ललित सुरजन
आज हम वह दिन देख रहे हैं जब अखबार विराट मीडिया साम्राज्य का एक छोटा और कम महत्वपूर्ण अंग बन कर रह गए हैं। भारत में दर्शाने को भले ही अखबारों की प्रसार संख्या या पाठक संख्या बढ़ रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि टीवी के इंद्रजाल के सामने प्रेस की महत्ता घटती जा रही है। विदेशों में तो कितने ही नामी गिरामी अखबार प्रिंट एडिशन छोड़कर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर चले गए हैं। अपने यहां भी प्रिंट और डिजिटल दोनों को समानांतर साधने का क्रम जारी है। लेकिन एक समय था जब यहां से वहां तक अखबारों का ही दबदबा था। आज मीडिया मुगल विशेषण का प्रयोग होता है, तो पहले के प्रेस बैरन कहलाते थे। देशबन्धु ने अपने विगत 61 वर्षों की यात्रा में इन परिवर्तनों और उनके परिणामों को भी देखा है, समय के साथ स्थितियां बदलती हैं और यह स्वाभाविक है।
इस पृष्ठभूमि में मन करता है कि राजनेता और राजनीतिक दलों, सरकारों और एक सीमा तक अफसरों यानी कुल मिलाकर सत्ता तंत्र के साथ हमारे जैसे संबंध रहे, उनके बारे में बात की जाए। देशबन्धु के इतिहास का यह अहम हिस्सा है। वह इसलिए भी कि हम प्रचलित परंपराओं से हटकर ही इन संबंधों को निभाने के प्रयत्न करते आए हैं। वैसे तो कोई भी शासन प्रणाली हो, प्रेस और सत्ता के बीच किसी न किसी रूप में संबंध बनना लाजमी है, लेकिन जनतंत्र में प्रेस को अपने बुनियादी उसूलों के मुताबिक विकसित होने के बेहतर अवसर मिलते हैं, यह एक सामान्य धारणा है। मेरा यहां तक कहना है कि स्वस्थ जनतंत्र और स्वस्थ प्रेस एक दूसरे के पूरक हैं। यदि जनतांत्रिक संस्थाओं में घुन लगी हो तो वह प्रेस की बुनियाद को भी कमजोर कर देती है, खासकर तब जब अखबार वाले अपने आप को सत्ता का चौथा खंभा मानने लगें। दरअसल हमारी भूमिका तो जनता और सत्ता के बीच एक संवाद सेतु बनने की है और इसमें अगर पक्षधरता है तो वह सत्ता की शक्ति के बजाय जनता की आवाज बनने के लिए है। लैटिन भाषा का पद ‘वॉक्स पॉपुलीÓ इस भूमिका को बखूबी व्यक्त करता है।
देशबन्धु के 60 साल लेखमाला की समापन किश्त में मैंने वादा किया था कि इसके दूसरे खंड में मैं इस बारे में चर्चा करूंगा। मैं उम्मीद करता हूं कि लगभग 3 माह के अंतराल के बाद अब आगे के लेख पढऩे में आपकी रुचि होगी। वैसे तो पत्र की स्थापना 1959 में हुई थी लेकिन अगर आप अनुमति दें तो मैं अपने बचपन की कुछ यादों को आपके साथ साझा कर लूं!
प्रसिद्ध हिल स्टेशन पचमढ़ी के रेलवे स्टेशन वाले कस्बे पिपरिया में मेरा बचपन बीता है। यहां मेरे दादाजी के पास अक्सर हमारे गांव खापरखेड़ा से आते जाते रिश्ते के दादाजी नरसिंहदास घुरका रुका करते थे। वे कांग्रेस के स्थानीय स्तर के नेता थे। वह शायद 1952 के आम चुनावों का समय था। उनकी चर्चाओं में गांधी, नेहरू आदि नाम आया करते थे और हम बच्चों को बैलजोड़ी वाले बिल्ले, झंडियों से खेलने का म•ोदार मौका मिलता था। गो कि मध्यप्रदेश का महाकौशल अंचल, जिसमें हमारा होशंगाबाद जिला भी शामिल था, कांग्रेस-समाजवादियों का गढ़ था। नारायण प्रसाद मौर्य नगरपालिका अध्यक्ष थे और मैं जिस शाला का विद्यार्थी था उसका नाम जयप्रकाश नारायण प्राथमिक शाला था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के निकट सहयोगी हरि विष्णु कामथ होशंगाबाद से लोकसभा सदस्य थे। बचपन की ये बातें मैंने यहां सिर्फ अपने स्मृति कोष को खंगालने के नाते की हैं।
चौथी की बोर्ड परीक्षा देकर 1954 में मैं जब जबलपुर पहुंचा तो वहां बाबूजी के विस्तृत सामाजिक दायरे के कारण एक के बाद एक कई राजनेताओं को जानने और उनका स्नेहभाजन बनने का अवसर मुझे मिला। हमारे मकान मालिक नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव उर्फ एन पी कक्का, प्रसिद्ध वकील और समाजवादी नेता थे। वे आगे चलकर मध्यप्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष बने। तत्कालीन विंध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष शिवानंद जी से बाबूजी का आत्मीय संबंध था। वह जबलपुर आते तो हमारे घर पर ही ठहरते थे। नरसिंहपुर के गांधीवादी, वैभवत्यागी समाजवादी नेता ठाकुर निरंजन सिंह का भी हमारे घर पर ही ठिकाना होता था। मुझे याद आता है कि सन् 54 में जबलपुर में स्वतंत्र भारत के नए-नए बन रहे इतिहास में पहली बार (और शायद आखिरी बार) हिंदू-जैन दंगे हुए थे। बाबूजी कफ्र्यू के साये में रात को शहर का जायजा लेने निकले तो मुझे भी अपने साथ गाड़ी में बैठा लिया था। वे अक्सर मुझे इस तरह जहां-तहां ले जाते थे। यह मेरी शिक्षा का हिस्सा था। 1955 में गोवा मुक्ति आंदोलन में मंजनलाल चनसौरिया और एन पी कक्का भाग लेने गए थे। लौट कर आने के बाद उनके बंगले पर ही इन सेनानियों का भव्य सम्मान कार्यक्रम रखा गया था, जिसकी तस्वीरें हमारे एल्बम में सुरक्षित हैं। यहां उल्लेख करना उचित होगा कि शिवानंद जी के सुपुत्र पी एन श्रीवास्तव से कुछ समय पूर्व फेसबुक पर मेरे संबंध बन गए हैं। 1955 में ही पंडित नेहरू जबलपुर आए। बाबूजी ने किसी गाड़ी का इंतजाम किया, जिसमें बैठकर मैं, बाई (मां के लिए संबोधन) के साथ डुमना विमानतल गया था और पहली बार नेहरु जी के दर्शन किए थे। बस इतनी धुंधली सी याद है। लेकिन हां, उसी समय आई एक फिल्म ‘एक ही रास्ताÓ में जब गाना बजा- एटम बम से जा टकराया वीर जवाहरलाल- तो सारा हॉल तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठा। लगभग उसी समय की फिल्म जागृति में गाना- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल/ साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल- के बोल आज भी जुबान पर आ जाते हैं । मैं जबलपुर में 1954 से 1956 तक रहा। इस बीच सेठ गोविंददास, गीतांजलि के अनुगायक भवानी प्रसाद तिवारी, कवि- शिक्षक-नाटककार रामेश्वर गुरु, विधानसभा अध्यक्ष पंडित कुंजीलाल दुबे सहित बाबूजी के अन्यान्य राजनैतिक मित्रों के बारे में कुछ-कुछ जानने का अवसर मिला।
अक्टूबर 56 में मैं नागपुर पहुंच गया। जिस दिन बाबा साहब अंबेडकर का देहावसान हुआ यानी 6 दिसंबर को, पूरे शहर का माहौल गमगीन हो उठा था। मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी, उस दर्द के मं•ार को थोड़ा तो समझ ही पा रहा था। इसके कुछ समय बाद की ही बात है, पंडित नेहरू को एक बार फिर दूर से देखने का मौका मिला। सोनेगांव विमानतल से पंडित नेहरू का काफिला शायद कस्तूरचंद पार्क की ओर जा रहा होगा, मैंने लक्ष्मी देवी धीरन कन्या विद्यालय की छत से स्कूली कार में जाते हुए नेहरू जी के दर्शन किए। बुआ जी उस शाला में वरिष्ठ अध्यापिका थीं। जिस कारण उनके बेटे अनुपम भैया और मुझे यह अवसर मिल सका। यह वह समय था जब नागपुर की रौनक समाप्त हो रही थी आधी राजधानी उठकर भोपाल और आधी मुंबई चली गई थी। मुझे बस लोकसभा सदस्य अनुसूया बाई काले और विधायक मदन गोपाल अग्रवाल के नाम याद आते हैं। सर्वोदय नेता निर्मला ताई देशपांडे हमारे मोहल्ले की ही निवासी थीं, लेकिन हम उन्हें नहीं, उनके बड़े भाई कवि अनिल को जानते थे जो उस दौर की नामी हस्ती थे व जिन्हें सब तरफ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। हां, धंतोली मोहल्ले से ही लगा हुआ एक और इलाका था जो कांग्रेस नगर के नाम से जाना जाता था और धीरे-धीरे विकसित हो रहा था। कांग्रेस का कोई राष्ट्रीय अधिवेशन शायद इसी स्थान पर संपन्न हुआ था! प्रसंगवश लिखना होगा कि मुक्तिबोध तब नागपुर में ही थे। उनके पड़ौसी प्रगतिशील पत्रकार, कहानीकार, बाबूजी के संपादन सहयोगी शैलेंद्र कुमार किनारीवाला भी वहीं थे।
1954 से 1961 के मध्य पिपरिया से जबलपुर, जबलपुर से नागपुर, नागपुर से ग्वालियर, ग्वालियर से फिर जबलपुर और इस बीच भोपाल के अनेक अल्प प्रवास- कुछ इस तरह मेरा समय बीता। ग्वालियर में मकान मालिक रामचंद्र मोरेश्वर करकरे, हाई कोर्ट के बड़े वकील और कांग्रेस के जाने-माने नेता थे। उनकी प्रतिस्पर्धा में नारायण कृष्ण शेजवलकर का नाम लिया जाता था, जो आरएसएस के नेता थे, आगे चलकर संसद सदस्य बने। उनके बेटे विवेक शेजवलकर अभी ग्वालियर के मेयर हैं । ग्वालियर के 3 साल के दौरान मैंने न तो सिंधिया महाराजा को देखा न महारानी को; लेकिन महल विरोधी कांग्रेस नेता पंचम सिंह पहाडग़ढ़ को अवश्य देखा, जिनके बेटे हरिसिंह हम तरुणों के आदर्श हुआ करते थे। ग्वालियर में ही सुप्रसिद्ध वामपंथी कवि मुकुट बिहारी सरोज का स्नेह आशीर्वाद मुझे मिला। वह फूफा जी के मित्र थे और अक्सर घर आते थे। निकटवर्ती अटेर क्षेत्र के विधायक रामकृष्ण दीक्षित का निवास भी उसी मोहल्ले में था, जिनके बेटे डॉक्टर कृष्ण कमल दीक्षित से आज 60 साल बाद भी दोस्ती कायम है। इस दौरान साम्यवादी ट्रेड यूनियन नेता रामचंद्र सर्वटे व उनके साथ-साथ मोहन अंबर तथा प्रगतिशील धारा के अन्य कवियों से भी परिचय हुआ। जबलपुर के श्याम सुंदर मिश्र उन्हीं दिनों मेरे स्कूल में अध्यापक होकर आए थे, वह आगे चलकर मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के पुनर्गठित राज्य अध्याय के महासचिव चुने गए थे।
बाबूजी भोपाल में थे। नागपुर या ग्वालियर से मेरा भोपाल आना जाना होता था। भोपाल राज्य प्रजामंडल के तपे हुए नेता, स्वाधीनता सेनानी भाई रतन कुमार और प्रेम श्रीवास्तव बाबूजी के संपादन सहयोगी थे। शाकिर अली खान, चतुर नारायण मालवीय, बालकृष्ण गुप्ता, अक्षय कुमार जैन, मथुरा प्रसाद श्रीवास्तव यानी मथुरा बाबू, मोहिनी देवी यह सब प्रजामंडल के जुझारू नेता थे। इन्होंने ही भोपाल रियासत के विलीनकरण का आंदोलन चलाया था। इन सबके साथ बाबूजी के गहरे संबंध थे। भोपाल में उन दिनों जनसंघ का तो अता-पता नहीं था, किंतु उद्धवदास मेहता हिंदू महासभा के बड़े नेता थे। पुराने शहर की संरचना में चौक का महत्वपूर्ण स्थान था। बीच में मस्जिद, उसी इमारत में चारों ओर अधिकतर हिंदू व्यापारियों की दुकानें; पास की गली में डॉ शंकरदयाल शर्मा का पुश्तैनी मकान, मस्जिद के दूसरी ओर गली में श्रीनाथजी का मंदिर- कुल मिलाकर सांप्रदायिक सद्भाव और साझा संस्कृति का मुकाम। इसी शहर के राजधानी बनते साथ एक साल के भीतर सांप्रदायिक दंगे होना अपने आप में हैरतअंगे•ा था। भोपाल में नई राजधानी की बसाहट शुरू हुई थी। मंत्रियों को भी जहां जैसी जगह मिले, रहते थे। मुझे आते जाते देखे हुए दो-तीन बंगलों की याद है। जहांगीराबाद में छतरपुर के दशरथ जैन और सिवनी की विमला वर्मा के आवास थे। जबलपुर के जगमोहनदास चार बंगला नामक स्थान पर एक बंगले में रहते थे। उनके घर एकाध बार जाने का अवसर मिला। मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू लालघाटी स्थित आईना बंगले में रहते थे। इस कालखंड का मेरा जो अति स्मरणीय प्रसंग है वह पंडित नेहरू को निकट से देखने का है। नए राज्य में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का नए सिरे से गठन हुआ। शिक्षा मंत्री डॉ.शंकर दयाल शर्मा आयोजन समिति के अध्यक्ष बनाए गए और मायाराम सुरजन स्वागत मंत्री। यह 1958 की बात है। विधानसभा अध्यक्ष पंडित कुंजीलाल दुबे ने उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी और उद्घाटन के लिए स्वयं नेहरू जी पधारे थे। एक बार फिर बाबूजी ने बाई और मेरे लिए कार्यक्रम में पहुंचने की व्यवस्था की। 4 साल की नन्ही बहन ममता भी साथ में थी। कार्यक्रम समाप्त हुआ। नेहरू जी मंच से उतरे। ममता को न जाने क्या सूझी कि बाई की गोद से उतर नेहरू जी के सामने जा खड़ी हो गईं। उन्होंने देखा और आवाज दी- देखो भाई किस की बच्ची है, गिर न जाए। इस तरह हम भाई-बहनों में एक ममता को ही नेहरू जी का सीधा आशीर्वाद मिल पाया। ( अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
ललित सुरजन
1954 से 1961 के मध्य पिपरिया से जबलपुर, जबलपुर से नागपुर, नागपुर से ग्वालियर, ग्वालियर से फिर जबलपुर और इस बीच भोपाल के अनेक अल्प प्रवास- कुछ इस तरह मेरा समय बीता। ग्वालियर में मकान मालिक रामचंद्र मोरेश्वर करकरे, हाई कोर्ट के बड़े वकील और कांग्रेस के जाने-माने नेता थे। उनकी प्रतिस्पर्धा में नारायण कृष्ण शेजवलकर का नाम लिया जाता था, जो आरएसएस के नेता थे, आगे चलकर संसद सदस्य बने। उनके बेटे विवेक शेजवलकर अभी ग्वालियर के मेयर हैं। ग्वालियर के 3 साल के दौरान मैंने न तो सिंधिया महाराजा को देखा न महारानी को; लेकिन महल विरोधी कांग्रेस नेता पंचम सिंह पहाडग़ढ़ को अवश्य देखा, जिनके बेटे हरिसिंह हम तरुणों के आदर्श हुआ करते थे। ग्वालियर में ही सुप्रसिद्ध वामपंथी कवि मुकुट बिहारी सरोज का स्नेह आशीर्वाद मुझे मिला। वह फूफा जी के मित्र थे और अक्सर घर आते थे। निकटवर्ती अटेर क्षेत्र के विधायक रामकृष्ण दीक्षित का निवास भी उसी मोहल्ले में था, जिनके बेटे डॉक्टर कृष्ण कमल दीक्षित से आज 60 साल बाद भी दोस्ती कायम है। इस दौरान साम्यवादी ट्रेड यूनियन नेता रामचंद्र सर्वटे व उनके साथ-साथ मोहन अंबर तथा प्रगतिशील धारा के अन्य कवियों से भी परिचय हुआ। जबलपुर के श्याम सुंदर मिश्र उन्हीं दिनों मेरे स्कूल में अध्यापक होकर आए थे, वह आगे चलकर मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के पुनर्गठित राज्य अध्याय के महासचिव चुने गए थे।
बाबूजी भोपाल में थे। नागपुर या ग्वालियर से मेरा भोपाल आना जाना होता था। भोपाल राज्य प्रजामंडल के तपे हुए नेता, स्वाधीनता सेनानी भाई रतन कुमार और प्रेम श्रीवास्तव बाबूजी के संपादन सहयोगी थे। शाकिर अली खान, चतुर नारायण मालवीय, बालकृष्ण गुप्ता, अक्षय कुमार जैन, मथुरा प्रसाद श्रीवास्तव यानी मथुरा बाबू, मोहिनी देवी यह सब प्रजामंडल के जुझारू नेता थे। इन्होंने ही भोपाल रियासत के विलीनकरण का आंदोलन चलाया था। इन सबके साथ बाबूजी के गहरे संबंध थे। भोपाल में उन दिनों जनसंघ का तो अता-पता नहीं था, किंतु उद्धवदास मेहता हिंदू महासभा के बड़े नेता थे। पुराने शहर की संरचना में चौक का महत्वपूर्ण स्थान था। बीच में मस्जिद, उसी इमारत में चारों ओर अधिकतर हिंदू व्यापारियों की दुकानें; पास की गली में डॉ. शंकरदयाल शर्मा का पुश्तैनी मकान, मस्जिद के दूसरी ओर गली में श्रीनाथजी का मंदिर- कुल मिलाकर सांप्रदायिक सद्भाव और साझा संस्कृति का मुकाम। इसी शहर के राजधानी बनते साथ एक साल के भीतर सांप्रदायिक दंगे होना अपने आप में हैरतअंगे•ा था। भोपाल में नई राजधानी की बसाहट शुरू हुई थी। मंत्रियों को भी जहां जैसी जगह मिले, रहते थे। मुझे आते जाते देखे हुए दो-तीन बंगलों की याद है।
जहांगीराबाद में छतरपुर के दशरथ जैन और सिवनी की विमला वर्मा के आवास थे। जबलपुर के जगमोहनदास चार बंगला नामक स्थान पर एक बंगले में रहते थे। उनके घर एकाध बार जाने का अवसर मिला। मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू लालघाटी स्थित आईना बंगले में रहते थे। इस कालखंड का मेरा जो अति स्मरणीय प्रसंग है वह पंडित नेहरू को निकट से देखने का है। नए राज्य में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का नए सिरे से गठन हुआ। शिक्षा मंत्री डॉ. शंकर दयाल शर्मा आयोजन समिति के अध्यक्ष बनाए गए और मायाराम सुरजन स्वागत मंत्री। यह 1958 की बात है। विधानसभा अध्यक्ष पंडित कुंजीलाल दुबे ने उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी और उद्घाटन के लिए स्वयं नेहरू जी पधारे थे। एक बार फिर बाबूजी ने बाई और मेरे लिए कार्यक्रम में पहुंचने की व्यवस्था की। 4 साल की नन्ही बहन ममता भी साथ में थी। कार्यक्रम समाप्त हुआ। नेहरू जी मंच से उतरे। ममता को न जाने क्या सूझी कि बाई की गोद से उतर नेहरू जी के सामने जा खड़ी हो गईं। उन्होंने देखा और आवाज दी- देखो भाई किस की बच्ची है, गिर ना जाए। इस तरह हम भाई-बहनों में एक ममता को ही नेहरू जी का सीधा आशीर्वाद मिल पाया।
अखबार अथवा प्रेस और सत्तातंत्र के जटिल संबंधों को समझने की मेरी शुरुआत 1961 में हुई, जब मैं हायर सेकंडरी की परीक्षा देकर ग्वालियर से लौटा और जबलपुर में कॉलेज के प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने के साथ-साथ बाबूजी के संचालन-संपादन में प्रकाशित नई दुनिया, जबलपुर (बाद में नवीन दुनिया) में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार काम सीखना प्रारंभ किया। यह किस्सा आगे बढ़े उसके पहले मैं चाहूंगा कि आप निम्नलिखित पैराग्राफ पढ़ लें-
”प्रछन्न कम्युनिस्ट समाचार पत्र के प्रछन्न कम्युनिस्ट संपादक के प्रछन्न कम्युनिस्ट पुत्र जबलपुर विश्वविद्यालय के प्रछन्न कम्युनिस्ट व्याख्याता की प्रछन्न कम्युनिस्ट पत्नी के पास अंग्रेजी पढऩे जाते हैं।
आश्चर्य मत कीजिए कि लगभग इन्हीं शब्दों में यह पैराग्राफ जबलपुर के दैनिक युगधर्म के अग्रलेख अथवा संपादकीय के रूप में प्रकाशित हुआ था। यह 1962 की बात है। जनसंघ के तत्कालीन बड़े नेता अटलबिहारी वाजपेयी के निकट संबंधी जनसंघी पत्रकार भगवतीधर बाजपेयी इस अखबार के संपादक थे। यह लेख उनकी अपनी कलम से लिखा गया या उनके निर्देश पर किसी अन्य ने लिखा यह बताना संभव नहीं है, लेकिन इसमें जो चार पात्र है उनमें एक बाबूजी हैं, दूसरा मैं हूं, तीसरे प्रोफेसर बैजनाथ शर्मा हैं और चौथी उनकी पत्नी अंग्रेजी की विदुषी श्रीमती सरला शर्मा हैं। प्रो. शर्मा हमारे गांव के थे। 1961 में विश्वविद्यालय में व्याख्याता बनकर आए तो शुरुआत में हमारे घर पर ही ठहरे थे। गांव के रिश्ते से मैं आज भी उन्हें चाचा कहता हूं। मैं द्वितीय वर्ष का विद्यार्थी, 17 वर्ष का तरुण, अंग्रेजी पाठ्यक्रम में मार्गदर्शन लेने चाची के पास जाता था तो इसमें संपादकीय लिखने की बात किस हिसाब से उठती थी? लेकिन जब अखबार का उद्देश्य लोक शिक्षण न होकर संकीर्ण मतवाद का प्रसार करना हो, समाज में वैमनस्य व कटुता उत्पन्न करना हो, राजनीति की दिशा संविधान से दूर मोड़ देना हो, तो ऐसे एक नहीं, हजार प्रयत्न हो सकते हैं। जिस तरह से हमारे चरित्र हनन की कोशिश की गई, वैसा न जाने कितने लोगों के साथ कब-कब हुआ होगा। वर्तमान परिदृश्य को देखकर कह सकता हूं कि शायद यही तो ट्रोल आर्मी का प्रारंभिक स्वरूप या प्रोटोटाइप था।
लेकिन मैं अपना किस्सा सुनाने क्यों बैठ गया, क्योंकि 1961 की फरवरी में युगधर्म ने जो किया था, वह तो जबलपुर को सांप्रदायिकता की भट्टी में झोंक देने का काम था। उस साल फरवरी में जबलपुर में आजादी के बाद देश का सबसे बड़ा हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ था, जिसमें सैकड़ों लोगों की जानें चली गई थीं। जबलपुर के पास एक गांव में एक झोपड़ी में 13 मुसलमान आग लगाकर मार डाले गए थे। सेना बुलाने की नौबत आ गई थी। कफ्र्यू तो लग ही गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस तांडव को राष्ट्रीय शर्म निरूपित किया था और इसकी पहली चिंगारी भड़काने का काम युगधर्म के उस अत्यंत आपत्तिजनक, मर्यादाहीन और असंतुलित शीर्षक ने किया था जो उन्होंने अखबार के मास्टहेड (पत्र का नाम) के ऊपर छापा था। भावनाएं भड़कने में देर न लगी थी। 1962 के आम चुनाव की तैयारियां कुछ ही हफ्तों में शुरू होने वाली थी। उसके पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर चुनाव में फायदा उठाने की यह सोची-समझी साजिश थी। उस समय जबलपुर से कांग्रेस विचारधारा का अखबार नवभारत भी निकलता था, लेकिन वह लंबे समय से ढुलमुल नीति पर ही चल रहा था। बाबूजी के संपादन में नई दुनिया जबलपुर ने न सिर्फ नैतिकता और जिम्मेदारी का परिचय दिया, बल्कि शांति स्थापना के लिए भी दिन-रात मेहनत की। पंडित नेहरू ने श्रीमती सुभद्रा जोशी और बेगम अनीस किदवई की 2 सदस्यीय अध्ययन टीम जबलपुर भेजी तो उन्होंने और उनके अलावा देश-विदेश से आए पत्रकारों राजनीतिज्ञों व अन्य नेताओं ने भी इस सकारात्मक भूमिका का संज्ञान लिया। प्रसंगवश 1962 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनसंघ ने अटल बिहारी वाजपेयी को खड़ा किया तो उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी सुभद्रा जोशी ने करारी शिकस्त दी। बाजपेयी जी चुनावी सभाओं में सुभद्राजी पर विवाहिता होकर मांग न भरने जैसी हल्की टीका करते थे, तो सुभद्राजी का जवाब होता था- लक्ष्मण ने तो भाभी सीता के चरणों के ऊपर नहीं देखा था। देवर समान वाजपेयी मेरी मांग का सिंदूर देख रहे हैं। इन दोनों प्रसंगों से आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरा प्रशिक्षण किन परिस्थितियों में प्रारंभ हुआ।
ललित सुरजन
मध्यप्रदेश की राजधानी बनने का अवसर भले ही जबलपुर से चूक गया हो लेकिन नए मध्यप्रदेश में वह राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रमुख और जीवंत केंद्र था। इंदौर, ग्वालियर, भोपाल, रीवा में सामंतशाही थी, जबलपुर और रायपुर जनतांत्रिक आंदोलनों के गढ़ थे। उन दिनों रायपुर को भी महाकौशल का ही हिस्सा मान लिया जाता था। यह दोनों अंचल वैसे तो कांग्रेसी थे, लेकिन कांग्रेस के भीतर समाजवादियों का यहां वर्चस्व न सही महत्वपूर्ण रोल तो था ही। यदि रायपुर में पंडित रविशंकर शुक्ल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह और डॉ खूबचंद बघेल जैसे प्रबुद्ध नेता थे, तो जबलपुर में भी एक लंबी दीर्घा थी। भवानी प्रसाद तिवारी, कवि, गीतकार, स्वाधीनता सेनानी, 8 बार जबलपुर के महापौर निर्वाचित हुए। इसी तरह कवि रामेश्वर गुरु महापौर बने। पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र तो अंग्रेजों की जेल में रहते हुए ही जबलपुर नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए थे। सेठ गोविंद दास 1923 से 1974 तक केंद्रीय धारासभा और बाद में लोकसभा के लगातार सदस्य रहे। पड़ोसी सिहोरा के काशीप्रसाद पांडे इसी तरह लगातार 50 साल तक प्रांतीय विधानसभा के सदस्य रहे। जबलपुर में जो पहली मूर्ति स्थापित हुई, वह सुभद्रा कुमारी चौहान की थी।
यहीं से माधवराव सप्रे ने कर्मवीर का प्रकाशन प्रारंभ किया था, जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी और पंडित सुंदरलाल जैसे उनके सहयोगी थे। कहने का आशय यह है कि राजनीति के अपने अंतर्विरोधों के बावजूद जबलपुर या महाकौशल की राजनीति वृहत्तर और उदात्त लक्ष्यों से प्रेरित थी, जहां राजनेता और सांस्कृतिक कार्यकर्ता के बीच, खासकर के नेतृत्व में, कोई भेद समझ पाना लगभग असंभव था। यह अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन प्लेटो ने ‘द रिपब्लिकÓ में जिस फिलॉसफर किंग की अवधारणा पेश की थी, जबलपुर का राजनैतिक नेतृत्व अपनी सीमाओं में वैसे ही उच्च आदर्श से परिचालित था। स्वाभाविक ही उस समय ऐसे पत्रकार भी थे जिनके लिए अखबार में नौकरी करना किसी तात्कालिक स्वार्थपूर्ति का साधन न होकर एक ऊंचे आदर्श के लिए काम करना था। 1950 में बाबूजी नागपुर से जबलपुर इन आदर्शों को साथ लेकर आए थे और ताजिंदगी अपने कौल पर कायम रहे। जबलपुर में राजनीति और पत्रकारिता की युति में कुछ और तथ्य जोड़े जा सकते हैं जैसे द्वारिका प्रसाद मिश्र ने ”सारथीÓÓ और ”श्री शारदाÓÓ जैसे पत्रों का संपादन किया। इन का वित्तीय पोषण जहां तक मुझे पता है, सेठ गोविंद दास करते थे। भवानी प्रसाद तिवारी ने साप्ताहिक ”प्रहरीÓÓ का संपादन प्रकाशन किया और हरिशंकर परसाई नामक एक युवा लेखक को पहला प्रश्रय वहीं मिला। आगे चलकर जब परसाई जी और उनके मित्र श्रीबाल पांडे ने ”वसुधाÓÓ की स्थापना की तो मुक्तिबोध उसके स्थायी स्तंभकार बने तथा ”एक साहित्यिक की डायरीÓÓ का प्रकाशन वहीं हुआ। एक समय में ”हितकारिणीÓÓ और ”शुभचिंतकÓÓ जैसी आदर्शवादी नामों वाली पत्रिकाएं भी जबलपुर से प्रकाशित हुई।
जब 1950 में बाबूजी नवभारत लेकर जबलपुर गए तो लगभग उसी समय उनके मित्र मोहन सिन्हा ने ”प्रदीपÓÓ नामक सांध्य दैनिक प्रारंभ किया, जिसमें रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता छपी थी – एक नन्हे दिए ने डूबते सूरज से कहा कि हर रात आपका काम मैं संभालूंगा। जबलपुर में बाबूजी की तीन पारियों में बाबूजी को जो साथी सहयोगी मिले वे लगभग सभी लोक कल्याण के आदर्शों से प्रेरित थे और पत्रकारिता इनके लिए महज रोजी-रोटी कमाने का माध्यम नहीं थी। हीरालाल गुप्त, कृष्ण कुमार तिवारी, प्रसन्न शंकर धगट, श्याम सुंदर शर्मा, रघुनाथ प्रसाद तिवारी, सोमदत्त, सुभाष चंद्र बोस, गंगा प्रसाद ठाकुर, गुलाबचंद नारद इत्यादि नाम मुझे याद आते हैं। इन सब नामों को पढ़कर अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि पत्रकारिता में मेरा अपना प्रशिक्षण किस दिशा में जा रहा था। हुकुमचंद नारद जबलपुर के प्रतिष्ठित पत्रकार थे और उन्होंने सरकारी विक्टोरिया अस्पताल में अपनी प्रेरणा और जनसहयोग से बीमारों के परिचारकों के लिए एक वार्ड का निर्माण कराया। समाजसेवा की ऐसी भावना थी। रामेश्वर गुरु का जिक्र ऊपर हुआ है, वे कभी अध्यापक और मेयर होने के साथ-साथ अमृत बाजार पत्रिका के संवाददाता थे।
जो भी हो मेरे लिए तो नयी-नयी शुरुआत थी। मैं हाशिए पर खड़े होकर घटनाएं देखने वाला गवाह भर था। सांप्रदायिक दंगे या चीन का भारत पर आक्रमण ऐसे मौकों पर अपने अखबार की जो भूमिका थी वह मेरे लिए प्रेरणादायी थी कि कठिन परिस्थितियों में भी अपनी अंतरात्मा से समझौता किए बिना पत्रकारिता का धर्म कैसे निभाया जाता है। इस बीच एक-दो सामान्य से हटकर प्रसंगों का मैं साक्षी बना। भारत-चीन युद्ध के तुरंत बाद राष्ट्रीय एकता परिषद का पुनर्गठन हुआ। सागर विश्वविद्यालय में कुलपति के रूप में समय बिता रहे कद्दावर राजनेता पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र को उसका सदस्य मनोनीत किया गया। जिसकी तरह-तरह से व्याख्या होने लगी। एक शाम सागर से फोन आया और बाबूजी मिश्राजी से मिलने के लिए कुछ देर बाद निकल पड़े। वहां आधी रात को उनके बीच क्या चर्चाएं हुईं, मैं नहीं जानता। अपनी पुस्तक ”मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश केÓÓ में बाबूजी ने उसका विवरण दिया है। कुछ समय बाद ही कामराज योजना के अंतर्गत भगवंतराव मंडलोई ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और डीपी मिश्रा प्रदेश के नए मुख्यमंत्री बने। मिश्र जी ने अपने मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया, उसमें प्रदेश के चार भागों से 4 नए मंत्री उन्होंने लिए। महाकौशल के सिवनी क्षेत्र से आदिवासी वसंतराव उईके, छत्तीसगढ़ के मालखरौदा से दलित वेदराम, विंध्यप्रदेश के चुरहट से अर्जुन सिंह और चौथा नाम फिलहाल मुझे याद नहीं आ रहा है। यह एक तरह से प्रदेश की राजनीति में नया शक्ति संतुलन साधने की कोशिश थी। मंत्री बनने के बाद वेदराम जबलपुर आए थे, उन दिनों राजू दा यानी राजनारायण मिश्र जबलपुर में ही थे। मैं उनके ही साथ उनके पूर्व परिचित वेदराम जी से मिलने सर्किट हाउस नंबर 2 गया था। एक नौसिखिए पत्रकार के रूप में किसी मंत्री से आमने-सामने मिलने का यह मेरा पहला मौका था। मुझे अब भी याद है कि वेदराम के दलित होने के कारण उनके बारे में बहुत से भद्दे चुटकुले चलने लगे थे, जो मुझे नागवार गुजरते थे। हमारे वर्ग-वर्ण विभेदी समाज में आज भी तो स्थितियां बहुत अधिक नहीं बदली हैं। यह एक तरह से जबलपुर में मेरा आखिरी साल था।
पं. द्वारका प्रसाद मिश्र 1963 से 1967 के बीच चार साल की अवधि के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। एक पत्रकार के रूप में मेरे लिए वे पहले बड़े राजनेता थे जिनके कार्यकाल को देखने का कुछ अवसर मुझे मिला। यह देखना भी दूर से ही था। वे मेरे दादाजी के उम्र के थे और जिस व्यक्ति से बाबूजी का संवाद होता रहा हो, वहां अपने पहुंचने का सवाल ही नहीं था। फिर भी उनके समय की कुछ घटनाएं मेरी याददाश्त में हैं और मैं अपनी भरसक बुद्धि उनका विश्लेषण करने का प्रयत्न करता हूं। यह सर्वविदित है कि कांग्रेस के नेहरू विरोधी आठ बड़े नेताओं ने 1951 में उन्हें नेहरू जी के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाया था और बलि का बकरा बना दिया था। यह तो उस दौर में राजनीति में किसी हद तक विद्यमान उदार परंपरा थी जिसके कारण मिश्र जी पूरी तरह से हाशिए पर नहीं गए, बल्कि सागर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उन्हें अपनी अंतर्निहित बौद्धिक प्रतिभा के बल पर एक नए किस्म की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसके बाद यह 1962 में इंदिरा गांधी की उदारता थी जो उन्हें राजनीति की मुख्यधारा में वापस लाईं और उनके लिए मुख्यमंत्री का पद प्रशस्त किया। (अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
मैंने मिश्रजी को रायपुर में सबसे पहले 1964 में देखा, जब वे ईस्टर्न एम पी फ्लाइंग क्लब का उद्घाटन करने के लिए माना विमानतल पर उतरे। यह मुझे याद नहीं कि क्या नवगठित रविशंकर विश्वविद्यालय का उद्घाटन भी उन्होंने उसी दिन किया था! दरअसल मिश्रजी ने मुख्यमंत्री बनने के कुछ समय पश्चात ही प्रदेश में 3 नए विश्वविद्यालय स्थापित किए थे: रायपुर में रविशंकर विश्वविद्यालय(अब पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय), रीवा में अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय और ग्वालियर में जीवाजी विश्वविद्यालय। यह समय की मांग थी। उच्च शिक्षा के प्रसार और बेहतर प्रशासन के लिए इसकी आवश्यकता थी। इन तीनों स्थानों पर और अन्यत्र भी मिश्रजी ने ऐसे विद्वान मित्रों को कुलपति बनाया जिनकी प्रतिभा और प्रतिष्ठा के बारे में कोई सवाल नहीं था। इस कदम से उन्होंने छत्तीसगढ़, विंध्यप्रदेश व चंबल क्षेत्र में क्षेत्रीय संतुलन भी स्थापित किया। ऐसा करते हुए शायद उन्हें अपने गुरु पंडित रविशंकर शुक्ल का ख्याल रहा होगा जिन्होंने अपने समय में संस्थान स्थापित करते हुए रायपुर, जबलपुर, अकोला और नागपुर के बीच संतुलन साधा था। जहां तक ईस्टर्न एमपी फ्लाइंग क्लब की बात है, वह एक भूली हुई कहानी है; लेकिन अपने समय में वह एक दूरदर्शी कदम था। इसके लिए •ाोर शायद श्यामाचरण शुक्ल ने डाला होगा! उस समय इंदौर में ही एक फ्लाइंग क्लब था जिसमें नौजवान वायुयान उड़ाना सीख सकते थे। रायपुर में स्थापना होने से छत्तीसगढ़ के नौजवानों के लिए एक नए अवसर के द्वार खुले। यह प्रदेश का दुर्भाग्य था कि 1977 में ओछी राजनीति के चलते इसे बंद कर दिया गया।
बहरहाल मिश्र जी के कार्यकाल की कुछ और घटनाएं याद आती हैं जैसे बस्तर के पूर्व राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की पुलिस गोली चालन में मृत्यु या हत्या; नर्मदा जल विवाद व प्राधिकरण का गठन; कसडोल उपचुनाव; महासमुंद लोकसभा उपचुनाव; श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के नेतृत्व में दलबदल और सरकार का पराभव; मिश्रजी का अपने साथियों का पुनर्वास इत्यादि। यह राजनीति के बदलते समीकरणों का प्रभाव है कि प्रवीरचंद्र भंजदेव की पुलिस गोली चालन में मृत्यु को उनकी सोची-समझी हत्या होना मान लिया गया। मैं इस पर कोई आधिकारिक टिप्पणी करने में समर्थ नहीं हूं लेकिन उचित होगा कि राजा भंजदेव के बारे में भी हमें कुछ जानकारी हो। यह हम जानते हैं कि वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे। रायपुर की जनता ने अशोका होटल (इंडियन कॉफी हाउस) की बालकनी से उन्हें नोटों की गड्डियां उड़ाते एकाधिक बार देखा था। उस दुर्भाग्यपूर्ण गोलीकांड के दिन भी राजा महल के अंदर थे, जबकि पुलिस की घेराबंदी महल के बाहर थी। एक तरफ से तीर चल रहे थे, दूसरी ओर से गोलियां बरस रही थी। इस उथल-पुथल में सचमुच क्या हुआ, हर व्यक्ति अपने आग्रहों के अनुसार निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र है।
सर्वविदित है कि ग्वालियर की महारानी और मिश्रजी के बीच मधुर संबंध नहीं थे। सच तो यह है कि आजादी के बाद ग्वालियर परिवार ने अपने प्रभाव क्षेत्र में हिंदू महासभा को लगातार ताकत पहुंचाने का कार्य किया था, जिसके नेता वहां से बारंबार लोकसभा चुनाव जीतते रहे। श्रीमती सिंधिया मिश्रजी पर भी अपना रौब गालिब करना चाहती थीं जो उन्हें कबूल नहीं था। इसकी परिणति 38 विधायकों के दलबदल में हुई जिसमें अधिकतर या तो पुराने सामंत थे या सामंतों के अनुचर। उस समय विधानसभा में आरोप भी लगा कि विधायक खरीदने में जाली नोटों का इस्तेमाल किया गया है। इस पर जब मिश्रजी को विधानसभा के बाहर यह कहने की चुनौती दी गई तो उन्होंने खुलेआम आरोप दोहराया, लेकिन उसका कोई प्रतिवाद नहीं किया गया। कहा जाता है कि श्यामाचरण शुक्ल भी दलबदल की फिराक में थे लेकिन मिश्रजी ने उन्हें टेलीफोन अटेंड करने के बहाने अपने पास रोक लिया था। पं. मिश्र ने उस समय इंदिरा जी को सलाह दी थी कि उन्हें विधानसभा भंग करने की सिफारिश की अनुमति दी जाए लेकिन गृहमंत्री यशवंतराव चौहान ने ऐसा नहीं होने दिया। वे स्वयं दलबदल के माध्यम से उत्तर प्रदेश में दोबारा कांग्रेस का कब्जा करने की फिराक में थे। यह एक आत्मघाती कदम साबित हुआ, अन्यथा दलबदल का सिलसिला उसी दिन समाप्त हो गया होता। इस बीच एक रोचक घटनाचक्र छत्तीसगढ़ में सामने आया। 1962 के आम चुनाव में विद्याचरण शुक्ल ने डॉ. खूबचंद बघेल को महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया। उन पर चुनाव में कदाचरण के आरोप लगे और सिद्ध हुए। श्री शुक्ला 6 साल के लिए चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य घोषित कर दिए गए। लेकिन उस समय नियम ऐसे थे कि राज्य सरकार इसमें हस्तक्षेप कर सकती थी। मिश्रजी ने एक वर्ष के भीतर शुक्लजी की अपात्रता समाप्त कर दी। वे 1964 के उपचुनाव में पुरुषोत्तम कौशिक को पराजित कर फिर लोकसभा में पहुंच गए। एक तरह से मिश्रजी ने पंडित रविशंकर शुक्ल का गुरु ऋण उतार दिया।
ऐसी सामान्य धारणा है कि मिश्रजी बहुत अहंकारी थे। शायद रहे भी हों। वे किसी हद तक अंतर्मुखी और अत्यंत अध्ययनशील व्यक्ति थे, लेकिन मैं जितना समझ पाया, उन्होंने निजी संबंधों में छल -छद्म नहीं किया। इसका प्रमाण है कि जब वे मित्रों के लिए कुछ करने की स्थिति में आए तो उन्होंने अपने पुराने समाजवादी साथियों- ठाकुर निरंजनसिंह, डॉ खूबचंद बघेल, भवानीप्रसाद तिवारी को राज्यसभा भेजा। अर्जुन सिंह उनके प्रिय पात्र थे। जब श्री सिंह 1967 में चुरहट से हार गए तो मिश्रजी ने अपने एक अन्य विश्वस्त रुकमणी रमन प्रताप सिंह से इस्तीफा दिलवा और उनके स्थान पर उपचुनाव के द्वारा अर्जुन सिंह को विधानसभा में वापस लाए। मिश्र जी का बाबूजी पर स्नेह था; उन्हें राज्यसभा में लाना चाहते थे; फॉर्म भरने भी कह दिया, लेकिन बाद में स्वयं डॉ. राधाकृष्णन एवं के. कामराज के दबाव के कारण नागपुर के ए. डी. मणि को उम्मीदवार बनाना पड़ा। मिश्रजी ने बाबूजी से नाम वापस लेने को कह दिया, किंतु बाबूजी ने मना कर दिया। तुम हार जाओगे। मुझे पता है लेकिन अब नाम वापस नहीं लूंगा। वही हुआ। मिश्रजी यह भी चाहते थे कि बाबूजी अपनी मित्र मंडली समेत कांग्रेस में शामिल हो जाएं। बाबूजी, परसाईजी, अजय चौहान उर्फ बड़े भैया, हनुमान वर्मा आदि सभी मित्रों ने एक राय से मिश्रजी के ऑफर को खारिज कर दिया। यद्यपि इससे दोनों पक्षों के सौहार्द्रपूर्ण संबंधों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा।
