीट भी शामिल थी। यहां से सीपीआई के उम्मीदवार लोकप्रिय जननेता सुधीर दादा याने सुधीर मुखर्जी पार्टी के चुनाव चिन्ह के बजाय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में शेर छाप चुनाव चिन्ह पर खड़े हुए। देशबन्धु के संपादक मंडल ने उन्हेें अपना खुला समर्थन देना तय किया। यद्यपि बाबूजी उस समय रायपुर से बाहर थे और हम उनसे राय नहीं कर सके। जब बाबूजी लौटकर आए तो मैदानी स्थिति का जायजा लेने के बाद उन्हें ऐसा लगा कि देशबन्धु का समर्थन तभी सफल हो पाएगा जब चुनाव संचालन व्यवस्थित तरीके से हो। यह जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ली व रायपुर में पूरे समय बैठकर चुनाव संचालन किया। यह पहला और आखिरी अवसर था जब किसी उम्मीदवार के लिए उन्हें अपना काम-धाम छोड़कर इस तरह मैदान में उतरना पड़ा हो।
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