बरसात में उफनती पहाड़ी नदी, देखने में छोटी, लेकिन ऐसी वेगवती कि अपने साथ सब कुछ बहा ले जाने को आतुर। नदी के इस पार और उस पार दोनों तरफ के गांवों के बीच ऐसे समय में संपर्क बिल्कुल छिन्न-भिन्न हो जाता है। यह दृश्य तो हमने भरी बरसात में मैदानी इलाकों में भी देखा है, लेकिन बात जब पहाड़ों की हो तो यही दृश्य कई गुना भीषण रूप ले लेता है! ऐसे में क्या किया जाए? या तो बरसात खत्म होने की प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धर बैठे रहें या फिर कोई जुगत भिड़ाएं कि दोनों तटों के आर-पार आवागमन हो सके। आज का जमाना होता तो सांसद, विधायक, सरकार से पुल बनाने की मांग करते, पुल नहीं तो रपटा ही सही। शायद किसी शुभ घड़ी में पुल बन जाता और बीस-पच्चीस साल बाद टूट भी जाता; जब बनाने वालों की कोई जिम्मेदारी तय करना भी असंभव होता। लेकिन मेरा इरादा फिलहाल आज की चर्चा करने का नहीं है। मैं तो आपको इतिहास में कई दशक पहले ले जाना चाहता हूं और वह भी आसपास नहीं, बल्कि बहुत दूर।
वाकया कोई दो सौ साल पुराना है। सन् 1830-40 के आसपास का। मेघालय की राजधानी शिलांग से लगभग अस्सी किलोमीटर दूर रिवाई गांव के निकट एक पहाड़ी नदी पर बने पुल की ओर हम चलते हैं। यह एक अद्भुत पुल है। यह न सीमेंट से बना है और न पत्थर से, और न ही लकड़ी के तख्तों से। सीमेंट का आविष्कार तो सौ साल बाद 1938 में हुआ। यह खासी जनजाति का इलाका है। नदी के उस पार गांव के लोगों को बरसात के मौसम में चारों तरफ से संपर्क कट जाने के कारण अनेक तकलीफों का सामना करना पड़ता था। तब इस गांव के बुद्धिमानों ने एक उपाय खोजा। उन्होंने दोनों किनारों पर रबर के बहुत से पेड़ लगाए। प्रसंगवश कह दूं कि रबर पीपल की प्रजाति का ही एक वृक्ष है। ये पेड़ थोड़े बड़े हुए और इनकी जड़ें हवा में झूलने लगीं तो जड़ों को आपस में बांधकर पुल बना लिया गया। सुनने में बात बहुत सरल लगती है, लेकिन पेड़ों को लगाना, जड़़ों का बढऩा, उनको आपस में जोडऩा और ऐसी मजबूती देना कि आने-जाने में कोई भय न हो, क्या कोई आसान काम रहा होगा?
इस जड़ों से बने पुल के बारे में लगभग तीन वर्ष पूर्व बीबीसी के किसी संवाददाता ने लिखा था। तब से इसकी चर्चा होने लगी है। हम भी यह पुल देखने गए। पुल तक पहुंचने के लिए लगभग आधा किलोमीटर नीचे उतरना पड़ता है। पहाड़ को काटकर टेढ़ी-मेढ़ी सीढिय़ां बनाई गई हैं। नीचे उतरना जितना कष्टदायक है उतना ही ऊपर वापिस लौटना भी। बरसात हो रही हो तो फिर कहना ही क्या है! या तो भीगो या फिर छाता ले के आहिस्ता-आहिस्ता कदम जमाते हुए सावधानी के साथ मंजिल तय करो। जड़ों से बना यह पुल सचमुच बहुत सुंदर है। नीचे कल-कल बहती नदी, आसपास ऊंचे-ऊंचे वृक्षों और सुंदर फूलों वाली झाडिय़ों से आच्छादित पहाडिय़ां इस सुंदरता को दोगुना-चौगुना करती हैं। किन्तु मैंने जब पुल को देखा तो पहला विचार मन में यह आया कि इन खासी पुरखों के पारंपरिक ज्ञान और बुद्धिमता को प्रणाम करूं। हम जो आधुनिकता और नागर सभ्यता के दर्भ में इठलाते फिरते हैं, काश! कि अपने पूर्वजों से कुछ सीख पाते। मनुष्य और प्रकृति का सहजीवन देखना हो तो यह सेतु उसका अनुपम उदाहरण है।
सुना है कि मेघालय की खासी पहाडिय़ों में ऐसे और भी पुल हैं। इन्हें अगर सिर्फ पर्यटन स्थल मानेंगे तो भारी भूल करेंगे। यहां आकर सिर झुकाकर कुछ सीखेंगे तो बात बनेगी। इस पुल से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर मॉलीनांग नामक एक और गांव है, जिसे एशिया के स्वच्छतम गांव होने का गौरव मिला है। यूं तो राजधानी शिलांग सहित मेघालय में सभी ओर स्वच्छ वातावरण है, लेकिन इस गांव की बात निराली है। पूरा गांव हरा-भरा है। हर घर में फूलदार पेड़-पौधे सजे हैं। गंदगी का कहीं नामोनिशान नहीं। इसे देखने देश-विदेश से लोग आते हैं। यह गांव एक पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित हो गया है। शिलांग से दक्षिण-पूर्व में बंगलादेश की ओर जाती सडक़ पर लगभग पचास-साठ किलोमीटर बाद इन गांवों के लिए मुडऩा होता है। यहां वॉच टॉवर बने हैं जिन पर चढक़र बंगलादेश की सीमा देखी जा सकती है। इस इलाके में बेंत की खेती खूब होती है। मोड़-दर-मोड़ बेंत के लहराते हुए पौधे दूर तक दिखते हैं।
गुवाहाटी होकर शिलांग का रास्ता जाता है। लगभग सौ किलोमीटर की दूरी है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग कुछ साल पहले फोरलेन बन चुका है। इसलिए पहाड़ी रास्ते पर यात्रा का जो रोमांच होना चाहिए वह इस मार्ग पर लगभग नहीं है। यद्यपि आवागमन बहुत है। मेघालय में कोयले की खदानें हैं सो दिनभर कोयले से लदकर लौटते और कोयला लेने जाते ट्रकों की आवाजाही चलते रहती है। शिलांग से रूट्स ब्रिज याने जड़ों के सेतु वाले राजमार्ग पर एक दूसरा दृश्य देखने मिला। यहां लगातार पहाड़ तोडक़र पत्थर निकाला जाता है। पत्थर का निर्यात बंगलादेश को भवन निर्माण के लिए होता है, क्योंकि ब्रह्मपुत्र और गंगा के डेल्टा क्षेत्र वाले बंगलादेश में मिट्टी और रेत तो है, लेकिन पत्थर नहीं। आधुनिक तकनीक के मकान बनें तो कैसे बनें! एक चिंताजनक सूचना यह भी मिली कि मेघालय में वृक्षों की कटाई पर कोई पाबंदी नहीं है। परिणामस्वरूप प्रदेश में बारिश के औसत में लगातार गिरावट आ रही है।
कोई समय था जब चेरापूंजी को विश्व के सर्वाधिक वर्षा वाले स्थान के रूप में मान्यता मिली थी। यह प्रथम स्थान नजदीक के किसी दूसरे गांव को मिल गया है। चेरापूंजी में अब पहले जैसी वर्षा नहीं होती। कहने को तो वहां अनेक जलप्रपात और जलधाराएं हैं, लेकिन बरसात के चार माहों को छोडक़र उनमें पानी के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। ऊंचाई पर होने के कारण बादल बने रहते हैं और वही अब उस प्रसिद्ध स्थान का मुख्य आकर्षण है। शिलांग नगर के बिल्कुल बाहर एलीफेंट फॉल नामक एक जलप्रपात है, जहां तीन अलग-अलग स्तरों से झरने नीचे गिरते हैं। मैं सबसे ऊपर वाले प्रपात तक तो गया, उसमें पानी की क्षीणधारा देखकर नीचे उतरने का मन नहीं हुआ। दिन भर की चढ़ाई-उतराई के बाद भारी थकान भी शायद इसका एक कारण थी। जो साथी नीचे तक गए उन्हें भी कम पानी देखकर कुछ निराशा ही हुई। मुझे यह देखकर अवश्य कौतुक हुआ कि जलप्रपात जाने के मुख्य द्वार पर और फिर भीतर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आदमकद फोटो वाले होर्डिंग लगे थे जिसमें मोदी जी कह रहे हैं कि मेघालय आए हैं तो एलीफेंट फॉल जरूर देखना चाहिए।
हमारी शिलांग यात्रा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के वार्षिक अधिवेशन के चलते हुई थी। अधिवेशन का आयोजन पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय या नेहू (नार्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी) के विशाल परिसर में किया गया था। इस परिसर में दो-तीन विश्वविद्यालयों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर की कुछेक अकादमिक संस्थाओं के केन्द्र भी हैं। यहां का वातावरण अत्यन्त सुरम्य है और पूरा परिसर सर्वसुविधायुक्त एक छोटे-मोटे गांव का रूप ले लेता है। जैसा कि किसी भी पर्वतीय नगर में होता है, शिलांग भी ऊंची-नीची पहाडिय़ों पर बसा है। जिनको अभ्यास नहीं हो उन्हें पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलना कठिन ही लगेगा। यद्यपि ठंडा मौसम होने के कारण थकान अधिक नहीं होती। मेघालय में तीन पहाड़ी इलाके हैं-खासी, गारो और जयंतिया। इन तीनों की भाषाएं भी अलग हैं। हर इलाके में पर्यटकों के लिए कुछ न कुछ आकर्षण बिन्दु हैं। हम तो शिलांग और आसपास की दृश्यावली से ही संक्षिप्त परिचय पा सके।
शिलांग के एक छोर पर यदि एलीफेंट फॉल है तो दूसरे छोर पर उमियम झील या कि बड़ा पानी। बीच शहर में भी एक झील है, लेकिन उसमें कोई विशेष आकर्षण नहीं है। डॉन बॉस्को म्युजियम एक अनूठी जगह है। यहां उत्तर-पूर्व के आठों प्रांतों की जनजातियों की बेशुमार झलकियां हैं। अगर उत्तर-पूर्व को जानना है तो इस संग्रहालय को अवश्य देखना चाहिए। इस सात मंजिले म्युजियम में सबसे ऊपर कांच से ढंका हुआ स्काई वॉक है जहां से शिलांग नगर का विहंगम अवलोकन किया जा सके। उमियम झील गुवाहाटी से शिलांग आते समय मिलती है। हम यहां लौटते वक्त रुके। इसे बड़ा पानी नाम ठीक ही दिया गया है। पहाड़ों के बीच काफी बड़े विस्तार में यह झील फैली है। पानी को जहां जगह मिली वहां उसने अपना अधिकार जमा लिया। अगर शिलांग में कहीं गंदगी है तो वह इसी जगह पर, जो पर्यटकों ने फैलाई है और जिन पर सूचनाओं और चेतावनियों का कोई असर नहीं होता।
मध्यप्रदेश के सबसे बड़े शहर तथा वाणिज्यिक राजधानी इंदौर को लंबे अरसे से ‘लिटिल बॉम्बे’ के विशेषण से नवाजा जाता रहा है। इंदौर की समृद्धि के सामने मध्यप्रदेश के बाकी नगर फीके पड़ते थे। यद्यपि विगत पच्चीस-तीस वर्षों में यहां जो तथाकथित विकास अंधाधुंध रफ्तार से हुआ है उसके चलते मुझे इंदौर एक भीड़ और चीख-चिल्लाहट से भरा शहर लगने लगा था। लेकिन अभी दस दिन पहले इंदौर गया तो नगर का एक नया रूप देखने मिला। इंदौर के नागरिक प्रशासन और नागरिक समाज दोनों ने मिलकर एक बेहतरीन काम किया है कि आज इंदौर की गिनती देश के सबसे स्वच्छ नगरों में होने लगी है। आप कहीं भी निकल जाइए, कचरे का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता, सडक़ों पर आवारा मवेशी बिल्कुल न•ार नहीं आते, सडक़ पर बैठी गाय-भैंस आपका रास्ता नहीं रोकतीं, सडक़ों के किनारे अनेक स्थानों पर शौचालय बना दिए गए हैं जो इस्तेमाल में आते हैं। नगरवासी गर्व के साथ बताते हैं कि उनके शहर को स्वच्छ भारत अभियान में प्रधानमंत्री से प्रथम पुरस्कार मिला है। मैं समझता हूं कि उनका यह गर्व उचित है।
इंदौर को पश्चिमी मध्यप्रदेश अर्थात मालवा की राजधानी भी कहा जा सकता है। 1956 में बने नए मध्यप्रदेश की राजनीति में इंदौर का वर्चस्व लंबे समय तक रहा। मुख्यमंत्री किसी भी क्षेत्र का रहा हो उसके लिए इंदौर की उपेक्षा करना संभव नहीं था। वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी उसी परिपाटी का पालन कर रहे हैं। उन्होंने अपनी तरफ से इंदौर का ध्यान रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शायद इसलिए स्वच्छता में प्रथम आने की बात हो या अन्य किसी विकास योजना की, आम जनता से मुख्यमंत्री की तारीफ ही सुनने मिलती है। इंदौर में सत्तारूढ़ दल के जो प्रमुख नेता हैं उनके प्रति जनता की भावना कुछ अलग है। यहीं पर एक पेंच आ गया है। मध्यप्रदेश में भाजपा के पहले तीन मुख्यमंत्री मालवा से ही थे। सुश्री उमा भारती बुंदेलखंड और बाबूलाल गौर भोपाल का प्रतिनिधित्व करते थे किन्तु उनका कार्यकाल लंबा नहीं चला अत: उनकी भूमिका भी उल्लेखनीय नहीं रही। अब शिवराज सिंह तो कुर्सी पर बैठे हैं। ग्यारह साल हो गए हैं तो मालवा के कद्दावर नेताओं की आंख की किरकिरी बन गए हंै। विधानसभा चुनावों के लिए मात्र डेढ़ साल का वक्त बाकी है; अभी कुर्सी मिल जाए तो ठीक वरना कौन जाने आगे मौका मिलेगा या नहीं।
हमें इंदौर एक दिन रुककर उज्जैन जाना था। मित्रों ने प्रसन्नता के साथ सूचित किया- कोई परेशानी नहीं, बस पचास किलोमीटर तो है, एक घंटे में पहुंच जाएंगे। कोई हड़बड़ी मत कीजिए। हमने उनकी बात मान ली। शहर से निकलकर हाईवे तक आने में जो भी समय लगा हो, उसके बाद तो चालीस-पैंतालीस मिनट में सफर तय हो गया। शहर के भीतर एक एक्सप्रेस-वे है इस पर टोल टैक्स का नाका पड़ता है। हमारे टैक्सी ड्राइवर ने टोल नहीं पटाया। उसने बताया कि यह नाका अवैध रूप से चल रहा है। सरकार इसे बंद कर चुकी है। इंदौर वाले इस बात को जानते हैं, लेकिन बाहर की नंबर प्लेट देखकर नाकेदार वसूली कर लेते हैं। उसने भाजपा के एक बड़े स्थानीय नेता का नाम लिया कि अवैध वसूली में चालीस परसेंट हिस्सा उनको जाता है। उन नेता की शहर में और कहां-कहां हिस्सेदारी है, क्या-क्या जमीन-जायदाद हैं, यह रहस्योद्घाटन भी उसने किया। एक तरफ इंदौर की सडक़ों की स्वच्छता, दूसरी तरफ राजनीति की मलीनता, दो विरोधाभासी तथ्य उजागर हुए। लेकिन टैक्सी ड्राइवर ने जो बात बताई वह तो आज की कड़वी सच्चाई है और सर्वव्यापी है। इसकी सफाई कैसे होगी, पता नहीं।
इंदौर से आगे बढऩे पर उज्जैन जैसे-जैसे पास आते जाता है राजमार्ग के दोनों किनारे नए-नए बने होटल और रिसोर्ट न•ार आने लगते हैं। एक-एक रिसोर्ट कई-कई एकड़ में फैला और अल्प प्रवास के लिए आवश्यक सारी सुविधाएं एसी कमरे, बड़े-बड़े हाल, रेस्तोरां, लॉन, सौ गाडिय़ां खड़ी हो जाएं इतनी बड़ी पार्किंग और हां, स्वीमिंग पूल भी। इनमें से अधिकतर का निर्माण सिंहस्थ-2016 को ध्यान में रखकर किया गया था। मध्यप्रदेश सरकार बारह साल में एक बार पडऩे वाले इस पर्व को अभूतपूर्व रूप से मनाने की तैयारी में जुटी हुई थी। मुख्यमंत्री स्वयं हर दूसरे-तीसरे दिन उज्जैन पहुंच जाते थे। इन होटलों का निर्माण जाहिर है कि विशिष्ट तीर्थयात्रियों को ध्यान में रखकर किया होगा। सिंहस्थ पर्व समाप्त होने के बाद भारी निवेश से निर्मित संपत्ति का क्या होता तो ये होटल या रिसोर्ट अब शादी-ब्याह के प्रयोजन में काम आ रहे हैं। इंदौर के आसपास जो विवाह घर तथा मैरिज लॉन आदि हैं वे बहुत महंगे हैं। इंदौर के परिवार भी इसलिए अब यहां आकर पारिवारिक समारोह आयोजित करने लगे हैं।
हम भी परिवार में एक विवाह के सिलसिले में उज्जैन गए थे। इन्हीं में से किसी एक रिसोर्ट में ठहराए गए थे। यहां ठहरने के दो लाभ मिले। एक तो शहर के शोरशराबे और भागमभाग से मुक्ति मिली तो विवाह में आए पारिवारिक सदस्यों के साथ मिलने का, बात करने का पर्याप्त से अधिक अवसर मिल गया। दूसरे उज्जैन नगर कुछ किलोमीटर की ही दूरी पर था तो तीर्थ यात्रा का पुण्य कमाने का योग भी बन गया। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में सुबह चार या पांच बजे भस्म आरती होती है। आधी रात को किसी ताजी चिता की भस्म लाकर ज्योतिर्लिंग का लेपन होता है और फिर आरती। इस दुर्लभ दर्शन के लिए लिए रात बारह बजे से श्रद्धालु कतार में लग जाते हैं और चार-पांच घंटे खड़े रहकर अपनी बारी आने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। हमारे बीच भी ऐसे उत्साही धर्मप्रवण सदस्यों की कमी नहीं थी जो आधी रात को उज्जैन गए और सुबह दर्शन करके लौटे। उन्हें इस अनुभव से जो आत्मिक शांति मिली होगी वह उनके प्रफुल्लित मुखानन पर साफ देखी जा सकती थी। मुझ जैसे सांसारिक प्राणी को यह कष्ट उठाना गवारा न था।
मुझे यहां बिलासपुर की दिवंगत कथा लेखिका सुश्री शशि तिवारी की एक कहानी का स्मरण हो आया है। उन्होंने लिखा था कि महाकाल के दर्शन एक बार में पूरे नहीं होते। वे अपने धाम में तीन बार बुलाते हैं। यह तो लोक मान्यता हुई। मैं शायद पांचवीं-छठवीं बार उज्जैन जा रहा था। महाकाल के पहले पहल दर्शन 1957 में बाबूजी के साथ किए थे। उसके बाद संयोग नहीं बना। इस बार दर्शन के लिए पहुंचा तो मेरे लिए सब कुछ नया ही था। तीर्थयात्रियों की हर साल बढ़ती हुई संख्या को ध्यान में रखकर मंदिर परिसर का विस्तार और साथ-साथ नवनिर्माण भी हुआ है। दर्शन करने के लिए लगभग आधा किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और बाहर आने में भी उतनी ही दूरी तय करना पड़ती है। पहले गर्भगृह तक जा सकते थे, अब कुछ मीटर दूरी से दर्शन करना पड़ते हैं। दर्शन पथ में मंदिर का इतिहास कहीं-कहीं उत्कीर्ण है। एक प्रस्तर फलक पर उज्जैन के अनन्य विद्वान पंडित सूर्यनारायण व्यास के हवाले से उल्लेख है कि इस मंदिर का अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब सबने राजकोष से पोषण किया और जागीरें दीं। जहांगीर ने तो एक दिन में यहां साढ़े तीन हजार स्वर्ण मुद्राएं लुटाईं। यह इतिहास का वह पृष्ठ है जिसे हम संकीर्ण मतवाद के चलते जान-बूझ कर भूल जाना चाहते हैं।
उज्जैन यूं तो महाकाल की नगरी के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु सच पूछा जाए तो यह नगर ही मंदिरों का है। किसी समय वेगवती क्षिप्रा इस नगर की सीमा पर से बहती थी, वह लगभग सूख चुकी है और नर्मदा से पानी लाकर क्षिप्रा की प्यास बुझाई जा रही है। इसी तरह यहां पुरातात्विक महत्व के अनेक प्राचीन मंदिर हैं किन्तु उनका मूल स्वरूप भी क्षिप्रा की जलधारा की तरह खो चुका है। महाकालेश्वर हो या अन्य मंदिर, सबमें संरक्षण या सुविधाएं जुटाने के नाम पर जो परिवर्तन किए गए हैं उनके नीचे मंदिरों का प्राचीन सौंदर्य दब गया है। राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी हरसिद्धि के मंदिर में एक प्राचीन बावली है, जिसे लोहे के दरवाजे में बंद कर सामने बड़ा सा ताला लगा दिया गया है। मराठाकालीन दो भव्य दीप स्तंभ ही एक तरह से मंदिर की प्राचीनता का परिचय देते हैं।
एक मंदिर दुर्गा के स्वरूप गढक़ालिका का है, जो महाकवि कालिदास की आराध्य देवी थीं। यहां परिक्रमापथ में तीन सुंदर प्रस्तर फलक हैं, जिनमें कुछ कथाएं उत्कीर्ण हैं। ये फलक निश्चित रूप से हजार-आठ सौ साल पुराने होंगे किन्तु सिंदूर पोतकर इनकी सुंदरता नष्ट कर दी गई है। उज्जैन में ही सांदिपनी आश्रम है, किन्तु प्राचीन युग के उस गुरुकुल का कोई भी अवशेष वहां नहीं है। श्रद्धालुओं के लिए यही जानना पर्याप्त है कि कृष्ण-बलराम और सुदामा यहां पढ़े थे। भर्तृहरि की गुफा अपनी जगह पर सुरक्षित है, लेकिन वह नाथ संप्रदाय के नवनिर्मित मठ के घेरे में आ गई है। मंदिरों के इस विशाल समुच्चय में कालभैरव का अलग ही स्थान है। कालभैरव को महाकाल का सेनापति माना जाता है। यहां रोचक तथ्य है कि देवप्रतिमा को मदिरा का भोग लगाया जाता है। भक्तजन अपनी पसंद की मदिरा की बोतल लेकर आते हैं, पुजारी उसमें से कुछ हिस्सा निकालकर बोतल वापिस कर देते हैं जिसका आचमन भक्त बाद में करते होंगे! अगर मंदिर पाटलिपुत्र में होता तो क्या होता।
यह जनश्रुति व्यापक है कि मीरा बाई ने द्वारिका के निकट बेट द्वारिका में जलसमाधि ली थी। इसके अलावा यह जनश्रुति भी है कि मीरा अपने साथ गिरधर गोपाल की एक छोटी सी मूर्ति रखा करती थीं। वह मूर्ति कहां गई, इस बारे में कोई चर्चा अब तक सुनने नहीं मिली थी। लेकिन हिमाचल प्रदेश में जसूर के निवासी हमारे बंधु गोविंद पठानिया ने बताया कि नूरपुर के किले में स्थित बृजराज स्वामी मंदिर में काले पत्थर की जो भगवान कृष्ण की प्रतिमा है वह मीरा बाई की ही प्रतिमा है जो नूरपुर के राजा को किसी संयोग से प्राप्त हो गई थी। यह भी एक किंवदंती ही है और इसका कोई ठोस आधार शायद नहीं है, फिर भी यह एक रोचक जानकारी है जो गोविंद जी ने हमें दी। हम हिमाचल प्रदेश की दो सप्ताह की यात्रा पर थे और पहले पड़ाव में धर्मशाला पहुंचे थे। धर्मशाला से जसूर कोई पैंसठ किलोमीटर है। इंटैक की हिमाचल राज्य संयोजक बहन मालविका पठानिया का आदेश था कि हिमाचल यात्रा में हम उनके घर जरूर आएं।
पालमपुर से पठानकोट के राष्ट्रीय राजमार्ग पर जसूर के लिए चले तो नूरपुर कब गुजर गया पता ही नहीं चला। मालविका और गोविंद जी के साथ चाय पीते-पीते उक्त जानकारी मिली तो हम लोगों का मन नूरपुर किला देखने का हो आया। हम लगभग सात-आठ किलोमीटर पीछे नूरपुर आए, एक संकरे पहाड़ी मार्ग पर चढ़े, तहसील व अन्य सरकारी दफ्तरों की भीड़ से बचते हुए किले तक पहुंचे। यूं तो नूरपुर किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षित है, लेकिन यह ऐतिहासिक परिसर बहुत कुछ ध्वस्त हो चुका है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते साथ भीतर चारों ओर प्राचीन वैभव के भग्नावशेष दिखाई देते हैं। यहां शायद कभी सात तालाब थे, लेकिन अब एक ही बचा है। बायें हाथ पर एक प्राथमिक शाला के खंडहर भी हैं, जिसमें कभी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मेहरचंद महाजन ने पढ़ाई की थी। बहरहाल इस विस्तृत परिसर में स्थित मंदिर के प्रांगण में तीन खास बातें नोट करने लायक लगीं। एक तो बृजराज स्वामी याने भगवान कृष्ण की मूर्ति बहुत आकर्षक और सुंदर है। मंदिर के भीतर कृष्णलीला के भित्तिचित्र भी हैं जो धुंधले पड़ चुके हैं। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य है कि मंदिर के प्रवेश द्वार का निर्माण राजस्थान से आए एक मुसलमान चारण ने करवाया था। संगमरमर में अपना नाम लिखकर बांकाराय राजभट्ट ने द्वार पर लगा दिया था ताकि भक्तों की चरण-धूलि उनको मिलती रहे। साम्प्रदायिक सौहाद्र्र का यह एक प्रत्यक्ष उदाहरण था। तीसरी खास बात मंदिर के बाहर ही फल-फूल रहा मौलश्री का वृक्ष है जो कि कम से कम चार सौ साल पुराना है। वहां जो सूचनाफलक लगा है उससे ज्ञात होता है कि मंदिर के पहले यह भवन दरबार-ए-खास था जिसकी जगह पर राजा जगतसिंह ने मंदिर स्थापित कर दिया। इस कस्बे का नाम नूरपुर क्यों पड़ा इसकी भी एक कहानी है। बताया जाता है कि जहांगीर के साथ नूरजहां यहां आई थीं और उनके सम्मान में पुराना नाम बदलकर नूरपुर नाम रख दिया गया था। जहांगीर के आदेश पर जगतसिंह ने उस दौरान कभी कंधार की लड़ाई जीत कर अपनी वीरता का परिचय भी दिया था। नूरपुर पठानकोट से मात्र पच्चीस किलोमीटर दूर है तथा प्राचीन इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए यह देखने योग्य स्थान है।