द्वारिका प्रसाद मिश्र के इस दौर के कुछ और प्रसंग हैं। एक ओर मिश्रजी जहां सामंती ताकतों से लड़ रहे थे वहीं पार्टी के भीतर एक पूंजीमुखी वर्ग था, उसने भी उनकी राह में कांटे बिछाने में कोई कमी नहीं रखी। मूलचंद देशलहरा, बाबू तखतमल और महंत लक्ष्मीनारायण दास इस विरोधी समूह के कर्णधार थे। मिश्रजी 1963 में कसडोल क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे। उनके खिलाफ याचिका दायर की गई। यह राजनीति की विडंबना ही मानी जाएगी कि यहां भी उन्हें उन लोगों ने धोखा दिया जिन पर वे एतबार कर सकते थे। जिन पत्तों पे तकिया था, वे पत्ते हवा देने लगे।
मिश्रजी एक कुशल पत्रकार थे यह बात मैं पहले लिख चुका हूं। अप्रैल 1966 में बाबूजी के निमंत्रण पर अखिल भारतीय समाचार पत्र संपादक सम्मेलन का अभूतपूर्व राष्ट्रीय अधिवेशन पचमढ़ी में आयोजित हुआ तो मिश्रजी ने स्वागताध्यक्ष की भूमिका सहर्ष स्वीकार की थी। लेकिन उनके ही कार्यकाल में एक अवसर यह भी आया जब विरोधी गुट का माना जाने के कारण नई दुनिया इंदौर को सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए। इसकी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई। गनीमत थी कि यह गलती जल्द ही सुधार ली गई। जब वे मुख्यमंत्री बनकर भोपाल पहुंचे तब उनके ज्येष्ठ पुत्र अवधेश मिश्र की हमीदिया अस्पताल के सामने जानकी डिस्पेंसरी नाम से दवा की दुकान थी। मुख्यमंत्री ने अपने बेटे की पहले से चल रही दुकान बंद कर भोपाल छोडऩे के लिए कह दिया। जिससे उनके ऊपर कोई लांछन न लग सके। अवधेशजी ने पहले सागर फिर जबलपुर में नर्मदा फार्म इक्विपमेंट नाम से ट्रैक्टर की एजेंसी ली, परंतु सफल नहीं हो पाए। तिस पर त्रासदी ऐसी हुई कि अपने मित्र, जबलपुर विवि के कुलसचिव, रवि त्रिपाठी के बेटे के साथ बेटी के विवाह के समय उनका निधन हो गया। गोया वे इस क्षण की ही प्रतीक्षा कर रहे थे।
आखिरी बात। मिश्रजी 1962 से 1972 तक इंदिराजी के विश्वासपात्र रहे। 1971 के लोकसभा चुनाव के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल में किसको लिया जाएगा, इस पर ”आनंद बाजार पत्रिकाÓÓ के राजनीतिक संवाददाता ध्रुव गुप्त की रिपोर्ट छपी- मंत्रिमंडल की सूची या तो भगवान के पास है या द्वारिका प्रसाद मिश्र के पास। (अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
उस दिन मैंने सुबह-सुबह बंबई से रायपुर आने के लिए गीतांजलि एक्सप्रेस पकड़ी थी। शायद 78-79 की बात होगी। नई-नई ट्रेन चली थी और आरक्षण मिलना अपेक्षाकृत आसान था। शाम 7 के बजे के आसपास ट्रेन नागपुर पहुंची। ऊंचे-पूरे सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी एक यात्री ने मेरी बोगी में प्रवेश किया। टीटीई उनके पीछे-पीछे आ रहा था। यात्री ने बर्थ के रेक्जीन को छूकर देखा। टीटीई की तरफ प्रश्न उछाला, ‘इससे बेहतर बर्थ नहीं है?Ó
– ‘जी, इस ट्रेन में सभी डिब्बे 3- टियर हैं, और कोई श्रेणी नहीं है।Ó
‘ठीक है, रायपुर तक जाना है, किसी तरह चले जाएंगे।Ó
‘सर, टिकट बना दूं?Ó
‘हां, बना दो।Ó फिर उन्होंने अपने कुरते और जैकेट की जेब टटोली, खाली थी।
‘तुम रायपुर तक चल रहे हो?Ó टीटीई से पूछा।
‘जी, बिलासपुर तक जाऊंगा।Ó
‘तब ठीक है, रायपुर में पैसे ले लेना।Ó
रात करीब एक बजे ट्रेन रायपुर पहुंची। उन्हें लेने पांच-सात लोग आए थे, उनमें से किसी ने टिकट के पैसे चुकाए। मैं उन सज्जन को जानता था। वे भी मुझे अच्छे से जानते थे। लेकिन मैं जानबूझ कर दूर बैठा दर्शक बना हुआ था।
वे श्यामाचरण शुक्ल थे। तब तक मध्यप्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके थे। उनके स्वभाव में एक तरफ नफासत थी, दूसरी तरफ फक्कड़पना भी था। वे नाराज भी जल्दी होते थे और उतनी ही जल्दी पिघल भी जाते थे। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा असीमित तो थी, लेकिन मध्यप्रदेश के आकाश तक। उन्होंने दिल्ली जाने का ख्याल कभी नहीं रखा। उन्हें लोगों से मिलने-जुलने में आनंद आता था, लेकिन जनता को ‘दर्शनÓ देने की सामंती ठसक भी उनमें थी। शुक्ल जी नागपुर के विधि महाविद्यालय में बाबूजी से एक साल जूनियर थे और कम्युनिस्ट नेता ए बी बर्धन उनके सहपाठी थे। रविशंकर शुक्ल के मुख्यमंत्री रहते हुए भी बर्धनजी ने शुक्लजी को विवि छात्रसंघ चुनाव में पराजित किया था। जब श्री बर्धन मुख्यमंत्री के पास छात्रसंघ के शपथग्रहण के लिए मुख्य अतिथि का न्यौता देने गए तो निमंत्रण उन्होंने स्वीकार कर लिया था। यह सीनियर शुक्ल जी की उदारता थी कि बच्चों की राजनीति में बड़े क्यों हस्तक्षेप करें! यह उदारता श्यामाचरण जी में भी किसी न किसी रूप में आई।
मैं अनेक दृष्टियों से श्यामाचरणजी का सम्मान करता रहा हूं- मुख्यमंत्री, आयु, बाबूजी के सहपाठी, निर्मल हृदय आदि। इसके बावजूद उनके साथ कभी-कभार मेरी टकराहट हुई, लेकिन कभी लंबी नहीं खिंची। इस लेख माला के प्रथम खंड में मैं लिख चुका हूं कि 1969 में नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर मैंने रायपुर में एक मुहिम छेड़ दी थी, जिसकी शिकायत उन्होंने बाबूजी से की थी कि ललित मेरे खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। लेकिन इस बात को उन्होंने मन में नहीं रखा। एक लंबे अर्से बाद जब शुक्लजी कांग्रेस से निष्कासित रहने के बाद पार्टी में वापस लौटे, और रायपुर में उनके जोरदार स्वागत की तैयारी शुरु हुई, उसी दिन मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी, जो शुक्ल जी के रिश्तेदार भी थे, ने जाने किस भ्रम में गलत खबर छाप दी कि उनका रायपुर आना स्थगित हो गया है। इस खबर से देशबन्धु की साख पर आंच आनी ही थी, शुक्लजी के स्वागत समारोह के फीके पड़ जाने की आशंका भी थी। बहरहाल, वे निर्धारित समय पर रायपुर आए। मेरी अगले दिन ही शाम को चाय पर मुलाकात तय हुई। हम बातें कर ही रहे थे कि उनके सुपुत्र अमितेश ने कमरे में प्रवेश किया और गलत खबर के बारे में शिकायत की। शुक्लजी ने शांत स्वर में एक वाक्य में बेटे को चुप किया। बड़ों के बीच में नहीं बोलते हैं, तुम बाहर जाओ। मैं जब वर्तमान में राजनेताओं के व्यवहार को देखता हूं तो इस प्रसंग से तुलना करने का अनायास मन हो जाता है।
पं.रविशंकर शुक्ल का निधन 31 दिसम्बर 1956 को हुआ। कुछ ही सप्ताह बाद आम चुनाव होने थे। श्यामाचरण को विधानसभा और विद्याचरण को लोकसभा का टिकट मिला। दोनों ने जीत दर्ज की। 2007 में दोनों भाइयों की राजनीति को 50 साल पूरे हुए। उनके साथ अर्जुन सिंह और जमुना देवी के भी 5 दशक पूरे हुए। मैंने तब दोनों भाइयों के राजनैतिक सफर पर एक लेख लिखा था। जो देशबन्धु लाइब्रेरी में पुरानी फाइलों में देखा जा सकता है। श्यामाचरण जी के बारे में बात करते हुए कुछ बातें याद आती हैं। एक तो छत्तीसगढ़ के प्रखर समाजवादी नेता वी वाय तामस्कर इन दोनों भाईयों को छत्तीसगढ़ की राजनीति के दो राजकुमार कहकर संबोधित करते थे। देशबन्धु के संपादक पं.रामाश्रय उपाध्याय जब-तब अपने कॉलम में इसी उपमा का प्रयोग कर शुक्ल बंधुओं की आलोचना कर देते थे। श्यामाचरण जी ने इस बात का बुरा नहीं माना लेकिन कभी-कभार वे बेहद मामूली बात का भी बुरा मान बैठते थे। मसलन किसी दिन नवभारत में उनका बयान पहले पेज पर या फोटो सहित छपा, दूसरी ओर देशबन्धु में आखिरी पेज पर या बिना फोटो के छपा तो वे मुझे फोन करके शिकायत करते थे। ललित, आजकल तुम्हारे पेपर में ठीक से रिपोर्टिंग नहीं हो रही है।
इसी तरह कभी कम्युनिस्ट विधायक सुधीर मुखर्जी का वक्तव्य प्रथम पेज पर और उनका आखिरी पेज पर छप जाए तो भी वे बुरा मान जाते थे। ऐसे समय में उनसे इतना कहना पर्याप्त होता- ठीक है, देख लूंगा, आगे से गलती नहीं होगी। और वे संतुष्ट हो जाते थे। दिलचस्प तथ्य है कि वे फोन मुझे करते थे लेकिन हमेशा पूछते बाबूजी के बारे में थे। ललित, मायारामजी हैं? जी, वे तो रायपुर से बाहर हैं। बंबई गए हैं, इत्यादि। अच्छा ठीक है, फिर तुमसे ही बात कर लेता हूं। यह बड़प्पन जताने का उनका अपना तरीका था। मैं इस मासूम अदा पर मन ही मन मुस्कुराने के अलावा और क्या कर सकता था? उन्हें अपने राजनीतिक कद का भरपूर अहसास था और इसे व्यक्त करने से वे कभी नहीं चूकते थे। वे तीन बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और बात-बात में कोई बात पसंद न आने पर वे अफसरों को सीधे कहते थे- मैं चौथी बार मुख्यमंत्री बनकर आऊंगा, तब तुम लोगों के दिमाग ठिकाने लगाऊंगा। अफसर भी जानते थे कि इस बात को कितनी गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए।
मेरे बुजुर्ग मित्र डॉ. रामचंद्र सिंहदेव ने मध्यप्रदेश के सात मुख्यमंत्रियों के साथ मंत्रिमंडल में काम किया। उनके संस्मरण ‘सुनी सब की, करी मन कीÓ देशबन्धु में छपे हैं। वे कहते थे- श्यामाचरण के पास प्रदेश के विकास की जो दृष्टि है, वह किसी अन्य के पास नहीं है। इस आकलन से शायद ही कोई असहमत होगा। श्री शुक्ल जानते थे कि प्रदेश में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के बिना किसान और आम आदमी की आर्थिक बेहतरी का और कोई उपाय नहीं है। उन्होंने अपने कार्यकाल में इस दिशा में भरपूर ध्यान दिया। प्रदेश में जगह-जगह बड़े-छोटे बांध बने। इस मामले में उनकी दृष्टि एक इंजीनियर की थी, यानी जो योजनाएं हाथ में ली गईं, उनका बाकायदा अध्ययन किया गया। कहीं भी कुछ भी कर देना है, ऐसा नहीं था। इसका एक अपवाद ध्यान में है। तेजी से बढ़ते इंदौर शहर की जलापूर्ति के लिए उन्होंने नर्मदा का पानी इंदौर पहुंचाने की योजना भी बनाई। इस तरह अपनी ससुराल को एक तोहफा दिया। उनके इस निर्णय से इंदौर को फौरी राहत मिली, लेकिन योजना तकनीकी रूप से दीर्घकालीन लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। उनके विचारों में कभी-कभी पुरातनपंथी सोच भी न•ार आती थी। छत्तीसगढ़ और झारखंड को सड़क मार्ग से जोडऩे के लिए जशपुर के आगे शंख नदी पर पुल बनना था, जिसे उन्होंने वर्षों नहीं बनने दिया कि बिहार के लोग मध्यप्रदेश आकर अपराध करेंगे और पुल पार कर भाग जाएंगे। यह पुल न बनने से दोनों तरफ के नागरिकों को कितनी असुविधाएं होती रही होंगी, इस बारे में उन्होंने सोचना जरूरी नहीं समझा।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
श्यामाचरण शुक्ल के अंतर्विरोधों से भरे लेकिन बुनियादी तौर पर उदार व्यक्तित्व की एक घटना का वर्णन कर हम आगे बढ़ेंगे। 1970 में वे मुख्यमंत्री के रूप में जबलपुर आए थे। छात्रों का आंदोलन चल रहा था। छात्रों ने रास्ते में उनका काफिला रोकने की कोशिश की। पुलिस ने भारी बल का प्रयोग किया। शरद यादव व रामेश्वर नीखरा सहित अनेक नेता बुरी तरह जख्मी हुए। शहर में उत्तेजना का वातावरण बन गया। छात्र हित में बाबूजी को आगे आना पड़ा। मुख्यमंत्री के नाम बाबूजी का पत्र लेकर छात्र भोपाल गए। दोषी पुलिस वालों पर कार्रवाई हुई। विद्यार्थियों पर लगे मुकदमे वापस हुए। उनकी अधिकतर मांगें जायज थीं जो मान ली गईं। यही वह क्षण था जहां से शरद यादव व रामेश्वर नीखरा का राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण हुआ। रामेश्वर नीखरा कांग्रेस से चार बार लोकसभा सदस्य और कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने।
श्री शुक्ल की यह खासियत थी कि उन्हें सारे मध्यप्रदेश में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। एक समय ऐसा आया जब प्रदेश की राजनीति में एक तरह से मध्यभारत का वर्चस्व और महाकौशल का पराभव हो गया। द्वारिका प्रसाद मिश्र एक भूली हुई कहानी बन चुके थे। शरद यादव जबलपुर छोड़ चुके थे। रामेश्वर नीखरा और कर्नल अजय मुश्रान को प्रदेशव्यापी स्वीकृति नहीं मिल सकी थी। और कमलनाथ धनकुबेरोचित अपने फैन क्लब बनाने जैसे चोचलों में ही व्यस्त थे। तब जबलपुर के मित्रों ने मुझसे कहा कि मैं शुक्लजी से जबलपुर आकर चुनाव लडऩे को कहूं ताकि संस्कारधानी को उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नेतृत्व मिल सके। शुक्लजी के पास मैं यह संदेश लेकर गया लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ अलग प्रदेश बन गया था और वे मध्यप्रदेश जाने तैयार नहीं थे। वे उस समय अपने अनुज से चालीस साल पुराना अलिखित अनुबंध तोड़ महासमुंद से लोकसभा सदस्य थे और इस स्थिति से बहुत प्रसन्न नहीं थे। प्रसंगवश ध्यान आता है कि उन्हें 1967 में टिकटों के वितरण में सोशल इंजीनियरिंग यानी सामाजिक समीकरणों का बखूबी प्रयोग करते हुए भी देखा है। इसके विस्तार में जाने की अभी आवश्यकता नहीं है।
पंडित रविशंकर शुक्ल के सभी पुत्र स्वाधीनता संग्राम के दौर से ही एक के बाद एक राजनीति में आए। उनकी सबसे बड़ी बेटी की बेटी यानी नातिन राजेंद्र कुमारी बाजपेयी भी एक समय कांग्रेस के बड़े नेताओं में गिनी जाती थीं। वे इंदिराजी की विश्वासभाजन थीं। उनके बेटे अशोक बाजपेयी भी उत्तर प्रदेश में विधायक, मंत्री आदि बने; तथापि संसदीय राजनीति में पांच दशक से अधिक समय बिताने का दुर्लभ अवसर श्यामाचरण और विद्याचरण को ही मिला। दोनों भाइयों ने आपस में समन्वय करते हुए अपने-अपने क्षेत्र बांट लिए थे। दोनों को पर्याप्त महत्व एवं सम्मान भी मिला। इसके बावजूद दोनों को अपनी-अपनी सुदीर्घ पारी में अनेक उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा। कहना कठिन है कि ऐसा अपनी शर्तों पर राजनीति करने के कारण हुआ या कभी परिस्थितियों का सही आकलन न कर पाने के कारण या फिर आत्मविश्वास के अतिरेक के कारण। 1969 में संविद सरकार गिरने के बाद जब श्यामाचरण को पहली बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला तब किसी ने कल्पना न की थी कि 3 साल के भीतर उन्हें पद छोडऩा पड़ेगा। उनके मंत्रिमंडल में तीन-चार ऐसे सदस्य थे जिनके ऊपर गंभीर आरोप थे। कांग्रेस हाईकमान से उन्हें हटाने के संकेत भेजे गए जिनकी शुक्ल जी ने अनदेखी कर दी। परिणामत: इंदिरा गांधी ने उन्हें हटाकर प्रकाश चंद्र सेठी को मुख्यमंत्री बनाकर मध्यप्रदेश भेज दिया। शुक्ल जी की हठधर्मिता के बावजूद इंदिराजी का यह निर्णय हमें इसलिए पसंद नहीं आया था क्योंकि इसमें कांग्रेस विधायक दल को विश्वास में न लेकर संसदीय परंपरा का उल्लंघन किया गया था। इस पर देशबन्धु में बाकायदा संपादकीय टिप्पणी लिखी गई।
श्री शुक्ल को आपातकाल के दौरान दोबारा मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला जब सेठीजी को इंदिरा जी ने केंद्र में दोबारा बुला लिया। इस दौर में अन्य तमाम कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की तरह शुक्ल जी ने भी अपने सारे अधिकार मानो केंद्रीय सत्ता के हाथ सौंप दिए। यद्यपि इतना कहना होगा कि उन्होंने नारायण दत्त तिवारी अथवा हरिदत्त जोशी की तरह अपनी गरिमा को ताक पर नहीं रखा। जब 20 सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत चुंगी कर (आक्ट्राय) हटाने का प्रस्ताव रखा गया तो मध्यप्रदेश पहला और इकलौता राज्य था जिस ने आनन-फानन में सबसे पहले चुंगी कर समाप्त कर दिया। इसका राज्य की वित्तीय स्थिति पर क्या असर पड़ेगा इसका विचार ज्यादा नहीं किया गया। इसी तरह नसबंदी कार्यक्रम को सफल बनाने में भी शुक्ल सरकार ने अतिरिक्त उत्साह के साथ भाग लिया। जिन आदिवासी क्षेत्रों में, जिनमें स्वयं मुख्यमंत्री का क्षेत्र शामिल था, यह कार्यक्रम नहीं चलाया जाना था वहां भी अधिकारियों ने नियमों की अनदेखी कर दी। 1977 के विधानसभा चुनाव में अपनी परंपरागत सीट राजिम से श्री शुक्ल चुनाव हार गए क्योंकि उस अंचल के आदिवासियों ने नसबंदी की ज़्यादतियों के कारण उनसे मुंह मोड़ लिया। देश प्रदेश में जनता पार्टी सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस लगभग एक साल तक सदमे में रही। जब पार्टी ने नए सिरे से खुद को संभालना शुरू किया तब हारे हुए मुख्यमंत्री एक तरह से हाशिए पर चले गए।
याद आता है कि कांग्रेस ने अखिल भारतीय स्तर पर महंगाई विरोधी आंदोलन का आह्वान किया था। विधानसभा में विपक्ष के नेता अर्जुनसिंह रैली को संबोधित करने में रायपुर आए थे। श्यामाचरण इसमें बेमन से शामिल हुए। रायपुर के कंकालीपारा चौक से अर्जुनसिंह रैली बीच में छोड़कर भाटापारा की रैली में शामिल होने चले गए। उनके पीछे-पीछे बाकी कांग्रेसी भी। बहुत देर तक श्यामाचरण अपने वाहन के इंतजार में अकेले खड़े रहे। किसी ने उनसे बात तक नहीं की। कुछ समय बाद मौजीराम मुरारीलाल फर्म के मोहनलाल अग्रवाल अपने स्कूटर से वहां से गुजरे तो शुक्लजी को देखकर रुके और वहीं पास में शिवकुमार चौधरी के कुमार मेडिकल स्टोर में उन्हें ले जाकर बैठाया। मैं चौक पर खड़े-खड़े यह दृश्य देख रहा था।
(अगले सप्ताह जारी)
ललिच सुरजन
आज यह बात शायद बहुत लोगों को पता नहीं होगी कि श्यामाचरण और विद्याचरण दोनों शुक्ल बंधु पत्रकारिता में अपने हाथ आजमा चुके थे। पंडित रविशंकर शुक्ल ने नागपुर से अंग्रेजी दैनिक नागपुर टाइम्स शुरू किया था जिसके प्रथम संपादक प्रखर बुद्धिजीवी भवानी सेनगुप्ता ने चाणक्य सेन के छद्म नाम से मूल बांग्ला में ‘मुख्यमंत्रीÓ शीर्षक चर्चित उपन्यास लिखा था। पुराने मध्यप्रदेश अर्थात सी पी एंड बरार की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को यह उपन्यास पढऩा चाहिए। शुक्लजी ने इसके अलावा ‘महाकौशलÓ टाइटिल से साप्ताहिक पत्र भी स्थापित किया था जिसे आगे चलकर श्यामाचरणजी ने ही दैनिक का स्वरूप प्रदान किया। वे उसके प्रधान संपादक भी थे। 1956 से 59 के बीच महाकौशल छत्तीसगढ़ का एकमात्र दैनिक पत्र था। इस अखबार में कार्यकारी संपादक के रूप में एक से अधिक प्रबुद्ध संपादकों ने भूमिका निभाई। अनेक रचनाकारों को महाकौशल ने ही लेखक बनाया। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में उलझे श्री शुक्ल ने अखबार की ओर यथावश्यक ध्यान नहीं दिया। बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि पत्र को उन्होंने अपनी अहंकार पुष्टि का साधन बना लिया।
रो•ा दर रो•ा उन्हीं के फोटो, उन्हीं के बयान, विरोधियों की अनावश्यक आलोचना। पाठक कब तक ऐसे एकपक्षीय पत्र को पसंद करते? एक लंबे समय बाद पत्र जगत में एक लगभग अनहोनी और विचित्र घटना हुई जब श्यामाचरण शुक्ल ने अपने प्रतिस्पर्धी अखबार नवभारत के संपादक गोविंद लाल वोरा को महाकौशल का संपादन एवं प्रबंधन दोनों सौंप दिया। ऐसा उन्होंने क्या सोचकर किया, किसी के पल्ले नहीं पड़ा। वोरा जी ने भी यह करतब कैसे संभव किया, यह भी एक पहेली ही है। कुल मिलाकर यही हुआ कि शनै: शनै: महाकौशल पाठकों के दिल-दिमाग से पूरी तरह उतर गया। गुरुदेव चौबे काश्यप जैसे प्रखर व सजग पत्रकार के संपादक के पद पर रहते हुए भी कुछ न हो सका। वे रायपुर छोड़ अपने गृहनगर रायगढ़ चले गए। आपातकाल के दौरान अखबार को राज्य सरकार के विज्ञापन भी मनमाने ढंग से मिल रहे थे। उससे हुई अकूत आमदनी का हिसाब शायद शुक्लजी तक पहुंचा ही नहीं। उन्हें शायद इसकी परवाह भी नहीं थी।
श्री शुक्ल ने 1957 में विधानसभा में प्रवेश किया और 12 वर्ष बाद मुख्यमंत्री बने। उस दौरान देश-प्रदेश की राजनीति में यह निरापद समय था। उनकी महत्वाकांक्षा और नेतृत्व के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के दो खेमे अवश्य थे जिसमें शुक्लजी डीपी मिश्र के खेमे में थे। यह सामान्य अपेक्षा थी कि वह अपने पिता के सहयोगी मिश्र जी के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगे किंतु स्वयं श्री शुक्लजी को यह रास्ता मंजूर नहीं था। 1967 के विधानसभा चुनाव के पहले डीपी मिश्रा ने अपने कुछ भावी मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के नामों की घोषणा कर दी थी। इनमें छत्तीसगढ़ से दो प्रमुख नाम थे। राजनांदगांव के किशोरी लाल शुक्ल और रायपुर के बुलाकी लाल पुजारी। पुजारी जी बड़े वकील और रायपुर नगरपालिका अध्यक्ष थे। मिश्रजी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में वे प्रदेश के अगले विधि मंत्री होंगे, यह बात जगजाहिर थी। कांग्रेस के दूसरे खेमे में पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष और निवर्तमान विधायक शारदा चरण तिवारी थे। वे सेठियाई ग्रुप के साथ थे। उनका जब टिकट कट गया तब उन्होंने एक नई पार्टी का सहारा लिया। शुक्ल बंधुओं को पुजारीजी के नेतृत्व के उभार से अपना भविष्य संकटमय न•ार आने लगा। वे पार्टी उम्मीदवार का सीधा विरोध तो कर नहीं सकते थे। लेकिन स्थानीय प्रशासन की मदद से ऐसा खेल खेला गया जिसमें शारदा चरण तिवारी को जनता की सहानुभूति प्राप्त हुई और वे चुनाव जीत गए। डीपी मिश्र जैसे कूटनीतिज्ञ भी इस दुरभिसंधि को समय रहते नहीं समझ पाए।
कांग्रेस की प्रादेशिक राजनीति में भी श्यामाचरण शुक्ल और अर्जुन सिंह लगातार विपरीत ध्रुवों पर बने रहे। शुक्लजी ने अर्जुनसिंह को कभी अपने मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया। जब 1980 में कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनने की स्थिति बनी तो श्री शुक्ल ने आदिवासी कार्ड खेलते हुए शिवभानु सिंह सोलंकी को अपने खेमे से उम्मीदवार घोषित किया, यद्यपि हाईकमान की मर्जी के अनुसार अर्जुनसिंह ही अंतत: चुने गए। शुक्ल जी इस हार को नहीं पचा पाए। उनके लगातार विद्रोही तेवरों को देखते हुए हालात यहां तक पहुंचे कि उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। वे इसके बाद लगभग ग्यारह साल तक राजनैतिक बियाबान में भटकते रहे। लेकिन यह लिखना आवश्यक होगा कि वे इस पूरे दौरान कांग्रेस वापसी की कोशिश में ही लगे रहे। किसी अन्य दल का दामन थामना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ।
श्यामाचरण शुक्ल सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी तो थे ही, उनमें एक नफासत भी थी। अनेक वर्ष पहले मैंने मौलाना आ•ााद का एक ललित निबंध पढ़ा था, जिसमें बड़े दिलचस्प अंदा•ा में बताया गया था कि चाय कैसे पी जाना चाहिए। बोन चाइना के बारीक ओंठों जैसी किनार, केटली में गरम पानी, उसमें चाय की पत्ती निश्चित रंग आते तक उबलती हुई, शक्कर के क्यूब आदि। श्यामाचरणजी का चाय पीने-पिलाने का अंदा•ा भी कुछ ऐसा ही था। साथ में घर के बने नमकीन। मुझे उनके साथ कई बार चाय पीने का मौका मिला। मैं कह सकता हूं कि उनके जैसे सलीके से चाय पिलाने वाले सिर्फ एक ही अन्य नेता को देखा। वे थे इंद्र कुमार गुजराल।
एक जननेता होने के नाते शुक्लजी को प्रतिदिन सैकड़ों लोगों से मिलना होता था लेकिन इसके लिए उनका कोई टाइम टेबल नहीं था। उनके निवास पर मजमा लगता था और दर्शनार्थियों को 3-3 घंटों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। फिर भी कुछ तो उनके व्यक्तित्व में चुंबकीय आकर्षण था कि लोग इस अराजकता को खुशी-खुशी बर्दाश्त कर लेते थे। श्री शुक्ल जब दौरे पर जाते थे तो उनके कुर्ते या जैकेट की जेब में थ्रेप्टिन बिस्किट की डब्बी बिला नागा रहती थी। यहां-वहां भोजन करने की बजाय वे इन प्रोटीन-रिच बिस्किटों से अपनी क्षुधा शांत कर लेते थे। श्री शुक्ल एक प्रशिक्षित पायलट भी थे। उन्हें लोगों ने छोटा हवाई जहाज उड़ाते देखा है। उन्हें जब नियमित विमान सेवा से रायपुर से दिल्ली अथवा भोपाल जाना होता था तो वह घर पर प्रतीक्षा करते रहते थे। विमान की लैंडिंग हो जाने के बाद उनका काफिला घर से निकलता था। इस कारण से फ्लाइट लेट होती हो तो हो और यात्री परेशान हो तो अपनी बला से। इसके बावजूद वे उदार हृदय के व्यक्ति थे, जिसकी जेब से आप आखिरी रुपया तक निकलवा सकते थे। प्रदेश के विकास के लिए वे तार्किक और योजनाबद्ध तरीके से सोचा करते थे। केंद्र सरकार की नई औद्योगिक नीति के एक प्रावधान का लाभ उठाते हुए उन्होंने रायपुर के निकट धरसीवा गांव को विकास खंड बना उसे पिछड़े क्षेत्र का दर्जा देकर रायपुर के औद्योगिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जहां तक मुझे ध्यान है प्रदेश के तमाम बड़े शहरों के मास्टर प्लान भी उनके पहले कार्यकाल में बने। रायपुर के मास्टर प्लान का अध्ययन करने का मौका मुझे मिला। ऐसा नहीं कि उसमें कमियां नहीं थीं, फिर भी वह एक अग्रगामी सोच का दस्तावे•ा था। अंत में यही कहूंगा कि श्यामाचरण शुक्ल के अवदान का विधिवत मूल्यांकन होना अभी बाकी है।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
नैनीताल में शहर से लगभग बाहर हनुमानगढ़ी के पास दो कमरों का एक साधारण सा मकान था, जो हमने गर्मी की छुट्टियां बिताने किराए पर ले रखा था। किराया मात्र 5 रुपए प्रतिदिन। यह 1962 की बात है। एक दिन बाबूजी ने एक संदेश लिखा, मुझे आदेश हुआ तारघर जाकर इसे भेज दूं। यह तार प्रकाशचंद सेठी को बधाई देने के लिए था, जिन्हें उस दिन पं. नेहरू ने उपमंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। बाबूजी का सेठीजी के साथ काफी पुराना परिचय था, शायद तब से जब वे कांग्रेस की ओर से संगठन चुनाव में पर्यवेक्षक बनकर जबलपुर आए थे। खैर बात आई-गई हो गई। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में उनके राजनैतिक महत्व का पता तब चला, जब 1972 में सेठी जी को अचानक ही मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर भोपाल भेज दिया गया। उनके आने के कुछ दिन बाद ही एक दिलचस्प वाकया हुआ। मध्यप्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी बदस्तूर पचमढ़ी में लगा करती थी। संयोग से कई साल बाद बाबूजी भी पूरे कुनबे सहित पचमढ़ी में छुट्टी बिता रहे थे। मैं रायपुर में था। स्वाभाविक था कि बाबूजी नए मुख्यमंत्री एवं अपने पूर्व परिचित से मुलाकात करते। मुलाकात का समय निर्धारित हो गया। लेकिन दिल्ली से आया स्टाफ शायद बाबूजी को नहीं जानता था। यह पचमढ़ी में बाबूजी का आखिरी दिन था। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद वे लौट आए और पिपरिया के लिए रवाना हो गए। आधी रात को पिपरिया में घर के बाहर पुलिस की गाड़ी रुकी, सेठीजी के निजी सचिव पिपरिया के थानेदार के साथ ढूंढते-ढांढते हमारे घर आ गए। आप अभी पचमढ़ी वापस चलिए, सुबह सीएम से मिल लीजिए, वर्ना मेरी नौकरी चली जाएगी। उन्हें बाबूजी ने आश्वस्त कर वापस भेजा। सुबह वापस पचमढ़ी गए और सेठीजी से मिलकर वापस लौटे। अगले चार सालों के दौरान उन लोगों के बीच न जाने कितनी मुलाकातें हुईं होंगी।
प्रकाशचंद सेठी की कार्यप्रणाली और व्यक्तित्व अन्य राजनेताओं से अलग ही था। वे विगत 15 वर्षों से केंद्र की राजनीति में थे, जिसमें से 10 वर्ष मंत्री के रूप में काम करते बीत चुके थे। मध्यप्रदेश कांग्रेस में ऐसे कम लोग थे, जो उनसे निकटता का दावा कर सकते थे। नतीजतन उनके इर्द-गिर्द भीड़ इक_ा नहीं होती थी। वे कोई भी विषय हो, निर्णय लेने में विलंब नहीं करते थे। यह तो मैंने देखा है कि सुबह जो फाइलें उनके पास आती थीं, शाम तक उनका निपटारा हो जाता था। वे भोपाल से बाहर जब ट्रेन से जाते थे, तब भी फाइलों का निपटारा करते जाते थे। सेठीजी अपने अफसरों को खुलकर अपनी राय देने के लिए प्रोत्साहित करते थे। जबकि अंतिम निर्णय उनका अपना होता था। उनके भोपाल आने के बाद प्रदेश कांग्रेस में नए सिरे से दो गुट बन गए। एक शुक्ल बंधुओं का, दूसरा सेठी समर्थकों का। छत्तीसगढ़ से एआईसीसी के सदस्य इंदरचंद जैन उनके विश्वस्त लोगों में से थे जिनके साथ उनका पुराना परिचय था। मेरा अनुमान है कि प्रदेश में पार्टी फंड या चुनाव फंड इक_ा करने में इंदरचंद जी की प्रमुख भूमिका होती थी। दूसरी तरफ मैंने यह भी सुना था कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने इंदौर में अपने दामाद (शायद अशोक पाटनी उनका नाम था) को प्रदेश छोड़ बंबई या कहीं और जाकर व्यापार करने की सलाह दी थी, जिससे रिश्तेदारी के चलते उन पर कोई लांछन लगने की नौबत न आए। छत्तीसगढ़ में शुक्ल बंधुओं के वर्चस्व के कारण अनेक कांग्रेसजन घुटन महसूस करते थे, उन्हें पार्टी में अपने लिए संभावनाएं नजर नहीं आती थी। ऐसे अनेक लोग स्वाभाविक तौर पर सेठीजी के साथ जुड़ गए थे। मैं इनमें से प्रमुख रूप से रायपुर के अमरचंद बैद का नाम लेना चाहूंगा। वे प्रगतिशील विचारों वाले प्रबुद्ध व्यापारी थे और हमेशा लोगों की मदद के लिए तैयार रहते थे। अमरचंद जी अच्छी किताबें खरीदते व पढ़ते थे। उन्होंने निजी लाइब्रेरी बना रखी थी। सेठीजी के कार्यकाल में उनका काफी दबदबा हो गया था। लेकिन अपनी हैसियत का उन्होंने दुरुपयोग किया हो, ऐसा कोई प्रकरण प्रकाश में नहीं आया।
सेठीजी को गुस्सा बहुत जल्दी आता था। ऐसा कहा जाता है कि वे नर्वस ब्रेकडाउन के मरीज थे और बीच-बीच में अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे। इसे लेकर कई किस्से प्रचलित हुए। जितना सच था, उससे ज्यादा उनके विरोधियों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो भी निर्णय लिए, उनमें ऐसी कोई बात नहीं दिखी। मुख्यमंत्री पद संभालने के कुछ दिन बाद रायपुर प्रवास के दौरान उन्होंने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक केसी बाजपेयी को खड़े-खड़े सस्पेंड कर दिया था, जिसे लेकर उनकी आलोचना हुई थी। इस तरह के कुछ और अन्य प्रसंग भी रहे होंगे। इन प्रसंगों को एक लंबी पारी में अपवाद ही मानना चाहिए। मुझे उनका एक अलग तरह का प्रसंग याद आता है। शायद खंडवा में लोकसभा चुनाव होना था। इसके लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ के राइस किंग कहे जाने वाले नेमीचंद श्रीश्रीमाल से आर्थिक सहयोग की अपेक्षा की थी। नेमीचंद जी शुक्ल गुट के थे, सो उन्होंने सेठीजी के संदेश की उपेक्षा कर दी। इसके कुछ समय बाद सेठीजी का महासमुंद दौरा हुआ। नेमीचंद जी ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया जिसे सेठीजी ने ठुकरा दिया। कुछ देर बाद वे वापसी के लिए हेलीकाप्टर में बैठे और उडऩे के पहले ही अपना टिफिन खोला और भोजन आरंभ कर दिया। हैलीपेड पर उपस्थित लोगों को जो संदेश जाना था, वो चला गया। सेठीजी के मुख्यमंत्री काल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कम से कम दो बार छत्तीसगढ़ आईं। 1972 में अबूझमाड़ और 1973 में कोरबा। इन दोनों अवसरों पर मुझे रिपोर्टिंग का मौका मिला। जबलपुर के लोकसभा सदस्य सेठ गोविंददास का निधन सन् 1974 में हो गया, उसी समय भोपाल के लोकसभा सदस्य शाकिर अली खान भी नहीं रहे। इन दोनों स्थानों पर उपचुनाव होने थे, ये समय था, जब जेपी आंदोलन अपने प्रखर रूप में था। जबलपुर में संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार शरद यादव ने सेठ गोविंददास के पौत्र रविमोहन को पराजित किया। भोपाल में बाबूलाल गौर के हाथों स्वाधीनता सेनानी भाई रतनकुमार जी को हार का सामना करना पड़ा। रतन कुमार जी उस समय देशबन्धु भोपाल के संपादक थे। उन्हें टिकट मिलने का यह भी एक कारण था।
देशबन्धु का तीसरा संस्करण जुलाई 1974 में भोपाल से प्रारंभ हुआ था, जिसके चलते बाबूजी का समय मुख्यत: भोपाल में ही बीतता था। यह एक वजह थी, जिसके कारण मेरा सेठीजी के साथ प्रत्यक्ष संवाद लगभग नहीं के बराबर था। वे जब भी कभी छत्तीसगढ़ दौरे पर आते थे, तब उन्हें नमस्कार करने की औपचारिकता निभा लेता था। इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल की घोषणा की थी, तब सेठीजी ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके निर्देश पर ही संघ का अखबार युगधर्म बंद कर दिया गया था। लेकिन जब बाबूजी ने उनसे मिलकर एक अखबार के बंद होने का विरोध किया तो सेठीजी बाबूजी के तर्कों से सहमत हुए और ठीक 90 दिन बाद प्रतिबंध उठा लिया गया।
किसी अन्य राज्य में आपातकाल के दौरान किसी विपक्षी और खासकर संघी अखबार पर हुई कार्रवाई को पलट देने का शायद एकमात्र प्रशासनिक निर्णय था। इससे यह संकेत भी मिलता है कि इंदिरा गांधी और प्रकाशचंद सेठी के बीच विश्वास कितना गहरा था। 1980 के लोकसभा चुनाव के पहले सेठीजी मध्यप्रदेश के उम्मीदवारों के नाम तय कर रहे थे। उन्होंने बाबूजी को होशंगाबाद लोकसभा सीट से लडऩे का आग्रह किया। बाबूजी ने यह कहकर टाल दिया कि रायपुर में अभी प्रेस का नया भवन बना है। मशीनें आई हैं, काम का बहुत बोझ है, और ललित मुझे मना कर रहे हैं। इसके बाद हुआ यह कि सेठीजी रायपुर आए और विमानतल से सीधे प्रेस। उनके साथ स्वरूपचंद जैन थे। आदेश हुआ मुझे प्रेस दिखाओ। प्रेस का निरीक्षण किया। सब ठीक तो चल रहा है। तुम मायाराम जी को चुनाव क्यों नहीं लडऩे देते। मैंने हाथ जोड़े। आप दो बड़ों के बीच में बोलने वाला मैं कौन होता हूं! सेठीजी समझ गए कि मायारामजी चुनाव नहीं लडऩा चाहते हैं और बात यहीं समाप्त हो गई।
(अगले सप्ताह जारी) 30 जुलाई 2020
ललित सुरजन
1950 के दशक में नागपुर से ‘प्रतिभा’ शीर्षक एक बेहतरीन साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित होती थी, जिसमें संपादक के रूप में वीरेंद्र कुमार तिवारी का नाम छपता था। तिवारी जी आगे चलकर मध्यप्रदेश में लंबे समय तक विधायक दल के सचिव का दायित्व संभालते रहे। वीरेंद्र दादा को कांग्रेस के सभी खेमों में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। प्रतिभा में हर माह मुखपृष्ठ पर रायपुर के कलाकार कल्याण प्रसाद शर्मा की लोक जीवन पर आधारित बहुरंगी पेंटिंग प्रकाशित होती थी। यदि मेरी जानकारी सही है तो तिवारी जी एवं शर्मा जी दोनों विद्याचरण शुक्ल के सहपाठी थे। श्री शुक्ल की बड़ी बेटी का नाम भी प्रतिभा था। पत्रिका में शुक्लजी का नाम छपता था या नहीं यह मुझे ध्यान नहीं है। इतना अवश्य याद है कि वर्धा रोड पर प्रतिभा प्रेस की एक बंगलेनुमा इमारत थी। आज उस जगह पर लोकमत के कॉर्पोरेट मुख्यालय का बहुमंजिला भवन खड़ा है। मैं स्कूल का विद्यार्थी था। उस दरमियान श्री शुक्ल से परिचय होने का कोई सवाल नहीं था। मेरी उनके साथ पहली मुलाकात दिलचस्प अंदाज में हुई। वे 1964 में महासमुंद से लोकसभा उपचुनाव लड़ रहे थे। मैं अपने सहयोगी राघवेंद्र गुमाश्ता के साथ चुनावी माहौल देखने के लिए एक दिन महासमुंद गया। हम सीधे कांग्रेस भवन गए। पता चला कि शुक्ल जी चुनाव प्रचार में गए हैं थोड़ी देर में लौटते होंगे। मैं वहीं कांग्रेस भवन की सीढिय़ों पर बैठकर सिगरेट पी रहा था। इतने में एक जीप आई। उससे श्री शुक्ल उतरे। राघवेंद्र ने परिचय करवाया- ये ललित हैं, भैया जी (बाबूजी) के बड़े बेटे। श्री शुक्ल ने मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट देखी और टिप्पणी की- अभी आपकी उम्र सिगरेट पीने की नहीं है। बात सही थी। अभी-अभी तो मैं बीए की परीक्षा देकर जबलपुर से आया था। मैं लज्जित हुआ और सिगरेट फेंक दी। मेरी इसके अलावा कोई और बात नहीं हुई। राघवेंद्र ही चुनाव की बातें करते रहे।
यह संयोग था कि उसी दिन उनके प्रतिद्वंद्वी पुरुषोत्तम लाल कौशिक से भी पहली बार मेरा परिचय हुआ। याद नहीं आता कि वह किसका घर था लेकिन वहां कौशिक जी के प्रचार हेतु नरसिंहपुर से आए ठाकुर निरंजन सिंह भी ठहरे थे। जुझारू समाजवादी नेता जीवन लाल साव भी वहां थे। सावजी के साथ आने वाले वर्षों में न जाने कितनी बार मुलाकातें हुईं। शुक्ल जी और कौशिक जी के बीच यह पहला मुकाबला था। उनके बीच आने वाले समय में जो राजनीतिक संघर्ष हुआ उसे भी मैंने देखा। जीवन लाल साव को अपने जुझारू तेवरों की जो कीमत चुकानी पड़ी, जिसमें उनकी जान पर तक बन आई, का भी मैं गवाह रहा हूं। विद्याचरण शुक्ल के साथ देशबन्धु के एवं स्वयं मेरे संबंध प्रारंभ में यद्यपि बहुत सहज थे, लेकिन उस सहजता का निर्वाह हमेशा नहीं होता था।
