देशबन्धु ने साठ साल का सफर तय कर लिया है। हीरक जयंती के लिए बस दो दिन शेष हैं। शुभ मुहूर्त के हिसाब से रामनवमी संवत् 2016 को रायपुर से देशबन्धु का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। प्रचलित कैलेण्डर के हिसाब से तारीख थी 17 अप्रैल 1959। वह तारीख भी छह दिन बाद ही है। हमारे घर में मालूम नहीं कब से यह मान्यता चली आ रही है कि ऐसी पांच तिथियां हैं जिनमें मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। ये हैं- बसंत पंचमी, रामनवमी, अक्षय तृतीया, दशहरा और धनतेरस। बाबूजी ने इसी विचार से शायद रामनवमी का दिन अपना स्वतंत्र व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए चुना था। जैसा कि किसी भी उपक्रम में, और किसी भी व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक है, देशबन्धु को साठ साल की इस यात्रा में बहुत से उतार-चढ़ाव देखना पड़े हैं। बाबूजी को जानने वाले कहते थे कि मायाराम जी रेत में नाव चला रहे हैं। यह टिप्पणी सही भी थी और गलत भी। नाव चलाने के लिए पानी और पतवार दोनों चाहिए और आज वह क्षण है जब हम उन लोगों को याद करें जिन्होंने हमें स्नेह दिया, आत्मीयता दी, विश्वास दिया और जो समय-समय पर हमारे संबल बने।
देशबन्धु को पत्रकारिता का विश्वविद्यालय कहा जाता है। हमारे खाते में बहुत कुछ है जिस पर हमें संतोष होता है और जिस पर हम गर्व भी कर सकते हैं, लेकिन आज मैं उन लोगों का उल्लेख करना चाहता हूं जो देशबन्धु को इस मुकाम तक पहुंचाने में सहायक बने। बाबूजी के लिए रायपुर एक लगभग अपरिचित स्थान था। 1958 के अंत में जब उन्होंने एक समाचार पत्र समूह से दुखी मन से विदा ली तब उनके पास दिल्ली और बंबई के बड़े अखबारों में काम संभालने के ऑफर थे। स्वर्गीय देवदास गांधी ने उन्हें हिन्दुस्तान टाइम्स में आने का निमंत्रण दिया था। बाबूजी इसे शायद स्वीकार भी कर लेते, लेकिन सामने उन चालीस लोगों की आजीविका का प्रश्न था जो उनके साथ ही उस पत्र समूह से इस्तीफा देकर अलग हो गए थे। बाबूजी यदि चाहते तो जबलपुर, भोपाल, नागपुर में कहीं से नया अखबार निकाल सकते थे। इसके लिए भी उनके पास निमंत्रण थे। लेकिन वे अपने पूर्व नियोक्ता के साथ स्पर्धा करने के बजाय किसी ऐसी जगह जाना चाहते थे जहां उन्हें मानसिक शांति मिल सके।
1958 का रायपुर एक उभरता हुआ नगर था। यहां कुछ पुराने सहपाठियों के अलावा बाबूजी दो-तीन लोगों को विशेषकर जानते थे। इनमें रायपुर के विधायक और प्रभावी नेता शारदाचरण तिवारी थे जिनसे काफी पहले से पहचान थी। जब बाबूजी अखबार निकालने के लिए रायपुर आए तो कुछ दिनों के लिए तिवारीजी के घर पर ही रहे। आवास के लिए बैरन बाजार में किराए का मकान भी उन्होंने ही दिलाया और प्रेस के लिए सद्दानी चौक से श्याम टाकीज की सड़क पर प्रभुलाल हलवाई का मकान भी उनके ही सौजन्य से मिला। बाबूजी के साथ आए अधिकतर लोग ड्यूटी करने के बाद निकट स्थित तिवारीजी के श्याम टाकीज में ही जाकर विश्राम और स्नान-ध्यान करते थे।
दूसरे परिचित थे धमतरी के केशरीमल लुंकड़ जो सिने वितरक और सिने मालिक थे। केशरीमलजी बाबूजी को बहुत सम्मान देते थे। बड़ा भाई जैसा मानते थे और बाबूजी के निधन के बाद भी हम पर उनका स्नेह अंतत: बना रहा। उस शुरूआती दौर में कार नहीं थी तो केशरीमलजी ने अपनी गाड़ी भिजवा दी थी कि जब पैसा होगा तब इसकी कीमत चुका देना। मुझे यहां तीसरे सिने व्यवसायी सतीश भैया याने स्व. सतीशचंद्र जैन का ध्यान आता है। बाबूलाल टाकीज संभालने वाले सतीश भैया एक प्रबुद्ध नागरिक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे विरल व्यापारियों में से थे जो पुस्तकें खरीदते और पढ़ते थे और जिनके साथ घंटों देश-दुनिया के विषयों पर चर्चा की जा सकती थी।
देशबन्धु का प्रकाशन इंदौर नई दुनिया के रायपुर संस्करण के रूप में प्रारंभ हुआ था। इंदौर में उसके तीन भागीदार थे- लाभचंद छजलानी याने बाबूजी, नरेन्द्र तिवारी याने चाचाजी और बसंतीलाल सेठिया याने भैयाजी। यह अपने समय की एक बेमिसाल भागीदारी थी। इंदौर वाले बाबूजी और उनके दोनों साथियों ने न सिर्फ रायपुर से अखबार निकालने में प्रारंभिक मदद की बल्कि लंबे समय तक उनका सहयोग इस अखबार को मिलता रहा। 1972 की रामनवमी को नई दुनिया रायपुर का नाम बदलकर देशबन्धु रखा गया। उसी साल देशबन्धु चितरंजन दास की जन्मशती भी थी। भागीदारी खत्म होने के बाद भी इंदौर के साथ हमारे पारिवारिक संबंध बने रहे। जब अखबार शुरू हुआ तो इंदौर से बाबूजी के पुत्र अभय छजलानी और बाद में रामचंद्र नेमा यहां काम जमाने में मदद हेतु कुछ समय के लिए आकर रहे।
जिन चालीस लोगों ने बाबूजी के साथ अपनी जमी जमाई नौकरी छोड़ दी थी उनमें से कुछ के नाम मुझे कभी नहीं भूलते। जैसे मशीनमैन छोटेलाल, कंपोजिंग फोरमैन दुलीचंद, शेषनारायण राय, गुलाब सिंह, रामप्रसाद यादव, ड्राइवर मारुतिराव, बाबूजी के स्वघोषित अंगरक्षक बाबूसिंह, फिर मोतीलाल गुप्ता इत्यादि। रामप्रसाद मुझसे उम्र में दो-एक साल बड़े थे। उद्यमी थे। उन्होंने कंपोजिंग के साथ-साथ सुबह अखबार बांटना भी शुरू किया और आगे चलकर यादव न्यूज एजेंसी भी खोली जिसे अब छोटे भाई व बेटे संभाल रहे हैं। मारुतिराव बिना कार के ड्राइवर थे और दफ्तर में जो काम समझ आए करते थे। उनकी मां जिन्हें हम सब आई कहते थे ने कठिन समय में जो हमारी मदद की उस पर बाबूजी का मार्मिक संस्मरण पठनीय है।
देशबन्धु की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता उसकी संपादकीय रीति-नीति और प्रयोगधर्मिता के कारण बनी है। बाबूजी स्वयं सिद्धहस्त पत्रकार थे और उन्होंने कुशल पत्रकारों की एक चमकदार टीम तैयार कर ली थी। पंडित रामाश्रय उपाध्याय एक तरह से इस टीम के वायस कैप्टन थे। मुझे के.आई. अहमद अब्बन, पंकज शर्मा और श्री सिद्दीकी की तिकड़ी का ध्यान आता है जो प्रारंभिक वर्षीें में सहयोगी थे और जिनकी प्रतिभा का अखबार को भरपूर लाभ मिला। पंडितजी के साथ दा याने राजनारायण मिश्र और कुछ दिन बाद सत्येन्द्र गुमाश्ता भी जुड़ गए थे। इन्होंने अखबार की धाक जमाने के लिए जो काम किया वह अविस्मरणीय है। सत्येन्द्र तो ताउम्र हमारे साथ ही काम करते रहे। वे छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे जिन्होंने अनेक देशों की यात्रा की थी। कैंसर ने उन्हें हमसे असमय छीन लिया।
देशबन्धु के आंचलिक प्रतिनिधियों और संवाददाता में दुर्ग के धीरज भैया याने धीरजलाल जैन का नाम सर्वोपरि है। वे व्यवहार कुशल पत्रकार होने के साथ व्यापार कुशल भी थे। मुझे उनका बहुत मार्गदर्शन मिला। तखतपुर के दर्शन सिंह, दल्लीराजहरा के ओंकारनाथ जायसवाल, बागबाहरा के विष्णुराम परदेसी उर्फ भगतजी के नाम भी मुझे इस क्षण याद आ रहे हैं। मैं यहां गिरधर दास डागा का उल्लेख भी करना चाहता हूं। वे सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में अधिकारी थे। बैंक में हमारी साख जमाने का बड़ा श्रेय उनको जाता है। आज हम जहां हैं उसमें सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का बहुत योगदान रहा है। इस बारे में मैं आगे कभी लिखूंगा। अभी बहुत से व्यक्ति हैं जिनके नाम मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं उनकी भी चर्चा आगे होगी। अभी तो देशबन्धु की हीरक जयंती के अवसर पर हम अपने सभी पाठकों, अभिकर्ताओं, विज्ञापनदाताओं, मित्रों, सहयोगियों, सहकर्मियों और शुभचिंतकों के प्रति आभार व्यक्त करता हूं। हमें विश्वास है कि आपका स्नेह और सहयोग आने वाले समय में भी हमें मिलता रहेगा।
ललित सुरजन
प्रधान संपादक
छत्तीसगढ़ में आप किसी विषय पर शोध करना चाहते हैं, कोई पुरानी खबर या विज्ञापन आपको देखना है तो बहुत संभव है कि इसके लिए आप देशबन्धु लाइब्रेरी आएं। इस सार्वजनिक ग्र्रंथालय में देशबन्धु के पिछले साठ सालों के दौरान प्रकाशित अंकों की •िाल्दों में कहीं आपको अपनी वांछित सामग्री मिल जाएगी। देश-दुनिया के अनेक समाचारपत्रों में विगत अंकों को इस तरह से संरक्षित रखा जाता है। इसलिए यह कोई अनोखी बात नहीं है। लेकिन आपको जानकर अचरज होगा कि जिस व्यक्ति ने देशबन्धु की पुरानी फाइलों को सिलसिलेवार संजोने की प्रणाली विकसित की, वह लगभग निरक्षर था। उसकी पढ़ाई चौथी हिन्दी से आगे नहीं हुई थी; लिखावट बहुत खराब, जिसे शायद मैं अकेला ही पढ़ पाता था; जिसने कभी आजीविका के लिए कुछ समय के लिए पान दूकान खोल ली थी; और जो सदर बा•ाार के सद्दानी चौक पर खड़े होकर लोगों से शर्त लगाने का शौकीन था कि छप्पर से बारिश की पहली बूंद कितनी देर में नीचे गिरेगी। इस शख्स का नाम था- बालकृष्ण जोशी। उन्हें और उनकी पत्नी झुमरीबाई को हम फूफाजी-बुआजी का आदरसूचक संबोधन देते थे।
बालकृष्ण जोशी बूढ़ापारा में प्रेस के बाजू से गुजरने वाली गोकुलचंद्रमा गली में उस छोर पर दूसरे मकान में रहते थे। 17 अप्रैल 1959 को अखबार चालू हुआ तो दूसरे-तीसरे दिन वे मुहल्लावासियों का डेलीगेशन लेकर बाबूजी से लडऩे आ गए थे। आपकी मशीन की खटखट से हमारी रातों की नींद में बाधा पड़ रही है। बाबूजी ने मुस्कुरा कर उन्हें समझाया- कुछ दिनों बाद यही खटखट आपको लोरी लगने लगेगी। और फिर अखबार का काम चौबीस घंटे चलता है तो आपके घर चोर भी नहीं आएंगे। मुहल्लेवासी संतुष्ट होकर लौट गए। यही जोशीजी लगभग चार साल बाद 1963 में प्रेस से कैसे जुड़े, यह मुझे ध्यान नहीं, लेकिन जब आ गए तो ताउम्र हमारे साथ ही रहे आए। गोकुलचंद्रमा मंदिर में जोशी दंपति का मेरे दादा-दादी से परिचय हुआ होगा। उसी कारण शायद यह मुंहबोला रिश्ता बना होगा। नि:संतान जोशीजी की एक भतीजी कृष्णा उनके पास रहती थीं, वह मेरी छोटी बहिन ममता की हमउम्र सहेली बन गई। जोशीजी पढ़े-लिखे तो नहीं थे, लेकिन व्यवहारबुद्धि उनमें अपार थी। वे अपने ढंग से कुछ चालाक भी थे। अनेक प्रेस कर्मचारी उनसे सूद पर रकम उठाते थे। मुझे मालूम पड़ा तो उन्हें रोका। कर्मचारियों के लिए उनका अपना कल्याण कोष स्थापित किया, जिससे वे कई जगहों से कर्जमुक्त हो सके। जोशीजी ने शिकायत की-आपने मेरी कमाई बंद करवा दी।
खैर, यह जोशीजी की ही सोच थी कि अखबार की दैनंदिन प्रतियों को संभालकर रखा जाए। उन्होंने पिछले तीन-तीन माह के अंकों की फाइलें बनवाना शुरू किया। उन्हें रखने के लिए भारी लकड़ी के बड़े-बड़े रैक बनवाए। पत्र की जो अतिरिक्त प्रतियां रखी जाती थीं, उसकी भी प्रणाली बनाई- आज के अंक की बीस कॉपियां, एक माह बाद सिर्फ दस, एक साल बाद घटाकर पांच। अनावश्यक जगह क्यों घेरी जाए! अगर किसी को पुराने अखबार की प्रति चाहिए तो जितना पुराना अंक, उतना अधिक दाम। अधिकतर जमीन-जायदाद के मुकदमों से संबंधित खबर/विज्ञापन के लिए ही लोग पुराना पेपर लेने आते थे। उनसे मुरव्वत क्यों? आखिर रख-रखाव में हमें भी तो खर्च करना पड़ता है, यह जोशीजी का तर्क था। उन्होंने जो व्यवस्था लागू की, वह आज छप्पन साल बाद भी लगभग वैसी ही चली आ रही है। जोशीजी पर प्रेस की रद्दी, स्याही के ड्रम आदि के निबटान का जिम्मा भी था। हमारे हितैषी बैंक मैनेजर डागाजी ने जोशीजी को निर्देश दिया- तुम रद्दी बिक्री की रकम से हर माह एक सौ रुपए लाकर मुझे दोगे। उसका एक अलग खाता खोला गया। पांच साल बाद जब घर बनाने के लिए सहकारी समिति में प्लॉट खरीदने का अवसर मिला तो बचत की रकम काम आई। बाबूजी को भी उस दिन तक इसका पता नहीं था। जोशीजी के अनोखे व्यक्तित्व के बारे में लिखने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन एक प्रसंग का जिक्र करना उचित होगा। जोशी दंपति का अपना कोई खास घर खर्च नहीं था। अनेक संपन्न परिवारों में उनकी जजमानी चलती थी। अपने देहांत से कुछ साल पहले उन्होंने एक कन्या शाला में पेयजल व्यवस्था के लिए अपनी मेहनत से जोड़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा लगा दिया। वे एक सहृदय, सदाशयी व्यक्ति थे और उनकी स्मृति जब-तब आ ही जाती है।
एक अन्य सहयोगी रामसखीले दुबे भी अपने ढंग के अनोखे थे। मैं उन्हें महाराज कहता था। गो कि अधिकतर उन्हें लंगड़े पंडित ही कहा जाता था। आज रामसागरपारा के जिस प्रेस भवन से देशबन्धु का कारोबार संचालित होता है, उसके निर्माण में महाराज ने अनथक और अनकथ परिश्रम किया है। हमारे आवासगृह को तामीर करने में भी महाराज ने वैसी ही दौड़-धूप की थी। महाराज रीवां के पास किसी गांव के मूल निवासी थे और अब भी शायद वहीं रहते हैं। मुझे जहां तक याद पड़ता है वे 1961-62 में जबलपुर पे्रस में फोल्डिंग विभाग में काम करने आए थे। सन् 62 के अंत में जबलपुर नई दुनिया से बाबूजी अलग हुए तो महाराज भी हमारे साथ-साथ आ गए। नया अखबार शुरू होने में कुछ माह का समय था तो पाककला में प्रवीण महाराज ने घर की रसोई संभाल ली। अखबार चालू हुआ तो घर-दफ्तर दोनों जगह ड्यूटी करते रहे। पोलियोग्रस्त होने के कारण महाराज का एक पैर छोटा था। लंगड़ाकर चलते थे, लेकिन उनकी फुर्ती देखते बनती थी। वे हमारे ऐसे साथी थे, जिन्होंने कभी किसी काम के लिए मना नहीं किया। भवन निर्माण के समय दिन-दिन भर साइट पर खड़े रहना, निर्माण सामग्री के लिए दूकानों के चक्कर लगाना, श्रमिकों के साथ सद्व्यवहार के साथ उनके काम की निगरानी रखना- यह सब काम महाराज ने पूरी लगन और निष्ठा के साथ किया। बढ़ती उम्र में विवाह करने के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों को सम्हालने आदि कारणों से वे गांव वापस चले गए। यह हमारी विवशता थी कि चाहकर भी उन्हें रोककर नहीं रख सके।
मुझे रघुनाथराव कड़वे की भी याद आती है। प्रेस में अधिकतर लोग उन्हें रघुनाथ दादा कहते थे। दुर्बल कद-काठी के रघुनाथ रातपाली के चौकीदार थे। दिन में वे म.प्र. विद्युत मंडल में चतुर्थ श्रेणी के किसी पद पर काम करते थे। रघुनाथ देखने में सुकोमल लेकिन स्वभाव में कड़क थे। मजाल है कि उनके ड्यूटी पर रहते एक काग•ा इधर का उधर हो जाए। हमारे एक कैशियर को भूलने की बीमारी थी, शायद जानबूझकर। वे शाम को कई बार कैशबॉक्स खुला छोड़कर घर चले जाते थे। रघुनाथ कैशबॉक्स को ताला लगाते, गोदरेज की आलमारी में बंद करते और चाबियां देने घर तक आते। उनके बारे में दिलचस्प तथ्य यह था कि उनकी उम्र का किसी को पता नहीं था। देखकर लगता था कि रिटायरमेंट का समय हो चुका है, लेकिन विद्युत मंडल में किसी जादू से हर साल उनकी सेवानिवृत्ति टल जाती थी। शायद हो कि वहां के अधिकारी भी उनकी कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें विदा न करना चाहते हों! रघुनाथ के बेटे सतीश ने भी कुछ समय तक प्रेस में काम किया, लेकिन टिक नहीं पाए। रघुनाथराव ने शायद तीस साल से भी अधिक समय तक अखबार को अपनी सेवाएं दीं। कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी उन दिनों भी शायद इतनी ही दुर्लभ या सुलभ थी, जितनी आज है। यह हमारा सौभाग्य था कि हमें इनके जैसी साथी-सहयोगी मिले।
इस लेखमाला की 11 अप्रैल को प्रकाशित पहली किश्त में मैंने कुछ ऐसे जनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की थी, जिनका देशबन्धु की साठसाला यात्रा में किसी न किसी वक्त पर अनमोल सहयोग मिला। आज उसी कड़ी में अपने उपरोक्त तीन सहयोगियों की चर्चा हुई है। मैंने अमेरिका के उपन्यासकार कैमरून हॉले का बहुचर्चित उपन्यास -”द एक्जीक्यूटिव सुईटÓÓ या ”अध्यक्ष कौन होÓÓ 1962-63 में पढ़ा था और उससे गहरे तक प्रभावित हुआ था। इस उपन्यास का आधारबिंदु यही था कि कोई भी प्रतिष्ठान सिर्फ मशीनों और जड़ नियमों से नहीं बल्कि मानवीय सरोकारों से संचालित होता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि बाबूजी को ऐसे साथी न मिले होते तो अखबार आगे कैसे बढ़ता! अगली किश्त शीघ्र ही, कुछ और साथियों-सहयोगियों के परिचय के साथ।