नूरपुर और जसूर की हमारी यह संक्षिप्त यात्रा कई कारणों से आनंददायक सिद्ध हुई। सबसे पहले तो मालविका और गोविंद जी के घर हम हिमाचली भोजन का आस्वाद ले सके। छत्तीसगढ़ में जैसे मसूर की दाल का बटकर बनाया जाता है, वैसे ही हिमाचल में राजमा अथवा काले चने का मदरा बनाया जाता है। इसमें तेल का इस्तेमाल नहीं होता बल्कि दही तपने से निकले तेल में ही दाल पक जाती है। दूसरा व्यंजन है तेलियामाह जो माह की दाल को खूब तेल में पकाने से पकता है। हिमाचल के इस पश्चिम अंचल में धान की पैदावार खूब होती है और यहां सुबह-शाम भोजन में चावल ही खाया जाता है। रोटी या फुलके मेहमानों के आने पर ही बनाते हैं। एक दिलचस्प बात यह हुई कि गोविंदजी पचास साल पहले रायपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढऩे आए थे और पढ़ाई बीच में छोडक़र घर वापिस चले गए थे, लेकिन रायपुर की स्मृतियां उनके हृदय पर आज भी अंकित हैं। बातों-बातों में कुछ परिचितों के नाम निकले तो मैंने फोन पर गोविंद जी से उनकी बात कराई। यह एक मजेदार प्रसंग था।
जसूर में ही हमें मसरूर के मंदिर की जानकारी मिली। तापमान कम था फिर भी उमस बहुत ज्यादा थी। इस असुविधा को झेलते हुए हम कांगड़ा जिले के इस दूरस्थ गांव पहुंचे। मसरूर एक अद्भुत स्थान है। यहां एक विशालकाय पहाड़ी को काटकर आज से हजार वर्ष पूर्व शिव मंदिर का निर्माण किया गया था। एक तरह से मसरूर को एलोरा के विश्वप्रसिद्ध मंदिर की लघु प्रतिकृति कहा जा सकता है। किंतु विडंबना यह हुई कि किन्हीं कारणों से मंदिर का निर्माण अधूरा रह गया। दूसरे सन् 1905 के भूकंप में मंदिर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। इसलिए अब आप जो देखते हैं वे मुख्यत: टूटकर गिरे हुए शिलाखंड ही हैं जिन पर उकेरी गई आकृतियां कलाकारों की कल्पना और कौशल का परिचय देती हैं। मसरूर मंदिर एकांत में एक टीले पर अवस्थित है। यह एक पुरातात्विक धरोहर है और नोट करें कि ग्राम पंचायत का दफ्तर मंदिर परिसर में ही लगता है। इस प्राचीन धरोहर की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है, यह दुख की बात है।
मसरूर से हम कुछ किलोमीटर चलकर वापिस राष्ट्रीय राजमार्ग पर कांगड़ा की ओर बढ़े। कांगड़ा हिमाचल का एक बड़ा जिला है। यहां कांगड़ा का किला, उसके भीतर स्थित जैन मंदिर तथा कांगड़ा शहर में बृजेश्वरी देवी का मंदिर मुख्यत: ये दो आकर्षण हैं। हम कांगड़ा फोर्ट पहुंचे तब तक शाम हो चुकी थी। प्रवेश टिकट लेकर भीतर तो गए, लेकिन सूनापन देखकर किले में ऊपर चढऩे का साहस नहीं जुटा पाए। यह किला एक ऊंची पहाड़ी पर स्थापित है और इसे देखकर ग्वालियर के किले की कुछ-कुछ याद आती है क्योंकि वहां भी ऐसी ही सीधी सपाट ऊंची प्राचीर है। हम दिन भर की यात्रा में धूप और उमस से बेहाल हो चुके थे, इसलिए बृजेश्वरी देवी के मंदिर नहीं गए, लेकिन धर्मशाला लौटते हुए कांगड़ा नगर के बीच से गुजरने का मौका मिला। ऐसा अनुमान हुआ कि यहां एक ही मुख्यमार्ग है, वह भी इतना संकरा कि दो वाहन किसी तरह निकल जाएं। शहर में भारत की हर शहर की तरह खूब भीड़-भाड़ थी और हमें बाहर निकलने में ही कोई आधा घंटा लग गया होगा। आज इतना ही। धर्मशाला और आसपास की बात अगले हफ्ते…।
हिमाचल प्रदेश -2
22 जुलाई 2017। धर्मशाला में विमान उतरा। जैसे ही बाहर निकले एक सुखद ताजगी ने छू लिया। हवा में एक खनक थी और थी हल्की सी शीतलता। शहरी जीवन में नित दिन धूल और धुएं से भरी हवा पीने वाली देह के लिए यह एक स्फूर्ति भरा अहसास था। लगभग दस वर्ष पूर्व जब अंडमान-निकोबार की यात्रा पर गए थे तब भी ऐसा ही अनुभव हुआ था। हवाई अड्डे से अपने होटल की ओर बढ़े तो सडक़ के बांयी ओर काफी दूर तक एक वेगवती नदी साथ चलती रही। हमारे वाहन चालक रामकुमार उर्फ बंटी ने नदी का नाम पूछने पर हमारी ज्ञान वृद्धि की कि नदी नहीं, खड्ड है। खड्ड याने पहाड़ों से उतरकर आता झरना। जिनकी आंखें बरसाती नदियों के सूखे विस्तार देखकर पथरा चुकी हों उनके लिए तो यह नदी ही थी जिसका पाट लगभग चालीस-पचास फीट चौड़ा रहा होगा। बहरहाल कोई आधा घंटा बाद हम अपने होटल पहुंचे जो कहने को तो धर्मशाला में ही था, लेकिन था शहर से कोई चार किलोमीटर दूर, शीला चौक नामक स्थान पर। मैंने बहुत जानना चाहा कि ये देवी कौन थी जिनके नाम पर इस जगह का नाम पड़ा, लेकिन उस बस्ती के लोग भी यह नहीं बता पाए।
होटल में व्यवस्थित हो जाने के बाद हमारे पास अंधेरा होने के पहले तीन-चार घंटे का समय था। होटल वालों ने बताया कि आप इस समय का सदुपयोग क्रिकेट स्टेडियम देखने में कर सकते हैं। चलो यही सही। वाहन भी था, सारथी भी। घुमावदार संकरे रास्ते से गुजरते हुए क्रिकेट स्टेडियम पहुंच गए। वहां पहुंचकर ध्यान आया कि यह तो वही स्थान है जिसके कारण भाजपा के क्रिकेट प्रेमी युवा सांसद अनुराग ठाकुर पिछले दिनों में चर्चित हुए थे। स्टेडियम के भीतर दर्शनीय कुछ भी नहीं था, लेकिन पहाड़ी पर ऊंचे बसे इस स्थान का आकर्षण यह था कि यहां से धौलाधार की पर्वत माला और उसकी छाया में बसे गांवों का विहंगम दृश्य देखा जा सकता था। एक तरफ ऊंची-ऊंची पहाडिय़ां, दूसरी ओर हरे-हरे कटोरों के बीच बसे गांव। देवदार और चीड़ के गगनचुंबी वृक्ष, हिमालय की चोटियों पर पिघलती बर्फ से बने झरने, तेज गति से नीचे उतरते हुए। मन करे कि यहीं बैठे रहो। लेकिन कब तक। वहां बैठने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। फिर एक जगह देखा कि कार में बैठे कुछ युवक किसी नशीले द्रव्य का सेवन कर रहे थे। उन्हें भी तफरीह के लिए इससे बेहतर जगह और क्या मिलती!
यहां एक रोचक प्रसंग हुआ जिसने हमारे अगले दिन का कार्यक्रम बना दिया। मैं श्रीमती जी का फोटो लेना चाहता था, मुझे रोककर उन्होंने मेरा ही फोटो ले लिया। मुझे अपनी ही तस्वीर अच्छी लगी और मन में न जाने क्या आया कि शीर्षक के साथ फेसबुक पर साझा कर दी। थोड़े समय बाद ही संदेश आया- ललित जी, आप धर्मशाला में है, कब आए हैं, मुलाकात होना चाहिए। यह संदेश था हिन्दी के वरिष्ठ लेखक और बालगीतों के लिए विशेषकर प्रसिद्ध प्रत्यूष गुलेरी का। मुझे भी ध्यान नहीं था कि वे धर्मशाला में रहते हैं। खैर! उनके साथ फोन नंबर का आदान-प्रदान हुआ, बातचीत भी हो गई, अगली शाम उनके घर आने का न्योता भी मिल गया। उनसे ही सलाह करके तय हुआ कि दलाईलामा के निवास मैक्लॉडगंज से लौटते हुए शाम की चाय उनके साथ होगी।
हम जब धर्मशाला पहुंचे थे तब मौसम खुला हुआ था, लेकिन रात अच्छी-खासी बारिश हुई थी, सुबह भी रिमझिम हो रही थी। हम छाता-बरसाती लेकर घूमने के लिए निकल पड़े। धर्मशाला पार कर बारह-पन्द्रह किलोमीटर दूर मैक्लॉडगंज पहुंचे। वहां तिब्बती दुकानों की गहमागहमी के अलावा कोई विशेष आकर्षण प्रतीत नहीं हुआ तो तंग सडक़ों से निकलते हुए दो किलोमीटर आगे भागसू नाग की तरफ बढ़ गए। वहां भी खूब भीड़ और धक्का-मुक्की। एक जगह गाड़ी रोककर पैदल चले। भागसू नाग का मंदिर प्रसिद्ध है, उसके साथ किंवदंतियां जुड़ी हुई है। मंदिर पुराना ही होगा, लेकिन बाहर से एकदम नया। संगमरमर की टाइल्स चारों तरफ, ऊपर जाने के लिए संकरी सीढिय़ां। वहां भीगते हुए जाने का मन नहीं हुआ। कुछ और आगे चलकर भागसू जलप्रपात पर हम पहुंच गए। वह एक अत्यंत मनोहारी दृश्य था। सामान्य तौर पर जलप्रपात लगभग नब्बे डिग्री के कोण पर उतरते हैं, लेकिन भागसू प्रपात अनुपम था। बहुत ऊपर से जलराशि धीरे-धीरे तिरछे नीचे उतरती है मानो कोई आरामकुर्सी पर पैर पसार कर लेटा हो। इस कोण से उतरने पर जलप्रपात को एक लंबा आकार मिल जाता है। नीचे उतरकर वह बांयी ओर मुडक़र फिर एक खड्ड का स्वरूप ले लेता है।
भागसू प्रपात को हम बहुत देर तक मुग्धभाव से निहारते रहे। मन तो बहुत था कि नीचे उतरें, लेकिन भीड़ बहुत थी। नीचे प्रपात के किनारे लोग बाकायदा पिकनिक मना रहे थे और वह हमें बहुत रुचिकर नहीं लगा। वापिस लौटे तो भागसू नाग मंदिर के सामने एक सार्वजनिक तारण-तरण (स्विमिंग पूल) देखा। पहाड़ से भीतर-भीतर बहकर आते झरने का हिमशीतल जल उसमें प्रवाहित हो रहा था और लोग मजे में स्नान कर रहे थे। यहां से लौटते हुए पहुंचे दलाईलामा के मंदिर। यह दलाईलामा का स्थायी निवास है। यहां एक बौद्ध मंदिर है। प्रवेशद्वार के पास तिब्बत राष्ट्रीय शहीद स्मारक स्थापित है। उसकी पृष्ठभूमि में एक दीवाल है जिसमें तिब्बती जनता पर चीनी सत्ता द्वारा किए गए अत्याचार का एक विस्तृत फलक उत्कीर्ण है। इस स्मारक के अलावा दलाईलामा मंदिर में हमें और कोई उल्लेखनीय बात नहीं लगी।
मैक्लॉडगंज से धर्मशाला लौटते समय एक जगह एक छोटा रास्ता मुड़ता है जो नद्दी सनसेट पाइंट की ओर ले जाता है। जैसा कि नाम से पता चलता है यह जगह सूर्यास्त देखने के लिए प्रसिद्ध है, जैसे पचमढ़ी में धूपगढ़ की चोटी। तीन-चार किलोमीटर के इस रास्ते पर होटल ही होटल हैं। बारिश थम नहीं रही थी इसलिए सूर्यास्त देखने का सवाल ही नहीं था। थोड़ा समय हमने इस जगह पर बिताया और लौटते हुए बीच में डल लेक नामक स्थान पर रुके। नाम तो डल लेक है, लेकिन श्रीनगर की डल झील से इसका कोई मुकाबला नहीं है। जानकारी मिली कि यह एक प्राचीन झील है और इसका धार्मिक महत्व चला आ रहा है किन्तु हमें यहां भी कोई विशेषता न•ार नहीं आई। झील प्राकृतिक ही होगी, किन्तु इसका ‘आधुनिक’ सौन्दर्यीकरण कर दिया गया है। अच्छी बात यह है कि चीड़ के वृक्षों का एक घना झुरमुट झील के पीछे एक परदा सा बनाता है और डल लेक जैसे स्थिर जल का एक मंच बन जाती है।
अब बारी थी धर्मशाला में प्रत्यूष गुलेरी जी से मिलने की। हम रास्ता न भटक जाएं इसलिए वे मुख्य सडक़ पर हमें लेने आ गए थे। गुलेरी जी और श्रीमती कुसुम गुलेरी ने बेहद आत्मीयता के साथ हमारा स्वागत किया। उनके साथ ढेर सारी साहित्य चर्चा हुई। वे अक्षरपर्व के नियमित पाठक हैं तो अन्य चित्रों के साथ मेरे द्वारा उन्हें अक्षरपर्व की प्रति सौंपते हुए भी एक फोटो खिंच गया। अपने घर में गुलेरी जी ने एक सुंदर सा बगीचा लगा रखा है सो उसे भी हमने बहुत रुचि के साथ देखा, लेकिन बात यहां खत्म नहीं हुई। गुलेरी निवास में एक अचरज हमारी प्रतीक्षा में था। हमारी भेंट यहां रामबाई से हुई। रामबाई के बच्चे कुसुमजी को बड़ी मां कहकर पुकारते हैं। गुलेरी परिवार इन बच्चों को घर के बच्चों को अपने बच्चों जैसा ही दुलार देता है। रामबाई का पति धर्मशाला में कहीं मजदूरी करता है और वह स्वयं छोटे-मोटे कामों में इनका हाथ बंटा देती है। गुलेरी निवास के आऊट हाउस में ये लोग रहते हैं। रामबाई शिवरीनारायण के पास टुंड्री गांव की मूल निवासी है। अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए विगत अनेक वर्षों से वे इस सुदूर प्रदेश में रह रहे हैं। रामबाई के चेहरे पर दैन्य की कोई झलक नहीं दिखती। उसे जब मालूम पड़ा कि हम लोग रायपुर से आए हैं तो वह बेहद खुश हुई।
हिमाचल प्रदेश-3
हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा क्षेत्रफल की दृष्टि से एक बड़ा जिला है। इसके अनुरूप कांगड़ा में विविधता भी बहुत है। एक ओर प्रकृति की विभिन्न छटाएं हैं, तो दूसरी ओर ऐतिहासिक स्थल भी कम नहीं हैं। दलाई लामा का विगत साठ वर्षों से निवास होने के कारण इसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी मिल चुकी है। यहां की बानी बोली भी हिमाचल प्रदेश के पूर्वी भाग से कुछ अलग है, यद्यपि एक-दूसरे की बोली सब समझ लेते हैं। यहां विभिन्न धार्मिक पंथों का भी सहअस्तित्व रहा है। शाक्त, शैव, वैष्णव इन सबके उपासना स्थल तो हैं ही, कांगड़ा किले में प्राचीन जैन मंदिर है तथा धर्मशाला के आसपास बौद्ध धर्म की प्रमुखता हो गई है। स्थानीय रीति-रिवाजों में एक दिलचस्प जानकारी चंबा इलाके के बारे में मिली जहां भुट्टे में बाली आने के बाद त्यौहार मनाया जाता है। धर्मशाला के निकट चामुंडा का एक मंदिर है जिसकी मान्यता हाल के सालों में काफी बढ़ गई है। निकट ही एक पुराना शिव मंदिर भी है। समयाभाव के कारण यह सब देखना संभव नहीं था। हम तो मैक्लॉडगंज के बाजार में भी नहीं रुके जहां सैलानीजन तिब्बती दुकानों पर खरीदारी करने टूटे पड़ते हैं।
तीन दिन बाद धर्मशाला से रवाना होने लगे तो होटल के निकट स्थित एक तिब्बती संस्थान देखने अवश्य गए। नोरबुलिंका नामक यह संस्थान तकनीकी प्रशिक्षण, उत्पादन और विक्रय प्रतिष्ठान है। बहुत खूबसूरत कैम्पस है। प्रवेश द्वार से लेकर भीतर सब जगह तिब्बती स्थापत्य कला में निर्मित अनेक भवन हैं। यहां तिब्बती युवा अपने देश के विभिन्न शिल्पों का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और फिर छोटे-छोटे बटुओं से लेकर ड्राईंग रूम के फर्नीचर तक का निर्माण यहां होता है। इन सामानों की बिक्री के लिए एक बड़ा शो रूम भी सजा हुआ है। इसमें शक नहीं कि यहां प्रशिक्षक और प्रशिक्षार्थी दोनों कुशलतापूर्वक अपना काम करते हैं और निर्मित सामग्री की सुंदरता आपको अनायास ललचाती है। दिक्कत यह कि औसत भारतीय के लिए यहां उपलब्ध सामान की कीमत काफी ज्यादा है। विदेशों से आने वाले पर्यटक ही शायद इनके बड़े ग्राहक होते हैं। वे शायद इस तरह स्वाधीनचेता तिब्बतियों की मदद भी कर रहे होते हैं!
हमारी यात्रा का अगला पड़ाव रिवालसर नामक एक अल्पज्ञात कस्बा था। धर्मशाला से वहां के लिए एक सीधा रास्ता था परंतु गूगल मैप पर देखा कि ज्वालामुखी होते हुए जाने से बीस-पच्चीस किलोमीटर का अतिरिक्त रास्ता तय करना पड़ेगा तो हमने एक बार फिर कांगड़ा का रुख किया। बायपास से गुजरते हुए ज्वालामुखी गए। पाठक इस प्रसिद्ध मंदिर से अवश्य परिचित होंगे। अनेक श्रद्धालु इसे एक चमत्कारी स्थान मानते हैं क्योंकि यहां मंदिर के गर्भगृह में निशिदिन एक ज्वाला प्रज्ज्वलित होते रहती है जिसका स्रोत अज्ञात है। भारत के अनेक धर्मस्थानों की तरह ज्वालामुखी मंदिर के लिए भी एक जनसंकुल बाजार से गुजरना होता है। एक किलोमीटर की चढ़ाई जिसके दोनों तरफ दुकानें और फिर सर्पाकार पंक्ति में सरकते हुए अपनी बारी आने की प्रतीक्षा। ऐसे भी कुछ उद्यमी थे जो रेलिंग फांदकर आगे निकल अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहे थे। बहरहाल हमारी बारी आई। गर्भगृह के बीचोंबीच एक कुंड जिसमें अग्निशिखा प्रज्ज्वलित हो रही थी। एक कोने में आले जैसी जगह पर एक और शिखा थी जिसे हिंगलाज देवी का नाम दिया गया था।
भक्तजनों का रेला लगा हुआ था, लेकिन मेरा ध्यान समीप के एक कक्ष पर चला गया जहां दीवार पर बड़े-बड़े हर्फों में लिखा था कि शहंशाह अकबर ने देवी माता को छत्र चढ़ाया था, वह यहां है। मेरे लिए यह एक नायाब जानकारी थी। उस कक्ष में प्रवेश किया, देवी की सामान्य आकार की प्रतिमा वहां थी, सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित, मुख मंडल पर सौम्य भाव और सिर पर मुकुट; बाजू में इबारत थी शहंशाह अकबर का चढ़ाया हुआ छत्र। उसके साथ तीर का निशान था ताकि कोई शक शुबहा न रहे। मैं यह देखकर किसी हद तक चकित था। एक दिन पहले ही तो नूरपुर के किले में मुसलमान चारण द्वारा भेंट किया गया मंदिर का प्रवेश द्वार देखा था, आज यहां शहंशाह द्वारा चढ़ाया गया मुकुट देख लिया। यात्राओं के दौरान साम्प्रदायिक सद्भाव के ऐसे उदाहरण जगह-जगह देखने मिलते हैं लेकिन जिनकी आंखों पर पट्टी चढ़ी होती है वे इन्हें देखकर भी देखने से इंकार कर देते हैं।
मंदिर में जल रही ज्योति का स्रोत अज्ञात है, किंतु संभव है कि नीचे कहीं प्राकृतिक गैस हो जो इस रूप में प्रकट होती है। बहरहाल मंदिर से निकलते-निकलते काफी समय हो गया था और हमें अभी रिवालसर का रास्ता तय करना था। ज्वालामुखी से कुछ किलोमीटर ही दूर एक ढाबा देखकर रुके। छोटा सा ढाबा लेकिन भोजनालय के संचालक का निवास वहीं था और पूरा परिवार ग्राहकों की सेवा में तत्पर था। आम होटलों से अलग सादा और ताजा भोजन मिला और हम आगे की ओर रवाना हो गए। रिवालसर पहुंचे तब तक शाम घिर आई थी। हिमाचल टूरि•म का यहां एक होटल है। हम वहीं ठहरेे। सामने रिवालसर की झील थी और उसके पीछे पहाड़ी पर पद्मसंभव की विशाल आवक्ष मूर्ति। ये पद्मसंभव ही थे जो रिवालसर से निकलकर तिब्बत गए थे और वहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। इसीलिए तिब्बती बौद्धों के लिए यह पवित्र स्थान है। यहां तिब्बती काफी संख्या में आकर बस भी गए हैं।
होटल के कमरे में बैठे-बैठे क्या करते? हम बस्ती में घूमने निकल गए। यहां होटल रेस्तरां बस एक-दो ही हंै, बा•ाार भी महज आधा किलोमीटर लंबी सडक़ पर बसा हुआ है। वैसी ही दुकानें जो सामान्यत: किसी भी कस्बे में देखने मिल जाती हैं। एकाएक पूजा सामग्री की एक दुकान पर न•ार पड़ी, दुकानदार खाली था, सोचा इनके साथ कुछ गपशप करें। इतने में एक पंडित जी सत्यनारायण कथा की पोथी लेने आ गए। उनसे बातचीत होने लगी तो परामर्श मिला कि यहां से लगभग आठ किलोमीटर ऊंचाई पर नैनादेवी का मंदिर है, उसे देखे बिना न जाएं। उनकी सलाह ध्यान में रख ली। गांव में कुछ खास करने को था नहीं। सुबह घूमने के लिए निकल पड़ा। एक गुमटी वाली चाय दुकान पर कुछ तिब्बती महिलाएं बैठी थीं। वहां चाय पीने रुक गया, उन महिलाओं से बात होने लगी। एक ने बताया कि अमेरिका में रहती हैं, बेटे को वहीं पढ़ा रही है, घर रिवालसर में है, साल में एकाध बार आ जाती है। उनकी वाणी में हल्की सी वेदना थी, घर छूटने की वेदना। चाय पीकर मुझसे कहा कि आप हमारे अतिथि हैं, चाय का पैसा मैंने दे दिया है।
इस बीच एक तिब्बती सज्जन आ गए। उनसे कुछ देर वार्तालाप होता रहा। रिवालसर की जलवायु न बहुत ठंडी है न बहुत गरम, इसलिए यहां रहना अच्छा लगता है। कामकाज का कोई बहुत ठिकाना नहीं है। अधिकतर तिब्बती जाड़ों में ऊनी वस्त्र बेचने भारत यात्रा पर निकल पड़ते हंै। कुछ वस्त्र तो तिब्बती स्वयं बुनते हैं, लेकिन अधिकतर माल लुधियाना से खरीदते हैं। कुछ निवासी हिमालय की इन वादियों में थोड़ी बहुत खेती भी कर लेते हैं। इतने में ही एक विदेशी युवक-युवती भी वहां चाय पीने आ गए। स्कॉटलैंड निवासी ऐलेन टीवी स्टूडियो में काम करते हैं। उनकी मित्र बैथ मेडिकल छात्रा है। दोनों दिल्ली से मोटर सायकल लेकर घूमने निकले हैं। वे ब्रेक्•िाट से दुखी हैं, स्कॉटलैंड की स्वतंत्रता चाहते हैं और अभी जेरेमी कोर्बिन के वोटर हैं। हमने साथ-साथ चाय पी और मैंने यह कहकर विदा ली कि चाय का पैसा मैंने दे दिया है, आप हमारे अतिथि हैं।
रिवालसर की झील पहाड़ों से घिरी हैं। कभी बहुत सुंदर रही होगी। स्वच्छ, निर्मल जल से भरी हुई। लेकिन इधर इस झील में हर तीसरे साल बड़ी संख्या में मछलियां मरने लगी हैं जिसने पर्यावरणविदों के सामने चिंता और चुनौती पेश कर दी है। अभी दस-बारह साल पहले तक लोग यहां झील में मछलियों की क्रीड़ा देखने ही आते थे, लेकिन झील के आसपास जो बहुत सारा निर्माण हुआ है वह भी कहीं न कहीं इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। ताजा पानी लाने वाली झीलें शायद बंद हो गई हों, जल निकासी के रास्ते भी रुंध गए होंगे तथा रिहायशी क्षेत्र का अपशिष्ट कुछ न कुछ तो इसमें पड़ता ही होगा। आशंका होती है कि क्या एक और सुंदर झील इस तरह मर जाएगी?