श्री शुक्ल को मैंने सुरुचिपूर्ण साहित्य के अध्येता के रूप में जाना। उन्होंने अपनी एक लाइब्रेरी भी बना रखी थी। लेकिन परवर्ती समय में मैंने पाया कि किताबें तो उनके पास बहुत आती थीं, लेकिन वे रखी रह जाती थीं। पढऩे में उनकी रुचि समाप्त होने लगी थी। खैर, यह शायद 1969 की बात है, जब रायपुर जेसी•ा के उद्घाटन समारोह या ऐसे किसी समारोह में मैंने उन्हें मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया। इंडियन कॉ$फी हाउस के ऊपर वाले हॉल में कार्यक्रम रखा था। शुक्ल जी निर्धारित समय पर आये, उन्होंने उद्घाटन भाषण दिया। इस बीच हमने हॉल में कटलेट और कॉ$फी की सेवा प्रारम्भ कर दी। कार्यक्रम समाप्त हुआ। नीचे उतरते समय शुक्ल जी ने कहा- ऐसे औपचारिक कार्यक्रमों में चाय- नाश्ता देने की कोई आवश्यकता नहीं होती और नाश्ता करवाना ही है तो कार्यक्रम समाप्त होने के बाद करवाया करो। उनकी यह सीख मुझे आज भी याद है। सिगरेट पीना भी मैंने 2-4 साल बाद छोड़ दिया था।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि श्री शुक्ल मध्यप्रदेश के सबसे प्रभावशाली नेता थे। उनके भक्त तो यहां तक मानते थे कि वे इंदिरा जी के उत्तराधिकारी बनेंगे। श्री शुक्ल के ठाठ भी कुछ ऐसे ही थे। वे केंद्रीय मंत्री थे और जब कभी उनका रायपुर आना होता था तो भिलाई इस्पात संयंत्र की एक इम्पाला कार उनकी सेवा में लगी रहती थी। श्री शुक्ल के पास गाडिय़ों की क्या कमी थी लेकिन फिर अपना रुतबा बनाना भी तो •ारूरी था! उनकी इस गाड़ी में एक दिन मुझे भी बैठने का मौका मिला। 1971 के आम चुनाव के समय एक दिन फोन पर फोन आये कि विद्या भैया आपको याद कर रहे हैं। मेरे पास गाड़ी नहीं थी। उनकी गाड़ी आई। मैं भी असमंजस में था कि इतने बड़े नेता को मुझसे क्या काम पड़ गया। मैं बूढ़ापारा स्थित शुक्ल निवास पहुंचा जहां नीचे बड़े से हाल में कार्यकर्ताओं का जमघट लगा हुआ था। मुझे ऊपर नाश्ते की टेबल पर बुलाया गया। शुक्ल जी मेरी ओर मु$खातिब हुए- यह चि_ी तुमने क्यों लिख दी? तब मामला समझ आया। मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था कि 1967 के आम चुनावों के विज्ञापनों का भुगतान अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है, इस स्थिति में हम आपके नए विज्ञापन नहीं छाप पाएंगे। शुक्लजी ने कहा तुम फोन कर देते। चि_ी गलत हाथों में पड़ सकती है। मैं नाश्ता करके उसी इम्पाला कार में वापस लौटा। शाम तक विज्ञापनों का चार साल से रुका पैसा भी आ गया।
प्रसंगवश ऐसा ही एक किस्सा 1967 में हुआ। रायपुर लोकसभा क्षेत्र से लखनलाल गुप्ता प्रत्याशी थे, उनके सामने थे आचार्य जे.बी.कृपलानी। गुप्ताजी बूढ़ापारा वाले प्रेस में विज्ञापन लेकर आए, मैंने कुछ धृष्टतापूर्वक ही उनसे कहा कि आपकी तरफ 1962 के विधानसभा चुनाव की रकम बाकी है। गुप्ताजी संपन्न व्यक्ति थे। उन्होंने पिछले बकाया का भुगतान तुरंत कर दिया। हम अखबार वालों के साथ ऐसे प्रसंग अक्सर घटते हैं। चुनाव आए और चले गए, इसके बाद आप नेताजी के पीछे घूमते रहिए। यह दिक्कत उन अखबारवालों के साथ नहीं है, जो नेताओं के साथ पार्टनरशिप में व्यापार करते हैं। अपने आस-पास देखिए तो आपको पता चल जाएगा कि नेता, अफसर और अखबार मालिक किस तरह तीन-ताल में काम करते हैं।
मैं विद्याचरण शुक्ल की कुछेक बातों का कायल रहा हूं। केंद्र और राज्य सरकार में कार्य संस्कृति एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। राज्य में विशेषकर मुख्यमंत्री को बहुत तरह के दबावों से जूझना पड़ता है। जिसके चलते कई बार सही निर्णय भी उल्टी दिशा में चले जाते हैं। इसके विपरीत केन्द्रीय मंत्री को अपनी मनमर्जी से काम करने की छूट कम होती है। उन्हें फाइलों का अध्ययन करना होता है और सचिव इत्यादि की नोटिंग को बिना पर्याप्त कारण खारिज नहीं किया जा सकता। वीसी शुक्ल इसी कार्यशैली में कार्य करने के अभ्यस्त थे। लेकिन अपने क्षेत्र के नागरिकों और मतदाताओं के साथ वे जीवंत संपर्क बनाए रखते थे। आपने उन्हें पत्र लिखा तो टाइप किए गए उत्तर में भी मोटे अक्षरों में आपका नाम खुद लिखेंगे। नीचे अपने हाथ से शुभकामना भी लिखेंगे और हस्ताक्षर भी करेंगे। आपका काम हो या न हो, यह संतोष मन में रहता था कि विद्या भैया ने आपके पत्र का उत्तर स्वयं लिखा है। दूसरी बात, वीसी शुक्ल की राजनैतिक शैली से कोई कितना भी असहमत क्यों न हो, उनके जुझारुपन की प्रशंसा करनी ही होगी। मैं जानता हूं कि दोनों शुक्ल भाइयों ने राजनीति में बने रहने के लिए कभी आसान रास्ते अपनाना स्वीकार नहीं किया। उन्हें बीच-बीच में राज्यपाल पद के न्यौते भेजे गए, राज्यसभा में जाने की पेशकश भी की गई। लेकिन उन प्रस्तावों को उन्होंने हमेशा ठुकरा दिया। वे इस तरह देश के उन तमाम राजनेताओं से अलग हो गए, जो सत्ता सुख उठाने के लिए जब-तब समझौता कर लेते हैं। वी.सी. की चित्तवृत्ति का इसे अतिरेक माना जा सकता है कि जब कांग्रेस में उन्हें अपने लिए दरवाजे बंद न•ार आए तो एक बार वे वी.पी. सिंह के साथ चले गए, दूसरी बार शरद पवार के साथ और तीसरी बार भारतीय जनता पार्टी के साथ। यह शायद उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास भी था कि अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे युद्धं देही के अंदाज में लडऩे-भिडऩे को तैयार हो जाते थे, फिर चाहे उन्हें जिस भी पक्ष से लडऩा पड़े। अपने इस उतावलेपन पर वे थोड़ा नियंत्रण रख पाते तो यह उनके हित में ही होता।
(अगले सप्ताह जारी)
6 अगस्त 2020
ललित सुरजन
मेरा छत्तीसगढ़ में जिस राजनेता से सबसे पहला परिचय हुआ वे विद्याचरण शुक्ल ही थे। उनके साथ मेरी औपचारिक-अनौपचारिक मुलाकातें शायद सबसे अधिक हुईं। लेकिन मेरे आकलन में वे ऐसे राजपुरुष थे, जिनमें स्वयं को लेकर श्रेष्ठता का भाव था। वे इंदिरा गांधी जैसे कुछेक लोगों को छोड़कर बाकी सभी से अनुगत या अनुचर होने की अपेक्षा करते थे। छत्तीसगढ़ के अधिकतर पत्रकार उनके चरण छूते थे। विद्या भैया, विद्या भैया कहकर उनकी जी हुजूरी करते थे। चूंकि हमने ये नहीं किया, इसलिए उन्होंने देशबन्धु के संपादकों को कभी पसंद नहीं किया। वे जब भी रायपुर आते थे, प्रेस क्लब में उनकी प्रेस कांफ्रेंस होना अनिवार्य ही था, भले ही कोई विषय हो अथवा न हो। अमूमन यह प्रेस कांफ्रेंस लंच के साथ होती थी। कभी धोखे से चाय-समोसे पर बात खत्म हो गई, तो उन्हें याद दिलाया जाता था कि भैया इस बार लंच नहीं हुआ। देशबन्धु के संपादकीय आलेख में एक बार पंडितजी ( रामाश्रय उपाध्याय) ने उनकी कुछ तीखी आलोचना कर दी थी। इससे वे काफी क्षुब्ध हुए। उन्होंने बाबूजी को आपत्ति दर्ज करते हुए पत्र लिखा। जिसमें संस्कारों को लेकर कुछ टीका की गई। बाबूजी ने इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा- संस्कार और संपत्ति तो आपको विरासत में मिली है, हम साधारण लोग, उसे कहां से लाएं। संदेश स्पष्ट था, बात वहीं खत्म हो गई। एक बार शुक्लजी ने बूढ़ा तालाब के किनारे शिवाजी महाराज की प्रतिमा लगाने का ऐलान किया। हमने इसका विरोध किया तो अगले दिन उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भाषण देते हुए देशबन्धु की खुलकर निंदा की। ऐसे और भी प्रसंग हैं।
आज जो रायपुर में इंडोर स्टेडियम और रवि भवन जैसे निर्माण हुए हैं, हमने इनका भी विरोध किया था। श्री शुक्ल का तर्क था कि रवि भवन से इतनी आमदनी होगी कि उससे रायपुर नगर निगम को विकास कार्यों के लिए इधर-उधर नहीं देखना पड़ेगा। हमारी दृष्टि में ये योजनाएं खर्चीली व अव्यवहारिक थीं। इंडोर स्टेडियम जिस जगह बना था, वह पर्यावरण के मानकों के अनुसार वेटलैंड (दलदली भूमि) था, तथा उसे उसी रूप में संरक्षित रखा जाना था। लेकिन शुक्लजी के आगे किसकी चलनी थी। उन्होंने जो चाहा, वही हुआ। वीसी शुक्ल जब नरसिंहराव सरकार में मंत्री बने, तो संसद में उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य का शीर्षक देशबन्धु में कुछ इस तरह छपा- ‘जब वीसी ने कावेरी को लड़की समझा।Ó पत्र के दिल्ली स्थित एक अंशकालिक संवाददाता द्वारा भेजा गया यह समाचार पत्रकार रजत शर्मा द्वारा संपादित एक अन्य पत्रिका में भी इसी रूप में छपा। श्री शुक्ल का इस पर क्षोभ होना स्वाभाविक था। लेकिन उन्होंने कोई खंडन भेजने या स्पष्टीकरण प्रकाशित करने की बजाय सुदूर दंतेवाड़ा में अपने किसी कार्यकर्ता द्वारा मुझ पर मानहानि का मुकदमा दायर करवा दिया। अदालत का समन आया तो मैंने दंतेवाड़ा जाकर जमानत लेने के साथ-साथ आगे की पेशियों में हाजिर न होने की छूट प्राप्त कर ली। जिस कार्यकर्ता ने मुकदमा दायर किया, उसकी कानूनन कोई भूमिका नहीं थी। केस खारिज होना ही था। इसके बाद भी शुक्ल बार-बार दबाव डालते रहे कि इस प्रकरण में माफी मांगें। हम स्पष्टीकरण छापने और खेद व्यक्त करने तैयार थे। लेकिन जब वे इतने पर राजी नहीं हुए तो हमने भी फिर समझौते की कोई कोशिश नहीं की।
श्री शुक्ल जब 1989 में कांग्रेस छोड़कर वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चा में शामिल हुए तो राजनैतिक पर्यवेक्षकों को बहुत हैरानी हुई। उसके कारणों में जाने की आवश्यकता नहीं है। श्री शुक्ल महासमुंद क्षेत्र से प्रत्याशी थे। उनकी जीत को लेकर बढ़-चढ़ के दावे किए जा रहे थे। पर देशबन्धु की रिपोर्ट थी कि इन दावों में कोई दम नहीं है। दो दिन बाद लोकसभा क्षेत्र में मतदान हुआ। मैं अपने साथियों प्रभाकर चौबे और बसंत कुमार तिवारी के साथ माहौल देखने के लिए निकला तो बूढ़ापारा में वीसी शुक्ल अपना वोट डालने मतदान केंद्र की ओर आते हुए दिखाई दिए। हमने गाड़ी रोकी। शुक्लजी को नमस्कार किया। उन्होंने मेरे साथियों से तो बात की और ऐसा दर्शाया मानो उन्होंने मुझे देखा ही नहीं है। मैं समझ गया कि ये महासमुंद की रिपोर्ट छपने से दुखी हैं। रिजल्ट जब आया तो हमारी रिपोर्ट ही सही निकली। श्री शुक्ल चुनाव जीत तो गए, लेकिन जीत का अंतर बहुत कम था। इसके बाद अब उन्हें मंत्री बनने की उम्मीद थी, जो पूरी नहीं हुई। जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें मंत्री पद का ऑफर मिला। शुक्ल समर्थक चाहते थे कि उन्हें रेल मंत्रालय या इस्पात मंत्रालय मिले। लेकिन चंद्रशेखर उन्हें विदेश मंत्रालय ही देना चाहते थे। ऐसे समय न जाने क्या सोचकर उन्होंने मेरी राय लेना आवश्यक समझा। मेरी सलाह साफ थी कि आपको विदेश मंत्रालय ले लेना चाहिए। आप सबसे अनुभवी सांसद हैं। विदेश मंत्री के रूप में आप अनावश्यक विवादों से मुक्त रहेंगे। टीवी पर आने के आपको अधिकतम अवसर मिलेंगे। उससे आपकी छवि निखरेगी। मेरी सलाह का कितना महत्व था, यह मुझे नहीं पता, किंतु उन्होंने यह पद स्वीकार कर लिया। इसके तीन-चार दिन बाद उनका रायपुर आने का कार्यक्रम बना। स्वागत की तैयारियां चलीं। अखबारों को भरपूर विज्ञापन जारी हुए, लेकिन देशबन्धु का नाम उन अखबारों की सूची में नहीं था। अगले दिन उनके सम्मान के कहीं रात्रिभोज आयोजित था। मैं भी आमंत्रित था, लेकिन मैंने निमंत्रण ठुकरा दिया। अगर मेरे अखबार को विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं तो मैं भोज पर आकर क्या करूंगा? फिर जो भी हुआ हो, देशबन्धु को देर रात विज्ञापन जारी हुए। मैं रात्रिभोज में भी शामिल हुआ।
श्री शुक्ल के लगभग छह दशक के राजनैतिक जीवन का आकलन करने से एक बात समझ आती है कि उनके इर्द-गिर्द राजनैतिक सलाहकारों की जगह गैर-राजनैतिक सलाहकारों की संख्या दिनों-दिन बढऩे लगी थी। ऐसा क्यों हुआ, ये तो वही जानते थे। एक बार महासमुंद के पूर्व विधायक और वीसी के निकट सहयोगी दाऊ संतोष कुमार अग्रवाल ने मुझसे साफ कहा कि वे तो बड़े आदमी हैं, जब चाहें जिस पार्टी में चले जाएं, लेकिन उनके साथ-साथ जाने से हमारा क्या होगा, हमें तो अपने मतदाता को जवाब देना होता है। जो पत्रकार शुक्ल जी के दाएं-बाएं रहा करते थे, आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए तो रायपुर में कत्ल की रात यानी मतदान के ऐन पहले जनता पार्टी के समर्थक बन गए और सीमित समय में भी मतदान को जितना प्रभावित किया जा सकता था, उन्होंने किया। चुनाव हारने के बाद वीसी शुक्ल अपने भिलाई निवासी भतीजे उमेश और उनकी पत्नी माया के साथ मुझसे मिलने आए। मुझसे कहा कि हमसे दोस्त और दुश्मन को पहचानने में गलती हो गई। लेकिन 1980 में चुनाव जीतने के बाद उन्हें फिर वही लोग अपने दोस्त लगने लगे, जो कल तक उनके विरोधी थे।
(अगले सप्ताह जारी)
13 अगस्त 2020
ललित सुरजन
विद्याचरण शुक्ल या वी सी के बारे में लिखते हुए बहुत से प्रसंग एक के बाद स्मृति पटल पर उभरते आ रहे हैं जैसे किसी फिल्म की रील चल रही हो। 1980 में अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद की एक घटना है। मित्र प्रकाशन की अंग्रे•ाी पत्रिका ‘द प्रोबÓ की एक रिपोर्टर रायपुर दौरे पर आईं। उन्होंने अन्य बातों के अलावा बाबूजी से शुक्ल बंधुओं के बारे में भी चर्चा की। इसमें कहीं बाबूजी ने कहा- ‘श्यामाचरण इ•ा मोर ह्यूमेनÓ अर्थात श्यामाचरण अधिक उदार या संवेदनशील हैं। कुछ दिन बाद प्रतिष्ठित नागरिक व कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता रतिलाल भाई शाह के निवास पर वी सी के सम्मान में दोपहर का भोज था। मैं भी आमंत्रित था। शुक्ल जी ने मुझे देखते साथ तं•ा कसा- तो मायाराम जी हमें मनुष्य नहीं मानते! मैंने तत्काल प्रतिवाद किया- उन्होंने जो कुछ कहा, आपके बारे में कुछ नहीं बल्कि श्यामाचरण जी के बारे में कहा है। और उसका वह अर्थ नहीं है जो आप निकाल रहे हैं। कहने का मतलब यह कि श्री शुक्ल छोटी-छोटी बातों का भी जल्दी बुरा मान जाते थे। उनकी मन की न हुई तो वे प्रतिशोध की भावना से भी कदम उठा लेते थे। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रथम धमतरी आगमन पर शुक्ल समर्थकों ने सड़क पर जो हंगामा किया, वह इसी मनोभाव का उदाहरण है। भोपाल के कांग्रेस नेता अजी•ा कुरैशी को रायपुर स्टेशन पर उनके समर्थकों द्वारा जूतों की माला पहनाना ऐसी एक और घटना थी।
दूसरी ओर, अपने भक्तों, समर्थकों, चमचों या कृपापात्रों के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते थे। रायपुर का एक कुख्यात गुंडा फरार चल रहा था। शायद हो कि उनके ही संरक्षण में छुपा हो। सरबजीत सिंह जिला पुलिस अधीक्षक या कि एस पी थे। वी सी दिल्ली से रायपुर आए। कलेक्टर, एसपी, उनकी अगवानी के लिए विमानतल पर मौजूद थे। वह गुंडा भी कहीं से प्रकट हुआ। ‘भैयाÓ को माला पहनाने आगे बढ़ा। तभी शुक्ल जी ने सबको सुनाते हुए कहा- एसपी साहब, यह रहा आपका अपराधी। सारे उपस्थित लोग सुनकर अवाक रह गए। गुंडे को ऐसा संरक्षण! कानून की ऐसी अवज्ञा! इस मौके पर एसपी करते भी तो क्या करते? उन्होंने व्यथित हृदय से जल्दी ही रायपुर से अपना तबादला भोपाल करवा लिया। इसी रायपुर विमानतल पर एक और दृश्य हमने देखा जब उनके कृपापात्र नवनियुक्त कुलपति रामकुमार पांडे ने सबके सामने उनके चरणस्पर्श किए। पुराने लोगों को याद आया कि द्वारिका प्रसाद मिश्र के समय रायपुर के प्रथम कुलपति डॉ बाबूराम सक्सेना ने सीएम की अगवानी हेतु विमानतल जाने से इंकार कर दिया था। उन्हें कोई चर्चा करना होगी तो सर्किट हाउस बुला लेंगे।
विद्याचरण शुक्ल के दो-तीन हल्के-फुल्के प्रसंग भी याद आते हैं। एक बार दिल्ली में उन्होंने मुझसे पूछा- ललित! तुम नहीं सोचते कि मायाराम जी को पद्मश्री मिलना चाहिए। मैंने कहा- सोचना तो आपको है। लेकिन सोच रहे हों तो पद्मभूषण के बारे में सोचिए। पद्मश्री तो हास्य कवियों तक को मिल जाती है। राष्ट्रपति एस्टेट वाले बंगले में हुए इसी वार्तालाप में उन्होंने एक और झांसा दिया- तुम्हारा नाम मध्यप्रदेश की टेलीफोन उपभोक्ता सलाहकार समिति में भेजा है। किसी और का भी करना है? मैंने सहज रूप से अपने अनन्य मित्र प्रभाकर चौबे का नाम दे दिया। कुछ दिन बाद सूची आई तो दोनों नाम गायब थे। शुक्ल जी के फार्म हाउस से दूध डेयरी चलती थी। उनका मन हुआ कि बोतलबंद पानी की फैक्टरी डालना चाहिए। दूध भी दस रुपए लिटर, पानी की बोतल भी दस रुपए की। उनका तर्क सुन लिया। गनीमत कि इस विचार को उन्होंने आगे नहीं बढ़ाया। बंगलौर में उद्योगपति मित्र डॉ. रमेश बाहेती की बेटी के विवाह में एक बार हम मिले। वे अगली सुबह पुट्टपर्थी सत्यसाईं के दर्शन हेतु जा रहे थे। ऐसे लोगों से भी मिलना चाहिए। तुम भी चलो। उनका सोचना सही था। लेकिन मेरी कोई रुचि भगवान के कलियुगी अवतारों में नही रही है। उनके साथ न जाकर एक नए अनुभव से वंचित रह गया।
वी सी कभी-कभार हास्य बोध याने सेंस ऑफ ह्यूमर का खासा परिचय देते थे। किसी दिन रात्रिभोज में उन्होंने एक म•ोदार बात की। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री कंधे पर ‘गमोछाÓ लेकर चलते हैं। अपनी तरफ अंगोछा या गमछा न जाने कब से प्रचलित है। तो इसी गमछे को लेकर बात चल पड़ी। गमछा बहुत काम की चीज है। दौरे पर निकले हैं, गर्मी के दिन हैं, पसीना पोंछ लो। बरसात के दिन हैं, सिर भीगने से बचा लो और पानी भी पोंछ लो। ठंड के दिनों में सिर-कान ढांक लो। गांव जाते हैं तो अनेक बार ग्रामीण कार्यकर्ता चूल्हे पर चढ़ी चाय गमछे से पकड़ कर कर ही उतारते हैं, और उसी से छान भी लेते हैं। यहां तक तो ठीक था। क्लाइमेक्स अभी बाकी था। जुकाम से नाक बह रही हो तो उसी गमछे से नाक सुड़क लो। और उसी से छनी चाय हो तो पीने से मना नहीं कर सकते। कार्यकर्ता का दिल कैसे दुखाएं! यह वर्णन सुन हंसते- हंसते दम फूल गया।
सन् 2000 के प्रारंभ में ही तय हो गया कि मध्यप्रदेश का विघटन होकर छत्तीसगढ़ एक नया प्रदेश बनने जा रहा है। देशबन्धु की सहज रुझान उस समय अजीत जोगी के साथ थी। वे हमउम्र थे। मित्रवत संबंध काफी पुराने थे। हमने मध्यप्रदेश के दिग्विजयी राज में बहुत कष्ट उठाए थे और वही आशंका विद्याचरण जी के मुख्यमंत्री बन जाने पर मेरे मन में थी। ये दोनों ही प्रमुख दावेदार थे। शुक्ल जी के बुलावे पर जुलाई में किसी दिन राधेश्याम भवन अर्थात फार्म हाउस गया। बहुत लंबी चर्चा चली। दो घंटे से ऊपर। आप बूढ़ापारा छोड़ यहां रहते हैं। कार्यकर्ताओं को मिलने आने में तकली$फ होती है। पैसा भी लगता है। जवाब मिला- हमें भी आराम की •ारूरत है। समय बदल गया है, आदि। खैर, मुद्दे की बात तो दूसरी ही थी। वे चाहते थे कि मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में देशबन्धु उनका खुलकर समर्थन करे। मैंने चर्चा को मोड़ देने की कोशिश की। ‘हम पेपर वाले क्या कर सकते हैं? फैसला तो कांग्रेस विधायक दल और हाईकमान को करना है। उसके पहले आप दोनों बैठकर समझौता क्यों नहीं कर लेते?Ó वे मेरा मंतव्य सुनकर प्रसन्न हुए। ‘ठीक है, तुम जोगी से बात करो। उसे हम पीसीसी चीफ बना देंगे।Ó •ााहिर था कि शुक्ल जी अभी भी वास्तविकता से अनजान हवा के घोड़े पर सवार थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें कर मैं वापस आ गया। इस मुलाकात का जिक्र भी किसी से नहीं किया।
इसके पश्चात 31 अक्तूबर 2000 की शाम फार्म हाउस पर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ जो अभद्र बर्ताव, यहां तक कि मार-पीट तक की गई, वह छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में एक शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज है। इसके ब्यौरे अन्यत्र देखे जा सकते हैं। इन सारी स्मृतियों को समेटते हुए कहना होगा कि विद्याचरण शुक्ल अदम्य जिजीविषा के धनी थे। 25 मई 2012 को नृशंस नक्सली हमले में बुरी तरह घायल होने के बाद भी आखिरी सांस तक जीवन जीने की लड़ाई लड़ते रहे। उस दुर्गम घाटी में तत्काल चिकित्सीय सहायता मिलना संभव नहीं था। अगर आपात सहायता मिल जाती तो शायद उस दिन भी वे मौत को हराकर वापस आ सकते थे।
(अगले सप्ताह जारी)
20 अगस्त 2020
ललित सुरजन
सन 1971 में पांचवी लोकसभा के लिए चुनाव संपन्न हुए। सामान्य तौर पर पांच साल बाद अर्थात 1976 में नए चुनाव होते। इस बीच आपातकाल लग चुका था और इंदिरा गांधी ने एकतरफा निर्णय लेते हुए लोकसभा की अवधि एक साल के लिए बढ़ा दी थी। इस अलोकतांत्रिक कदम का विरोध पक्ष-विपक्ष के किसी भी सदस्य ने नहीं किया, सिवाय दो अपवादों के। पहला अपवाद अनुभवी सांसद मधु लिमये थे, जिनका अनुकरण मात्र एक साल पहले उपचुनाव में जीतकर आए शरद यादव ने किया। उनका सीधा तर्क था कि जिस अवधि के लिए चुना गया है, उसके आगे पद पर बने रहने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। शरद यादव ने अपने संसदीय जीवन की शुरुआत में ही जिस नैतिक साहस का परिचय दिया, उसका पालन, जितना मैंने समझा है, वे अब तक कर रहे हैं। मैं अगर तुलना करना चाहूं तो ऐसे नैतिक साहस का परिचय सोनिया गांधी ने दिया था, जब लाभ का पद वाले मामले में उन्होंने लोकसभा से त्यागपत्र देने में एक दिन का भी विलंब नहीं किया और उपचुनाव में जीतकर दोबारा लोकसभा लौटीं। जबकि लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी जैसे व्यक्ति भी इस अवसर पर डगमगा गए थे।
शरद यादव में एक अनोखे किस्म का अक्खड़पन है, जिसे मैं उनकी छात्र राजनीति के दिनों से देखते आया हूं। पीवी नरसिंह राव के शासनकाल में हवाला प्रकरण जोर-शोर से उठा। उसमें बड़े-बड़े लोगों के नाम उछले, जो येन-केन प्रकारेण अपना बचाव करते न•ार आए; तब शरद यादव राष्ट्रीय स्तर के एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने खुलकर कहा कि हां, मैंने चंदा लिया था, राजनीति में हम लोगों को चंदा लेना ही होता है। एक तरफ लालकृष्ण आडवानी आदि थे, जो अपने बचाव के रास्ते ढूंढ रहे थे और दूसरी तरफ शरद की यह स्वीकारोक्ति जो उनकी चारित्रिक बुनावट को समझने में मदद करती है। यह भी उनका अक्खड़पन या अनोखापन है कि शरद यादव ने आज तक विदेश यात्रा नहीं की है। एक बार प्रधानमंत्री के निर्देश पर उन्हें चीन जाना पड़ा तो यात्रा बीच में ही स्थगित कर उन्हें लौटना पड़ गया।
शरद यादव के पिता कभी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। लेकिन शरद को राजनीति विरासत में नहीं मिली। वे जिस मुकाम पर हैं, वहां तक पहुंचने की राह उन्होंने स्वयं बनाई है। एक समय जबलपुर को मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक- शैक्षणिक राजधानी का दर्जा प्राप्त था। मध्यप्रदेश, महाकौशल और भोपाल अंचल के अधिकतर छात्र वहां पढऩे आते थे। शरद ने वहीं से एक छात्रनेता के रूप में अपने राजनैतिक सफर की शुरुआत की। 1964 में समाजवादी पार्टी ने अपने युवा संगठन समाजवादी युवजन सभा की बुनियाद रखी थी। जिसके पहले अध्यक्ष प्रखर चिंतक किशन पटनायक थे। शरद और उनके अनेक साथी युवजन सभा से तभी जुड़ गए थे तथा छात्र हितों के लिए आंदोलन करते हुए उन्होंने अपनी अलग पहचान बना ली थी। मैं तब तक रायपुर आ चुका था। लेकिन जब शरद युवजन सभा का गठन करने रायपुर आए तो वैचारिक मतभेदों के बावजूद युवजन सभा की रायपुर इकाई के गठन में मुझे मैत्रीधर्म का निर्वाह करना पड़ा। रमेश वल्र्यानी ने 1977 में जब विधानसभा का पहला चुनाव लड़ा, तब अपने परिचय में उन्होंने लिखा था- ललित सुरजन की प्रेरणा से राजनीति में आया। खैर, यह विषयांतर हो गया। शरद यादव को छात्र राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में आने के लिए ऊंची छलांग लगाने का मौका तब मिला, जब सेठ गोविंददास के निधन से जबलपुर लोकसभा सीट रिक्त हुई और उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार रविमोहन के खिलाफ शरद यादव को संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार बनाया गया। शरद ने अपेक्षा के अनुरूप शानदार जीत दर्ज की। तब से अब तक उन्हें राष्ट्रीय रंगमंच पर आए 45 साल से अधिक हो चुके हैं।
यह राजनीति की विडंबना मानी जाएगी कि जिस शरद यादव को जबलपुर ने सिर माथे बिठाया था, उसी जबलपुर ने 1980 के लोकसभा चुनाव में उन्हें नकार दिया। 1977 में देश के मतदाता ने बड़ी उम्मीदों के साथ जनता पार्टी को अपना समर्थन दिया था, लेकिन साल बीतते न बीतते स्वप्न भंग की स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी। इंदिरा गांधी ने अपनी खोई प्रतिष्ठा और लोकप्रियता फिर से हासिल कर ली थी। इसका खामियाजा शरद यादव जैसे कई नेताओं को भुगतना पड़ा। मेरा मानना है कि शरद भाई को इस पराजय से दुखी होकर अपनी •ामीन छोडऩा नहीं चाहिए थी। उनका मन जबलपुर से उचट गया और वे अपना घर छोड़ दिल्ली चौधरी चरणसिंह की शरण में चले गए। चौधरी साहब ने शरद यादव को नए सिरे से राजनीतिक आधार बनाने में मदद की। ऐसा लगने लगा कि चौधरी साहब के बाद देश में किसानों का अगर कोई नेता होगा तो वे शरद यादव ही होंगे। मेरा अपना अनुमान है कि शरद यदि जबलपुर अथवा होशंगाबाद में बने रहते तो वे ये सम्मान हासिल कर सकते थे।
सच कहें तो शरद यादव की चित्तवृत्ति एक खांटी किसान की है। वे जब कहते हैं कि एक जनम में तो पूरा भारत नहीं घूम सकते तो विदेश जाकर क्या करेंगे, तब उनकी इसी सोच का परिचय मिलता है। यही नहीं इस 2020 के साल में भी शरद यादव पारंपरिक भारतीय वेशभूषा यानी धोती कुर्ता को ही अपनाए हुए हैं। उनके अलावा आज भला और कौन सा ऐसा नेता है जो कोई भी अवसर क्यों न हो, धोती-कुर्ते में न•ार आता है। यहां मेरा मन अनायास उनकी तुलना चंदूलाल चंद्राकर से करने का होता है। चंदूलालजी ने पत्रकार के रूप में सौ से अधिक देशों की यात्राएं कीं, लेकिन अंतर्मन से वे किसान ही थे। धोती-कुर्ता और सफर में टीन की एक पेटी के साथ आप उन्हें देख सकते थे। वे जब नागरिक उड्डयन मंत्री थे, तब भी चेक-इन के समय सामान्य यात्रियों की तरह कतार में खड़े होते थे। शरद यादव का यह किसान मन ही है जो उन्हें देश के वंचित समाज के साथ जोड़ता है। पिछली सदी के अंतिम वर्षों में एक दौर वह भी था जब वे देश में ओबीसी के सबसे बड़े नेता माने जाते थे। सत्ता के गलियारों में चर्चा होती थी कि ऐसे कम से कम 43 लोकसभा सदस्य हैं जो शरद यादव के कहने पर अपना वोट देते हैं। मुझे पता नहीं कि इसमें कितना सच है, लेकिन लालूप्रसाद, नीतीश कुमार और ऐसे कुछ अन्य नेताओं से मेरी भेंट शरद यादव के घर में ही हुई है।
शरद यादव को मध्यप्रदेश ने लगभग भुला दिया है लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर संकेत किया है कि इसमें कुछ दोष तो स्वयं उनका है। 1980 की हार से विचलित होना स्वाभाविक था, लेकिन इसे उन्हें खिलाड़ी भावना से लेना चाहिए था। यह उनकी क्षमता थी कि उत्तरप्रदेश और बिहार के लगभग अपरिचित इलाकों में जाकर भी वे चुनावी जीत दर्ज कर सके, लेकिन कोई पूर्वाधार न होने के कारण इन जगहों पर वे स्थायी ठौर नहीं बना पाए। दूसरी ओर शरद के जाने के बाद महाकौशल की राजनैतिक पहचान लगभग समाप्त हो चुकी है। कमलनाथ भले ही छिंदवाड़ा से 10 बार चुनाव जीत गए हों, लेकिन न वे महाकौशल को अपना बना सके और न ही महाकौशल ने उन्हें स्वीकार किया। जो अन्य सांसद-विधायक आदि हैं, वे सत्ता की राजनीति में मगन हैं और आम जनता के साथ कोई लेना-देना नहीं है।
शरद यादव ने राष्ट्रीय राजनीति में एक लंबी पारी खेली है। इस दरम्यान उन्होंने एकाधिक बार नैतिक साहस का परिचय दिया है और कहना होगा कि उनके बारे में आज तक किसी तरह का राजनैतिक प्रवाद खड़ा नहीं हुआ। उन्होंने समय-समय पर विभिन्न मंत्रालय संभाले। उनके काम को लेकर भी कभी कोई प्रतिकूल बात सुनने नहीं मिली। शरद यादव आज भी राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी से प्रकट करते हैं। वे सैद्धांतिक रूप से अपनी मूल पार्टी यानी कांग्रेस के काफी निकट आते प्रतीत होते हैं। उन्हें करीब से जानने वाले प्रतीक्षा कर रहे हैं कि सोनिया या राहुल गांधी इस मित्र एवं सहयोगी की राजनैतिक सूझबूझ का लाभ किस तरह उठाते हैं।
(अगले सप्ताह जारी)
28 अगस्त 2020
ललित सुरजन
ऐसे चार मौके आए, 1990 के दशक में तीन और 2000 के दशक में एक, जब अविभाजित मध्यप्रदेश का कोई राजनेता देश का प्रधानमंत्री बन सकता था। पहला अवसर 1991 में आया, जब कांग्रेस पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता और तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा से आग्रह किया कि वे प्रधानमंत्री पद सम्हाल लें। वे इस पद के लिए हर दृष्टि से योग्य थे, लेकिन उन्होंने आयु एवं स्वास्थ्य का हवाला देकर इंकार कर दिया। यद्यपि उपराष्ट्रपति पद पर अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद वे सर्वोच्च संवैधानिक पद याने राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए और वहां भी उन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। नव निर्वाचित लोकसभा में कांग्रेस के पास बहुमत से मात्र आठ सीटें कम थीं और डॉ. शर्मा जैसे अनुभवी और सम्मानित नेता के लिए यह शायद कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। इस दसवीं लोकसभा में पार्टी ने मध्यप्रदेश के ही अर्जुनसिंह को सदन का नेता चुना था। डॉ. शर्मा की मनाही के बाद यदि पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए चुनती तो यह एक स्वाभाविक और उचित निर्णय माना जाता।
सबको पता है कि पी वी नरसिंह राव ने 1991 में न सिर्फ लोकसभा चुनाव लडऩे से मना कर दिया था, बल्कि वे अपना साजो-सामान समेट कर आंध्र प्रदेश वापस लौट चुके थे। यह अभी तक रहस्य के आवरण में है कि वे क्यों कर दिल्ली लौटे? कांग्रेस के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि राजनीति से सन्यास ले चुके वयोवृद्ध नेता को प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया? इसके अलावा डॉ. मनमोहन सिंह क्यों वित्तमंत्री के पद पर लाए गए? और सिर्फ इतना ही नहीं हुआ। सदन के नेता अर्जुनसिंह को प्रथम पंक्ति से हटा दूसरी पंक्ति में भेज एक तरह से अपमानित किया गया। इसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी में सर्वाधिक मतों से जीतकर आए तीन नेताओं अर्जुनसिंह, शरद पवार व ए के अंथोनी के इस्तीफे लेकर उन्हें मनोनीत सदस्यों की श्रेणी में डाल दिया गया। अर्जुनसिंह ने यह पहला मौका खोया। उनके हाथ से दूसरा मौका तब फिसला जब बाबरी मस्जिद प्रकरण में श्री राव की संदिग्ध भूमिका के बाद श्री सिंह ने उनके खिलाफ बगावत की ठानी, लेकिन अपने ही दो विश्वस्त युवा शिष्यों द्वारा साथ न देने के कारण वे अलग-थलग पड़ गए और नौबत यहां तक आई कि उन्हें पार्टी छोडऩा पड़ी।
श्री राव का प्रधानमंत्री बनना जितना आश्चर्यजनक था, 2004 में मनमोहन सिंह का इस पद पर काबिज होना उससे कम अचरज की बात नहीं थी। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. कलाम अपने संस्मरणों में स्पष्ट लिख चुके हैं कि उन्हें श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद पर आमंत्रित करने में कोई बाधा नहीं थी, किंतु श्रीमती गांधी ने स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह का नाम आगे किया। यह तीसरा और अंतिम अवसर था जब अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री बन सकते थे। वे ऐसे नेता थे जो कांग्रेस पार्टी के मूल सिद्धांतों की लगातार पैरवी कर रहे थे, नेहरूवादी नीतियों के लिए पार्टी के भीतर और बाहर संघर्ष कर रहे थे, राजीव गांधी की हत्या से जुड़ी शंकाओं को लेकर लगातार सवाल उठा रहे थे, तथा सोनिया गांधी का हर तरह से साथ दे रहे थे। डॉ. सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में पहली बार तो शामिल किया, लेकिन 2009 में उन्हें बाहर रख अपनी नीतिगत रुझान खुले तौर पर जाहिर कर दी। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से लेकर 2009-10 तक का घटनाक्रम ऐसी बहुत सी शंकाओं को जन्म देता है जिनके तार विदेशी एजेंसियों से जुड़ते हैं। इन पर अलग से चर्चा की आवश्यकता है।
अर्जुनसिंह 1957 में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत विधानसभा में पहुंचे थे, लेकिन शीघ्र ही वे कांग्रेस में आ गए थे। 1963 में डी पी मिश्र ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। इसके बाद उनका सितारा लगातार बुलंद होते गया। उनसे मेरा परिचय काफी बाद में हुआ, लेकिन जब वे सेठी मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री थे, तब दो-एक मौकों पर मैंने उनकी खुलकर आलोचना की थी। वे 1973 में मध्यप्रदेश एकीकृत विश्वविद्यालय अधिनियम लेकर आए जो मुझे पसंद नहीं आया। इस कानून के माध्यम से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का हनन हुआ, उनकी अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करने के अवसर समाप्त हुए, तथा वि वि के प्रशासन व उन्नयन में समाज की भूमिका सीमित कर दी गई। गो कि आगे चलकर श्री सिंह की इस सोच में परिवर्तन देखने मिला। 1973-74 में ही शिक्षामंत्री श्री सिंह रायपुर आए तो गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल के एक अध्यापक के सी दास ने उनकी शान में लच्छेदार भाषा में एक अभिनंदन पत्र लिखा जिसका किसी सरकारी कार्यक्रम में बाकायदा वाचन कर उन्हें भेंट किया गया। एक मंत्री की यह चापलूसी हमें नागवार गुजरी। हमने इसके खिलाफ संपादकीय लिखा और साथी प्रभाकर चौबे ने इस पर एक व्यंग्य लेख भी लिखा।
बहरहाल, शिक्षामंत्री रहते हुए अर्जुनसिंह ने शिक्षकों के हित में कुछ दूरगामी निर्णय भी लिए, जिनमें शायद सबसे अहम था अनुदान प्राप्त शालाओं के शिक्षकों को राजकीय ट्रे•ारी से वेतन भुगतान। लेकिन संभवत: इस निर्णय का क्रियान्वयन उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद ही हो सका। किसी अध्यापक मित्र को शायद सही जानकारी हो! सेठीजी के दिल्ली लौट जाने के बाद एक बार फिर श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने और जैसा कि विदित है श्री सिंह को उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में नहीं लिया। हम नहीं जानते कि इन दोनों कद्दावर नेताओं के बीच यह प्रतिद्वंद्विता की भावना कब पनपी, लेकिन यह आखिर तक कायम रही आई। 1977 में शुक्लजी चुनाव हार गए जबकि श्री सिंह को विधानसभा में विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी सम्हालने का मौका मिला। इस भूमिका का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया, जिसका प्रतिफल 1980 में मिला जब वे मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। इसमें काफी उठापटक देखने मिली। कांग्रेस हाईकमान का वरदहस्त श्री सिंह पर था, जिसकी शुक्ल बंधुओं ने देखकर भी अनदेखी कर दी। कमलनाथ के खाते में आए बत्तीस वोट अर्जुन सिंह को हस्तांतरित कर उन्हें विजयी घोषित कर दिया गया।
मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हालने के कुछ दिन बाद ही श्री सिंह ने प्रदेश के कुछ संपादकों व पत्रकारों को भोपाल निमंत्रित किया। मेरी उनके साथ यह पहली रू-ब-रू भेंट थी। वे हम लोगों से प्रदेश के विकास पर चर्चा करने उत्सुक थे, जिसका संकेत निमंत्रण पत्र में था। अधिकतर पत्रकारों ने या तो अपने निजी व्यापार से संबंधित कठिनाइयों का उल्लेख किया तो कुछ ने विज्ञापन आदि के बारे में बात की। जबलपुर के एक संपादक ने तो लघु उद्योग के अंतर्गत साबुन बनाने में कच्चा माल न मिलने की शिकायत की। वे स्वयं साबुन कारखाना चलाते थे। सी एम ने सबकी बातें बहुत गौर से सुनीं व अधिकारियों को निर्देश भी दिए। मैं प्रदेश, खासकर छत्तीसगढ़ के विकास से संबंधित कुछ सुझाव लिखकर ले गया था। वह पत्र उन्हें सौंप दिया। मेरी उनसे कोई खास बात नहीं हुई। रायपुर लौटने के कुछ समय बाद ही आईएएस श्रीमती माला श्रीवास्तव के हस्ताक्षर से एक शासकीय पत्र मिला कि मुझे पचमढ़ी में स्थापित होने वाले युवा कल्याण संस्थान का सदस्य मनोनीत किया गया है। यह उस संस्था का पहला और आखिरी पत्र था।