ललित सुरजन
आज से साठ साल पहले जिस मशीन पर देशबन्धु की छपाई होना शुरू हुई, वह ब्रेमनर मशीनरी कंपनी, लंदन द्वारा निर्मित थी। 1880, जी हां, 1880-85 के आसपास बनी यह मशीन हमने नौ हजार रुपए में सेकंड हैंड खरीदी थी। इतनी रकम भी उस वक्त के लिहाज से काफी मायने रखती थी। तकनीकी विकास और साधनों की उपलब्धता के अनुसार आगे चलकर हमने समय-समय पर दूसरी उन्नत मशीनें खरीदीं, लेकिन दिलचस्प तथ्य यह है कि एक लंबी अवधि तक छोटेलाल ही मशीनमैन और मशीन विभाग के प्रमुख के रूप में सेवाएं देते रहे। वे जब रिटायर हो गए तब भी देशबन्धु के साथ उनका आत्मीय संबंध बना रहा। दरअसल, छोटेलाल और बाबूसिंह बाबूजी के ऐसे दो साथी थे जिन्होंने हम भाई-बहनों को नहीं, हमारे बच्चों को भी गोद में खिलाया है। फिलहाल मैं छोटेलालजी के साथ श्री जोसेफ, इब्राहीम भाई और मशीन विभाग से जुड़े कुछ अन्य साथियों को याद कर रहा हूं।
1945-50 के बीच बाबूजी नागपुर ‘नवभारतÓ में कार्यरत थे। उस दौरान प्रेस में छोटेलाल नामक एक अन्य मशीनमैन थे। सन् 50 में बाबूजी जब नवभारत का दूसरा संस्करण स्थापित करने जबलपुर आए तो उपरोक्त छोटेलालजी की अनुशंसा पर उनके हमनाम दामाद हमारे छोटेलालजी साथ में जुड़ गए और सदा के लिए जुड़े रहे। बाबूजी नवभारत का नया संस्करण प्रारंभ करने भोपाल गए तो छोटेलाल भी उनके साथ गए। जब रायपुर से देशबन्धु (तब नई दुनिया रायुपर) निकालना तय हुआ तो छोटेलाल यहां आ गए। बाबूजी ने 1958 के अंत-अंत में अस्पताल के बिस्तर से अपना इस्तीफा नवभारत को भेज दिया था। उपचार के लिए धनाभाव था। छोटेलाल ने नवभारत प्रेस में मैनेजर से जाकर पैसे मांगे। मनाही हो गई तो वे मैनेजर की टेबल पर चढ़कर सीलिंग फैन खोलकर ले आए। उसे बेचकर जो रकम मिली वह बाई (मां को हम यही संबोधन देते थे) के हाथों पर लाकर रख दी। बाबूजी को बाद में जब पता चला तो उन्होंने अपने पूर्व नियोक्ता को पत्र लिखकर इस उद्दंडता के लिए माफी मांगी और रकम वापस भिजवाई।
अपने इन्हीं बुजुर्ग साथी को 1985 के आसपास कभी मुझे मजबूरन रिटायर करना पड़ा। मैं किसी मित्र के घर रात्रिभोज पर गया था। प्रेस से फोन आया- छोटेलालजी शराब पीकर उपद्रव कर रहे हैं। किसी की बात नहीं सुन रहे हैं। मैं भागा-भागा प्रेस आया। डांट-फटकार कर उन्हें घर भिजवाया और अगले दिन सेवामुक्त कर दिया। बाबूजी रायपुर से बाहर थे। लौटकर आए तो मेरी पेशी हुई। ठीक है, तुमने काम से हटा तो दिया है, उनका घर कैसे चलेगा! मेरे तीस-पैंतीस साल के साथी हैं। मैंने आश्वस्त किया कि उसकी व्यवस्था कर दी है। उनके घर हर माह राशन जाएगा और चाची के हाथ में वेतन की राशि। बाबूजी संतुष्ट हुए, लेकिन छोटेलाल जी इस बात से ख$फा हुए कि उनके मदिरापान के लिए पैसे नहीं मिल पा रहे हैं। खैर, यह व्यवस्था चलती रही। इसमें एक मजेदार बात और हुई। छोटेलाल बीच-बीच में घर आते। मेरी पत्नी को भोजन कराने का आदेश देते। होली-दीवाली उनके और चाची के लिए नए वस्त्रों का प्रबंध भी किया जाता। मैं सामने पड़ जाता तो कहते- मैं बहूरानी से मिलने आया हूं। तुमसे बात नहीं करूंगा।
मैंने जिस मशीन का ऊपर जिक्र किया वह फ्लैटबैड सिलिंडर मशीन थी, जिसमें एक बार में सिर्फ दो पेज छपते थे। एक तरफ से कोरी शीट डालते, दूसरी तरफ से छपा कागज निकलता। जब एक तरफ की छपाई पूरी हो जाती तो उलटी तरफ दो पेज छापे जाते। इसमें छोटेलालजी के साथ दूसरे सिरे पर एक हेल्पर होता था। बाद में ऐसी ही एक और मशीन खरीद ली ताकि समय की बचत हो सके। उस मशीन पर मुझे जहां तक याद है, कंछेदीलाल राठौड़ नियुक्त थे। पेपर छापने के अलावा ऊंची आवा•ा लगाकर शहर में पेपर बेचने भी जाते थे। 64-65 के आसपास परमानंद साहू हेल्पर होकर आ गए थे। वे आगे चलकर एक कुशल मशीनमैन बने। 1968 में हमने सेलम (तमिलनाडु) से आदित्यन समूह के ”मलाई मुरुसुÓÓ अखबार से एक सेकंडहैंड फ्लैडबैड रोटरी मशीन खरीदी। इसमें कागज की शीट के बजाय रील लगती थी और एक साथ चार पेज छपते थे। नागपुर के श्री जोसेफ नामक मशीन मैकेनिक की सेवाएं सेलम से मशीन खोलकर लाने और रायपुर में स्थापित करने के लिए ली गई। यह मशीन अपनी आयु पूरी कर चुकी थी। बार-बार रिपेयरिंग की आवश्यकता पड़ती थी। नागपुर से जोसेफजी इसके लिए आते थे। मैं मोहननगर, नागपुर में उनके घर भी एक बार गया। छोटेलालजी ने जोसेफजी से जल्दी ही नई तकनीक की समझ हासिल कर ली। वे और परमानंद इसे चलाते रहे।
हमें एक बेहतर मशीन की तलाश थी जो लखनऊ के ‘नेशनल हैराल्डÓ अखबार पहुंचकर पूरी हुई। वहां एक उम्दा फ्लैटबैड रोटरी लगभग नई कंडीशन में खड़ी थी। जनवरी 1971 में बाबूजी ने मुझे और मशीन मैकेनिक इब्राहीम भाई को मशीन लाने लखनऊ भेजा। इब्राहीम सौराष्ट्र में लिंबडी के निवासी थे और एक अच्छे मैकेनिक के रूप में पत्र जगत में उनकी प्रतिष्ठा थी। हम दोनों लखनऊ में एक साथ दस दिन रहे। मशीन खोलकर इब्राहीम भाई को ट्रकों के साथ सड़क मार्ग से रायपुर के लिए रवाना किया और मैं ट्रेन से वापस लौटा। यह नई मशीन बहुत अच्छी थी, लेकिन समय-समय पर रख-रखाव के लिए इब्राहीम अगले कई वर्षों तक रायपुर आते रहे। वे ऐसे मशीन मैकेनिक थे, जो मद्यपान से एकदम दूर थे। कहना न होगा कि छोटेलालजी ने ही बदस्तूर इस मशीन का काम भी संभाला। ‘नेशनल हैराल्डÓ कार्यालय में बीते दस दिनों में जो अनुभव हुए उन्हें मैं अलग से लिख चुका हूं। नए पाठकों की जानकारी के लिए इतना बताना काफी होगा कि लखनऊ का स्टाफ अपने कार्यस्थल को ”नेहरूजी का यतीमखानाÓÓ कहता था।
छोटेलालजी की कहानी अभी बाकी है। 1974 की जनवरी में छोटेलाल, मैं, मेरी पत्नी माया और हमारी दो नन्हीं-नन्हीं बेटियां रायपुर से सुदूर तिरुनल्लवैल्ली (तमिलनाडु) के लिए रवाना हुए। इस बार भी मशीन लेने ही जाना था, लेकिन उसका गंतव्य भोपाल था, जहां जुलाई 74 में देशबन्धु का तीसरा संस्करण प्रारंभ हुआ। रायपुर से नागपुर तो आराम से पहुंच गए, लेकिन ट्रेनों की भीड़-भाड़ के चलते हमें वहां तीन दिन रुकना पड़ा। पत्रकार अनुज प्रकाश दुबे ने संपर्कों का उपयोग कर किसी तरह हमारा चैन्नई के लिए आरक्षण करवाया। तिरुनल्लवैली में सुप्रसिद्ध ”दिनमलारÓÓ अखबार की एक पुरानी मशीन खरीदना थी। जोसेफ और इब्राहीम के साथ काम करते-करते छोटेलाल इतने प्रवीण हो चुके थे कि मशीन खोलने के लिए बाहर से किसी की सेवाएं लेने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। यात्रा के पांच दिनों के अलावा हमने ‘दिनमलारÓ में दस दिन तक मशीन खोलने का काम किया। सुबह निकलते थे तो लौटते तक शाम छह-सात बज जाते थे। अंतत: खुली मशीन ट्रकों पर लादी गई, छोटेलाल उनके साथ भोपाल के लिए रवाना हुए, रायपुर लौटने के पहले हमने सपरिवार तमिलनाडु दर्शन में कुछ दिन बिताए, जिसकी रोमांचक कहानी मैं कभी अलग से सुनाऊंगा।
सिलिंडर मशीन, फ्लैडबैड रोटरी के बाद अब नई तकनीक की वेब ऑफसेट मशीन का समय था। हमारी पहली ऑफसेट मशीन 1979 में स्थापित हुई। इस पर एक साथ श्वेत-श्याम बारह पेज छापना संभव था। यह मशीन एक घंटे में पच्चीस हजार कॉपी छाप सकती थी। तकनीकी तौर से बंधु ऑफसेट मशीनरी वक्र्स की यह मशीन अब तक की सभी मशीनों से अलग थी, लेकिन अपनी नैसर्गिक क्षमता के बल पर छोटेलालजी ने इस मशीन का काम भी सम्हाला। उनकी याद अब भी आ ही जाती है। प्रसंगवश यह संकेत करना शायद उचित होगा कि छोटेलाल सफाई कामगार समुदाय से आते थे। बाद में एक कुशाग्र मशीनमैन राधेलाल आदिवासी थे। इस तरह हमारा मशीन विभाग भारत की बहुलतावादी संस्कृति का ज्वलंत उदाहरण था।
ललित सुरजन
‘प्रिंटर्स डेविल” याने छापाखाने का शैतान अखबार जगत में और पुस्तकों की दुनिया में भी एक प्रचलित मुहावरा रहा है। छपी हुई सामग्री में कोई शब्द या अक्षर इधर का उधर हो जाए, फलत: अर्थ का अनर्थ होने की नौबत आ जाए तो उसे किसी अदृश्य शक्ति याने शैतान की कारगुजारी बता कर बच जाओ। वास्तविकता में यह अक्सर कंपोजिंग की गलती होती है। बा•ा द$फे समाचार-लेखक भी हड़बड़ी में कुछ गलत लिख जाता है और कंपो•िाटर सतर्क न हो तो वैसा ही गलत छप भी जाता है। एक बेहतरीन कंपोजिटर को परिश्रमी और सजग होने के साथ-साथ भाषा का भी पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक होता है। मैंने अब तक ऐसी दो ही पत्रिकाएं देखीं, जिनमें कभी न तो तथ्यों की गलती देखने मिली और न वर्तनी या व्याकरण की। एक- अमेरिका से प्रकाशित ”नेशनल ज्योग्राफिकÓÓ और दूसरी इंग्लैंड की ”द इकानॉमिस्टÓÓ। बाकी तो हम गलतियां करते चलते हैं और समझदारी हो तो इसके लिए पाठकों से माफी भी मांग लेते हैं। आप समझ रहे होंगे कि एक अच्छा अखबार निकालने की शर्त है कि उसमें गलतियां न हों और यह बड़ी हद तक कंपोजिंग विभाग में कुशल सहयोगी होने पर निर्भर करता है।
मैं देशबन्धु के कंपोजिंग विभाग के साथियों को याद करता हूं तो सबसे पहले ”राय साहबÓÓका ध्यान आता है। सिर्फ बाबूजी ही उन्हें जीतनारायण नाम से संबोधित करते थे। जौनपुर (उप्र) के राय साहब शायद 1956 में भोपाल में बाबूजी से जुड़ गए थे। वे ऊंची कद-काठी के स्वामी थे। मैं उन दिनों अपनी बुआ के पास पहले नागपुर, फिर ग्वालियर में पढ़ रहा था, इसलिए मैंने उन्हें रायपुर आने पर ही पहली बार देखा। वे कंपो•िांग से पदोन्नत होकर फोरमैन बन चुके थे। आगे चलकर वे हैड फोरमैन भी बने। बढ़ती आयु में जब नेत्र ज्योति शिथिल होने लगी तो उनके प्रभावी व्यक्तित्व के अनुकूल दूसरे काम सौंप दिए गए। उन्हें गुजरे लंबा समय बीत गया है, लेकिन चाची और उनके बच्चों के साथ आज भी संपर्क बना हुआ है। फोरमैन के जिम्मे संपादकीय विभाग से समाचार आदि लेना, उसे कंपोजिटरों के बीच बांटना, कंपोज हो गई सामग्री के प्रूफ निकालना, सुधार करना, और इस लंबी प्रक्रिया में समय की पाबंदी व अनुशासन बनाए रखना आदि काम होते थे। उन शुरुआती दिनों में चार पेज के अखबार में भी कोई अठारह-बीस कंपोजिटर, उन पर दो या तीन फोरमैन और सबके ऊपर हैड फोरमैन होता था। राय साहब के साथ इलाहाबाद से आए रामप्रसाद यादव, जबलपुर के दुलीसिंह, जगन्नाथ प्रसाद पांडे आदि थे। ये सभी अपने फन के माहिर थे।
समय आगे बढऩे के साथ इनका स्थान लेने के लिए एक नई पीढ़ी सामने आ गई। 1970 के दशक में एक समय ऐसी स्थिति बनी कि अखबार निकलने में प्राय: रोज ही देरी होने लगी। जो हैड फोरमैन थे, वे विभाग को सम्हाल नहीं पा रहे थे। तब मैंने एक प्रयोग किया। तीन युवा फोरमैन क्रमश: लीलूराम साहू, मोहम्मद सलाम हाशिमी और रणजीत यादव को एक-एक माह के लिए हैड फोरमैन का प्रभार इस वायदे के साथ सौंपा कि जिसका काम सबसे अधिक संतोषजनक होगा, उसे विभाग का मुखिया बना दिया जाएगा। उन तीनों साथियों में अपनी बेहतर काबिलियत का परिचय लीलूराम ने दिया। वे हैड फोरमैन नियुक्त किए गए और रिटायरमेंट तक इस पद पर बने रहे। मेरे हमउम्र लीलूराम का कद नाटा था, लेकिन वे अपने दायित्वको भलीभांति समझते थे, उनमें नेतृत्व क्षमता भरपूर थी, और वे नई ची•ाों को सीखने में भी दिलचस्पी रखते थे। अपने इन गुणों और साथ में विनम्र स्वभाव के कारण वे प्रेस में हम सभी के प्रिय थे। नए दौर में कंपोजिंग विभाग में उन्नत तकनीकी का आगमन हुआ तो उसे समझने और उपयोग करने में भी लीलूराम ने देरी नहीं की।
हैड कंपोजिंग याने छापे के अक्षर हाथ से जोडऩे की विधि पुरानी पड़ चुकी थी। उन दिनों लाईनोटाइप और मोनोटाइप ऐसी दो यांत्रिक प्रणालियां प्रचलन में थीं। पहली में एक-एक लाइन मशीन से ढलकर निकलती थी। एक गलती हो जाए तो पूरी लाइन बदलो। दूसरी में एक-एक अक्षर की पृथक ढलाई होती थी। हमने मोनोटाइप मशीनें खरीदना तय किया। छत्तीसगढ़ में देशबन्धु पहला अखबार था, जहां ये मशीनें आईं। स्वाभाविक ही यहां उनका कोई जानकार नहीं था। हम इलाहाबाद से रामनिवास सिंह और जगदीश नारायण श्रीवास्तव को लेकर आए। सिंह साहब मशीन ऑपरेटर थे, याने की-बोर्ड पर कंपोजिंग करते थे। जगदीश उससे जुड़ी मशीन पर सात सौ डिग्री तापमान पर खौलते सीसे से अक्षरों की ढलाई करते थे। रामनिवास सिंह बुजुर्ग थे। खादी के शुभ्र धवल वस्त्र पहनते थे। उनकी भाषा बेहद अच्छी थी। संपादकों की गलतियां सुधार देते थे। जगदीश भी अपने काम में कुशल, और मृदुभाषी व्यक्ति थे। एक लंबे अरसे बाद जब मोनो तकनीक भी पुरानी पड़ गई, मशीनें बेच दी गईं, तब भी जगदीश एक तरह से पे्रस परिसर के सुपरवाइ•ार बनकर जीवन पर्यन्त हमारे साथ बने रहे। उनके बेटे आज भी किसी न किसी रूप में प्रेस से जुड़े हुए हैं।
इधर मोनो मशीन खरीदने की प्रक्रिया प्रारंभ की, इलाहाबाद से कुशल कर्मियों को बुलाया; दूसरी ओर यह भी तय किया कि वर्तमान स्टाफ को भी इन मशीनों पर काम सिखाया जाए। कलकत्ता में मोनोटाइप कंपनी तकनीकी प्रशिक्षण देने के लिए एक स्कूल चलाती थी। लीलूराम, फेरहाराम साहू और हेमलाल धीवर को इस स्कूल में शायद तीन माह का प्रशिक्षण लेने भेजा गया। इन तीनों साथियों ने पूरे मनोयोग के साथ काम सीखा और अपने प्रशिक्षकों से सराहना हासिल की। मोनोटाइप स्कूल के प्राचार्य ने तीनों को श्रेष्ठ प्रशिक्षार्थी होने के प्रमाणपत्र दिए और एक अलग पत्र भेजकर हेमलाल की विशेष प्रशंसा की कि उनके जैसा कुशाग्र प्रशिक्षार्थी पहले कभी नहीं आया। लगभग एक साल बाद रायपुर नवभारत में मोनोटाइप मशीन आई तो उनके प्रबंधन के अनुरोध पर लीलूराम को वहां दूसरी शिफ्ट में काम करने भेजा कि उनके लोगों को काम सिखा दें। हमने तो सहयोग की भावना से भेजा था, लेकिन नवभारत में उन्हें बेहतर सुविधाओं का लाभ देकर वहीं रोक लेने की पेशकश कर दी। लीलूराम उनके ऑफर को ठुकराकर वापिस लौट आए।
समय के साथ एक बार फिर तकनीकी में बदलाव आया। मोनोटाइप मशीनों का स्थान वेरीटाइपर मशीनों ने ले लिया। अब तक हॉट मैटल प्रोसेस याने गर्म धातु से ढलाई होती थी। उसकी जगह कंप्यूटर आधारित प्रक्रिया आ गई जो कुछ-कुछ फोटोग्राफी से मिलती-जुलती थी। इसमें एक फिल्म के निगेटिव पर शब्द और पृष्ठ का संयोजन होकर उसके पॉजीटिव से ऑफसेट मशीन पर छपाई होती थी। लीलूराम और हेमलाल ने इस प्रविधि को समझने-सीखने में कोई देरी नहीं की। उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी काम सिखाया। मेरे प्रिय साथी लीलू कंपोजिंग प्रक्रिया के इस तीसरे चरण में भी विभाग प्रमुख का दायित्व कुशलतापूर्वक सम्हालते रहे। जब चौथे चरण में डेस्कटॉप कंप्यूटर का युग आया, तब तक वे शायद रिटायरमेंट की आयु में पहुंच चुके थे। इस नई तकनीक के साथ वे मेल नहीं बैठा सके। उन्हें कोई दूसरा दायित्व भी सौंपा किंतु वह उनके मन-माफिक नहीं था। वे रिटायर होकर चले गए। काफी समय से उनसे मुलाकात नहीं हुई है। हेमलाल डेस्कटॉप पर भी कुछ बरसों तक काम करते हुए हमारे साथ बने रहे। अभी कुछ दिन पहले ही उनके देहांत की सूचना मुझे मिली। कंपोजिंग विभाग की यह कहानी अभी अधूरी है।
ललित सुरजन
-बापा! आज फिर •ारूरत पड़ गई है। इंग्लैंड से मोनोटाइप मशीन ला रहे हैं। मार्जिन मनी का इंत•ााम नहीं है।
– ये क्या मशीन है? क्यों खरीद रहे हो? किस काम आएगी? कितनी कीमत है?
– इस मशीन से कंपोजिंग होगी। एक शिफ्ट में आठ आदमियों के बराबर काम करेगी।
– मतलब तुम सात लोगों को नौकरी से निकाल दोगे?