हिमाचल प्रदेश-4
इक्कीस साल पहले गुजरात में पोरबंदर से सोमनाथ की ओर जाते हुए बीच में माधवपुर का समुद्रतट देखा था। सडक़ के साथ-साथ कई मील तक चलता हुए चांदी जैसी रेत का विस्तार। चेन्नई का प्रसिद्ध मरीना बीच भी उसकी तुलना में फीका था। उस दृश्य को देखकर मन में भाव आ रहा था कि शांति के साथ अवकाश के कुछ दिन बिताने के लिए इससे बेहतर स्थान और क्या होगा। ऐसी ही कुछ भाव रिवालसर से नैनादेवी के मंदिर जाते समय मन में आया। नौ किलोमीटर की चढ़ाई का रास्ता था, धीमी गति से एक के बाद एक मोड़ पार करते हुए गाड़ी आगे बढ़ रही थी। एक तरफ पहाडिय़ां, दूसरी ओर वादियां। रास्ते में छोटे-छोटे गांव थे, घर के बगीचों में मुख्यत: नाशपाती के फल लगे हुए थे। किसी-किसी जगह से रिवालसर और नीचे बसे अन्य गांवों का मनमोहक न•ाारा दिख रहा था। जानकारी मिली थी कि इस रास्ते पर सात झीलें हैं, लेकिन तीन झीलें ही दिखाई दीं।
यहां पर्यटक अधिक नहीं आते, फिर भी गांवों में कई जगह स्थानीय निवासियों ने अपने घर के साथ होम स्टे का सरंजाम कर रखा है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर होम स्टे के साईन बोर्ड देखने में आ रहे थे। अगर कभी अवसर मिला तो कुछ दिन के लिए यहां आकर रहूं और कुछ लिखना-पढऩा करूं, यह विचार बार-बार मन में उठता रहा। इसी बीच कुंत भोज्य झील दिखाई दी। अनियमित आकार की काफी लंबी और बड़ी झील। इसके साथ किंवदंती जुड़ी है कि माता कुंती की प्यास बुझाने के लिए अर्जुन ने तीर मारा था जिससे यह झील निर्मित हुई। हिमाचल के पहाड़ों में ऐसी दंतकथाएं हर जगह सुनने मिलती हैं। बहरहाल इस झील को देखकर मुझे बरबस बस्तर में नारायणपुर के पास स्थित छोटे डोंगर की झील का स्मरण हो आया। वही अनियमित आकार, उसी तरह पहाड़ की गोद में लेटी, हरियाली का आवरण ओढ़े हुए।
उल्लेखनीय है कि अधिकतर पर्यटक रिवालसर की उस झील की सुंदरता का वर्णन जानकर आते हैं जो नीचे गांव में स्थित है जिसका वर्णन हम पिछली किश्त में कर आए थे। आश्चर्य हुआ कि नैनादेवी मंदिर के रास्ते में पडऩे वाली बाकी झीलों का उल्लेख क्यों नहीं होता? यदि बीती रात रिवालसर के बा•ाार में मिले पंडित जी ने सलाह न दी होती तो हम इस मनोरम दृश्य को देखने से वंचित हो जाते। हम सुबह तैयार होकर मनाली के लिए निकल ही रहे थे, लेकिन तभी सोचा कि इतनी दूर आए हैं, एक नया स्थान देख लेने में क्या हर्ज है। सो हमने गाड़ी का रुख विपरीत दिशा में मंदिर की ओर कर दिया। उत्तर भारत में नैनादेवी के कई मंदिर हैं। हिमाचल में ही इसी नाम से एक प्रसिद्ध मंदिर और भी हैं, किन्तु रिवालसर का यह मंदिर अल्पज्ञात है।
ऊंची पहाड़ी पर एक समतल मैदान पर मंदिर है। यहां भी बदस्तूर बा•ाार है। कोई तीस-चालीस दुकानें होंगी। अधिकतर दुकानदार रिवालसर से यहां आते हैं। उनके लिए शायद यह आमदनी का पूरक स्रोत है। नवरात्रि जैसे अवसरों पर संभव है कि भीड़ होती हो, लेकिन सामान्य दिनों में श्रद्धालुओं की संख्या भी नगण्य होती है। हम जब पहुंचे तो कोई खास हलचल नहीं थी। मंदिर का स्वरूप आधुनिक है, बल्कि कहना होगा कि इसे आधुनिक स्वरूप दे दिया गया है। ठीक वैसे ही जैसे आजकल अधिकांश उपासना स्थलों में हो रहा है। यदि प्राचीनता के कोई चिन्ह हैं तो उनका न तो सम्मान होता, न उन्हें संभाल कर रखा जाता। इस दृष्टि से नैनादेवी मंदिर में संतोष की बात थी कि प्राचीन मंदिर के कुछ भग्नावशेष गर्भगृह के बाहर हॉल में तरतीब से रखे हुए थे। यह दिलचस्प था कि श्रद्धालु इन क्षत-विक्षत पाषाण खंडों पर भी रोली-अक्षत चढ़ाकर श्रद्धा निवेदित कर रहे थे।
ज्वालामुखी की तरह नैनादेवी में भी मंदिर के प्रांगण में एक बकरा बंधे देखा। भक्तगण उस पर पानी चढ़ा रहे थे। यह व्यापार मेरी समझ में नहीं आया। मंदिर के बाहर एक दुकानदार ने बताया कि देवी के मंदिरों में विभिन्न पशुओं की बलि आज भी चढ़ाई जाती है और यह बकरा किसी शगुन संकेत के लिए बांधा हुआ है। हमारी रुचि इस विषय के विस्तार में जाने की नहीं थी। दो-तीन घंटे का समय बीत चुका था, अभी मनाली का सफर तय करना था। हम वापिस लौटे, रास्ते में दो-तीन अन्य दर्शनीय स्थल भी थे, उन्हें भी छोड़ दिया। रिवालसर लौटकर मंडी होते हुए मनाली के पथ पर वाहन चल पड़ा। मंडी हिमाचल का एक प्रमुख नगर है। हमने बायपास पकड़ा और शहर बाजू में छूट गया। अभी तक पहाड़ी झरने याने खड्ड और झीलें देखते आए थे, अब अवसर था नदी से मिलने का।
हिमसुता व्यास नदी मंडी शहर के बीच से गुजरती है। मंडी से कुल्लू और कुल्लू से मनाली तक हमने व्यास के किनारे-किनारे सफर तय किया और उसे विभिन्न मुद्राओं और भावों में देखा। व्यास नदी भाखड़ा परियोजना का अंग है। उस पर मंडी से मनाली मार्ग पर कुछ ही आगे बैराज निर्मित है। यहां मानो नदी अनमने भाव से अनुशासन में बंधी हुई है। बैराज होने के कारण नदी में जल तो था लेकिन प्रवाह नहीं। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़े, व्यास की छटाएं देखकर लगातार मुग्ध होते रहे। कहीं पहाड़ों से झरने आकर उसमें विलीन हो रहे हैं, कहीं नदी में लहरें उठ रहीं हैं, कहीं वह चट्टानों से टकराकर आगे बढ़ रही है, कहीं उसका उद्दाम वेग देखकर भय लगता है। व्यास नदी की जो चंचलता है वह उसे न जानने वालों के लिए सांघातिक हो सकती है, इसीलिए पूरे रास्ते भर जगह-जगह चेतावनी देते हुए बोर्ड लगे हैं-नदी के पास न जाएं, जल स्तर कभी भी बढ़ सकता है।
मंडी से मनाली का रास्ता यूं भी निरापद नहीं है। एक तरफ नदी है, तो दूसरी तरफ पहाड़। जिनसे भूस्खलन की आशंका हमेशा बनी रहती है। भूगर्भ शास्त्री बताते हैं कि हिमालय अपेक्षाकृत एक युवा पर्वतमाला है और उसकी संरचना काफी नाजुक है। बरसात जैसे कारणों से कभी भी पहाडिय़ां टूटने लगती हैं। कुल मिलाकर प्राकृतिक सुषमा से भरपूर इस रास्ते पर संभलकर चलने में ही भलाई है। इसीलिए मुझे तेज रफ्तार से निकलते हुए बाइकर्स के झुंड के झुंड देखकर बहुत हैरानी हुई। ये युवाहृदय बाइकर्स रोमांच के लिए मनाली के आगे रोहतांग दर्रा पार कर लद्दाख तक जाते हैं। तेज रफ्तार का रोमांच अवश्य होता होगा, लेकिन क्या उसके लिए हिमालय का यह पथ उपयुक्त है? यह सवाल मन में उठता है। उन्हें देखकर यह विचार भी उठा कि इनका सारा ध्यान तो अपनी गाड़ी की रफ्तार और ट्रैफिक पर है, इस मार्ग पर जो नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा है उसे तो ये देख ही नहीं पाते, फिर इतनी दूर आकर पैसा और पेट्रोल खर्च करने का क्या लाभ है?
मानता हूं कि मनुष्य में खतरों से खेलने की सहजात प्रवृत्ति होती है। उत्साह और उमंग से भरे ये बाइक सवार भी शायद उसी के वशीभूत हो इस तरह देशाटन पर निकलते हैं, लेकिन क्या उनकी बाइक की गति और शोर से हिमालय की सेहत को आघात नहीं पहुंचता होगा! खैर! हम अपनी रफ्तार से मनाली की ओर बढ़ रहे थे, नए-नए दृश्यों को आंखों से पी रहे थे। एक जगह तीन किलोमीटर लंबी एक सुरंग हमने पार की। जल्दी ही कुल्लू आ गया। यहां भी हमने शहर से गुजरने के बदले बाइपास से जाना बेहतर समझा। बाइपास पर सडक़ के दोनों तरफ कालीनों और दुशालों का बा•ाार सजा हुआ था। हिमाचल में ऊन की शॉल कई जगहों पर बनती है पर सबकी अपनी-अपनी खासियत होती है। हमारी शापिंग करने में कोई रुचि नहीं थी सो बिना रुके आगे बढ़ गए। इस बीच सेब के बगीचे न•ार आने लगे थे। एक तरफ व्यास नदी और दूसरी तरफ सेबों से लदे वृक्ष। अब हम कुछ ही समय में मनाली पहुंचने वाले थे।
हिमाचल प्रदेश-5
कुल्लू से मनाली की चालीस किमी की दूरी सामान्यत: डेढ़ घंटे में तय होना चाहिए थी, लेकिन सामरिक महत्व के इस राजमार्ग को फोरलेन करने का काम जारी था, जिसके चलते दो घंटे से भी अधिक समय लग गया। इस दरम्यान सडक़ और नदी किनारे के कुछ गांवों की थोक फल मंडियां देखने का मौका अनायास ही मिल गया। फल, विशेषकर सेब की, सैकड़ों दूकानें सजी हुई थीं। मनाली व आसपास के इलाकों से फल उत्पादक किसान छोटे मालवाहकों से अपनी फसल लेकर आ रहे थे, मंडियों में नीलामी लग रही थी, और देश के दूरदराज क्षेत्रों से आए ट्रक चालक माल भरकर वापिस जाने की प्रतीक्षा में रुके हुए थे। इन बा•ाारों की सारी दूकानें अस्थायी थीं, बांस-बल्ली और तिरपाल के सहारे खड़ी की हुई। अभी मौसम है तो बा•ाार है, चहल-पहल है, दो माह बाद बर्फ गिरना शुरू होगी तो अगले कुछ माह तक की छुट्टी। कहना न होगा कि फल मंडियों की गहमागहमी के कारण भी यातायात में अपेक्षा से अधिक समय लग रहा था। रह-रहकर बारिश हो रही थी तो उसका भी असर पडऩा ही था।
मनाली जब कोई दस-बारह किमी रह गई होगी, वहीं से होटलों व रिसोर्टों का लगभग अटूट सिलसिला प्रारंभ हो गया। एक से एक सुंदर नाम और हर तरह की सुविधा का वायदा करते उनके साइन बोर्ड। नगर की सीमा में प्रवेश किया तो चैन की सांस ली कि प्रतीक्षा समाप्त हुई, लेकिन कहां? हमारा होटल व्यास नदी के दूसरे किनारे पर प्रीणी गांव में था, जिसके लिए नगर के भीतर होटलों की कोई पांच किमी लंबी श्रंृखला पार करने के बाद पुल से दूसरी तरफ उतरे और यू-टर्न लेकर फिर होटलों के बोर्ड पढ़ते-पढ़ते अपने ठिकाने पर पहुंचे। सुबह से निकले हुए थे, खूब थक चुके थे, किंतु अपना होटल देखकर तबियत खुश हो गई। पहाड़ी के ऊपर सेव के बगीचे के बीच बसा छोटा सा होटल, जहां बालकनी से हिमालय की हिमटा पर्वत श्रंृखला के सुंदर दर्शन हो रहे थे। आसपास सेव के और बगीचे भी थे तथा निकट ही एक पहाड़ी झरना कलकल प्रवाहित हो रहा था। नदी भी सामने ही थी, लेकिन मकानों के पीछे दबने से दिखाई नहीं दे रही थी।
कुल्लू-मनाली की वैसे तो बहुत ख्याति है और कुल्लू का दशहरा तो विश्वप्रसिद्ध हो चुका है, किंतु यह स्थान उनके लिए मनमाफिक है जो शांतिपूर्वक अवकाश के पल बिताना चाहते हैं। मनाली ही क्यों, हिमालय से लेकर सतपुड़ा, और नीचे मलयगिरि तक के सारे हिल स्टेशन निसर्ग की ममत्व भरी गोद में विश्राम करने के लिए निमंत्रित करते हैं, लेकिन आज जो यहां आते हैं, उनके पास शायद इतना समय नहीं होता कि प्रकृति की पुकार सुन सकें। वे उपभोक्ता बनकर आते हैं और पैसा वसूल की संतुष्टि लेकर लौट जाते हैं। शहर में बीचोंबीच क्लब हाउस नामक स्थान है। यहां एक तरह का स्थायी कार्निवाल या मेला लगा हुआ है। नहर में बोटिंग, भवन के भीतर अनेक तरह के खेल-तमाशों का इंतजाम जो सामान्यत: किसी भी फन पार्क में पाए जाते हैं। यह क्लब हाउस सैलानियों के बीच खासा लोकप्रिय है। अगर मौसम उपयुक्त हो तो पर्यटक रोहतांग दर्रे या उसके पहले सोलांग की वादी तक जाते हैं। इनको छोड़ दें तो नगर की परिधि में दो-तीन स्थल ही दर्शनीय हैं।
वशिष्ट मंदिर समुच्चय एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है। जैसा कि नाम से पता चलता है यहां वशिष्ठ ऋषि का मंदिर है, जिसके गर्भगृह में उनकी प्रतिमा स्थापित है। इसका एकमंजिला मुख्य भवन काष्ठ निर्मित है और उस पर सुंदर नक्काशी की गई है। बाजू में ही गरम पानी का सोता है, जिसे दीवारें खड़ी कर दो भागों में बांट दिया गया है। एक खंड पुरुषों और दूसरा महिलाओं के स्नान हेतु। मैं कल्पना कर रहा था कि बिना इस निर्माण के यह प्राकृतिक झरना मंदिर प्रांगण की शोभा कितनी बढ़ाता होगा, लेकिन यहां तो रेलमपेल मची थी। तेल-साबुन लेकर पर्यटक कुंड के भीतर एक छोटी दीवाल खड़ी कर बना दिए गए छोटे हिस्से में स्नान कर रहे थे और बाकी बड़े हिस्से में देह से देह टकराते स्नान करते हुए अपना जीवन सार्थक करने में लगे थे। खैर, वशिष्ठ मंदिर के बाहर कुछ सीढिय़ां चढक़र एक राममंदिर है। यहां सामने एक नया मंदिर बन गया है जिसमें पूजा-पाठ होता है; प्राचीन पाषाण मंदिर पीछे दब गया है, जिसकी कोई देखभाल नहीं है। उसके दो तरफ मटमैला पानी भरा था, याने आप मंदिर को चारों तरफ से देख भी नहीं सकते। इस प्राचीन भवन की नक्काशी भी दर्शनीय है। तीसरा इसके ठीक नीचे एक शिवमंदिर है, जो किसी मढिय़ा जैसे आकार का है। इस मंदिर समुच्चय तक आने के लिए एक संकरी सड़क़ है, जिस पर एक साथ दो वाहन नहीं गुजर पाते।
मनाली में सबसे सुंदर, सबसे आकर्षक, सबसे रमणीय स्थान है- वन विहार नेशनल पार्क और उसकी परिधि पर स्थित हिडिंबा देवी मंदिर। चारों तरफ देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से घिरा काष्ठ निर्मित भवन। हिडिंबा कुल्लू रियासत की अधिष्ठात्री देवी हैं और दशहरे के समय मनाली के मंदिर से बाहर निकल उनकी यात्रा कुल्लू तक जाती है। सबसे पहले उनकी पूजा, बाद में अन्य अनुष्ठान। भीम और हिंडिबा के बेटे प्रतापी घटोत्कच का मंदिर भी कुछ सौ मीटर की दूरी पर है। इस स्थान पर प्रकृति के सान्निध्य में आप घंटों बिता सकते हैं। उस दोपहर मंदिर में दर्शनार्थियों या पर्यटकों की संख्या काफी थी, लेकिन कहीं कोई हल्ला-गुल्ला नहीं, सब नैसर्गिक सुषमा का आनंद लेने में मगन थे। दर्शन के लिए पच्चीस-पचास जनों की कतार लगी थी, हम बाहर बैंच पर इत्मीनान से बैठे थे कि भीड़ कम होगी, तब भीतर जाएंगे। इतने में फुग्गे लेकर एक छोटा बालक आया, हमारे बाजू में एक परिवार बैठा था, उनका शिशु फुग्गे के लिए ललक रहा था। बेचने वाला बालक बार-बार उसके हाथ में गुब्बारा थमाता और शिशु की मां हर बार उसे लौटा देती।
मुझे कौतूहल हुआ। बालक से बातचीत करने लगा। पंजाब के किसी गांव से वह अपने माता-पिता के साथ आया है। पिता बढ़ई हैं, माँ मजदूरी करती है। इसकी उम्र छह-सात साल है। मनाली बा•ाार में कोई दूकानदार पांच सौ रुपए में पचास फुग्गे उधार दे देता है। दस रुपए नग का एक फुग्गा बीस में बेचकर यह बालक कुछ कमाई कर लेता है। उसके साथ थोड़ा बड़ा एक और बालक था। वह भी गुब्बारे लिए था। हमने एक फुग्गा खरीद लिया। बालक खुश। बोला- अपने स्मार्टफोन से हमारा फोटो खींचो। हमारे बाजू में दो युवक और बैठे थे। बंगलुरु से आए थे। उनके साथ बालक की दोस्ती पहले हो चुकी थी। वे एक बढिय़ा कैमरे से तस्वीरें ले रहे थे और हमारे नन्हें मित्र को अपना वह कैमरा खुशी से इस्तेमाल करने दे रहे थे। बालक ने उनसे कहा- आपके कैमरे से मैं इनकी फोटो खींचूंगा और खटाखट हमारी दो-तीन तस्वीरें ले डालीं। इतनी छोटी उमर, इतनी समझदारी, इतना जिम्मेदारी का एहसास और इतनी ही वयसुलभ चंचलता। उस बच्चे की क्रीड़ाएं देखकर मन भर आया।
मैं बंगलुरु से आए युवकों से बातचीत करने लगा तो अपना परिचय देते हुए स्वाभाविक ही रायपुर का नाम आया। नजदीक खड़े एक अन्य युवक ने सुन लिया तो मेरे पास आया- आप रायपुर से हैं। हाँ। मैं भी बस्तर का हूं। अरे वाह, खुशी की बात है। क्या करते हो, अभी कहां रहते हो। उसने जानकारी दी कि माता-पिता जगदलपुर में हैं, वह पटियाला रहकर कोई काम करता है। इसके कुछ घंटे पहले वशिष्ठ मंदिर में महाराष्ट्र से आए एक दल के कुछ लोग मिले। वे यवतमाल, विदर्भ से थे। अच्छा, आप रायपुर से हैं। हम वहां से अपने काम के लिए मजदूर लेकर आते हैं। अभी भी पच्चीस-तीस मजदूर हैं। सडक़ का काम बहुत अच्छा करते हैं। वे लोग हमारे पास खुश हैं। कई साल से आते हैं। धर्मशाला के बाद मनाली में भी रायपुर या छत्तीसगढ़ से जुड़े लोगों का मिलना एक ऐसा संयोग था, जिससे हमारे प्रदेश की आर्थिक-सामाजिक स्थिति का भी संक्षिप्त परिचय मिलता है।
हिडिंबा मंदिर एक संरक्षित विरासत स्थल है। गनीमत है कि इसके मूलस्वरूप के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ नहीं की गई है। इसके प्रवेश द्वार पर उत्कृष्ट काष्ठकला का परिचय मिलता है। गर्भगृह की छत नीची है और भीतर देवी प्रतिमा के सिवाय कोई अलंकरण या सजावट नहीं है। प्रवेशद्वार पर ही हमारी भेंट जैसलमेर से आए भाई-बहनों के एक ग्रुप से हो गई। उनके साथ भी फोटो खींचे गए। मनाली की संयोगवश हुई भेंट क्यों रोचक सिद्ध हुई, इसे आखिरी किश्त में जानेंगे।
हिमाचल प्रदेश-6
हिमालय की गहन कंदराओं में एक से एक पहुंचे हुए, कई सौ वर्ष आयु वाले ऋषि मुनि तपस्या में लीन रहते हैं, ऐसा लोक विश्वास फीका भले पड़ गया हो, समाप्त नहीं हुआ है। अनेक विद्वानों व लेखकों ने ऐसे तपस्वियों से प्रत्यक्ष भेंट होने के संस्मरण भी लिखे हैं। इस विश्वास में जो अतिरंजना है उसे हटा दें तब भी इतना तो सत्य है कि सांसारिक मोह-माया त्याग कर जीवन संध्या बिताने के लिए हिमालय की शरण लेने की लंबी परंपरा अपने यहां विद्यमान रही है। बांग्ला के लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार प्रबोध कुमार सान्याल ने ‘महाप्रस्थान के पथ पर’ तथा ‘देवतात्मा हिमालय’, अपनी इन दो पुस्तकों में ऐसे सन्यासियों से भेंट-वार्तालाप के उल्लेख किए हैं। मुझे स्मरण नहीं कि 1936-37 में प्रकाशित महाप्रस्थान के पथ पर में लेखक ने निकोलाई रोरिक का •िाक्र किया है या नहीं, लेकिन जब वे हिमालय में परिभ्रमण कर रहे थे, तब यह ऋषितुल्य रूसी नागरिक मनाली के पास एक बहुत छोटे गांव में रहते हुए एकांतिक साधना में लीन था।
अपने होटल में आसपास के रमणीक स्थलों की पूछताछ करते हुए नग्गर नामक स्थान का नाम सुना तो लगा कि यह नाम तो पहले सुना हुआ है। क्यों, किस कारण से, दिमागी घोड़े दौड़ाए तो याद आया कि इसी नग्गर में तो सुप्रसिद्ध चित्रकार निकोलस रोरिक रहते थे, जो अपना देश रूस छोडक़र और भारत में ही बस गए थे और जिन्होंने हिमालय पर सैकड़ों चित्र बनाए थे। मैं उन्हें ऋषितुल्य कह रहा हूं तो महज इसलिए नहीं कि उन्होंने भारत को अपना घर बना लिया था, कि उनके बेटे स्वेतोस्लाव रोरिक भी अभिनेत्री देविका रानी से विवाह कर यहीं बस गए थे, कि उन्होंने हिमालय पर चित्रों की अनुपम श्रंृखला रची थी, बल्कि इसलिए कि उन्होंने विश्व के देशों के बीच कला व संस्कृति के आदान-प्रदान व संरक्षण के द्वारा विश्वशांति स्थापित करने का संदेश दिया था। उनके प्रयत्नों से सांस्कृतिक विरासत की रक्षा हेतु एक अंतरराष्ट्रीय संधि भी हुई, जिसे रोरिक पैक्ट के नाम से जाना गया। उल्लेखनीय है कि निकोलोई रोरिक की पत्नी इलीना या हैलेन की गहरी रुचि भारत अथवा एशिया की आध्यात्मिक परंपरा में थी। वे रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानंद से प्रेरित थे तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर व जवाहरलाल नेहरू उनके मित्र थे।
नग्गर में रोरिक एस्टेट को देखना एक दुर्लभ, प्रीतिकर व शिक्षाप्रद अनुभव था। वे सौ साल पूर्व जब यहां आकर बसे, मनाली और नग्गर छोटे गांव रहे होंगे। एस्टेट का क्षेत्रफल काफी बड़ा है, लेकिन उसमें अब अनेक तरह की गतिविधियां संचालित हो रही हैं। लोककलाओं का एक संग्रहालय है, एक शिल्प प्रशिक्षण केंद्र भी शायद है, लेकिन सबसे बढक़र आकर्षण का केंद्र है रोरिक निवास। यह काष्ठ निर्मित दुमंजिला भवन है। नीचे तीन कमरों में रोरिक द्वारा अंकित हिमालय की अनेक तस्वीरें प्रदर्शित हैं, ऊपर उनके शयन कक्ष आदि हैं। निवास स्थान से कुछ सीढिय़ां नीचे उतरकर नीले रंग के फूलों वाली क्यारियों के बीच स्वेतोस्लाव व देविका रानी का स्मृति कक्ष है, जिसमें उनके व परिवार के अनेक फोटोग्राफ हैं, देविका रानी के फिल्मी कैरियर को दर्शाते चित्र, पेस्टर आदि भी संजोए गए हैं। इस कक्ष के बाद कुछ और सीढिय़ां उतरकर निकोलाई रोरिक की समाधि है। इस पूरी संपदा का प्रबंध एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। रोरिक एस्टेट में ही हमें भुज से आए पर्यटकों का एक दल मिल गया। वे सब कच्छ के समुद्रतट से हिमाचल में ट्रैकिंग करने आए थे। दल के सभी सदस्य वकील थे, अधिकांश महिलाएं थीं और इनमें सबसे ज्येष्ठ ट्रैकर महोदय की आयु मात्र साठ वर्ष थी।
यहां नग्गर के बारे में जानकारी देना उचित होगा कि यह कुल्लू रियासत की पुरानी राजधानी है। नग्गर में इसलिए एक किला भी है। कोई भारी-भरकम संरचना नहीं, बस एक गढ़ी समझ लीजिए। यह एक संरक्षित स्मारक है और फिलहाल यहां हिमाचल पर्यटन द्वारा होटल व रेस्तोरां का संचालन किया जाता है। पत्थर से बनी इस गढ़ी की सबसे बड़ी खासियत दो ऊंचे-पूरे दरवाजे हैं। ये विशाल द्वार देवदार के समूचे वृक्ष को काटकर बनाए गए हैं याने इनमें कही भी जोड़ नहीं हैं। इन्हें काटा-तराशा भी गया है सिर्फ कुल्हाड़ी से, अन्य किसी उपकरण का प्रयोग नहीं किया गया है। दोनों दरवाजे अनगढ़ स्वरूप में हैं, उन पर कोई नक्काशी आदि नहीं है। हां, भीतर जो झरोखे, खिड़कियां आदि हैं, उनमें कलाकारों को अपना हुनर दिखाने का मौका अवश्य मिला है। नग्गर में रोरिक एस्टेट व कैसल यही दो मुख्य दर्शनीय स्थल हैं, किंतु यहीं से एक रास्ता एक और लुभावनी जगह तक ले जाता है, जिसके बिना यह वर्णन अधूरा रहेगा।
नग्गर से लगभग ग्यारह किमी की दूरी पर एक जलप्रपात है जो नजदीकी गांव जाणा के नाम से ही प्रसिद्ध प्राप्त है। इस रास्ते पर सेव के बागीचे तो थे, गोभी के खेत भी देखने मिले। पहाड़ों में जहां कहीं भी समतल जगह मिली, वहां गोभी की खेती हो रही थी और शहर के बा•ाार तक ले जाने के लिए मिनी वाहन तैयार थे। अनुमान न था कि पहाड़ों पर गोभी की खेती देखने मिलेगी। मजे की बात थी कि खड्ड के पार भी खेत थे और रज्जु मार्ग याने रोपवे से ट्रॉली में भरकर गोभी व सेव इस तरफ लाए जा रहे थे। इस सडक़ पर मिनी वैन ही चल सकती थीं। मार्ग की चौड़ाई इससे अधिक नहीं थी। बहरहाल, जाणा गांव से कोई डेढ़-दो किमी आगे बढक़र हम जलप्रपात तक पहुंचे। गाड़ी रुकी नहीं कि एक अल्हड़ युवती पास आकर ड्राइवर को समझाने लगी- गाड़ी यहां मोडक़र ऐसे पार्किंग करो। फिर हमसे मुखातिब हुई- आप ऊपर जाकर वाटरफॉल देखिए। वहां से बहुत सुंदर दिखता है। मैं लडक़ा साथ कर देती हूं। आपको सब बता देगा। लौटकर यहीं खाना खाईए। चावल, राजमा, रोटी सब्जी सब बन जाएगा। एक सांस में वह इतना सब बोल गई। हम उसकी वाकपटुता पर विस्मित थे। उसे समझाया कि ऊपर नहीं जाएंगे, खाना भी नहीं खाएंगे, घूमकर आते हैं, चाय तुम्हारी दूकान पर ही पिएंगे।
जाणा में एक नहीं, दो जलप्रपात हैं। दोनों के बीच लगभग दो सौ मीटर का फासला होगा। यह स्थान लगभग सुनसान था। टूरिस्ट सीजन में यात्री आते होंगे। हम पगडंडी पर यूं ही घूमने निकल पड़े। पहले प्रपात पर उस अल्हड़ युवती का होटल था तो दूसरे के निकट भी एक होटल खुला हुआ था। जलप्रपात चित्ताकर्षक थे। ऊपर कोई सौ फीट से पानी गिर रहा था। संकरे चौरस भूभाग से रास्ता बनाते हुए नीचे फिर और छोटे जलप्रपात बन रहे थे। हमने थोड़ी देर प्रकृति की शोभा का आनंद लिया, चाय पी और वापिस नग्गर होते हुए मनाली की ओर चल पड़े।