(अगले सप्ताह जारी)
3 सितंबर 2020
ललित सुरजन
अर्जुनसिंह मुख्यमंत्री तो बन गए थे, लेकिन अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले प्रारंभ में उनकी राह आसान नहीं थी। कदम-कदम पर कांटे बिछे थे। प्रदेश की नौकरशाही में सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ अफसरों तक की निष्ठा मुख्यमंत्री पद के साथ न होकर अपने दीर्घकालीन संरक्षकों के साथ थी। जिस प्रदेश में कोई मुख्यमंत्री अब तक पांच साल का कार्यकाल पूरा न कर पाया हो, उसमें श्री सिंह के भविष्य को लेकर कुछ अधिक ही अटकलबाजियां थीं। इसे एक आश्चर्य ही माना जाएगा कि उन्होंने न सिर्फ पहला कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया, बल्कि 1985 में प्रदेश के इतिहास में लगातार दूसरी बार जीतने का रिकॉर्ड कायम किया। मैंने कुछ साल पहले लिखा था कि अर्जुनसिंह कम बोलते हैं व उनके कहे का अर्थ निकालना कठिन होता है। दूसरी ओर दिग्विजय सिंह अधिक बोलते हैं और उनके कहे का अर्थ निकालना भी कठिन होता है। दिग्विजय सिंह की चर्चा यथासमय होगी। फिलहाल अर्जुनसिंह के बारे में कहा जा सकता है कि इस गुण ने उन्हें खूब साथ दिया।
श्री सिंह के बारे में उनके पद सम्हालते साथ तरह-तरह की ईष्र्याप्रेरित टीकाएं होने लगी थीं। इनमें सर्वाधिक प्रचलित थी कि अर्जुनसिंह का दिमाग इतना टेढ़ा है कि सीधा खीला घुसाओ तो स्क्रू ड्राइवर बनकर बाहर निकलता है। उन्होंने धैर्यपूर्वक इस विपरीत माहौल का सामना किया। मुझे याद आता है कि जब वे विधानसभा में विपक्ष के नेता थे तब रायपुर प्रवास पर एक होटल में भोजन करते समय भी उनके साथ अभद्र बर्ताव कांग्रेस के ही कुछ उभरते युवा नेताओं ने किया था। मुख्यमंत्री बनने के पश्चात धमतरी में उनकी शोभायात्रा में भी बाधा पहुंचाने की हरकत की गई थी। सरकार का मुखिया अपनी छवि धूमिल होने की कीमत पर कब तक यह सब चलने देता? उस समय बीके दुबे प्रदेश के मुख्य सचिव थे। मुख्यमंत्री ने उन्हें छह माह बीतते न बीतते निलंबित कर दिया। कहना न होगा यह अपने आप में बड़ी कार्रवाई थी, जिसका वांछित संदेश नौकरशाही पर ही नहीं, राजनीतिक हलकों में भी पहुंचते देर न लगी।
एक और म•ााक उन दिनों चल निकला था कि मुख्यमंत्री को कोई फैसला लेना होता है तो वे फाइल पर लिख देते हैं कि समस्त नियमों को शिथिल करते हुए यह कार्य किया जाए। इस बात में काफी सच्चाई थी, जिसकी व्याख्या की गई कि मुख्यमंत्री मनमाने फैसले लेते हैं। लेकिन इसके दूसरे पहलू को जानबूझकर नहीं समझा गया। अर्जुनसिंह ने अपने अधिकारियों पर कभी भी फाइलों पर मुंहदेखी टीप लिखने का दबाव नहीं डाला। आपको जो राय देना है अपनी स्वतंत्र बुद्धि से दीजिए। मुझे जो निर्णय लेना होगा, लूंगा, लेकिन उसकी जिम्मेदारी आपके ऊपर नहीं डालूंगा जिससे आपको आगे चलकर कोई परेशानी आए। एक उत्तरदायी सरकार के मुखिया से यही अपेक्षा हर समय की जाना चाहिए। मैंने यह भी नोटिस किया कि श्री सिंह ने अपनी ओर से किसी प्रतिद्वंद्वी पर पहला वार नहीं किया, लेकिन जब कभी उन पर हमला हुआ तो फिर पलटवार करने में उन्होंने कमी नहीं की। इसके बावजूद अपने राजनीतिक विरोधियों के काम भी उन्होंने किए व उन्हें अपने पक्ष में लाने की हरसंभव कोशिश भी की।
बहरहाल, मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने पदभार लेने के तुरंत बाद ही अपूर्व सक्रियता के साथ राजनीतिक और प्रशासनिक नवाचारी निर्णय लेना शुरू कर दिया था। उनका एक महत्वपूर्ण कदम था कि सभी संभागों व अनेक •िालों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के अधिकारी आयुक्त, डीआईजी, जिलाधीश व एसपी के रूप में पदस्थ किए गए। संदेश स्पष्ट था कि नई सरकार की सामाजिक नीति क्या होगी। छत्तीसगढ़ में उन्होंने प्रदेश (तब अंचल) की अस्मिता के प्रतीक तीन महापुरुषों को शासकीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान की। ये थे- गुरु घासीदास, वीर नारायण सिंह और पं सुंदर लाल शर्मा। इसी बीच शायद 1981 में भिलाई में एक वृहत कार्यक्रम नेहरू सभागार में हुआ। उसमें उन्होंने भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना व छत्तीसगढ़ में विकास के प्रणेता के नाते पं रविशंकर शुक्ल का श्रद्धापूर्वक नामोल्लेख किया तो सभागार में मानों आश्चर्य की एक लहर सी दौड़ गई। इस एक वाक्य ने विरोधी स्वर को किसी हद तक शांत कर दिया और श्री सिंह आम जनता के लिए प्रशंसा पात्र बन गए।
लगभग इसी समय अर्जुनसिंह ने एक ऐसा राजनीतिक दांव खेला, जिसकी कल्पना भी शायद ही किसी ने की होगी। संत-कवि-राजनेता पवन दीवान भावनात्मक रूप से पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन से 1967 के आसपास से जुड़कर उसमें सक्रिय भागीदारी निभा रहे थे। 1977 में वे जनता पार्टी से विधानसभा चुनाव जीते और जेल मंत्री भी बने। वे शुक्ल बंधुओं के कट्टर विरोधी गिने जाते थे। श्री सिंह ने उनसे गुप्त संवाद स्थापित किया। मुझे बताया गया कि वे रायपुर आकर आधी रात के बाद गुपचुप तरीके से उनसे मिलने किरवई (राजिम) आश्रम मिलने गए। उनकी आशा-अपेक्षा को समझा, पक्का आश्वासन दिया और लौट आए। इसके तुरंत बाद छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण स्थापित करने की आधिकारिक घोषणा हुई। स्वयं मुख्यमंत्री अध्यक्ष, राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष रामचंद्र सिंहदेव उपाध्यक्ष, सदस्यों में मंत्री झुमुकलाल भेंडिया आदि के अलावा प्रमुख तौर पर नवप्रवेशी कांग्रेसी पवन दीवान। मुझे भी मेरी बिना जानकारी या सहमति के इस प्राधिकरण का सदस्य मनोनीत किया गया। भाई पवन पुराने साहित्यिक मित्र थे। उनकी ऊर्जा का रचनात्मक उपयोग होगा, यह संभावना सुखद थी। सिंहदेवजी से यहां जो मित्रता हुई, वह अंत तक बनी रही।
छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की पहली दो-तीन बैठकें भोपाल में संपन्न हुईं। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी जगतस्वरूप इसके सदस्य सचिव पदस्थ किए गए। पहली बैठक में ही अनेक सदस्यों ने अपनी ओर से अंचल के विकास हेतु अनेक व्यवहारिक सुझाव पूर्वलिखित पेश किए थे जिन पर विस्तारपूर्वक चर्चा हुई। मुख्यमंत्री ने कुछेक के प्रति अपनी ओर से अनुमोदन भी किया। मेरा एक प्रस्ताव था कि छत्तीसगढ़ में एक भी पशुचिकित्सा महाविद्यालय नहीं है। इसकी स्थापना हेतु मैंने बिलासपुर में संचालित कामधेनु योजना व हरा चारा केंद्र के विस्तृत परिसर का सह-उपयोग करने का सुझाव भी दिया था, जिसे मान लिया गया था। छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की स्थापना तथा ऐसे ही अन्य कदम उठाकर अर्जुनसिंह ने कुल मिलाकर सारे मध्यप्रदेश में अपनी सियासी •ामीन मजबूत कर ली थी। छत्तीसगढ़ अंचल में शुक्ल बंधुओं के करीबी समझे जाने वाले अनेक प्रभावशाली राजनेता भी उनके साथ आ गए थे, जिन्हें श्री सिंह ने उचित सम्मान व प्रश्रय दिया। केयूरभूषण पहले ही लोकसभा का टिकट पा चुके थे। डॉ. टुम्मनलाल, झुमुकलाल भेंडिया आदि को उन्होंने महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे। एक तरफ उन्होंने राजनीतिक समीकरण साधे तो दूसरी ओर सामाजिक धरातल पर भी उन्होंने वंचित-शोषित समाज के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित की जो उनके पहले इस मुखरता के साथ किसी और ने न की थी।
(अगले सप्ताह जारी)
11 सितंबर 2020
ललित सुरजन
मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह की राजनीति से इतर एक छवि कला, साहित्य, संस्कृति के संरक्षक के रूप में भी विकसित हुई। उन्होंने इस ओर सायास ध्यान दिया व नवाचार तथा अभिनव योजनाओं को प्रोत्साहित किया। गौर किया जाए तो उनके व्यक्तित्व के इस पहलू की पक्की नींव शायद तभी पड़ चुकी थी, जब वे प्रकाशचंद्र सेठी की सरकार में शिक्षामंत्री थे। उन दिनों संस्कृति विभाग अलग न होकर शिक्षा विभाग का ही एक अंग था। एक युवा कवि और संस्कृतिकर्मी के नाते राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम कर चुके अशोक वाजपेयी संभवत: विभाग के उपसचिव थे। तभी ‘उत्सव-73Ó नाम से एक महत्वाकांक्षी विशाल कार्यक्रम का आयोजन राजधानी भोपाल में किया गया। इसमें पूरे प्रदेश से लगभग बिना भेदभाव के बड़ी संख्या में लेखक तथा कलाकार बतौर शासकीय मेहमान आमंत्रित किए गए। आयोजकों की अपनी पसंद-नापसंद थोड़ी-बहुत रही हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं है। इस भव्य आयोजन में सारे देश से अनेक गुणीजनों ने भी शिरकत की थी।
भोपाल का यह म•ामा आज भी याद आता है। सुबह से देर रात तक कार्यक्रम चलते थे। कोई किसी स्कूल के सभागार में, तो कोई खुले मैदान में। कहीं कविता पाठ चल रहा है तो कहीं सरोद वादन हो रहा है। जिसे जहां मन हो, वहां आनंद उठाए। दिलचस्प तथ्य यह है कि तीन-चार दिन के इस समागम पर मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री की छाया कहीं नहीं थी। अशोक वाजपेयी ही सर्वत्र दौड़धूप करते दिखाई देते थे। उनके अलावा शासन साहित्य परिषद के सचिव सुप्रसिद्ध कहानीकार शानी और शायद कवि आग्नेय को मैंने सक्रिय भूमिका निभाते देखा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इस आयोजन से ही भोपाल के देश की सांस्कृतिक राजधानी बनने की आधारशिला रखी गई, जिसका उत्कर्ष ‘कलाओं के घरÓ भारत भवन के लोकार्पण के साथ देखने मिला। अर्जुनसिंह के इसी कार्यकाल में शासन साहित्य परिषद का एक तरह से लोकतंत्रीकरण हुआ जब नाम में से शासन शब्द विलोपित कर दिया गया व प्रबंधन में लेखकों की भूमिका में वृद्धि की गई। निस्संदेह इन सारे उपक्रमों में अशोक वाजपेयी ने महती भूमिका निभाई, लेकिन मुख्यमंत्री की रुचि और संरक्षण के बिना बात कैसे बनती!
इधर रायपुर के पं रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में पहली बार एक सृजनपीठ स्थापित की गई जिसे पंडित सुंदरलाल शर्मा का नाम दिया गया। 1984 में बिलासपुर में छत्तीसगढ़ के तीसरे विश्वविद्यालय की स्थापना संत गुरु घासीदास के नाम पर हुई। उसे सामान्य विश्वविद्यालय से हटकर एक विशिष्ट पहचान देने के लिए अकादमिक तौर पर भी कुछ नए प्रयोग किए गए तथा छत्तीसगढ़ के ही प्रखर बुद्धिजीवी अधिकारी शरदचंद्र बेहार संस्थापक कुलपति बनाए गए। जबलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ तो अर्जुनसिंह उसमें स्वागताध्यक्ष के रूप में शरीक हुए और शोषण व अन्याय के खिला$फ लेखकों के संघर्ष की सराहना करते हुए उनके साथ एकजुटता प्रकट की। रिकार्ड के लिए कहना होगा कि प्रलेस के कार्यक्रम में उनकी यह भूमिका अप्रत्याशित ही तय हुई थी तथा उनके प्रगल्भ व्याख्यान के बावजूद संगठन में इसे लेकर आगे विवादों की नौबत भी आई। खैर, यह हमारे अपने बीच की बात थी, जिसका मुख्यमंत्री से कोई लेना-देना नहीं था।
अर्जुनसिंह अन्य किसी भी दूरदर्शी और महत्वाकांक्षी राजनेता की भांति अपनी सार्वजनिक छवि के प्रति सजग थे। इस काम को उन्होंने व्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया। प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार डॉम मॉरेस को उन्होंने देश के सबसे बड़े प्रदेश का भ्रमण कर अपने अनुभवों व अपनी शर्तों पर ग्रंथ लिखने के लिए आमंत्रित किया। दिल्ली ही नहीं, अन्य महानगरों और हिंदी-अंग्रे•ाी के अलावा अन्य भाषाओं के पत्रकारों की प्रदेश में आवाजाही एकाएक बढ़ गई। उन दिनों परंपरा थी कि राज्य के जनसंपर्क संचालक पदभार लेने के बाद प्रमुख प्रकाशन स्थलों की यात्रा कर संपादकों तथा वरिष्ठ पत्रकारों से मिलकर प्रशासन आदि पर उनके विचारों से स्वयं को अवगत करते थे। इस नियमित फीडबैक की उपयोगिता असंदिग्ध थी। श्री सिंह के समय यह परंपरा बदस्तूर जारी रही, लेकिन वे सिर्फ इतने पर नहीं रुके। उन्होंने विशेष अवसरों पर सीधे संपादकों से बात करने की परिपाटी प्रारंभ की। जब कभी कोई मुद्दा महत्वपूर्ण जान पड़ता था, मसलन सरकार की ओर से कोई विधेयक पेश किया गया जिसे वे आवश्यक समझते हों, तो वे स्वयं फोन कर संपादकों के सामने अपना पक्ष रखते थे। यद्यपि इसमें उन्होंने कभी भी कोई अतिरिक्त आग्रह या दुराग्रह नहीं रखा। उनकी शैली थी- आज ऐसा ऐसा हुआ है। आप इसे एक बार देख लेंगे तो अच्छा होगा। बस, अपने मितभाषी स्वभाव के अनुरूप इतनी सी बात। लेकिन जब सीएम खुद फोन करें तो कोई भी संपादक उसकी उपेक्षा क्यों करेगा?
प्रसंगवश यह नोट करना चाहिए कि न सिर्फ अर्जुनसिंह, बल्कि उनके पहले भी जनसंपर्क विभाग का ध्यान मुख्यत: सरकार के छवि निर्माण पर होता था। शासन की कल्याणकारी योजनाओं का उचित प्रचार-प्रसार हो, विभाग के अधिकारियों की यही अपेक्षा होती थी। पं. रविशंकर शुक्ल के समय रायपुर के ईश्वरसिंह परिहार जनसंपर्क संचालक थे, जिन्हें इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। विभाग में ऐसे अनेक अधिकारी थे जो पत्रकारिता छोड़ शासकीय सेवा में आए थे। वे विभाग की अपेक्षाओं और अखबार की सीमाओं के बीच संतुलन स्थापित करना बखूबी जानते थे। मेरी अपनी राय में परिहार साहब के बाद हनुमान प्रसाद तिवारी दूसरे संचालक थे जो इस प्रोफेशनल क्वालिटी यानी व्यवसायिक गुण के धनी थे, गो कि बाकी भी कुछ कम नहीं थे। ये अधिकारी खुद को नेपथ्य में रखते थे, जबकि आज का चलन बिलकुल पलट गया है। बहरहाल, अर्जुनसिंह के समय अशोक वाजपेयी तथा सुदीप बनर्जी की जोड़ी ने जनसंपर्क विभाग का जो कायाकल्प किया, वह अद्भुत था। कितने ही सुयोग्य अधिकारियों को पदोन्नति के अवसर तथा स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकार मिले; मध्यप्रदेश माध्यम जैसी आनुषंगिक एजेंसी का गठन किया गया; रोजगार व निर्माण जैसी पत्रिका निकली आदि।
उन दिनों टीवी तो था नहीं। जो कुछ थे, अखबार ही थे। हर अखबार की अपनी अलग नीति, सरकार से अपनी-अपनी अपेक्षा। अधिकतर के दूसरे व्यापार समानांतर चलते थे, जैसे कि आज भी चल रहे हैं। कोई पीएचई में पाइप सप्लाई कर रहा है, किसी का साबुन कारखाना है, किसी को महापौर बनने की इच्छा है तो कोई नगर विकास प्राधिकरण की अध्यक्षता चाहता है, किसी को और कुछ चाहिए। अर्जुनसिंह ने इन सबकी आकांक्षाओं को समझा तथा जिसके लिए जो कर सकते थे, भरसक कर दिया। देशबन्धु अकेला पत्र था जिसकी एकमात्र मांग एक सुसंगत विज्ञापन नीति निर्धारण की थी ताकि किसी भी समाचारपत्र के साथ मनमाना व्यवहार न हो। मैं समझता हूं कि उनके कार्यकाल में देशबन्धु को सम्मान मिलने का एक बड़ा कारण यह भी था कि हम उनके पास अपने लिए किसी निजी स्वार्थ से नहीं गए। लेकिन हां, ऐसे मौके अनेक बार आए जब दूसरों की मदद के लिए उनके पास जाना पड़ा। वे अगर मदद कर सकते थे तो फिर अंग्रे•ाी में एक वाक्य में उत्तर- कंसिडर इट डन। यानी आपका काम हो गया समझिए। नहीं कर पाएं तो विनम्र भाव से- ललितजी, इसे अभी रहने दें? जी, ठीक है। बात यहां समाप्त। लेकिन बातें अभी बहुत बाकी हैं।
(अगले सप्ताह जारी)
19 सितम्बर 2020
ललित सुरजन
पाठकों को स्मरण होगा कि मध्यप्रदेश में 1985 के विधानसभा चुनाव संपन्न होते साथ ही मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह को पंजाब का राज्यपाल बनाकर चंडीगढ़ भेज दिया गया था। यह अचानक उठाया गया कदम उतना ही कल्पना से परे भी था। अर्जुनसिंह के नेतृत्व में पहली बार कांग्रेस ने लगातार दूसरी जीत हासिल कर इतिहास रच दिया था। इसके पहले लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश की चालीस में से चालीस सीटें कांग्रेस की झोली में आईं थीं। इस शानदार दोहरी सफलता के बावजूद अर्जुनसिंह को प्रदेश से हटाने का क्या कारण था? वैसे तो उन्हें एक संवेदनशील राज्य के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर भेजा जाना •ााहिरा तौर पर पदोन्नति थी, लेकिन हकीकत में उन्हें ”किक अपÓÓ किया गया था। दूसरे शब्दों में मध्यप्रदेश में उनकी उपस्थिति एकाएक असुविधाजनक लगने लगी थी तथा उन्हें सम्मानपूर्वक विदा करने का रास्ता खोजा जा रहा था एवं उसमें बहुत अधिक वक्त नहीं लगा, बल्कि एक तरह से उतावलापन देखने मिला। इस घटनाचक्र का विश्लेषण करते हुए अनेक संभावित कारण सामने आने लगते हैं।
मेरी समझ में सबसे पहला कारण था किसी भी साथी-सहयोगी को एक सीमा से आगे न बढऩे देने की इंदिरा गांधी के समय से चली आ रही नीति। राजीव गांधी ने इस आत्मघाती नीति को जारी रखा, और इस प्रकरण में तो शुरुआत ही थी। दूसरा कारण स्वयं अर्जुनसिंह की असावधानी या आत्मविश्वास का अतिरेक था। क्या वे नहीं जान रहे थे कि तब भी उनके विरोधी कम नहीं थे, बल्कि उन्हें कहीं और से प्रश्रय भी मिल रहा था? शायद तीसरा कारण भोपाल गैस त्रासदी का दोष उनपर मढ़ते हुए उन्हें हाशिए पर डालना था। इन सब कारणों के पीछे और सबसे बड़ा कारण दिल्ली में राजीव गांधी के प्रथम विश्वस्त और देश के गृहमंत्री के रूप में पी वी नरसिंह राव की उपस्थिति थी। केंद्रीय गृहमंत्री होने के नाते दिल्ली पुलिस उनके मातहत थी। क्या सिखों का नरसंहार होने के लिए वे प्रथमत: अपराधी नहीं थे? फिर भी सारा दोषारोपण राजीव पर मढ़ दिया जाता है। यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन को भी क्या उनकी सहमति-अनुमति के बिना भारत आने और सुरक्षित लौटने की गारंटी मिल सकती थी? जबकि इसका ठीकरा आज भी अर्जुनसिंह के माथे फोड़ा जाता है। इसी संदर्भ में मेरा अंतिम तर्क है कि श्री राव प्रधानमंत्री न बन पाने से क्षुब्ध और मर्माहत होकर राजीव गांधी को ही कम•ाोर करने में लगे थे। दूसरी ओर, मध्यप्रदेश में सिंह विरोधियों का साथ देकर वे अपने कॉलेज जीवन में पं. रविशंकर शुक्ल द्वारा किए उपकार से भी शायद उऋण होना चाहते थे!
अर्जुनसिंह के समक्ष उस समय संभवत: पंजाब जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। तीन-चौथाई बहुमत वाले प्रधानमंत्री को मना करते भी तो कैसे? उस स्थिति में महज एक विधायक बन कर रह जाने की आशंका थी। जबकि राज्यपाल पद को एक ओर पदोन्नति और दूसरी ओर प्रधानमंत्री द्वारा खास तौर पर एक चुनौती सौंपे जाने का गौरव प्रचारित करने का वाजिब अवसर था। बहरहाल, श्री सिंह ने उत्तराधिकारी के रूप में अपने विश्वासपात्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल वोरा का नाम आगे बढ़ाया, और उन्हें पदभार सौंप चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गए। यह चयन आगे चलकर स्वयं उनके लिए कितना कष्टकारी हुआ, उसकी चर्चा बाद में होगी। अर्जुनसिंह ने बतौर राज्यपाल बमुश्किल तमाम छह माह पंजाब में बिताए, लेकिन इस अवधि में उन्होंने सिद्ध कर दिया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें एक भारी चुनौती भरा दायित्व देकर गलती नहीं की थी। उन्होंने वहां दिन-रात मेहनत की। समाज के विभिन्न वर्गों से प्रत्यक्ष व परोक्ष संबंध स्थापित किए। उनका सहयोग हासिल किया और अंतत: राजीव गांधी- संत लोंगोवाल के बीच पंजाब समझौता करवाने जैसे लगभग असंभव काम को अंजाम देने में सफल हुए।
इस चमत्कारी उपलब्धि के बाद चंडीगढ़ में उनकी उपस्थिति अब आवश्यक नहीं थी। वे राजनीति की मुख्यधारा यानी मेनस्ट्रीम में लौटने के लिए शायद बेताब भी हो रहे थे। दिक्कत यह थी कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री पद खाली नहीं था, बल्कि वे लौट कर न आ जाएं, इस पर योजनाबद्ध तरीके से काम चल रहा था। ऐसे में यह राजीव गांधी की ही नैतिक जिम्मेदारी बनती थी कि अर्जुनसिंह की योग्यता का सम्मान करते हुए उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी जाए। इसमें उन्होंने देर नहीं की। श्री सिंह को राजीव की कैबिनेट में बतौर दूरसंचार मंत्री स्थान मिला तथा कुछ ही दिनों बाद दक्षिण दिल्ली क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर बाकायदा लोकसभा में भी पहुंच गए। यह सीट डॉ. शंकरदयाल शर्मा के दामाद ललित माकन (साथ ही पुत्री गीतांजलि माकन भी) की आतंकवादियों द्वारा हत्या किए जाने से रिक्त हुई थी। इस जीत से यह संदेश किसी हद तक प्रबल हुआ कि अर्जुनसिंह का राजनीतिक कौशल मध्यप्रदेश तक सीमित नहीं है, बल्कि वे विपरीत तथा नई परिस्थितियों में भी जीतने का दमखम रखते हैं। काश कि वे इस नई-नई अर्जित छवि को ही पुष्ट करने पर ध्यान देते!
उनका मन तो मध्यप्रदेश में लगा हुआ था। चंडीगढ़ और दिल्ली तो यात्रा के अनिवार्य और कहा जाए तो लादे गए पड़ाव मात्र थे। कैबिनेट मंत्री के रूप में काम करते हुए उन्होंने भोपाल वापस आने की जोड़-तोड़ प्रारंभ कर दी। संभव है कि मध्यप्रदेश में उनके विरुद्ध लगातार जो वातावरण बनाया जा रहा था, उससे वे विचलित हो रहे हों, लेकिन क्या भोपाल लौटने के अलावा और कोई रास्ता बाकी नहीं था? वे दिल्ली में सत्ता केंद्र के मध्य में थे। क्या वहीं रहकर बेहतर राजनीतिक प्रबंधन नहीं हो सकता था? मैं इस बारे में कुछ भी अनुमान लगाने में असमर्थ हूं। तथापि मेरा सोचना है कि 1988 में दुबारा मुख्यमंत्री बनकर मध्यप्रदेश लौटना और फिर खरसिया क्षेत्र से विधानसभा उपचुनाव लडऩा भविष्य में उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ। उनकी जो राष्ट्रीय स्तर पर इमेज बनी थी, वह तो टूटी ही, प्रदेश में भी उनकी लोकप्रियता व अजेयता को खरसिया ने एक मिथक में बदल दिया। याद रहे कि इस बीच प्रधानमंत्री राजीव गांधी का तिलस्म भी लगभग टूट चुका था व उनकी जगह वी पी सिंह का जादू मतदाता के दिल-दिमाग पर छाने लगा था। अर्जुनसिंह को इस तरह दो तरफ से नुकसान उठाना पड़ा।
यह सत्य अपनी जगह पर है कि 1988 में तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अर्जुनसिंह ने अपने पुराने सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक अजेंडा पर ही अधिक जोर-शोर से काम करना प्रारंभ कर दिया था। दूसरे शब्दों में उन्होंने सुविधा की राजनीति के बजाय पहले से अंगीकृत सिद्धांतों की राजनीति पर जमे रहना ही बेहतर समझा। ऐसा करते हुए शायद उनकी निगाह 1990 में निर्धारित विधानसभा चुनावों की ओर रही हो; 1989 के आम चुनाव भी बस सामने ही थे। अगर मध्यप्रदेश में ये दोनों चुनाव उनके नेतृत्व में लड़े जाते तो क्या परिणाम निकलते, आज उसका अनुमान लगाना व्यर्थ है। किंतु इतना तो याद रखना ही होगा कि खरसिया जैसी ”सेेफ सीटÓÓ से अप्रत्याशित रूप से कम वोटों से जीतने को उनकी कम•ाोरी माना गया। इसी सोच के चलते उन्हें एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाना पड़ी। मोतीलाल वोरा दुबारा सीएम बने, उनके नेतृत्व में लोकसभा में कांग्रेस को भारी पराजय मिली; फिर अचानक ही श्यामाचरण शुक्ल तीसरी बार अल्प समय के लिए मुख्यमंत्री बने, और इस बार कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में भी शिकस्त झेलना पड़ी।
(अगले सप्ताह जारी)
27 सितंबर 2020
ललित सुरजन
रायपुर में हमारी डाक सामान्य तौर पर मुख्य डाकघर में आबंटित पोस्ट बॉक्स में रख दी जाती है। कोई कार्यालय सहायक जाकर उसे ले आता है। (यह कूरियर सेवा आरंभ होने के बहुत पहले की बात है)। उस रो•ा आया ग_र अन्य दिनों की ही भांति था। डाक छांटते हुए मैं अपने नाम आई चि_ियों को अलग रखते जा रहा था। उनमें एक अंतर्देशीय था, जिस पर मेरा नाम-पता हाथ से लिखा था, किंतु प्रेषक का नाम नहीं था। पत्र खोलकर देखा तो मैं चौंक गया। उसी हस्तलिपि में म•ामून कुछ इस प्रकार था-
‘प्रिय सुरजन जी, मुझे मालूम हुआ कि पिछले दिनों आपके साथ मेरे दिल्ली निवास पर सम्मानजनक व्यवहार नहीं हुआ और आप बिना मिले लौट गए, जबकि मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। मैं इसके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं। आप अगली बार जब भी दिल्ली आएं, कृपया मिलकर ही जाएं। आपका, अर्जुनसिंह।Ó
यह वाकया 1986 के अगस्त- सितंबर का है। पत्र की भाषा तो नहीं लेकिन भावना यही थी। याददाश्त के भरोसे लिखने के कारण पत्र को हू-ब-हू उद्धृत करना संभव नहीं है। मेरे लिए यह कल्पना करना मुश्किल था कि एक तो बाबूजी के समकालीन यानी उम्र में इतने बड़े, दूसरे केंद्रीय मंत्री व देश के प्रभावशाली राजनेता मुझे इस तरह का खत लिखेंगे।
अर्जुनसिंह उन दिनों केंद्रीय दूरसंचार मंत्री थे। मैंने अपने एक दिल्ली प्रवास के दौरान, जैसे कुछेक अन्य राजनेताओं से मिलता था उसी तरह, उनसे भी मिलने का समय मांगा। अगले दिन सुबह का वक्त सरलतापूर्वक तय हो गया। वे पंजाब के राज्यपाल पद से कुछ समय पहले ही मुक्त होकर लौटे थे, इसलिए बंगले पर सुरक्षा का खासा इंतज़ाम था। मुख्य द्वार पर ही खानातलाशी हो रही थी। मैं शांतिपूर्वक जांच में सहयोग करता रहा, लेकिन जब सुरक्षा प्रहरी ने मेरे बालप्वाइंट पैन को भी खोलकर जांचना शुरू किया तो मुझसे नहीं रहा गया। सुरक्षाकर्मी के लिए यह सामान्य प्रक्रिया रही होगी लेकिन सड़क पर खड़े रहकर जांच करवाना मुझे अपमानजनक लगा। मैंने पैन वापस मांगा और मंत्रीजी से बिना मिले लौट आया। उसी दिन नए-नए राज्यसभा सदस्य बने अजीत जोगी के साथ मेरा लंच था। जोगीजी ने पूछा- साहब के साथ मीटिंग कैसी रही, तो मैंने उन्हें सुबह का किस्सा सुनाया। जोगीजी ने यह बात शायद उस दिन ही श्री सिंह को बता दी। उपरोक्त पत्र उसी का परिणाम था। मैं जब अगली बार दिल्ली गया तो •ााहिर है कि मंत्रीजी से मिलने का वक्त मांगा और अगले दिन के लिए भेंट तय हो गई।
दूसरे दिन जब मैं उनके बंगले पहुंचा तो मुख्य द्वार पर कोई चौकसी नहीं थी। भीतर एक नई कॉटेज बन गई थी, जहां आगंतुकों की सुुुरक्षा जांंच का प्रबंध था। मेरा परिचय जानकर मुझे बिना जांच के ही आगे बढऩे का संकेत दे दिया गया। अर्जुनसिंह सेे सौजन्यपूर्वक भेंट हुई। देश-प्रदेश की राजनीति पर बातचीत होना ही थी। अधिकतर समय मैं ही बोलता रहा और अपने स्वभाव के अनुरूप वे सुनते रहे। इस बीच न तो उन्होंने मेरे लौट जाने की बात उठाई और न ही अपने खत का उल्लेख किया। पंद्रह-बीस मिनट की मुलाकात का समय खत्म होने आया तो मैंने चलने की इजा•ात मांगी। अब एक बार फिर मेरे चौंकने की बारी थी। उन्होंने पूछा- आप कल दिल्ली में हैं? जी। तो कल मेरे साथ दिन के भोजन के लिए समय निकाल सकेंगे? इसका उत्तर ‘जी हांÓ के अलावा और क्या हो सकता था? दूसरे दिन आवासीय कार्यालय के बजाय उनके निवास पर भोजन कक्ष में साथ बैठना हुआ। उनके इस शिष्टाचार से अभिभूत न हो पाना कठिन था। वे चाहते तो उनके दरवा•ो से मेरे लौट जाने की उपेक्षा कर सकते थे। फिर पत्र लिखना अपने आप में पर्याप्त से अधिक था। पिछले दिन हुई मुलाकात के बाद तो कोई शिकायत नहीं बचती थी। बाबूजी के साथ उनके आत्मीय संबंध थे। इन सब के बावजूद लंच पर निमंत्रित कर अर्जुनसिंह ने मेरी निजता व भावनाओं का जो सम्मान किया, इसे एक ऐसे विरल गुण के रूप में नोट किया जाना चाहिए जो अमूमन सत्ताधीशों में नहीं पाया जाता।
अर्जुनसिंह की प्रदेश से अनुपस्थिति के चलते मध्यप्रदेश में उनके पुराने विरोधियों को एक तरह से खुला मैदान मिल गया था। उनका साथ देने के लिए कतिपय नए विरोधी भी जुट गए थे। इनमें यदि एक ओर वे थे जिनकी महत्वाकांक्षा पूर्ति में श्री सिंह ने निर्णायक सहायता की थी; तो दूसरी ओर वे भी थे जिनका तब तक उनसे कोई सीधा लेना-देना नहीं था। वे शायद अपनी युवावस्था को आधार बना भविष्य की राह प्रशस्त करने की संभावना देख रहे थे। इस तरह योजनाबद्ध तरीके से सिंह-विरोधी अभियान की शुरुआत हो गई थी जिसका बेहद उपयुक्त नामकरण कल्पनाशील पत्रकारों ने मोती-माधव एक्सप्रेस कर दिया था। राज्य के कतिपय पत्रों में अर्जुनसिंह पर उनका पक्ष जाने बिना व्यक्तिगत लांछन लगाते हुए नियमित कॉलम छपने लगे। इसी तर्ज पर प्रदेश से बाहर के अनेक अखबारों व पत्रिकाओं में फोटो-फीचर प्रकाशित होने लगे। कलकत्ता की पत्रिका ‘रविवारÓ इसमें सबसे आगे थी। कुछ पत्रकारों ने तो मानों इस अभियान को निज प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था। ऐसे सभी बंधुओं को आगे चलकर जो भौतिक परिलब्धियां हासिल हुईं, वे पत्रकार बिरादरी से छुपी हुई नहीं हैं। इस चलन के विपरीत मैंने आने वाले दिनों में नोट किया कि अर्जुनसिंह अपने कट्टर विरोधियों पर भी ऐसे निजी हमले करने से परहेज करते थे। प्रदेश में कांग्रेस को इस अंतर्कलह का भविष्य में कितना नुकसान उठाना पड़ा, यह गहन शोध का विषय है।
बहरहाल, इसी परिदृश्य के बीच अर्जुनसिंह 1988 के प्रारंभ में फिर मुख्यमंत्री बनकर भोपाल लौटे। उन्होंने दुगने जोश के साथ सामाजिक न्याय के अपने पुराने अजेंडे पर काम शुरू किया। इसी समय कुछ दिनों बाद देशबन्धु का तीसवां स्थापना दिवस आ रहा था तो हमने उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित कर एक बड़ा आयोजन करने की बात सोची। उन्होंने हमारा आमंत्रण तुरंत स्वीकार कर लिया। 17 अप्रैल 1988 की सुबह बाबूजी माना विमानतल पर उनकी अगवानी करने गए तो उन्हें उलाहना मिला- ललित आ जाते। आपको आने की क्या •ारूरत थी। बाबूजी ने उत्तर दिया- ललित अपनी जगह, मैं अपनी जगह। खैर, हमारा कार्यक्रम अपेक्षा से अधिक अच्छा हुआ। मेरे जिन सहयोगी को आभार व्यक्त करना था, ऐन मौके पर पीछे हट गए व मुझे बिना किसी तैयारी के यह दायित्व निभाने मंच पर जाना पड़ा। मैंने तीन-चार मिनट में जो कुछ भी कहा, वह मेरे आज तक के सार्वजनिक वक्तव्यों में शायद एक प्रभावी वक्तव्य गिना जाएगा! आयोजन समाप्त हुआ। मंचासीन अतिथियों के साथ-साथ मैं भी नीचे उतरा और तभी अर्जुनसिंह जी ने मुझे बधाई देते हुए कहा- चिप ऑफ द ओल्ड ब्लाक याने जैसा पिता वैसा पुत्र।
देशबन्धु के स्थापना दिवस के इस समारोह की खास कर हमारे लिए एक याद रखने लायक बात थी कि अर्जुनसिंह विमानतल से सीधे प्रेस आए तथा कार्यक्रम के बाद नगर में अन्य किसी आयोजन में शिरकत करने के बजाय तुरंत भोपाल लौट गए। इसके अलावा कुछ और यादें मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। हमारे अनन्य शुभचिंतक व संकटमोचक पवन दीवान इस अवसर पर बतौर विशेष अतिथि उपस्थित थे। देशबन्धु नेे राजिम के निकट लखना गांव गोद लेकर लगातार एक साल वहां शासकीय सहयोग से विकास कार्यों को गति दी थी, उनकी चर्चा हुई। मुख्यमंत्री ने स्वयं अपने उद्बोधन में उसकी सराहना की। (उल्लेखनीय है कि प्रतिष्ठित पत्रकार बी जी वर्गी•ा ने हिंदुुस्तान टाइम्स के संपादन के दौरान दिल्ली के पास छातेरा गांव गोद लिया था। हमारा यह अभिनव प्रयोग उसी उदाहरण से प्रेरित था)। छत्तीसगढ़ के समर्पित समाजसेवी आर्किटेक्ट टी एम घाटे का सार्वजनिक सम्मान भी मुख्यमंत्री के हाथों हुआ। मुख्यमंत्री का भाषण लीक से हटकर था। उन्होंने उन अखबार मालिकों पर तीखे कटाक्ष किए जो पत्र की आड़ में सरकारी और गैर-सरकारी तौर पर सही-गलत तरीके से स्वार्थ पूर्ति में लगे रहते हैं। आयोजन के एक दिन पहले अचानक आए आंधी-तूफान ने हमारी सारी व्यवस्था पर पानी फेर दिया था। नए सिरे से तैयारियां करना एक भारी चुनौती थी, लेकिन हमने सुबह चार बजे शुरू कर दस बजते न बजते दुबारा सारे इंत•ाामात कर लिए थे। मैंने अपने आभार प्रदर्शन में इसी उल्लेख के साथ यही कहा था कि देशबन्धु में हमें संघर्षों का सामना करने की आदत पड़ चुकी है।
(अगले सप्ताह जारी)
8 अक्टूबर 2020
ललित सुरजन
अर्जुनसिंह के बारे में जितने भी सच्चे-झूठे किस्से प्रचलित हैं, उनमें से एक में अनजाने ही उनके एक गुण की प्रशंसा है। आज भी आपको यह बताने वाले कुछेक जन मिल जाएंगे कि उन्होंने विमान या ट्रेन में सफर के दौरान अर्जुनसिंह को दो-दो पुस्तकें एक साथ पढ़ते हुए देखा है। यह सच है कि श्री सिंह का अध्ययन बेहद व्यापक और उतना ही गहन था। उनकी निजी लाइब्रेरी में दुनिया के तमाम विषयों पर पुस्तकें थीं जो उनकी पढ़ी हुईं थीं। मेरी उनसे अक्सर पुस्तकों पर चर्चा होती थी। तब मुझे यह जानकर हैरानी होती थी कि मैं जिस किताब का जिक्र कर रहा हूं, वह उन्होंने पढ़ रखी है तथा उस पर वे साधिकार बात कर सकते हैं। ऐसा एकाध बार ही हुआ कि मैंने किसी पुस्तक की चर्चा छेड़ी और वह उन्होंने नहीं देखी है। तब वे अपने विश्वस्त श्री यूनुस को बुलाकर तुरंत वह पुस्तक खरीदने का निर्देश देते थे। मैंने जब दो-दो पुस्तकें एक साथ पढऩे का किस्सा उन्हें सुनाया तो उन्होंने मुस्कुरा कर उसका आनंद लिया। कुल मिलाकर अपने समय में वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो पूरी तरह राजनीति में डूबे होने के बावजूद साहित्य व ललित कलाओं की गहरी समझ रखते थे तथा संस्कृतिकर्मियों के साथ जिनका सक्रिय संवाद था।
उस दौर के पत्रकारों को याद होगा कि अर्जुनसिंह प्रेस से चर्चा करते हुए या किसी पत्रकार को इंटरव्यू देते समय अपने सामने टेप रिकॉर्डर रख लेते थे कि उनको यदि कहीं गलत उद्धृत किया जाए तो वे उसका प्रतिवाद कर सकें। वे स्वयं नपी-तुली बातें करते थे, इसलिए अपने कथन के सार्वजनिक प्रकाशन के प्रति वे इस सीमा तक सतर्क थे, जिसे अतिरेकपूर्ण मानना गलत न होगा। श्री सिंह के एक उद्यम के बारे में शायद बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि उन्होंने सन् 1957 से लेकर शायद सन् 1988 तक के मध्यप्रदेश विधानसभा में दिए गए भाषणों, हस्तक्षेपों, प्रश्नोत्तरों आदि का सिलसिलेवार संकलन कर दस खंडों के एक वृहत ग्रंथ के रूप में उनका प्रकाशन किया। प्रदेश की राजनीति के अध्येताओं व शोधकर्ताओं के लिए यह एक बहुमूल्य दस्तावेजीकरण है। देश में किसी अन्य जनप्रतिनिधि ने ऐसा काम संभवत: आज तक नहीं किया है। यह एक ओर संसदीय राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी का प्रमाण है; तो दूसरी ओर इसे भी किसी कदर शब्दों के प्रति उनकी सतर्कता का उदाहरण माना जा सकता है। हमने राजनेताओं को बहुधा अपने वक्तव्यों से मुकरते, उनका खंडन करते, उन्हें गलत समझे जाने जैसे प्रतिवाद करते पाया है। यहां अर्जुनसिंह को इस चलन से अलग देखा जा सकता है।
दो जाने-माने हिंदी पत्रकारों ने अर्जुनसिंह की जीवन यात्रा पर पुस्तकें लिखीं हैं। पहले (स्व) कन्हैया लाल नंदन जिन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया व एक साहित्यिक के नाते भी पहचान बनाई थी। दूसरे रामशरण जोशी जो एक वामपंथी समाजचिंतक के रूप में ख्यातिप्राप्त हैं। अगर मुझे सही याद है तो वह जोशीजी की पुस्तक थी जिसका लोकार्पण तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने पार्लियामेंट एनेक्सी के सभागार में किया था। संयोग से मैं दिल्ली में था तो कार्यक्रम का आमंत्रण मुझे भी मिल गया था। अनेक नामचीन हस्तियों ने कार्यक्रम में शिरकत की थी। राष्ट्रपति ने अर्जुनसिंहजी के बारे में अत्यंत आदरपूर्वक उद्गार व्यक्त किए थे। फिर भी माहौल में कोई उत्तेजना या गरमाहट नहीं थी। एक तरह से शिष्ट औपचारिकता का ही अनुभव हो रहा था। मुझे दोनों पुस्तकें सौजन्य भेंट मिल गईं थीं। उनका सरसरी तौर पर अवलोकन करने के बाद मैं उलाहना के स्वर में श्री सिंह से यह कहे बिना नहीं रह सका था कि आप अगर प्रकाशन पूर्व इनकी पांडुलिपियां मुझे देखने दे देते तो बेहतर होता। ऊपर मैं शब्दों के प्रति जिस अतिरेकी सतर्कता का उल्लेख कर आया हूं, ये पुस्तकें उसके एकदम विपरीत थीं। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इन उपक्रमों के पीछे कौन सी प्रेरणा काम कर रही थी!