– नहीं बापा। मशीन पर दो आदमी काम करेंगे। और हम पेज संख्या बढ़ा रहे हैं। निकालेंगे किसी को नहीं, बल्कि अपने लोगों को उस पर ट्रेनिंग देंगे। उनका वेतन बढ़ जाएगा और पेपर भी •यादा अच्छा निकलेगा।
– ठीक है। रकम ले जाओ। लेकिन किसी को हटाना मत।
बापा और बाबूजी के बीच यह संवाद मई-जून 1969 में किसी दिन हुआ। मैं श्रोता की हैसियत से उपस्थित था। बापा याने रूड़ाभाई वालजी सावरिया, जिन्हें रायपुर में रूड़ावाल सेठ के नाम से जाना जाता था। वे साहूकार थे और नहरपारा में उनके स्वामित्व की महाकौशल फ्लोर मिल की अरसे से बंद पड़ी इमारत को हमने एक साल पहले ही फ्लैटबैड रोटरी मशीन आने के साथ किराए पर लिया था। यह कोई पचास साल पुरानी, मोटी दीवालों, इमारती लकड़ी के फर्श और टीन की छत वाली तीन मंजिला, तीन हॉल की इमारत थी। इसे किराए पर लेने में कांग्रेस नेता मन्नालाल शुक्ल ने हमारी सहायता की थी। वे नगरपालिका के पूर्व उपाध्यक्ष एवं उस समय विधानसभा सदस्य थे।
मेरे दादाजी की उम्र के बापा एक दिलचस्प व्यक्ति थे। उन्होंने व उनके सुपुत्र कांतिभाई ने गाढ़े वक्तों में कई बार हमें सहायता दी और कभी खाली हाथ नहीं लौटाया। जब ग्यारह वर्ष बाद हम स्वयं के भवन में आए, तब न जाने कितने माहों का किराया बाकी था जो हमने धीरे-धीरे कर चुकाया। बापा थे तो साहूकार, लेकिन उनके संस्कार गांधीवादी थे। नहरपारा की उसी गली में वे स्वयं जहां रहते थे, वह पुरानी शैली का साधारण दिखने वाला मकान था, जिसमें साज-सजावट की आवश्यकता उन्हें कभी महसूस नहीं हुई। एक दिन प्रेस परिसर में एक फियेट कार आकर खड़ी हो गई। तीनेक माह खड़ी रही। हमारे पास तब कार नहीं थी। बाबूजी ने बापा से निवेदन किया कि यह कार हमें मिल जाए। किश्तों में पैसा चुका देंगे। बापा का उत्तर अनपेक्षित था। जिसकी कार है, वह तकली$फ में है। ईमानदार आदमी है। जिस दिन हालत सुधरेगी, कर्ज की रकम चुकाकर गाड़ी ले जाएगा। गाड़ी बेचकर उसकी इ••ात नहीं उतारूंगा। तकरीबन छह माह बाद वैसा ही हुआ। यह बीते समय की व्यवसायिक नैतिकता का एक उदाहरण है। बापा जैसे लोग शायद तब भी अपवाद ही थे। मोनो मशीन की चर्चा करते-करते यह अवांतर प्रसंग ध्यान आ गया।
इसी सिलसिले में एक और रोचक वाकया घटित हुआ। दुर्ग के ब्यूरो प्रमुख धीरज भैया दफ्तर आए। उनके साथ एक सज्जन और थे। परिचय कराया- ”ये राजनांदगांव के कन्हैयालाल शर्मा हैं। दुर्ग में बैंक ऑफ महाराष्ट्र में अकाउंटेंट हैं। अपने पेपर के मुरीद हैं। मोनो मशीन आयात करने में इनका बैंक अपनी मदद करेगा।ÓÓ शर्माजी ने शाखा स्तर पर सारी औपचारिकताएं रुचि लेकर पूरी करवाई। नागपुर जोनल ऑफिस तक जाकर प्रस्ताव पुणे मुख्यालय अंतिम स्वीकृति हेतु भिजवा दिया। हमारी तवालत बची। इसी बीच बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया। बैंकों का सारा कारोबार कुछ समय के लिए एक तरह से स्थगित हो गया। हमारा आवेदन भी ठंडे बस्ते में चला गया। एक बार फिर हमें अप्रत्याशित रूप से मदद मिली। संघ के मराठी मुखपत्र ”तरुण भारतÓÓ के प्रबंध संचालक भैया साहेब खांडवेकर से बाबूजी का पुराना परिचय था। बाबूजी ने मुझे पत्र देकर उनके पास नागपुर भेजा। भैया साहब ने बैंक के चेयरमैन से बात की और उनसे मिलने मुझे पुणे भेज दिया। मैं चेयरमैन से मिला। उन्होंने पांच-सात मिनट में मुझसे प्रकरण समझा और अधिकारों का प्रयोग करते हुए ऋण प्रस्ताव को तुरंत स्वीकृति दे दी। यथासमय दो मशीनें लंदन से रायपुर आ गईं।
मशीनें आ गईं। उनको चलाने वाले दक्ष सहयोगी भी तैनात हो गए। पुराने लोगों को प्रशिक्षण भी मिल गया। लेकिन मशीन तो मशीन है। नई हो तब भी कभी तो बिगड़ेगी ही और रिपेयरिंग की आवश्यकता भी होगी। मोनोटाइप कंपनी के कलकत्ता (अब कोलकाता) ऑफिस से मैकेनिक बुलाना महंगा पड़ता था, आने-जाने में समय भी लगता था। वक्त पर मैकेनिक न आए तब क्या किया जाए? ऐसे में धीरज भैया ने ही एक और सज्जन को ढूंढ निकाला। भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रेस में श्री अवस्थी नामक सज्जन मोनो मैकेनिक का काम कर लेते थे। हमें जब भी •ारूरत पड़े, धीरज भैया रात-बिरात स्कूटर पर बैठाकर उन्हें भिलाई से रायपुर ले आते थे। अवस्थीजी देशबन्धु परिवार के अतिथि सदस्य बन गए। एक समय वह भी आया जब उन्होंने भिलाई में देशबन्धु की एजेंसी ले ली और इस्पात नगरी में अखबार का प्रसार बढ़ाने में भूमिका निभाई। मैं यहां मोनोटाइप मशीन से जुड़े दो अन्य व्यक्तियों का भी उल्लेख करना चाहता हूं।
मोनोटाइप मशीन में अक्षर ढालने के लिए एक मैट्रिक्स (द्वड्डह्लह्म्द्ब3) या सांचा होता है। पीतल से बने इस सांचे में सारे अक्षर व चिह्न उत्कीर्ण होते हैं, जो सीसे में ढलकर आकार ग्रहण करते हैं। यह सांचा चार-छह माह से अधिक नहीं चलता। अर्थात छठे-छमासे इंग्लैंड से नया सांचा मंगाना पड़ता था, जिसकी कीमत उस समय चालीस ह•ाार रुपए के करीब थी। मेरे कॉलेज जीवन के साथी और पारिवारिक मित्र महेंद्र कोठारी यहां सामने आए। कैमिकल इंजीनियर महेंद्र ने अपने कारखाने में यह सांचा बनाने का प्रयोग किया और काफी हद तक सफल हुए। उनके बनाए सांचे की कीमत पड़ी लगभग ढाई हजार रुपए। यह सांचा तीन माह तक ठीक से चलता था। महेंद्र ने फिर देश में कई हिंदी अखबारों को अपनी बनाई मैट्रिक्स बेची। वैसे इसमें उन्हें कोई खास मुनाफा नहीं हुआ। लेकिन ध्यान आता है कि ”मेक इन इंडियाÓÓ का प्रयोग आज से पचास साल पहले एक युवा इंजीनियर ने सफलता से कर दिखाया था।
मैंने पहले की एक किश्त में बताया था कि फ्लैटबैड रोटरी मशीन में न्यू•ाप्रिंट याने अखबारी काग•ा के पत्ते की बजाय रील या रोल का इस्तेमाल होता था। रायपुर रेलवे स्टेशन पर मुंबई-कोलकाता से वैगन में रोल आते थे। उन्हें वैगन से उतारना, मालधक्के से प्रेस तक लाना मेहनत और सूझबूझ का काम था। बैलगाड़ी में तीन रोल चढ़ाए और उतारे जाते थे। नहरपारा से लगे लोधीपारा के ही भरत नामक युवा मालधक्के पर हमाली करते थे। उनकी एक टीम थी जो हमारे लिए काग•ा के रोल मालधक्के से प्रेस गोदाम तक लाने में जुटती थी। इसी टीम ने हमारी छपाई मशीनों को भी जब मौका आया ट्रकों से उतार कर मशीन रूम में ले जाने तक का काम बेहद सावधानी व कुशलता के साथ किया। मोनो मशीनों को भी स्थापित करने का काम भरत के ही जिम्मे था। मेरे हमउम्र भरत स्वयं बहुत मेहनती थे। वे टीम को निर्देश देने में भी सक्षम और अपने काम के प्रति बेहद जिम्मेदार थे। अब तक की कडिय़ों को पढ़कर पाठकों ने अनुमान कर लिया होगा कि अखबार को चलाने में कितने सारे जनों की, विविध स्तरों पर प्रत्यक्ष और-परोक्ष भूमिका निभाना होती है।
ललित सुरजन
देशबन्धु ने समाचार जगत में विगत साठ वर्षों के दौरान जो साख कायम की है, उसकी बुनियाद में देशबन्धु की संपादकीय नीति के दो तत्व प्रमुख हैं। एक तो पत्र ने प्रारंभ से अब तक एक सुस्पष्ट, संयमपूर्ण और अविरल वैचारिक दृष्टि का पालन किया है। दूसरे- अखबार अपनी संपादकीय प्रयोगधर्मिता के लिए अक्सर चर्चित रहा है। इसके तीन मुख्य घटक हैं। एक-स्थायी स्तंभ और फीचर। दो- विकासपरक रिपोर्टिंग। तीन- ग्रामीण पत्रकारिता। स्थायी स्तंभों की चर्चा करते हुए सबसे पहले हरिशंकर परसाई का नाम आता है। मैं नोट करना चाहूंगा कि 3 दिसंबर 1959 को बाबूजी ने जबलपुर से ‘नई दुनियाÓ का तीसरा संस्करण प्रारंभ किया था। कालांतर में नए प्रबंधन के तहत उसका नाम बदलकर ‘नवीन दुनियाÓ कर दिया गया। उसकी कहानी आगे आएगी। परसाईजी ने बाबूजी के कहने पर 1960 में ”सुनो भाई साधोÓÓ शीर्षक से साप्ताहिक कॉलम लिखना प्रारंभ किया, जो इंदौर, रायपुर और जबलपुर में अनेक वर्षों तक एक साथ छपता रहा।
जबलपुर में ही जब 1963 की रामनवमी पर बाबूजी और उनके समानधर्मा मित्रों ने मिलकर सांध्य दैनिक ”जबलपुर समाचारÓÓ का प्रकाशन शुरू किया तो परसाईजी उसमें ”सबका मुजरा लेयÓÓ शीर्षक से नया स्तंभ लिखने लगे। काफी आगे जाकर जब परसाईजी का अस्वस्थता के कारण बाहर आना-जाना अत्यन्त सीमित हो गया, तब हमारे आग्रह पर उन्होंने ”पूछिए परसाई सेÓÓ शीर्षक से एक और नया कॉलम लिखना स्वीकार किया। इस कॉलम को उन्होंने देखते ही देखते लोकशिक्षण के एक जबरदस्त माध्यम में परिणत कर दिया। इसमें वे पाठकों के आए सैकड़ों पत्रों में से हर सप्ताह कुछ चुनिंदा और गंभीर प्रश्नों के सारगर्भित लेकिन चुटीले उत्तर देते थे। 1983 में प्रारंभ यह कॉलम 1994 तक जारी रहा। कुछ समय पूर्व एक वृहदाकार ग्रंथ के रूप में कॉलम का संकलन छपा, लेकिन किसी अज्ञात कारण से पुस्तक का शीर्षक बदलकर ”पूछो परसाई सेÓÓ रख दिया गया!
मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी होती है कि परसाईजी की लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी अधिक रचनाएं देशबन्धु में ही प्रकाशित हुई हैं। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ कॉलम या व्यंग्य लेखन ही करते थे। समसामयिक घटनाचक्र पर उनकी पैनी न•ार रहती थी और वे महत्वपूर्ण ता•ाा घटनाओं पर वक्तव्य या टिप्पणी जारी करते थे, जो देशबन्धु में ही प्रथम पृष्ठ पर छपती थी। परसाईजी तर्कप्रवीण थे और उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। उनके सामने पुस्तक या पत्रिका का कोई पन्ना खोलकर रख दीजिए। वे एक न•ार डालेंगे और पूरी इबारत को हृदयंगम कर लेंगे। अपनी इस ”एलीफैंटाइन मेमोरीÓÓ याने गज-स्मृति से वे हम लोगों को चमत्कृत कर देते थे। समसामयिक मुद्दों पर वे जो तात्कालिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे, वह भी लोकशिक्षण का ही अंग था। पाठकों की अपनी समझ उनसे साफ होती थी। जो लोग उन्हें सिर्फ व्यंग्यकार मानते हैं, वे उनके व्यक्तित्व के इस गंभीर पहलू की अनदेखी कर देते हैं।
यह एक उम्दा संयोग था कि परसाईजी और बाबूजी दोनों ने 1983 में एक साथ अपने स्थायी कॉलम प्रारंभ किए। बाबूजी ने ”दरअसलÓÓ शीर्षक से सामयिक विषयों पर लेख लिखे। एक तरह से दोनों अभिन्न मित्रों के कॉलम एक दूसरे के विचारों को प्रतिबिंबित करते थे। बाबूजी के अखबारी लेखन की शुरूआत वैसे 1941-42 में हो चुकी थी, जब विद्यार्थी जीवन में उन्होंने वर्धा से हस्तलिखित पत्रिका ”प्रदीपÓÓ की स्थापना की थी। बाद के सालों में एक के बाद एक कई अखबारों की स्थापना व उनके संपादन-संचालन की दौड़धूप में उनका नियमित लेखन बाधित हो गया था। लेकिन बीच-बीच में समय निकालकर जब वे लिखते तो उसमें उनकी गहरी समझ और अंतर्दृष्टि का परिचय मिलता। एक तरफ निरालाजी के निधन पर ”महाकवि का महाप्रयाणÓÓ; दूसरी ओर रुपए के अवमूल्यन, वीवी गिरि के चुनाव; तीसरी ओर किसान ग्राम दुलारपाली पर फीचर आदि उनकी सर्वांगीण संपादकीय दृष्टि के उदाहरण हैं। नेहरूजी के निधन पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का जो त्वरित अनुवाद बाबूजी ने किया, मेरी राय में वह सर्वोत्तम अनुवाद है।
अपने स्तंभकारों की चर्चा करते हुए मैं राजनांदगांव के अग्रज साथी रमेश याज्ञिक का स्मरण करता हूं। रमेश भाई की हिंदी में हल्का सा गुजराती पुट था, लेकिन उनकी लेखन शैली अत्यन्त रोचक और बांध लेने वाली थी। उन्होंने टीजेएस जॉर्ज की लिखी वीके कृष्णमेनन की जीवनी का अनुवाद देशबन्धु के लिए किया था। हमारा एक प्रयोग उन दिनों बहुचर्चित और बहुप्रशंसित हुआ जब रमेश भाई ने गुजराती लेखक अश्विन भट्ट के रोमांचक उपन्यास ”आशका मांडलÓÓ का अनुवाद किया और वह लगातार छब्बीस साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित हुआ। ऐेसे एक-दो अनुवाद उन्होंने और भी किए। उनके साप्ताहिक स्तंभ ”यात्री के पत्रÓÓ को भी पाठकों से भरपूर सराहना मिली। वे उन दिनों अपने व्यापार के सिलसिले में लगातार दूर-दूर की यात्राएं कर रहे थे और उन अनुभवों के आधार पर किस्सागोई की शैली में भारतीय समाज की जीवंत और प्रामाणिक छवि उकेर रहे थे। रमेश भाई ने एक कथाकार के रूप में भी पर्याप्त ख्याति अर्जित की। प्रसंगवश बता दूं कि देशबन्धु में पहिला धारावाहिक उपन्यास 1965-66 में छपा था जो डॉ. सत्यभामा आडिल ने लिखा था। हृदयेश, मनहर चौहान आदि के उपन्यास भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किए।
एक ओर जहां रायपुर व छत्तीसगढ़ में अनेक लेखक नियमित कॉलम के द्वारा देशबन्धु से जुड़े, वहीं जबलपुर में प्रकांड विद्वान प्रो. हनुमान वर्मा ने ”टिटबिट की डायरीÓÓ शीर्षक कॉलम लिखा, कहानीकार-व्यंग्यकार सुबोध कुमार श्रीवास्तव ने भी व्यंग्य का कॉलम हाथ में लिया; उधर सतना में समाजवादी नेता जगदीश जोशी के अलावा लेखक कमलाप्रसाद, देवीशरण ग्रामीण, बाबूलाल दहिया, सेवाराम त्रिपाठी के साप्ताहिक स्तंभ भी अनेक वर्षों तक प्रकाशित होते रहे। छत्तीसगढ़ में रमाकांत श्रीवास्तव, बसन्त दीवान, रवि श्रीवास्तव, कृष्णा रंजन आदि मित्रों ने नियमित कॉलम लिखे। पुरुषोत्तम अनासक्त व परदेसीराम वर्मा के उपन्यास भी धारावाहिक छपे। डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा ने अनेक वर्षों तक ”दो शब्दÓÓ स्तंभ निरंतर लिखा, जो पांच खंडों में दिल्ली से प्रकाशित हुआ। नागपुर के डॉ. विनय वाईकर व रायपुर के प्रो. खलीकुर्रहमान ने महाकवि गालिब के साथ-साथ उर्दू शायरी की श्रेष्ठता से पाठकों को परिचित कराया। मैंने अभी अपने संपादकीय सहयोगियों के लिखे स्तंभों का जिक्र नहीं किया है, और न देश के अनेक मूर्धन्य विद्वान स्तंभकारों का। कहानी अभी अधूरी है।
ललित सुरजन
”कुछ ज्ञान-कुछ विज्ञानÓÓ देशबन्धु का एक लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ था। इसकी परिकल्पना प्रो. वी.जी. वैद्य ने की थी। नामकरण भी उन्होंने ही किया था। प्रो. वैद्य रायपुर के शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। आम अध्यापकों के विपरीत उनकी लिखने-पढऩे में दिलचस्पी थी; वे कैंपस के बाहर की हलचलों में भी दिलचस्पी रखते थे; और खाली समय में भी व्यस्त रहने के कारण निकाल लेते थे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने रविशंकर वि.वि. में छात्रों के लिए फोटोग्राफी की निशुल्क कक्षाएं संचालित कीं। कुछ साल बाद वे पुणे चले गए तो वहां तर्कर्तार्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी की मराठी विश्वकोष परियोजना से जुड़ गए। उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर व लेखक लक्ष्मणराव लोंढे की अनेक मराठी विज्ञान कथाओं का हिंदी अनुवाद देशबन्धु के लिए किया। फिर स्वयं भी हिंदी में विज्ञान कथाएं लिखने लगे, जिसका पुस्तक रूप में प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया। प्रसंगवश, वैद्य साहब के भाई एम.जी. वैद्य भोपाल में प्रतिष्ठित पत्रकार थे, भाभी श्रीमती शकुंतला वैद्य रूसी भाषी की कक्षाएं संचालित करती थीं और इंदौर के सीपीआई नेता अनंत लागू उनकी पत्नी के भाई थे।
सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का चलते-चलते उल्लेख पिछले अध्याय में हुआ है। एक ओर अपने विषय के अधिकारी विद्वान; दूसरी ओर अद्भुत सादगी। वे साधारण सा कुर्ता-पाजामा पहनते थे और साईकिल पर चलते थे। उन्हें अपने पांडित्य पर लेशमात्र भी गर्व नहीं था और धन-दौलत का मोह उन्होंने कभी नहीं पाला। एक बार कार खरीद ली तो वह भी इकलौती संतान बेटी संज्ञा को दे दी। घर-गिरस्ती उन्होंने भाभी श्रीमती उमा महरोत्रा के जिम्मे छोड़ रखी थी, जो इप्टा से जुड़ी रहीं और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी उत्साहपूर्वक भाग लेती रहीं। इस दम्पति ने समाज हित में अनेक काम किए और एक के बाद दोनों की पार्थिव देहें रायपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दी गईं। महरोत्राजी व्यंग्य कविताएं भी लिखते थे, जो मुझे कभी पसंद नहीं आईं। वे अपने ”दो शब्दÓÓ कॉलम में कोई दो शब्द उठाकर उसकी सविस्तार व्याख्या करते थे। यह स्तंभ अनेक वर्षों तक चला। हिंदी भाषा के प्रति प्रेम व रुचि जागृत करने की यह एक अनूठी पहल थी।
समय-समय पर देश की अनेक मूर्धन्य हस्तियों ने देशबन्धु में कॉलम लिखे। इनमें इंद्रकुमार गुजराल, विजय मर्चेंट, जयंत नार्लीकर, के.एफ. रुस्तमजी, अरुण गांधी के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। गुजराल साहब का आशीर्वाद और स्नेह हमें अंत तक मिलता रहा। 7 अप्रैल 2008 को देशबन्धु के दिल्ली संस्करण के उद्घाटन पर वे ही मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने विशाल पुस्तक संग्रह का एक भाग देशबन्धु लाइब्रेरी को भेंट भी किया। वे सामान्यत: अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर अंग्रेजी में लिखते थे, जिसका अनुवाद हमें करना होता था। उपरोक्त सभी महानुभावों के साथ भी यही बात थी। मई-जून 2003 में मुझे डाक से एक मोटा लिफाफा मिला। भीतर एक लेख के साथ साइरस रुस्तमजी का लिखा एक पत्र था- ”मैं के.एफ. रुस्तमजी का पुत्र हूं। वे आपके अखबार के लिए लिखते थे। उनके काग•ाात में उनका यह आखिरी लेख मिला है, जिसे वे समय रहते आपको भेज नहीं पाए। संभव हो तो इसका उपयोग कर लीजिए।ÓÓ अंग्रे•ाी में लिखे पत्र का भाव यही था। महात्मा गांधी के पौत्र अरुण गांधी उन दिनों भारत में ही पत्रकारिता कर रहे थे और उन्होंने भी अपने लेख छापने के लिए सरलता से हामी भर दी थी। अरुण अब अमेरिका में रहते हैं। पिछले साल उनकी पुस्तक आई है- द गिफ्ट ऑफ एंगर। यह पुस्तक बापू के साथ बीते समय में हासिल अनुभवों पर आधारित है। इसमें बापू के जीवन दर्शन की सरल-सुबोध व्याख्या की गई है।
हमारे लेखकों की सूची में एक उल्लेखनीय नाम प्रो. एस.डी. मिश्र का है। वे रायपुर के शासकीय विज्ञान म.वि. में गणित के प्राध्यापक थे और 1964 में तबादले पर अन्यत्र चल गए थे। लेकिन एक गुणी अध्यापक के रूप में उनकी चर्चा उनके पूर्व छात्रों के बीच अक्सर होती थी। प्रो. मिश्र ने 92-93 साल की उम्र में अपने संस्मरण लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया। यह अपने आप में अचरज की बात थी। उनके सुपुत्र डॉ. परिवेश मिश्र ने जब ये संस्मरण मुझे दिखाए तो मैं चकित रह गया। ऐसी सुंदर भाषा, ऐसे रोचक विवरण! गुजरे समय और स्थानों को उन्होंने जीवंत कर दिया। हमने दो बार में उनके संस्मरण 26-26 किश्तों में छापे। पहले ”ग्राउंड •ाीरो से उठी यादें; फिर बेमेतरा से बैरन बा•ाार तकÓÓ। मैं •ाोर देकर कहना चाहूंगा कि हिंदी में ऐसे संस्मरण लिखने वाले लेखक विरले ही होंगे। रायपुर, नागपुर, भोपाल, दमोह इत्यादि अनेक स्थानों पर, यहां तक कि विदेशों में बसे उनके छात्र इन संस्मरणों को खोज-खोज कर पढ़ते। हमसे संपर्क कर उनका पता-फोन नंबर लेते और उनसे बात करते। संस्मरण लिपिबद्ध करने के कुछ समय पहले ही उनकी जीवन संगिनी का निधन हुआ था। लेकिन संस्मरण पढऩे के बाद उनके छात्रों-मित्रों-परिचितों ने जब उनसे संपर्क किया तो उनका अकेलापन कुछ हद तक दूर हुआ।
डॉ. जयंत नार्लीकर रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर तीन दिन के लिए रायपुर आ रहे थे। इंग्लैंड से लौटने के बाद उन्होंने विज्ञान के लोकव्यापीकरण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। मैं उनका तब से प्रशंसक था जब वे 1960 के दशक में कैंब्रिज में फ्रेड हॉयल के साथ खगोलशास्त्र पर शोध कर रहे थे और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति हासिल कर चुके थे। उनका रायपुर आना हमारे लिए एक बड़ी खबर थी। हमने नार्लीकरजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पूरे पेज की विशेष सामग्री प्रकाशित की और तीनों दिन उनके व्याख्यानों को प्रमुखता के साथ छपा। इसी समय लगे हाथ उनके अंग्रे•ाी लेखों को अनुवाद कर छापने की अनुमति भी मांग ली, जो सहर्ष मिल गई। महान क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेंट ने तो अंतरर्देशीय पत्र पर उनके लेख छापने की अनुमति प्रदान की थी। इन सबके लेख नई-नई जानकारियों से भरे होते थे; पाठकों का ज्ञान उनसे बढ़ता था और अखबार की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होती थी। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इनमें से किसी ने भी हमसे न पारिश्रमिक की अपेक्षा की और न मांग की।
जयंत नार्लीकर के प्रथम रायपुर आगमन पर हमने जैसी विशेष सामग्री प्रकाशित की थी, बिलकुल उसी तरह हमने विश्वविख्यात सितारवाद रविशंकर का भी अभिनंदन किया। इस तरह विभिन्न अवसरों पर विशेष परिशिष्ट प्रकाशित करने की एक परंपरा ही देशबन्धु में स्थापित हो गई। याद आता है सितंबर 1979 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई थी। तब हमने कुछ सप्ताह पूर्व ही ऑफसेट मशीन पर छपाई प्रारंभ की थी। बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लेखक-कवि-बैंक अधिकारी ओम भारती उन दिनों रायपुर में पदस्थ थे। ओम की क्रिकेट में भी खासी दिलचस्पी थी। उन्होंने क्रिकेट पर टैब्लाइड आकार में बत्तीस पेज के एक विशेषांक की योजना प्रस्तावित की। भारत में क्रिकेट की जैसी लोकप्रियता है, उसे देखते हुए कहना न होगा कि देशबन्धु का यह क्रिकेट विशेषांक अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और हमें अंक दुबारा छापना पड़ा। इस अंक की बहुत सारी प्रतियां लेकर ओम नागपुर भी गए, जहां एक मैच होना था। वहां वीसीए स्टेडियम में देशबन्धु की धूम मच गई। उसी दौर में हमने शतरंज पर एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू किया। किसी हिंदी दैनिक में यह शायद अपनी तरह का पहला कॉलम था! इसे मुजाहिद खान तैयार करते थे, जो शायद रायपुर तहसील कार्यालय में कार्यरत थे। छत्तीसगढ़ में शतरंज का खेल लोकप्रिय हो चा था, जिसे आगे बढ़ाने में देशबन्धु ने भी एक छोटी सी भूमिका निभाई।
ललित सुरजन
22 अगस्त 2019
अनेक सेवानिवृत्त अधिकारियों ने, जो बड़े-बड़े पदों पर काम कर चुके हैं, आत्मकथाएं लिखी हैं। ये सभी पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी गई हैं और लगभग निरपवाद आत्मश्लाघा से भरपूर हैं। मेरे देखे में एक आरएसवीपी नरोन्हा और दूसरे जावेद चौधरी ही हैं जिनकी आत्मकथा क्रमश: ”ए टेल टोल्ड बाई एन इडियटÓÓ और ”द इनसाइडर्स व्यू : मेमॉयर्स ऑफ ए पब्लिक सर्वेंटÓÓ निज पर केंद्रित होने के बजाय प्रशासनिक काम-काज की बारीकियों में झांकने का अवसर प्रदान करती हैं। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्त और बाद में चार दफे भोपाल क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य बने सुशीलचंद्र वर्मा की ‘कलेक्टर की डायरीÓ शायद किसी वरिष्ठ आईएएस द्वारा हिंदी में लिखी गई एकमात्र आत्मकथा है। इस पुस्तक को धारावाहिक रूप में छापने का सुअवसर भी देशबन्धु को मिला। वर्माजी का अंदा•ो-बयां बेहद दिलचस्प और पुरलुत्$फहै। उनकी रोचक लेखन शैली नरोन्हा साहब की लेखनी के समकक्ष ठहरती है। वर्माजी ने बैतूल, रायपुर जैसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जिलों की कलेक्टरी की और आगे चलकर वे केंद्र में ग्रामीण विकास विभाग के सचिव भी रहे। उनके समान कर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ और •िांदादिली से भरपूर व्यक्ति ने जाने किस अवसाद में डूबकर आत्महत्या कर ली। उनकी मृत्यु एक एंटी-क्लाइमेक्स ही कही जा सकती है!