हिमाचल यात्रा में मनाली के बाद हमारा आखिरी पड़ाव शिमला था। इस बार मनाली से कुल्लू तक का सफर राजमार्ग पर नहीं, बल्कि प्रीणी से नग्गर होकर चलने वाले •िाला मार्ग पर तय किया। यद्यपि सडक़ प्रशस्त नहीं थी, लेकिन यातायात भी उतना सघन नहीं था। ट्रक तो नहीं के बराबर थे। करीब डेढ़ घंटे में कुल्लू पहुंच गए। उसके आगे मंडी। मंडी में व्यास नदी को अलविदा कहकर सुंदरनगर होते हुए शिमला की ओर बढ़े। जैसे-जैसे शिमला पास आते गया, ट्रैफिक का दबाव भी बढ़ते गया। शिमला पहुंचने के बाद हमें अपने होटल तक पहुंचने में एक घंटे से अधिक समय लग गया। गूगल मैप सडक़ें तो ठीक दिखा रहा था, लेकिन दो-तीन बार वन वे ट्रैफिक के चलते रास्ता बदलना पड़ा। हिमाचल पर्यटन के होटल पीटरहाफ में ठहरना था, वहां तक गाड़ी ले जाना दुश्वार हो गया, क्योंकि उसी दिन उसी जगह प्रदेश भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक वहां प्रारंभ हुई थी। नेताओं और उनके पिछलग्गुओं की गाडिय़ों के कारण कदम-कदम पर रुकना पड़ रहा था। होटल के भीतर भी इतनी भीड़ कि चैक-इन कर अपने कमरे तक पहुंचना मुश्किल।
होटल पीटरहाफ इसलिए कि कभी यहां इसी नाम के ब्रिटिश गवर्नर का निवास था। पुराना भवन आग में स्वाहा हो गया था। उसकी जगह उसी आकृति में नई इमारत तामीर की गई। डबल बैडरूम के बराबर का बाथरूम और बैडरूम ऐसा जिसमें चार पलंग लग जाएं। सभा-सम्मेलन के लिए बड़े-बड़े हॉल तो समझ आते हैं, लेकिन जो राजसी भवन जलकर खाक हो चुका था, उसे नए सिरे से, यथावत बनाने में मुझे कोई बुद्धिमानी प्रतीत नहीं हुई। खैर, हमें एक दिन और दो रातें काटना थीं, इस पर ज्यादा दिमाग नहीं खपाया। हमें अच्छा यह लगा कि शिमला का सबसे प्रसिद्ध स्थान वायसरीगल लॉज, जिसमें इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी•ा स्थापित है, होटल के बिलकुल सामने थे। बारिश न हो तो टहलते हुए चले जाओ। मेरी राय में शिमला में अगर कोई जगह देखने योग्य है तो वह यही है।
हिमाचल प्रदेश- अंतिम
भारत पर हुकूमत करने आए अंग्रेजों ने वैसे अपनी पहली राजधानी कलकत्ता में बसाई थी, लेकिन इंग्लैंड, स्काटलैण्ड के ठंडे इलाकों से आए हुक्मरानों को यहां का मौसम रास नहीं आता था, खासकर गर्मियां बिताना दूभर हो जाता था; इसलिए 1880 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन की इच्छानुसार हिमालय की पहाडिय़ों में स्थित शिमला में भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाई गई और बड़े लाट साहब के लिए वायसरीगल लॉज का निर्माण किया गया। आ•ाादी के बाद इसे राष्ट्रपति निवास का नाम मिल गया, लेकिन 1962 में जब डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इस विशाल भवन का बेहतर उपयोग करने की बात सोची। राष्ट्रपति निवास इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी•ा याने भारतीय उच्चतर अध्ययन संस्थान नामक नवस्थापित संस्था को सौंप दिया गया। शिमला में वायसरीगल लॉज, राष्ट्रपति निवास अथवा आईआईएएस इस नगर की सबसे उत्तम पहचान है और मुझ जैसों के लिए आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र भी है।
यूरोप के जैकोबियन शिल्प में निर्मित तिमंजिला भवन का एक हिस्सा ही आम जनता के लिए खुला है। बाकी में संस्थान की नियमित गतिविधियां संचालित होती हैं। यहां देश से विभिन्न अनुशासनों के ख्यातिप्राप्त विद्वान फैलोशिप पर आते हैं और शांत सुरम्य वातावरण में बैठकर चिंतन, मनन, लेखन करते हैं। ग्राउंड फ्लोर पर तीन भव्य कक्ष जनता के लिए खुले हैं और उनसे भारत के दो सौ साल के इतिहास की एक मुकम्मल तस्वीर देखने मिल जाती है। पहले कक्ष में लाट साहब की ऊंची कुर्सी है जहां उनके सामने हाजिरी बजाने गुलाम देश के बड़े-बड़े लोग आते थे। अंग्रेजी राज में क्या-क्या हुआ, इसका एक परिचय यहां चित्रों और अन्य सामग्रियों से मिलता है। दूसरे कक्ष में स्वाधीनता संग्राम की झलक मिलती है। इस कक्ष में आकर पता चलता है कि हमारे महान स्वाधीनता सेनानियों ने आ•ाादी के लिए कितने कष्ट उठाए और कितनी कुर्बानियां दीं। तीसरे कक्ष में स्वतंत्र भारत ने विगत सत्तर वर्षों में जो कुछ हासिल किया है उसके साक्ष्य प्रदर्शित हैं। हमें देखकर अच्छा लगा कि हबीब तनवीर का चित्र भी इस कक्ष में प्रदर्शित था। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले तक गोपालकृष्ण गांधी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष थे।
राष्ट्रपति निवास में एक प्रशस्त उद्यान है। इसके भीतर एक गुलाब वाटिका भी है, जिसमें कोई सौ किस्म के गुलाब थे। इसके बीचोंबीच मोइनजोदड़ो से प्राप्त नृत्य करती युवती की प्रतिमा की लोहे से निर्मित एक कलात्मक अनुकृति है। यह अनुकृति रेल की पांत के दो टुकड़ों के सहारे खड़ी की गई है। वह इस बात का प्रतीक है कि मोइनजोदड़ो की खोज एक रेलवे इंजीनियर ने की थी। कलाकार सुबोध केरकर ने यह कृति बनाई है उसका कहना है कि मोइनजोदड़ो एक ओर हमें भारत उपमहाद्वीप के प्राचीन इतिहास से जोड़ता है; दूसरी ओर वह स्थान चूंकि अब सिंध और पाकिस्तान में चला गया है इसलिए बंटवारे की भी याद दिलाता है। इस बगीचे में एक वृक्ष है जिसे बाकायदा विरासत वृक्ष के रूप में नामांकित किया गया है। यह डेढ़ सौ वर्ष पुराना वृक्ष पीपल की प्रजाति का दुर्लभ यलो पॉप्लर है।
हमारे पास दिनभर का समय था। और कहां जाएं? पुराने मंदिर बहुत देख लिए थे। नए मंदिरों में कोई रुचि नहीं थी। चैल और कुफरी के नाम सुन रखे थे। चैल दूर था, सोचा कुफरी तक हो आते हैं। आना-जाना व्यर्थ हुआ, लेकिन कुछ नई बातें समझ आईं। कुफरी में एक जगह रुकने के बाद ऊपर डेढ़ किलोमीटर घोड़े से जाना होता है। ऊपर कोई मंदिर है और कुछ एडवेंचर स्पोर्ट वगैरह भी होते हैं। सैकड़ों घोड़े और साइस पर्यटकों को ऊपर ले जाने के लिए तैयार खड़े थे। बातचीत में मालूम हुआ कि घोड़े और उनके मालिक तो शिमला के नीचे के गांवों के हैं, लेकिन साइसों में बड़ी संख्या नेपालियों की है और हाल के बरसों में कश्मीरी साइस भी यहां रोजी-रोटी के लिए आने लगे हैं। शिमला और कुफरी के बीच कहीं-कहीं तंबू लगाकर बैठे हिमाचल के पहाड़ी आदिवासी भी मिले। हर तंबू में एक याक तो था ही जिसकी सवारी का आनंद लिया जा सकता था। वे अपने हाथों बुने ऊनी वस्त्र भी बेच रहे थे।
तीन दिन पहले मनाली के हिडिंबा मंदिर में जैसलमेर के जिन युवा भाई-बहनों की टोली हमें मिली थी वह कुफरी में भी मिल गई। उन्होंने ही हमें देखा। नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ। हम गाड़ी में बैठकर चलने ही वाले थे कि उनमें से एक युवक ने आग्रह किया कि उनके साथ एक कप चाय पीकर जाएं। इस प्यार भरे आग्रह को कैसे टालते! पास की एक दूकान में चाय पीने बैठे, कुछ देर उन लोगों के साथ गपशप हुई, वे पढ़ाई पूरी कर राज्य सेवा में नौकरी पा चुके हैं,लेकिन यूपीएससी की तैयारी कर रहे हैं। थोड़ी देर के बाद हम शिमला की ओर लौट पड़े। अब हमें सिर्फ एक स्थान देखना बाकी था और वह था शिमला का माल रोड। अंग्रेजों के समय में विकसित हर हिल स्टेशन पर एक माल रोड होता था जहां सिर्फ पैदल चलने की ही अनुमति होती है। नगर की व्यवसायिक गतिविधियों का यह प्रमुख केन्द्र भी होता है। आजकल शहरों में जो माल बन रहे हैं संभव है कि उसकी व्युत्पत्ति माल रोड से ही हुई हो।
शिमला का माल रोड काफी ऊंचाई पर है और इसकी एक विशेषता यह है कि यहां पहुंचने के लिए लिफ्ट उपलब्ध है। बीस-पच्चीस बरस पहले जब शायद वीरभद्र सिंह ही मुख्यमंत्री थे तब लिफ्ट लगाई गई थी। नीचे एक स्थान पर सेंट्रल पार्किंग की व्यवस्था है। इसमें चार-पांच सौ कारें खड़ी हो सकती हैं। आधा फर्लांग चलकर लिफ्ट तक आइए। दो लिफ्टें हैं जो ऊपर एक स्तर तक जाती हैं वहां फिर सौ कदम चलकर दूसरी लिफ्ट से और ऊपर जाना होता है जो माल रोड पर खुलती है। एक बार का भाड़ा दस रुपया, लेकिन बुजुर्गों को तीस प्रतिशत की छूट है। मुझे यह देखकर कौतूहल हुआ कि स्थानीय निवासी घर से चक्के वाले सूटकेस याने स्ट्राली लेकर आते हैं। बा•ाार में सौदा सुलुफ कर सूटकेस में भर लेते हैं। इससे सामान का बोझ ढोने की मेहनत काफी बच जाती होगी।
माल रोड पर दूकानें ही दूकानें हैं और भीड़-भाड़ का कहना ही क्या। बारिश होने लगे तो भीड़ में थोड़ी कमी होने लगती है। इस सडक़ पर अंग्रेजों के समय का गेटी थिएटर है जिसमें अब एक संग्रहालय है। जहां बा•ाार खत्म होता है वहां रि•ा रोड है, जो और ऊंचाई पर है और जहां से शिमला का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। कुल मिलाकर चलहकदमी करने के लिए अच्छी जगह है। बशर्तें आप भीड़ से परेशान न हों। हम यहां एक ठीक-ठाक दिखने वाले रेस्तरां में खाना खाने गए तो यह जानना दिलचस्प लगा कि इस होटल में भी नीचे की सडक़ तक आठ मंजिल की एक लिफ्ट लगी हुई है। मॉल रोड पर घूमते हुए ही जैसलमेर की युवा टोली हमें एक बार फिर मिली। हम चाय तो साथ-साथ पी ही चुके थे। उन्होंने हमें फास्ट फूड के लिए आमंत्रित किया जिसमें हमारी रुचि नहीं थी, लेकिन इनसे तीन-तीन बार मिलना वाकई एक दिलचस्प संयोग था।
अगली सुबह हम दिल्ली के लिए निकल पड़े। फिर सेव और आलूबुखारे के बगीचे देखे। सडक़ किनारे सजी फलों की दूकानें देखीं। पहाड़ी सडक़ों के मोड़ धीरे-धीरे कम होते गए। ऊंचे-ऊंचे वृक्ष पीछे छूटते चले गए। हम जैसे पिछले दस दिन से किसी सम्मोहन में बंधे हुए थे। पिंजौर (चंडीगढ़) के कुछ पहले सीधी-सपाट सडक़ मिलना शुरू हुई, चारों तरफ फैला मैदान सा दृश्य देखा और सम्मोहन एकबारगी टूटा। हम स्वर्ग से वापस धरती पर आ गए। पिंजौर के बाद पंचकुला बायपास से होते हुए दिल्ली की तरफ बढ़े। रास्ते में पानीपत मिला। याद आया कि यह ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्मस्थान है। उनकी स्मृति को नमन किया। शाम बीतते न बीतते दिल्ली पहुंच गए। मानसपटल पर इस बीच सहस्त्रों छबियां अंकित हुईं जिनमें से कुछ आपके साथ साझा कर लीं। (समाप्त)
बक्सर यात्रा
प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने और समृद्ध करने का काम जिन लेखकों ने किया उनमें आचार्य शिवपूजन सहाय का नाम अग्रणी है। उनके द्वारा लिखित ‘देहाती दुनिया’ को अनेक समालोचकों ने हिंदी का प्रथम आंचलिक उपन्यास माना है। पटना से बच्चों के लिए प्रकाशित पत्रिका ‘बालक’ का उन्होंने कई वर्ष संपादन किया। 1938-39 में प्रारंभ यह हिंदी में संभवत् पहली बाल पत्रिका थी। आचार्यजी के जन्मदिन 9 अगस्त पर बक्सर (बिहार) के दीपक राय आदि प्रगतिशील सोच वाले मित्र कई वर्षों से लगातार आयोजन करते आए हैं। तीन साल से टलते-टलते मुझे इस वर्ष इस सालाना कार्यक्रम में सहभागी होने का सुयोग प्राप्त हुआ। दोस्तों का न्यौता स्वीकार तो कर लिया; समस्या यह थी कि इतनी लंबी दूरी कैसे तय की जाए, कोलकाता होकर जाऊं, कि दिल्ली से, कि बनारस की राह ली जाए। अंतत: रायपुर से पटना तक चलने वाली दक्षिण बिहार एक्सप्रेस से जाने का फैसला किया। ट्रेन यात्रा में इक्कीस घंटे लगना था, लेकिन सोचा कि रात को तो सोना ही है, दिन का समय किताबें पढक़र और ट्रेन की खिडक़ी से बाहर के दृश्य देखने में कट जाएगा। कुछ नए अनुभव ही इस बहाने होंगे। इस लिहाज से निर्णय ठीक ही सिद्ध हुआ।
रायपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म एक और प्लेटफॉर्म पांच दोनों की लिफ्ट बराबर काम कर रही थी, ट्रैक और प्लेटफॉर्म की साफ-सफाई भी काफी बेहतर थी, ट्रेन आई भी समय पर और पटना के कुछ पहले तक समय पर ही चलती रही; फिर न जाने किस वजह से लगभग दो घंटे लेट हो गई। डिब्बे के परिचारक से पूछा कि अच्छी चाय कहां मिलेगी तो उसका जवाब था- राउरकेला के आगे झारखंड/बिहार में प्रवेश के बाद। उसने सच कहा था। शाम और सुबह बिहार के स्टेशनों पर चाय बहुत अच्छी तो नहीं, फिर भी अच्छी मिली। क्या इसलिए कि बिहार में दूध की गुणवत्ता बेहतर थी? बिहार में रेल लाइन के किनारे गांवों में पटना पहुंचने तक लगभग हर घर में मवेशी बंधे दिखे, जिससे अनुमान हुआ कि दुग्ध उत्पादन इस प्रदेश की एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है। पटना से सडक़ मार्ग से बक्सर जाते हुए भी रास्ते में पेड़ों की अनेक दूकानें मिलीं। धारवाड़ (कर्नाटक) और मथुरा के पेड़े तो विख्यात हैं, लेकिन बिहार के पेड़ों की ख्याति अभी बाहर पहुंचना बाकी है। क्षमा कीजिए, यहां मैं भटक कर आगे चला आया। वापिस रायपुर लौटना पड़ेगा।
मैं एक लंबे अरसे बाद दिन के समय ट्रेन से कोलकाता की दिशा में जा रहा था। रायपुर से बाहर निकलते साथ कारखानों का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है- मांढर, बैकुंठ, फिर शिवनाथ के पुल के पार; उधर बिलासपुर के आगे दोनों तरफ कारखानों की चारदीवारियाँ और चिमनियाँ। भूपदेवपुर, किरोड़ीमल नगर, रायगढ़, कोतरलिया के आसपास की तस्वीर तो पूरी तरह बदल चुकी है, छत्तीसगढ़ की सीमा पार करने के बाद भी बेलपहाड़, हिमगिर के आगे काफी दूर तक यह सिलसिला जारी रहता है। यहां सिर्फ कारखाने ही स्थापित नहीं हुए हैं, रेल लाइनों का विस्तार कार्य भी चल रहा है। साल के बेशकीमती जंगल धीरे-धीरे कर नष्ट हो रहे हैंं। जहां संयंत्र चालू हैं, वहां धुएं के बादलों के पार कुछ दिखाई नहीं देता। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड का यह इलाका खनिज संपदा का धनी है। जो बेतहाशा माइनिंग हाल के बरसों में हुई है, उससे जंगल तो कटे ही, हाथी व अन्य वन्य प्राणियों की रिहाइशें भी खत्म हो गईं। आज जशपुर से लेकर अंबिकापुर और इधर सिरपुर तक हाथी आ रहे हैं, उसका प्रमुख कारण यही है। विकास की कीमत हम इस तरह चुका रहे हैं और शायद आगे भी चुकाते रहेंगे!! ट्रेन में यही सोचते-सोचते जो नींद आई तो सुबह बिहार के किसी गांव के आसपास खुली। धान के खेतों में पानी लबालब भरा था। अनुमान लगा कि यहां बारिश पर्याप्त हो चुकी है।
पटना स्टेशन पर रंगकर्मी, पत्रकार अनीश अंकुर लेने आ गए थे। शहर में वरिष्ठ लेखक खगेंद्र ठाकुर और पत्रकार प्रमोद कुमार भी साथ आ गए। बक्सर का लगभग 140 किमी का सफर तय करने में साढ़े चार घंटे लगे। एक तो सडक़ को फोरलेन करने का काम चल रहा था, दूसरे यातायात बहुत अधिक था। लेकिन बातचीत करते सफर मजे में कट गया। रास्ते में सकड्डी चौक नामक स्थान पर चाय-नाश्ते के लिए जिस ढाबे में रुके उसका नाम था-‘‘तिलंगाजी का मशहूर पेड़ा दूकान’’। ये तिलंगाजी वर्तमान होटल मालिक के दादाजी थे। चलते-चलते आसपास न•ार दौड़ाई तो देखा कि इसी नाम की यहां कम से कम पांच और ढाबे थे। समझ पड़ा कि वंशजों में बंटवारा होने से सबने अपनी-अपनी दूकानें खोल ली होंगी। जैसे मथुरा में विश्रामघाट पर ‘‘गोसाईं जी के पेड़े’’ की कोई एक दर्जन दूकानें मेरे देखते-देखते पिछले पचास साल में खुल गई हैं। सकड्डी चौक के थोड़ा पहले हमने सोन नदी पार की थी। अमरकंटक से निकली सोन का स्वरूप यहां समुद्र के समान था- दूर-दूर तक जल ही जल। सोन पर पहला पुल यहीं 1865 के आसपास बना था और इसमें इंजीनियरिंग का जो कमाल है, उसकी सराहना किए बिना नहीं रहा जाता। आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तामीर पुल एक किमी से अधिक लंबा है, दुमंजिला है, नीचे सडक़, ऊपर रेल चलती है और पुल निरंतर सेवारत है। अब पास में एक नए सेतु का निर्माण प्रारंभ हो गया है। बूढ़े बाबा पता नहीं कब तक साथ दें? इस पुल के पास स्थित गांव का नाम कवित्वमय है- कोइलवर।
बक्सर में भी तीन स्थान दर्शनीय हैं। एक तो यहां का पांच सौ साल पुराना किला है जो गंगा किनारे है। किला लगभग नष्ट हो चुका है या कर दिया गया है। अब किले की जगह सरकारी अधिकारियों के लिए भव्य विश्रामगृह बन गया है। कहीं-कहीं किले के खंडहर बचे हैं। इसके चारों ओर कई फीट चौड़ी, कई फीट गहरी खाई थी, वह भी शनै:-शनै: पाट दी गई है। कुछ प्राचीन वृक्ष अवश्य बच गए हैं। पीपल का एक वृक्ष देखकर मैं चमत्कृत रह गया। इतना मोटा तना और इतनी ऊंची फुनगी। पेड़ शायद दो सौ साल पुराना होगा! किले के बाहर ही सीताराम उपाध्याय संग्रहालय है जिसे राज्य सरकार संचालित करती है। श्री उपाध्याय ने अपनी निजी रुचि से आसपास से पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं का संग्रह व संरक्षण बिना सरकारी मदद के प्रारंभ किया था। उन्हें दूसरे तो क्या, स्वजन भी खब्ती समझते थे। आज उनका वह संग्रह एक बेशकीमती खजाने के रूप में हमारे सामने है, जिसमें ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व की मूर्तियां व अन्य सामग्रियां हैं। किले से मैं दुखी मन बाहर निकला था, म्यूजियम देखकर दुख दूर हुआ।
बक्सर में तीसरा दर्शनीय स्थान हैं- कतकौली का मैदान। यहां अक्टूबर 1764 में ब्रिटिश सेनाओं ने अवध व बंगाल के नवाब की सेना को निर्णायक रूप से परास्त कर समूचे पूर्वी भारत पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था। अंग्रेजों ने यहां हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी व उर्दू में अपनी जीत की घोषणा के प्रस्तर-फलक लगाने के साथ एक विजय स्तंभ भी खड़ा किया था। विजय स्तंभ कालांतर में क्षतिग्रस्त हुआ होगा, लेकिन न जाने कब किसने वहीं एक नया विजय स्तंभ खड़ा कर दिया गया जिस पर मो•ोक टाइल्स जड़े गए थे! वे टाइल्स एक-एक उखड़ रहे हैं, लेकिन अंग्रेजों की जीत का स्तंभ नये सिरे से खड़े करने की बुद्धिमानी हमने क्यों दिखाई? लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता नागेंद्रनाथ झा ने सांसद निधि से स्मारक की चारदीवारी बनवा दी थी कि अतिक्रमण न हो। वह एक समझदारी का काम था। लेकिन आसपास अवैध कब्जे बदस्तूर हो रहे हैं। एक दिन हम भूल जाएंगे कि इस जगह पर भारत का एक बड़ा भूभाग दो सौ साल के लिए गुलाम बना लिया गया था। मेरे गाइड युवा पत्रकार पंकज भारद्वाज ने रास्ते में मुझे वह नहर भी दिखाई, जिसमें कभी स्टीमर चला करते थे, लेकिन जिसे पाटकर अब मकान बन रहे हैं।
आचार्य शिवपूजन सहाय की जयंती पर आयोजित दो-दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेने से मुझे बहुत संतोष मिला। सबसे अधिक प्रसन्नता की बात यह थी कि नौजवानों ने आयोजन में बढ़-चढक़र शिरकत की। 10 तारीख को शहीद कुंवरसिंह की प्रतिमा से प्रारंभ हो शहीद भगतसिंह की प्रतिमा तक विश्व शांति, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आ•ाादी के लिए दो किमी का मार्च निकला, उसमें भी युवजन बड़ी संख्या में शामिल हुए। मैंने उनके साथ करीब दो-ढाई घंटे तक खुली बातचीत की तो समझ आया कि ये युवा राजनीतिक रूप से बेहद सजग हैं, देश व दुनिया के प्रश्नों में उनकी गहरी दिलचस्पी है और वे हिंदी साहित्य के उत्कट अध्येता भी हैं। सभा स्थल पर पुस्तकों की दो दूकानें लगी थीं और सभी लोग रुचि के साथ किताबें खरीद रहे थे। बिहार को हम सदा से एक साहित्यप्रेमी समाज के रूप में जानते आए हैं, यह आयोजन उसका प्रत्यक्ष उदाहरण था। ट्रेन में विलंब होने के कारण मैं कार्यक्रम में दो घंटे देर से पहुंचा था, लेकिन सब धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। शाम सात बजे के आसपास कार्यक्रम समाप्त हुआ, लेकिन श्रोतागण ने कोई उकताहट या उत्साहहीनता नहीं दिखाई।
इस संक्षिप्त प्रवास से मैं अनेक मीठी यादें लेकर लौटा। साथ-साथ बक्सर की सोनपापड़ी मिठाई का एक डिब्बा भी दीपकजी ने रख दिया था। बक्सर की यह मिठाई बिहार में बहुत प्रसिद्ध है।
यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि 1966 में और फिर 1968 में जब मैं दुबारा वहां गया तब फाजिल्का एक बड़े कस्बे जैसी जगह रही होगी। विगत पचास वर्षों में देश के हर शहर और हर गांव का नक्शा बदला है, तो पश्चिमी सीमा पर बसा यह नगर भी उस बदलाव से अछूता कैसे रहता! प्रसंगवश मुझे ध्यान आता है कि मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया के पास बनखेड़ी एक साधारण गांव था। दो-तीन साल पहले वहां से गुजरा तो देखा रेल लाइन के पास नई बनखेड़ी के नाम से एक समानांतर बसाहट कायम हो गई है। इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व कवर्धा से राजनांदगांव के लिए देर शाम निकला तो रास्ते में सहसपुर लोहारा की जगमगाहट देखकर आश्चर्य में पड़ गया। जो गांव पहले सडक़ से काफी भीतर हुआ करते थे अब वे सडक़ किनारे आ गए हैं और सडक़ किनारे के खेतों की जगह बड़े-छोटे मकान तन गए हैं। यह बदलाव हम रायपुर में भी तो देख रहे हैं जहां क्रमश: रायपुर, पुरानी बस्ती, बूढ़ापारा से शंकरनगर, अनुपम नगर होते हुए अब एक नए शहर के रूप में नया रायपुर विकसित हो रहा है।
$फा•िाल्का पिछली दो बार की तरह इस बार भी हम एक वैवाहिक कार्यक्रम में शरीक होने ही गए थे। आत्मीय परिजन रमेश जिनके बेटे का विवाह था, उन्होंने हम कुछ लोगों के ठहरने की व्यवस्था हाल-हाल में खुले एक नए होटल में की थी। यह होटल एक नई सडक़ पर था जिसका नाम भी न्यू अबोहर रोड था। जिस पर एक फ्लाईओवर भी बन गया था। इस रोड पर हमारे होटल के आगे कोई आधा दर्जन नई शैली के विवाह मंडप बन गए थे। उनकी भव्यता चकित करने वाली थी। इनमें सौ-सौ गाडिय़ां खड़ी हो जाएं, इतनी बड़ी पार्किंग व्यवस्था थी। ठंड के दिन हैं तो हाल में भोजन व्यवस्था और वह भी ऐसी कि एक बार में चार-पांच सौ लोग साथ-साथ खडख़ाना (बूफे को यह नाम मराठी के प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक गंगाधर गाडगिल का दिया हुआ है) का आनंद ले सकें। रायपुर जैसे बड़े शहर में ऐसी व्यवस्था हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। पंजाब के सीमावर्ती नगर में भी अगर ऐसा ही सरंजाम था तो शायद इसका श्रेय पंजाबी समाज की उत्सवप्रियता को दिया जा सकता है। सामान्यत: विवाह में भोजन शाकाहारी ही होता है, लेकिन यदि विवाह मंडप में मद्यपान की व्यवस्था भी हो तो इसे उनकी उत्सव मनाने की परंपरा का अंग मानना चाहिए।
एक तरफ विकसित होता हुआ नया इलाका और दूसरी ओर नगर की पुरानी बसाहट। $फा•िाल्का और आसपास का क्षेत्र कपास उत्पादन के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां के कपास की बिक्री मुख्यत: लगभग पचास किलोमीटर दूर अबोहर में होती थी इसलिए आज की अबोहर के साथ मंडी प्रत्यय जुड़ा हुआ है। जबकि $फा•िाल्का को स्थानीय लोग आपस में नगर कहकर पुकारते हैं। यह पर्यायवाची कैसे प्रचलित हुआ मैं नहीं जान पाया, लेकिन अनुमान लगाता हूं कि कपास नकदी फसल है, यहां के किसान पहले से ही समृद्ध रहे हैं, उसके अनुरूप यहां नागरिक सुविधाएं विकसित हुई होंगी और नगर का विशेषण इसीलिए मिल गया होगा। मेरा यह अनुमान दो-ढाई दिन के प्रवास में पुष्ट हुआ। जब हम पहुंचे तो भाई रमेश ने कुछ अफसोस जताते हुए कहा कि मैं तो आपको हवेली में ठहराना चाहता था, लेकिन आप वहां अकेले न पड़ जाएं इसलिए होटल में आपकी व्यवस्था की है। मैं यह सुनकर ही चौंक गया कि यहां ऐसी कौन सी हवेली है!