अर्जुनसिंह को अधिकतर लोग, विशेषत: उनके अधीनस्थ अधिकारी और राजनीतिक कार्यकर्ता, साहब का संबोधन देते थे। अनेक पत्रकार खुशामदी अंदा•ा में उन्हें कुंवर साहब कहते थे, यद्यपि मुझे शक है कि इसे उन्होंने कभी पसंद किया हो। बघेलखंड के जन समुदाय व न•ादीकी लोगों के लिए स्वाभाविक ही वे दाऊ साहब थे, लेकिन उनसे निकटता पाने के अभिलाषी पत्रकारों को जब मैं उन्हें दाऊ साहब कहते सुनता था तो बहुत कोफ़्त होती थी। म•ो की बात है कि मुझे उन्हें कभी कोई संबोधन देने की आवश्यकता नहीं पड़ी। 2009 में जब वे मंत्री नहीं रह गए थे, तब मैंने यात्रा वृत्तांत की अपनी नई पुस्तक ‘दक्षिण के आकाश पर ध्रुवताराÓ उन्हें समर्पित करना तय किया, जिसकी शब्दावली थी-
‘जनतांत्रिक राजनीति के प्रखर प्रवक्ता/
साहित्य एवं ललित कलाओं के भावक/
एवं अच्छी पुस्तकों के पाठक/
आदरणीय श्री अर्जुनसिंह के लिएÓ।
मैंने जब पुस्तक उन्हें भेंट की तो यह अंश पढ़ कर वे फफक-फफक कर रो पड़े। एक-दो मिनट बाद उन्होंने खुद को संयत किया। अपने आप पर सदैव नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति से ऐसे भावोद्रेक की मैं कल्पना नहीं करता था। यह समय था जब राजनीतिक क्षितिज पर उनका सूर्य अस्ताचल की ओर था और वे शायद अपने को एकाकी महसूस कर रहे थे!
श्री सिंह के मितभाषी होने का एक रोचक प्रसंग मेरे साथ घटित हुआ। यह शायद 2008 की बात है। उनके विश्वस्त सहायक श्री यूनुस ने फोन किया। भाई साहब, आप आठ तारीख को दिल्ली आ सकते हैं? यूनुस भाई, उस दिन मेरा पटना में कोई कार्यक्रम है। नौ तारीख को आ जाऊं तो चलेगा? ठीक है, साहब से पूछ कर खबर करता हूं। कुछ ही देर में स्वयं अर्जुनसिंह फोन पर थे- आप नौ तारीख को आने का कह रहे हैं, तब तक तो बहुत देर हो जाएगी। जी, ठीक है, मैं आठ को पहुंच जाऊंगा। सुबह की फ्लाइट पकड़ी। एयरपोर्ट से सीधे उनके निवास। सामान टैक्सी में। कार्यक्रम था कि वे उस दिन एक प्रकाशक के साथ अपनी अंग्रे•ाी में लिखी आत्मकथा का अनुबंध कर रहे थे, जिसकी साक्षी में उन्होंने कुल 12-15 जनों को बुलाया था। उनके साथ अनेक वर्षों से जुड़े रहे विभाग के सचिव के अलावा सरकारी अधिकारी एक भी नहीं और न कोई राजनेता। यह मेरे प्रति स्नेह और विश्वास ही था कि इस सीमित आयोजन में मुझे उन्होंने शरीक किया। लेकिन फोन पर निमंत्रण देते समय एक नितांत निजी कार्यक्रम की संक्षिप्त जानकारी भी न देने का क्या कारण रहा होगा?
अर्जुनसिंह के बारे में माना जाता है कि वे बहुत देख परख कर ही किसी पर विश्वास करते थे। यह आकलन कभी सही रहा होगा किंतु परवर्ती घटनाचक्र बताता है कि कुछ ऐसे विश्वासपात्रों ने ही उन्हें वक्त आने पर धोखा दिया। राजनीति क्या, शायद जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही होता है! इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। लेकिन अर्जुनसिंह के राजनीतिक सफर का अवलोकन करते हुए उस सवाल का ध्यान आता है जो उनके जीवन काल में ही उनकी पत्नी श्रीमती सरोज सिंह ने उठाया था जो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को संबोधित था। सोनियाजी के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि अर्जुनसिंह को प्रधानमंत्री पद न सही, लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए भी उपयुक्त क्यों नहीं माना गया? मेरी अपनी समझ में, जैसा कि मैं पहले भी •िाक्र कर आया हूं, इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दबाव थे। बहरहाल, मेरे साठ साल के पत्रकार जीवन में ऐसे तीन राजनेता मिले जो वैसे बाबूजी के मित्र व समकालीन थे, लेकिन जिन्होंने मुझ पर स्नेह रखते हुए मेरे साथ मित्रवत संबंध निभाए। अर्जुनसिंह के अलावा अन्य दो थे- इंद्रकुमार गुजराल और ए बी बर्धन। लेकिन मैंने हमेशा सतर्कता बरती कि इन संबंधों का दुरुपयोग न हो। ऐसे तीन-चार मौके आए जब किसी व्यक्ति ने या तो मेरे माध्यम से अर्जुनसिंह के निकट पहुंचना चाहा, या उनसे सीधे मिले तो बतौर जमानतदार मेरा नाम ले लिया। ऐसे हर अवसर पर मैंने उन्हें तटस्थ भाव से अपनी राय दी और किसी तरह से उनका निर्णय प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया। इस सिलसिले में एक प्रसंग शायद पाठकों को रुचिकर लगे। देश- विदेश के शासन प्रमुखों को नि:संकोच अपना मित्र घोषित करने के लिए प्रसिद्ध दिल्लीवासी एक हमउम्र पत्रकार ने 1992 में मुझे प्रस्ताव दिया- नरसिंहराव मेरे मित्र हैं, अर्जुनसिंह आपके। हम दोनों मिलकर उनके बीच समझौता करवा देते हैं। मैंने उनको यह कहकर निराश किया कि राव साहब आपके मित्र होंगे लेकिन अर्जुनसिंह से मित्रता का मेरा कोई दावा नहीं है।
(अगले सप्ताह जारी)
13 अक्टूबर 2020
ललित सुरजन
छत्तीसगढ़ की राजनीति के अध्येता जानते हैं कि मोतीलाल वोरा के राजनीतिक जीवन की शुरुआत राजनांदगांव से हुई थी, जब वे वहां एक निजी बस कंपनी में काम करते थे। वोराजी के बारे में सोचते-सोचते अनायास मेरा ध्यान इन बस कंपनियों से संबंधित एक लगभग अनजाने और अचर्चित पक्ष की ओर चला गया। पुराने मध्यप्रांत व बरार में सेंट्रल प्राविंसे•ा ट्रांसपोर्ट सर्विस (सीपीटीएस) नामक सार्वजनिक बस सेवा चलती थी जो अपनी उत्तम सेवा के लिए जानी जाती थी। उधर मध्यभारत में भी मध्यभारत रोडवे•ा नाम से सार्वजनिक बस सेवा संचालित होती थी। जब 1 नवंबर 1956 को नए मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब भी काफी समय तक ये दोनों सेवाएं विद्यमान रहीं। आश्चर्य का विषय है कि छत्तीसगढ़ को न इसके पहले और न इसके बाद सीपीटीएस की सेवाओं का लाभ मिला! यहां सिर्फ निजी कंपनियों को ही यात्री बस चलाने की अनुमति थी। द्वारका प्रसाद मिश्र ने मुख्यमंत्री बनने के बाद 1964 में छत्तीसगढ़ में निजी कंपनियों के एकाधिकार को तोड़ते हुए सीपीटीएस की सेवा प्रारंभ की, जिसमें रायपुर की सिटी बस सेवा भी शामिल थी। निजी कंपनियों को यह एकाधिकार कैसे मिला, उससे किन राजनेताओं को लाभ मिला, इस पर शायद आज तक कोई रिसर्च नहीं हुई है, जो होना चाहिए थी। खैर, वोराजी ने राजनांदगांव बस स्टैंड पर महात्मा गांधी की आवक्ष प्रतिमा लगाने का विचार किया। यह सार्वजनिक जीवन में उनका पहला कदम या एंट्री प्वाइंट था। इसे मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने बस यात्रियों व नागरिकों से आर्थिक सहयोग की अपील की। उनका यह शुभ संकल्प पूर्ण होते देर न लगी। कुछ समय बाद वोराजी शायद उसी कंपनी में तबादले पर •िाला मुख्यालय दुर्ग आ गए। यहां भी सार्वजनिक/राजनीतिक जीवन में उनका सक्रियतापूर्वक भाग लेना जारी रहा। इस बीच वे डॉ. लोहिया की समाजवादी पार्टी (संसोपा) छोड़ कांग्रेस में आ गए थे। तब तक रायपुर अखबारों के एक नए प्रकाशन केंद्र के नाते विकसित हो चुका था। वोराजी को इनमें से किसी पत्र ने अपना संवाददाता नियुक्त कर दिया था। इसका कुछ न कुछ लाभ होना ही था। उधर बस कंपनी में भी वे प्रगति के सोपान तय कर रहे थे। मैं पहली बार जब वोराजी से उनके कार्यालय में मिला, तब वे कंपनी के प्रबंध संचालक या मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर थे। निश्चित ही वे व्यवसायिक और व्यवहारिक बुद्धि के धनी थे, किंतु उन्हें जो लोकप्रियता हासिल हुई उसका श्रेय उनकी मिलनसारिता, शालीनता व सहज आचरण को देना होगा।
दुर्ग में मोतीलाल वोरा की राजनीतिक पारी तब की नगरपालिका के पार्षद चुने जाने के साथ हुई थी। उन्होंने नगर के विकास कार्यों के साथ सदन को विधि-विधान के अनुसार संचालित करने में भी गहरी दिलचस्पी ली। यद्यपि अपवाद स्वरूप एक अवसर आया जब उन्होंने नगरपालिका की कार्रवाई पुस्तिका के पन्ने फाड़ दिए। भावावेश में उठाए गए इस कदम के कारण उन्हें सार्वजनिक आलोचना का सामना भी करना पड़ा। बहरहाल, उनकी छवि एक लोकप्रिय जननेता के रूप में उभर रही थी, जिसका पुरस्कार उन्हें 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस टिकट मिलने और फिर जीत के रूप में मिला। मुख्यमंत्री पी सी सेठी ने नवनिर्वाचित विधायक के व्यवसायिक अनुभव को ध्यान में रख उन्हें राज्य परिवहन निगम का उपाध्यक्ष भी जल्दी ही नियुक्त कर दिया, जहां उन्हें बेदाग छवि के वरिष्ठ विधायक व निगम के अध्यक्ष सीताराम जाजू के साथ काम करने का अवसर मिला। उनको पद दिए जाने के बारे में संभव है कि वरिष्ठ मंत्री किशोरीलाल शुक्ल की अनुशंसा रही हो, जिनकी प्रेरणा से वोराजी कांग्रेस में आए थे! विधायक वोराजी ने अपने विधानसभा क्षेत्र का हर समय ध्यान रखा तथा जनता के विश्वास को टूटने का कोई मौका नहीं आने दिया। फलस्वरूप वे 1990 तक लगातार पांच बार विधायक निर्वाचित होते रहे।
यह सर्वविदित है कि 1985 में अर्जुनसिंह को एकाएक पंजाब भेजे जाने के बाद मोतीलाल वोरा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। उस समय वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे और माना जाता है कि वे मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह के विश्वासभाजन थे। उन्हें मुख्यमंत्री का पद सौंपने का निर्णय अंतत: तो राजीव गांधी ने ही लिया होगा, लेकिन उसमें भी श्री सिंह की अनुशंसा या सहमति थी। पी सी सेठी, किशोरीलाल शुक्ल, अर्जुनसिंह- ये सभी कांग्रेस में एक साथ थे व वोराजी को भी उनके खेमे में माना जाता था। इसलिए राजनीतिक प्रेक्षकों को आश्चर्य हुआ जब वोराजी ने सिंधियाजी के साथ मिलकर मोती-माधव एक्सप्रेस चला दी। क्या माधवराव सिंधिया मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनना चाहते थे? शायद हां, जैसा कि कुछ साल बाद स्पष्ट हुआ। क्या वोराजी सिंधियाजी की राजीव गांधी से मित्रता का लाभ लेकर राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी पहचान स्थापित करना चाहते थे? क्या उन्हें आशंका थी कि अर्जुनसिंह के वापस आने पर उनका सितारा धूमिल हो सकता है? क्या इसके पीछे नरसिंह राव और शुक्ल बंधुओं की अप्रत्यक्ष भूमिका थी? जो भी हो, वस्तुस्थिति तो तभी पता चलेगी जब स्वयं वोराजी उसे प्रकट करना चाहेंगे!
मोतीलाल वोरा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण से संबंधित दो निर्णय लिए जो मुझे निजी तौर पर नहीं जंचे। एक तो मेरे प्रस्ताव पर जो पशुपालन महाविद्यालय बिलासपुर में स्थापित होना था, उसे वोराजी अपने विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत अंजोरा गांव में ले आए। वैसे यह कोई बड़ी बात नहीं थी। सब नेता ऐसा करते हैं। दूसरे, प्राधिकरण का कार्यालय भोपाल से हटाकर रायपुर ले आया गया। उसके उद्घाटन के समय महज एक बैठक हुई, तत्पश्चात प्राधिकरण को ही समाप्त कर दिया गया। इससे वोराजी को क्या लाभ हुआ, वे ही बता सकते हैं। दूसरी ओर उन्होंने अपने कई ऐसे परिचितों को सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया, जिनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ संबंध छुपे हुए नहीं थे। अभी यह अध्ययन होना भी बाकी है कि उनके कार्यकाल में बस्तर में नक्सलवाद या माओवाद का जो फैलाव हुआ, उसके पीछे उनकी सरकार की नीतियां किस सीमा तक जिम्मेदार थीं!
शुरुआत में देशबन्धु के प्रति वोराजी का रुख न जाने क्यों किसी हद तक उपेक्षा का था। उनके साथ बरसों से जो सौहार्द्रपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, उसमें एकाएक बदलाव आ गया। क्या यह अचानक उच्च पद पर पहुंच जाने का अहंकार था या फिर उनके कोई सलाहकार इस हेतु जिम्मेदार थे? जो भी हो, यह स्थिति लंबे समय तक नहीं खिंची और जल्दी ही पूर्ववत संबंध कायम हो गए। जबलपुर में प्रेस को आबंटित भूखंड हमने अर्जुनसिंह के आग्रह पर लौटा दिया था, क्योंकि जबलपुर-2 विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशी ललित श्रीवास्तव को उस स्थान पर भवन निर्माण से समुदाय विशेष के वोट कटने की आशंका थी। श्री सिंह ने सुरेश पचौरी को यह संदेश देने मेरे पास रायपुर भेजा था। वोराजी के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद नया भूखंड मिलने में समय तो लगा लेकिन अंतत: काम हो गया। वोराजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष के अलावा राज्यसभा सदस्य रहते हुए भी हमारे हितों का ध्यान रखा व मेरे अनुरोधों की रक्षा की।
वोराजी एक कर्मठ व्यक्ति हैं। वे कठोर परिश्रम कर सकते हैं और परिस्थिति के अनुसार नई बातें सीखने तत्पर रहते हैं। इन गुणों का परिचय उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद मिला। एक चुटकुला चल गया था कि वोराजी सुबह छह बजे तैयार होकर बैठ जाते हैं और स्टाफ को निर्देश देते हैं कि कोई मिलने आया हो तो बुलाओ। इसमें समझने लायक सच्चाई यही है कि वे अठारह घंटे काम कर सकते थे और बढ़ती आयु के बावजूद अभी दो साल पहले तक वाकई कर रहे थे। दूसरे, हम जानते हैं कि वोराजी की औपचारिक शिक्षा अधिक नहीं हुई है, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने इस कमी को दूर किया है। वोराजी ने गांधीजी पर विशद अध्ययन किया है तथा गांधी दर्शन पर एक पठनीय पुस्तक की रचना भी की है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहते समय उन्होंने राजभवन में एक गांधी संग्रहालय की भी स्थापना की। अपने इन गुणों के बल पर वे सत्ता और संगठन दोनों में सम्मानपूर्वक लंबी पारी खेलने में सफल हुए हैं। आज तिरानवें वर्ष की आयु में जब वे सार्वजनिक जीवन से लगभग विदा ले चुके हैं, तब मुझे वह शाम याद आती है जब भारत-सोवियत मैत्री संघ द्वारा आयोजित लेनिन जयंती कार्यक्रम में हमने विधायक वोराजी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया और वे दुर्ग से अपना स्कूटर चलाते हुए रायपुर आ गए थे। ऐसी सहजता आज दुर्लभ और अकल्पनीय है।
(अगले सप्ताह जारी)
भूल सुधार
8 अक्टूबर को प्रकाशित अठारहवीं किश्त में कन्हैयालाल नंदन की पुस्तक के विमोचन के स्थान पर रामशरण जोशी का नामोल्लेख भ्रमवश हो गया है। मुझे इसका खेद है। पाठक कृपया सुधार कर पढ़ें।
ललित सुरजन
माधवराव सिंधिया का नाम मैंने पहले-पहल 1958 में ग्वालियर में सुना, जहां वे ऊपर किले में स्थापित सिंंधिया स्कूल में विद्यार्थी थे। मैैं कुछ समय पूूर्व ही नागपुर से ग्वालियर पहुंचा था और बुआजी के बेटे अनुपम भैया के साथ नीचे नगर में स्थित जीवाजीराव इंटर कॉलेज में दाखिला लिया था। याद नहीं कि उनका नाम कब किनसे सुना लेकिन आखिरकार वे ग्वालियर रियासत के युवराज थे और अनुमान लगाना गलत न होगा कि छात्रों के बीच अपने इस हमउम्र किशोर के बारे में कौतूहल पूर्ण चर्चाएं होती होंगी! यह तो बहुुत बाद में पता लगा कि नागपुर के हमारे स्कूल मित्र बालेंदु शुक्ल ने भी उसी समय सिंधिया स्कूल में प्रवेश लिया था। वे आगे चलकर राजनीति में आए। उनकी एक खास पहचान माधवरावजी के बालसखा के रूप में बनी। हम जब ग्वालियर आए तब नए मध्यप्रदेश के गठन को मात्र दो साल हुुए थे। पूर्व महाराजा जीवाजीराव सिंधिया, मध्यप्रदेश में विलीन तत्कालीन बी क्लास मध्यभारत राज्य, के राजप्रमुख पद से निवृत्त हो चुके थे। पूर्व महारानी विजयाराजे सिंधिया यद्यपि कांग्रेस टिकट पर गुना से लोकसभा सदस्य थीं लेकिन मेरी स्मृति में दोनों की राजनीतिक सक्रियता का कोई प्रसंग मौजूद नहीं है। ग्वालियर में उन दिनों दो बड़े सालाना जलसे होते थे- ग्वालियर मेला और तानसेन समारोह। इनमें ये कभी आए हों तो मुुझे ध्यान नहीं है। विभिन्न पार्टियों से नरसिंह राव दीक्षित, रामचंद्र सर्वटे, राजा पंचमसिंह पहाडग़ढ़, नारायण कृष्ण शेजवलकर, रामचंद्र मोरेश्वर करकरे, सरदार जाधव जैसे कुछ नाम ही सुनने मिलते थे। भिंड से विधायक दीक्षितजी काटजू सरकार में गृहमंत्री थे और शायद उस दौर में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के सबसे प्रभावशाली नेता थे।
श्रीमती विजयाराजे सिंधिया 1962 में दुबारा कांग्रेस की ओर से ग्वालियर सीट से लोकसभा के लिए चुनी गईं थीं। पाठकों को संभवत: याद हो कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने उनके विरुद्ध सफाई कामगार समुदाय की सुक्खो नामक महिला को मैदान में उतारा था। बहरहाल, उनकी राजनीतिक सक्रियता यहां से लगातार बढ़ती गई। 1967 में उन्होंने पहली बार दलबदल कर स्वतंत्र पार्टी उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव जीता लेकिन चंद दिनों बाद उन्होंने एक बार फिर दल बदला व जनसंघ की ओर से चुनाव लड़ विधानसभा में प्रवेश किया। उनके पदचिन्हों पर चलते हुए चार साल बाद अर्थात 1971 में संपन्न आम चुनाव में माधवराव सिंधिया भी जनसंघ टिकट पर जीत दर्ज कर राजनीति में आ गए। इसके पश्चात तीन आम चुनाव और बीत गए जिनमें श्री सिंधिया एक बार निर्दलीय और दो बार कांग्रेस टिकट पर विजयी हुए किंतु न जाने क्यों उनके साथ परिचय या संवाद का कोई संयोग लंबे समय तक नहीं बना। सन् 1985 में फोन पर ही पहली बार उनसे बात हुई जिसका माध्यम बने उनके मित्र और सहयोगी महेंद्र सिंह कालूखेड़ा। एक साल पहले राजीव गांधी की नितांत अभिनव पहल व व्यक्तिगत रुचि से इनटैक (इंडियन नैशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) अर्थात भारतीय सांस्कृतिक निधि की स्थापना की गई थी। राजीवजी को इसका विचार इंग्लैंड के नेशनल ट्रस्ट को देखकर आया था जो वहां सांस्कृतिक/ सामाजिक/ शिल्पगत/ ऐतिहासिक महत्व की लाखों इमारतों का संरक्षण करता है। राजीव गांधी के साथ माधवराव सिंधिया इनटैक के संस्थापक सदस्यों में एक थे।
इस नवगठित प्रतिष्ठान के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देश के सभी प्रदेशों व जिलों में उसके अध्याय स्थापित करने की योजना बनी। अनेक स्थानों पर पूर्व सामंत, आईएएस अधिकारी आदि जिला अध्याय के संयोजक मनोनीत किए गए। लेकिन रायपुर की जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी गई, जिसकी अनुशंसा संभवत: महेंद्र सिंह जी ने ही की होगी! यहां सिंधियाजी के साथ जो संबंध बने उनका निर्वाह राजनीति से परे निजी स्तर पर अंत तक होता रहा। मेरी पहली प्रत्यक्ष भेंट उनसे तब हुई जब वे मंत्री भी नहीं बने थे। देशबन्धु के तत्कालीन दिल्ली ब्यूरो प्रमुख को किसी निजी प्रसंग में सिंधियाजी की सहायता से काम बन जाने का भरोसा था सो उनके आग्रह पर मैंने उनसे मिलने का समय लिया, उन्हें काम बताया और उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए मदद कर दी। इधर इनटैक के समस्त संयोजकों का तीन-दिनी पहला सम्मेलन 1986 में भुवनेश्वर में आयोजित करना तय हुआ। इसमें रायपुर से संभागायुक्त शेखर दत्त व मैंने भागीदारी की। शेखर भाई कुछ माह पहले रायपुर पदस्थ हुए थे तथा इनटैक मुख्यालय ने संयोजक का दायित्व उन्हें सौंप दिया था। इस बीच सिंधियाजी केंद्र में स्वतंत्र प्रभार के साथ रेल राज्यमंत्री बन चुके थे। उन्होंने इनटैक सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में शिरकत करने के अलावा अनेक विभागीय कार्यक्रमों में भी भाग लिया जिनमें रेल मंत्रालय की राजभाषा समिति की भी एक बैठक थी। मंत्रीजी ने भांति-भांति के हिंदीसेवियों के साथ सुप्रसिद्ध कवि (स्व) चंद्रकांत देवताले तथा मुझे भी इस समिति का सदस्य हमारे बिना जाने ही मनोनीत कर दिया था। जैसी कि अधिकांश सरकारी कमेटियों की बैठकें होती हैं वैसी ही यह बैठक भी निबट गई। लेकिन मैं नोट करना चाहूंगा कि यह मनोनयन मेरे प्रति सिंधियाजी के सद्भाव का एक उदाहरण था।
श्री सिंधिया के साथ मेरी इक्का-दुक्का मुलाकातें चलती रहीं। एक बार रेल भवन के उनके कक्ष में भेंट हुई तो वे दीवाल पर लगे बड़े से मानीटर पर रेलगाडिय़ों की आवाजाही का अवलोकन कर रहे थे। कहना न होगा कि तब रेल मंत्रालय के कामकाज को आधुनिक तकनीकी के उपयोग से व्यवस्थित रूप देने के लिए इस युवा मंत्री की खूब सराहना होने लगी थी। वे बातचीत कर रहे थे, फाइलें निबटा रहे थे और स्क्रीन पर भी न•ार रख रहे थे। इसी बीच साथी मंत्री सलमान खुर्शीद आ गए तो उनसे भी मेरा परिचय करवाया। यह घटना यूं ही याद आ गई। इस मुलाकात के कुछ सप्ताह बाद ही उनकी सुपुत्री चित्रांगदा का विवाह दिसंबर 1987 में डॉ. कर्ण सिंह के सुपुत्र अजातशत्रु के साथ संपन्न हुआ। इस शाही विवाह की चर्चा भारत तो क्या, विदेशों तक में हुई। यह वही समय था जब मध्यप्रदेश की राजनीति में मोतीलाल वोरा- माधवराव सिंधिया की जोड़ी अर्जुनसिंह के खिला$फ खुलकर सामने आ गई थी। कांग्रेस के भीतर सिंधिया विरोधियों को अच्छा मौका मिला कि जनतांत्रिक व्यवस्था में एक मंत्री के द्वारा राजसी ठाट-बाट के साथ अपनी बेटी का विवाह किए जाने को सार्वजनिक निंदा का मुद्दा बनाएं। श्री सिंधिया स्वाभाविक ही इस घटनाक्रम से व्यथित हुए। उन्होंने मुझे फोन कर आग्रह किया कि मैं वस्तुस्थिति का जायजा लेने किसी पत्रकार को ग्वालियर भेजूं। उसके बाद जैसा ठीक लगे वैसा समाचार देशबन्धु में छप जाए। उन दिनों देश के कई नवधनाढ्यों के बीच वैवाहिक समारोहों आदि में वैभव के उन्मुक्त प्रदर्शन की मानों होड़ लगी थी। इस पृष्ठभूमि का संज्ञान लेते हुए हमने रिपोर्टिंग की। सिंधिया खानदान के तीन सौ साल के इतिहास व ग्वालियर अंचल में रियासती राज खत्म हो जाने के बावजूद उसकी प्रतिष्ठा तथा लोकप्रियता को देखते हुए उक्त विवाह समारोह में जो प्रबंध किए गए उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। यद्यपि सादगी बरती जाती तो एक अनुकरणीय आदर्श स्थापित होता।
मेरे निमंत्रण पर सिंधियाजी मायाराम सुरजन फाउंडेशन में व्याख्यान देने 1998 में रायपुर आए। उन्हें देखने-सुनने मेडिकल कॉलेज सभागार में भीड़ उमड़ पड़ी थी। इस कार्यक्रम में अजीत जोगी भी उनके साथ थे। कार्यक्रम के बाद सिंधियाजी हमारे घर भोजन के लिए आए, जहां नगर के अनेक बुद्धिजीवियों से उनका मिलना हुआ। यह दिलचस्प तथ्य है कि एक समय वह भी आया जब अर्जुनसिंह और सिंधिया दोनों नरसिंहराव के खिला$फ एकजुट हुए। अभी वह हमारी चर्चा का विषय नहीं है। सिंधियाजी से मेरी आखिरी भेंट लोकसभा के उनके कक्ष में हुई। वे उस रोज मुझे बहुत उदास लगे। कॉफी पीते-पीते उन्होंने कहा- ललितजी, अब सब तरफ से मन ऊब गया है। लगता है जितना जीवन जीना था जी चुके हैं। मैंने उन्हें टोकते हुए कहा- ऐसा क्यों कहते हैं। आप और हम एक उम्र के हैं। अभी तो हमारे सामने लंबा समय पड़ा है। आपको तो अभी न जाने कितनी जिम्मेदारियां सम्हालना है। यह प्रसंग जून-जुलाई 2001 का है। दो माह बाद ही 30 सितंबर को विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो ग्ई। मैं आज भी सोचता हूं कि क्या उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास होने लगा था!!
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
विभाजित मध्यप्रदेश में तीन बार गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं, क्रमश: 1967, 1977 और 1990 में । इनके बाद 2003 में मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में फिर एक बार जो गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो कुछ इस तरह कि अगले पंद्रह साल तक कांग्रेस उन्हें हिला नहीं पाई। दोनों प्रदेशों में फर्क यही रहा कि जहां छत्तीसगढ़ में इस अवधि में एकमात्र डॉ रमन सिंह को लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला, वहीं मध्यप्रदेश ने उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान इस तरह तीन-तीन मुख्यमंत्रियों का राज देख लिया। 2018 के विधानसभा चुनावों में लंबी प्रतीक्षा के बाद कांग्रेस को सत्ता में आने का मौका मिला, लेकिन मध्यप्रदेश में कमलनाथ बमुश्किल तमाम मिली इस जीत को सम्हाल कर नहीं रख सके। इसके कारण जो भी रहे हों। वैसे अधिकतर प्रेक्षकों की राय है कि नाम भले ही कमलनाथ का रहा हो, सरकार कोई और ही चला रहा था। दो साल पूरे होने के पहले ही उनकी कुर्सी चली गई तथा शिवराजसिंह के नेतृत्व में वहां पांचवीं बार गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आ गई। गौरतलब है कि जहां 1967 में संविद नामक गठबंधन ने सत्ता हथियाई थी, वहीं 1977 में सरकार बनाने का मौका जनता पार्टी को मिला था, जबकि 1990 और 2003 तथा उसके बाद अन्य कोई दल न होकर एकमेव भारतीय जनता पार्टी ही सत्तासीन रही है।
1967 में लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव आखिरी बार साथ-साथ संपन्न हुए थे। लोकसभा में कांग्रेस को कामचलाऊ बहुमत मिला था, गो कि विधानसभा में सर्वत्र उसे विजय मिली थी। इस दौर में डॉ राममनोहर लोहिया द्वारा दिए गए गैरकांग्रेसवाद के नारे ने सारे विपक्षी दलों को बेहद आकर्षित किया था। उनके मन में बैठ गया था कि अगर सत्ता सुख भोगना है तो उन सबको कांग्रेस के खिलाफ़ साथ आना ही पड़ेगा। इस सोच के तहत अनेक राज्यों में संविद अर्थात संयुक्त विधायक दल का गठन हुआ। जहां कांग्रेस के खिलाफ़ संख्या बल में कमी थी, वहां दलबदल को प्रोत्साहित किया गया तथा अभूतपूर्व उत्साह के साथ खिचड़ी सरकारें बनाईं गईं। शेर और बकरी एक घाट पर आ मिले। उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में जनसंघ के साथ समाजवादी दल ही नहीं, भाकपा और माकपा के विधायक भी मंत्री बने। भाकपा के झारखंडे राय तथा माकपा के रुस्तम सैटिन के नाम मुझे अभी तक याद हैं। डॉ लोहिया के इस कांंग्रेस विरोधी प्रयोग की परिणति धुर दक्षिणपंथी जनसंघ/ भाजपा के दिनोंदिन मजबूत होने व समाजवादी तथा साम्यवादी दलों के उसी अनुपात में अशक्त होते जाने में हुई। यह हम और आप आज देख ही रहे हैं।
मध्यप्रदेश में भी श्रीमती विजयाराजे सिंधिया के उत्कट परिश्रम व संसाधनों की बदौलत बड़े पैमाने पर दलबदल हुआ। इन दलबदलुओं में कुछ पुरानी रियासतों के वारिस थे तो कुछ उनके दरबारी या सेवक। ये सभी सामंती परंपरा व शिष्टाचार के चलते स्वाभाविक रूप से श्रीमती सिंधिया के दवाब में थे। इस तरह संविद सरकार बनी। कहने को यह गैर-कांग्रेसी सरकार थी लेकिन इसके मुखिया एक पूर्व कांग्रेसी और विंध्यप्रदेश के छोटे-मोटे सामंत गोविंद नारायण सिंह बनाए गए। मंत्रियों में भी अनेक पूर्व कांग्रेसी थे। लोहियावादी सोच का प्रतिनिधित्व करने वालों में मुझे अनायास एक मंत्री का ध्यान आ रहा है जो समाजवादी पार्टी के कोटे से लिए गए थे। इंदौर के आरिफ बेग आगे चलकर भाजपा में शामिल हो गए और पार्टी द्वारा यथेष्ट रूप से पुरस्कृत किए गए। दलबदल का पुरस्कार उन्हें खाद्य मंत्री बना कर दिया गया था। रायपुर के विधायक पूर्व कांग्रेसी शारदाचरण तिवारी इस सरकार में वरिष्ठ मंत्री थे। उन्होंने एक नए दल के बैनर पर चुनाव लड़ा व जीता था। इसलिए तकनीकी रूप से वे दलबदलू नहीं थे। संविद सरकार के दौरान प्रदेश का प्रशासन तंत्र पूरी तरह लुंज-पुंज हो गया था। इस सरकार की रीति-नीति का विरोध करने के कारण देशबंधु को जो कष्ट झेलना पड़े, उनका उल्लेख इस लेखमाला के पहले खंड ‘देशबन्धु के साठ सालÓ में हो चुका है। गनीमत थी कि यह सरकार दीर्घावधि नहीं चली।
1977 में एक ओर जहां जनता पार्टी ने केंद्र से कांग्रेस को अपदस्थ किया, वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में भी संविद के इस नए अवतार को बहुमत हासिल करने का अवसर मिला। लगभग एक दशक के अंतराल के बाद दूसरी बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। इसमें जनसंघ के अलावा मुख्यत: समाजवादी पार्टी ही दूसरा घटक दल था। मुख्यमंत्री का पद बड़े घटक जनसंघ के वरिष्ठ नेता कैलाश जोशी को मिला, लेकिन अपने दल के भीतर चल रही खींचतान के कारण वे लगभग सात माह ही इस पद पर रह पाए। उल्लेखनीय है कि जनसंघ का प्रभाव मालवा अंचल यानी कि पश्चिमी मध्यप्रदेश में ही अधिक था। लगभग तीन साल की अवधि में पार्टी के जो तीन मुख्यमंत्री बने वे सभी मालवा से थे। कैलाश जोशी को अल्पावधि में ही पद त्याग करना पड़ा तो उसका मुख्य कारण मेरी राय में यही था कि सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने के लिए जो कुटिलता और निर्ममता दरकार होती है, वे उससे कोसों दूर थे। इसके विपरीत वे संबंधों को निभाने में विश्वास रखते थे। मैंने इस लेखमाला के पहले खंड में जिक्र किया है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद जब वे पहली बार रायपुर आए तो विमानतल पर हमारे संवाददाता से उन्होंने पूछा कि मायारामजी कहाँ है। यह जानकर कि वे जबलपुर में हैं, जोशीजी ने कहा कि हम तो उनके घर भोजन करने आए थे। परिणाम यह हुआ कि उनके अगले रायपुर दौरे के समय बाबूजी ने अपने सारे कार्यक्रम स्थगित कर दिए और जोशीजी हमारे घर भोजन हेतु आए।
ऐसे निश्छल, उदार व्यक्तित्व के धनी राजनेता के साथ उनकी पार्टी ने सामान्य समय में भी कैसा सुलूक किया, उसका एक उदाहरण मेरे सामने का है। 1997-98 में हमने मायाराम सुरजन फाउंडेशन के अंतर्गत स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती पर एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया था। इसमें जोशीजी को भी आमंत्रित किया तो सहज भाव से उन्होंने स्वीकार कर लिया। कार्यक्रम के एक दिन पहले मालूम हुआ कि रायपुर में भाजपा का अपने वरिष्ठतम नेता के स्वागत का कोई इरादा नहीं है। तब मैंने नगर विधायक बृजमोहन अग्रवाल से कहा कि कम से कम उन्हें तो स्वागत हेतु स्टेशन चलना चाहिए। बृजमोहन ने मेरी बात का मान रखा। अगले दिन छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पर भाजपा की ओर से अकेले वे ही जोशीजी की अगवानी के लिए उपस्थित थे। एक लंबा समय बीत गया। जोशीजी भोपाल से भाजपा टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। छोटे भाई पलाश ने उनसे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के पुस्तकालय हेतु सांसद निधि से सहयोग का निवेदन किया। जोशीजी ने तुरंत समुचित धनराशि का आबंटन कर दिया। आज जब राजनीति में हर तरफ संकीर्णता बढ़ती जा रही है, तब कैलाश जोशी जैसे व्यक्ति की अनुपस्थिति पहले से कहीं अधिक खटकती है।
मध्यप्रदेश में जनता पार्टी या जनसंघ की सत्ता के इस दौर में कैलाश जोशी के बाद वीरेंद्र कुमार सकलेचा व उनके बाद सुंदर लाल पटवा मुख्यमंत्री बने। सकलेचाजी को एक साल और पटवाजी को एक माह से भी कम समय मिला। सुंदरलाल पटवा 1990 में मुख्यमंत्री बनकर लौटे व इस बार तीन साल सत्तारूढ़ रहे। सकलेचाजी के बारे में मैं पहले लिख चुका हूं। पटवाजी के संबंध में मेरा अनुभव है कि दलीय सीमाओं के बावजूद वे एक व्यवहारकुशल व्यक्ति थे। उनके कार्यकाल में ही सरगुजा में भूख से मौत की खबर एकमात्र देशबंधु में छपी जिसकी देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई किंतु पटवाजी ने उसे भी अन्यथा नहीं लिया। वे जब केंद्र में मंत्री बने तब भी मेरी उनसे दो-एक बार मुलाकात हुई और हर बार सौजन्यपूर्ण वातावरण में। सुश्री उमा भारती ने 2003 में मध्यप्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनकर एक रिकॉर्ड स्थापित किया। उन दिनों हमने बालाघाट में बतौर प्रयोग अखबार की फ्रेंचाइजी किसी को दी थी। चुनाव अभियान के दौरान बालाघाट संस्करण में देशबंधु की स्थापित नीति की अनदेखी कर सुश्री उमा भारती के विरुद्ध एक रिपोर्ट छप गई। मैंने जैसे ही अखबार देखा, फ्रेंचाइजी तुरंत निरस्त की और किसी खंडन-मंडन की प्रतीक्षा किए बिना अपनी ओर से अखबार में वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए सुश्री भारती से क्षमा याचना की। वैसे उनके साथ पहले या बाद में मेरा कोई संपर्क नहीं रहा। उनके उत्तराधिकारी बाबूलाल गौर से हमारा परिचय 1974 से था जब वे पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे। उनके बाद शिवराजसिंह चौहान से मुख्यमंत्री बनने के कुछ दिन बाद जो एक औपचारिक मुलाकात हुई, वह पहली और अब तक की आखिरी भेंट सिद्ध हुई।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
‘सो यू वांट स्पेशल ट्रीटमेंट फार देशबन्धु
‘यस, आई डू एंड व्हाई शुड नॉट आई’
मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कुछ तल्ख स्वर में अंग्रेजी में सवाल किया और मैंने अंग्रेजी में ही उन्हें उत्तर दिया। इसके बाद की चर्चा हिंदी में हुई। मैंने कुछ दिन पूर्व उन्हें एक ज्ञापन भेजा था और मिलने जाते समय उसकी प्रति साथ लेते गया था। उसे पढ़कर ही उन्होंने उपरोक्त सवाल किया था। यह किस्सा बहुत संभव 1997 का है। मैंने उन्हें याद दिलाया कि 1992 में उन्होंने जब सांप्रदायिकता के खिला$फ लेख लिखे थे तो इच्छा व्यक्त की थी कि देशबन्धु में ही उनका प्रकाशन हो। मध्यप्रदेश में तब सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा की सत्ता थी। ऐसे समय उन लेखों को प्रकाशित करने का मतलब सरकार की नारा•ागी मोल लेना था, जिसका प्रतिकूल असर सरकारी विज्ञापनों की कटौती में होना ही था। मेरा सीधा तर्क था कि आपके साथ खड़े रहने से जब हमने नुकसान झेला है तो आज आपके सत्ता में रहते हुए हमें विशेष लाभ भले न मिले, कम से कम अन्याय तो नहीं होना चाहिए। मैंने उनके सामने पिछले एक साल का तुलनात्मक चार्ट रखा कि एक ओर देशबन्धु को वंचित कर दूसरी ओर कैसे भाजपा का साथ देने वाले पत्रों व एक नए अखबार को कितने अधिक विज्ञापन दिए जा रहे हैं। दिग्विजय ने मेरी बात सुन ली। जनसंपर्क सचिव को कहा कि मामला देख लें। बात वहीं खत्म हो गई। अभी इतनी गनीमत थी कि मुख्यमंत्री से मुलाकात का समय मिल गया था।
सन् 1997 के ही जुलाई-अगस्त में दिग्विजय सिंह का एक दिन अचानक फोन आया। वार्तालाप कुछ इस तरह हुआ-
‘ललितजी, सितंबर में पचमढ़ी में कांग्रेस का चिंतन शिविर हो रहा है।Ó
‘जी हां, खबर तो मिली है।
‘इसमें आपका सहयोग चाहिए।
‘जी, बताइए, क्या करना है?