मेरे स्मृतिपटल पर अनायास कनोज कांति दत्ता का नाम उभरता है। वे बंगाल के किसी नगर से 1955-56 के आसपास भिलाई इस्पात संयंत्र में फिटर जैसे किसी पद पर नियुक्ति पाकर यहां आ गए थे। उन्होंने अपने जीवन के कोई 35 साल इस कारखाने में खपा दिए और रिटायरमेंट के बाद भिलाई में ही बस गए। दत्ताजी ने कारखाने के भीतर और बाहर के जीवन पर एक उपन्यास ”लौह वलयÓÓ शीर्षक से लिखा। मूल बांग्ला से अनुवाद संतोष झांझी ने किया। वे भी भिलाई निवासी हैं। ”लौह वलयÓÓ में इस्पात कारखाने के भीतर का कारोबार कैसे चलता है, इसका बारीकी और विस्तार से वर्णन हुआ है। हिंदी में शायद यह अपनी तरह का एकमात्र उपन्यास है। इसे भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किया। अंग्रेजी में ऑर्थर हैली जैसे लेखकों ने मोटर कार कारखाने, बिजली संयंत्र, एयरपोर्ट, होटल जैसे स्थलों का दो-दो साल तक अध्ययन कर उनपर लोकप्रिय उपन्यास लिखे हैं। यहां तो लेखक ताउम्र उस कारखाने के जीवन को जी रहा है। उनके अनुभव प्रत्यक्ष और प्रामाणिक हैं। मुझे अफसोस है कि ”लौह वलयÓÓ का पुस्तकाकार प्रकाशन नहीं हो पाया। दत्ताजी उसके पहले ही अंतिम यात्रा पर रवाना हो गए। उनकी एक कहानी ”रिक्शावालाÓÓ भी बहुचर्चित हुई थी।
देशबन्धु के इन मित्र लेखकों के अलावा संपादक मंडल के अनेक सहयोगियों ने भी ऐसे नियमित कॉलम लिखे, जिनसे देशबन्धु की पहचान और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। संपादक पं. रामाश्रय उपाध्याय ”एक दिन की बातÓÓ शीर्षक से सप्ताह में छह दिन कॉलम लिखते थे। वे साल में एक बार अपने गांव जाते थे, तभी उनकी लेखनी विराम लेती थी। देश के किसी भी अखबार में सबसे लंबे समय तक प्रकाशित कॉलम के रूप में इसने एक रिकार्ड कायम किया और ”लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्सÓÓ में बाकायदा दर्ज हुआ। पंडितजी वक्रतुंड के छद्मनाम से स्तंभ लिखते थे। वे अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध थे। उनसे मिलने वाले भी घबराते थे कि पंडितजी कहीं उनको ही निशाना न बना दें। एक बार तो उन्होंने बाबूजी के खिलाफ तक लिख दिया था। लिख तो दिया, छप भी गया, लेकिन अगले दिन घबराए कि अब न जाने क्या हो! बाबूजी पंडितजी को नागपुर के दिनों से जानते थे। उन्होंने हँस कर टाल दिया। कुछ समय बाद बाबूजी के किसी मित्र पर तीर चलाया। उन्होंने बाबूजी से शिकायत की तो सीधा उत्तर मिला- भाई! वे तो मेरे खिलाफ तक लिख देते हैं। दुर्वासा ऋषि हैं। पंडितजी स्वाधीनता सेनानी थे। 1942 में भूमिगत हुए। लेकिन स्वाधीनता सेनानी की पेंशन लेना उन्होंने कुबूल नहीं किया। उनकी औपचारिक शिक्षा तो शायद मैट्रिक के आगे नहीं बढ़ी थी, लेकिन वे देश-दुनिया की हलचलों से बाखबर एक अध्ययनशील व्यक्ति थे। वे तीस साल तक हमारे साथ रहे। फिर बेहतर सुविधाओं की प्रत्याशा में एक नए अखबार में चले गए। वहां उनका मोहभंग हुआ तो पत्रकारिता से अवकाश ले लिया। तब उनकी आयु पचहत्तर वर्ष के आसपास थी। हमारे साथ उनका आत्मीय जुड़ाव अंत तक बना रहा।
देशबन्धु के किसी संपादक द्वारा लिखा गया सबसे लोकप्रिय कॉलम ”घूमता हुआ आईनाÓÓ था जिसे हमारे वरिष्ठ साथी, और मेरे गुरु व बड़े भाई राजनारायण मिश्र लिखते थे। दरअसल, इस कॉलम की शुरुआत मैंने की थी, किंतु कुछ ही हफ्तों बाद दा (इसी नाम से वे जाने जाते थे) ने मुझसे कॉलम ले लिया। यह उनकी चुटीली शैली का कमाल था कि सोमवार को ह•ाारों पाठक बेसब्री से ”आईनाÓÓ का इंत•ाार करते थे। इस स्तंभ में वे अधिकतर रायपुर शहर की उन घटनाओं व स्थितियों का सजीव चित्रण करते थे, जो अमूमन लोगों के ध्यान में नहीं आतीं। वे दौरे पर जाते थे तो अपनी सूक्ष्म व वेधक दृष्टि से उस स्थान की तस्वीरें भी उतार लाते थे। (दा पर मैं पृथक लेख लिख चुका हूं। वह मेरे ब्लॉग स्पॉट पर उपलब्ध है)।
सत्येंद्र गुमाश्ता एक और काबिल व विश्वस्त सहयोगी थे। वे 1963 में देशबन्धु से जुड़े और सारे उतार-चढ़ावों के बीच अंत तक साथ बने रहे। कैंसर के असाध्य रोग ने सत्येंद्र को असमय ही हमसे छीन लिया। दुबले-पतले-लंबे सत्येंद्र सरल स्वभाव के धनी थे। अखबार की साज-सज्जा में नए प्रयोग करने का उन्हें बहुत चाव था। वे अक्सर रात को पहले पेज की ड्यूटी निभाते थे। उसी के साथ उन्होंने साप्ताहिक ”रायपुर डायरीÓÓ स्तंभ लिखना प्रारंभ किया। इसमें वे सामान्यत: बीते सप्ताह की प्रमुख घटनाओं का जायजा लेते थे। कॉलम के अंत में वे ”धूप में चलिए हल्के पांवÓÓ के उपशीर्षक से एक विनोदपूर्ण टिप्पणी लिखा करते थे। दरवेश के छद्मनाम से लिखा यह कॉलम भी पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय हुआ। सत्येंद्र हमारे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे, जिन्होंने कोई एक दर्जन देशों की यात्राएं कीं। देशबन्धु की ओर से वे पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका की यात्राओं पर गए। पाकिस्तान तो वे क्रिकेट की टेस्ट सीरीज कवर करने के नाम पर गए थे, लेकिन उनका असली मकसद दूसरा था। वे लाहौर में सुप्रसिद्ध गायिका नूरजहां से मिले, उनका इंटरव्यू लिया। इसी तरह कुछ अन्य हस्तियों से भी उन्होंने मुलाकात की। सिरीमावो भंडारनायक और शेख हसीना से भेंट करने वाले वे प्रदेश के शायद एकमात्र पत्रकार हुए हैं।
देशबन्धु की प्रयोगधर्मिता का एक परिचय इन स्थायी स्तंभों के अलावा नए-नए विषयों पर प्रारंभ कॉलमों एवं फीचरों से मिलता है। मसलन यदि बसन्त दीवान प्रदेश के पहले प्रेस फोटोग्राफर के रूप में साथ जुड़े तो चीनी नायडू ने प्रथम खेल संवाददाता का दायित्व संभाला। कृषि विज्ञान में उपाधि लेकर टी.एस. गगन (प्रसिद्ध उपन्यास लेखक तेजिंदर) संपादकीय विभाग में काम करने आए तो उन्होंने खेती-किसानी पर सवाल-जवाब का स्तंभ शुरू कर दिया, जो ग्रामीण अंचलों में काफी पसंद किया गया। सेवाभावी डॉ. एस.आर. गुप्ता ने हिंदी में स्वास्थ संबंधी मुद्दों पर लेख लिखे तो आगे चलकर अनेक डॉक्टरों ने अपनी-अपनी विशेषज्ञता पर साप्ताहिक या पाक्षिक कॉलम लिखे। निस्संदेह इसमें उन्हें भी लाभ हुआ। रायपुर में ओरियेंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के मैनेजर श्री कुमार की पत्नी श्रीमती श्रेष्ठा ठक्कर एक दिन प्रस्ताव लेकर आईं कि वे महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन पर कॉलम शुरू करना चाहती हैं। उनके कॉलम को पर्याप्त सराहना और हमें एक नया पाठक वर्ग मिला। इन विविध स्तंभों के बीच एक व्यापक जनोपयोगी और गंभीर कॉलम था- अमृत कलश, जिसे पोषण विज्ञान की अध्येता डॉ. अरुणा पल्टा ने कई बरसों तक जारी रखा। इसी तरह दर्शनशास्त्र की विदुषी डॉ. शोभा निगम ने क्लासिक ग्रंथों पर शोधपूर्ण लेखों की माला ”प्राच्य मंजरीÓÓ शीर्षक से लंबे समय तक लिखी।
हमारा एक दैनिक स्तंभ ”दुनिया को जानेंÓÓ सामान्य ज्ञान पर आधारित व विद्यार्थियों के लिए था। इसकी लोकप्रियता अपार थी। लोग घरों में इसकी कतरनों की फाइलें बनाकर रखने लगे, ताकि बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं में या अन्य अवसरों पर काम आ सकें। इसी के साथ हमारे मित्र प्रो. शरद इंग्ले ने विद्यार्थियों के लिए कैरियर गाइडेंस पर एक नियमित स्तंभ लगभग पच्चीस साल तक लिखा। देशबन्धु ने हर साल एक जनवरी को ‘नववर्षांकÓ परिशिष्ट प्रकाशित करने की परिपाटी भी प्रारंभ की। कई साल तक भारत में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी अपना संवाददाता भेजने वाला प्रदेश का एकमात्र अखबार देशबन्धु ही था। बदलते समय के साथ और भिन्न-भिन्न कारणों से अनेक कॉलम बंद हो गए। लेकिन मुझे अच्छा लगता है जब कोई पुराना पाठक मिलता है और अपने किसी प्रिय कॉलम की चर्चा छेड़ देता है। देशबन्धु की असली पूंजी पाठकों से मिली प्रशंसा ही है।
ललित सुरजन
16 सितंबर 1980 का दिन देशबन्धु के इतिहास में, मुहावरे की भाषा में कहूं तो, स्वर्णाक्षरों में अंकित है। दो दिन पहले दा राजनारायण मिश्र को हमने कलकत्ता (अब कोलकाता) रवाना किया था और अब उनसे एक खबर पाने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। दरअसल, प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ”द स्टेट्समैनÓÓ ने ”स्टेट्समैन अवार्ड फॉर एक्सीलेंस इन रूरल रिपोर्टिंगÓÓ की स्थापना उसी वर्ष की थी। श्रेष्ठ ग्रामीण पत्रकारिता के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय ऐसे तीन पुरस्कार पहली बार 1979 में छपी रिपोर्टों पर दिए जाने थे। हमने फरवरी-मार्च 80 में अपने साथियों की लिखी रिपोर्टंे उन्हें भेज दी थीं। जुलाई में एक उत्साहवर्धक सूचना भी उनसे मिल गई थी कि राजनारायण मिश्र की एक रिपोर्ट को पुरस्कार हेतु चुना गया है। यह नहीं बताया गया था कि दा को तीन में कौन सा पुरस्कार मिलेगा। द स्टेट्समैन का स्थापना दिवस 16 सितंबर है और उसी दिन पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया था। शाम को दा का फोन आया तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं था। उनकी रिपोर्ट को प्रथम पुरस्कार मिला था। देश के कोने-कोने से विभिन्न अखबारों से प्राप्त तीन-चार सौ प्रविष्टियों के बीच पुरस्कार मिलने पर गर्व और प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक था।
हमें इस बात का संतोष भी हुआ कि अपने स्थापना काल से लेकर अब तक देशबन्धु ने जिस संपादकीय नीति का वरण किया, उसे राष्ट्रीय स्तर पर और वह भी अपनी पत्रकार बिरादरी के बीच, मान्यता मिली। रॉबर्ट फ्रास्ट की कविता- ”द रोड नॉट टेकनÓÓ एकाएक मानो चरितार्थ हो गई। कविता की पंक्तियां हैं- ”टू रोड्स डाइव•र्ड इन द वुड्स, आई टुक द वन, लैस ट्रॅवल्ड बाई; एंड इट मेड ऑल द डिफरेंस।ÓÓ इसका सरल अनुवाद होगा- वन में दो पगडंडियां फूट रही थीं, मैंने वह चुनी, जिस पर कम लोग ही चले थे, और उसी ने लाया इतना बड़ा फर्क। कम चली राह पर या नई राह खोजने की यह नीति हमने अन्य प्रसंगों में भी अपनाई। फिलहाल ग्रामीण पत्रकारिता की ही चर्चा करें। स्टेट्समैन अवार्ड के पहले वर्ष में ही पहला पुरस्कार हासिल करने से जो शुरूआत हुई, वह लंबे समय तक चलती रही। देशबन्धु के पत्रकारों ने यह पुरस्कार अब तक कुल मिलाकर ग्यारह बार हासिल किया। सत्येंद्र गुमाश्ता ने एक अलग रिकॉर्ड कायम किया। उन्हें अलग-अलग सालों में तीसरा, दूसरा और पहला पुरस्कार मिले। धमतरी के •याउल हुसैनी को शायद दो बार पुरस्कार मिला। इनके अलावा गिरिजाशंकर, नथमल शर्मा, पवन दुबे, प्रशांत कानस्कर, खेमराज देवांगन भी पुरस्कृत हुए।
ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता के प्रति बाबूजी का आग्रह प्रारंभ से ही था। एक समाचार माध्यम के रूप में हमारी भूमिका यदि एक ओर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरूप लोकहित की योजनाओं व कार्यक्रमों की सूचना जन-जन तक पहुंचाना है; तो दूसरी ओर आम जनता की आशा-आकांक्षा, सुख-दु:ख को शासन के ध्यान में लाना भी है। यदि इस दूसरी भूमिका में बहुसंख्यक ग्रामीण समाज के प्रति दुर्लक्ष्य करें तो फिर पत्रकारिता के व्यवसाय में बने रहने का हमारा औचित्य और अधिकार ही क्या है? इसी सोच के अनुरूप हमने ग्रामीण क्षेत्र में अपने संवाददाताओं को लगातार प्रोत्साहित किया, मुख्यालय से वरिष्ठ साथियों को जब आवश्यक समझा, दूरस्थ गांवों तक कवरेज के लिए भेजा तथा अन्य उपाय किए। मैं कह सकता हंू कि अखबारों का कारपोरेटीकरण होने के पहले तक मध्यप्रदेश में देशबन्धु ही ऐसा पत्र था जिसकी रिपोर्टों का तत्काल संज्ञान शासन-प्रशासन में लिया जाता था और उन पर यथासंभव उचित कार्रवाई भी होती थी।
इस दिशा में एक नया प्रयोग देशबन्धु ने 1968 में किया। बिलासपुर के निकट अकलतरा के पत्रकार परितोष चक्रवर्ती को हमने बाकायदा पर्यटक संवाददाता नियुक्त किया। परितोष कोई एक गांव चुनकर वहां जाते थे और दिन-दिन भर रुक जनता से चर्चा के बाद उस स्थान पर विस्तृत फीचर तैयार करते थे। संवाददाता पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर मोल नहीं लेना चाहते थे, उनके लिए यह सुकून की बात थी। वे गांव के प्रभुओं से कह सकते थे कि हैड ऑफिस से पत्रकार आया था। उसने जो लिखा, उस पर हम क्या कर सकते थे। लेकिन मुझे ध्यान आता है कि स्वयं परितोष को एकाधिक बार ऐसे वर्चस्ववादी जनों का विरोध और नारा•ागी झेलना पड़ी थी। आगे चलकर परितोष ने एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में हिंदी जगत में अपनी पहचान कायम की। उन्होंने बांग्ला के दो-तीन उपन्यासों का भी हिंदी रूपांतर किया। किसी बात पर नारा•ा होकर उन्होंने मुझे खलनायक बनाकर भी एक कहानी लिखी थी, लेकिन अभी तीन-चार साल पहले प्रकाशित उनके उपन्यास ”प्रिंटलाईनÓÓ में परितोष ने देशबन्धु के दिनों को मोहब्बत के साथ याद किया है जिसमें मेरे प्रति भी उनका सदाशय ही व्यक्त हुआ है। खैर, यह बात यूं ही याद आ गई।
देशबन्धु की ग्रामीण रिपोर्टिंग के अध्याय में बहुत से स्मरणीय प्रसंग हैं। आदिवासी अंचल कांकेर के हमारे तत्कालीन संवाददाता बंशीलाल शर्मा एक अनोखे पत्रकार थे। वे दूर-दरा•ा के गांवों का नियमित दौरा करते थे और प्रशासन की आंखें खोल देने वाली तथ्यपरक रिपोर्टें लेकर आते थे। उन्होंने अबूझमाड़ के दुर्गम इलाके की एक नहीं, दो बार साइकिल से कठिन यात्रा की थी। शायद दूसरी बार राजनारायण मिश्र उनके साथ थे। पंद्रह दिन की यात्रा में न रहने का ठिकाना, न खाने का। गांव में आदिवासी अपनी सामथ्र्य के अनुसार जैसा सत्कार कर दें, वही स्वर्ग समान। जिस इलाके के सिर्फ पगडंडियों पर चलना हो, वहां साइकिल से यात्रा करना भी दुस्साहस ही था। अबूझमाड़ में सरकार कैसे चलती थी, इसका एक प्रत्यक्षदर्शी अनुभव मेरा अपना है। मई 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अबूझमाड़ का प्रवेशद्वार माने जाने वाले ग्राम ओरछा के प्रवास आईं। मैं रात भर जीप से यात्रा कर वहां पहुंचा था। इंदिराजी का हेलीकॉप्टर उतरा। उन्होंने बड़े प्रेम से आदिवासियों से बातचीत की। ग्राम पंचायत को एक ट्रांजिस्टर भेंट किया। बच्चों को बिस्किट-चॉकलेट बांटे। फिर अमेरिकी सहायता (यूएसएड) से बने एक हैंडपंप का उद्घाटन किया। सच्चाई यह थी कि नीचे छोटे डोंगर की झील से टैंकरों में पानी भरकर ऊपरएक बड़े गड्ढे में भर दिया था। उस पर मोटे-मोटे तखत रख उन पर मशीन खड़ी कर दी थी। इंदिराजी ने हैंडपंप चलाया तो पहले से एकत्र पानी की ही धार उससे निकली। वे जो ट्रांजिस्टर उपहार दे गईं थीं, उसे भी कोई राजस्व कर्मचारी अपने घर ले गया। रिपोर्ट छपी तो ट्रांजिस्टर पंचायत घर में वापिस आया, लेकिन जो बड़ा घोटाला हुआ था, उसका क्या हुआ, पता नहीं चला।