शहर के पुराने हिस्से में बीच बा•ाार एक संकरी गली में जब हवेली देखी तो आश्चर्य के साथ-साथ प्रसन्नता भी बहुत हुई। मुझे तो जैसे एक नायाब खजाना हाथ लग गया। इतिहास, पुरातत्व, विरासत स्थल इन सब में मुझे गहरी रुचि है इसलिए यह प्रसन्नता हुई। यह हवेली सन् 1845 में बनी थी याने आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले। राजस्थान में बीकानेर के पास किसी छोटे गांव से निकलकर सूरतगढ़, श्रीगंगानगर होते हुए माहेश्वरी समाज से संबंधित एक पेड़ीवाल परिवार सन् 1841 में यहां व्यापार के सिलसिले में आकर बसा था। चार साल के भीतर उन्होंने अपने रहने के लिए यह हवेली बनवाई थी। इसमें कालांतर में परिवर्तन भी हुए, कुछ नया निर्माण भी हुआ और परिवार बढऩे के साथ-साथ आगे चलकर विभाजन भी हुआ। हवेली का जो भाग हमने देखा उससे लगे हुए उसी परिवार के दो अन्य रिहायशी भवन भी हैं इन्हें देखते हुए मुझे जबलपुर में राजा गोकुलदास महल, जिसे बखरी के नाम से जाना जाता है, का ध्यान आ गया। यह हवेली उस बखरी का एक लघुरूप ही मुझे प्रतीत हुई।
सुशील पेड़ीवाल हवेली के वर्तमान मालिक हैं। उन्होंने अपने दादा राय साहब शोपतराय पेड़ीवाल की स्मृति में इसका नामकरण किया है। पेड़ीवाल परिवार का पिछले डेढ़ सौ साल से व्यापार जगत में नाम है ही, उन्होंने जिस जगह आकर भौतिक समृद्धि अर्जित की, उस मिट्टी के प्रति अपना कर्ज उतारने के भी उपक्रम किए। सौ साल से अधिक पुराने सिविल अस्पताल का जनाना वार्ड इसी परिवार ने बनवाया, जलप्रदाय व्यवस्था भी की और बा•ाार चौक में घंटाघर का निर्माण भी करवाया। इनकी तीन-चार पीढिय़ां भी स्थानीय नगरपालिका में अध्यक्ष पद पर काबिज रहीं। घंटाघर हवेली से कोई आधा फर्लांग की दूरी पर है। उसका रख-रखाव आज भी सुशील पेड़ीवाल के सहयोग से होता है। इसका निर्माण हुए भी सौ साल से ऊपर हो गए हैं और इस नाते इसकी गणना भी विरासत स्थल के रूप में होने योग्य है।
बहरहाल हवेली की बात करें। यह एक खूबसूरत आवासीय भवन है, जिससे हमें आज से दो सौ साल पहले की अपने देश की भवन निर्माण कला और कौशल का परिचय मिलता है। इसमें दरवाजों पर की गई नक्काशी बेहद खूबसूरत है। पुराने चित्र और भित्तिचित्र हैं। वे उस दौर के कलाकारों की प्रतिभा को दर्शाते हैं। भवन के बीच में खुला आंगन है जैसे कि पहले के अधिकतर मकान हुआ करते थे। खुले आंगन के कारण तापमान को संतुलित करने में मदद मिलती है। एक रोचक बिन्दु ध्यान में आया कि भूतल पर सीढ़ी के बाजू में एक चार फुट ऊंची और एक बड़ी टेबल के आकार की मोटी सी लोहे की तिजोरी है, लेकिन सुशीलजी ने बताया कि यह सिर्फ तिजोरी का दरवाजा है। इसका ढक्कन खोलने पर नीचे जाने के लिए सीढिय़ां हैं। नीचे उस तलघर में कभी वजन से तौलकर थैली में बांधकर चांदी के सिक्के जमा कर दिए जाते थे। कुछ अन्य कमरों में भी तिजोरियां रखी हुई हैं वे भी इंग्लैंड की बनी। इन पर भारी-भरकम ताले लगे हुए हैं जिन्हें छोटा-मोटा चोर तो नहीं खोल सकता।
सुशीलजी ने हवेली का थोड़ा कायाकल्प किया है। हाल के वर्षों में अनेक पूर्व राजाओं ने अपने महलों को हैरिटेज होटल में तब्दील कर दिया है। हवेली को होटल तो नहीं बनाया गया है, लेकिन इतनी व्यवस्था अवश्य है कि विदेशी पर्यटक या खास मेहमान आएं तो उन्हें यहां आराम के साथ ठहराया जा सके। सुशील पेड़ीवाल कलात्मक रुचि सम्पन्न हैं। उन्होंने हवेली की शोभा बढ़ाने के लिए देश के अनेक स्थानों से हस्तशिल्प लाकर इस स्थान को अलंकृत कर दिया है। यहां भित्तिचित्र, नक्काशी, पेटिंग्स और अन्य कलाकृतियों को अगर इत्मीनान के साथ देखना चाहें तो एक पूरा दिन तो लग ही जाएगा। बहरहाल मुझे अच्छा लगा कि सुशीलजी न सिर्फ अपने पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई संपत्ति की देखभाल कर रहे हैं बल्कि वे देश की लगभग दो सदी पुरानी कलाकारी और कारीगरी का भी संरक्षण कर रहे हैं।
वे हमें हवेली दिखा रहे थे। बातचीत में मालूम हुआ कि पास के किसी गांव में उनका कृषि फार्म भी है। वे हमें वहां भी ले गए। जहां हमने आधुनिक तकनीक से खेती और बागवानी होते देखी। जिस पॉली हाउस पद्घति को सामान्य तौर पर किसानों के लिए घाटे का सौदा माना जाता है, वहीं सुशील पेड़ीवाल पॉली हाउस में टमाटर और अन्य सब्जियों की फसलें ले रहे हैं। उन्होंने एक सिरे से जामुन के सौ-दो सौ पेड़ लगाए हैं जिससे भी वे संतोषजनक आमदनी कर लेते हैं। कीनू के ग्यारह सौ पेड़ उन्होंने लगाए हैं, जिनकी बल्कि पूरे फार्म की मॉनीटरिंग सीसी टीवी से होती हैं। इस तरह एक ओर हमने $फा•िाल्का की विरासत से परिचय पाया, वहीं दूसरी ओर आधुनिक और उन्नत कृषि का भी एक मॉडल देखा। इस वृतांत को समाप्त करने से पहले दो-एक छोटी-छोटी बातें और। हरियाणा में सारे साइन बोर्ड देवनागरी में, पंजाब में सिर्फ गुरुमुखी में। $फा•िाल्का के पुराने बा•ाार में ही हिन्दी के साइन बोर्ड दिखे। चार सौ किलोमीटर के रास्ते में जो भी अच्छे-बुरे ढाबे थे वे सब के सब ‘शाकाहारी वैष्णो ढाबा’ थे। कुछ गांवों के नाम दिलचस्प थे जैसे बहू अकबरपुर और अबुल खुराना। आखिरी बात, आप कभी इस रास्ते पर जाएं तो हिसार के पास हांसी के पेड़े और दूध की दूसरी मिठाइयों का स्वाद लेना न भूलें।
15 दिसम्बर 17
इम्फाल शहर के बीच बा•ाार में एक चौक पर काले पत्थर की एक प्रतिमा स्थापित है। एक हाथी है और उसे साधने का प्रयत्न करता हुआ महावत है। मैंने आसपास के लोगों से पूछा किसकी प्रतिमा है, किन्तु सभी ने अनभिज्ञता प्रकट की। वहीं एक जन फुग्गे बेच रहा था। चेहरे मोहरे से पूर्वोत्तर का न होकर उत्तर भारतीय। नाम-धाम पूछने पर पुष्टि हुई कि बिहार का है। वह भी प्रतिमा के बारे में मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं कर पाया और न पास ही तैनात यातायात पुलिस का सिपाही। मैंने प्रतिमा की तस्वीर खींची, अपने होटल में तीन-चार लोगों को दिखाई। वे स्थानीय निवासी होने के बावजूद उससे अनभिज्ञ थे। अंतत: डॉ. नारा सिंह ने मुझे बताया कि यह मूर्ति एक बिगड़ैल हाथी और महाराजा भाग्यचंद्र द्वारा उसे साध लेने की कथा को वर्णित करती है। वे 1764 से 1768 तक मणिपुर के राजा थे। मणिपुर में कृष्ण चरित पर आधारित रासलीला प्रारंभ करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। वे थे तो महाराजा, किन्तु उन्हें उनके उदात्त चरित्र के कारण राजश्री की उपाधि मिली हुई थी।
मणिपुर के इतिहास की यह छोटी सी झलक पाकर अच्छा लगा, लेकिन अफसोस भी हुआ कि आज अधिकतर लोग ऐसे गुणी शासक के बारे में जानकारी नहीं रखते। प्रतिमा के नीचे कोई परिचय फलक भी नहीं था। मूर्ति के ठीक बाजू से एक फ्लाईओवर गुजरता है। हर आधुनिक नगर की यह अनिवार्य पहचान बन चुकी है। फ्लाईओवर के उस तरफ बसा है इमा मार्केट। मणिपुर में मां को इमा कहते हैं। इस बा•ाार की ख्याति देश-विदेश में है। विशेषता यह है कि पूरा बा•ाार महिलाओं के हाथों में है। कोई एक हजार दूकानें हैं और उनका संचालन औरतें ही करती हैं। अधिकतर दूकानें साग-सब्जी, फल-फूल, किराना, बांस की टोकरियों आदि याने घर की दैनंदिन जरूरतों की हैं। कुछेक दूकानों पर मणिपुर के प्रसिद्ध ऊनी शाल व अन्य परिधान भी मिलते हैं। बा•ाार लगभग दस फुट ऊंचे आसन पर स्थित है। ऊपर छत है और आने-जाने के लिए अनेक जगहों पर सीढिय़ां बनी हैं। सारी दूकानें चबूतरों पर हैं जिनके बीच चलने के लिए संकरे गलियारे हैं।
मुझे इस बा•ाार में सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र वे मूर्तियां लगीं जो मुख्य द्वार से भीतर जाते साथ दाहिनी ओर स्थापित हैं। दो मूर्तियां स्लेटी पत्थर की हैं और कुछ पुरानी। उनकी आकृतियां भी अनगढ़ हैं। इनके बाजू में मणिपुरी वस्त्रों से सुसज्जित सुंदर भावभंगिमा वाली दो छोटी-छोटी मूर्तियां और हैं। इन दोनों मूर्ति युगलों की पूजा होती है और पत्र पुष्प चढ़ाए जाते हैं। आसपास की दूकानदार महिलाओं से जानना चाहा कि ये कौन हैं। उन्होंने मणिपुरी के साथ टूटी-फूटी हिन्दी-अंग्रेजी में जो उत्तर दिया वह पल्ले नहीं पड़ा। बाद में जानकारी मिली कि ये बा•ाार के देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। एक तरह से क्षेत्रपाल। अनगढ़ मूर्तियां पुरानी हैं, लेकिन बाद में किसी कलाकार ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए बाजू में आकर्षक मूर्तियां बनाकर स्थापित कर दीं। इस बा•ाार में सौदा-सुलफ तो हर तरह का था और खरीदारी के साथ पर्यटकों की संख्या भी कम न थी; लेकिन मुझे यहां कोई खास बात प्रतीत नहीं हुई। मणिपुर के अन्य नगरों में व इम्फाल के अन्य बा•ाारों में भी सब तरफ महिलाएं ही दूकानों पर दिखीं। लेकिन अच्छा है कि मणिपुर ने इस बा•ाार की मार्केटिंग भली प्रकार की है जिससे यह पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बन गया है।
मैं मणिपुर अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एफसो) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने गया था। डॉ. नारा सिंह हमारे उपाध्यक्ष हैं। वे सीपीआई के नेता हैं। अनेक बार विधायक, दो बार मंत्री रह चुके हैं। पेशे से डॉक्टर हैं। विमानतल से होटल की ओर जाते हुए एक स्थान पर उन्होंने ध्यान आकृष्ट कराया। एक विशाल सिंहद्वार, उससे लगकर कोई आधा किलोमीटर तक सडक़ के साथ चलती हुई चारदीवारी, बाहर पुराने जमाने की एक नहरनुमा खाई। नारा जी ने बताया यह प्राचीन कंगला फोर्ट है। सन् 0038 याने दो हजार साल पहले कंगला राजवंश ने इसे बनाया था। कभी मिट्टी का किला रहा होगा। फिलहाल वहां भीतर एक बगीचा और एक म्यूजियम मात्र है। अंग्रेजों के समय से यह असम राइफल्स के पास था। डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्री काल में सेना से इसे वापिस लेकर राज्य सरकार को सौंप दिया है। अब वनविभाग इसकी देखभाल करता है। मेरे लिए यह जानना रोचक था कि देश में मेवाड़ से भी पुराना कोई राजवंश और चित्तौड़ से भी पुराना कोई किला था।
मेरा विमान सात दिसम्बर की सुबह जब इम्फाल हवाई अड्डे पर उतर रहा था, तो यह देखकर सुकून मिला कि आसपास बहुमंजिलें भवन नहीं थे और चारों तरफ पहाडिय़ां व हरियाली थी। यह राजधानी से आठ किलोमीटर दूर का न•ाारा था। शहर में खूब भीड़-भाड़ थी, वाहनों का शोर व धुआं था, बीच बा•ाार में तो पैदल चलना भी मुश्किल था। दूसरे दिन सुबह मैं होटल से बाहर घूमने निकला। कंगला फोर्ट का पश्चिमी द्वार आधा किलोमीटर से कुछ अधिक दूर था। वहीं एक चौराहा था। सुबह आठ बजे भी खासी गहमागहमी थी। मैं वापिस लौटने लगा तो देखा एक सिरे से बस कंपनियों के काउंटर बने हुए थे। इम्फाल से दीमापुर, कोहिमा, गुवाहाटी जाने के लिए बसें और मिनी बसें खड़ी थीं। इनके बीच खासी स्पर्धा होती होगी। म्यांमार की सीमा पर स्थित मोरे तक जाने के लिए भी बसें उपलब्ध थीं। आसपास चाय-नाश्ते के लिए छोटी-छोटी गुमटियां थीं और राईस होटलों के बोर्ड लगे थे जहां चावल और शोरबा ही मिल सकता था।
यहीं मेरी दृष्टि गन्ना रस के एक ठेले पर पड़ी। ठेलेवाले को देखकर अनुमान लगाया कि वह बिहार का होगा। अनुमान सही था। उमाशंकर बक्सर जिले का है। पिछले बीस साल से यहां रह रहा है। किसी परिचित के साथ आ गया था। पहले किसी दूकान पर नौकरी की मजदूरी भी, फिर किसी स्थानीय मित्र ने मदद की तो ठेला लगा लिया। पत्नी गांव में है, बच्चों को यहां साथ रखकर पढ़ा रहा है, कमाई ठीक-ठाक हो जाती है। मैं वापिस लौटा तो होटल के बाहर ही एक छोटा-मोटा बा•ाार न•ार आया, वहां मुझे गन्ना रस बेचते हुए बिहार के सासाराम जिले के हरेराम मिल गए। वे चालीस साल से यहां हैं। बच्चे भी साथ में हैं। बड़े हो गए हैं, काम करते हैं। एक तो सीमा पर स्थित मोरे से सामान लाकर बेचता है। उसमें अच्छी कमाई हो जाती है। गांव में दो-चार बीघा जमीन भी खरीद ली है। हरेराम ने बताया कि इम्फाल में बिहार के कई हजार लोग काम कर रहे हैं। उन्हें कोई असुविधा नहीं है। अपना देश है, कहीं भी जाकर रोजी-रोटी कमा सकते हैं।
हम होटल इम्फाल में ठहरे थे। पहले यह पर्यटन विभाग का होटल था और ले-देकर चलता था। इसे बाद में निजी हाथों में सौंप दिया गया। यहां बरकत नामक युवा ने कमरे तक मेरा सामान पहुंचाया। मैंने उसे सामान्य पोर्टर समझा था। बातचीत में मालूम हुआ कि वह राजनीतिशास्त्र में एम.ए. है। सरकारी नौकरी मिलना कठिन है इसलिए जो काम मिल गया, कर रहा है। पिता नहीं है, परिवार को चलाना है। बरकत ने बताया कि मणिपुर में अल्पसंख्यक तेरह-चौदह प्रतिशत हैं और वे स्थानीय निवासी ही हैं और उनका खान-पान व अधिकतर रीति रिवाज वैसे ही हैं जो अन्य जातीय समुदायों के हैं। वैसे मणिपुर में तीन जातीय समुदाय मुख्य हैं- मैतेई, कूकी और नगा। इनके बीच जातीय संघर्ष चलते रहते हैं। मैतेई वैष्णव हैं और मुस्लिम बाकी देश से न्यारे मणिपुरी मुस्लिम कहलाते हैं। वे इम्फाल घाटी में मुख्यत: रहते हैं। कूकी ईसाई हैं, उनका वास चूड़ाचांदपुर (चूड़ाचांद भी एक महाराजा थे) और उसके आसपास के पहाड़ी क्षेत्र में है। नगा भी पहाड़ी क्षेत्र के ही निवासी हैं।
इस समय मणिपुर में सबसे बड़ी राजनीतिक चिंता वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा किए गए गुप्त नगा समझौते को लेकर है। किसी को नहीं पता कि इसमें क्या है। वे चिंतित हैं कि भारत सरकार कहीं नगा समुदाय के सामने झुककर नगालिम याने वृहतर नगालैंड की मांग स्वीकार न कर ले जिसमें मणिपुर से कुछ जिले भी उनको दे दिए जाने का प्रस्ताव है। प्रदेश में जोड़-तोड़ से बनी भाजपा सरकार है और वह नागरिकों को हर तरह से आश्वस्त करने में लगी है कि मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी ऐसा आश्वासन दे चुके हैं। लेकिन जनता को इन पर विश्वास नहीं हो रहा है।
पूर्वोत्तर भारत के इतिहास, भूगोल, संस्कृति इत्यादि के साथ शेष भारत का परिचय बहुत प्रगाढ़ नहीं है। दरअसल, अपार विविधता भरे इस देश में एक-दूसरे के बारे में जान लेना कठिन व्यायाम है। हम अमेरिका में तो हैं नहीं, जहां समूचे देश में लगभग एक जैसा खानपान, एक जैसे वस्त्राभूषण, एक जैसी सडक़ें और एक जैसी इमारतें हों। अमेरिका में अटलांटिक तट से लेकर प्रशांत महासागर के किनारे तक चले जाइए; प्रकृतिदत्त विविधताओं को छोड़ दें तो मनुष्य ने जो निर्मित किया है उसमें बहुत फर्क दिखाई नहीं देता। खैर! यह तुलना न जाने कैसे दिमाग में आ गई, मैं बात तो अपने देश की करना चाह रहा था। मणिपुर के बारे में एक मिथक से हम परिचित हैं कि महाभारतकाल में अर्जुन ने वहां की राजकुमारी चित्रांगदा से गंधर्व विवाह रचाया था। वर्तमान समय की बात करने पर जो पहली और संभवत: एकमात्र छवि जनसामान्य में उभरती है वह मणिपुरी नृत्य की है। कोई कला-रसिक हो या न हो, मणिपुरी भारत की नृत्य परंपरा में एक प्रमुख शैली है यह लोग सामान्यत: जानते हैं।
मणिपुर का भारत की बहुलतावादी संस्कृति के विकास में जो दूसरा महत्वपूर्ण योगदान है वह संभवत: रंगमंच के क्षेत्र में है। रतन थियम देश के जाने-माने रंगकर्मी हैं। वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय याने एन.एस.डी. के निदेशक भी रह चुके हैं। देश की पूर्वी सीमा पर बसे इस प्रदेश का मैतेई समाज कृष्ण भक्तिधारा में डूबा हुआ है। यहां के एक राजा ने रासलीला प्रारंभ करवाई जिसे वे बृजभूमि से लेकर आए इसका संकेत हम पिछले लेख में दे चुके हैं। कोलकाता से हवाई यात्रा के दौरान ही यह अनुमान लग गया था कि मणिपुर में चैतन्य महाप्रभु द्वारा स्थापित गौड़ीय सम्प्रदाय का गहरा प्रभाव है। मैंने अपने कुछ सहयात्रियों को देखकर यह अनुमान लगाया था। मणिपुर के नृत्य और अन्य ललित कलाओं में भी यही प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां तक कि पाककला में भी इसे देखा जा सकता है।
हमारे मेजबान साथी डॉ. नारा सिंह जी ने अपने प्रदेश की सांस्कृतिक परंपरा और इतिहास दोनों से हमें परिचित कराने का प्रबंध कर रखा था। एक शाम हमने लगभग डेढ़ घंटे लंबा कार्यक्रम देखा जिसमें नृत्य और गीत के अलावा मणिपुर के मार्शल आटर््स का प्रदर्शन भी शामिल था। औसतन पन्द्रह मिनट की एक-एक प्रस्तुति थी जिसमें कलाकारों की चपलता हाव-भाव, गायन, वादन सब कुछ देखते ही बनता था। जो प्रदर्शन तलवारबाजी के थे उनमें कलाकारों की चपलता और शरीर की लोच, अधर में फिरकी खाना आदि देखकर हम लोग ठगे से रह गए थे। तीसरी रात एक और सांस्कृतिक प्रस्तुति देखने का अवसर मिला। डॉ. नारा सिंह ने स्वयं पर्यावरण विनाश पर मणिपुरी में कविता लिखी है जिसका शीर्षक हिन्दी में प्रकृति का क्रंदन होगा। इस पर आधारित एक घंटे से अधिक अवधि के बैले अथवा नृत्य नाटिका को देखना एक अद्भुत अनुभव था।
यह कविता डॉ. नारा सिंह ने कई साल पहले लिखी थी। इसे उन्होंने विपक्ष के नेता के रूप में मणिपुर विधानसभा में सुनाया था। यहीं से उनका कवि मन भी जागृत हुआ। कविता पर आधारित बैले में लगभग पचास अभिनेता रहे होंगे जो मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किए जा रहे अत्याचार के विभिन्न रूपों को अपनी कला से प्रदर्शित कर रहे थे। इस बैले का दृश्यविधान तो बहुत सुंदर था ही, कलाकार भी अपनी प्रतिभा की चमक बिखेर रहे थे। कार्यक्रम समाप्त हुआ। सारे लोग कलाकारों को बधाई देने उमड़ पड़े। बैले की निदेशिका लतादेवी थाउनाउजाम (यह सरनेम उनके गांव का नाम है) को बधाई देते हुए मैंने सहज पूछ लिया कि आपके हिन्दी उच्चारण इतने साफ कैसे हैं। जवाब मिला कि उन्होंने भोपाल में नाट्य कला का अध्ययन किया है और वे अपने समय की मशहूर रंगकर्मी गुल वर्धन व प्रभात गांगुली की छात्रा रहीं हैं। मैंने जब बताया कि मेरा भी मध्यप्रदेश से रिश्ता है तो वे एकाएक भावुक हो गईं। बोलीं- भोपाल तो मेरा मायका है, आप मेरे मायके से आए हैं।
मैं सात दिसंबर की सुबह मणिपुर पहुंचा था। उस दिन और अगली शाम तक भी मौसम खुला हुआ था। गो कि ठंड बहुत थी। अच्छे मौसम के कारण इम्फाल शहर में घूमने का अवसर मिल गया। इससे स्थानीय जीवन की कुछ और बातें समझ में आईं। मणिपुर में प्राकृतिक सुंदरता बहुत है। इम्फाल घाटी को छोडक़र अधिकतर प्रदेश पहाड़ों से घिरा हुआ है। नगा जनजाति की अधिकतर आबादी पहाड़ों में ही बसी है। मणिपुर को शेष भारत से जोडऩे वाले राष्ट्रीय राजमार्गों पर कभी भी नाकाबंदी कर देते हैं और तब स्थानीय जनता को बहुत सारी तकलीफों का सामना करना पड़ता है। याने यह प्राकृतिक सुंदरता कई बार परेशानी का सबब बन जाती है। दूसरी ओर मणिपुर कुछ मामलों में पूरी तरह से अन्य प्रदेशों की बराबरी करता है। जैसे वाहनों की बढ़ती संख्या, लगातार बढ़ता प्रदूषण, सीमेंट, कांक्रीट से बनते नए घर और ऊंची इमारतें, ट्रैफिक नियमों का पालन न करना, दलबदल, जोड़-तोड़ से बनी भाजपा सरकार के बावजूद स्वच्छता का अभाव इत्यादि।