‘बड़ा आयोजन है। आपसे चाहते हैं कि एक लंच या डिनर आपकी तरफ से हो जाए।
‘दिग्विजयजी, यह तो आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं। प्रेस वाले क्यों राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लंच-डिनर देंगे!
‘लेकिन नवभारत, भास्कर, नई दुनिया तो दे रहे हैं।Ó
‘वे दे रहे होंगे। उनको पद्मश्री चाहिए। राज्यसभा में जाना होगा। और भी कोई काम होगा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। सो मुझसे तो यह नहीं होगा।
इस वार्तालाप के संदर्भ में यह लिखना अनुचित नहीं होगा कि कालांतर में लंच-डिनर के मेजबान अखबारों में से एक के संचालक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने, एक को पद्मश्री से नवाजा गया और दो- तीन अखबारों में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने करोड़ों की राशि फिक्सड डिपॉ•िाट के रूप में जमा की। वह राशि नियत समय पर वापस नहीं मिली तो बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। इनमें दो अखबार ऐसे भी थे, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भोपाल में हुए दंगों में सांप्रदायिक ताकतों का साथ दिया था और जिसकी खुली आलोचना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुखपत्र ‘कांग्रेस संदेश में हो चुकी थी।
इन प्रसंगों में मेरा जो रुख था, वह किसी हद तक धृष्टतापूर्ण था। अगर मुख्यमंत्री मेरे कहे का बुरा मानते तो वह स्वाभाविक होता, लेकिन दिग्विजय सिंह ने कम से कम जाहिरा तौर पर ऐसा नहीं किया। हमारे बीच संवाद पूर्ववत कायम रहा तथा मेरे आमंत्रण पर उन्होंने दो-तीन बार रायपुर में विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत भी की। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष के प्रेस काम्प्लेक्स में प्रस्तावित सांस्कृतिक भवन का भूमिपूजन उनके ही हाथों संपन्न हुआ। चौबे कालोनी स्थित शासकीय विद्यालय का नामकरण मायाराम सुरजन शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय करने की घोषणा भी उन्होंने स्कूल परिसर में आयोजित कार्यक्रम में की। बाबूजी की स्मृति में आयोजित व्याख्यान माला में भी वे आए। इनमें से ही किसी एक अवसर पर उन्होंने स्वयं मेरे निवास पर रात्रिभोज हेतु आने का मंतव्य प्रगट किया और हमने आनन-फानन में जो व्यवस्था हो सकती थी वह की। एक अनायास उत्पन्न कानूनी अड़चन को दूर करने मैंने सहायता मांगी तो उन्होंने अपने कार्यालय में कुछ वरिष्ठ मंत्रियों व अधिकारियों की बैठक बुला ली।
एक ओर ये सारे उदाहरण थे तो दूसरी ओर यह सच्चाई भी थी कि देशबन्धु को सरकारी विज्ञापन देने में वही पुराना रवैया चलता रहा। हमारा कोई दूसरा व्यापार तो था नहीं, जिससे रकम निकाल कर यहां के घाटे की भरपाई कर लेते। धीरे-धीरे कर हमारी वित्तीय स्थिति डांवाडोल होती गई। इस परिस्थिति में देशबन्धु का सतना संस्करण बंद करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। मध्यप्रदेश वित्त निगम के ऋण की किश्तें समय पर पटा नहीं पाने के कारण एक दिन भोपाल दफ्तर पर वित्त निगम ने अपना ताला लगा दिया। किसी तरह मामला सुलझा तो भी एक दिन यह नौबत आ गई कि मैंने खुद होकर भोपाल संस्करण स्थगित करने का फैसला ले लिया। एक बार 1979 में जनसंघ (जनता पार्टी) के राज में भोपाल का अखबार बंद करना पड़ा था तो इस बार कांग्रेस के राज में वैसी ही स्थिति फिर बन गई। उधर जिस कानूनी अड़चन में हमें फंसा दिया गया था, उससे उबरने में अपार मानसिक यातना व भागदौड़ से गुजरना पड़ा। जो आर्थिक आपदा आई, उसके चलते अखबार की प्रगति की कौन कहे, बल्कि हम शायद बीस साल पीछे चले गए। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए संस्थान का मुखिया होने के नाते मैं खुद को ही दोषी मानता हूं।
दरअसल, मैं रायपुर में बैठकर कामकाज सम्हालता था। भोपाल जाना कम ही होता था। राजधानी का कारोबार कैसे चलता है, मैं उससे लगभग अनभिज्ञ था। देशबन्धु की कार्यप्रणाली भी संभवत: जरूरत से ज्यादा जनतांत्रिक थी। मैं पत्रकारिता की समयसिद्ध परंपरा के अनुरूप मान रहा था कि प्रधान संपादक को मुख्यमंत्री आदि से विशेष अवसरों पर ही मिलना चाहिए। मैंने हमेशा खुले मन से अपने सहयोगियों को प्रोत्साहित किया व उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के अवसर दिए। यह भी किसी कदर मेरी नासमझी थी जिसका खामियाजा अखबार को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भुगतना पड़ा। इसी सिलसिले में एक संंक्षिप्त प्रसंग अनायास स्मरण हो आता है। एक नवोदित राजनेता से, जिनके साथ अच्छे संबंध थे, लंबे समय बाद मुलाकात हुई। मैंने सहज भाव से पूूूछा- बहुत दिनों बाद मिल रहे हो। उनका उत्तर था- आपके संवाददाता (नाम लेकर) से तो मिल लेते हैं। अब आपसे भी मिलना पड़ेगा क्या? इस उत्तर का मर्म आप समझ गए हों तो अच्छा है। न समझे हों तो भी अच्छा है।
दोहराना उचित होगा कि देशबन्धु अपने स्थापना काल से ही प्रगतिशील, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष नीति का पैरोकार रहा है। सामान्य बोलचाल में हमें कांग्रेस समर्थक मान लिया जाता है। इसके बावजूद वर्ष 1998 में विधानसभा चुनाव के समय जब देशबन्धु को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के विज्ञापन नहीं मिले तो आश्चर्य हुआ। ऐसा पहली बार हुआ। एक-दो दिन की प्रतीक्षा के बाद मैंने दिग्विजय को फोन किया। उन्होंने विज्ञापन छापने के लिए मौखिक अनुमति दे दी, लेकिन कांग्रेस कमेटी से औपचारिक आदेश अंत तक नहीं आया। फिर विज्ञापन बिल का भुगतान कब, कैसे हुआ वह अलग कहानी है। बहरहाल, मैं आज तक यह समझने का प्रयास कर रहा हूं कि ऐसा क्यों कर हुआ। मेरा अनुमान है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने लिए राष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता बना रहे थे, जिसमें देशबन्धु जैसे पूंजीविरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। उन्हें शायद अर्जुनसिंह के साथ हमारे संबंधों को लेकर भी संशय था, क्योंकि उस समय मध्यप्रदेश से वे ही एक बड़े नेता थे जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बन सकती थी। दूसरी तरह से कहना हो तो यही कहूंगा कि व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी था। यही आज का भी सत्य है।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
‘सो यू वांट स्पेशल ट्रीटमेंट फार देशबन्धु
‘यस, आई डू एंड व्हाई शुड नॉट आई’
मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कुछ तल्ख स्वर में अंग्रेजी में सवाल किया और मैंने अंग्रेजी में ही उन्हें उत्तर दिया। इसके बाद की चर्चा हिंदी में हुई। मैंने कुछ दिन पूर्व उन्हें एक ज्ञापन भेजा था और मिलने जाते समय उसकी प्रति साथ लेते गया था। उसे पढ़कर ही उन्होंने उपरोक्त सवाल किया था। यह किस्सा बहुत संभव 1997 का है। मैंने उन्हें याद दिलाया कि 1992 में उन्होंने जब सांप्रदायिकता के खिला$फ लेख लिखे थे तो इच्छा व्यक्त की थी कि देशबन्धु में ही उनका प्रकाशन हो। मध्यप्रदेश में तब सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा की सत्ता थी। ऐसे समय उन लेखों को प्रकाशित करने का मतलब सरकार की नारा•ागी मोल लेना था, जिसका प्रतिकूल असर सरकारी विज्ञापनों की कटौती में होना ही था। मेरा सीधा तर्क था कि आपके साथ खड़े रहने से जब हमने नुकसान झेला है तो आज आपके सत्ता में रहते हुए हमें विशेष लाभ भले न मिले, कम से कम अन्याय तो नहीं होना चाहिए। मैंने उनके सामने पिछले एक साल का तुलनात्मक चार्ट रखा कि एक ओर देशबन्धु को वंचित कर दूसरी ओर कैसे भाजपा का साथ देने वाले पत्रों व एक नए अखबार को कितने अधिक विज्ञापन दिए जा रहे हैं। दिग्विजय ने मेरी बात सुन ली। जनसंपर्क सचिव को कहा कि मामला देख लें। बात वहीं खत्म हो गई। अभी इतनी गनीमत थी कि मुख्यमंत्री से मुलाकात का समय मिल गया था।
सन् 1997 के ही जुलाई-अगस्त में दिग्विजय सिंह का एक दिन अचानक फोन आया। वार्तालाप कुछ इस तरह हुआ-
‘ललितजी, सितंबर में पचमढ़ी में कांग्रेस का चिंतन शिविर हो रहा है।Ó
‘जी हां, खबर तो मिली है।
‘इसमें आपका सहयोग चाहिए।
‘जी, बताइए, क्या करना है?
‘बड़ा आयोजन है। आपसे चाहते हैं कि एक लंच या डिनर आपकी तरफ से हो जाए।
‘दिग्विजयजी, यह तो आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं। प्रेस वाले क्यों राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लंच-डिनर देंगे!
‘लेकिन नवभारत, भास्कर, नई दुनिया तो दे रहे हैं।Ó
‘वे दे रहे होंगे। उनको पद्मश्री चाहिए। राज्यसभा में जाना होगा। और भी कोई काम होगा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। सो मुझसे तो यह नहीं होगा।
इस वार्तालाप के संदर्भ में यह लिखना अनुचित नहीं होगा कि कालांतर में लंच-डिनर के मेजबान अखबारों में से एक के संचालक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने, एक को पद्मश्री से नवाजा गया और दो- तीन अखबारों में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने करोड़ों की राशि फिक्सड डिपॉ•िाट के रूप में जमा की। वह राशि नियत समय पर वापस नहीं मिली तो बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। इनमें दो अखबार ऐसे भी थे, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भोपाल में हुए दंगों में सांप्रदायिक ताकतों का साथ दिया था और जिसकी खुली आलोचना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुखपत्र ‘कांग्रेस संदेश में हो चुकी थी।
इन प्रसंगों में मेरा जो रुख था, वह किसी हद तक धृष्टतापूर्ण था। अगर मुख्यमंत्री मेरे कहे का बुरा मानते तो वह स्वाभाविक होता, लेकिन दिग्विजय सिंह ने कम से कम जाहिरा तौर पर ऐसा नहीं किया। हमारे बीच संवाद पूर्ववत कायम रहा तथा मेरे आमंत्रण पर उन्होंने दो-तीन बार रायपुर में विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत भी की। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष के प्रेस काम्प्लेक्स में प्रस्तावित सांस्कृतिक भवन का भूमिपूजन उनके ही हाथों संपन्न हुआ। चौबे कालोनी स्थित शासकीय विद्यालय का नामकरण मायाराम सुरजन शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय करने की घोषणा भी उन्होंने स्कूल परिसर में आयोजित कार्यक्रम में की। बाबूजी की स्मृति में आयोजित व्याख्यान माला में भी वे आए। इनमें से ही किसी एक अवसर पर उन्होंने स्वयं मेरे निवास पर रात्रिभोज हेतु आने का मंतव्य प्रगट किया और हमने आनन-फानन में जो व्यवस्था हो सकती थी वह की। एक अनायास उत्पन्न कानूनी अड़चन को दूर करने मैंने सहायता मांगी तो उन्होंने अपने कार्यालय में कुछ वरिष्ठ मंत्रियों व अधिकारियों की बैठक बुला ली।
एक ओर ये सारे उदाहरण थे तो दूसरी ओर यह सच्चाई भी थी कि देशबन्धु को सरकारी विज्ञापन देने में वही पुराना रवैया चलता रहा। हमारा कोई दूसरा व्यापार तो था नहीं, जिससे रकम निकाल कर यहां के घाटे की भरपाई कर लेते। धीरे-धीरे कर हमारी वित्तीय स्थिति डांवाडोल होती गई। इस परिस्थिति में देशबन्धु का सतना संस्करण बंद करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। मध्यप्रदेश वित्त निगम के ऋण की किश्तें समय पर पटा नहीं पाने के कारण एक दिन भोपाल दफ्तर पर वित्त निगम ने अपना ताला लगा दिया। किसी तरह मामला सुलझा तो भी एक दिन यह नौबत आ गई कि मैंने खुद होकर भोपाल संस्करण स्थगित करने का फैसला ले लिया। एक बार 1979 में जनसंघ (जनता पार्टी) के राज में भोपाल का अखबार बंद करना पड़ा था तो इस बार कांग्रेस के राज में वैसी ही स्थिति फिर बन गई। उधर जिस कानूनी अड़चन में हमें फंसा दिया गया था, उससे उबरने में अपार मानसिक यातना व भागदौड़ से गुजरना पड़ा। जो आर्थिक आपदा आई, उसके चलते अखबार की प्रगति की कौन कहे, बल्कि हम शायद बीस साल पीछे चले गए। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए संस्थान का मुखिया होने के नाते मैं खुद को ही दोषी मानता हूं।
दरअसल, मैं रायपुर में बैठकर कामकाज सम्हालता था। भोपाल जाना कम ही होता था। राजधानी का कारोबार कैसे चलता है, मैं उससे लगभग अनभिज्ञ था। देशबन्धु की कार्यप्रणाली भी संभवत: जरूरत से ज्यादा जनतांत्रिक थी। मैं पत्रकारिता की समयसिद्ध परंपरा के अनुरूप मान रहा था कि प्रधान संपादक को मुख्यमंत्री आदि से विशेष अवसरों पर ही मिलना चाहिए। मैंने हमेशा खुले मन से अपने सहयोगियों को प्रोत्साहित किया व उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के अवसर दिए। यह भी किसी कदर मेरी नासमझी थी जिसका खामियाजा अखबार को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भुगतना पड़ा। इसी सिलसिले में एक संंक्षिप्त प्रसंग अनायास स्मरण हो आता है। एक नवोदित राजनेता से, जिनके साथ अच्छे संबंध थे, लंबे समय बाद मुलाकात हुई। मैंने सहज भाव से पूूूछा- बहुत दिनों बाद मिल रहे हो। उनका उत्तर था- आपके संवाददाता (नाम लेकर) से तो मिल लेते हैं। अब आपसे भी मिलना पड़ेगा क्या? इस उत्तर का मर्म आप समझ गए हों तो अच्छा है। न समझे हों तो भी अच्छा है।
दोहराना उचित होगा कि देशबन्धु अपने स्थापना काल से ही प्रगतिशील, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष नीति का पैरोकार रहा है। सामान्य बोलचाल में हमें कांग्रेस समर्थक मान लिया जाता है। इसके बावजूद वर्ष 1998 में विधानसभा चुनाव के समय जब देशबन्धु को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के विज्ञापन नहीं मिले तो आश्चर्य हुआ। ऐसा पहली बार हुआ। एक-दो दिन की प्रतीक्षा के बाद मैंने दिग्विजय को फोन किया। उन्होंने विज्ञापन छापने के लिए मौखिक अनुमति दे दी, लेकिन कांग्रेस कमेटी से औपचारिक आदेश अंत तक नहीं आया। फिर विज्ञापन बिल का भुगतान कब, कैसे हुआ वह अलग कहानी है। बहरहाल, मैं आज तक यह समझने का प्रयास कर रहा हूं कि ऐसा क्यों कर हुआ। मेरा अनुमान है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने लिए राष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता बना रहे थे, जिसमें देशबन्धु जैसे पूंजीविरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। उन्हें शायद अर्जुनसिंह के साथ हमारे संबंधों को लेकर भी संशय था, क्योंकि उस समय मध्यप्रदेश से वे ही एक बड़े नेता थे जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बन सकती थी। दूसरी तरह से कहना हो तो यही कहूंगा कि व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी था। यही आज का भी सत्य है।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
नए मध्यप्रदेश राज्य का गठन 1 नवम्बर 1956 को हुआ था। तब से लेकर 1985 के दरम्यान सिर्फ डॉ कैलाशनाथ काटजू ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्हें पांच साल का एक कार्यकाल पूरा करने का मौका मिला। वे 1962 में विधानसभा चुनाव हार गए। इस हिसाब से अर्जुनसिंह ने रिकॉर्ड बनाया। वे 1985 में लगातार दुबारा मुख्यमंत्री बने, यद्यपि कुछ दिन पश्चात ही उन्हें पंजाब भेज दिया गया। लगातार दस साल मुख्यमंत्री बने रहने का नया रिकॉर्ड दिग्विजय सिंह के नाम है। 1993-98 के मध्य एक पारी पूरी करने के बाद वे 1998 में दुबारा जीतकर आए तथा 2003 तक इस पद पर बने रहे। इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे दो-तीन कारण समझ आते हैं। दिग्विजय जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तब उनकी आयु मात्र छियालीस वर्ष थी। याने पिछले मुख्यमंत्रियों के मुकाबले तरुणाई उनकी मददगार हुई। वैसे तो श्यामाचरण और दो साल कम चवालीस की ही उम्र में मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन इंदिरा जी की अवज्ञा करना उन पर भारी पड़ गई थी। दिग्विजय ने ऐसी कोई गलती नहीं की। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में जब जो ताकतवर हुआ, वे निष्ठापूर्वक उसके साथ हो गए।
शायद दूसरा कारण दिग्विजय सिंह के शासन करने की अनोखी शैली में देखा जा सकता है। एक तो उन्होंने तमाम विभाग अपने सहयोगियों में बांट दिए व खुद के पास एक भी विभाग नहीं रखा। इससे उन्हें जाहिरा तौर पर प्रदेश की जनता से सीधा संवाद करने के लिए, विकास की योजनाएं बनाने के लिए अधिक समय मिलने लगा। यद्यपि अनेक अध्येता इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार अपने पास एक भी विभाग न रखना महज एक दिखावा था। कहने को मंत्री ही विभाग के मालिक थे, लेकिन असली कमान मुख्यमंत्री के विश्वस्त विभागीय सचिव के हाथों होती थी जो मुख्यमंत्री से ग्रीन सिग्नल लेने के बाद ही किसी प्रस्ताव को मंजूर होने देते थे। इसी शैली में उन्होंने प्रदेश के हर जिले, संभाग और क्षेत्र से भी अपने आप को मुक्त कर लिया था। मसलन वे घोषित तौर पर कहते थे कि रायपुर में विद्या भैया, दुर्ग में वोराजी, रीवां में श्रीनिवास तिवारी, छिंदवाड़ा में कमलनाथ, इसी तरह अन्यत्र भी जो बड़े नेता कहेंगे वही किया जाएगा। इस कदम से उन्होंने तमाम धुरंधर नेताओं से संभावित विरोध को न सिर्फ जड़ से समाप्त कर दिया, बल्कि उनका सहयोग भी अर्जित कर लिया। यह बात अलग है कि जिलाधीश या संभागायुक्त ने किया वही जो मुख्यमंत्री चाहते थे। रायपुर के बारे में तो मैं कह सकता हूं कि छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की पूर्व संध्या तक वी सी शुक्ल पूरी तरह दिग्विजय सिंह पर निर्भर हो गए थे या कर दिए गए थे।
यह एक अटपटी सच्चाई है कि दिग्विजय सिंह एक ओर जहां नौकरशाहों के सहारे प्रदेश चला रहे थे; वहीं दूसरी तरफ वे संवेदी समाज यानी कि सिविल सोसाइटी के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छवि गढऩे के प्रयास कर रहे थे, जिसमें वे किसी सीमा तक सफल भी हुए। यह मजे की बात है कि इन प्रयासों में नौकरशाही और सिविल सोसाइटी दोनों की समान भागीदारी रही। एकता परिषद के पी वी राजगोपाल जैसे प्रतिष्ठित सिविल सोसाइटी नेता ने दिग्विजय सिंह का खुलकर समर्थन किया। 1998 के विधानसभा चुनावों के समय ऐसे अनेक संगठनों ने कांग्रेस के पक्ष में अपीलें तक जारी कीं। कहते हैं कि पार्टी को इसका लाभ नक्सल प्रभावित बस्तर संभाग में किसी हद तक मिला। और यह तब हुआ जब दिग्विजय सरकार ने सिविल सोसाइटी द्वारा बरसों से चलाए जा रहे ”होशंगाबाद विज्ञानÓÓ जैसे अत्यंत सफल शैक्षणिक प्रयोग को बिना किसी चर्चा या सुनवाई के एकतरफा निर्णय लेते हुए बंद कर दिया था। इसी दौरान मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने एक गुपचुप निर्णय लेते हुए दुर्ग जिले के बोरई में औद्योगिक जल आपूर्ति हेतु शिवनाथ नदी का लगभग बाईस किलोमीटर का हिस्सा एक निजी कंपनी को सौंप दिया। संयोगवश नदी जल के इस निजीकरण का रहस्योद्घाटन करने का श्रेय छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद 2001 में देशबन्धु को ही मिला। तब तक इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी थी।
पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने राजनीति को अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कला निरूपित किया था। दिग्विजय सिंह इसी व्याख्या को आधार बनाकर शासन चला रहे थे। वे एक ओर समाज के वंचित और हाशिए के समुदायों की बेहतरी के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रहे थे, जिसका चरमोत्कर्ष जनवरी 2002 में भोपाल में आयोजित दलित सम्मेलन व उसमें अंगीकृत भोपाल घोषणापत्र में देखने मिलता है; तो दूसरी ओर वे मनुवाद पर आधारित अपनी धार्मिक आस्था का इस तरह खुला प्रदर्शन करते हैं जैसा उनके पहले प्रदेश के किसी बड़े नेता ने नहीं किया। शायद इसे संतुलित करने के उद्देश्य से वे अल्पसंख्यकों की पैरवी में उस हद तक चले जाते हैं जहां बहुसंख्यक समाज के बीच उनकी खलनायक जैसी छवि बनने लगती है, जिसका खामियाजा अंतत: कांग्रेस पार्टी को उठाना पड़ता है। उन्होंने 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन विधेयक की भावना के अनुरूप प्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने में उत्साह दिखाया, लेकिन नौकरशाही ने उसके नियम इस तरह बनाए व बार-बार संशोधित किए जिसमें सत्ता के मौजूदा तंत्र का शिकंजा पूर्ववत कसा रहा और नौबत आई तो दोषारोपण पंचायती राज प्रतिनिधियों पर कर दिया गया। रायपुर के व्याख्यान में इस बारे में सवाल किए जाने पर उन्होंने मजे लेकर उत्तर दिया- भ्रष्टाचार का विकेंद्रीकरण ही तो हुआ है, केंद्रीकरण तो नहीं हुआ न!
सामान्यत: राजनेताओं की एक बड़ी पूंजी उनकी स्मरण शक्ति होती है। दिग्विजय इस मामले में दूसरों से कई मील आगे दिखते हैं। वे ह•ाारों लोगों को नाम से जानते हैं और कई साल बाद मिलने पर भी उन्हें पहचान लेते हैं। वे अक्सर उन्हें प्रथम नाम से संबोधित करते हैं और युवा कार्यकर्ताओं तथा पत्रकारों आदि से युवकोचित तू-तड़ाक कर उन्हें अपने मोहपाश में बांध लेते हैं। इस लोकप्रियता के बावजूद उनके दस-साला कार्यकाल में पांच-छह बातों के चलते उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा। एक तो मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल अवनति को प्राप्त हुआ। दूसरे, साल के जंगलों में कथित तौर पर ”साल बोररÓÓ कीट लग जाने के कारण बड़ी संख्या में कीमती साल वृक्ष काट दिए गए। तीसरे, प्रदेश में एक अत्यंत ताकतवर शराब लॉबी खड़ी हो गई। चौथे, मुलताई गोलीकांड जिसमें बड़ी संख्या में आंदोलनकारी किसान मारे गए और उनके नेता समाजवादी विधायक डॉ सुनीलम को जेल में ठूंस दिया गया। पांचवे, अंबानी घराने से उनकी निकटता की चर्चा होने लगी थी। होशंगाबाद जि़ले में बाबई स्थित विशाल शासकीय कृषि प्रक्षेत्र उसे देना शायद तय भी हो गया था जो रोक दिया गया। छठे, लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में उन्होंने सड़क-बिजली-पानी जैसे बुनियादी प्रश्नों की ओर ध्यान देना बंद कर दिया।
दिग्विजय सिंह के शासनकाल की सबसे बड़ी परिघटना छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की है। भारतीय जनता पार्टी के अजेंडे में तीन नए राज्यों की स्थापना का मुद्दा पहले से था। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस सहित सभी पार्टियां नए राज्य गठन का समर्थन कर रहीं थीं। एकमात्र माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर इसके विरोध में थी। मैं जितना समझ पाया, दिग्विजय सिंह ने मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। विधानसभा में नए राज्य के लिए प्रस्ताव भी आसानी से पारित हो गया। लेकिन जब राज्य गठन के लिए व्यवहारिक तैयारियां शुरू हुईं तब मुख्यमंत्री का एक नया रुख देखने मिला। परिसंपत्तियों के बंटवारे, अधिकारियों- कर्मचारियों के कैडर आबंटन आदि विषयों पर एक तयशुदा फार्मूले के अंतर्गत काम होना था। उसमें बारंबार बदलाव किए गए। मुख्यमंत्री जिन अधिकारियों से नाराज थे या जो उनकी निगाह में नाकाबिल थे, उन्हें छत्तीसगढ़ भेजने की हर संभव कोशिश की गई और जो चहेते अफसर थे, उन्हें किसी न किसी बहाने भोपाल में रोक लिया गया। परिणामस्वरूप छत्तीसगढ़ आए अफसरों में लंबे समय तक आक्रोश बना रहा। कुछ ने तो अदालत तक की शरण ली। लेकिन इस सब के बीच 31 अक्तूबर 2000 की शाम मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल के निवास ”राधेश्याम भवनÓÓ पर उत्तेजित कांग्रेसजनों के क्रोध का सामना जिस संयम के साथ किया, मुख्यमंत्री होते हुए शारीरिक आक्रमण को भी झेल लिया, और अजीत जोगी को हाईकमान की इच्छानुसार मुख्यमंत्री बनने देने में बाधा उत्पन्न नहीं होने दी, वह उनके राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा थी, जिसमें वे स्वर्ण पदक विजेता सिद्ध हुए। भले ही नए राज्य के इतिहास में यह पूर्व संध्या एक शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज की गई हो।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
धर्मवीर भारती का लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता निम्नलिखित वाक्य के साथ प्रारंभ होता है- ‘अगर पुराने जमाने की नगरदेवता की और ग्रामदेवता की कल्पनाएं आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगरदेवता जरूर कोई रोमेंटिक कलाकार है।Ó मैं उनकी ही तर्ज पर सोचता हूं कि अगर भूतबंगले की मान्यता आज भी कायम है तो कहना होगा कि रायपुर कलेक्टर बंगले में अवश्य कोई भविष्य देवता निवास करता है। इसका पहला प्रमाण कम से कम सौ साल पुराना है। सी डी देशमुख नए-नए आईसीएस की प्रथम पदस्थापना 1910-20 के बीच कभी रायपुर में हुई थी। वे कलेक्टर नहीं, लेकिन ईएसी यानी डिप्टी कलेक्टर थे। जिलाधीश बंगले पर वे जाते ही होंगे। भविष्य देवता ने उनके बिना जाने उन पर कृपा की। वे आगे चलकर रि•ार्व बैंक ऑफ इंडिया के पहले भारतीय गवर्नर बने। फिर राजनीति में आकर नेहरू सरकार में वित्तमंत्री रहे। प्रसंगवश, उन्होंने रायपुर में रहते हुए यूनियन क्लब की स्थापना की थी, क्योंकि छत्तीसगढ़ क्लब में सिर्फ गोरे साहब जा सकते थे। दिल्ली में उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की स्थापना कर एक विश्वस्तरीय बौद्धिक केंद्र बनाया।
उनके बाद किसी समय आरके पाटिल रायपुर के जिलाधीश बनकर आए। महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने आईसीएस के रुतबेदार ओहदे से इस्तीफा दे दिया व स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। सी पी एंड बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने स्वतंत्र देश में अपने मंत्रिमंडल में खादीधारी पाटिलजी को शामिल किया। रायपुर के स्वाधीनता सेनानी कन्हैयालाल बाजारी ‘नेताजीÓ के प्रयत्नों से स्टेशन चौक पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मूर्ति स्थापित हुई तो पाटिलजी के करकमलों से उसका लोकार्पण हुआ। उनके पश्चात 1959-60 में सुशील चंद्र वर्मा जिलाधीश बनकर उसी बंगले में रहने आए। उन्होंने अनेक कल्याणकारी कामों के साथ गुढिय़ारी मोहल्ले में एक कुआं खुदवाया, जिसकी चर्चा कुछ साल पहले तक होती थी। आगे चलकर वे प्रदेश के मुख्य सचिव बने और अवकाशप्राप्ति के उपरांत राजनीति में आ गए। अत्यंत साफ सुथरी छवि के धनी वर्माजी ने लोकसभा में तीन या चार बार भाजपा की ओर से भोपाल का प्रतिनिधित्व किया। भविष्य देवता के अदृश्य वास वाले इसी बंगले में पहले अजीत जोगी और उनके तुरंत बाद नजीब जंग का आशियाना बना। जोगी को छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला तथा जंग दिल्ली के उपराज्यपाल नियुक्त किए गए। इस तरह इस बंगले के इतिहास में प्रशासन से शासन में जाने के कम से कम पांच उदाहरण हमारे सामने हैं।
अजीत जोगी जिलाधीश का पद सम्हालने रायपुर आए, उसके कुछ माह पहले वे एक अन्य घटना के चलते रायपुर में चर्चित हो गए थे। रायपुर की एक फुटबॉल टीम किसी टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए वर्ष 1978 में शहडोल गई। वहां किसी कारण से रायपुर के खिलाडिय़ों का मेजबान टीम के खिलाडिय़ों के साथ झगड़ा हो गया। मारपीट की नौबत आ गई। रायपुर के कुछ खिलाड़ी घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। उस समय शहडोल •िाले के युवा कलेक्टर ने अस्पताल पहुंच कर उन नौजवानों की मि•ााजपुर्सी की तथा स्वस्थ होने के बाद उन्हें रायपुर भेजने का प्रबंध किया। यह किस्सा एक रोज मेरे मित्र व लोकप्रिय अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ शंकर दुबे ने सुनाया। उस युवा कलेक्टर का नाम अजीत जोगी था। यह रोचक संयोग था कि कुछ माह बाद उन्हीं जोगी का तबादला रायपुर हुआ। वैसे रायपुर उनके लिए नई जगह नहीं थी। 1967 में वे शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में कुछ समय तक सेवाएं दे चुके थे। फिर वे 1969 में आईपीएस और उसके एक साल बाद आईएएस के लिए चुन लिए गए। वे जब सन् 2000 में तीसरी बार लौटे तो मुख्यमंत्री के लिए कोई और आलीशान भवन चुनने के बजाय उन्होंने उस सौ साल से अधिक पुराने कलेक्टर बंगले में ही रहना पसंद किया जहां वे पहले लगभग ढाई साल रह चुके थे। इस बार उन्हें यहां तीन साल का समय मिला। फिर भविष्य देवता एकाएक डॉ. रमनसिंह पर मुस्कुराए और बढ़ाते-बढ़ाते उन्हें पंद्रह साल की ली•ा दे दी। बंगला पुराण यहां समाप्त होता है।
मुझे इस बात का कोई इल्म नहीं है कि जोगीजी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उस वक्त तक जागृत हुई थी या नहीं, लेकिन उनकी कार्यप्रणाली तथा सोच के दो स्पष्ट उदाहरण मेरी समझ में आए। एक दिन किसी काम से मैं उनके निवास पर मिलने गया तो सुबह नौ बजे के आसपास ही एक बड़ा हुजूम अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए वहां मौजूद था और वे शांतिपूर्वक बल्कि प्रसन्नचित्त होकर जनता से मिल रहे थे। 1980 में एक शाम वे मेरे आमंत्रण पर रोटरी क्लब ऑफ रायपुर मिडटाउन में व्याख्यान देने आए। विषय मेरा ही सुझाया था- कलेक्टर ऑर द किंगपिन। इस पर लगभग एक घंटे उन्होंने बात की। उनकी साफ राय थी कि जनतांत्रिक राजनीति में तीन पदों का ही महत्व है- पी एम, सी एम और डी एम अर्थात प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट यानी जिलाधीश। क्या यह उनकी इसी सोच का कमाल था कि वे रायपुर से इंदौर गए तो वहां जिलाधीश के पद पर ही पांच साल गुजार दिए? वे सचिव अथवा संभागायुक्त पद के पात्र हो चुके थे, लेकिन पदोन्नति नहीं ली और 1986 की मई में एकाएक कांग्रेस से राज्यसभा के उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। चर्चा चली कि उनके नामांकन के पीछे अर्जुनसिंह का हाथ है, किंतु उस समय मध्यप्रदेश में मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री थे। तो क्या उनकी इस मामले में नहीं चली? वैसे कांग्रेस में तार्किक आधार पर टिकटों या पदों का वितरण कम ही होता है, या कम से कम राजनीतिक प्रेक्षकों को ऐसा ही लगता है। इसलिए इस बारे में सिर खपाने का कोई लाभ नहीं है।
अजीत जोगी के रायपुर जिलाधीश रहते हुए हमारे उनसे उस सीमा तक ही सौजन्यपूर्ण संबंध थे, जितने कि किसी अखबार के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ होना चाहिए। इंदौर चले जाने के बाद मेरा उनके साथ कोई खास संपर्क भी नहीं रहा। मेरे एक इंदौर प्रवास पर अवश्य उन्होंने मुझे अपने आवास पर भोजन हेतु आमंत्रित किया था जो शायद ऐसा पहला अवसर था। इसलिए मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि भोपाल में नामांकन दाखिल करने के बाद उसी दिन वे बाबूजी से मिलने के लिए गए कि उनके आशीर्वाद से ही टिकट मिला और आकांक्षा प्रकट की कि इस नई भूमिका में आशीर्वाद मिलते रहेगा। ऐसा नहीं कि यह भावना उन्होंने निजी भेंट में व्यक्त की, बल्कि आगे भी कई बार सार्वजनिक तौर पर दोहराई। मैं इस बारे में अनुमान लगाने की कोशिश करता हूं तो पहली बात समझ आती है कि छत्तीसगढ़ में ही अपनी राजनीतिक •ामीन मजबूत करने के इरादे से उन्होंने उस अखबार से समर्थन सुनिश्चित करना चाहा होगा जिसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध व पहुंच छत्तीसगढ़ के हर कोने में थी! राज्यसभा में पहुंचना तो अंतत: उनके राजनीतिक सफर का पहला कदम था। उनकी महत्वाकांक्षा निश्चय ही यथासमय मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की रही होगी। अपने मनोभाव को जोगीजी ने कभी छिपाया नहीं, अपितु जब-तब उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करने में भी संकोच नहीं किया। (तब पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्मित होने की दूर दूर तक कोई स्थिति नहीं थी)। दूसरी बात, वे शायद मन ही मन इस बारे में भी आशंकित थे कि मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा के परिवार द्वारा संचालित अखबार का उनके प्रति मैत्रीपूर्ण रवैया नहीं होगा! उनकी आशंका गलत नहीं थी। उक्त समाचारपत्र में उनके विरुद्ध छपी खबरों का बा•ा वक्त उन्होंने खिन्न मन से मुझसे उल्लेख भी किया।
मेरे अपने लिए इस संस्मरण का एक रोचक तथ्य यह है कि जिस दिन उनकी उम्मीदवारी घोषित हुई, हम कुछ मित्र इनरव्हील डिस्ट्रिक्ट- 326 की सालाना डिस्ट्रिक्ट असेंबली में शामिल होने सपरिवार सिवनी आए हुए थे। इस मंडली में रायपुर विधायक स्वरूपचंद जैन भी थे। उन्हें याद था कि राज्यसभा उम्मीदवारों की घोषणा उसी दिन होना है। स्वाभाविक उत्सुकतावश स्वरूपजी ने भोपाल किसी परिचित को फोन लगाया तो यह सूचना मिली। हम सबको ही इस खबर पर अचरज हुआ। बहरहाल, वे बाबूजी का आशीर्वाद लेने गए थे, यह जानकारी मुझे दो दिन बाद मिली, जब मैं सिवनी का कार्यक्रम संपन्न होने के पश्चात जबलपुर पहुंचा।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
छत्तीसगढ़ का एक पृथक राज्य के रूप में उदय हुआ तो स्वाभाविकत: प्रदेश में सभी ओर उल्लास का वातावरण निर्मित हुआ। जनता के मन में विश्वास जागा कि उसकी आशाएं- आकांक्षाएं पूरी होने का समय आ गया है। एक उदाहरण सामने रखना बेहतर होगा। राष्ट्रीय राजमार्ग 6 (अब क्रमांक बदल गया है) पर पश्चिम दिशा में नागपुर की ओर राजनांदगांव के आगे एक स्थान पर बाकायदा सरकारी सूचना पटल लगा था- ‘आगे बत्तीस किलोमीटर गड्ढा-मुक्त सड़क हैÓ। कल्पना की जा सकती है कि प्रदेश में उन दिनों सड़कों की क्या हालत रही होगी! बिजली आपूर्ति की व्यवस्था इससे बेहतर नहीं थी। दरअसल, पूर्ववर्ती सरकार के मुखिया का मानना था कि चुनाव सड़क-बिजली-पानी से नहीं, वरन ‘मैनेजमेंटÓ से जीते जाते हैं। ऐसे में जब मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने काम सम्हालने के एक सप्ताह के भीतर ही तमाम नियम-कायदों व प्रोटोकॉल को धता बताते हुए प्रदेश के बिजली संयंत्रों से मध्यप्रदेश को बिजली आपूर्ति बंद करने की घोषणा की तो प्रदेश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वह दिन और आज का दिन- छत्तीसगढ़वासियों को मनमानी बिजली कटौती से पूरी न सही, बहुत बड़ी राहत मिल गई। इसी के साथ दूर-दराज के इलाकों में विद्युत वितरण सुनिश्चित करने के लिए उपकेन्द्रों की स्थापना भी तेजी से होने लगी।
इसी दौरान प्रदेशवासियों ने एक और परिवर्तन महसूस किया। अभी तक राजधानी भोपाल में थी जो आम जनता के लिए उतनी और उसी तरह दूर थी जैसे देश की राजधानी दिल्ली। रायपुर में राजधानी आई तो जनता को लगा कि सरकार उसके करीब आ गई है। सरकारी दफ्तरों के माहौल में किसी कदर खुलापन न•ार आने लगा। मंत्रालय हो या विधानसभा, राजभवन हो या मुख्यमंत्री निवास, आम लोगों की आवाजाही बहुत कठिन नहीं थी। सुरक्षाकर्मी अधिक पूछताछ नहीं करते थे। इसमें कहीं स्वयं श्री जोगी का अप्रत्यक्ष योगदान था। हमें पहली बार ऐसा मुख्यमंत्री मिला था जो सहज भाव से छत्तीसगढ़ी में जनता से गोठियाता था यानी बातचीत करता था। उनकी कलेक्टरी के दिनों वाली एक आदत की झलक भी कभी-कभार देखने मिल जाती थी कि निवास पर फोन करो तो दूसरे छोर पर टेलीफोन अटेंडेंट की बजाय खुद अजीत जोगी ही फोन उठा लें। संयोग से प्रथम राज्यपाल के रूप में प्रदेश को दिनेश नंदन सहाय जैसा सरल व्यक्तित्व का धनी मिला। वे भी जनता को सहज उपलब्ध थे। एक दिन तो वे घूमते-घामते निकट स्थित प्रेस क्लब पत्रकारों से मिलने चले गए। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछेक जिम्मेदार तबकों में इस खुलेपन की आलोचना की गई। आज जिस तरह मुख्यमंत्री निवास पर सुरक्षा का घेरा कसते चला जा रहा है और राजभवन की चारदीवारी ऊंची और ऊंची होती गई हैं, वह आम जन को भयभीत करता है, दूरी का एहसास कराता है, जिसे देखकर दु:ख होता है।
इस बीच यह संवैधानिक अनिवार्यता सामने आई कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन अजीत जोगी चूंकि विधायक नहीं हैं अत: वे छह माह के भीतर प्रदेश में किसी विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ें और जीतकर सदन में आएं। राजनीतिक हल्कों में कयास लगाया जा रहा था कि कांग्रेस का कौन सदस्य उनके लिए सीट खाली करेगा। लेकिन जोगीजी ने अपने गृहक्षेत्र मरवाही के भाजपा विधायक रामदयाल उइके से इस्तीफा दिलवाकर एकबारगी सबको अचरज में डाल दिया। उनके इस कौशल की काफी प्रशंसा हुई, किंतु मेरा मानना था कि उनकी यह चतुराई नैतिक दृष्टि से बिल्कुल उचित नहीं थी, और इससे आगे चलकर उनके लिए परेशानी ही खड़ी होगी। लेकिन यह सिर्फ एक ट्रेलर था। पूरी फिल्म तब देखने मिली जब कुछ समय पश्चात भाजपा के बारह विधायक एक साथ दलबदल कर कांग्रेस में शामिल हो गए। तत्कालीन नियमों के तहत उनकी सदस्यता बरकरार रही। विधानसभा में कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत था अर्थात कोई संकट की स्थिति नहीं थी। फिर जोगीजी को यह करतब करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? क्या इसलिए कि कांग्रेस के अधिकतर विधायकों की निष्ठा निजी तौर पर जोगीजी के प्रति नहीं थी और वे विधायक दल में अपना खेमा तैयार कर भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाना चाहते थे? ऐसा करते हुए उन्होंने तनिक भी परवाह नहीं की कि इससे उनकी छवि पर आंच आ रही है। नवगठित विधानसभा में स्वस्थ संसदीय परंपरा के अनुरूप विपक्ष यानी भाजपा के बनवारी लाल अग्रवाल उपाध्यक्ष निर्वाचित किए गए थे। उन्हें भी श्री जोगी ने बहुमत के सहारे अपदस्थ किया व उनके स्थान पर कांग्रेस के धर्मजीत सिंह नए उपाध्यक्ष चुन लिए गए। इससे एक गलत परंपरा की शुरूआत हुई जो आज तक चली आ रही है।
यह निर्विवाद है कि अजीत जोगी एक बेहतरीन प्रशासक थे। उन्हें मैंने ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में जाना जो अफसरों से काम लेना जानता था, न कि उनकी सलाह पर चलता था। उनके एक राजनीतिक-प्रशासनिक कदम का उल्लेख करना उचित होगा। मध्यप्रदेश में मदिरा व्यवसाय का एक कार्टेल बन गया था जिसका नियंत्रण भोपाल के एक व्यवसायी के हाथों में हुआ करता था। यह अत्यंत ताकतवर कार्टेल सरकार से मनमर्जी काम करवाने में सक्षम था। कहने की •ारूरत नहीं कि किसी भी सरकार का काम शराब के वैध-अवैध व्यापार के बिना नहीं चलता। छत्तीसगढ़ की पहली सरकार भी इसका अपवाद नहीं थी। तथापि जोगीजी ने कुछ ही समय के भीतर शराब लॉबी को इतना संदेश दे दिया था कि सरकार उसके इशारे पर नहीं चलेगी। उन्होंने सत्ता के गलियारों में घूमने वाले अहंकार-दीप्त पुराने मध्यस्थों को भी दरकिनार कर दिया था, लेकिन जल्दी ही इनका स्थान उन भाईबंदों ने ले लिया जो इंदौर में जोगीजी के करीबी होने का विश्वास-योग्य दावा करते थे। शराब लॉबी को नियंत्रित करना स्वागतयोग्य था किंतु मुख्यमंत्री ने आत्मविश्वास के अतिरेक में प्रदेश के समूचे व्यापारी समाज को ही अपने निशाने पर ले लिया। यह सही है कि जिन मांगों को लेकर व्यापारी वर्ग ने आंदोलन किया था उनमें से अधिकांश अव्यवहारिक तथा अनुचित थीं, लेकिन विधानसभा मार्ग पर उन पर पुलिस का लाठीचार्ज पूरी तरह अवांछित, अनावश्यक व अदूरदर्शी था। यह एक और ऐसा कदम था जिसने प्रदेश में जोगी-विरोधी माहौल को हवा देने का काम किया।
मुख्यमंत्री अजीत जोगी के ऐसे कुछ शुरुआती कदमों का विश्लेषण करें तो प्रतीत होता है कि वे श्वेत और श्याम के बीच जो स्लेटी रंग होता है या दूसरे शब्दों में इस पार और उस पार के बीच जो •ामीन होती है, उसे नहीं मानते थे। उन्होंने कई बार आपसी बातचीत में मुझसे कहा भी कि मैं तो आदिवासी हूं। सीधी-सीधी बात ही समझता और करता हूं। उनका यह कथन कितना स्वीकार योग्य था, यह पाठक तय करें। बहरहाल, जोगीजी ने मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद से ही एक ऐसी टीम बनाने पर ध्यान दिया जो पूरी तरह उनके प्रति समर्पित हो, वहीं जिन्हें वे अपना नहीं समझते थे उन्हें काटने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी का गठन होना था तो अध्यक्ष पद के लिए उन्हें दुर्ग के रामानुजलाल यादव सबसे बेहतर व्यक्ति न•ार आए और जब राज्यसभा के लिए प्रत्याशी चयन करना था तो बिलासपुर के रामाधार कश्यप का नाम तय हो गया। कहने की •ारूरत नहीं कि कांग्रेस पार्टी को इनसे कितना लाभ हुआ। दूसरी ओर देखें तो युवा मंत्री भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री ने अपने साथ संबद्ध करने के बावजूद उन पर विश्वास नहीं किया। इसी तरह टी.एस. सिंहदेव को राज्य वित्त आयोग का अध्यक्ष तो बनाया, लेकिन उनके घर अंबिकापुर में ही उनकी सार्वजनिक रूप से आलोचना करने से परहेज नहीं किया।
श्री जोगी ने राजनीति से इतर भी अपना निजी प्रभाव क्षेत्र तैयार करने में यही नीति अपनाई। कतिपय उदाहरणों से बात स्पष्ट होगी। उन्होंने एक सराहनीय निर्णय लिया कि प्रदेश की पंचायतों के अंतर्गत राजीव गांधी ग्रामीण पुस्तकालय स्थापित किए जाएं। इस हेतु एक तीन सदस्यीय पुस्तक चयन समिति गठित की गई जिसके एक सदस्य की संघ से प्रतिबद्धता जगजाहिर थी। इसी तरह 2001 में शासन द्वारा स्थापित विभिन्न पुरस्कारों के लिए पृथक-पृथक जूरियों का गठन हुआ। इसमें भी एक जूरी में संघ के एक पुराने कार्यकर्ता सदस्य बनाए गए। उनके कारण कांग्रेस राज में एक पुरस्कार संघ के ही एक कार्यकर्ता को दे दिया गया। ऐसा तो नहीं कि मुख्यमंत्री इन दोनों सज्जनों के राजनीतिक रुझान से अपरिचित थे, फिर भी इन्हें अपनी योजनाओं में शामिल कर वे क्या संदेश देना चाहते थे? क्या यह सहज उदारता थी? क्या वे इनके अनुभवों का लाभ लेना चाहते थे? या फिर वे मौका आने पर कांग्रेस से परे जाकर अपनी राजनीति को आकार देना चाहते थे?