ग्रामीण समाज के साथ हमने सिर्फ समाचार के स्तर पर ही रिश्ता कायम नहीं किया, बल्कि उनके जीवन में बेहतरी लाने की दिशा में भी एक छोटा कदम उठाया। इसकी प्रेरणा मुझे हिंदुस्तान टाइम्स के तत्कालीन संपादक बी.जी. वर्गी•ा से मिली। उन्होंने दिल्ली से कोई 50-60 कि.मी. दूर छातेरा नामक एक गांव को अंगीकृत कर उसकी विकास में भागीदार बनने की अनूठी पहल की थी। हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार छातेरा जाते, वहां की समस्याओं और आवश्यकताओं को समझते और उन्हें संबंधित अधिकारियों के ध्यान में लाते, ताकि समाधान हो सके। इसके लिए हर सप्ताह ”आवर विले•ा छातेराÓÓ शीर्षक से एक कॉलम प्रकाशित होता था। हमने भी ऐसा ही कुछ करने की ठानी। हमारे साथियों ने खोजबीन कर राजिम और चंपारन के बीच लखना नामक गांव का चयन किया। इस गांव के विकास में सहभागी बनने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में मैंने सत्येंद्र गुमाश्ता को मनोनीत किया। वे हर सप्ताह लखना जाते, वहां की स्थितियों का अवलोकन करते और ”हमारा गांव लखनाÓÓ शीर्षक कॉलम में उनका वर्णन करते। वे देशबन्धु की ओर से विभिन्न सरकारी कार्यालयों में भी जाते और गांव की समस्याओं का निराकरण करने अधिकारियों को प्रेरित करते। लखना गांव बरसात में टापू बन जाता था। तीन तरफ महानदी, एक तरफ उसमें मिलने वाला बरसाती नाला। एक पुलिया बन जाने से बारहमासी रास्ता खुल जाता। यह काम हुआ। शिक्षा, स्वास्थ्य, पशुचिकित्सा, दुग्धपालन इत्यादि कई विषयों पर हमारी इस मुहिम ने ध्यान आकर्षित करवाया।
लखना में अब तक बिजली नहीं पहुंची थी। बिजली विभाग से संपर्क साध कर यह काम भी हुआ। गांव में स्ट्रीट लाइट लगा दी गई। मैं उसके दो-चार दिन बाद वहां गया। शाम के समय जब स्ट्रीट लाइट का उजाला फैल चुका था। ग्रामवासियों से हमारी बातचीत हुई। एक जन ने जो बात कही, वह आज तक मेरे कानों में गूंजती है। उसने कहा- ”लाइट आ जाने से हमारी •िांदगी बढ़ गई।ÓÓ अब तक हम सात-साढ़े सात बजे तक घरों में बंद हो जाते थे। अंधेरे में और करते भी क्या। लेकिन अब देखिए, रात के नौ बजे तक लोग-बाग घरों के बाहर बैठे हैं। बच्चे खेल रहे हैं। आदमी-औरत अपनी-अपनी मंडली में बैठे हैं।
अभी दो साल पहले रायपुर रेलवे स्टेशन पर मैं ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़ा था। एक सज्जन आए। आप ललित सुरजन हैं? हां कहने पर वे उत्साहित हुए। अपना परिचय दिया- मैं लखना का हूं। आपके अखबार ने हमारे गांव की तस्वीर बदल दी। उनके दिए इस सर्टिफिकेट को मैंने मन की दीवाल पर मढ़ लिया है।
ललित सुरजन
”अकाल उत्सव समाप्त हो गया’’
मार्च-अप्रैल 1980 में प्रथम पृष्ठ पर एक सप्ताह तक छपी रिपोर्टिंग श्रंृखला का यही मुख्य शीर्षक था। बीते साल छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा था। इधर इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बनकर लौट आई थीं। केंद्र की जनता पार्टी सरकार को तो मतदाता ने नकार ही दिया था; राज्यों में भी जनता पार्टी की सरकारें बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। मध्यप्रदेश भी उन राज्यों में एक था। छत्तीसगढ़ में अकाल की स्थिति को देखते हुए सरकार ने राहत कार्य प्रारंभ कर दिए थे। इंदिरा जी 23 मार्च को एक दिन के हवाई दौरे पर राहत कार्यों का निरीक्षण करने छत्तीसगढ़ आईं। उनका दौरा भारी व्यस्त था। एक दिन में नौ स्थानों पर जाने का कार्यक्रम था। हमने अपने सभी वरिष्ठ साथियों को अलग-अलग स्थान पर कवरेज करने भेजा। मैं स्वयं रायपुर से लगभग 55 कि.मी. दूर संडी बंगला नामक गांव गया। वहां सिंचाई विभाग की एक सौ साल पुरानी निरीक्षण कुटी थी, जिसे बंगला कहा जाता था। इंदिराजी को यहां निकटस्थ जर्वे गांव से गुजरने वाली नहर पर राहत कार्य के अंतर्गत गहरीकरण और गाद निकालने जैसे कामों का स्थल निरीक्षण करना था।
हम इस तरह भिन्न-भिन्न जगहों पर गए। रायपुर के साथी शाम तक लौट आए। दूरदराज के संवाददाताओं ने फोन पर रिपोर्ट दाखिल कर दीं। यह तो सामान्य बात थी। हमने ठीक एक सप्ताह बाद उन्हीं साथियों को दुबारा राहत कार्यस्थल भेजा। देखकर आएं कि एक सप्ताह बाद क्या स्थिति बनी है। सत्येंद्र गुमाश्ता महासमुंद के पास तालाब गहरीकरण स्थल पर गए थे। उन्होंने लौटकर जो रिपोर्ट बनाई वह 8 अप्रैल को छपी। उसका पहला पैराग्राफ कुछ इस तरह था- ”तालाब में जाने के लिए एक कोने में बाकायदा पार फूटी हुई थी। इसी रास्ते से होकर श्रीमती गांधी को तालाब के भीतर ले जाया गया था। वहां मिट्टी के भीतर एक गेंदे की माला अभी भी दबी पड़ी थी। उसके पास ही जमीन पर जमे सिंदूर की लाली और कुछ दूरी पर नारियल की टूटी हुई ताजा खोपड़ी। टीका लगाने और आरती उतारने की याद के लिए यह सब काफी था।ÓÓ इस एक पैराग्राफ ने ही सरकारी कामकाज की तल्$ख हकीकत सामने रख दी थी। हमने इसी वाक्य के आधार पर मुख्य शीर्षक बना धारावाहिक रिपोर्ट छापना शुरू कर दिया। आर.के. त्रिवेदी राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल के सलाहकार थे। बाद में वे केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त बने। राज्य का प्रशासन उनके ही जिम्मे था। वे इस रिपोर्ट को पढ़कर बेहद ख$फा हुए। उन्होंने दिल्ली दरबार तक शिकायत की। लेकिन जिन तक शिकायत गई, वे त्रिवेदीजी के मुकाबले देशबन्धु को बेहतर जानते थे। बात वहीं खत्म कर दी गई।
जिस एक समाचार ने हमें अपने पत्रकार कर्म की सार्थकता के प्रति आश्वस्त किया और जो हमारे लिए गहरे संतोष का कारण बनी, वह 29 फरवरी 1992 को प्रकाशित हुई षी। इस भीतर तक हिला देने वाले समाचार को सरगुजा के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख कौशल मिश्र ने भेजा था। आदिवासी बहुल सरगुजा अंचल की एक दूरस्थ पहाड़ी बसाहट में रिबई पंडो नामक आदिवासी के पोते बाबूलाल की भूख के चलते अकाल मृत्यु हो गई थी। एक-दो दिन बाद इस बच्चे की मां ने भी भूख से दम तोड़ दिया। इनके अंतिम संस्कार के लिए रिबई को अपनी दो एकड़ जमीन दो सौ रुपए में गिरवी रखना पड़ी। खबर छपते ही जिला प्रशासन तो क्या राज्य सरकार और केंद्र सरकार तक हरकत में आई। जिला प्रशासन ने जैसा कि अमूमन होता है खबर पर लीपापोती करने की कोशिश की। आनन-फानन में रिबई पंडो की झोपड़ी में अनाज पहुंचा दिया गया। देशबन्धु पर गलत खबर छापकर सनसनी फैलाने का आरोप भी लगाया गया, लेकिन सच्चाई सामने आ चुकी थी और उसे दबाना मुमकिन नहीं था। सच्चाई जानने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के साथ 7 अप्रैल 1992 को सरगुजा पहुंचे।
सरगुजा की यह खबर तो एक त्रासदी घटित हो जाने के बाद प्रकाशित हुई, लेकिन हमारे संवाददाता खेमराज देवांगन एक ऐसी रिपोर्ट लेकर आए, जिसने तीन ग्रामीण महिलाओं को प्रताडि़त होने से बचा लिया। यह समाचार 20 नवंबर 2001 के अंक में प्रकाशित हुआ। वैसे तो हिंदीभाषी क्षेत्र में स्त्री अधिकारों के मामले में छत्तीसगढ़ अन्य राज्यों से काफी बेहतर स्थिति में है, लेकिन टोनही की सामाजिक कुप्रथा से प्रदेश पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका है। देखा गया है कि किसी बेसहारा, अशक्त, अक्षम महिला पर टोनही (डायन) होने का आरोप लगाकर समाज उसे कई तरीकों से प्रताडि़त करता है। उसे जात बाहर कर देते हैं। गांव से बाहर भी निकाल देते हैं। फिर उसकी संपत्ति पर रिश्तेदार या कोई और कब्जा जमा लेते हैं। उपरोक्त रिपोर्ट छपने के कोई दो-तीन सप्ताह पहले ही एक अन्य गांव में कुछ महिलाओं को टोनही के आरोप में निर्वस्त्र कर गांव की गलियों में घुमाया गया था। इस बीच हमारे संवाददाता को सूचना मिली कि रायपुर से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित बेंद्री गांव में इसी तरह का षडय़ंत्र रचा जा रहा है। खेमराज ने उस गांव जाकर पूरे मामले को समझा और विस्तारपूर्वक रिपोर्ट प्रकाशित की। समाचार का शीर्षक था-”उन्हें आज साबित करना होगा वे टोनही नहीं हैं।ÓÓ समाचार की प्रशासन तंत्र में अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। फौरी कदम उठाए गए और एक अनहोनी होते-होते टल गई। इस रिपोर्ट पर खेमराज देवांगन को स्टेट्समैन का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।
1980-81 में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट इन सबसे अलग मिजा•ा की थी और उसके बनने का किस्सा भी दिलचस्प है। रायपुर के ही एक अन्य अखबार में पाठकों के पत्र स्तंभ में एक चार पंक्तियों का संक्षिप्त पत्र छपा- लुड़ेग के बा•ाार में आदिवासी टमाटर लेकर आते हैं और शाम होते-होते औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। मैंने अपने एक सहयोगी गिरिजाशंकर को कहा कि वे लुड़ेग जाएं और पूरी रिपोर्ट तैयार करें। गिरिजा उसी रात निकल पड़े। रायपुर से रायगढ़ ट्रेन से, वहां से बस-ट्रक जो मिले उससे लुड़ेग- रायपुर से लगभग साढ़े तीन सौ कि.मी. दूर मुख्य मार्ग से कटकर, जशपुर जिले का एक आदिवासी ग्राम। दो दिन बाद लौटकर वे जो रिपोर्ट लाए, वह चौंका देने वाली थी। दो रुपए में पचास किलो टमाटर! आदिवासी अंचल में टमाटर की फसल बहुतायत से होती है। बांस की टोकरियों में भर कई-कई कि.मी. पैदल चलकर आदिवासी लुड़ेग के बा•ाार आते हैं। दिन भर उनका माल कोई नहीं खरीदता। जानबूझ कर। दिन ढलते जब घर जाने का समय हो जाए तो क्या करें? क्या वापिस उतना बोझ लादकर लौटें? तब रांची आदि स्थानों से आए बिचौलिए उनकी मजबूरी का लाभ उठाकर पानी के भाव टमाटर खरीद लेते हैं। जिस दिन यह खबर छपी, उसी दिन नवनियुक्त मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायगढ़ जिले के प्रथम प्रवास पर पहुंचे थे। उन्होंने समाचार देखकर तुरंत कार्रवाई की। घोषणा की कि रायगढ़ जिले में टमाटर आधारित कृषि उद्योग की स्थापना की जाएगी। घोषणा के बाद सरकारी स्तर पर कुछ दिनों तक हलचल होती रही फिर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
ललित सुरजन
12 सितंबर 2019
आज जब कारपोरेट पूंजी ने भारत की अर्थव्यवस्था को बेतरह अपने शिकंजे में जकड़ लिया है और विनिवेश जैसे छलपूर्ण संज्ञा की ओट में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी पूंजी के हवाले करने का षडय़ंत्र लगभग सफल हो चुका है, तब यह स्मरण हो आना स्वाभाविक है कि आज से 50-60 वर्ष पहले सार्वजनिक क्षेत्र के इन्हीं उद्यमों ने भारतवासियों के हृदय में नए सिरे से आत्मविश्वास भर दिया था, मन में नई ऊर्जा का संचार किया था और एक बेहतर भविष्य का स्वप्न हमारी आंखों में तैरने लगा था। छत्तीसगढ़ में पब्लिक सेक्टर के इन उद्यमों के कारण जो परिवर्तन आए, देशबन्धु लंबे समय से उनका साक्षी रहा है।
छत्तीसगढ़ का रेल यातायात उन दिनों दक्षिण-पूर्व रेलवे के अंतर्गत संचालित होता था। जिसका मुख्यालय कलकत्ता में था। बिलासपुर •ाोन की स्थापना तो बहुत बाद में हुई। हम अखबार वालों का काम सामान्यत: रेलवे के जनसंपर्क विभाग से ही पड़ता था। एक वरिष्ठ अधिकारी रघुवर दयाल (आर. दयाल) तब द.पू. रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे। रायपुर के अखबारों में रेलवे से संबंधित कोई भी खबर छपे तो शाम की बंबई-हावड़ा मेल से उसकी कतरन उनके पास चली जाती थी। यदि उस पर कोई स्पष्टीकरण या निराकरण की आवश्यकता हो तो दिन भर में कार्रवाई पूरी कर लौटती मेल से संपादक को उत्तर भेज दिया जाता था। सरकारी काम-काज में ऐसी फुर्ती और जवाबदेही की आज कल्पना करना भी मुश्किल है।
रेलवे के जनसंपर्क विभाग ने 1964 की मई में एक प्रेस टूर का आयोजन किया। वे हमें भिलाई के निकट स्थापित चरौदा मार्शलिंग यार्ड, बिलासपुर डिवीजन की कार्यप्रणाली और बिलासपुर से भनवार टांक तक बिछ रही दूसरी रेलवे लाइन से परिचित कराना चाहते थे। मेरे लिए किसी प्रेस टूर पर जाने का यह पहला अवसर था। मालगाड़ी के डिब्बे में प्रथम श्रेणी की एक बोगी लगा दी गई। तीन-चार दिन तक हमारा ठिकाना उसी बोगी में रहा। चरौदा में हमने देखा कि किस तरह भिलाई इस्पात कारखाने के भीतर वैगनों में माल भराई होती है और मार्शलिंग यार्ड में उन वैगनों को अलग-अलग पटरियों पर डालकर विभिन्न दिशाओं के विभिन्न स्टेशनों के लिए पचास-साठ डिब्बों की मालगाडिय़ां बनाई जाती हैं। खोडरी, खोंगसरा, भनवार टांक जैसे वनक्षेत्र के बीच बसे लगभग निर्जन रेलवे स्टेशनों पर फस्र्ट क्लास की एकाकी कोच में रात बिताना तो एक नया अनुभव था ही, रेल पटरियां बिछाते मजदूरों की गैंग, जंगल में तंबू तानकर बने रेलवे के अस्थायी दफ्तर व इंजीनियरों आदि के आवास, वहीं भोजन का प्रबंध- यह सब भी पत्रकार की कल्पना को पंख लगाने के लिए क्या कम था? मैंने लौटने के बाद दो किश्तों में अपने अनुभव लिखे।
इस अध्ययन यात्रा के दौरान भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों से संक्षिप्त परिचय हो गया था। एकाध माह बाद ही भिलाई में पहली पत्रवार्ता में जाने का अवसर मिला। स. इंद्रजीत सिंह तब संयंत्र के जनरल मैनेजर थे (बाद में इसी को प्रबंध संचालक का पदनाम दे दिया गया)। एफ. सी. ताहिलरमानी मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे और के.के. वर्मा आदि उनके अधीनस्थ अधिकारी। इस पत्रवार्ता में लगे जमघट को देखकर मुझे हैरानी हुई। रायपुर से हम 15-20 पत्रकार, साथ में दुर्ग व राजनांदगांव के सभी पत्रों के संवाददाता। श्री सिंह ने संयंत्र की मासिक प्रगति का विवरण पढ़कर सुनाया, दो-चार सवाल हुए और भिलाई होटल में लंच के साथ पत्रवार्ता समाप्त। उस दिन तो नहीं, लेकिन बाद में मैंने श्री ताहिलरमानी को पत्र लिखा कि इस मासिक पत्रवार्ता में हमारे दुर्ग प्रतिनिधि ही भाग लेंगे; रायपुर-राजनांदगांव से कोई नहीं आएगा। धीरे-धीरे अन्य अखबारों ने भी यह पद्धति अपना ली। ध्यान दीजिए कि उस समय तक भिलाई में किसी भी अखबार का दफ्तर या रिपोर्टर तैनात नहीं था। दुर्ग-भिलाई की पहचान एक जुड़वां शहर के रूप में थी।
खैर, भिलाई के जनसंपर्क विभाग की कार्यदक्षता और तत्परता भी गौरतलब थी। जितना में समझता हूं इसकी नींव श्री ताहिलरमानी ने ही डाली थी और उससे स्थिर करने का काम प्रदीप सिंह ने किया। भिलाई के बारे में कोई भी खबर छपे, तुरंत उस पर आधिकारिक प्रतिक्रिया आ जाती थी। जनसंपर्क विभाग पर ही आम नागरिकों को संयंत्र का अवलोकन याने गाइडेड टूर कराने का दायित्व था। छत्तीसगढ़ में जो मेहमान आते थे, उन्हें भिलाई देखने की उत्सुकता होती थी और मेजबानों को भी चाव होता था कि उन्हें भिलाई स्टील प्लांट तथा मैत्रीबाग घुमाने ले जाएं। भिलाई की टाउनशिप भी अपने आप में आकर्षण का केंद्र थी। उस समय की एक मार्मिक खबर कुछ-कुछ याद आती है। एक रशियन इंजीनियर की आकस्मिक मृत्यु मैत्रीबाग से लगे मरौदा जलाशय में हो गई। उसका तेरह साल का बेटा कार लेकर अस्पताल भागे-भागे आया। सबको आश्चर्य हुआ कि इतने छोटे से लड़के ने कैसे कार चला ली!
बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना और उसी क्षेत्र में निर्माणाधीन डी.बी.के. रेलवे (किरंदुल-विशाखापटट्नम लाइन) पर चल रहे काम को देखना भी कम रोमांचक नहीं था। उन दिनों जगदलपुर में होटल भी नहीं थे। रायपुर से जगदलपुर की सिंगल लेन सड़क पर, बीच-बीच में लकड़ी के पुलों से गुजरते हुए दस घंटे में यात्रा पूरी हुई थी। गीदम-दंतेवाड़ा तब छोटे-छोटे गांव थे। एक रात हमने भांसी बेस कैंप में तंबुओं में ही गुजारी थी। मई माह में भी रात को कंबल ओढऩे की •ारूरत पड़ गई थई। किरंदुल का मानो तब अस्तित्व ही नहीं था। भांसी से हम जीप से ऊपर डिपाजिट-12 तक गए थे, जहां उत्खनन प्रारंभ होने वाला था। मैं देख रहा था कि कितने ही लोग सामान की बोरियां उठाए धीरे-धीरे पैदल ऊपर चढ़ रहे हैं। उस दिन पहली बार डिपॉजिट-12 पर साप्ताहिक बा•ाार लगने वाला था। इसके अलावा हमारे पत्रकार दल ने नई रेल लाइन बिछाने के काम का भी अवलोकन किया। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से विस्थापित जनों की एक बस्ती दंडाकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत बस्तर में बसाई गई थी। उनमें से कई लोग रेलवे लाइन पर काम कर रहे थे। वरिष्ठ साथी मेघनाद बोधनकर व मैं उनकी कॉलोनी में गए। विपरीत परिस्थितियों के बीच भी उनकी जिजीविषा, परिश्रम, सुरुचिसंपन्नता को उन्होंने जैसे संजोकर रखा था, उससे हम बेहद प्रभावित हुए थे।
कुछ साल बाद शायद 1972 में एक पे्रस टूर में कोरबा जाने का अवसर मिला, जहां बाल्को (जिसे वाजपेयी सरकार ने वेदांता को बेच दिया) के एल्युमीनियम संयंत्र के निर्माण का शुरुआती काम चल रहा था। बाल्को के पहले इंजीनियर आर.पी. लाठ तथा कार्मिक प्रबंधक दामोदर पंडा से पहली बार भेंट हुई। श्री पंडा हमारे पथप्रदर्शक थे और श्री लाठ से आगे चलकर हमारी पारिवारिक मित्रता हुई। देश के नक्शे पर कोरबा एक औद्योगिक नगर के रूप में उभरने के पहले चरण में था। भिलाई, चरौदा, भनवार टांक, भांसी डिपाजिट-12, कोरबा, इन सभी स्थानों पर एक नया भारत मानो अंगड़ाई लेकर उठ रहा था। अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी ने भारत के आत्मबल, उद्यमशीलता, साहसिकता को नष्ट कर दिया था। उसके विपरीत एक नई फिजां बन रही थी। देशबन्धु में हमें संतोष था कि हम इस परिवर्तन के गवाह बन रहे हैं। आज जब बात-बात पर सार्वजनिक उद्योगों की निंदा और निजी क्षेत्र की वकालत होती है तो ऐसा करने वालों की समझ पर तरस आता है। क्योंकि हमने देखा, लिखा और छापा है कि सार्वजनिक क्षेत्र ने अपनी गलतियों व कमजोरियों के बावजूद एक सशक्त देश की बुनियाद रखने में कितनी महती भूमिका निभाई है।
ललित सुरजन
हमने सीखा था कि एक फोटो एक ह•ाार शब्दों के बराबर होता है। इस सीख का दूसरा पहलू था कि तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं। उन दिनों टीवी नहीं था। सोशल मीडिया भी नहीं था। तस्वीर की फोटोशॉपिंग कर झूठ को सच या सच को झूठ सिद्ध करने की गुंजाइश नहीं थी। महानगरों से प्रकाशित पत्रों में बेहतरीन फोटो छापने की होड़ होती थी। एक अच्छे फोटो से समाचार में निखार आता, पेज की सजावट में वृद्धि होती और पाठक को भी चाक्षुष आनंद मिलता। अखबार पर उनका भरोसा भी बढ़ता। लेकिन रायपुर-जबलपुर जैसे आंचलिक केंद्रों से प्रकाशित अखबारों के सामने व्यवहारिक अड़चन थी। अच्छी से अच्छी तस्वीर खींचकर ले आएं लेकिन उसे छापें कैसे? अखबारी भाषा में जिसे ”ब्लॉकÓÓ कहते थे, उसे बनाने की सुविधा इन स्थानों पर नहीं थी। ब्लाक याने सीसे में ढालकर लकड़ी पर मढ़ी गई फोटो की प्रतिकृति। उन दिनों हम जैसे सभी अखबार महत्वपूर्ण व्यक्तियों के पासपोर्ट आकार के फोटो के ब्लाक बाहर से बनवाकर अपने कंपोजिंग कक्ष की आलमारी में तरतीबवार जमा कर रख लेते थे। किसी व्यक्ति से संबंधित समाचार के साथ फोटो देना आवश्यक समझा तो उसका ब्लाक निकालकर पेज में सजा दिया। छपाई के बाद ब्लाक वापिस आलमारी में।
इस प्रक्रिया में कभी-कभार मनोरंजक स्थिति उत्पन्न हो जाती। एक बार विनोबा भावे से संबंधित समाचार देना था तो उनकी जगह रायपुर के प्रतिष्ठित शिक्षक आचार्य सुधीर कुमार बोस का फोटो लग गया। जब रॉबर्ट कैनेडी की हत्या हुई तो जॉन एफ. कैनेडी का फोटो लगाया और अपनी अक्लमंदी का परिचय देते हुए शीर्षक दिया- अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कैनेडी, जिसके भाई रॉबर्ट कैनेडी की भी हत्या कर दी गई। एक बार तो हद हो गई। वरिष्ठ राजनेता और राज्य के तत्कालीन शिक्षामंत्री शंकरदयाल शर्मा के स्थान पर हकीम वीरूमल आर्यप्रेमी की तस्वीर का ब्लाक लग गया। 60-70 के दौरान हकीम वीरूमल और एक डॉक्टर आ•ााद के आधा-आधा पेज के विज्ञापन उनके छत्तीसगढ़-प्रवास के दिनों में छपा करते थे। गलत फोटो इसलिए लग गया क्योंकि डॉ. शर्मा और हकीमजी दोनों के ब्लॉक कई बार छपने के कारण घिस गए थे और सिर्फ टोपी और गोलमटोल चेहरा का साम्य देखकर अनुमान से ब्लॉक चुन लिया गया। नवीनतम तकनीकी के प्रयोग के बाद भी अखबारों में गलतियां किसी न किसी रूप में होती ही हैं। ऐसी चूकों के चलते जगहंसाई होती है। अपने आप पर गुस्सा आता है। उन पर पाठकों व संबंधित पक्षों से माफी मांगने के अलावा और कोई उपाय नहीं होता।
आमतौर पर पाठक या तो अखबार के संपादक को उसका नाम प्रतिदिन छपने के कारण जानते हैं या फिर प्रकाशन स्थल सहित अनेकानेक केंद्रों में नियुक्त संवाददाताओं को उनके सामाजिक संपर्कों के कारण। संपादकीय कक्ष में दिन या रात पाली में कई-कई घंटे बैठकर अखबार की पृष्ठ सज्जा व उसे अंतिम रूप देने वाले डेस्क संपादक अमूमन पृष्ठभूमि में ही रहे आते हैं। सलीम-जावेद के पहले संवाद लेखकों को कौन जानता था? इनकी भूमिका पर बाद में लिखूंगा, लेकिन संवाददाताओं के कारण यदि कभी पाठकों की भूरि-भूरि प्रशंसा मिलती है तो कभी विचित्र स्थिति भी पेश आ जाती है। उदाहरण के लिए यह सच्चा किस्सा सुन लीजिए। यह सन् 65-66 की बात होगी। पंडरिया (कबीरधाम •िाला) के संवाददाता एक दिन गुस्से में भरकर प्रेस आए। दरयाफ्त किया- उनके भेजे समाचार कई दिन से नहीं छप रहे हैं। क्या बात है? प्रांतीय डेस्क के प्रभारी ने उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया- आप रो•ा-रो•ा थानेदार के खिलाफ समाचार क्यों भेजते हैं? एक-दो बार छाप दिया, लेकिन हर दिन तो ऐसा नहीं कर सकते। इस पर उनका उत्तर खासा दिलचस्प था। थानेदार रोज मेरे घर के सामने से निकलता है। मुझे देखकर भी नमस्ते नहीं करता। ऐेसे में गांव में मेरी क्या इज्•ात रह जाएगी? मैंने संवाददाता महोदय को समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने। अंतत: कुछ दिनों बाद हमें उनके स्थान पर दूसरा व्यक्ति नियुक्त करना पड़ा।
दरअसल, भारतीय समाज अखबारनवीसों को विशिष्ट श्रेणी का नागरिक मानकर चलता है। और भला ऐसा क्यों न हो? गांधी, नेहरू, तिलक, सुभाष, राजाजी सबने तो स्वाधीनता संग्राम में अखबार निकालकर अपनी कलम के जौहर दिखलाए थे। उनका असर आज तक चला आ रहा है। कोई व्यक्ति अपने किसी काम के लिए राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजता है तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, कलेक्टर के अलावा उसकी प्रति ”समस्त अखबारों कोÓÓ भेजी जाती है। पत्रकारों के पास नागरिक अपने दुख-दर्द सुनाने आते हैं, उनसे अक्सर भयभीत रहते हैं और अखबार वाले क्या नहीं कर सकते के मिथक में भी विश्वास रखते हैं। ऐसे में यदि एक ग्रामीण संवाददाता यदि थानेदार को नमस्कार करने के बजाय उससे पहल करने की अपेक्षा करे तो इसमें उसका क्या दोष है? एक और सच्चा किस्सा सुन लीजिए। रायपुर का एमजी रोड एक समय ”वन वेÓÓ था। किसी हड़बड़ी में मैं गलत दिशा में गाड़ी ले गया। ट्रैफिक सिपाही ने रोका। चालान काटने के लिए नाम, पिता का नाम पूछा। पता देशबन्धु सुनते ही वह रुक गया। वही अखबार जिसके राजनारायण मिश्र मालिक हैं! हां भाई। वही मेरे बॉस हैं। ठीक है। जाओ। आगे से ध्यान रखना।
हम पत्रकारों को इससे एकदम विपरीत स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। दफ्तर में मेरा कक्ष काफी छोटा है। एक दिन धड़धड़ाते हुए सात-आठ लोग कमरे में घुस आए। आप ही संपादक हैं? हां। आज आपने मेरे बारे में कैसे छाप दिया कि मैं शहर का कुख्यात गुंडा हूं। कहते हुए पेपर पटक दिया। मैंने देखा- बीते दिन किसी पुलिस कार्रवाई के सिलसिले में नाम के साथ विशेषण छपा था। मैंने पूछा- इसमें गलत क्या लिखा है? तुम अपने साथियों को लेकर धमक पड़े हो तो यह क्या है? मैं तुम्हें देख लूंगा। ठीक है, उसके लिए प्रतीक्षा क्यों? मैं तो यहीं अकेला निहत्था बैठा हूं। जो चाहो कर लो। उसका दिमाग थोड़ा ठंडा हुआ। मेरी बेटी स्कूल में पढ़ती है। उसे सहेलियों ने आज उल्टी-सीधी सुनाई। अगर बेटी के बारे में इतनी सोचते हो तो ऐसे काम ही क्यों करते हो? मैं उस लड़के के पिता को जानता था। उन्होंने सुनील दत्त की फिल्म ‘साधनाÓ से प्रेरणा ले विवाह किया था। मैंने उसके पिता की याद दिलाई तो उसका स्वर एकदम नरम हो गया। अपनी बेअदबी के लिए माफी मांगकर वह और उसके साथी चले गए। मुझे मन ही मन डर तो लगा था, लेकिन बाबूजी ने बरसों पहले जबलपुर में इसी तरह दो बार दादा लोगों को शांत किया था, वे प्रसंग मेरे ध्यान में थे।
इन संस्मरणों में खास कुछ भी नहीं है। ये पत्रकारों की सामान्य दिनचर्या के हिस्से हैं। किसी अन्य व्यवसाय में और किसी भी व्यक्ति के जीवन में ऐसे खट्टे-मीठे अनुभव आते होंगे। हम कभी-कभार हवा के घोड़े पर सवार होते हैं तो अक्सर हमें जमीन पर ही चलना होता है। एक समय मैंने नोटिस किया कि पत्रकार मात्र किसी कार्यक्रम में गए तो उचित सत्कार न होने के कारण बहिष्कार करके लौट आए। मैंने देशबन्धु में अपने साथियों को हिदायत दी कि यदि आप किसी आयोजन को व्यापक जनहित में मानकर रिपोर्टिंग करने जा रहे हैं तो काम पूरा करके लौटिए। सुविधाओं की चिंता मत कीजिए। अगर पूरे समय खड़े रहकर कवरेज करना है तो वह भी कीजिए। आखिरकार हम पाठकों के प्रति उत्तरदायी हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार जेम्स रेस्टन के संस्मरणों से मैंने दो बातें जानी थीं। एक- व्हाइट हाउस की पत्रकार वार्ता में अधिकृत संवाददाता ही सामने बैठते हैं। संयोग से यदि प्रधान संपादक भी आ जाए तो वह पीछे खड़ा होगा। दो- जब पत्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ दौरे पर जाते हैं तो अखबार उनका अनुमानित यात्रा व्यय राष्ट्रपति भवन को भेज देता है। मुफ्त की सैर नहीं होती। यह शायद एक कारण है कि अमेरिका में आज भी पत्रकार राष्ट्रपति का विरोध करने का साहस जुटा पाते हैं।
ललित सुरजन
दीपावली विशेषांक का प्रकाशन हमारे लिए एक रोमांचक सालाना अनुभव हुआ करता था। गहमागहमी और भागदौड़ से भरपूर। धनतेरस के दिन विशेषांक की पार्सलें दूर-दूर के केंद्रों तक रवाना करने के बाद जब घर लौटते थे तो थकान से चूर होते थे। लेकिन जब उस विशेषांक की पाठकों और खासकर साहित्यकारों के बीच चर्चा होती थी और प्रशंसा में पत्र मिलने लगते थे तो मन उत्फुल्ल हो जाता था। विशेषांक निकालने का मेरा अपना पहला अनुभव 1963 का था, जब बाबूजी ने नई दुनिया, जबलपुर (अब नवीन दुनिया) छोड़कर सांध्य दैनिक ‘जबलपुर समाचारÓ (अब देशबन्धु, जबलपुर) का प्रकाशन शुरू किया था। प्रदेश के जाने-माने (और नए भी) लेखकों की रचनाएं कई हफ्ते पहले से आने लगी थीं। उन्हें संभालने, चयन करने, क्रम निर्धारण करने, धीमी गति की पुरानी पद्धति से उनकी कंपोजिंग, प्रूफ रीडिंग, पेज मेकअप, रेखाचित्रों का चयन, वैसी ही धीमी गति की ट्रेडल मशीन पर छपाई, मुखपृष्ठ का चयन और छपाई, अंक की जिल्दसाजी, बस और रेल से पार्सल रवानगी: इस पूरी प्रक्रिया में पंद्रह दिन लग गए। मेरे सहयोगी राजेंद्र अग्रवाल और मैं दो हफ्ते घर नहीं गए। जबलपुर के कमानिया गेट के पास नित्यगोपाल तिवारी के चलचित्र प्रेस में ही हमारा डेरा जमा रहा। थक जाने पर न्यू•ाप्रिंट की थप्पियों पर पैर फैलाकर थोड़ी नींद ले लेते थे।
मध्यप्रदेश-विदर्भ के समाचारपत्रों में एक लंबे समय तक दीपावली विशेषांक की परंपरा कायम रही जो शायद 1990-91 के आसपास जाकर टूटी। बांग्ला में पूजा के अवसर पर पत्रों के विशेषांक निकलते थे और मराठी में दीपावली पर कुछेक पत्र तो मात्र वार्षिक अंक ही प्रकाशित करते थे। याद आता है कि लोकप्रिय चित्रकार रघुनाथ मुलगांवकर एक ऐसा सालाना अंक निकालते थे, जिसकी मराठी भाषी पाठकों में अच्छी ख्याति थी। ”किर्लोस्करÓÓ पत्रिका का विशेषांक भी चाव से खरीदा और पढ़ा जाता था। बांग्ला में देश, आनंद इत्यादि पत्रों के पूजा विशेषांक को लेकर तो काफी किंवदंतियां प्रचलित थीं। मसलन, जिस लोकप्रिय लेखक से उपन्यास लिखवाना है, उसे एक माह के लिए होटल के कमरे में ही कैद कर दो। जब पूरा लिख लें तब कैद से रिहाई! देशबन्धु और तब की नई दुनिया के विशेषांकों की प्रतीक्षा इसलिए होती थी, क्योंकि लेखकों-कलाकारों के साथ हमारी स्वाभाविक मैत्री थी और वे प्रसन्नतापूर्वक अपनी उत्तम ताजा रचनाएं विशेषांक के लिए देते थे। हमारे पाठकवर्ग की रुझान भी सदा से सुरुचिपूर्ण साहित्य की ओर रही है।
देशबन्धु (नई दुनिया, रायपुर) के दीपावली विशेषांक की सामग्री का चयन रायपुर में होता था, लेकिन छपाई के लिए सामग्री इंदौर भेजते थे। 1964 में बाबूजी ने मुझे इंदौर भेजा, जहां मैंने लाभचंदजी छजलानी (उन्हें भी बाबूजी कहते थे) के घर पर रहकर तथा उनके और अब्बूजी (अभय छजलानी) के सान्निध्य में प्रेस से संबंधित बहुत सी बातें उन पंद्रह दिनों में सीखीं। फिर दीपावली विशेषांक के ढेर सारे बंडल इंदौर-बिलासपुर एक्सप्रेस की ब्रेकवान में लदान कर उसी टे्रन से वापिस लौटा जहां उत्सुकता के साथ विशेषांक की प्रतीक्षा हो रही थी। उस साल मुखपृष्ठ पर पंडित नेहरू का चित्र था, जो सुप्रसिद्ध चित्रकार विष्णु चिंचालकर ने बनाया था। उसी अंक में या शायद अगले साल सिने जगत के जाने-माने कला निदेशक माधव आचरेकर का एक लेख ताजमहल पर था। इस लेख में उन्होंने अत्यन्त रोचक ढंग से ताजमहल के स्थापत्य की तकनीकी खूबियां समझाईं थीं कि ताज यदि विश्व की सर्वाधिक मनोहारी इमारत है तो उसके क्या कारण हैं।
यह उन दिनों की बात है जब अविभाजित मध्यप्रदेश में द्विवेदी युग से लेकर मुक्तिबोध मंडली तक के अनेक वरेण्य लेखकों की उपस्थिति प्रदेश के साहित्यिक परिदृश्य पर थी। इनमें से लगभग हरेक के साथ बाबूजी के आत्मीय संबंध थे। उनके लिए देशबन्धु अपना ही अखबार था और हमें भी मानों उन पर मनमानी करने का अधिकार प्राप्त था। दीपावली विशेषांक के लिए छह-आठ हफ्ते पहले पत्र भेजा जाता और समय पर उनकी रचना हमें प्राप्त हो जाती। याददिहानी की आवश्यकता नहीं पड़ती। इन रचनाओं को लेखकों के ज्येष्ठता क्रम में विशेषांक में संजोया जाता। मुकुटधर पांडेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रामानुजलाल श्रीवास्तव, भवानीप्रसाद तिवारी, नर्मदाप्रसाद खरे, शैलेंद्र कुमार (नागपुर), ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, पदमा पटरथ, कोमलसिंह सोलंकी, शशि तिवारी, कृष्ण किशोर श्रीवास्तव, प्रमोद वर्मा, हनुमान वर्मा इत्यादि की रचनाएं लगभग इसी क्रम में जमाई जाती थीं। इसी में आगे छत्तीसगढ़ और महाकौशल प्रदेश के अन्य चर्चित लेखकों की रचनाएं ली जातीं। इनके अलावा दो स्थायी स्तंभ होते। पहला- सालभर के वैश्विक घटनाचक्र पर विशेष संपादकीय जिसे पंडितजी, बाद के वर्षों में बसंत कुमार तिवारी लिखते थे। दूसरा- पृथ्वीधराचार्य कृत वार्षिक भविष्यफल जो बेहद लोकप्रिय था। यह दीपावली विशेषांक हमारी पूर्व घोषणा के अनुसार ”संग्रहणीयÓÓ होता था। अनेक पाठक बरसों तक विशेषांकों की प्रतियां अपने निजी पुस्तकालय में संभालकर रखते थे।