इम्फाल, विष्णुपुर, मोइरांग जैसे नगरों को देखकर लगता है कि आप अपने घर में ही हैं। कम से कम सडक़ों और बा•ाारों का न•ाारा तो वही है। मुझे अल्प प्रवास में यह भी अनुमान हुआ कि प्रदेश में बेरोजगारी काफी है और गरीबी भी कम नहीं है। एक जगह मैंने छोटा सा बा•ाार लगते देखा कुछ लोग हाथ ठेलों पर लादकर गठरियां लाए, उनको खोला और पुराने याने उतारे हुए ऊनी कपड़ों और जूतों की दुकानें सजा दीं। देखते ही देखते वहां ग्राहक इकट्ठा होने लगे। ऐसा दृश्य किसी भी भारतीय नगर में आम है। मणिपुर के सब्जी बा•ाार में और इमा मार्केट में भी इस श्रेणी भेद को देख पाना बहुत कठिन तो नहीं था।
बहरहाल मणिपुर के बा•ाारों में दो-तीन नई बातें भी देखने मिलीं। इमा मार्केट में कमल के फूल, वे भी नीले और सुर्ख लाल बड़ी मात्रा में बिक्री होते देखे। इनका उपयोग ठाकुर की पूजा में होता होगा। गुवाहाटी की तरह यहां भी गुवा याने कच्ची सुपारी खूब बिकती है और खूब खाई भी जाती है। कच्ची सुपारी गाल के नीचे दबा ली जाए तो उससे एक मद्धिम किस्म का सुरूर चढ़ता है, यह तो मैंने भी अनुभव किया है। पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी इसका सेवन करती हैं। मणिपुर में खसखस बहुतायत में मिलती है। हमारे बंगाली दोस्त इसे देखकर बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि बांग्ला भोजन में पोस्त याने खसखस का उपयोग काफी प्रचलित है। मैंने यहां काला चावल भी देखा और उसका दो रूपों में सेवन करने का अवसर भी मिला। काले चावल से बनी खीर बहुत स्वादिष्ट थी। अलग से भात की तरह खाने पर भी उसका स्वाद अच्छा था। यह भी एक रोचक संयोग था कि पश्चिमी सीमा पर $फा•िाल्का में जहां मैंने कुछ दिन पहले कीनू का स्वाद चखा था वहीं पूर्वी सीमा पर मणिपुर में स्थानीय संतरे का स्वाद लेने का अवसर मिला। प्रदेश में संतरे की खेती बढ़ाने के उपाय चल रहे हैं।
इन सारे स्वादों के साथ एक कड़वा स्वाद भी मिला। मणिपुर के अंग्रेजी अखबार पढक़र यह समझ में आया कि देश के अन्य हिस्सों में जिस तरह प्रेस की स्वतंत्रता नाकाबिले बर्दाश्त हो गई है, कुछ वैसी ही परिस्थिति मणिपुर में भी बनी हुई है। मेेरे प्रवास के दौरान एक ऐसा प्रसंग आया जब सत्तारूढ़ भाजपा के प्रवक्ता ने टीवी पर प्रसारित किसी कार्यक्रम को लेकर पत्रकारों पर अवांछित टिप्पणी की जिसका विरोध स्थानीय पत्रकारों ने किया। उन्होंने बैठक आयोजित कर भाजपा प्रवक्ता के बयान की कड़ी निंदा भी की। स्वाधीनता संग्राम और मणिपुर के बारे में चर्चा तीसरी और आखिरी किश्त में होगी।
मणिपुर में एप्सो की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए देश के लगभग बीस प्रांतों से प्रतिनिधि आए थे। हममें से अधिकतर की यह पहली मणिपुर यात्रा थी इसलिए औपचारिक बैठकों के बाद जब दो-एक दर्शनीय स्थलों के भ्रमण की सूचना मिली तो सबके सब बहुत उत्साहित हुए। हमें जाना बहुत दूर नहीं था। इम्फाल से कोई पैंतालीस किलोमीटर दूर मोइरांग और वहां से दस किलोमीटर आगे लोकटाक झील। एक दिन में इससे अधिक देख भी क्या सकते थे? शाम होते-होते तक लौटना भी था। मणिपुर पूर्व में है इसलिए हमारी घड़ी से सूर्योदय पांच बजे के पहले हो जाता है और शाम चार-साढ़े चार बजे से अंधेरा घिरने लगता है। लोग-बाग अपना काम समेटने लगते हैं और छह बजे तक सडक़ें वीरान हो जाती हैं। हम लोग नौ तारीख की सुबह चलने के लिए तैयार थे किन्तु पिछली रात से बारिश होना शुरू हो गई थी और रुकने का नाम नहीं ले रही थी। लेकिन हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं थी। छाता मिल गया तो ठीक नहीं तो भीगते-भागते बसों और अपनी गाडिय़ों में बैठ गए।
मणिपुर के साथियों ने बताया कि इस समय यह बारिश असामान्य हैं, जब जाड़ा पडऩे लगता है तब यहां बारिश नहीं होती है। इस बात से यही निष्कर्ष निकाला कि बदलते मौसम के असर से कोई भी इलाका बच नहीं पा रहा है। इम्फाल शहर पार किए कुछ किलोमीटर ही हुए होंगे कि विष्णुपुर जिला प्रारंभ हो गया। यहां से ग्रामीण जीवन की छटा देखने मिली। पुरानी शैली के टीन की छत वाले मकान, अनेक घर मिट्टी के ही थे। साधन-सम्पन्न लोगों के घर अवश्य पक्के बने थे। इस रास्ते पर मोइरांग के पहले जिन गांवों से गुजरे उनमें सब जगह महिलाएं ही दुकानदारी करते दिखीं। हर गांव में पुलिस का भी ऐसा बंदोबस्त देखने मिला जो सामान्यत: हम अपने यहां नहीं देखते। प्राय: हरेक गांव में जलापूर्ति के लिए सरकार द्वारा निर्मित जलाशय देखने में आए। उन पर बाकायदा सूचनाफलक लगे थे कि गांव की जलप्रदाय व्यवस्था के लिए इन्हें बनाया गया है। मोइरांग पहुंचने के लगभग दस किलोमीटर पहले लोकटाक झील का एक सिरा दिखाई देने लगा था।
मोइरांग ऐतिहासिक स्थान है। इस गांव का नाम स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में होना चाहिए। 18 अप्रैल 1944 को यहां पर आ•ााद हिन्द फौज के मतवाले और बहादुर सैनिकों ने पहली बार भारत भूमि पर तिरंगा ध्वज फहराया था। बर्मा से पश्चिम की ओर बढ़ते हुए आ•ााद हिन्द फौज का दस्ता मोइरांग, फिर आगे नगालैंड के कोहिमा तक पहुंच गया था। जापान के नेतृत्व में आईएनए लड़ रही थी। नेताजी का सपना था कि इस सहयोग के द्वारा वे भारत को मुक्त करा सकेंगे। सो कुछ दिनों के लिए सही मोइरांग और उसके आगे-पीछे के इलाके में आ•ााद हिन्द फौज द्वारा मातृभूमि को आ•ााद कर लिया गया था। यह अलग बात है कि स्वतंत्रता मिलने का दिन अभी दूर था। आईएनए की इस मुहिम में देश के सभी भागों के सैनिक थे जो सिंगापुर और मलाया में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के आह्वान पर ब्रिटिश फौज छोडक़र चले आए थे।
मोइरांग की अस्त-व्यस्त नगरीय संरचना के बीच एक संकरी सडक़ पर आ•ााद हिन्द फौज का स्मारक बना है। इस जगह पहुंच कर हमारा हृदय रोमांचित हो उठा और आ•ाादी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले वीर सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए अपने आप माथा झुक गया। जिस जगह तिरंगा फहराया गया था वहां कॉटेजनुमा एक कक्ष बना हुआ है। इसके सामने एक अन्य स्मारक है। नेताजी ने सिंगापुर में 6 जुलाई 1945 को आईएनए के शहीदों के लिए एक स्मारक की बुनियाद रखी थी। श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद उस स्मारक की प्रतिकृति यहां स्थापित करने का निर्णय लिया, जिसकी आधारशिला तत्कालीन केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री के.के. शाह के द्वारा रखी गई और 23 सितंबर 1969 को इंदिराजी ने स्वयं यहां पहुंच कर इस शहीद स्तंभ का अनावरण कर उसे देश को समर्पित किया। हम सबने यहां अपने वीर शहीदों को फूल चढ़ाकर उन्हें सलामी दी।
मुझे यह बताना चाहिए कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और आ•ााद हिन्द फौज दोनों की स्मृति में यहां एक विस्तृत परिसर विकसित किया गया है जिसमें ध्वाजारोहण स्थल और शहीद स्तंभ तो हैं ही, उनके अलावा कुछ और भी है। यहां एक सुसज्जित प्रेक्षागृह और साथ में एक पुस्तकालय है। इसका नाम नेताजी लाइब्रेरी है। 1968 में आ•ााद हिन्द फौज की रजत जयंती के अवसर पर इंदिरा सरकार के एक अन्य वरिष्ठ मंत्री और जाने-माने विद्वान डॉ. त्रिगुण सेन ने 21 अक्टूबर को ही इस लाइब्रेरी का लोकार्पण किया था। यह नोट करने योग्य है कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आ•ााद हिन्द फौज तथा आ•ााद हिन्द की अस्थायी सरकार की रजत जयंती के अवसर पर अपने दो वरिष्ठ मंत्रियों को इस ऐतिहासिक स्थान पर भेजा और एक तरह देश की आ•ाादी की लड़ाई में नेताजी के अविस्मरणीय योगदान को न सिर्फ रेखांकित किया बल्कि देशवासियों को उसका पुनस्र्मरण कराया।
इस परिसर में आईएनए वार म्यू•िायम अर्थात आ•ााद हिन्द फौज युद्ध संग्रहालय भी अवस्थित है। संग्रहालय में नेताजी से संबंधित बहुत सारी सामग्रियों को प्रदर्शित किया गया है। उनके विभिन्न अवसरों पर लिए गए चित्र हैं, अखबारों की कतरनें हैं, आईएनए की यूनिफार्म और हथियार आदि हैं, उनके परिवार के सदस्यों के भी बहुत से चित्र हैं। एक चित्र नेताजी की इकलौती संतान अनिता बोस का भी है। वह चित्र भी है जिसमें नेताजी सैगॉन में विमान में चढ़ रहे हैं। यह उनके पार्थिव जीवन की आखिरी स्मृति है। बहुत से चित्र मणिपुर के उन नागरिकों के भी थे जो आ•ााद हिन्द फौज में शामिल हुए थे और बाद में अंग्रेज सरकार के कोपभाजन बने। ये सब सामान्यजन थे, फौजी नहीं लेकिन नेताजी के आह्वान पर देश को आ•ााद कराने की लड़ाई में कूद पड़े थे।
एक कक्ष में मणिपुर के पुराने राजा-महाराजाओं के चित्र थे। प्रदेश के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के भी। मेरी निगाह इस कक्ष में तीन चित्रों वाले एक पैनल पर अटक गई। ये तीनों मणिपुरी साहित्य के श्लाका पुरुष थे। महाकवि हिजाम अंगंगहाल, कवि चाओबा और कवि कमल। मणिपुरी साहित्य से मेरा परिचय लगभग शून्य है, लेकिन कवियों के चित्र देखकर प्रसन्नता हुई। संग्रहालय की सीढिय़ों से हम नीचे उतरे। नेताजी की आदमकद मूर्ति को एक बार फिर सलाम किया। बारिश थम नहीं रही थी और इस भावुक अनुभव के बावजूद हमारा उत्साह कायम था। हम अगले पड़ाव की ओर निकल पड़े। लोकटाक झील के दर्शन जिस बिन्दु से करने थे वह पन्द्रह मिनट की दूरी पर था। यहां दो फर्लांग के करीब ऊपर चढऩा था जहां से झील अपनी पूरी भव्यता के साथ दृष्टिगोचर होती है। मुझे लगा कि जिस सडक़ से हम जा रहे हैं उसे झील के एक हिस्से को पाटकर ही बनाया गया है। यद्यपि इस बारे में मुझे सही जानकारी नहीं है।
लोकटाक अपने तरह की एक अनूठी झील है। इसका विस्तार दो सौ वर्ग किलोमीटर या उससे कुछ अधिक है और जलग्रहण क्षेत्र उससे पांच गुना याने एक हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा है। यह पूर्वोत्तर भारत की संभवत: एकमात्र ताजे पानी की झील है और उसके बीच में बहुत सारे तैरते हुए द्वीप हैं। हम ऊपर जिस व्यू पाइंट पर थे वहां से झील तीन तरफ दिखाई दे रही थी और कुछ नन्हे द्वीप भी। इन द्वीपों पर अधिकतर मछुआरे रहते हैं और अपना जीवनयापन करते हैं। झील में खरपतवार बहुत है जिसकी बीच-बीच में सफाई चलते रहती है। हमें एक द्वीप और जाना था जहां मणिपुर का राज्य पशु संगाई पाया जाता है। यह हिरण की प्रजाति का पशु है। खराब मौसम के कारण स्टीमर चलना बंद थे अत: हम एक अनूठे अनुभव से वंचित रह गए। झील का विस्तार और उसका नीला जल आकर्षित करता है, किन्तु मुझे लगता है कि अगर ठीक से देखभाल नहीं की गई तो इसे नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
इस यात्रा वृत्तांत की अंतिम बात मणिपुर के व्यंजनों के बारे में। लोकटाक झील के नीचे ही हमारे स्वागत में मणिपुर की पारंपरिक रसोई की व्यवस्था की गई थी। थाली के आकार में गोल कटे केलों के पत्तों पर जिसमें एक बहुत तीखी मिलवां सब्जी थी। स्थानीय वनस्पतियों से बनी एक बारीक सी सलाद, सफेद भात, दाल और मटर के साथ काला भात और खीर, और न जाने क्या-क्या। हां! इस शाकाहारी भोजन में मछली भी थी जिसे मणिपुर और बंगाल में शाकाहारी ही माना जाता है।
आपको यह शीर्षक अटपटा लग रहा होगा। जानना चाहते होंगे कि अ से ब की यह तुक मैंने क्यों मिलाई है! यह रहस्य कुछ देर में खुलेगा। अभी इतना जान लीजिए कि निरन्तर चलती यात्राओं के क्रम में पिछले दिनों मैं एक दिन के लिए भुवनेश्वर हो आया। वह भी यात्रा के आखिरी दिन अर्थात 31 दिसम्बर 2017 को। सुबह पहुंचा और रात की रेल से रायपुर के लिए वापिस रवाना। कुल जमा चौदह घंटे का प्रवास। पिछले चालीस सालों में कई बार ओडिशा जाना हुआ है। उस समय से जब नक्शे पर उसका नाम उड़ीसा था। जब भी गया हूं, कुछ न कुछ नया देखने-समझने मिला है। 1977 में जब सुपर साईक्लोन आया, तब मैं सपरिवार पुरी में था। धुआंधार बारिश के बीच पुरी से भुवनेश्वर, चिलका, बरहामपुर, कोरापुट होते हुए रास्ते में दो रात बिताकर जगदलपुर किसी तरह पहुंच पाए थे। पहुंचते साथ अखबार का शीर्षक- उड़ीसा में साईक्लोन से सात हजार मृत- देखकर कलेजा कांप उठा था। रास्ते में दो रातें, पहली घने जंगल के बीच मोहाना के डाक बंगले में, दूसरी जैपुर-जगदलपुर के बीच हाईवे पर बोरीगुमा के रेस्ट हाउस में मूसलाधार वर्षा के बीच कैसे बीती थीं, याद कर आज भी रोमांच हो आता है।
बाद की लगभग सभी यात्राएं निरापद ही बीतीं। इस बार की ही तरह। रायपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्मों पर लगीं लिफ्टें काम कर रही है। इतने व्यस्त स्टेशन पर सिर्फ छह लोगों के लिए बनी लिफ्ट पर्याप्त नहीं है, लेकिन एक नई सुविधा तो जुट ही गई है। अब जब स्टेशन पर भारवाहक मिलना दुर्लभ हो गया है, तब इस सुविधा का महत्व समझ आता है। दुर्ग से चलने वाली ट्रेन रायपुर आते-आते दस मिनिट लेट हो गई और प्लेटफार्म भी बदलना पड़ा, लेकिन इन छोटी-मोटी तकलीफों के हम अभ्यस्त हो चुके हैं। दिक्कत तब हुई जब मालूम पड़ा कि प्रसाधन कक्ष में पानी नहीं है। मैंने रेल मंत्री को ट्विटर किया लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। वहां सिर्फ प्रायोजित ट्विटर का ही जवाब दिया जाता है, यह मैं अनुभव से जान चुका हूं। खैर, काटाभांजी स्टेशन पर पानी भर दिया गया। यह प्रसन्नता की बात थी कि डिब्बा नया नकोर था, साफ-सुथरा और कंबल, चादर, टावेल भी एकदम नए थे। कटक के पहले तक ट्रेन बिलकुल समय पर चल रही थी, लेकिन कटक-भुवनेश्वर की 20-25 किमी की दूरी तय करने में पैंतालीस मिनिट अतिरिक्त लग गए। भुवनेश्वर एक व्यस्त स्टेशन है, वहां प्लेटफॉर्म अक्सर खाली नहीं रहते और ट्रेनें इस वजह से लेट हो ही जाती हैं।
मैं भुवनेश्वर गया था एक साहित्यिक कार्यक्रम में भाग लेने। भुवनेश्वर साहित्य समाज नामक संस्था दिसंबर के अंतिम रविवार को अपना वार्षिकोत्सव मनाती है। संयोग से इस साल 31 दिसंबर को ही रविवार था। साल का आखिरी दिन, वह भी रविवार और फिर लगभग उसी समय ओडिशा साहित्य परिषद का एक वृहत् कार्यक्रम। संस्था के अध्यक्ष सुकवि सूर्य मिश्र से चर्चा करते हुए मन में आशंका हुई कि मुझे शायद लगभग खाली सभाकक्ष में ही अपना व्याख्यान देना होगा। किन्तु मेरी आशंका निर्मूल थी। सुबह साढ़़े दस बजे ओडिशा औद्योगिक विकास निगम का सुसज्जित सभाकक्ष तीन-चौथाई भर चुका था। दो सौ से अधिक की सभा में आधी नहीं तो एक तिहाई से •यादा महिलाओं की उपस्थिति प्रीतिकर थी। मेरे लिए अपने पुराने मित्रों कथाकार जापानी और कवि तरुण कानूगो से काफी समय के बाद भेंट होना भी प्रसन्नता का कारण था।
भुवनेश्वर साहित्य समाज के इस आयोजन में भाग लेना एक ता•ागीभरा अनुभव था। मैंने अपने वक्तव्य में कहा कि जब एक पूरा साल सुख-दुख, आशा-निराशा, क्षोभ-हताशा के बीच झूलते हुए बीत गया हो, तब कम से कम साल का अंतिम दिन समानधर्मा मित्रों के साथ बीतना आश्वस्त करता है कि नया साल पूर्वापेक्षा बेहतर गुजरेगा। इस कार्यक्रम की कुछ झलकियां पाठकों के लिए रुचिकर होंगी। भुवनेश्वर के रचनाकारों की यह संस्था मुख्यत: ओडिआ भाषी लेखकों की है, लेकिन इस बीच उसने ओडिआ रचनाओं के हिंदी अनुवाद की तीन पुस्तकें प्रकाशित की हैं। एक कहानी संकलन और दो कविता संग्रह। मुझे ‘तपती रेत पर हरसिंगार’ शीर्षक कविता संग्रह को लोकार्पित करने का सुखद सुयोग मिला। इसमें ओडिआ के सौ कवियों की एक-एक कविता संकलित है। ये सारी कविताएं आधुनिक भावबोध की हैं और संपादक राधू मिश्र ने इन्हें नई सदी की कविताएं निरूपित किया है। कविताओं को पढक़र ओडिआ साहित्य के प्रति मेरी समझ विकसित होने में सफलता मिली है, ऐसा कहूं तो अतिशयोक्ति न होगी। भुवनेश्वर साहित्य समाज ने इसी तरह अपने लेखकों की रचनाओं के तीन अंग्रे•ाी अनुवाद भी प्रकाशित किए हैं।
इसी आयोजन में मेरे सामने यह भी स्पष्ट हुआ कि ओडिआ में महिला रचनाकारों की एक समृद्ध परंपरा है। कार्यक्रम में जो देवियां उपस्थित थीं, उनमें से स्वाभाविकत: अधिकतर साहित्य-प्रेमी थीं, किंतु लेखिकाओं की संख्या कम नहीं थी। हिंदी में अनूदित कविता संग्रह में अनेक रूपांतर भी उनके ही किए हुए हैं। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि कार्यक्रम का मुख्य पर्व लगभग एक बजे समाप्त हो गया था। उसके बाद काव्य पाठ होना था। मंच पर पांच कवि विराजमान थे और वे बारी-बारी से मंच संचालन कर रहे थे। मैं कुछ देर ठहरकर लौट आया था। बाद में मालूम पड़ा कि कविता पाठ का सिलसिला शाम पांच बजे तक चलता रहा। करीब पचास कवियों ने अपनी कविताएं पढ़ीं। इससे पता चलता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। कोई बिरला ही होगा, जो मंच पर जाकर कविता सुनाने का लोभ संवरण कर पाता हो। फिर भी मैंने जितना उन कवियों को समझा उससे अनुमान लगाता हूं कि वहां कविता के नाम पर जोकराई नहीं हुई होगी, चुटकुले नहीं सुनाए गए होंगे।
भुवनेश्वर मुझे हमेशा से एक उनींदा नगर प्रतीत होते रहा है। जब पहली बार गया था तो दोपहर का भोजन नसीब नहीं हुआ था। सारे होटलों के दरवाजे बंद थे। वही हाल बा•ाार के। दोपहर एक से चार तक भुवनेश्वर विश्राम किया करता था। अब समय बदल गया है। रविवार को सामान्यत: बा•ाार बंद रहता है। इस बार शायद इकतीस दिसंबर के कारण खुला हुआ था और अच्छी-खासी चहल-पहल थी। पुरी-भुवनेश्वर पर्यटन के बड़े केंद्र हैं इसलिए रेलवे स्टेशन, होटल, रेस्तोरां सब में पर्यटकों की भी आवाजाही खूब थी। विदेशी सैलानी तो इक्का-दुक्का ही दिखे, किंतु देश के विभिन्न क्षेत्रों से आए पर्यटक रेलगाड़ी में भी थे और होटल में भी। यह कहना होगा कि ओडिशा ने पर्यटन व्यवसाय को गंभीरतापूर्वक बढ़ावा दिया है। भुवनेश्वर में हर श्रेणी के होटल और रेस्तोरां हैं, हस्तशिल्प और हाथकरघे की मार्केटिंग भी भली-भांति हो रही है।
अब बात इस लेख के शीर्षक की। भुवनेश्वर का तेजी के साथ कायाकल्प हो रहा है। एक नया शहर कटक की ओर बढ़ते जा रहा है। वर्षों पूर्व आईआरसी नगर (इंडियन रोड कांग्रेस) उस संस्था के अधिवेशन के नाम पर राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसाया गया था, वह शहर के बीच में आ गया है। उदयगिरि, खंडगिरि और नंदनकानन भी अब महानगर का हिस्सा बन चुके हैं, उधर पुरी की दिशा में धौली भी। कटक और भुवनेश्वर के बीच एक नया रेलवे स्टेशन बन रहा है- भुवनेश्वर न्यू स्टेशन। इस पर आठ या बारह प्लेटफॉर्म होंगे तथा आधी गाडिय़ां पुराने स्टेशन के बजाय यहां रुका करेंगी। पटिया नाम का एक छोटा सा गांव था, अब वहां पटिया पैसिंजर हॉल्ट स्टेशन बन गया है। भुवनेश्वर के पुराने स्टेशन पर लिफ्ट है, जिसमें बीस लोग सवार हो सकते हैं। वहां जुडिशरी, मीडिया और पे्रस का विशेष पार्किंग स्थल भी है। मंचेश्वर नामक एक और स्टेशन विस्तार ले रहा है। अब रहस्योद्घाटन। रायपुर से रवाना हुआ तो थोड़ी देर में आरंग स्टेशन आया। भुवनेश्वर पहुंचने को हुआ तो नगर सीमा पर बारंग स्टेशन पड़ा। हिंदी से ओडिआ। छत्तीसगढ़ से ओडिशा। ‘अ’ से ‘ब’ तक का सफर यूं पूरा हुआ। रायपुर पहुंचा तो चलित सीढ़ी याने एस्केलेटर से नीचे उतरा। यह एक अतिरिक्त सुविधा देखी। लेकिन कार पार्किंग की जो दुर्दशा देखी, उससे मन खिन्न हुआ। ऐसा लगा कि स्वच्छ भारत अभियान की सफलता के लिए स्वयं नरेन्द्र मोदी को रायपुर रेलवे स्टेशन आना पड़ेगा।