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
छत्तीसगढ़ का एक पृथक राज्य के रूप में उदय हुआ तो स्वाभाविकत: प्रदेश में सभी ओर उल्लास का वातावरण निर्मित हुआ। जनता के मन में विश्वास जागा कि उसकी आशाएं- आकांक्षाएं पूरी होने का समय आ गया है। एक उदाहरण सामने रखना बेहतर होगा। राष्ट्रीय राजमार्ग 6 (अब क्रमांक बदल गया है) पर पश्चिम दिशा में नागपुर की ओर राजनांदगांव के आगे एक स्थान पर बाकायदा सरकारी सूचना पटल लगा था- ‘आगे बत्तीस किलोमीटर गड्ढा-मुक्त सड़क हैÓ। कल्पना की जा सकती है कि प्रदेश में उन दिनों सड़कों की क्या हालत रही होगी! बिजली आपूर्ति की व्यवस्था इससे बेहतर नहीं थी। दरअसल, पूर्ववर्ती सरकार के मुखिया का मानना था कि चुनाव सड़क-बिजली-पानी से नहीं, वरन ‘मैनेजमेंटÓ से जीते जाते हैं। ऐसे में जब मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने काम सम्हालने के एक सप्ताह के भीतर ही तमाम नियम-कायदों व प्रोटोकॉल को धता बताते हुए प्रदेश के बिजली संयंत्रों से मध्यप्रदेश को बिजली आपूर्ति बंद करने की घोषणा की तो प्रदेश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वह दिन और आज का दिन- छत्तीसगढ़वासियों को मनमानी बिजली कटौती से पूरी न सही, बहुत बड़ी राहत मिल गई। इसी के साथ दूर-दराज के इलाकों में विद्युत वितरण सुनिश्चित करने के लिए उपकेन्द्रों की स्थापना भी तेजी से होने लगी।
इसी दौरान प्रदेशवासियों ने एक और परिवर्तन महसूस किया। अभी तक राजधानी भोपाल में थी जो आम जनता के लिए उतनी और उसी तरह दूर थी जैसे देश की राजधानी दिल्ली। रायपुर में राजधानी आई तो जनता को लगा कि सरकार उसके करीब आ गई है। सरकारी दफ्तरों के माहौल में किसी कदर खुलापन न•ार आने लगा। मंत्रालय हो या विधानसभा, राजभवन हो या मुख्यमंत्री निवास, आम लोगों की आवाजाही बहुत कठिन नहीं थी। सुरक्षाकर्मी अधिक पूछताछ नहीं करते थे। इसमें कहीं स्वयं श्री जोगी का अप्रत्यक्ष योगदान था। हमें पहली बार ऐसा मुख्यमंत्री मिला था जो सहज भाव से छत्तीसगढ़ी में जनता से गोठियाता था यानी बातचीत करता था। उनकी कलेक्टरी के दिनों वाली एक आदत की झलक भी कभी-कभार देखने मिल जाती थी कि निवास पर फोन करो तो दूसरे छोर पर टेलीफोन अटेंडेंट की बजाय खुद अजीत जोगी ही फोन उठा लें। संयोग से प्रथम राज्यपाल के रूप में प्रदेश को दिनेश नंदन सहाय जैसा सरल व्यक्तित्व का धनी मिला। वे भी जनता को सहज उपलब्ध थे। एक दिन तो वे घूमते-घामते निकट स्थित प्रेस क्लब पत्रकारों से मिलने चले गए। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछेक जिम्मेदार तबकों में इस खुलेपन की आलोचना की गई। आज जिस तरह मुख्यमंत्री निवास पर सुरक्षा का घेरा कसते चला जा रहा है और राजभवन की चारदीवारी ऊंची और ऊंची होती गई हैं, वह आम जन को भयभीत करता है, दूरी का एहसास कराता है, जिसे देखकर दु:ख होता है।
इस बीच यह संवैधानिक अनिवार्यता सामने आई कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन अजीत जोगी चूंकि विधायक नहीं हैं अत: वे छह माह के भीतर प्रदेश में किसी विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ें और जीतकर सदन में आएं। राजनीतिक हल्कों में कयास लगाया जा रहा था कि कांग्रेस का कौन सदस्य उनके लिए सीट खाली करेगा। लेकिन जोगीजी ने अपने गृहक्षेत्र मरवाही के भाजपा विधायक रामदयाल उइके से इस्तीफा दिलवाकर एकबारगी सबको अचरज में डाल दिया। उनके इस कौशल की काफी प्रशंसा हुई, किंतु मेरा मानना था कि उनकी यह चतुराई नैतिक दृष्टि से बिल्कुल उचित नहीं थी, और इससे आगे चलकर उनके लिए परेशानी ही खड़ी होगी। लेकिन यह सिर्फ एक ट्रेलर था। पूरी फिल्म तब देखने मिली जब कुछ समय पश्चात भाजपा के बारह विधायक एक साथ दलबदल कर कांग्रेस में शामिल हो गए। तत्कालीन नियमों के तहत उनकी सदस्यता बरकरार रही। विधानसभा में कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत था अर्थात कोई संकट की स्थिति नहीं थी। फिर जोगीजी को यह करतब करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? क्या इसलिए कि कांग्रेस के अधिकतर विधायकों की निष्ठा निजी तौर पर जोगीजी के प्रति नहीं थी और वे विधायक दल में अपना खेमा तैयार कर भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाना चाहते थे? ऐसा करते हुए उन्होंने तनिक भी परवाह नहीं की कि इससे उनकी छवि पर आंच आ रही है। नवगठित विधानसभा में स्वस्थ संसदीय परंपरा के अनुरूप विपक्ष यानी भाजपा के बनवारी लाल अग्रवाल उपाध्यक्ष निर्वाचित किए गए थे। उन्हें भी श्री जोगी ने बहुमत के सहारे अपदस्थ किया व उनके स्थान पर कांग्रेस के धर्मजीत सिंह नए उपाध्यक्ष चुन लिए गए। इससे एक गलत परंपरा की शुरूआत हुई जो आज तक चली आ रही है।
यह निर्विवाद है कि अजीत जोगी एक बेहतरीन प्रशासक थे। उन्हें मैंने ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में जाना जो अफसरों से काम लेना जानता था, न कि उनकी सलाह पर चलता था। उनके एक राजनीतिक-प्रशासनिक कदम का उल्लेख करना उचित होगा। मध्यप्रदेश में मदिरा व्यवसाय का एक कार्टेल बन गया था जिसका नियंत्रण भोपाल के एक व्यवसायी के हाथों में हुआ करता था। यह अत्यंत ताकतवर कार्टेल सरकार से मनमर्जी काम करवाने में सक्षम था। कहने की •ारूरत नहीं कि किसी भी सरकार का काम शराब के वैध-अवैध व्यापार के बिना नहीं चलता। छत्तीसगढ़ की पहली सरकार भी इसका अपवाद नहीं थी। तथापि जोगीजी ने कुछ ही समय के भीतर शराब लॉबी को इतना संदेश दे दिया था कि सरकार उसके इशारे पर नहीं चलेगी। उन्होंने सत्ता के गलियारों में घूमने वाले अहंकार-दीप्त पुराने मध्यस्थों को भी दरकिनार कर दिया था, लेकिन जल्दी ही इनका स्थान उन भाईबंदों ने ले लिया जो इंदौर में जोगीजी के करीबी होने का विश्वास-योग्य दावा करते थे। शराब लॉबी को नियंत्रित करना स्वागतयोग्य था किंतु मुख्यमंत्री ने आत्मविश्वास के अतिरेक में प्रदेश के समूचे व्यापारी समाज को ही अपने निशाने पर ले लिया। यह सही है कि जिन मांगों को लेकर व्यापारी वर्ग ने आंदोलन किया था उनमें से अधिकांश अव्यवहारिक तथा अनुचित थीं, लेकिन विधानसभा मार्ग पर उन पर पुलिस का लाठीचार्ज पूरी तरह अवांछित, अनावश्यक व अदूरदर्शी था। यह एक और ऐसा कदम था जिसने प्रदेश में जोगी-विरोधी माहौल को हवा देने का काम किया।
मुख्यमंत्री अजीत जोगी के ऐसे कुछ शुरुआती कदमों का विश्लेषण करें तो प्रतीत होता है कि वे श्वेत और श्याम के बीच जो स्लेटी रंग होता है या दूसरे शब्दों में इस पार और उस पार के बीच जो •ामीन होती है, उसे नहीं मानते थे। उन्होंने कई बार आपसी बातचीत में मुझसे कहा भी कि मैं तो आदिवासी हूं। सीधी-सीधी बात ही समझता और करता हूं। उनका यह कथन कितना स्वीकार योग्य था, यह पाठक तय करें। बहरहाल, जोगीजी ने मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद से ही एक ऐसी टीम बनाने पर ध्यान दिया जो पूरी तरह उनके प्रति समर्पित हो, वहीं जिन्हें वे अपना नहीं समझते थे उन्हें काटने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी का गठन होना था तो अध्यक्ष पद के लिए उन्हें दुर्ग के रामानुजलाल यादव सबसे बेहतर व्यक्ति न•ार आए और जब राज्यसभा के लिए प्रत्याशी चयन करना था तो बिलासपुर के रामाधार कश्यप का नाम तय हो गया। कहने की •ारूरत नहीं कि कांग्रेस पार्टी को इनसे कितना लाभ हुआ। दूसरी ओर देखें तो युवा मंत्री भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री ने अपने साथ संबद्ध करने के बावजूद उन पर विश्वास नहीं किया। इसी तरह टी.एस. सिंहदेव को राज्य वित्त आयोग का अध्यक्ष तो बनाया, लेकिन उनके घर अंबिकापुर में ही उनकी सार्वजनिक रूप से आलोचना करने से परहेज नहीं किया।
श्री जोगी ने राजनीति से इतर भी अपना निजी प्रभाव क्षेत्र तैयार करने में यही नीति अपनाई। कतिपय उदाहरणों से बात स्पष्ट होगी। उन्होंने एक सराहनीय निर्णय लिया कि प्रदेश की पंचायतों के अंतर्गत राजीव गांधी ग्रामीण पुस्तकालय स्थापित किए जाएं। इस हेतु एक तीन सदस्यीय पुस्तक चयन समिति गठित की गई जिसके एक सदस्य की संघ से प्रतिबद्धता जगजाहिर थी। इसी तरह 2001 में शासन द्वारा स्थापित विभिन्न पुरस्कारों के लिए पृथक-पृथक जूरियों का गठन हुआ। इसमें भी एक जूरी में संघ के एक पुराने कार्यकर्ता सदस्य बनाए गए। उनके कारण कांग्रेस राज में एक पुरस्कार संघ के ही एक कार्यकर्ता को दे दिया गया। ऐसा तो नहीं कि मुख्यमंत्री इन दोनों सज्जनों के राजनीतिक रुझान से अपरिचित थे, फिर भी इन्हें अपनी योजनाओं में शामिल कर वे क्या संदेश देना चाहते थे? क्या यह सहज उदारता थी? क्या वे इनके अनुभवों का लाभ लेना चाहते थे? या फिर वे मौका आने पर कांग्रेस से परे जाकर अपनी राजनीति को आकार देना चाहते थे?
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
आज शायद अधिकतर पाठकों को याद न हो कि अजीत जोगी ने एक कहानीकार के रूप में भी अपनी प्रतिभा का एक आयाम प्रकट किया था। उनकी कुछ कहानियां धर्मयुग में छपी थीं जिनमें मैकल पर्वत की गोद में बसे गांवों के जनजीवन का विश्वसनीय चित्रण था। मुख्यमंत्री बनने के बाद उनका एक कहानी संकलन भी प्रकाशित हुआ। इसमें श्रीमती रेणु जोगी द्वारा लिखित तीन-चार कथाएं भी शामिल थीं। अपनी साहित्यिक अभिरुचि का परिचय देते हुए मुख्यमंत्री ने सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी, कवि, समीक्षक, आईएएस में वरिष्ठ तथा सीधी में ही कभी जिलाधीश रहे अशोक वाजपेयी को प्रदेश का मानसेवी संस्कृति सलाहकार मनोनीत किया था। इन दो तथ्यों की रौशनी में जोगीजी के बारे में यह धारणा सहज बनती थी कि वे नवनिर्मित राज्य के सांस्कृतिक उन्नयन हेतु कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे। काश कि ऐसा हो पाता! उन्होंने संस्कृति विभाग के संचालक पद पर वन विभाग के एक ऐसे अधिकारी को नियुक्त किया, जो हर दृष्टि से इस पद के अयोग्य था। उसके कार्यकाल में संस्कृति भवन में मध्यस्थों और चाटुकारों की बन आई थी। संस्कृति विभाग के छत्र तले साहित्य, नृत्य-संगीत, चित्रकला, यहाँ तक कि पुरातत्व को भी रख दिया गया। ध्यान नहीं दिया गया कि इन सबकी अलग-अलग प्रवृत्तियां, प्रविधियां और आवश्यकताएं हैं। (प्रसंगवश प्रदेश का यह दुर्भाग्य निरंतर बना हुआ है)। इसी बीच प्रो. प्रमोद वर्मा के आकस्मिक निधन से भिलाई स्थित बख्शी सृजन पीठ के निदेशक का पद रिक्त हुआ तो उस स्थान पर सतीश जायसवाल की नियुक्ति कर दी गई। मेरे मित्र सतीश निस्संदेह एक श्रेष्ठ कथाकार व रिपोर्ताज लेखक हैं, लेकिन निजी उपलब्धि हासिल करना एक बात है, संस्था को चलाना बिलकुल दूसरी।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्राय: हर देशकाल में बुद्धिजीवी वर्ग ही सबसे अधिक मुखर होता है (बशर्ते तानाशाही न हो)। यही स्थिति हमारे यहाँ भी थी। लेखकों- कलाकारों- अध्यापकों ने जोगी सरकार से बहुत अधिक आशाएं बांध रखी थीं। उन्हें निराश करने में सरकार ने कोई कमी नहीं की। पं रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त करना था तो अपने विषय के एक ऐसे अधिकारी विद्वान को नियुक्त किया गया जो विश्वविद्यालय प्रशासन सम्हालने में प्रारंभ से ही असफल सिद्ध हुए। उस समय मैंने राजमोहन गांधी अथवा गोपाल गांधी को आमंत्रित करने का सुझाव इस शर्त के साथ दिया था कि प्रशासन सम्हालने किसी सुयोग्य अधिकारी को उनके साथ कुलसचिव के रूप में नियुक्त कर दिया जाए। आशय था कि महात्मा गांधी के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त किसी पौत्र के आने से प्रदेश की छवि में निखार आ सकेगा। जोगीजी को यह सुझाव नहीं जंचा। खैर, एक मौका फिर आया जब राजकीय सम्मान किनके नाम पर दिए जाएं, यह तय करना था। इसमें भी तदर्थवाद से काम लिया गया। जूरी की अनुशंसाओं में भी मुख्यमंत्री ने नियमों के विरुद्ध जाते हुए अपने मन से निर्णय ले लिए। जब मुझे अगले साल फिर दो-तीन जूरियों में रखा गया तो मैंने मना कर दिया। कवि नागार्जुन ने 50-55 में लिखा था- शासन के सत्य कुछ और हैं, जनता के कुछ और/ संशय में पड़ गए तथागत, संतों के सिरमौर। तथास्तु!
लेखकों व कलाकारों को उम्मीद थी कि जिस तरह मध्यप्रदेश में विभिन्न सर्जनात्मक विधाओं के लिए अपनी-अपनी अकादमियां या संस्थाएं बनीं थीं, उसी तरह की पहल छत्तीसगढ़ में भी शीघ्र ही होगी। ऐसा कुछ तो हुआ नहीं, बल्कि एक के बाद मनमाने निर्णय लिए जाने लगे। संस्कृति विभाग ने किसी अनजान व्यक्ति को बैरिस्टर छेदीलाल की जीवनी लिखने का कार्य बगैर कोई प्रक्रिया अपनाए दे दिया। उस लेखक/ लेखिका ने पांडुलिपि जमा की तो वह दो विद्वानों को समीक्षार्थ भेजी गई। उन्होंने प्रकाशित करने की अनुशंसा भी कर दी। इस बीच प्रमुख सचिव कल्याण कुमार चक्रवर्ती को जाने क्या सूझी कि पांडुलिपि मेरी अनुशंसा हेतु भेज दी। मैंने अनिच्छा से उनकी बात मान ली। पुरातत्व विभाग के एक अधिकारी पोथा लेकर मेरे पास आए तो मैंने उन्हें बैठा लिया और पैंतालीस मिनट में उतनी ही तथ्यात्मक व भाषा संबंधी त्रुटियाँ निकालकर उन्हें पांडुलिपि वापस सौंप दी। इसी तरह ठाकुर जगमोहन सिंह रचित ‘श्यामा स्वप्नÓ को एकाएक हिंदी का पहला उपन्यास सिद्ध करने के लिए दो विद्वानों के बीच प्रतिस्पर्धा होने लगी। जोगीजी ने या उनके संस्कृति विभाग ने दोनों महानुभावों को उपकृत किया। भव्य कार्यक्रम संपन्न हुए। फिर वे अन्य अवसरों की तलाश में स्वप्नलीन हो गए। पहला राज्योत्सव राजकुमार कॉलेज परिसर में संपन्न हुआ। संस्कृति विभाग ने पूरे आयोजन में व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया। सुप्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत गायिका सुश्री किशोरी अमोणकर ने भयानक कोलाहल के बीच में कुछ देर तक तक बर्दाश्त किया, फिर रायपुर दुबारा न आने की कसम खाकर मंच से उठ गईं।
देश में केंद्र सरकार सहित हर राज्य में पुरातत्व विभाग की अपनी पृथक सत्ता है। अगर इसका कोई अपवाद है तो वह छत्तीसगढ़ है। यहां पुरातत्व उत्खनन का कार्य सेवानिवृत्त पुराविशेषज्ञ करते हैं और सेवारत पुरावेत्ता साहित्य और रूपंकर कलाओं की श्रीवृद्धि में दिन-रात मनोयोग से लगे रहते हैं। इसकी नींव जोगीजी के समय में ही डाल दी गई थी। मैं यह समझने में असमर्थ हूं कि उनके जैसे कुशल प्रशासक ने इस ओर ध्यान देना ज़रूरी क्यों नहीं समझा। कहने को तो पुरातात्विक महत्व के हर स्थल को पर्यटक आकर्षण का केंद्र बनाने के लिए वहां उत्सवों के आयोजन प्रारंभ कर दिए गए लेकिन उनकी बागडोर उस जि़ले के कलेक्टर के हाथों होती है और सामान्यत: सरकारी कर्मचारी ही इन आयोजनों की शोभा बढ़ाते हैं। दूसरी ओर सिरपुर जिसे कायदे से अब तक यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में आ जाना चाहिए था, इसलिए अपनी उपेक्षा पर आंसू बहा रहा है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में पुरातत्व का अलग संचालनालय नहीं बनाया गया। जोगीजी के कार्यकाल में जितना मैं जानता हूं, श्री चक्रवर्ती की निजी रुचि से रायपुर शहर से कुछ किलोमीटर दूर ‘पुरखौती मुक्तांगनÓ का प्रकल्प हाथ में लिया गया। इसकी अवधारणा भोपाल स्थित मानव संग्रहालय से ली गई थी। यहां भी जो मुकम्मल योजना बनना चाहिए थी, नहीं बनी और कालांतर में एक सांस्कृतिक-शैक्षणिक परियोजना अदूरदर्शी नेताओं व अधिकारियों की खब्त की भेंट चढ़ गई।
मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर अप्रत्याशित रूप से जो रुख अपनाया, जिसे दमनकारी कहना ही उचित होगा, उसके सामने उपरोक्त सभी उदाहरण फीके पड़ जाते हैं। रायपुर में लीला जैन नामक एक फ्र्रीलांस पत्रकार थीं। मुझे पता नहीं, वे अब कहाँ हैं। उनके लेख यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे। एक लेख ‘सरिताÓ में छपा जिससे एक समाज विशेष को कोई आपत्ति हुई। आनन-फानन में लीला जैन को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। प्रकाशित लेख का न कोई अध्ययन किया गया, न कोई परीक्षण हुआ, न कहीं कोई राय ली गई। दूसरा उदाहरण और भी अजीबोगऱीब है। मुख्यमंत्री ने स्वयं हो भूपेश बघेल को अपने से संबद्ध मंत्री नियुक्त किया था। उनके पिता नंदकुमार बघेल किसान नेता थे। उनके लेख देशबंधु में नियमित प्रकाशित होते थे। वे खेती-किसानी के अलावा समाज सुधार के मुद्दों में भी दिलचस्पी रखते थे और हैं। उन्होंने जाति-प्रथा की कुरीति को लेकर एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक शायद था- ‘ब्राह्मणकुमार रावण को मत मारोÓ। यहां पुस्तक की गुणवत्ता या विषय विवेचन की गहराई की बात मैं नहीं करूंगा, लेकिन मुख्यमंत्री को पुस्तक के बारे में जाने कोई शिकायत मिली या नहीं, बघेलजी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी एक दीवाली जेल में ही मनी। अपने ही मंत्रीमंडल के एक साथी के पिता को बिना किसी प्रामाणिक आधार के जेल में डाल दिया गया, यह हमने एक नई बात सुनी और देखी।
एक अन्य प्रकरण ऐसा भी हुआ जिससे मैं सीधे जुड़ गया था। मेरे पत्रकारिता गुरू राजनारायण मिश्र उर्फ राजूदा उन दिनों अपना एक साप्ताहिक पत्र निकालते थे। उसमें छपी किसी खबर से जोगीजी के किसी हितैषी (?) को तकलीफ हुई तो उन्होंने पहले फोन पर दा से बदतमीज़ी की, फिर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई, और दा को कोतवाली बुलाकर बैठा लिया गया। इस पर मुझ सहित समूचे प्रेस जगत का उद्वेलित होना स्वाभाविक था। अगले ही दिन पूरे प्रदेश से आए सैकड़ों अखबारनवीसों की उपस्थिति में बड़ी सभा हुई। जुलूस निकाल कर हम राज्यपाल को ज्ञापन सौंपने राजभवन गए। सौभाग्य से मामला इसके बाद रफा-दफा कर दिया गया, लेकिन कुल मिलाकर सरकारी कार्रवाई की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं हुई।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कैबिनेट की बैठक में नारा•ा होते हुए लगभग इन शब्दों में कहा- ”यह मध्यप्रदेश सरकार का किया-धरा है, लेकिन बदनामी छत्तीसगढ़ की हो रही है। इस कांट्रेक्ट को तुरंत रद्द किया जाए।ÓÓ तारीख ठीक- ठीक याद नहीं, किंतु सन् 2002 के उस रोज मैं सेवाग्राम में एक जल सम्मेलन में भाग ले रहा था। वहीं सूचना मिली कि जोगी सरकार ने विवादास्पद ही नहीं, कुख्यात शिवनाथ नदी निजीकरण अनुबंध को निरस्त करने का फैसला कर लिया है। रायपुर लौटने के उपरांत एक वरिष्ठ मंत्री से जोगीजी के इस तरह नारा•ा होने की खबर मिली। पाठकों की याददाश्त ता•ाा करने के लिए बताना होगा कि 1996 में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने राजनांदगांव की एक कंपनी को बोरई (दुर्ग) औद्योगिक विकास केंद्र में कारखानों को जलापूर्ति के नाम पर शिवनाथ नदी की साढ़े बाईस किमी की लंबाई बीस साल की ली•ा पर सौंप दी थी। संयोगवश छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद 2001 में अंग्रे•ाी के किसी आर्थिक अखबार में इस नदी जल निजीकरण की प्रशंसा में एक समाचार छपा जो मेरी जानकारी में आया। हमने तुरंत तथ्य इकट्ठे किए व देशबन्धु में इस मामले को जोर-शोर से उठाया। सिविल सोसाइटी में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। छत्तीसगढ़ में इसके विरोध में एक मोर्चा खुल गया। जगह-जगह सभाएं होने लगीं। राज्य सरकार का विक्षुब्ध होना स्वाभाविक था, जिसकी परिणति उक्त निर्णय में हुई। यद्यपि प्रदेश की नौकरशाही ने अनुबंध की अंतिम तिथि तक तरह-तरह के हीला-हवाला कर उसे रद्द नहीं होने दिया। विधानसभा की लोकलेखा समिति के निर्देशों की भी अवहेलना लगातार होती रही।
प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण के खिलाफ़ चली सिविल सोसाइटी की इस मुहिम में यदि जोगीजी की प्रतिक्रिया सकारात्मक थी, तो वहीं एक दूसरे प्रकरण में उनका रुख विपरीत दिशा में था। सुप्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ आर एच रिछारिया ने बरसों के अनथक परिश्रम से छत्तीसगढ़ में धान की लगभग बीस ह•ाार प्रजातियों के बीजों (तकनीकी शब्दावली में जर्म प्लाज़्म) का संग्रह किया था। श्यामाचरण शुक्ल उनके इस अद्भुत कार्य से परिचित थे व रायपुर के निकट छत्तीसगढ़ धान अनुसंधान केंद्र की स्थापना कर डॉ रिछारिया को ही ससम्मान उसका निदेशक नियुक्त कर दिया था। आगे चलकर इस केंद्र का संचालन इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के पास आ गया था। नए राज्य में विश्वविद्यालय के नए कुलपति ने शोधकार्य के बहाने गुप-चुप तरीके से बहुराष्ट्रीय कृषि-उद्योग कंपनी सिंजेंटा को यह बहुमूल्य संंग्रह देने का फैसला कर लिया। यह जानकारी हमें मिली तो एक बार फिर सिविल सोसाइटी लामबंंद हुई। सरकार पर सौदे को निरस्त करने का दबाव पड़ा तो जोगीजी को यह नागवार गुजरा। मुुझे आंदोलन का कर्ता-धर्ता जान उन्होंने किसी विश्वस्त से कहा- ललितजी प्रदेश को उन्नीसवीं सदी में ले जाना चाहते हैं। बहरहाल, जनमत के दबाव में पूर्व निर्णय को निरस्त कर दिया गया। यद्यपि हमने इसमें सिविल सोसाइटी की जीत देखी, तथापि यह अनुमान भी हुआ कि आने वाले समय में सरकार का रवैया शायद इतना लचीला नहीं रहेगा। नवाचारी त्रिवर्षीय चिकित्सा पाठ्यक्रम में एनआरआई कोटा, निजी विश्वविद्यालयों की अंधाधुंध स्थापना जैसे निर्णय इन्हीं दिनों लिए गए।
एक तरफ ये घटनाएं, दूसरी ओर प्रदेश में तेजी से बदलता राजनीतिक माहौल। विधानसभा के चुनाव होने में अभी वक्त था लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तैयारियां शुरू कर दी थीं। डॉ रमनसिंह ने केंद्र में मंत्री पद का मोह त्याग भाजपा प्रदेशाध्यक्ष का चुनौती भरा दायित्व सिर पर ले लिया था। वाजपेयी सरकार ने पार्टी की राज्य इकाई की शिकायत पर अभूतपूर्व कदम उठाते हुए अपने ही द्वारा नियुक्त राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय को त्रिपुरा भेज दिया था। उनकी जगह संघ से जुड़े जनरल के एम सेठ आ गए थे। अजीत जोगी की जाति के सवाल को भी जोर-शोर से हवा दी जा रही थी। उनके विरोधियों ने इस मुद्दे पर आदिवासी समाज को दो फांक करने में किसी सीमा तक सफलता हासिल कर ली थी। रायपुर के मेडिकल कॉलेज सभागार में हुए एक आदिवासी सम्मेलन में यह टूट खुलकर सामने आई। इस बीच मुख्यमंत्री के पुत्र अमित जोगी भी राजनीति के मैदान में उतर आए थे। उनकी गतिविधियों को लेकर आम जनता के बीच चर्चाएं होने लगी थीं। लेकिन जोगीजी के आत्मविश्वास में कोई कमी देखने नहीं आई। उन्होंने अपनी कार्यशैली में बदलाव लाने पर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा। संभवत: जनवरी 2003 में एक दिन आसन्न चुनावों को लेकर उनसे बात हो रही थी। मैंने अचानक कह दिया कि चुनाव जीतना है तो आप अमित को एक साल के लिए कहीं बाहर भेज दीजिए। इस पर उन्होंने मुझसे धैर्यपूर्वक कुछ देर चर्चा भी की, किंतु उनके मन में क्या था यह वे ही जान रहे होंगे।
इधर कांग्रेस पार्टी के भीतर उनके जो विरोधी थे वे भी मुखर और सक्रिय होने लगे थे। वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल ने अधीर होकर कांग्रेस पार्टी ही छोड़ दी। शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की छत्तीसगढ़ इकाई गठित कर उन्होंने प्रदेश में तीसरा मोर्चा खोल दिया। शुुक्ल समर्थकों के साथ-साथ अनेक असंतुष्ट कांग्रेसियों ने भी बहुत उम्मीदों के साथ राकांपा का दामन थाम लिया। यह भविष्य के गर्भ में था कि ये उम्मीदें कितनी पूरी होंगी, लेकिन एक हैरतअंगेज घटनाचक्र में कुुछ माह बाद ही राकांंपा के प्रदेश कोषाध्यक्ष रामावतार जग्गी की हत्या और उसमें अमित जोगी को भी आरोपी बनाए जाने से जोगीजी की धूमिल होती छवि को कितना नुकसान पहुुंच रहा था, वे या तो इसका आकलन नहीं कर पाए या फिर जानते हुए अनजान बने रहे! उन दिनों मुुख्यमंत्री के निकटस्थ अधिकारियों व राजनीतिक सलाहकारों आदि से जितनी बात होती थी, उसमें प्रचंड बहुमत से चुुनाव जीतने के ही दावे होते थे। अधिकतर पत्रकार भी इस राय से सहमत न•ार आते थे। जब चुनाव परिणाम आए तो सारे दावे धरे रह गए। इसका जो कारण वरिष्ठतम विधायक व पूर्व मंत्री डॉ रामचंद्र सिंहदेव ने बताया वह मुझे तर्कसंगत होने के अलावा विश्वासयोग्य मालूम होता है। उनके अनुसार लगभग अड़सठ सीट जीतने का आकलन कर बैठे मुख्यमंत्री ने सिंहदेवजी सहित अपने ही कोई एक दर्जन उम्मीदवारों को हराने की दुरभिसंधि रची थी। यह एक पत्थर से दो शिकार करने की योजना थी। बहुमत तो मिल ही जाएगा, संभावित विरोधियों से भी छुटकारा मिलेगा।
जोगीजी की प्रशासनिक व्यस्तता के साथ-साथ चुनावों के मद्देन•ार बढ़ती राजनीतिक व्यस्तता के बीच मेरा उनसे मिलने-जुलने का सिलसिला वैसा ही चलता रहा, जैसा शुरू से था। उनके निवास व कार्यालय के दरवा•ो मेरे लिए पहले की ही तरह खुले थे। लेकिन जब चुनाव अभियान प्रारंभ होने का समय आया तो यह देखकर गहरा धक्का लगा कि देशबन्धु को कांग्रेस पार्टी के विज्ञापन जारी नहीं किए गए थे। एक-दो दिन इंत•ाार करने के बाद मैंने जोगीजी को फोन किया तो उन्होंने किसी कदर मुझे चौंकाते हुए सलाह दी कि मैं अमित से बात कर लूं। विज्ञापन का काम वही देख रहे हैं। मैंने इसके जवाब में यही कहा कि अमित से बात करने का सवाल ही नहीं उठता। अगर आपको विज्ञापन देना है तो दीजिए, वरना अखबार आपकी कृपा के बिना भी चल जाएगा। मेरा उत्तर सुनने के बाद उन्होंने पुनर्विचार किया होगा! भाई और मित्र की याद आई होगी! अगले दिन से विज्ञापन जारी होने लगे। जो छूटे थे उनकी भरपाई भी हो गई। खैर, चुनाव संपन्न हुए। परिणाम आ गए। भाजपा को सरकार बनाने का जनादेश मिल गया। मैंने सुबह-सुबह जोगीजी को शिष्टाचार तथा मित्रता के नाते फोन किया। हार-जीत लगी रहती है जैसी बातें कीं। लेकिन मैं नहीं जान रहा था कि जिस समय उनसे फोन पर वार्तालाप हो रहा था, लगभग उसी समय वे भाजपा में तोडफ़ोड़ कर सरकार बनाने के व्यायाम में जुटे हुए थे। उनकी गिरती साख को इससे एक चोट और लगी।
जैसा कि सर्वविदित है श्री जोगी 2004 में महासमुंद से लोकसभा के लिए विजयी हुए। चुनाव अभियान के दौरान वे अत्यंत गंभीर रूप से घायल हुए। आने वाले सोलह साल उन्होंने व्हीलचेयर पर ही बिताए। लेकिन मानना होगा कि वे उद्दाम जिजीविषा के धनी थे। अपने पर पड़ी हर मार को उन्होंने झेल लिया। मेरी उनके साथ पहले समान बातचीत अब नहीं होती थी, किंतु वे और रेणु भाभी जब कभी किसी सार्वजनिक अवसर पर मिले तो हुलस कर ही मिले। मेरी उनके साथ आखिरी भेंट शायद इसी 7 मार्च को विधानसभा अध्यक्ष भाई चरणदास महंत के निवास पर एक पारिवारिक कार्यक्रम में हुई। जब उनका निधन हुआ, मैं दिल्ली अपने उपचार के लिए आया हुआ था, सो उन्हें श्रद्धांजलि देने नहीं जा सका।
(अगले सप्ताह जारी)
ललित सुरजन
देश के सभी प्रांतों व केंद्र प्रशासित क्षेत्रों ने सब मिलाकर 1947 से लेकर अब तक कोई पांच सौ मुख्यमंत्री अवश्य देखे होंगे। इनमें एक दिन, एक हफ्ता, एक माह या कुछ माह सत्तासुख भोगने वालों की संख्या भी कम नहीं होगी! वैसे अधिकतर का औसतन कार्यकाल पांच साल याने दो विधानसभा चुनावों के बीच रहा है। इनको अपवाद सिद्ध कर लगातार बीस साल या अधिक समय तक सत्तासीन रहे कुल चार मुख्यमंत्री हुए हैं और पांच ऐसे जिनको लगातार पंद्रह साल से अधिक का जनादेश मिला। इस रिकॉर्ड में देश के छब्बीसवें राज्य छत्तीसगढ़ का नाम भी आता है। राजस्थान के मोहनलाल सुखाडिय़ा का नाम इस सूची में सर्वप्रथम है, जो सन् 1954 से लेकर 1971 तक 17 साल 175 दिन मुख्यमंत्री रहे, जबकि अंतिम नाम छत्तीसगढ़ के डॉ रमनसिंह का है जिनके हाथ 2003 से लेकर 2018 तक 15 साल 4 दिन तक प्रदेश की बागडोर रही। ये सारे विवरण विकिपीडिया पर ‘लिस्ट ऑफ लांगेस्ट सर्विंग चीफ मिनिस्टर्स ऑफ इंडियाÓ में मिल जाएंगे। आपकी सुविधा के लिए नोट करना उचित होगा कि पवन कुमार चामलिंग का नाम सबसे ऊपर है जो 24 साल 165 दिन पद पर रहे, दूसरे नंबर पर 23 साल 137 दिन के साथ ज्योति बसु, तीसरे क्रम पर नवीन पटनायक 20 साल 222 दिन के साथ (अभी सत्तारूढ़ हैं और शायद नया रिकॉर्ड कायम करेंगे!) और चौथे स्थान पर माणिक सरकार 19 साल 363 दिन अर्थात ग्रेस माक्र्स के साथ बीस साल। लगातार विशेषण को ध्यान में रखिए। मैंने उनको छोड़ दिया है जो बीच-बीच में आते-जाते रहे हैं। प्रसंगवश आए इस विवरण को पाठक शायद रुचिकर पाएंगे! अब आगे बढ़ते हैं।
डॉ रमनसिंह से मेरी पहली ठीक-ठीक मुलाकात, जहां तक मुझे याद पड़ता है, 1991 में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की नवगठित कुलपरिषद की पहली बैठक में हुई थी। वे बतौर विधायक प्रतिनिधि शामिल थे और मैं राज्यपाल के द्वारा मनोनीत सदस्य था। मुझे इस बैठक का ध्यान इसलिए है कि तमाम सदस्यों के बीच हम दो ही थे जो पूरी तैयारी के साथ आए थे तथा विश्वविद्यालय का बजट पेश होने पर हमने बाकायदा सवाल उठाए थे। मैं विषय के प्रति उनकी गंभीरता से प्रभावित हुआ था। यूं हमारा परिचय और भी पुराना था जब वे शासकीय आयुर्वेदिक महाविद्यालय में पढ़ रहे थे। उनके कुछ वरिष्ठ सहपाठी छात्र राजनीति में दखल रखते थे। उनका रुझान समाजवादी राजनीति में था लेकिन वे सब वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता सुधीर मुखर्जी से बेहद प्रभावित थे तथा अक्सर उनका मार्गदर्शन लिया करते थे। ये सीनियर देशबन्धु दफ्तर में मुझसे मिलने भी आते थे। यह पढऩे-लिखने व सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने वाले युवाओं का एक अच्छा समूह था। (दो-एक ने डॉक्टर बन जाने व मनोनुकूल नौकरी मिल जाने के अंतराल में हमारे संपादकीय विभाग में अंशकालिक काम भी किया)। विद्यार्थी रमन इस समूह के सदस्य थे। अच्छी पुस्तकें पढऩे की जो आदत उन्हें उस समय लगी होगी, वह लंबे समय तक कायम रही जिसका मैं गवाह हूं।
खैरागढ़ की मीटिंग के बाद कवर्धा या भोपाल में हम संभव है कि कभी मिले हों किंतु जिस अगली मुलाकात का मुझे स्मरण है वह 1999 की बात है। वे हाल ही में राजनांदगांव से लोकसभा चुनाव जीते थे और संभवत: दिल्ली जाने के पूर्व रायपुर के संपादकों और पत्रकारों से सौजन्य भेंट के लिए निकले थे। वे मुझसे मिलने प्रेस आए तो उनकी ही तरह 1990 में पहला विधानसभा चुनाव जीते रायपुर के शहर विधायक बृजमोहन अग्रवाल भी साथ थे, जिन्होंने हमारा परस्पर परिचय देने का उपक्रम किया गो कि उसकी आवश्यकता नहीं थी। डॉ. रमन का यह लोकसभा चुनाव जीतना अनेक दृष्टियों से स्मरणीय है। एक तो वे 1998 का विधानसभा चुनाव हार गए थे लेकिन लगभग चार माह बाद ही उन्होंने मोतीलाल वोरा सरीखे वरिष्ठ नेता को मात देकर लोकसभा चुनाव में जीत का परचम लहराया। दूसरे, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस पहली बार के सांसद को तुरंत ही अपने मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री के रूप में जगह दी। तीसरे, मंत्री रहते हुए ही लालकृष्ण आडवानी की इच्छानुसार वे भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत किए गए और चौथे, उस हैसियत से उन्होंने जो सफलता हासिल की वह ऐतिहासिक ही कही जाएगी।
वाजपेयी सरकार में द्रमुक के मुरासोली मारन वाणिज्य मंत्री थे और रमनसिंह को उनके साथ राज्यमंत्री संबद्ध किया गया था। वे दो साल से कुछ दिन अधिक इस पद पर रहे। इस बीच मेरी उनके साथ अनौपचारिक मुलाकातें होती रहीं। एक बार एक मनोरंजक प्रसंग घटित हुआ। मैं उद्योग भवन स्थित उनके कार्यालय में शाम की चाय पर साथ था। इस बीच उनके ओएसडी विक्रम सिसोदिया खबर लेकर आए कि केंद्रीय नमक आयुक्त कुछ आवश्यक चर्चा के लिए आए हैं। मंत्रीजी ने मुझसे पूछा- उन्हें बुला लें? मैं गपशप के लिए गया था, कोई सरकारी काम तो था नहीं, सो मेरा जवाब हां में ही होना था। आयुक्त महोदय आए तो मेरा परिचय देते हुए डॉक्टर साहब ने कहा- आप वैसे तो कम्युनिस्ट हैं लेकिन हमारे मित्र हैं। मैंने हंसते हुए उत्तर दिया- अगर आप जैसे सब संघी और मुझ जैसे सब कम्युनिस्ट आपस में मित्र हों तो देश में कोई समस्या ही न रहे। इस वार्ता से एक ओर किसी कदर रमनसिंह की स्वभावगत सहजता प्रकट होती है, जिसका अनुभव मैंने आगे भी किया; तो दूसरी तरफ यह भी पता चलता है कि भारतीय राजनीति में अपने से विपरीत विचार वालों पर किस तरह ठप्पा लगा दिया जाता है। हमें अनेक कांग्रेसी कम्युनिस्ट मानते रहे तो कम्युनिस्टों ने हमें अक्सर कांग्रेसी ही करार दिया। जनसंघी या भाजपाईयों की निगाह में हम कभी कांग्रेसी तो कभी कम्युनिस्ट माने गए। बहरहाल, अधिकारी कुछ देर बाद चले गए और चाय पीकर मैंने भी उनसे विदा ली।