दीपावली विशेषांक का प्रकाशन मूलत: एक साहित्यिक उपक्रम था, लेकिन वह व्यवसायिक दृष्टि से भी लाभप्रद था। एक तो अखबार की चर्चा प्रबुद्ध वर्ग के बीच होती, जिससे वर्तमान मार्केटिंग मुहावरे में कहें तो ”ब्रांड इक्विटीÓÓ में इ•ााफा होता। दूसरे पत्र को प्रतिमाह औसतन जो विज्ञापन आय होती थी, उससे दुगनी से अधिक आय इस एक माह में हो जाती थी। याने बारह महीने में तेरह या चौदह माह की कमाई। इस अतिरिक्त आमदनी से बहुत से रुके हुए काम पूरे होते। कुछ कर्जे चुकाए जाते तो नए कर्ज लेने का रास्ता भी खुलता। विज्ञापन लेने के बहाने प्रदेश के वाणिज्यिक क्षेत्र के अनेक जनों से मुलाकात ता•ाा हो जाती। जो विज्ञापन देते, उनमें से अधिकतर निजी संबंधों के आधार पर ही सहयोग करते थे। कुछ के मन यह भावना होती थी कि अपने अखबार की मदद कर रहे हैं तो कुछ की निगाह भविष्य में मौका पडऩे पर अखबार का साथ मिलने की संभावना पर टिकी होती थी। विज्ञापन जुटाने में विज्ञापन विभाग की भूमिका सीमित होती थी। संपादकीय सहयोगी और विभिन्न स्थानों के संवाददाताओं के भरोसे ही काम मुख्यत: होता था। वे इसके लिए एक निर्धारित कमीशन के पात्र होते और यह उनकी अतिरिक्त आय का •ारिया होता। महानगरों के पत्रों में अथवा पूंजीपति घरानों द्वारा संचालित अखबारों में कार्यरत पत्रकार नहीं समझ पाते कि पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने क्यों जाना चाहिए। वे इस कारण से देशबन्धु जैसे अखबारों को शंका की दृष्टि से देखते हैं और उनकी आलोचना भी करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि सीमित साधनों में स्वतंत्र रूप से अखबार निकालना कितना दुष्कर कार्य है। दरअसल, उनकी और हमारी दुनिया बिलकुल अलग है। खैर, यह अलग से विचार करने का विषय है।
रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव आदि औद्योगिक व्यवसायिक गतिविधियों वाले केंद्रों से स्वाभाविक ही आशा के अनुरूप विज्ञापन मिल जाते थे। कई जगह पर संवाददाताओं के निजी संपर्कों के कारण लाभ मिलता। कुछेक स्थानों पर संभावना होने के बावजूद निराशा हाथ लगती, क्योंकि स्थानीय संवाददाता इस दृष्टि से कमजोर होते थे। दीपावली विशेषांक के अलावा 26 जनवरी व 15 अगस्त को प्रकाशित विशेष परिशिष्ट भी पठनीय सामग्री के कारण संग्रहणीय होते तो दूसरी ओर उनसे भी विज्ञापन लाभ होता था। 1966 की दीवाली के पहले मैंने खुद एक लंबी, थकाने वाली यात्रा रायपुर से सरगुजा तक की। रायपुर से रेल से चला, रात रायगढ़ रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में काटी, अगली सुबह चार बजे की बस से अंबिकापुर। उन दिनों वहां जो संवाददाता थे, वे बिलकुल बेपरवाह थे। मेरे प्राध्यापक आदरणीय रणवीर सिंह शास्त्री की सहधर्मिणी श्रीमती स्नेहलता शास्त्री बस में मिल गईं थीं। उनका मायका अंबिकापुर में था। वे स्नेहपूर्वक मुझे अपने घर ले गईं तो घर का चाय-नाश्ता मिल गया। अंबिकापुर में दिन भर घूमने के बाद भी हाथ खाली रहे। निराश होकर देर शाम की बस से पत्थलगांव आया। वहां से रायगढ़ लौटने का कोई प्रबंध नहीं हुआ तो कड़ाके की ठंड में पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में रात गुजारी। लौटती यात्रा में खरसिया, बाराद्वार, सक्ती, चांपा में एक-एक दिन रुका। छत्तीसगढ़ के इन छोटे-छोटे नगरों से इस तरह परिचय लाभ हुआ।
ललित सुरजन
”हमारा मकसद था कि हमारे पाठक हँसें, दुनिया पर, आत्मुग्ध नेताओं पर, पाखंड पर, मूर्खताओं पर और सबसे बढ़कर अपने आप पर। लेकिन वे पाठक कौन हैं जो विकसित विनोद भाव के धनी हैं। ये वे लोग हैं जो एक तरह से सभ्य आचरण करते हैं, जो सहनशक्ति के धनी हैं और जिनमें चुटकी भर करुणा का भाव है।ÓÓ ये पंक्तियां सुविख्यात व्यंग्य चित्रकार के. शंकर पिल्लई ने ”शंकर्स वीकलीÓÓ के अंतिम अंक के संपादकीय में लिखी थीं। शंकर ने 1948 में, बहुचर्चित व अपार लोकप्रिय पत्रिका की स्थापना की थी और आपातकाल लागू होने के दो माह बाद 31 अगस्त 1975 को बंद कर दी थी। इसी संपादकीय में उन्होंने चिंता प्रकट की थी कि भारत के लोगों की विनोदवृत्ति क्षीण होते जा रही है। हम अपने पर हँसना भूल गए हैं।
देशबन्धु के दीपावली विशेषांक के आगे जब मैं पत्र के होली पर प्रकाशित विशेष परिशिष्ट की चर्चा करने की सोच रहा था, तब अचानक ही शंकर का यह प्रसंग याद आ गया। हमारे राष्ट्रीय जीवन में सहनशीलता जिस तरह निरंतर घटती जा रही है, उसमें भी भारत में राजनैतिक कार्टून की परंपरा स्थापित करने वाले शंकर का ध्यान आता तो स्वाभाविक होता; लेकिन अभी हमारी बात अपने अखबार तक सीमित है। दीपावली विशेषांक की रचनाओं में जहां विचार वैभव और साहित्यिक आभा के दर्शन होते, वहीं होली के अवसर पर प्रकाशित विशेष परिशिष्ट में शिष्ट हास्य, चुलबुलापन, रंगों की छटा और सरसता का समावेश देखने मिलता। सामान्य दैनिक अंक की तुलना में इसमें चार-छह पृष्ठ अतिरिक्त होते, लेकिन प्रकाशित सामग्री होली के रंगों को कुछ और गाढ़ी कर देती। इस दिन की तैयारी भी हम हफ्ता-दस दिन पहले से करने लगते थे। राजू दा, रम्मू भैया, सत्येंद्र और अन्य साथी दिमागी घोड़े दौड़ाने लगते कि ऐसा क्या किया जाए जिससे अंक अधिक से अधिक पठनीय हो सके। प्रभाकर चौबे भी इस टीम का अभिन्न अंग होते थे।
पाठकों को जानकर सुखद आश्चर्य हो सकता है कि देशबन्धु के होली विशेषांक में एक व्यंग्य रचना संस्थापक-संपादक मायाराम सुरजन पर निशाना साधते हुए लिखी जाती। इसे शुरूआती सालों में अमूमन रम्मू श्रीवास्तव लिखा करते थे। पत्र के पाठकों के साथ स्वयं बाबूजी इस फीचर का म•ाा लेते थे और लेखक को बधाई भी देते थे। यह देशबन्धु में जनतांत्रिक परंपरा का ही एक उदाहरण था, जिसकी कल्पना किसी अन्य मीडिया प्रतिष्ठान में तब भी नहीं की जाती थी। इसके अलावा होली के दिन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर बहुत सोच-समझ कर सच्ची प्रतीत होने वाली झूठी खबरें भी छपती थीं। हम समाचार में कहीं भी ”होली समाचारÓÓ जैसा संकेत नहीं देते थे। बस, एक बॉक्स अलग से छपता था कि आज के अखबार में झूठी खबरें भी हैं। जो समझ जाएं वे हंस, और जो न समझ पाएं वे कौव्वे। वह अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण समय था। वातावरण में शंका-कुशंका की गुंजाइश आज के मुकाबले कहीं कम थी तो हमारी यह अराजक पत्रकारिता चल जाती थी। उसकी साधारणत: कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया समाज में नहीं होती थी।
होली के विशेष परिशिष्ट में पाठकों को सबसे अधिक इंत•ाार रहता था उपाधियों का। देश-प्रदेश की गणमान्य व चर्चित हस्तियों को उनके ज्ञात-कमज्ञात गुण-दोषों के आधार पर चुन-चुनकर उपाधियां दी जाती थीं। ये उपाधियां अशआरों की शक्ल में होती थीं। अयोध्याप्रसाद गोयलीय और प्रकाश पंडित द्वारा संपादित उर्दू शायरी के संकलन संपादकीय डेस्क पर रखे जाते। $गालिब, मीर, सौदा, •ाौक, $िफराक, कतील शिफाई, नून नीम-राशिद और न जाने कितने समर्थ शायरों की ग•ालों में से शेर ढूंढे जाते। रम्मू भैया और प्रभाकर स्वयं समर्थ व्यंग्यकार थे तो उनकी स्वरचित पंक्तियां भी यथास्थान फिट की जातीं। इन उपाधियों की कई-कई दिनों तक बा•ाार में चर्चा होती। बारहां लोग शिकायत तक करते कि भाई, आपने हमको उपाधि क्यों नहीं दी। रायपुर-जबलपुर के सामाजिक जीवन का यह एक पुरलुत्$फ पहलू था। लेकिन अफसोस, एक समय आया, जब हमने इस ढंग से होली मनाना छोड़ दिया। जिनके मनोविनोद के लिए लिख रहे हैं, वे ही अगर न समझ पाएं तो क्या फायदा! जिस तरह शंकर ने एक दिन शंकर्स वीकली बंद कर दिया, उसी तरह हमने भी होली परिशिष्ट की परिपाटी स्थगित कर दी।
होली, दीवाली, गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस पर विशेषांक अथवा परिशिष्ट का प्रकाशन वार्षिक उद्यम था तो हर रविवार साप्ताहिक अंक का संयोजन ऐसा उपक्रम था जिसमें रचनात्मक प्रतिभा का समादर होता और हमें दैनंदिन काम से हटकर मानसिक संतोष मिलता। दरअसल, अनेक हिंदी अखबारों में संपादक के बाद साहित्य संपादक का नाम ही वरीयता क्रम में प्रमुख होता था। नवभारत में शिवनारायण द्विवेदी का नाम बाकायदा साहित्य संपादक के रूप में छपता था। संघ के मुखपत्र युगधर्म की प्रतिष्ठा बड़ी हद तक साहित्य संपादक रामकुमार भ्रमर के कारण थी। हमारे यहां तो लगभग हर संपादक अपने अधिकार में साहित्यकार था, सो नाम किसी का नहीं छपता था और अंक संयोजन भी किसी एक की जिम्मेदारी नहीं थी। देशबन्धु के रविवासरीय अंक का नामकरण काफी बाद में हमने अवकाश अंक कर दिया था। एक अखबार ने इस शीर्षक की नकल भी की, लेकिन कुछ माह बाद वे पुराने ढर्रे पर लौट गए।
साप्ताहिक अंक, रविवासरीय अंक या अवकाश अंक में हमारी कोशिश होती थी कि नई प्रतिभाओं को अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाए। इस अंक में नवाचार की भी बहुत गुंजाइश थी, जिसका इस्तेमाल करने में कोई कमी नहीं की। इस बात का जिक्र मैंने लेखमाला की शुरुआती किश्तों में किया है। 1980 के आसपास रायपुर की कुछ युवा प्रतिभाओं ने एक पहल की, जो इसी साप्ताहिक अंक से लागू हुई। जयंत देशमुख, अरुण काठोटे और उनके साथी कलाकारों ने कविता पोस्टर बनाने की बात सोची। कोई एक अच्छी कविता ली, उसे रंगों और रेखाओं के संयोजन के साथ खुश$खत में लिखा और वह ”कविता चौराहे परÓÓ शीर्षक के स्थायी स्तंभ के रूप में अवकाश अंक के पहले पन्ने पर प्रकाशित होने लगी। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चला। इन नौजवान कल्पनाशील संस्कृतिकर्मियों ने उस पोस्टर को रायपुर के जयस्तंभ चौक जैसे प्रमुख स्थानों पर प्रदर्शित करने की पहल भी की। यह साहित्य को जनता के पास ले जाने की एक उम्दा कोशिश थी, जिसे हमने भरपूर सहयोग दिया। एक और उल्लेखनीय प्रसंग का जिक्र करना चाहूंगा। प्रो. खलीकुर्ररहमान ”लेट अस लर्नÓÓ शीर्षक से अंग्रे•ाी भाषा पर और ”एक शेरÓÓ शीर्षक से उर्दू साहित्य पर लिखते थे ये दोनों कॉलम एक साथ अवकाश अंक में छपते थे।
देशबन्धु के साहित्य परिशिष्ट के माध्यम से छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के अनेक नए रचनाकारों की प्रारंभिक पहचान कायम हुई, उनमें से कई की आज देश के जाने-माने लेखकों में गणना होती है। मुझे आंतरिक प्रसन्नता होती है जब कोई लेखक अपने साक्षात्कार आदि में जिक्र करता है कि उसकी पहली रचना देशबन्धु में छपी थी। इस सिलसिले में आकाशवाणी, रायपुर के एक केंद्र निदेशक स्व. हेमेंद्रनाथ की स्मृति अनायास मानस पटल पर दस्तक देती है। हेमेंद्रजी सजग साहित्य रसिक थे। वे देशबन्धु में किसी ने लेखक की रचना पढ़ते तो फोन कर उसका पता-ठिकाना मुझसे मांगते और अगले दिन याने सोमवार को उस लेखक को आकाशवाणी से रचना पाठ का आमंत्रण पत्र चला जाता। कहना होगा- गुन न हिरानो, गुन गाहक हिरानो है। हीरे तो आज भी मौजूद हैं, उन्हें तराशने वाले गुम हो गए हैं।
ललित सुरजन
17 अक्टूबर 2019
देशबन्धु में हमारी रुचि दीपावली विशेषांक के प्रकाशन में तो रहती थी, लेकिन दीवाली पर लक्ष्मीपूजन जैसे कर्मकांड में हमें न पहले दिलचस्पी थी, और न आज है। अलबत्ता जबलपुर में बाबूजी होली की शाम एक रंगारंग कार्यक्रम रखते थे और रायपुर में स्थापना दिवस रामनवमी पर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन सड़सठ-अड़सठ से करने लगे थे। इन दोनों में स्थानीय लेखक-कलाकार-रसिकजन बड़ी संख्या में शामिल होते थे। इस रवायत का एक संक्षिप्त अपवाद 1968 में हुआ। उसी साल पे्रस में पहिली फ्लैटबैड रोटरी मशीन लगी थी और जगह की •ारूरत को देखते हुए हम बूढ़ापारा छोड़कर नहरपारा आ गए थे। उस साल दीवाली पर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि घर पर मैं अकेला था। बाबूजी सहित परिवार के सारे सदस्य जबलपुर में थे। प्रेस के साथियों का त्यौहार ठीक से मन जाए, इसकी भरसक व्यवस्था व्यवस्था हमने की थी। मुझे अपने अकेले के लिए कोई खास आवश्यकता थी नहीं। इसलिए व्यवस्था में कुछ कसर बाकी रह गई तो जो छोटी-मोटी राशि मेरे पास बची थी, वह भी जेब से निकल गई। ऐसी परिस्थिति में रहने का पुराना अभ्यास था, इसलिए कोई चिंता नहीं हुई।
उन दिनों अखबारों में दीपावली पर तीन दिन का अवकाश रहता था। धनतेरस पर दिन का वक्त तो विशेषांक की थकान उतारने में बीत जाता था, लेकिन उसके बाद खाली समय बिताना मुझ जैसी बेचैन आत्मा के लिए कठिन होता था। खैर, तो 1968 में धनतेरस की शाम को मन में अचानक लहर उठी कि नई जगह, नई मशीन के लिए दीपदान करना चाहिए। मैंने साइकिल उठाई और अपने आत्मीय मित्र जमालुद्दीन के घर जा पहुंचा। जमाल और मैं कॉलेज के सहपाठी थे। रायपुर के दुर्गा म.वि. में 1964 में हमने साथ-साथ एम.ए. हिंदी में प्रवेश लिया था और 66 में पास हुए थे। बाद में उन्होंने एलएलबी किया और वकालत के व्यवसाय में चले गए। एडवर्ड रोड और चूड़ीलाइन के संगम पर जमाल का घर था। नीचे चूडिय़ों की छोटी सी दूकान और ऊपर रिहाइश। मैंने जमाल से इच्छा जाहिर की कि आज प्रेस में दिए जलाए जाएं। उस वक्त दूकान पर अम्मीं बैठी थीं। उनसे जमाल ने पांच रुपए लिए। पास ही गोलबा•ाार में सड़क किनारे किसी दूकान से हमने मोम के दिए खरीदे। उनका चलन नया-नया था। प्रेस जाकर मन की इच्छा पूरी की। दिए जलाकर वापिस आए और अम्मीं के हाथों का बना खाना खाकर मैं घर लौटा।
मुझे इक्यावन साल पुराना यह मार्मिक प्रसंग इस दीवाली पर बेसाख्ता याद आया। यह देश के बहुलतावादी सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता के प्रति देशबन्धु की प्रतिबद्धता की एक बहुत छोटी मिसाल है, लेकिन मुझे लगा कि इसका संदेश जितनी दूर तक संभव हो, पहुंचाना चाहिए। जब दीवाली के दिन शुभकामनाओं के संदेश लगातार आ रहे थे तो उनके उत्तर में इस प्रसंग को ता•ाा करने से मैं स्वयं को नहीं रोक पाया। फेसबुक, व्हाट्सअप पर फिर जो प्रतिक्रियाएं मिलीं, उनसे आश्वस्ति भी हुई कि भारतीय समाज का विश्वास जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद में बरकरार है। यद्यपि उसे पुष्ट करने की आवश्यकता है। बहरहाल, बात उत्सव की खुशियां मनाने की हो रही है तो कुछ अन्य बातें साझा करना उचित होगा। नहरपारा से जब 1979 में हम वर्तमान निज भवन में आए तो स्वाभाविक ही प्रेस में एक नए उत्साह का संचार हुआ। लक्ष्मी की कृपा पर विश्वास रखने वाले कुछेक वरिष्ठ साथियों ने धूमधाम से दीवाली मनाने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन्हें मना नहीं किया।
नए परिसर में दीवाली पर पूजा करने का निश्चय हो गया। एक-दो साथी ऐसे थे, जिन्हें कर्मकांड का आधा-अधूरा ज्ञान था। उन्होंने ही पूजा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। स्टाफ के अनेक सदस्य परिवार के साथ दीवाली की शाम प्रेस आने लगे। पूजा के बाद दिया जलाने और फटाके चलाने का कार्यक्रम होता, जिसमें बड़े और बच्चे सभी उत्साह से भाग लेते। लेकिन यह नई परिपाटी रूढि़बद्ध होती उसके पहले ही समाप्त हो गई। कर्मकांड में हमारी अरुचि ही शायद इसकी वजह रही हो! शायद साथियों की बढ़ती पारिवारिक व्यस्तता के कारण ऐसा हुआ हो! शायद धन की देवी को ही हमारे अनमनेपन से ठेस लगी हो! यूं तो राजेंद्र यादव ने ”जहां लक्ष्मी कैद हैÓÓ शीर्षक से रचना की, लेकिन लक्ष्मी क्या सचमुच कहीं टिक कर रह पाती है? महाकवि रहीम ने तो पांच सौ साल पहले कटाक्ष किया था- ” कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय- पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय!ÓÓ इसलिए दीवाली प्रसंग को यहीं विराम लगाकर हम आगे बढ़ते हैं।
देशबन्धु की स्थापना रामनवमी के दिन हुई थी। उस दिन प्रेस में अवकाश भी रखा जाता था। किसी समय सहयोगियों के साथ बातचीत में प्रस्ताव आया कि रामनवमी पर सांस्कृतिक कार्यक्रम रखना चाहिए। इसमें यह भावना भी थी कि इस बहाने नगर के बुद्धिजीवी समाज के बीच अखबार की साख में वृद्धि होगी। अखबार निकलते सात-आठ साल हो चुके थे। अपने शुभचिंतकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के नाते भी यह एक उपयुक्त अवसर बन सकता था। मुझे अगर ठीक याद आता है तो 1969 की रामनवमी पर पहली बार हमने सुचारु आयोजन किया। वायलिनवादक दीपचंद पारख व मेरे मित्र गायक डॉ. चंद्रमोहन वर्मा इस आयोजन के प्रमुख कलाकार थे। श्रोताओं में समाज के सभी वर्गों के प्रमुख जन उपस्थित थे। इस आयोजन की खूब सराहना हुई। उससे आने वाले सालों में कार्यक्रम को और बेहतर तरीके से करने की प्रेरणा भी मिली। कार्यक्रम का रूप भी विकसित होते चला गया। पहले साल प्रेस के साथी ही थे तो अगले साल से परिवार के सदस्य भी आने लगे।