मैं इस यात्रा को अधूरा ही कहूंगा क्योंकि जो कुछ मन में था वह मैं नहीं देख पाया। हनोई विमानतल से आना-जाना हुआ, लेकिन मात्र पैंतालीस किलोमीटर दूर स्थित न तो हनोई शहर को देख सका और न वियतनाम के राष्ट्रपिता हो ची मिन्ह की समाधि पर जा सका। सुदूर दक्षिण में स्थित सैगोन जिसे अब हो ची मिन्ह सिटी कहा जाता है को देखने का तो सवाल ही नहीं था। मैं यद्यपि मध्यपूर्व में स्थित क्वांग त्री प्रांत तक गया था, लेकिन देश के ऐन मध्य में स्थित चाम प्रांत की यात्रा करने का सुयोग नहीं जुटा पाया। इस चाम प्रांत को ही सुदूर अतीत में हम भारतीय चंपा देश के नाम से जानते थे और यहां दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी का बना शिव मंदिर भारत और वियतनाम के सदियों पुराने सांस्कृतिक संबंधों की गवाही देता खड़ा है। बहरहाल जो कुछ देखा अच्छा ही देखा और ढेर सारी अच्छी स्मृतियां लेकर ही मैं वहां से लौटा। वियतनाम जाने का मन तो न जाने कब से था इसलिए जितना देख लिया उसमें ही संतोष करना ठीक है।
नवमी-दसवीं क्लास में पढ़ते समय लाओस, कम्बोडिया, वियतनाम और इनके साथ विएन तिएन, लुआंग प्रवांग, नाम पेन्ह, हनोई जैसे नगरों के नाम बार-बार सुनने में आते थे। सुश्री कमला रत्नम आदि के इन देशों पर लिखे गए लेख उस समय की पत्रिकाओं में पढऩे मिलते थे। कई बरस बाद 1994 में ताइवान जाते समय बैंकाक हवाई अड्डे पर कुछ देर रुका तो इन तमाम शहरों को जाने वाली फ्लाइट की सूचनाएं सुनने-देखने मिल रही थीं, तब कुछ पल के लिए मन बच्चों जैसा मचल गया था कि ताइवान छोडक़र इन्हीं देशों की तरफ निकल जाऊं। अपने मन से उडऩे की आ•ाादी पक्षियों को है, कछुए और मछलियां भी सीमाओं की परवाह कहां करती हैं, लेकिन मनुष्य को तो पासपोर्ट और वी•ाा की औपचारिकताएं पूरी करना पड़ती हैं। ये प्रथम विश्वयुद्ध की मनुष्यता को सौगात हैं। इसके पहले पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। अब तो उसमें भी कितने सारे नए-नए प्रतिबंध लग गए हैं। आधार कार्ड की तरह बायोमीट्रिक पहचान अनिवार्य हो गई है।
मुझे 19 मई की दोपहर दक्षिण चीन सागर के तट पर बसे क्वांग त्री नगर पहुंच जाना था, लेकिन हनोई पहुंचने वाली फ्लाइट में विलंब हुआ, आगे की फ्लाइट चूक गई और करीब पांच घंटे विमानतल पर ही काटना पड़े। खैर! 19 मई की शाम आठ बजे के करीब मैं हनोई से व्हे विमानतल पर उतरा। व्हे वियतनाम की पुरानी राजधानी रही है। यहां से क्वांग त्री का लगभग अस्सी किलोमीटर का सफर सडक़ मार्ग से तय करना था। रात हो गई थी, लेकिन रास्ते के गांवों में चहल-पहल थी। यह दिख रहा था कि अधिकतर घर एकमंजिले थे; खपरैल या टीन की छत वाले, दोमंजिले, तिमंजिले मकान बहुत कम देखने में आए। हमारा कुछ सफर हनोई से हो ची मिन्ह सिटी जाने वाले एशियन हाईवे एक पर हुआ, और करीब आधा सफर ग्रामीण रास्ते पर। हाईवे भी कहीं-कहीं ही फोरलेन था, लेकिन सडक़ पर यातायात रात को भी काफी था। रास्ते में जगह-जगह एक के बाद एक ढाबे खुले हुए थे जिनसे अनुमान हुआ कि स्थानीय लोग बड़ी संख्या में यहां आकर खाना पसंद करते हैं।
क्वांग त्री में शहर से दूर समुद्र तट पर स्थित अपने होटल तक पहुंचने के लिए हम जिस सडक़ से गुजरे वहां एक जगह यह देखकर प्रसन्नता हुई कि सडक़ पर गायें निद्र्वंद्व विचरण कर रही थीं। भारत-वियतनाम की दोस्ती का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता था! मैं एक क्षण में मानो रायपुर वापिस पहुंच गया था। यह नजारा हमें एकाध जगह और देखने मिला, लेकिन इसे अपवाद ही मानना चाहिए और इस आधार पर वियतनाम के बारे में कोई राय बनाएंगे तो गलती करेंगे। सडक़ यात्रा में मैंने पाया कि गाडिय़ों के हार्न यदा-कदा ही बजते हैं, वे भी अधिकतर लंबी दूरी के बसों के ड्रायवर बजाते हैं। दूसरे, वियतनामी लोग जितने विनम्र हैं उतने ही परिश्रमी भी हैं। वे आपको कोई वस्तु देंगे या लेंगे तो दोनों हाथ से। यह शिष्टाचार मैंने अब तक सिर्फ जापान में देखा था।
आप होटल में जाएं, रेस्तरां में या बाजार में किसी दूकान पर, कदम-कदम पर इस विनम्रता का अनुभव करेंगे। स्त्री हो पुरुष, मेहनत करने में वे लाजवाब हैं। हम जिस होटल में ठहरे थे वहां स्वागत कक्ष याने रिसेप्शन पर जो लडक़ी बैठी थी वही कक्ष में और कक्ष के बाहर झाड़ू लगा रही थी। उनकी गिफ्ट शॉप मैं देखना चाहता था तो उसी लडक़ी ने आकर दूकान खोली और मुझे सामान दिखाया। इसी तरह आपने किसी को भी कोई काम कहा तो इंकार सुनने नहीं मिला। उनकी कार्यदक्षता का उदाहरण मैंने देखा जब 22 तारीख को हमारी कार्यशाला समाप्त होने के बाद आधा घंटे के भीतर पूरे हाल की सफाई हो गई जैसे किसी ने जादू की छड़ी चला दी हो। हां, होटल में, शहर में या एयरपोर्ट में घूमते हुए एक बड़ी अड़चन पेश आई कि उनका अंग्रेजी ज्ञान नहीं के बराबर है। गनीमत है कि वे वाटर कहने से पानी समझ लेते हैं, बाकी तो इशारों में बात समझानी पड़ती है।
वियतनाम में मुख्य तौर पर धान की ही खेती होती है। हमारी तरह वहां भी हार्वेस्टर चलन में आ गए हैं। इस वजह से अब वहां धान के बच गए ठूंठों या नरई को आग जलाकर खत्म करते हैं। उत्तर भारत में इस क्रिया को पराली के नाम से जानते हैं। खेतों में आग लगाने के कारण धुआं फैलता है और आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। वियतनाम में चिंता व्याप्त है कि इस प्रदूषण को कैसे रोका जाए। कुछ लोगों का मानना है कि जलाने से जो राख बनती है वह उत्तम खाद का काम करती है। एक और विशेषता पर मेरा ध्यान गया। लगभग हर घर में आंगन में या दो-तीन मंजिल का घर हुआ तो ऊपर एक छोटे से मंदिर का निर्माण अवश्य हुआ है। अधिकतर वियतनामी बौद्ध हैं। इस मंदिर में भगवान बुद्ध के साथ-साथ पुरखों की भी पूजा होती है, ऐसा मुझे बताया गया।
इधर घरों में छोटे-छोटे मंदिर हैं, तो उधर खेतों में समाधियां बनी हैं। कोई खेत ऐसा नहीं जिसमें कि एक-दो समाधियां न हों। इन समाधियों को काफी अच्छे से अलंकृत किया गया है। कई जगह पर समाधियों के आगे तोरणद्वार भी देखने में आए। यह दृश्य ग्रामीण क्षेत्र का है, लेकिन नगरीय क्षेत्र में ऐसा करना संभव नहीं है तो अब वहां खुली जगहों पर कब्रिस्तान बन गए हैं। जिनकी जतन के साथ देखभाल की जाती है। क्वांग त्री वियतनाम का शायद सबसे गरीब प्रांत है। वहां मुझे कोई बड़े कारखाने आदि न•ार नहीं आए। हां, होटलों और ढाबों के साथ मोबाइल की दूकानें बड़ी संख्या में न•ार आती हैं और इसके अलावा स्कूटर-बाइक रिपेयर की दूकानें। देश की मेहनतकश औरतें और आदमी सुबह चार बजे से अपनी-अपनी स्कूटी पर ढेर सारा सामान लाद कर पास के बाजार के लिए निकल पड़ते हैं।
यह दिलचस्प बात है कि अधिकतर वियतनामी अंग्रेजी भाषा नहीं जानते लेकिन उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है और वे रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं। कहते हैं कि कोई डेढ़ सौ साल पहले तक वहां मंदारिन या चीनी लिपि का प्रयोग होता था जब वियतनाम पर फ्रांस का कब्जा था। तब कभी एक फ्रेंच सैन्य अधिकारी ने वियतनामी भाषा के लिए रोमन लिपि को कुछ सुधारों के साथ लागू किया और अब वही उनकी अपनी लिपि बन गई है। इसमें वियतनामी भाषा के विशिष्ट उच्चारणों के लिए लिपि में संशोधन किए गए हैं जिसे जानकार ही समझ सकते हैं। जैसे ‘डी’ का उच्चारण कब ‘द’ होगा और कब ‘झ’ इसे समझना हमारे लिए कठिन है। दूसरे भाषा और लिपि भले एक हो, लेकिन स्थान परिवर्तन के साथ उच्चारण परिवर्तन भी हो जाता है। मध्य और दक्षिण में जिसे क्वांग त्री कहते हैं उत्तर में वह क्वांग ची बन जाता है। (क्रमश:)
वियतनाम के पूर्व में स्थित क्वांग त्री से पश्चिम में पड़ोसी देश लाओस की सीमा तक राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक-9 जाता है। इस रास्ते पर क्वांग त्री शहर से कुछ दूरी पर ही एक राष्ट्रीय समाधि स्थल बना हुआ है। एक छोटी सी पहाड़ी पर अवस्थित इस स्थान में दूर से देखने पर कुछ असाधारण प्रतीत नहीं होता, लेकिन यह वियतनाम के मुक्ति संघर्ष का एक महत्वपूर्ण स्थल है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते साथ दाहिनी ओर एक कलात्मक छतरी बनी है। इसके ठीक पीछे एक विशालकाय प्रस्तर प्रतिमा है। एक युवा सिपाही, साथ में उसकी पत्नी और गोद में एक बालक। छतरी के दोनों ओर भी कुछ छोटी प्रतिमाएं लगी हैं। छतरी के नीचे एक मंजूषा है जिसमें वहां पहुंचने वाले अगरबत्ती लगाकर प्रार्थना करते हैं। यहां से कुछ सीढिय़ां ऊपर चढऩे के बाद दूर-दूर तक सिर्फ समाधियां ही दिखाई देती हैं। इस स्थान पर दस हजार से अधिक सैनिकों की समाधियां बनी हुई हैं जिनकी बहुत जतन के साथ देखभाल होती है।
अनेक समाधियों में सैनिक का पूरा परिचय उत्कीर्ण है। उसका फोटो भी लगा हुआ है और हर समाधि पर कमल का एक कृत्रिम फूल अवश्य चढ़ाया हुआ है। एक जगह एक बड़ी सी समाधि बनी है जिसके पास सूचनापटल में एक सौ तीस सैनिकों के नाम लिखे हैं। उनके क्षत-विक्षत अंग अलग से पहचान में नहीं आ सके इसलिए सामूहिक समाधि बनाई है। अकेले क्वांग त्री प्रांत में ऐसे सत्ताइस समाधि स्थल हैं। समूचे देश में तो इनकी संख्या अनगिनत हैं। यह एक राष्ट्रीय समाधि स्थल है और अन्य प्रांतों में भी ऐसे बड़े-छोटे स्थान हैं जहां बड़ी संख्या में सैनिक चिरशांति में सो रहे हैं। इस स्थान पर पहुंच कर मुझे हिरोशिमा और नागासाकी की याद आई जहां अमेरिकी सेनाओं ने अब तक के इतिहास में पहली बार एटम बम डालकर दो लाख लोगों को मार डाला था। क्वांग त्री के समाधि स्थल पर चिरनिद्रा में सोए सैनिक भी तो अमेरिका की उसी साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति का शिकार बने।
मुझे साथ-साथ यह भी ध्यान आया कि अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में भी एक वियतनाम युद्ध स्मारक है जहां इसी हड़प नीति के चलते हजारों अमेरिकी सैनिकों को सुदूर वियतनाम में जाकर अपने प्राण गंवाना पड़े। आज भी वाशिंगटन डीसी के इस वार मेमोरियल पर मृत सैनिकों के जन्मदिन या मृत्युतिथि पर उनके परिजन आते हैं, अगरबत्ती जलाते हैं, फूल चढ़ाते हैं और शिला पर उत्कीर्ण नाम पर उंगलियां फिराते हुए नि:शब्द रोते हैं। याद करना चाहिए कि वियतनाम युद्ध के दिनों में जो भी युवक सेना में भर्ती होने से इंकार करता था उसे जेल भेज दिया जाता था। उसे देशद्रोही माना जाता था। अमेरिका के युद्धपरस्त शासकों ने उन मानवीय मूल्यों की भी कभी परवाह नहीं की जिनका उद्घोष अमेरिकी स्वतंत्रता घोषणापत्र में किया गया है। मैं क्वांग त्री के राष्ट्रीय स्मारक में मृत सैनिकों की समाधि पर आए शोकाकुल परिजनों को देख रहा था और सोच रहा था कि युद्ध की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
एक समय क्वांग त्री शहर में इसी नाम के प्रदेश की राजधानी होती थी। आज से दो सौ साल पहले वहां एक भव्य किले का निर्माण किया गया था। हम इस किले को भी देखने गए। उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम के बीच यह प्रांत अमेरिका के कब्जे वाली दक्षिणी ताकत के पास था। 1972 में उत्तर वियतनाम की मुक्ति सेना ने जबरदस्त लड़ाई के बाद इसे मुक्त करा लिया था लेकिन छह माह के भीतर ही अमेरिकी फौजों ने क्वांग त्री पर फिर से आक्रमण किया और भयानक बमबारी कर पूरे शहर को श्मशान में बदल दिया। क्वांग त्री का किला भी नष्ट हो गया। अब वहां पुराने समय की याद दिलाती हैं किले की परिधि की खंदक और एक पुराना सिंहद्वार। किले के विशाल परिसर में हरियाली के बीच एक स्मारक है जहां लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं। यहां मैंने एक आकर्षक मूर्ति देखी।
एक घने वृक्ष की छाया में स्थापित यह प्रतिमा एक बैठे हुए सैनिक की है। वह आराम की मुद्रा में है। उसकी बंदूक कंधे पर न होकर गोद में है। उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान है। शिल्पी ने इसे बनाने में अद्भुत कल्पनाशीलता का परिचय दिया है। शांत मुद्रा में बैठा हुआ सैनिक मानों कह रहा हो, कि मैंने अपना काम कर दिया है, मैं भी अब कुछ पल के लिए विश्राम करना चाहता हूं। तुम इतनी दूर मुझे ढूंढते हुए आए, इसके लिए धन्यवाद। वियतनाम की जनता भी मानो इस सैनिक की भावना को अच्छे से समझ रही है। युद्ध समाप्त हुआ। अब देश का नवनिर्माण करना है। किले से निकलकर हम थोड़ी दूर पर स्थित नदी तट पर गए। वहां एक पक्का घाट बना हुआ है। घाट पर एक छोटा सा बौद्ध मंदिर है। वहां से नीचे सीढिय़ां उतरकर हमने मोम के दिए जलाए और उन्हें धीरे से नदी में प्रवाहित कर दिया। नदी में दीप प्रवाहित करने की यह मनोहारी परंपरा मुझे भारत से लेकर जापान तक हर जगह दिखी। फर्क सिर्फ इतना मिला कि हिरोशिमा और क्वांग त्री की नदियां स्वच्छ थीं, भारत की नदियों की तरह प्रदूषित नहीं।
वियतनाम और भारत के बीच परंपरा में ही नहीं, प्रकृति में भी काफी कुछ समानताएं ढूंढी जा सकती हैं। बरगद और पीपल- ये दो वृक्ष वहां बहुतायात में हैं। क्वांग त्री के राष्ट्रीय समाधि स्थल पर चार का पेड़ भी लगा हुआ था जिससे चिरौंजी निकलती है। हम जहां रुके थे वहां चारों तरफ अमलतास और गुलमोहर के पेड़ों पर बहार आई हुई थी। वियतनाम में आम भी खूब फलता है। लेकिन वे उसे पूरा पक जाने के बजाय खटमिठ्ठा खाना पसंद करते हैं, वह भी नमक व लाल मिर्च लगाकर। हां, खानपान में जरूर भारतीयों को दिक्कत हो सकती है। वियतनाम का मुख्य भोजन चावल है और साथ में शोरबा जिसमें हर तरह का मांस और अनेक सब्जियां होती हैं। गेहूं के आटे के बजाय वे मैदे के बने नूडल्स खाते हैं। मुझे अपना काम ब्रेड से ही चलाना पड़ा। जिसे वे शाकाहारी सूप कहते हैं उसमें भी क्या है, जानना-समझना मुश्किल होता है।
मैं जिस उद्देश्य से वियतनाम गया था, उसकी विस्तारपूर्वक चर्चा अगली किश्त में करूंगा। अभी एक रोचक जानकारी पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। मुझे क्वांग त्री में लाओस के एक पुराने शांति कार्यकर्ता और पत्रकार मित्र श्री मिसाई मिले। उनके दाहिने हाथ में मौली जैसा कुछ बंधा हुआ था। इस बिन्दु पर बातचीत चल पड़ी तो उन्होंने बताया कि वियतनाम में जहां बौद्ध धर्म का प्रभाव है वहीं लाओस में ब्राह्मणवाद का; और एक तरह से उनके देश में बौद्ध और ब्राह्मण दोनों परंपराओं के बीच तालमेल बैठा दिया गया है। उनके गले में लॉकेट था। उसमें एक तरफ भगवान बुद्ध थे और दूसरी तरफ किसी अन्य देवता की छवि। मालूम पड़ा कि कोई शुभ कार्य होने पर बौद्ध पुजारी आता है और वैदिक परंपरा से अनुष्ठान कराता है। यह मौली भी उसी की देन है। एक दिलचस्प जानकारी उन्होंने और दी कि चंपा लाओस देश का राष्ट्रीय पुष्प है। भारत का पूर्वी एशिया के साथ कितने स्तरों पर सांस्कृतिक विनिमय हुआ है इस बारे में अभी हमें बहुत कुछ जानना बाकी है।
वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया इन तीनों की एक विशेषता है। इन्हें मिलाकर बनने वाले क्षेत्र को हिन्दचीन कहा जाता है। चीन तो खैर इनका निकटतम पड़ोसी है। भारत भी बहुत दूर नहीं है। इन दोनों बड़े देशों की संस्कृतियों का हिन्दचीन पर कहीं कम, कहीं ज्यादा प्रभाव पड़ा है। इन तीन देशों ने एक देश की नहीं, बल्कि दोहरी गुलामी झेली है। पहले फ्रांस और फिर अमेरिका की। इन्होंने अमेरिका से लंबी लड़ाई लड़ी, स्वतंत्रता हासिल की। इसमें सबसे घना, सबसे लंबा और सबसे भीषण संघर्ष वियतनाम में हुआ। साम्राज्यवादी ताकतों ने देश को दो हिस्सों में बांट दिया। स्वतंत्रता और एकीकरण के लिए वियतनाम की जनता ने बहुत दिलेरी के साथ लड़ाई लड़ी और अंतत: विजय हासिल की। आज भी वियतनाम एक शांतिप्रिय विकासशील देश के रूप में आगे बढ़ रहा है और चाहता है कि दुनिया में अब कहीं भी युद्ध की नौबत नहीं आना चाहिए।
बड़चिचोली। नागपुर से भोपाल राष्ट्रीय राजमार्ग कं्र. 47 पर विदर्भ की सीमा पार करते साथ म.प्र. के छिंदवाड़ा जिले का एक छोटा सा गांव। कुछ दिन पहले इस रास्ते से गुजरना हुआ तो जाते वक्त तो बाईपास से ही आगे बढ़ गए, लेकिन लौटते समय तय कर लिया कि गांव में जाना ही है। इसलिए कि वह वटवृक्ष एक बार फिर देखना था, जिसे देखे करीब पच्चीस साल बीत चुके थे। इसमें शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि समूचे मध्यवर्ती भारत में इससे वृहदाकार बरगद का पेड़ कोई दूसरा नहीं है। जब पिछली बार देखा था, तब वृक्ष का विस्तार एक वर्ग किमी से अधिक क्षेत्र में था, जो इन बीस-पच्चीस सालों मे और आगे बढक़र संभवत् डेढ़ वर्ग किमी तक फैल गया है। इस विशाल वृक्ष में अब लगभग सात सौ तने हैं- तने याने ऊपर से नीचे आकर धरती में समाने वाली जड़ें। मेरी जानकारी में कोलकाता के शिवपुर वानस्पतिक उद्यान, चैन्नई के अड्यार और शायद आंध्रप्रदेश में किसी स्थान पर अवस्थित वटवृक्ष हमारे देश के प्रमुख और महाकाय वटवृक्ष हैं। बड़चिचोली की गिनती किस क्रम पर होगी, यह तो वनस्पति-विज्ञान के पंडित ही जानते होंगे, लेकिन यदि इस स्तंभ के पाठकों के पास इस संदर्भ में कोई जानकारी हो तो साझा करने की कृपा करें।
ााहिर है कि विदर्भ-महाकौशल के सीमांत पर बसे इस गांव का नाम ही अपने वटवृक्ष के कारण बड़चिचोली पड़ा है, लेकिन अपनी इस प्राकृतिक विरासत को सहेजने में म.प्र. सरकार ने कोई विशेष ध्यान दिया हो, ऐसा नहीं लगता। ध्यान आता है कि बाराबंकी (उ.प्र.) के लोकसभा सदस्य बेनीप्रसाद वर्मा केंद्रीय संचार मंत्री बने तो उन्होंने अपने क्षेत्र में स्थित अनूठे ‘‘कल्पवृक्ष’’ पर डाक टिकिट जारी करवा दिया था। देखें कि मुख्यमंत्री कमलनाथ का ध्यान अपने गृहक्षेत्र की इस अनूठी धरोहर पर कब जाता है! इसी परिसर में एक बावली भी है जो शायद दो सौ साल पुरानी होगी। बड़चिचोली के बरगद की एक और खासियत है जो आज के दौर में खासे मायने रखती है। यहां एक सूफी संत की म•ाार है, जिस पर हर साल उर्स भरता है। उस म•ाार के बाजू में ही हनुमानजी का मंदिर भी है। इस म•ाार व उर्स के संरक्षक व सहयोगी आसपास के गांवों के सभी धर्मों व वर्गों के नागरिक हैं। उसमें कोई भेदभाव नहीं है। पहले म•ाार छोटे रूप में थी, उत्साही भक्तों के सहयोग से अब उसका विस्तार हो रहा है। इससे वटवृक्ष के प्राकृतिक सौंदर्य पर असर पड़ रहा है, लेकिन यह भक्तिभाव कहां नहीं है? रायपुर के निकट चंपारन में महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली में कभी जो नैसर्गिक वन होता था, उसकी शोभा कांक्रीट के बढ़ते जंगल के कारण नितदिन नष्ट हो रही है। अस्तु,