वाणिज्य मंत्री श्री मारन उन दिनों बीमार चल रहे थे तथा संसद में प्रश्नकाल में रमनसिंह को ही उत्तर देने के लिए खड़ा होना पड़ता था। संयोगवश एक दिन मैं उनके साथ बैठा था और वे अगले दिन लोकसभा में किसी प्रश्न पर उत्तर देने की तैयारी कर रहे थे। मैंने उन्हें खैरागढ़ विश्वविद्यालय की बैठक में जिस गंभीरता के साथ भाग लेते देखा था, वही दुबारा देखने मिली। उस समय मेरी यह धारणा भी बनी कि रमनसिंह किसी विषय को समझने में कुछ वक्त भले ही लगाते हों लेकिन उसकी गहराई में जाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते। अगले दिन मैंने लोकसभा की पत्रकार दीर्घा में बैठ उन्हें पूरे आत्मविश्वास के साथ उत्तर देते सुना जिससे सदन भी संतुष्ट न•ार आया। ऐसी ही किसी मुलाकात के दौरान मेरे निमंत्रण पर वे जुलाई 2000 में रोटरी क्लब ऑफ रायपुर के वार्षिक पदग्रहण समारोह में बतौर मुख्य अतिथि शरीक हुए। दिल्ली में रहते हुए ही उन्होंने एक बार मुझे निजी •ारूरत पडऩे पर भी सहायता की। मेरी दो बेटियां व दोनों दामाद रूस में कई साल बिताने के बाद गृहस्थी समेट कर भारत लौट रहे थे। उनके पास घरेलू सामान ही था लेकिन मैं चाहता था कि दिल्ली विमानतल पर कस्टम आदि में उन्हें किसी अनावश्यक परेशानी का सामना न करना पड़े। इस मौके पर डॉ. रमन ने उपयुक्त व्यवस्था कर मुझे चिंतामुक्त कर दिया।
समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था। देखते ही देखते 2003 का साल आ गया। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद दिसंबर में पहली बार विधानसभा चुनाव होने थे। इस मौके पर, जबकि चुनावों में एक साल से भी कम समय था, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने रमनसिंह को मंत्री पद से मुक्त कर पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। यह एक चौंकाने वाला कदम था जिसे लेकर तरह-तरह की चर्चाएं हुईं। एक अपुष्ट खबर यह भी सुनी कि पहले तो पार्टी के वरिष्ठ सांसद रमेश बैस को यह जिम्मेदारी सौंपना तय हुआ था किंतु वे मंत्री पद छोडऩे राजी नहीं थे! तब आडवानीजी के कहने पर रमनसिंह ने यह चुनौती भरा दायित्व स्वीकार किया। एक बातचीत के दौरान उन्होंने मुझसे कहा कि ऊपर से जो आदेश मिला उसका पालन करना ही था। रमनसिंह ने इस चुनौती का सामना करने में कोई कोताही नहीं की। फरवरी से नवंबर 2003 के बीच उन्होंने सुख-सुविधा की परवाह न करते हुए धुआंधार दौरे किए। उनकी इस सक्रियता को देख कार्यकर्ता भी उत्साहित हुए और पार्टी में नए सिरे से जान आई। अनेकानेक कारणों से प्रदेश में कांग्रेस का ग्राफ जिस तेजी के साथ नीचे जा रहा था, उन्होंने उसका सही आकलन किया, जबकि कांग्रेस मुगालते में रही आई। जनसंघ के दिनों से ही भाजपा भावनात्मक राजनीति करते आई है, इस मूल तत्व को भी रमनसिंह भूले नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति में उसका भरपूर उपयोग किया। इस तमाम मेहनत, लगन और सूझबूझ का इस्तेमाल कारगर साबित हुआ जिसका पुरस्कार डॉ. रमनसिंह को मिलना ही था।
(अगले सप्ताह जारी)
अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ ने प्रदेश को चार मुख्यमंत्री दिए- प्रथम मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल, राजा नरेशचंद्र सिंह, श्यामाचरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा। इस लिस्ट में रिकॉर्ड के लिए चाहें तो क्रमश: कसडोल व खरसिया से पद ग्रहण के बाद उपचुनाव जीते द्वारकाप्रसाद मिश्र तथा अर्जुन सिंह के नाम भी जोड़ लें। मुद्दे की बात यह है कि ये सभी कांग्रेसी थे। राजा नरेशचंद्र सिंह एक क्षणिक अपवाद हैं जो संविद से मुख्यमंत्री बने, फिर अपने मातृसंगठन में वापस आ गए। दूसरे ध्रुव पर, जैसा कि मैं पहले भी जिक्र कर आया हूं, मालवा ने तीन मुख्यमंत्री दिए- कैलाश जोशी, वीरेंद्र कुमार सकलेचा व सुंदरलाल पटवा। ये सभी जनसंघी अर्थात वर्तमान के भाजपाई थे। इसके अलावा एक और तथ्य गौरतलब है। कांग्रेस ने 1993 में ही अगली पीढ़ी को कमान सौंप दी थी, जबकि भाजपा के युवा नेता मंच पर अपने जौहर दिखला पाने की प्रतीक्षा में नेपथ्य में ही रुके हुए थे। सन् 2003 के विधानसभा चुनावों ने यह दृश्य पूरी तरह बदल दिया। मध्यप्रदेश में सुश्री उमा भारती के रूप में बुंदेलखंड को पहली बार प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व करने का मौका मिला, तो वहीं छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को यह अवसर प्राप्त हुआ। भारतीय जनता पार्टी के लिए देश के मध्यांचल में यह पार्टी की बढ़़ती स्वीकार्यता सिद्ध करने के साथ-साथ अगली पीढ़ी को आगे लाने का भी समय था।
मेरा यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि रमन सरकार बनने के तुरंत बाद प्रदेश में, खासकर शहरी क्षेत्रों में, सामान्य तौर पर खुशी और किसी हद तक राहत का माहौल देखने में आया था। इसका बड़ा कारण तो यही था कि मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी रमन सिंह हर वर्ग के लोगों से सहज भाव से मिलजुल रहे थे और उसमें किसी प्रकार बनावट न•ार नहीं आती थी। इसके अलावा मुख्यमंत्री निवास हो या मंत्रालय, खुलापन अभी कायम था। विधानसभा में भी कोई खास चौकसी नहीं थी। यह स्थिति कब बदली उसकी चर्चा हम यथासमय करेंगे। फिर चूंकि भाजपा समर्थकों का मुखर तबका शहरों में ही था तो उसने भी अपनी सरकार के पक्ष में वातावरण बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। यहां नोट करना आवश्यक होगा कि छत्तीसगढ़ भाजपा में आपसी मतभेदों की कमी नहीं थी तथा मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार भीतर ही भीतर कसमसा रहे थे लेकिन कैडर आधारित पार्टी होने के कारण असंतोष ऊपर नहीं आ सका। तीन साल पहले विपक्ष का नेतापद न मिलने से गुस्साए तीसरी बार के विधायक बृजमोहन अग्रवाल ने जो खुला विरोध किया था उसका हश्र सबको पता था। इसी कड़ी में भाजपा सरकार के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने में कांग्रेसजनों ने जो भूमिका निभाई उसका भी उल्लेख होना चाहिए। राज्य में नई सरकार ने काम सम्भाला ही था कि लोकसभा चुनाव सिर पर आ गए। ऐसे ना•ाुक समय में वी सी शुक्ल ने अप्रत्याशित रूप से भाजपा का दामन थाम लिया। इस बीच और भी बहुत से कांग्रेसी खुलकर या दबे-छिपे भाजपा के मददगार बन गए।
मुख्यमंत्री रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा को जल्दी ही एक और बड़ी कामयाबी मिली जब लोकसभा की ग्यारह सीटों में से दस पर उसके उम्मीदवार जीते और कांग्रेस को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा। इसके बावजूद भीतर और बाहर चुनौतियां कम नहीं थीं। इनका सामना करने के लिए उन्होंने धीरे-धीरे खुद को इस नए रोल के अनुरूप ढालना प्रारंभ किया। इस सिलसिले में एक उल्लेख शायद उचित होगा। मैंने रमन सिंह को उनकी पूर्व भूमिकाओं- विधायक, सांसद, केंद्रीय मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष- में सदा ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा था जिसे बतरस में आनंद आता था। मुख्यमंत्री बन जाने के बाद उन्होंने जैसे सायास ही अपनी इस आदत को सुधारने की कोशिश की! इसमें सार्वजनिक अवसरों पर तो कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दिया, लेकिन उनसे मिलने वालों से अलक्षित नहीं रहा कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते साथ ही गोया वे बदल जाते थे। वे मुलाकातियों की बात सुनते अवश्य थे लेकिन हाव-भाव में प्रगट अधीरता और जवाब सकारात्मक होने पर भी शब्दों की मितव्ययिता उनकी नई शैली बन गई थी। कहा जा सकता है कि उनकी जिम्मेवारियां कई गुना बढ़ गईं थीं जिसमें पहले की तरह इत्मीनान से मिलना-जुलना, बातचीत करना संभव नहीं रह गया था! इस एक बदलाव के बावजूद मुख्यमंत्री तक पहुंचना दुष्कर नहीं था। अगले साल-डेढ़ साल तक वे आम जनता के लिए लगभग बेरोकटोक उपलब्ध थे।
इन प्रारंभिक दिनों की ही बात है जब मुख्यमंत्री मायाराम सुरजन फाउंडेशन की वार्षिक गृह पत्रिका स्पद्र्धा के पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्य अतिथि बनकर आए। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के विकास पर उनका व्याख्यान तथा जैसी कि परिपाटी थी, श्रोताओं के साथ प्रश्नोत्तर का सत्र भी हुआ। यह एक यादगार कार्यक्रम सिद्ध हुआ क्योंकि उपस्थित प्रबुद्धजनों ने डॉ रमन सिंह को एक बिल्कुल नए रूप में देखा। अपने लगभग चालीस मिनट के वक्तव्य और उसके पश्चात लगभग उतनी ही देर के प्रश्नोत्तर में उन्होंने पूर्ववर्ती सरकार और उसके मुखिया पर जम कर कटाक्ष किए लेकिन एक बार भी न तो कांग्रेस पार्टी का और न ही अजीत जोगी का नाम लिया। उनसे ऐसी वाकपटुता, प्रत्युत्पन्नमति और संयमित भाषा प्रयोग की अपेक्षा किसी ने भी नहीं की थी। एक और प्रसंग का •िाक्र मैं करना चाहूंगा। रायपुर से कोई चालीस किमी दूर सोमनाथ नामक स्थान पर शिवनाथ और खारून नदी का संगम है। यह एक सुरम्य स्थल है जहां पिकनिक मनाने वालों के कारण गंदगी फैली रहती है। भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) में हमने बुद्धिजीवी नागरिकों, छात्रों व एनसीसी के सहयोग से यहां सफाई का बीड़ा उठाया व अभियान प्रारंभ करने के लिए मुख्यमंत्री को आमंत्रित किया। वे निर्धारित समय पर कुछेक मंत्रियों व सांसदों को साथ लेकर आए और फोटो खिंचवाने की औपचारिकता के बाद भी हाथ में झाड़ू लेकर सफाई करने में जुटे रहे। इस अभियान को वांछित सफलता नहीं मिल सकी तो उसकी वजह कुछ और ही थी जिसकी चर्चा का यह स्थान नहीं है।
मायाराम सुरजन फाउंडेशन के उपरोक्त आयोजन के अलावा एक और प्रसंग स्मरण हो आता है जब मैं डॉ. रमन की वक्तृत्व कला से प्रभावित हुए बिना न रह सका। साल तो याद नहीं लेकिन तारीख थी 8 सितंबर अर्थात विश्व साक्षरता दिवस। इस कार्यक्रम में वे मुख्य अतिथि थे और मैं अध्यक्षता कर रहा था। प्रदेश के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी राजकमल नायक ने साक्षरता पर एक बेहद सुंदर कविता पोस्टर बनाया था जिसका लोकार्पण होना था। रमन सिंह ने मंच पर धीरे से मुझसे पूछा कि उन्हें क्या बोलना है। यह जानकर भी कि वे शिष्टतावश ऐसा पूछ रहे हैं, मैंने उत्तर दिया कि इसी पोस्टर में लिखी कविता का पाठ कर दीजिए। लोकार्पण व भाषण दोनों काम सध जाएंगे। उनकी बारी आई तो पहले उन्होंने पोस्टर से तीन-चार लाइनें पढ़ीं और फिर अगले पंद्रह मिनट में उसी कविता को आधार बना प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन आदि को उद्धृत करते हुए अवसर के अनुकूल ऐसा भाषण दिया जिसमें कोई झोल नहीं था। इन्हीं दिनों एक ऐसा मौका आया जब मुख्यमंत्री ने पुरातत्व के किसी पहलू पर आयोजित एक अखिल भारतीय संगोष्ठी का उद्घाटन करने हेतु सहमति दे दी, लेकिन ऐन वक्त पर उनके बस्तर जाने का प्रोग्राम बन गया। उद्घाटन समय सुबह का था। मुख्यमंत्री के न आने की सूचना पाकर आयोजकगण हताश हो गए थे। उन्होंने मुझसे सहायता चाही। मैंने भी आव देखा न ताव, मुख्यमंत्री निवास जा धमका। सी एम से कहा- अखिल भारतीय स्तर का कार्यक्रम है। आप चलिए, दो शब्द बोल कर दौरे पर निकल जाइए। उन्होंने मेरी बात मान ली। सभा में आए। दूर-दूर से आए प्रतिभागियों से भेंट की, आराम से उद्घाटन भाषण दिया, फिर अगले गंतव्य के लिए विदा ली।
भारतीय जनता पार्टी की कार्यशैली को लेकर कुछ सामान्य धारणाएं बनी हुई हैं। उनमें बड़ी हद तक सच्चाई है, किंतु मेरे अपने अनुभवों पर आधारित उपरोक्त दृष्टांत इस ओर इंगित करते हैं कि डॉ. रमन सिंह लीक से हटकर अपनी छवि गढऩे की इच्छा रखते थे। पिछले तीन बरसों के दौरान प्रदेश की जनता ने, सही या गलत, जो देखा-समझा उससे अनायास तुलना करने से भी यदि इस छवि निर्माण में सहायता मिली हो तो अचरज की बात नहीं होगी। कुल मिलाकर प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री ने अपनी पहली पारी का प्रारंभ प्रकट रूप से सद्भावना तथा सकारात्मकता के साथ किया। इसे वे कितना निभा सके यह आगे अध्ययन का विषय है।
(अगले सप्ताह जारी)
यह आलेख पूर्व लिखित है। अभी कुछ सप्ताह पूर्ववत इस लेखमाला की कडिय़ां प्रकाशित होगी।
यह बात शायद बहुत लोगों को पता न हो और पता लगने पर आश्चर्य हो कि रमन सिंह भारत के उन बिरले नेताओं में हैं जो दिवंगत फिलिस्तीनी नायक यासर अराफात से मिल चुके हैं। आश्चर्य की बात इसलिए कि भारतीय जनता पार्टी को जिस देश की नीतियां और कार्यप्रणाली सबसे अधिक लुभाती हैं वह इजरायल है। इसके विस्तार में जाना अभी आवश्यक नहीं है। इतना कहना काफी है कि कट्टरपंथी यहूदीवादी लॉबी जिस तरह हिब्रू, यहूदी, इजरायल की अवधारणा पर चलती है, उसी का प्रतिबिंब संघ व भाजपा के हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान में झलकता है। भाजपा के जिन नेताओं ने अपनी पार्टी के इस आदर्श देश की यात्राएं की हैं उनमें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री डॉ. रमन सिंह का नाम भी है। चूंकि वे यासर अराफात से मिलने को उत्सुक थे इसलिए इजरायल प्रवास में उपलब्ध मौके का लाभ उठाते हुए सीमा पार फिलिस्तीन की यात्रा भी कर आए। यह भले ही उनकी निजी यात्रा थी किंतु अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके लिए उन्होंने सरकार और पार्टी से अनुमति ले ली होगी! लाहौर की बस यात्रा करने और पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाले प्रधानमंत्री वाजपेयीजी के समय यह हरी झंडी मिलना बहुत मुश्किल नहीं रहा होगा! मुझे जहां तक याद आता है सन् 2003 के विधानसभा चुनावों के दौरान उन्होंने जो प्रचार सामग्री प्रकाशित की थी उसमें कहीं अराफात के साथ उनकी तस्वीर भी थी। एक मुलाकात में मैंने उनसे इस बारे में जानना चाहा था तो यह उत्तर मिला कि विश्व की इतनी चर्चित शख्सियत से मिलने की उनकी स्वाभाविक इच्छा थी।
प्रदेश के सर्वमान्य नेता बनने की चाहत लिए डॉ. रमन ने अपने कार्यकाल की शुरुआत अच्छी की थी। उनकी छवि को पहला धक्का सत्ता सम्हालने के तकरीबन डेढ़ साल बाद ऐसे विवादास्पद निर्णय से लगा जिसकी अनुगूंज देश-विदेश में आज भी सुनाई देती है। 5 जून 2005 को उन्होंने नक्सल समस्या के कथित निवारण हेतु सलवा जुड़ूम अभियान प्रारंभ किया जिसमें पूरा जोर भाजपा की पारंपरिक सोच के अनुरूप बलप्रयोग पर था। कहने को यह कांग्रेस नेता (स्व) महेंद्र कर्मा के द्वारा शुरू किया गया अभियान था, लेकिन परदे के पीछे राज्य सरकार का पूरा समर्थन था। यह सच अधिक दिनों तक छुपा नहीं रह सका। सरकार ने अपने अभियान को सफल करने के लिए प्रशासन व पुलिस को निरंकुश छोड़ दिया जिसके भयावह नती•ो सामने आए। एक तरफ सशस्त्र बल, दूसरी ओर नक्सली- दोनों ने अगले चौदह साल जो खूनी खेल खेला, छत्तीसगढ़ ने कभी उसकी कल्पना नहीं की थी। बस्तर में लगभग छह सौ गांव उजड़ गए। उनके निवासी सलवा जुड़ूम शिविरों में शरण लेने बाध्य किए गए। कोई तीन लाख आदिवासी सीमावर्ती प्रदेशों की ओर पलायन करने मजबूर हो गए। ताड़मेटला और झीरम घाटी सहित कितनी ही हिंसक वारदातें हुईं। वीसी शुक्ल, नंदकुमार पटेल, कांग्रेस के अनेक नेता, अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता, सैकड़ों सामान्य नागरिक मार डाले गए। हजारों निर्दोष जन जेल में ठूंस दिए गए। नतीजा यह हुआ कि चारों ओर छत्तीसगढ़ के बारे में एक नकारात्मक धारणा बनती चली गई। करेले पर नीम चढऩे की कहावत इस तरह चरितार्थ हुई कि केंद्र की कांग्रेस सरकार इस कदम का अनुमोदन करती दिखी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने तो नक्सल समस्या को देश के सामने बड़ी चुनौती निरूपित किया था।
इस दौरान जिन लोगों व संस्थाओं ने बातचीत के जरिए संघर्ष खत्म करने के सुझाव दिए उनका या तो उपहास किया गया या उपेक्षा की गई या वे भी दमन का शिकार हुए। जिन डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने नक्सली चंगुल से कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन की रिहाई में मुख्य भूमिका निभाई, संघर्ष समाधान के लिए उनसे किए गए वायदे देखते ही देखते भुला दिए गए। शांति मिशन पर बस्तर जा रहे स्वामी अग्निवेश के खिला$फ रायपुर में प्रदर्शन और बस्तर में उन पर शारीरिक आक्रमण किया गया। रायपुर की सभा की अध्यक्षता कांग्रेस नेता केयूर भूषण कर रहे थे, उन पर भी हमला करने की कोशिश हुई जिसमें कुछ उद्दंड कांग्रेसी भी शामिल थे। सम्मानित पत्रकार अजीत भट्टाचार्य एक जांच समिति के सदस्य बनकर आए। मैंने मुख्यमंत्री से व्यक्तिगत रूप से आग्रह किया कि अजीत बाबू को मिलने का समय दे दीजिए ताकि आपका पक्ष भी स्पष्ट हो सके लेकिन उन्होंने मेरी सलाह को न मानना बेहतर समझा। इस बीच पीयूसीएल के प्रभावशाली नेता राजेंद्र सायल को जबलपुर हाईकोर्ट में चल रहे किसी पुराने मामले में रायपुर में बीच सड़क पर इस अंदा•ा में गिरफ्तार किया गया मानों वे जेब काटकर भाग रहे हों। डॉ. विनायक सेन और अजय टीजी को न सिर्फ गिरफ्तार किया गया बल्कि उन्हें जमानत न मिल पाए इसकी हर संभव कोशिश की गई। दूसरी ओर सत्ता पक्ष का प्रहसन भी देखने में आया जब रायपुर की सड़कों पर भाजपा की ओर से सलवा जुड़ूम के समर्थन में एक मोटर साइकिल रैली निकाली गई, गोया इस नौटंकी से मामला सुलझ जाएगा।
भाजपा की पारंपरिक सोच का •िाक्र ऊपर आया है। उसका एक उदाहरण हमने रमन सिंह के भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहते हुए भी देखा। केंद्र की वाजपेयी सरकार ने दिनेश नंदन सहाय को छत्तीसगढ़ का पहला राज्यपाल नियुक्त किया था। वे बिहार कैडर के आला पुलिस अफसर थे। सेवानिवृत्ति के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें जदयू का प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया था। जॉर्ज फर्नांडीज भी बिहार से लोकसभा सदस्य थे तथा श्री सहाय से उनके निकट संबंध थे। संभवत: उनकी सिफारिश पर ही यह नियुक्ति हुई थी। नए राज्यपाल ने प्रदेश के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होने की हैसियत से एक दीक्षांत समारोह में नीतीश कुमार को, तो एक में अरुण जेटली को दीक्षांत भाषण देने के लिए निमंत्रित किया था व उन्हें डी लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित भी किया था। दूसरी ओर उन्हें राज्य की कांग्रेस सरकार के साथ भी संवैधानिक दायित्व के अनुरूप संबंध निभाना था। कुल मिलाकर वे अपने पद, आयु, अनुभव का ध्यान रख सभी पक्षों के बीच संतुलन साध रहे थे। लेकिन यही बात भाजपा को नागवार गुजर रही थी। वह दिन-प्रतिदिन अपने ही राज्यपाल पर आक्रमण करने लगी व उनका तबादला त्रिपुरा करवा कर ही दम लिया। मुझे इस प्रकरण में यह बात दुखद व गरिमा के विपरीत प्रतीत हुई कि विपक्ष ने राज्यपाल की विदाई की वेला में संसदीय परंपरा के अनुसार जो प्रोटोकॉल निभाना था, उसकी अवहेलना की।
मेरे मन में प्रश्न उठता है कि ये निर्णय रमन सिंह की निजी पहल पर लिए गए या उन्हें पार्टी नेतृत्व से ऐसा ही करने के निर्देश थे! मैंने उन्हें जितना समझा है उस आधार पर दूसरी संभावना ही प्रबल लगती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने घोषित किया था कि जो हमारे साथ नहीं है वह हमारा दुश्मन है। अमेरिकी व्यवस्था में यह धारणा नई नहीं है। उनके शब्दकोश से ‘तटस्थताÓ शब्द काफी पहले विलोपित हो चुका है। इस दर्शन को कैडर आधारित दल भाजपा ने भी काफी हद तक अंगीकार किया है। इसका संज्ञान लेते हुए तर्क दिया जा सकता है कि डॉ. रमन सिंह ने पार्टी के आदेशों का पालन करते हुए भी जहां मौका मिला अपनी स्वतंत्र पहचान कायम करने का उपक्रम किया। गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को मात्र एक रुपया किलो की दर पर प्रतिमाह पैंतीस किलो चावल देने का फैसला यहां ध्यान आता है। यह कदम उनकी जनहितैषी पहचान गढऩे के खूब काम आया। ‘चांउर वाले बबाÓ के रूप में उनका नया नाम प्रचारित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई। इस योजना की घोषणा करने के दिन किसी पत्रकार द्वारा सवाल पूछने पर मुख्यमंत्री ने सधा हुआ उत्तर दिया- गरीब परिवार को सस्ता राशन मिलेगा तो उससे जो रकम बचेगी वह बच्चों की फीस, बीमारी में दवाई जैसे आवश्यक कार्यों में काम आएगी। कुछ समय बाद योजना की व्यवहारिकता, सामाजिक ताने-बाने पर असर, क्रियान्वयन में गड़बड़ी जैसे बिंदुओं को लेकर आलोचना भी हुई लेकिन प्रथम दृष्टि में निर्णय उचित ही प्रतीत हुआ।
श्री जोगी ने मुझे राज्य वन्य जीवन संरक्षण मंडल का सदस्य मनोनीत किया था। डॉ. रमन सिंह ने पुनर्गठन किया तो मेरी सदस्यता कायम रखी। वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम भी एक सदस्य थे। वे तब भाजपा में आ गए थे। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में जो पहली बैठक हुई उसमें संरक्षित वनों के निवासियों के पुनर्वास व राहत पर चर्चा हुई। मैंने अधिकारियों द्वारा दाखिल प्रतिवेदनों को अपर्याप्त मानते हुए सुझाव दिया कि मंडल के सदस्यों को स्वयं जाकर स्थल निरीक्षण करना चाहिए। इस पर म•ो लेते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि आपके और नेताम जी के विचार तो एक समान हैं सो इस काम के लिए आप दोनों की दो सदस्यीय कमेटी बना देते हैं। कमेटी बन गई। हमने बारनवापारा के छह तथा अचानकमार के नौ वनग्रामों का दौरा किया। ग्रामीण जनों के बीच खुली जन सुनवाईयां की। लौटकर मुख्यमंत्री को रिपोर्ट प्रस्तुत की। मेरा मानना है कि उस रिपोर्ट पर अमल किया जाता तो वह पुनर्वास के लिए एक दृष्टांत बन जाती। खैर, हमने समय व परिश्रम का निवेश किया उसके पुरस्कार स्वरूप वन विभाग ने चतुराई दिखाते हुए मुझे मंडल की भावी बैठकों में बुलाना बंद कर दिया। मीटिंग अपराह्न तीन बजे है तो मुझे दो बजे खबर दी जा रही है। मैंने इसकी शिकायत करना उचित नहीं समझा। इतना अंदा•ा अवश्य हो गया कि नौकरशाही मुख्यमंत्री की भी परवाह न करने में समर्थ है।
(अगले सप्ताह जारी)
यह आलेख पूर्व लिखित है। अभी कुछ सप्ताह पूर्ववत इस लेखमाला की कडिय़ां प्रकाशित होगी।
रमन सिंह के पंद्रहसाला कार्यकाल के बहुत सारे प्रसंग स्मृति पटल पर उभरते हैं। हमें इस बात का हमेशा फख्र रहा कि देशबन्धु की जड़ें छत्तीसगढ़ की धरती में हैं। ‘पत्र नहीं मित्र’ के मुख्य ध्येय वाक्य के साथ हमने एक वाक्य और जोड़ा-‘छत्तीसगढ़ की धरती का अपना अखबार’। बदलते दौर में अपने वजूद को कायम रखने तथा भविष्य की व्यावसायिक संभावनाओं की दृष्टि से यह विचार उठा कि दिल्ली से भी एक संस्करण होना चाहिए। हमारे ‘मिशन स्टेटमेंटÓ में एक और पंक्ति बढ़ गई- ‘छत्तीसगढ़ का पहला राष्ट्रीय दैनिकÓ। यह 2007 मध्य की घटना है। मुख्यमंत्री को शिष्टाचार के नाते सूचना देने व राज्य सरकार से विज्ञापन मिलने की अपेक्षा के साथ मैंने डॉ. रमन से भेंट की। उन्होंने 7 अप्रैल, 2008 को उद्घाटन अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में आने की सहमति दी और सरकार से सहयोग का आश्वासन भी दिया। उन्होंने जितना सहयोग दिया, मैं समझता हूं कि उस समय और आगे भी राजनीतिक विचारों में भिन्नता को देखते हुए उतना पर्याप्त व सदाशय का प्रतीक था। दिल्ली संस्करण के बारे में आगे कभी अलग से विस्तारपूर्वक लिखना होगा।
राजनीति की डगर कितनी कठिन होती है तथा किस तरह विरोधाभासों के बीच तालमेल बैठाना होता है, यह रमन सरकार की तीन पारियों के अध्ययन से काफी-कुछ समझा जा सकता है। जून 2005 के पहले प्रदेश में आम तौर पर शांतिपूर्ण माहौल था। मुख्यमंत्री निवास सहित प्रमुख शासकीय भवनों में प्रवेश करना अपेक्षाकृत सरल था। किंतु सलवा जुड़ूम का ऐलान होते साथ दीवारें उठने लगीं, सुरक्षा के घेरे बढ़ते चले गए, सड़कों पर दूर-दूर तक बैरियर लगने लगे, सीएम के मोटरकेड में वाहनों की संख्या में इजाफा होने लगा, और आम जनता के दिल-दिमाग पर असुरक्षा का भय हावी होने लगा। इस वातावरण में मुख्यमंत्री ने जनसामान्य के साथ संवाद जारी रखने के लिए दो काम किए। एक तो मुख्यमंत्री निवास पर जनदर्शन का आयोजन प्रारंभ किया गया। अगर सरकारी विज्ञप्तियों पर भरोसा किया जाए तो एक-डेढ़ घंटे के सीमित समय में मुख्यमंत्री ने किसी-किसी दिन एक ह•ाार से भी अधिक लोगों से भेंट की व उनकी समस्याओं का समाधान किया। दूसरे, वे हर साल मई की झुलसा देने वाली गर्मी में लगातार एक माह तक हैलीकॉप्टर से यात्रा कर प्रदेश के दूर-पास के सैकड़ों गांवों तक पहुंचे और कहीं बरगद की छाया तो कहीं पंडाल में बैठकर जनता का दुख-दर्द जाना व उन्हें राहत पहुंचाई। इन हवाई दौरों में वे कई जगह बिना पूर्व सूचना ‘अचानकÓ पहुंचे। विचारणीय है कि अधिकांश शिकायतें अथवा प्रतिवेदन नौकरशाही के खिला$फ थे, लेकिन शायद ही किसी अधिकारी से जवाब तलब किया गया हो या उस पर कठोर कार्रवाई की गई हो! क्या इस नरम रवैये के कारण ही राज्य में अभूतपूर्व भ्रष्टाचार होने के किस्से फैलने लगे?
रमन सिंह की पहली पारी खत्म होने के कुछ दिन पहले संघ को समर्पित एक सज्जन मिले। उन्होंने भविष्यवाणी की कि आसन्न विधानसभा चुनावों में भाजपा हार जाएगी। उन्होंने कारण बताया कि कांग्रेस राज्य में जो काम सौ रुपए में हो जाता था अब उसी काम के पांच सौ देना पड़ते हैं। उन्होंने जिस भी वजह से यह बात कही हो, वे ही जानें लेकिन अंतत: भविष्यवाणी गलत सिद्ध हुई। इसके बावजूद एक संकेत मिलता है कि प्रशासन की दिशा क्या थी। भाजपा के केंद्रीय संगठन ने प्रभारी सचिव के तौर पर 2004 से 2018 के बीच छत्तीसगढ़ में कई वरिष्ठ पदाधिकारियों को भेजा और समय-समय पर बदला। इनमें से एक को हमने अनेक बार सार्वजनिक तौर पर अफसोस प्रकट करते सुना- मैं जब छत्तीसगढ़ का प्रभारी था। उन्हें शायद सचमुच हमारे राज्य से इतना लगाव हो गया था! मनमोहन सरकार के भी अनेक मंत्री शासकीय प्रयोजन से प्रदेश के दौरे पर जब तब आते रहे। वे भी छत्तीसगढ़ आने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे और जाते समय रमन सरकार को अच्छा काम करने का सर्टिफिकेट दे जाते थे। अपने दल को संभालना आसान नहीं रहा होगा लेकिन विपक्ष से प्रमाणपत्र पा लेना तो वाकई काबिलेतारी$फ था।
बहरहाल, यह तो शासन-प्रशासन की बात हुई। मैं इनसे परे दो-तीन निजी अनुभवों को साझा करना उचित समझता हूं। सितंबर 2011 में मेरी एंजियोप्लास्टी हुई। उपचार के बाद मैं लगभग तीन माह तक घर पर ही आराम कर रहा था। एक दिन अचानक मुख्यमंत्री कार्यालय से फोन आया कि सीएम साहब मुझे देखने आ रहे हैं। कुछ ही समय बाद डॉ. रमन अपना लाव-लश्कर नीचे छोड़, दो मंजिल सीढिय़ां चढ़कर हमारे निवास पर आए। आधा घंटा बैठे। स्वयं डॉक्टर हैं तो विस्तारपूर्वक जानकारी ली। अगर आगे किसी डॉक्टरी सलाह की •ारूरत पड़े तो बताइए। दिल्ली में फलाने डॉक्टर बहुत अनुभवी हैं आदि आदि। यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मेरी मि•ााजपुर्सी के लिए आने वाले वे पहले राजनेता थे। शायद यह खबर मिल जाने के तीन-चार दिन बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल भी आए। दूसरा प्रसंग जून 2018 का है। विधानसभा चुनाव पूर्व भाजपा ने ‘संपर्क से समर्थनÓ अभियान चलाया था। उसके पहले ही दिन रमन सिंह के घर आने की सूचना मिली जब मैं पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार निकटवर्ती कस्बे तिल्दा में एक तीन-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग ले रहा था, सो मैंने आयोजकों से अगले दिन न आने के लिए छुट्टी मांग ली। 2011 और 2018 में इतना फर्क था कि सीएम के सुरक्षा स्टाफ ने एक घंटा पहले से मोर्चा सम्हाल लिया था। खैर, वे आए। काफी देर तक नई-पुरानी यादों को ता•ाा करते रहे। फिर चलते समय भाजपा की प्रचार सामग्री का एक पैकेट भेंट कर गए। मेरे लिए महत्वपूर्ण बात यह थी कि रमन सिंह ने अपने अभियान के अंतर्गत सबसे पहले रामकृष्ण मिशन के स्वामी सत्यरूपानंदजी से आशीर्वाद लेने के तत्काल बाद मुझसे संपर्क करना तय किया।
शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो जाने के बाद देश भर में उस पर परिसंवाद, संगोष्ठी, कार्यशाला आदि का सिलसिला चल पड़ा था। छत्तीसगढ़ में आक्सफैम इंडिया के सहयोग से मायाराम सुरजन फाउंडेशन ने एक नई पहल की। मुख्यमंत्री को विधायकों के लिए इस विषय पर एक पैरवी और परामर्श कार्यशाला आयोजित करने का प्रस्ताव दिया जिस पर उन्होंने तुरंत सहमति दे दी। 2 अप्रैल, 2012 को विधानसभा के एक सभागार में शिक्षाविद विनोद रैना का सुचिंतित व्याख्यान हुआ जिसमें मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक व विपक्ष के नेता रवींद्र चौबे सहित साठ से अधिक विधायक उपस्थित रहे। देश में इस तरह का यह पहला कार्यक्रम था। इसी तरह का दूसरा आयोजन स्वास्थ्य के प्रति निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की प्रतिबद्धता पर नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के एक त्रिवर्षीय प्रकल्प के उद्घाटन अवसर पर 15 जुलाई, 2016 को हुआ। इसमें भी डॉ. रमन सिंह, विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल, विपक्ष के नेता टीएस सिंहदेव सहित करीब अस्सी विधायक सम्मिलित हुए। यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनने के बाद इस प्रकल्प के समापन अवसर पर 20 फरवरी, 2019 को नवनिर्वाचित विधायकों के लिए तीसरी पैरवी कार्यशाला का आयोजन हुआ। इसमें मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत, विपक्ष के नेता धरमलाल कौशिक सहित बड़ी संख्या में विधायक आए। छत्तीसगढ़ ने इस तरह विधायिका तथा सिविल सोसाइटी के बीच संवाद का एक नया रास्ता खोल दिया है।
देशबन्धु की इकसठ साल की यात्रा पर केंद्रित लेखमाला के दूसरे खंड की यह समापन किश्त है। इसमें तैंतीस किश्तों में मैंने मुख्यत: मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ की राजनीति के कर्णधारों के साथ देशबन्धु के खट्टे-मीठे तथा कभी-कभार कड़वे रिश्तों का बिना किसी दुराग्रह के वर्णन करने का उपक्रम किया है। ये चित्र मेरी स्मृति व अनुभवों पर आधारित हैं। इनकी सिलसिलेवार शुरुआत 1964 में पं. द्वारका प्रसाद मिश्र से होती है। मुझे तब अखबार का काम सीखते तीन साल हो गए थे। राजनीतिक समझ भी दिनोंदिन साफ हो रही थी। समापन 2018 में डॉ. रमन सिंह पर आकर होता है। इन चौवन सालों में राजनीति का चरित्र बदला है और समाचारपत्र तो नई संज्ञा मीडिया के विराट वैभव में धीरे-धीरे कर अपना अस्तित्व ही खोने पर विवश हो गए हैं। एक पुरानी कहावत को परिवद्र्धित कर कहना चाहूंगा कि इस लंबे दौर में नर्मदा, महानदी, इंद्रावती, बैनगंगा, बेतवा, शिवनाथ, पार्वती, चंबल, ताप्ती सहित अविभाजित मध्यप्रदेश की तमाम नदियों में न जाने कितना पानी बह चुका है। कितनी सतत-सलिला नदियां तो सरोवरों की संकीर्णता में कैद जलराशि में तब्दील हो चुकी हैं। दरअसल, यही इस युग का यथार्थ है। इन संस्मरणों में बहुत कुछ लिखने से छूट गया है। वह शायद स्वतंत्र लेखों में आगे कभी आए! मैंने चलते-चलते भूपेश बघेल का उल्लेख किया है। वे •ामीन से जुड़े ऊर्जावान नेता हैं। मैं उनमें निहित संभावनाओं के पूरी तरह प्रस्फुटित होने की आशा करता हूं।
Website Designed By Vision Information Technology
Mobile No. 9893353242