बड़चिचोली हमारी उस यात्रा का एक संक्षिप्त पड़ाव मात्र था, जिस पर हम जून और जेठ माह की तपती दोपहरों में निकल पड़े थे। हमारा गंतव्य था- नर्मदांचल का नगर हरदा जहां कवि मित्र प्रेमशंकर रघुवंशी की स्मृति में आयोजित एक समारोह में भाग लेना था। पहले कभी नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा को मिलाकर एक ही जिला हुआ करता था- होशंगाबाद। कालांतर में विभाजन होकर नरसिंहपुर व हरदा भी पृथक जिले बन गए। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक परिदृश्य में इस अंचल का सदैव से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। माखनलाल चतुर्वेदी, भवानी प्रसाद मिश्र, मायाराम सुरजन, हरिशंकर परसाई जैसे कलम के धनी और कलम के सिपाही मूलत: यहीं के थे। इसी कड़ी में प्रेमशंकर रघुवंशी का नाम भी जुड़ता है। भाई रघुवंशी के साथ दशकों पुरानी मित्रता थी। हमने मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन में बरसों साथ-साथ काम किया। उन्हें मैंने सन् 1961-62 में सबसे पहले एक समर्थ गीतकार के रूप में जाना था। रचनाकार के इस रूप से मैं हमेशा प्रभावित रहा। 1995 में हमने इसीलिए देशबन्धु के अवकाश अंक में लगातार एक साल तक ‘गीत वर्ष’ शीर्षक से साप्ताहिक स्तंभ के अंतर्गत उनके गीत छापे। उनकी लंबी कविता ‘‘देखो सांप: तक्षक नाग’’ अपने कथ्य और बुनावट में एक अद्भुत कविता है, जिसमें समसामयिक जीवन की बहुविध विसंगतियों को पुरजोर ढंग से उजागर किया गया है।
श्रीमती विनीता रघुवंशी ने जब फोन पर आदेश दिया कि मुझे 8 जून को प्रेमशंकर रघुवंशी फाउंडेशन के उद्घाटन अवसर पर उपस्थित होना ही है तो मैं मना नहीं कर सका। इससे मेरा ही लाभ हुआ। हरदा में कुछ पुराने, लेकिन अधिकतर नए रचनाशील साथियों से परिचय हुआ। इस भीषण गर्मी में आयोजन करना अपने आप में हिम्मत का काम था, लेकिन विनीताजी और उनकी टीम ने जिस सुंदर-सुचारू ढंग से कार्यक्रम किया, उसकी प्रशंसा ही की जा सकती है। भाई रघुवंशी पर एक लघु वृत्तचित्र का प्रदर्शन, लेखक बंधु कैलाश मंडलेकर का प्रभावशाली व्याख्यान, इप्टा इकाई द्वारा ‘‘देखो सांप: तक्षक नाग’’ की नाट्य प्रस्तुति और नवोदित प्रतिभाओं की कलात्मक अभिव्यक्तियां- इन सबने सभा में उपस्थित सभी जनों को पूरे समय तक बांधे रखा। उल्लेखनीय था कि कार्यक्रम 44-45 डिग्री तापमान में गैर ए.सी. हॉल में हो रहा था, लेकिन श्रोता-दर्शक उससे निर्लिप्त थे। आयोजन में महिलाओं की बढ़-चढक़र भागीदारी भी सुखद और कल्पनातीत थी।
यह हमारी मजबूरी थी कि हमें यात्रा दिन में ही करना थी। आजकल सूरज डूबने के बाद सडक़ मार्ग से यात्रा करने में बेचैनी होने लगती है। इसलिए रायपुर से हरदा और फिर बालाघाट-गोंदिया होते हुए वापसी में हमने पूरे पांच दिन तपती धूप में सफर करते हुए ही गुजारे। दिन-दिन की यात्रा का एक लाभ यह हुआ कि सतपुड़ा और नर्मदा अंचल की निरंतर बदलती हुई दृश्यावली को थोड़ा-बहुत देखने का अवसर मिल गया। एक परिवर्तन जो विशेष कर नोट करने लायक है कि कहीं फोरलेन, कहीं सिक्सलेन, कहीं बाईपास के निर्माण के चलते रास्ते के गांव-कस्बे-शहर एक किनारे छूट जाते हैं। रायपुर से नागपुर जाते हुए भिलाई शहर के बीच से गुजरना पड़ता है, लेकिन दुर्ग किनारे रह जाता है, राजनांदगांव में फ्लाईओवर से देखते न देखते शहर पीछे छूट जाता है। नागपुर से हरदा के बीच सावनेर, पांढुर्णा, मुलताई, बैतूल- सब पर बाईपास, सडक़ किनारे वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के रूप में सामने आया है। पूरे रास्ते कहीं छाँह नहीं मिलती। दूसरे- यदि कहीं अल्प विश्राम के लिए रुकना चाहें तो कहां रुकें? इन नगरों के स्थानीय विशिष्ट व्यंजन भी अब चखने नहीं मिलते। तीसरे- टोल नाकों पर अच्छी-खासी रकम चुकाना पड़ती है। नियमों के अनुसार टोल नाकों पर यात्री सुविधाएं होना चाहिए, लेकिन ठेकेदारों की कोई रुचि उनके रख-रखाव में नहीं है।
बहरहाल, हरदा जाते समय हमने सोचा कि फोरलेन छोडक़र बैतूल के पहले बैतूलबा•ाार में निर्मित बालाजीपुरम में रुककर चाय पी लेंगे। एनआरआई उद्योगपति सैम वर्मा ने लगभग चालीस साल पहले बालाजी का एक छोटा सा मंदिर बनवाया था। अभी उसका भव्य रूप देखकर आश्चर्य हुआ। वहां तो सडक़ के दोनों किनारे बाकायदा एक बा•ाार सज गया है। अतिथिशाला और बैंक की शाखाएं भी हैं। एक जगह सूचनापटल था- देश का पांचवा धाम। धर्मप्राण जनता को इसी सब में मानसिक शांति और संतोष मिलता है। लौटते समय हम इसी तरह राजमार्ग छोड़ ताप्ती नदी का उद्गम देखने मुलताई नगर में घुसे। मैंने लगभग पच्चीस वर्ष बाद ही ताप्ती कुंड के दर्शन किए। ध्यान आया कि पहले सडक़ किनारे दूकानें थीं, जिनकी ओट में कुंड छुप जाता था, लेकिन वे शायद हटा दी गई हैं? छुटपुट ठेले, गुमटियां अवश्य थीं। ताप्ती कुंड में इस गर्मी में भी भरपूर पानी था, जिसे देखकर नेत्र और मन दोनों तृप्त हुए। स्मरणीय है कि मध्यप्रदेश की दो प्रमुख नदियों नर्मदा और ताप्ती पूर्व से पश्चिम की ओर बहते हुए गुजरात में अरब सागर में विलीन होती हैं। जबकि देश की अन्य प्रमुख नदियां पूर्व की ओर बहते हुए बंगाल की खाड़ी में विलीन होती हैं। ताप्ती कुंड का जल स्वच्छ था, उसमें बदकें तैर रही थीं, नौका विहार भी चल रहा था, कुल मिलाकर एक आह्लादकारी दृश्य था।
एक समय ‘‘चांदनी रात में नौका विहार’’ पर कविताएं लिखी जाती थीं, हमने तपती धूप में सडक़ का सफर किया। स्वाभाविक ही कुछ कष्ट उठाए, लेकिन समग्रता में आनंददायक अनुभव पाया।
व्यस्त सडक़ पर इस चौराहे से उस चौराहे तक दो-तीन बार चक्कर लगा लिए, लेकिन उस होटल को कोई अता-पता ही नहीं था, जिसमें हमने पहले से आरक्षण करवा रखा था। तभी निकट के एक पेट्रोल पंप के अहाते में जनरल स्टोर्स देखकर आश्वस्ति मिली कि यहां जरूर मालूम पड़ जाएगा कि होटल कहां है। एक युवा सेल्समैन, या शायद स्टोर्स का मालिक ही रहा हो, मिला। पहले तो उससे पूछा- डू यू स्पीक इंग्लिश? क्या आप अंग्रे•ाी जानते हैं। हां, थोड़ी-बहुत। कृपया बताएंगे कि यह होटल कहां हैं। बहुत देर से ढूंढ रहे हैं। नहीं, मुझे नहीं मालूम। मैं सिर्फ अपने काम से काम रखता हूं। इतने में स्टोर्स की बड़ी सी खिडक़ी से मुझे पीछे होटल का साइनबोर्ड दिखा। अरे भाई! होटल तो आपके स्टोर्स के पीछे वाली लेन में ही है। उसने कंधे उचका कर उदासीन भाव से कहा- होगा। मुझे क्या मतलब। उसे धन्यवाद कहकर बाहर आया। ठीक बाजू से पतली सडक़ जा रही थी। हमें अपना ठिकाना मिल गया। देश-विदेश की अनगिन यात्राओं में अनेक चित्र-विचित्र अनुभव हुए हैं। यह अनुभव सबसे अनोखा था जो जर्मनी के फ्राइबर्ग नामक कस्बानुमा शहर में सन् 1999 की जुलाई में हमें हुआ।
मुझे दरअसल, जर्मनी के गॉटिनजेन शहर में एक प्रोजेक्ट कमेटी की बैठक में भाग लेने आना था। एक साल पहले इंग्लैंड की डाक्युमेंटरी निर्माता मित्र मार्गरेट डिकिन्सन ने ‘‘यूरोपीय संघ-भारत सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रम’’ के अंतर्गत एक परियोजना हाथ में ली थी। इसका उद्देश्य छत्तीसगढ़ में वंचित समुदायों के युवाओं को वृत्तचित्र निर्माण के माध्यम से सामाजिक सरोकारों का दस्तावेजीकरण करने का प्रशिक्षण देना था। ‘‘जनदर्शन’’ नाम से परिचित इस प्रोजेक्ट में इंग्लैंड की दो व जर्मनी की एक संस्था के साथ भारत में देशबन्धु की भागीदारी थी। गॉटिनजेन में जर्मन संस्था का मुख्यालय था। यह संस्था जर्मन भाषा में शैक्षणिक फिल्में बनाने के लिए प्रतिष्ठित थी। मैं और मेरी पत्नी माया मास्को में बेटियों के पास कुछ दिन बिताने के बाद जर्मनी के लिए निकल पड़े थे। इतनी दूर जा रहे हैं तो थोड़ा देशाटन भी हो जाए, यह इच्छा स्वाभाविक थी। मैं सामान्यत: किसी यात्रा के लौटने के बाद उसके वृत्तांत लिखता हूं, लेकिन दो-चार अपवाद भी हुए हैं, जिनमें जर्मनी यात्रा की यह कहानी भी शामिल है।
मॉस्को से हम एयरोफ्लोट से फ्रैंकफर्ट उतरे थे। एयरलाइंस का नामोल्लेख इसलिए किया कि आम धारणा के विरुद्ध रूसी विमान सेवा में हमें कोई शिकायत पेश नहीं आई। फ्रैंकफर्ट से गॉटिनजेन के लिए रेल पकडऩा थी। सामान लेकर बाहर निकले तो सूचनापट पर दृष्टि गई। रेलवे स्टेशन तो यहीं नीचे भूतल में ही है। जल्दी-जल्दी नीचे उतरे। सामने हमारे गंतव्य की ओर जाने वाली ट्रेन खड़ी थी। जर्मन रेलपास पहले से ले लिया था। टिकिट खरीदना नहीं था। डिब्बे में चढ़ गए। बैठने के लिए ठीक जगह भी मिल गई। फिर ध्यान आया कि अपने मेजबान को तो खबर ही नहीं कर पाए कि आज हम कब पहुंच रहे हैं। मालूम हुआ कि कंडक्टर के कक्ष में टेलीफोन लगा है। शुल्क देकर उपयोग किया जा सकता है। फोन लगाया और अपनी मेजबान सुश्री बियेटा को बता दिया कि इस ट्रेन से इतने बजे पहुंच रहे हैं। ट्रेन की आवा•ा और अपने कानों के लिए अटपटे उच्चारण के चलते समझ ही नहीं आया कि दूसरे छोर से क्या कहा गया है। बहरहाल, गॉटिनजेन पर ट्रेन रुकी तो हमारी कोच के सामने ही संस्था के कार्यालय से आई बारबरा नामक युवती हमारी अगवानी के लिए खड़ी थी।
बारबरा ने शहर के बीचोंबीच एक होटल में अपनी कार से हमें छोड़ा। अगले तीन दिन मीटिंगों के आगे-पीछे जो समय मिला, उसमें जर्मनी के इस खूबसूरत शहर की पैदल सैर की, और स्थानीय मित्रों के परामर्श से आगे का कार्यक्रम भी बना लिया। इस शहर में सबसे अनोखा दृश्य हमने यह देखा कि सडक़ वैसे तो दो कारों के गुजर जाने लायक है, लेकिन दोनों ओर जो मकान-दूकान हैं, उनकी ऊपरी मं•िालें मानों एक-दूसरे से टकराने को बेताब हैं। यह क्या है भाई! मकान इस तरह आगे की ओर क्यों झुके हुए हैं? जवाब मिला कि नगर प्रशासन के एक विचित्र नियम के कारण ऐसा हुआ है। ग्राउंड फ्लोर या भूतल पर एक निश्चित क्षेत्रफल में निर्माण करना है, लेकिन ऊपर की मं•िालों के लिए उसमें छूट दी गई है तो सबने बाहर बीम निकाल कर प्रथम-द्वितीय तल पर अतिरिक्त निर्माण कर लिया है। यह युक्ति भारतीय नगरों के अलावा मैंने आज तक और कहीं नहीं देखी थी। खैर, हमारी जर्र्मन पार्टनर संस्था का परिसर बेहद प्रभावशाली था। वहां निरंतर स्कूलों और कॉलेजों में विविध विषयों पर अध्यापन व सामान्य ज्ञान के लिए विशेषज्ञों की सहायता से छोटी-बड़ी फिल्में बनाई जाती थीं। दो-चार फिल्में हमने देखीं, वे अत्यन्त रोचक ढंग से निर्मित की गईं थीं।
अपने एक सहयोगी मैनफ्रैड के साथ एक शाम पैदल सैर पर निकले। नदी किनारे लगभग एकांत में एक छोटी सी कॉटेज दिखाने वे ले गए। वहां सूचनाफलक पर लिखा था- प्रिंस बिस्मार्क फलाने समय से फलाने समय तक यहां रहे। कॉटेज का रख-रखाव बढिय़ा था। दुनिया के अनेक देशों में देखा कि अपनी विरासत के प्रति स्थानीय समाज कितना सजग है। यह एक सुंदर उदाहरण है। गॉटिनजेन में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है। उसके सामने एक विस्तीर्ण चौक पर फव्वारा स्थित है। परंपरा है कि नवविवाहित जोड़े इस फव्वारे पर मनौती मानने आते हैं। हमारे सामने ही एक नवयुगल बग्घी में बैठकर वहां आए और मनौती मानकर चले गए। एक शाम बियेटा ने हम सबको एक इंडियन रेस्तोरां में डिनर के लिए आमंत्रित किया। लेकिन जो डिनर आज तक याद है वह हमने एक अनूठे किस्म के रेस्तोरां में लिया था। वहां सिर्फ आलू से बने व्यंजन ही थे। ढेर सारे मक्खन में तले, उबले, भुने आलू, साबुत, कटे, लच्छेदार आदि और उनके साथ एस्परगस। एक थोड़ा तकलीफदेह अनुभव भी गॉटिनजेन में हुआ। सैलानियों का मौसम था। हमें होटल में पहले दिन तो एक डबल रूम मिला, अगले दिन किसी पूर्व आरक्षण के कारण हम पति-पत्नी को अलग-अलग सिंगल रूम में रहना पड़ा, फिर तीसरे दिन वापिस डबल रूम मिल गया। बहरहाल, अब गॉटिनजेन से विदा लेकर आगे बढऩा था।
मेजबान संस्था के एक डायरेक्टर मेरी तरह ही सैलानी तबियत के थे। अफसोस कि मैं उनका नाम इस वक्त भूल रहा हूं। उन्होंने अगले 5-7 दिन के जर्मनी प्रवास का हमारा कार्यक्रम बना दिया। होटलों का आरक्षण भी करवा दिया। गॉटिनजेन से हम बर्लिन आए। भारत से चलने के पहले पंद्रह दिन के लिए जर्मन रेल पास खरीद लिया था। उसमें रेल, बस, ट्राम या नाव से यात्रा बेरोकटोक करना संभव था। वैसे बर्लिन सहित दुनिया के अनेक शहरों में एक दिन, तीन दिन, सात दिन के सिटी पास भी पर्यटकों के लिए उपलब्ध होते हैं। एकीकरण तथा बर्लिन की दीवार टूटने की ऐतिहासिक घटना को लगभग दस साल होने आए थे। स्थान-स्थान पर बतौर यादगार टूटी दीवाल के कुछ हिस्सों को सहेज कर रखा गया था। हिटलर ने जर्मन संसद में आग लगाने का षडय़ंत्र रचा था, तो उस जले हुए हिस्से को भी बचाकर रखा गया था। इन ऐतिहासिक स्मृतिचिह्नों को देखने के अलावा हमने पोट्सडम में कैसर का भव्य प्रासाद आदि भी देखे। अन्यथा बर्लिन में सामान्य पर्यटकों के लिए बहुत अधिक कुछ नहीं था। हां, महानगर के बीच एक विशाल पार्क में, उस दिन शायद रविवार या कोई अवकाश दिवस था, अवश्य भारी संख्या में तुर्की अप्रवासियों की उमड़ी भीड़ देखकर कौतूहल हुआ। जिस जर्मनी ने नस्लीय श्रेष्ठता के दंभ में लाखों यहूदियों को गैस चेंबर तथा अन्य तरीकों से यंत्रणा देकर भारी नरसंहार का पाप किया था, वह देश अपनी ग्लानि से मुक्त होकर एक नई समाज रचना की ओर कदम बढ़ा रहा था।
बर्लिन से रवाना होने के पहले एक म•ोदार वाकया हुआ। हम सडक़ों पर यूं ही चहलकदमी कर रहे थे। इतने में एक युवक आया, हाथ में एक पैंफलेट थमाया- हमारा इंडियन रेस्तोरां पास में ही है। यह तो बढिय़ा संयोग हुआ। एक समय भोजन के लिए हम वहां चले गए। वही युवक फिर मिला। तपाक से स्वागत किया। उसमें बथुए का साग भी था। मैंने उस पल सोचा था कि यात्रा वृत्तांत लिखूंगा तो शीर्षक यही होगा- बर्लिन में बथुआ। हमें फ्राइबर्ग के लिए ट्रेन पकडऩा थी। रास्ता कुछ लंबा था। देश के उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम छोर तक की यात्रा थी। इस सफर में काफी दूरी तक रेल लाइन के समानांतर एक नदी बह रही थी। राइन थी या रोन या और कोई, ध्यान नहीं है, लेकिन नदी का जल पारदर्शी था। दोनों तटों पर स्वच्छता थी। गंदगी कहीं नहीं थी। तबियत खुश हो गई। मन हुआ कि अगर रेलगाड़ी थोड़ी देर के लिए रुक जाए तो उतर कर नदी जल का शीतल, कोमल स्पर्श पा लें। लेकिन अफसोस, यह संभव नहीं था। फ्राइबर्ग रेलवे स्टेशन पर उतरे तो सामने ही रेलपटरियों के ऊपर पुलनुमा ट्राम स्टेशन पर न•ार पड़ी। हम अपने सूटकेस-बैग खींचते हुए सीढिय़ों से ऊपर चढ़े। कुछ ही मिनटों में ट्राम मिल गई। यह मालूम ही था कि होटल के पास किस स्टेशन पर उतरना है। उसके बाद जो हुआ, उसका वर्णन मैं प्रारंभ में ही कर चुका हूं।
फ्राइबर्ग एक कस्बेनुमा प्राचीन शहर है और अपने खनिज विश्वविद्यालय के लिए प्रसिद्ध है। हम यहां इसलिए आए थे कि यह नगर विश्वप्रसिद्ध ब्लैक फॉरेस्ट की सरहद पर बसा है। होटल में सामान रखने के बाद पूछते-पूछते हम नगर के पर्यटन दफ्तर गए। एक मार्क में ब्रोशर खरीदा। वहीं हमने पहली बार ‘‘पंक’’ (क्कहृ्य) फैशन में रंगे एक तरुण को देखा। कान में कुंडल, निचले होंठ में कील, नाक में बाली, सिर के बालों में तीन-चार अलग-अलग रंगों की छटा। अजीब सज-धज जो अब भारत में भी दुर्लभ नहीं है। खैर, फ्राइबर्ग नए और पुराने, ऐसे दो हिस्सों में बंटा है। शहर का नया भाग शायद, किसी व्यस्त हाईवे के आसपास बसा है तो वहां लगातार भारी-भरकम ट्रकों की आवाजाही बनी हुई थी। रात के समय भी। पुराने शहर में अनेक सुंदर इमारतें थीं, अपनी प्राचीनता में भव्य और आकर्षक। पर्यटकों की आवाजाही तो थी, लेकिन माहौल कुल मिलाकर पुरसुकून और शांतिदायक था। पुराने शहर के बीच से एक पहाड़ी नदी भी बह रही थी, जो दोनों भागों के बीच सीमा बनाती थी!
फ्राइबर्ग से ट्रेन से तकरीबन डेढ़ घंटे की दूरी पर टिटीसी या टिटी•ो नामक झील है। पुरानी जर्मन भाषा में •ो का अर्थ ही झील है। ह•ाारों साल पूर्व हिमखंड के पिघलने से यह झील बनी है। शायद वैसे ही जैसे हमारे पर्वतीय क्षेत्रों में प्राचीन कुंड और सरोवर हैं। टिटीसी ब्लैक फॉरेस्ट के भीतर है और झील के कारण यहां एक छोटा-मोटा गांव बस गया है। चारों तरफ घने, ऊंचे, हिमप्रदेश के देशज वृक्ष और उनके बीच दो-तीन वर्ग किमी क्षेत्र में विश्राम करती झील। किनारे पर पर्यटकों की प्रतीक्षा में कुछ डोंगियां बंधी हैं। कुछ सैलानी झील की सैर कर रहे हैं तो कुछ झील के किनारे बनी पगडंडी पर घूम रहे हैं। ऐसा मं•ार कि बस यहीं ठहर जाओ। हम मंत्रमुग्ध होकर निसर्ग की शोभा निहार रहे थे कि अचानक ही पास से कहीं शोर उठता सुनाई दिया। एक बस अभी-अभी आकर रुकी थी और उससे भारतीय पर्यटकों का एक जत्था उतरा था। उतरते साथ कोई फोटो खींचने में व्यस्त. तो कोई सोविनियर दूकानों पर खरीदारी में, और कोई दुनिया से बेखबर आपसी बातचीत में मशगूल। यह दृश्य पर्यटक के रूप में हमारी ख्याति के अनुरूप ही था। हमारा लौटने का समय हो चला था। लेकिन उसके पहले पेटपूजा करना थी। एक तुर्की रेस्तोरां दिखा। उससे वेजीटेरियन पि••ाा बनाने का आग्रह किया। एक बेहतरीन पि••ाा जिसका स्वाद आज भी याद आ जाता है।
जर्मनी की लगभग दस दिन की यात्रा समाप्त कर वापिस मास्को लौटने का वक्त हो गया था। हिसाब लगाया-सुबह छह बजे होटल छोड़ेंगे, ट्राम से इतने देर में रेलवे स्टेशन पहुंचेंगे, फ्रैंकफर्ट के लिए इतने बजे की ट्रेन पकड़ेंगे। लेकिन यह क्या? ट्राम ने हमें दस मिनट में ही स्टेशन पहुंचा दिया। जिस ट्रेन में आरक्षण करवाया था, उसे आने में एक घंटे से अधिक समय बाकी था। लेकिन प्लेटफार्म पर फ्रैंकफर्ट जाने वाली एक अन्य गाड़ी खड़ी थी। ट्रेन कंडक्टर से पूछा- इसमें बैठ सकते हैं? क्यों नहीं? बस, हम उसमें सवार हो गए। आराम से जगह मिल गई। एयरपोर्ट के लिए किस स्टेशन पर उतरना है, यह पता नहीं था। किससे पूछते? लेकिन फ्रैंकफर्ट पहुंचने के पहले ही उद्घोषणा हुई कि एयरपोर्ट स्टेशन आने वाला है। हम म•ो में वहां उतर गए। एक तथ्य का उल्लेख करना आवश्यक है। जर्मनी की ट्रेनों के नाम वहां के महान लेखकों, संगीतज्ञों व मनीषियों के नाम पर रखे गए हैं। ट्रेन में हर बर्थ पर एक बुकलेट रखी रहती है, जिसमें ट्रेन की समय सारिणी के अलावा उस महान व्यक्ति का परिचय भी छपा होता है। अपने यहां तो इसे लागू करना लगभग असंभव है, लेकिन अन्यत्र भी कहीं इस सुंदर परिपाटी का अनुकरण देखने अब तक नहीं मिला।
बहरहाल, फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर हम समय से काफी पहले पहुंच गए। एयरोफ्लोट के काउंटर पर जाकर चैक-इन किया। भोजन रुचि पूछने पर माया ने कहा-इंडियन वेजीटेरियन। एयरलाइन कर्मी मुस्कुराई। कोशिश करती हूं। मैं बल्कि गुस्सा हुआ। यहां कहां तुमको अपना भोजन मिलेगा! परंतु रूस की सरकारी विमान सेवा की प्रशंसा करनी होगी। उन्होंने हमें फ्लाइट पर सुस्वादु भारतीय भोजन उपलब्ध कराया। आधी रात हम मास्को पहुंच गए। हमारा अगला गंतव्य साइबेरिया था। उसकी कहानी आगे कभी।
Website Designed By Vision Information Technology
Mobile No. 9893353242