यह सालाना कार्यक्रम मुख्यत: संगीत संध्या के रूप में ही संपन्न होता था, जिसमें रायपुर के अलावा प्रदेश के अन्य नगरों के कलाकारों ने सहयोग देकर हमारा मान बढ़ाया। दिगंबर केलकर, मनोहर केलकर, तुलसीराम देवांगन, गुणवंत व्यास, रूपकुमार सोनी, कविता वासनिक, संजय गिजरे, अशोक श्रीवास्तव, मदन चौहान, सत्यरंजन गंगेले, जैसे अनेक गुणी कलावंतों ने इसे अपना कार्यक्रम मानकर ही प्रसन्न भाव से सहयोग किया। इसमें एक साल का उल्लेख विशेष रूप से करना होगा। पुणे से सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ नारायणरावजी पटवद्र्धन रायपुर अपनी बेटी के घर आए थे। यह 1972 की बात है। उसी साल और उसी रामनवमी के दिन अखबार का नाम नई दुनिया से बदलकर देशबन्धु हुआ था। पटवद्र्धनजी ने हमारा आग्रह स्वीकार किया और अखबार को अपना आशीर्वाद देने शाम के आयोजन में शरीक हुए। यद्यपि पारिवारिक शोक के कारण उन्होंने गाने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी।
रामनवमी के दिन प्रेस में चहल-पहल का माहौल बन जाता था। प्रेस के सारे सदस्य सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित होते थे। संगीत संध्या के बाद अन्य अतिथि भी प्रीतिभोज में शामिल होते थे। जबलपुर में होली पर होने वाले आयोजन की अपनी अलग छटा थी। प्रसिद्ध कव्वाल लुकमान, मिमिक्री कलाकार कुलकर्णी बंधु और नायकर जैसे कलाकार भी इसमें शिरकत करते थे। 1963 की होली में इस मंच पर एक किशोर प्रतिभा का परिचय मिला। ये सुप्रसिद्ध बंशीवादक मुरलीधर नागराज थे, जो उस समय आठवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। रायपुर और जबलपुर के इन आयोजनों की रससिक्त स्मृतियां ही अब शेष हैं।
ललित सुरजन
31 अक्टूबर 2019
रायपुर नगरपालिका परिषद के आखिरी चुनाव 1957 में हुए थे। 1962 में नए चुनाव होना थे, लेकिन किसी कारण से नहीं हुए। 1967 में मध्यप्रदेश में संविद सरकार बनी। रायपुर के विधायक शारदाचरण तिवारी को स्थानीय स्वशासन मंत्री पद प्राप्त हुआ। नगरपालिका का दर्जा ऊंचा कर उसे नगर निगम होने का गौरव प्रदान किया गया, लेकिन दस साल से लंबित चुनाव फिर भी नहीं हुए। उल्टे प्रशासक बैठा दिया गया। दो साल बाद कांग्रेस सत्ता में लौटी। अब श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री पद हासिल हुआ, लेकिन नगर निगम चुनाव पर उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया। तब देशबन्धु ने चुनाव की मांग उठाते हुए अभियान छेड़ दिया। यह अभियान अखबार के पन्नों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि नगर में हम जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं आयोजित करने लगे। युवा वकील (स्व) रामावतार पांडेय इस मुहिम में प्रमुख तौर पर आगे आए। प्रभाकर चौबे, एडवोकेट जमालुद्दीन आदि अनेक मित्रों ने भी खूब साथ दिया। मुख्यमंत्री शुक्लजी परेशान हुए और नारा•ा भी। उन्होंने बाबूजी से शिकायत की- ललित हमारे खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। उत्तर में बाबूजी ने उन्हें चुनाव घोषित करने की सलाह दी। शुक्लजी ने कहा- अभी माहौल ठीक नहीं है, कांग्रेस हार जाएगी। इस पर बाबूजी की प्रतिक्रिया थी- चुनाव में हार-जीत तो चलती रहती है। बहरहाल, चुनाव टलते गए। देखते-देखते दस साल बीत गए। 1979 में जाकर चुनाव हुए और उसमें कानूनी दांवपेंचों के चलते नई परिषद को कार्यभार लेने में एक साल और लग गया।
इस प्रसंग की चर्चा करने का आशय यही है कि देशबन्धु ने एक तरफ जहां ग्रामीण पत्रकारिता पर विशेष ध्यान दिया, वहीं दूसरी ओर नगरीय क्षेत्रों का भी बराबर ख्याल रखा तथा बेहतर वातावरण कायम करने के लिए सकारात्मक व सक्रिय भूमिका निभाई। एक घटना और ध्यान आती है। 1938 में प्रो. जे. योगानंदम द्वारा स्थापित छत्तीसगढ़ कॉलेज प्रदेश का पहला महाविद्यालय था। इसमें एक से बढ़कर नामी प्राध्यापकों ने कभी अपनी सेवाएं दी थीं। भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे पेरी शास्त्री भी यहां व्याख्याता थे। कालांतर में जो भी स्थितियां बनीं, कॉलेज बंद होने के कगार पर पहुंच गया। 1967 में शिक्षासत्र प्रारंभ होने के पहले मात्र चालीस छात्र कॉलेज में बच गए थे। पुराने अध्यापकगण चिंतित हुए। प्रो. निर्मल श्रीवास्तव, शिवकुमार अग्रवाल, विपिन अग्रवाल आदि ने दौड़धूप करना शुरू की। हमने उनका खुलेमन से साथ दिया और कितने ही विद्यार्थियों को छत्तीसगढ़ म.वि. में प्रवेश लेने के लिए प्रेरित किया। एक उदारमना सज्जन बाबू उग्रसेन जैन ने अपनी पत्नी की स्मृति में उसी कॉलेज भवन में चंपादेवी जैन रात्रिकालीन म.वि. स्थापित करने अच्छा-खासा दान दिया। उससे स्थिति कुछ सुधरी। फिर राज्य सरकार ने कॉलेज को शासनाधीन कर लिया तो संस्था बंद होने का संकट टल गया। कुछ साल बाद रात्रिकालीन म.वि. बंद कर दिया गया। चंपादेवी जैन का नाम लुप्त हो गया। दानदाता परिवार की आहत भावनाओं को हमने वाणी देने की कोशिश की लेकिन निष्फल।
कुछ दिन पहले प्रेस फोटोग्राफर गोकुल सोनी ने फेसबुक पर रायपुर नगर की एक पुरानी तस्वीर साझा की तो मुझे एक अन्य प्रसंग ध्यान आ गया, जिसमें देशबन्धु की भूमिका निर्णयकारी सिद्ध हुई। रायपुर का आ•ााद चौक वहां स्थापित गांधी प्रतिमा के कारण प्रसिद्ध है। प्रतिमा के पाश्र्व में एक कुटीनुमा इमारत थी। यहां कभी रायपुर नगरपालिका का चुंगीनाका होता था। बाद में इसी इमारत में आ•ााद चौक पुलिस चौकी स्थापित कर दी गई थी। 1981-82 में पुलिस विभाग ने इकमंजिला पुराने मकान को तोड़कर पुलिस थाने की नई इमारत बनाना तय किया। वर्तमान में त्रिपुरा के राज्यपाल और अनुभवी राजनेता रमेश बैस निकटवर्ती ब्राह्मणपारा वार्ड से नगर निगम पार्षद तथा डाकू पानसिंह फेम विजय रमन रायपुर के जिला पुलिस अधीक्षक थे। हमने एक संपादकीय लिखकर सुझाव दिया था कि गांधी प्रतिमा के ठीक पीछे थाने होना वैसे भी अच्छा नहीं लगता। यहां बच्चों के लिए बगीचा विकसित करना बेहतर होगा। पुलिस थाना पास में ही रामदयाल तिवारी स्कूल के विस्तृत मैदान के एक कोने में ले जाया जा सकता है, जहां नगर निगम वैसे भी दूकानें निर्मित कर रहा है। रमेश बैस और विजय रमन दोनों को यह सुझाव जंच गया। थाने को भावी विस्तार के लिए मनमाफिक जगह मिल गई और गांधी प्रतिमा का बागीचा मोहल्लावासियों का फुरसत के पल बिताने का स्थान बन गया।
रायपुर के ऐतिहासिक स्वरूप को बचाने, विरासत स्थलों को संरक्षित रखने में भी देशबन्धु ने कई अवसरों पर कारगर पहल की है। रायपुर के हृदयस्थल जयस्तंभ चौक पर अवस्थित कैसर-ए-हिंद दरवा•ाा देशबन्धु की मुहिम के कारण ही बच सका है। ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने 1877 में ‘एम्प्रेस ऑफ इंडियाÓ, भारत साम्राज्ञी या कैसर-ए-हिंद की पदवी धारण की, उस मौके पर तामीर यह विशाल द्वार भारत पर विदेशी हुकूमत का स्मृतिचिह्न है। यह दरवा•ाा संभवत: किसी सराय या खेल मैदान के प्रवेश द्वार के रूप में खड़ा किया गया था। युवा (तब) प्राध्यापक डॉ. रमेंद्रनाथ मिश्र ने इस बारे में देशबन्धु में फीचर लिखा था। जब यहां खुले प्लाट पर रवि भवन निर्माण का प्रकल्प बना तो इस ऐतिहासिक स्थान को तोडऩा भी योजना का हिस्सा था। तब हमने ”प्राणदान मांगता कैसर-ए-हिंद दरवा•ााÓÓ शीर्षक से रिपोर्ट प्रकाशित की और संबंधित पक्षों को हरसंभव उपाय से समझाया कि इसे संरक्षित रखा जाए। एक धर ोहर स्थल बचने का संतोष तो मिला, लेकिन दूसरी ओर इस सच्चाई पर पीड़ा होती है कि रायपुर •िाला अदालत का पुराना भवन, नलघर जैसी धरोहरों का संरक्षण करने में हम कामयाब नहीं हो सके। आनंद समाज लाइब्रेरी को मूल स्वरूप में बचाए रखने की हमारी अपील भी अनसुनी कर दी गई।
देशबन्धु ने एक अन्य सकारात्मक पहल रायपुर के व्यवस्थित यातायात को सुधारने की दिशा में की। यह भी 82-83 के आसपास की बात है। सिविल इंजीनियरिंग के अनुभवी प्राध्यापक प्रो. सी.एस. पिल्लीवार से बातों-बातों में इस बारे में चर्चा हो रही थी तो उन्होंने यातायात सुधारने की एक परियोजना ही तैयार कर ली। मैंने अपने एक सहयोगी की ड्यूटी लगा दी कि वह प्रतिदिन श्री पिल्लीवार से मिलकर उनसे सुझावों के आधार पर फीचर बनाए। इस तरह हमने कोई सत्रह-अठारह किश्तों की एक लेखमाला प्रकाशित की। कुछ सुझावों पर अमल हुआ, कुछ पर नहीं। लेकिन रायपुर पुलिस के लिए यह लेखमाला एक तरह की मार्गदर्शक नियमावली बन गई। जिसका उपयोग उसने कई बरसों तक किया। हमें भी यह सुकून मिला कि पुलिस की अक्षमता, भ्रष्टाचार, आतंक के बारे में तो आए दिन खबरें छपती ही रहती हैं, यह एक ऐसी पहल हुई जिससे समाज के सभी वर्गों का भला हुआ। दूसरे शब्दों में यह समाज और सत्ता के बीच एक अच्छे मकसद के लिए सेतु बनने की पहल थी।
एक अखबार लोकहित के किसी विषय पर आंदोलन तो छेड़ सकता है, किंतु उसकी सफलता अंततोगत्व जनता की भागीदारी व समझदारी पर निर्भर करती है। रायपुर के ऐतिहासिक और मनोरम बूढ़ातालाब को बीच से काटकर सड़क निकालने का हमने पुरजोर विरोध किया, लेकिन सत्ताधीशों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि जनता को वहां खाने-पीने की चौपाटी खड़ी करने का प्रस्ताव •यादा आकर्षक प्रतीत हो रहा था। बहरहाल, हमने जो भूमिका निभाई, उसकी हमें प्रसन्नता है।
ललित सुरजन
7 नवंबर 2019
स्वरूपसिंह पोर्ते 1983 में दुर्ग के जिलाधीश थे। उनकी प्रेरणा और निजी सहयोग से देशबन्धु ने एक नई पहल की, जिसके बारे में जानकर पाठकों को प्रसन्नता होगी। उस साल शायद मई-जून में कभी पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के बी.ए. के परीक्षा परिणाम घोषित हुए। उसके एक-दो दिन बाद बालोद (अब जिला मुख्यालय) की एक खबर देशबन्धु में प्रथम पृष्ठ पर छपी। दोनों हाथों से महरूम एक छात्र ने पैरों की उंगलियों से कलम पकड़ परीक्षा दी और बी.ए. में अच्छे नंबरों से सफलता हासिल की। खबर को पढऩे के बाद जिलाधीश पोर्तेजी ने हमारे ब्यूरो प्रमुख धीरजलाल जैन से संपर्क किया और उसी दिन उनको साथ लेकर बालोद गए। वहां छात्र के घर जाकर उसे जनपद कार्यालय में नियुक्ति दे दी (छात्र का नाम यहां जानकर नहीं लिखा है)। बात यहां खत्म नहीं हुई। अगले दिन श्री पोर्ते रायपुर हमारे दफ्तर आए। उन्होंने मेरे सामने दो हजार रुपए रख दिए और मित्रभाव से सलाह दी- आप देशबन्धु की ओर से कोई फंड बनाइए, ताकि ऐसे होनहार जरूरतमंद लोगों की सही समय पर मदद की जा सके। सबसे पहले मैं इस फंड के लिए यह सहयोग राशि दे रहा हूं।
एक नेकदिल इंसान की इस पहल पर ना कहने का तो सवाल ही नहीं था। हमने जानकार लोगों से सलाह ली और जल्दी ही देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना हो गई। इन पैंतीस वर्षों में कोष के संचालन के दौरान अनेक नायाब अनुभव हुए। जब हमने कोष स्थापना का समाचार छापा और पाठकों से सहयोग की अपील की तो उसका उत्साहवद्र्धक प्रत्युत्तर हमें मिला। इसमें एक प्रसंग तो अत्यन्त मर्मस्पर्शी था। उन दिनों भारतीय डाकसेवा से ही चिठ्ठियां आती-जाती थीं। एक दिन डाक में एक लिफाफा आया। खोला तो भीतर दो रुपए का नोट और उसके साथ कॉपी के पन्ने पर टूटी-फूटी भाषा में लिखा पत्र था- हम रायगढ़ रेलवे स्टेशन के बाहर होटल में काम करने वाले बच्चे हैं। आप हम जैसे बच्चों की मदद कर रहे हैं। हमने अपने पास से दस-दस, बीस-बीस पैसे देकर यह दो रुपए इकट्ठा किए हैं जो आपको भेज रहे हैं। एक पन्ने के पत्र में ग्यारह-बारह बच्चों के दस्तखत थे। पत्र पढ़कर आंखों में आंसू आ गए। उन बालकों के भेजे दो रुपए बहुत कीमती थे, जिनका मोल कभी भी आंकना संभव नहीं होगा।
एक दिन सदर बा•ाार, रायपुर के प्रतिष्ठित नागरिक कस्तूरचंद पारख प्रेस आए। उनके कॉलेज में पढ़ रहे बेटे अभय का असमय निधन कुछ दिन पहिले हो गया था। पारखजी चाहते थे कि हम अभय की स्मृति में दुर्गा महाविद्यालय के लिए एक छात्रवृत्ति स्थापित करें। हमने उनकी शर्त मानने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। उन्हें हमारा तर्क समझ आया और वे पांच हजार रुपए की राशि भेंट कर गए, कि इससे वाणिज्य संकाय के किसी विद्यार्थी को छात्रवृत्ति दी जाए। इस तरह अभय पारख स्मृति छात्रवृत्ति की स्थापना हुई। किसी के नाम से की जाने वाली यह पहली स्कॉलरशिप थी। कुछ अरसे बाद अंबिकापुर के प्रतिनिधि हरिकिशन शर्मा अपने परिचित श्री चंदेल के साथ आए। उन्होंने अपने पुत्र मणींद्र की स्मृति में छात्रवृत्ति देने हेतु राशि दी। इस तरह एक सिलसिला चल पड़ा। आज देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष से प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ सौ नामित छात्रवृत्तियां दी जाती हैं। इनका निर्णय अध्यापकों की एक स्वतंत्र समिति करती है।
एक प्रेरणादायक प्रसंग प्रदेश के पहले राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय से संबंधित है। उनके ससुर मनोरंजन एम.ए. कविवर बच्चन के समकालीन एवं स्वयं समर्थ लेखक थे। सहाय साहब की रुचि से उनकी अनुपलब्ध पुस्तकों के नए संस्करण छपे। उन पर प्रकाशकों से अच्छी खासी रॉयल्टी भी मिली। सहायजी ने यह सारी राशि विभिन्न पारमार्थिक संस्थानों के बीच बांट दी। एक दिन उन्होंने फोन किया कि वे प्रेस आना चाहते हैं। प्रदेश के गवर्नर के तामझाम को कौन सम्हाले? मैंने निवेदन किया कि मैं खुद राजभवन आ जाता हूं। उन्होंने कहा कि काम तो मेरा है, मैं आऊंगा। फिर वे मेरी आनाकानी समझ गए। अपने एडीसी को मेरे पास भेजा। कोष के लिए पच्चीस हजार रुपए का निजी चैक साथ में पत्र। ससुरजी की किताबों से जो रॉयल्टी मिली है, वह समाज के काम में आना चाहिए। हमें इस धन की आवश्यकता नहीं है। उस राशि से कोष द्वारा एक और छात्रवृत्ति स्थापित हो गई। बाद में राज्यपाल शेखर दत्त और बलरामजी दास टंडन ने भी कोष की गतिविधियों की सराहना करते हुए सहयोग किया।
इस बीच एक रोचक प्रसंग और घटित हुआ। एक सेवानिवृत्त अधिकारी श्री चक्रवर्ती चाहते थे कि उनकी पत्नी की स्मृति में रायपुर के कालीबाड़ी स्कूल या फिर बंग समाज के किसी होनहार को छात्रवृत्ति दी जाए। हमने दोनों बातों के लिए इंकार कर दिया। यह काम आप सीधे संबंधित संस्था के माध्यम से कर सकते हैं। वे वापस चले गए। दो दिन बाद फिर आए। आपका कहना ठीक है। आप जैसा उचित समझें, छात्रवृत्ति दीजिए। चक्रवर्तीजी ने फिर एक नहीं, पांच छात्रवृत्तियों के लिए राशि दी। इसके बाद वे एक बार पुन: आए। मैं अपना निजी मकान कोष को दान करना चाहता हूं। उसमें आप वृद्धाश्रम चलाइए। उनके प्रस्ताव को न्यासी मंडल के सामने रखा। सबकी एक ही राय बनी कि यह अलग प्रवृत्ति का सेवाकार्य है, जिसे करने में हम समर्थ नहीं हैं। चक्रवर्तीजी को इस निर्णय से निराशा तो हुई, लेकिन क्या करते! देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की अपनी सीमाएं थीं।
इसी सिलसिले में रायपुर के पहिले वास्तुविद (आर्किटेक्ट) और अद्भुत व्यक्तित्व के धनी समाजसेवी टी.एम. घाटे का उल्लेख करना आवश्यक होगा। युवा वास्तुविद अक्षरसिंह मिन्हास का निधन हुआ तो घाटेजी की पहल पर रायपुर के सभी वास्तुविदों ने मिलकर शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) रायपुर में वास्तुशास्त्र के विद्यार्थियों हेतु एक पुरस्कार स्थापित किया। इसकी व्यवस्था का जिम्मा उन्होंने कोष पर डाल दिया और आवश्यक राशि यहीं जमा करवा दी। एक दिन घाटे साहब सुबह-सुबह प्रेस आए। यह शायद 1990 की बात है। आज रायपुर में पै्रक्टिस करते हुए मुझे पच्चीस साल पूरे हो गए हैं। मैंने जो कुछ भी अर्जित किया है, वह रायपुर के समाज की ही देन है। यह कहते हुए उन्होंने एक बड़ी रकम टेबल पर रख दी। इसे कोष में जमा कर लो। जिस काम में उचित समझो, इसका उपयोग कर लेना। हम कोष के आर्थिक सहयोग देने वालों के नाम अखबार में छापते थे। घाटे साहब ने इसके लिए भी स्पष्ट मना कर दिया। नाम छपने से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती है। मुझे किसी को प्रेरणा नहीं देना है। मुझे जो करना था, कर दिया है। मैं क्या करता? उनके स्वभाव को जानता था। लेकिन आज उनकी नारा•ागी का खतरा उठाकर भी नामोल्लेख करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूं।
देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की गतिविधियों के बारे में अभी बहुत कुछ लिखना बाकी है। यथासमय वह भी लिखने का प्रयत्न होगा।
ललित सुरजन
नोट:- इस लेखमाला की पंद्रहवीं किश्त में पं. विनायकराव पटवद्र्धन का नाम स्मृति दोष से नारायणराव छप गया है। पत्रकार राजेश गनोदवाले ने इस त्रुटि की ओर ध्यान दिलाया।
(14 नवंबर को प्रकाशित)
देशबन्धु के शीर्ष (मास्टहैड) के साथ एक ध्येय वाक्य प्रतिदिन छपता है- पत्र नहीं मित्र। इसे हमने लगभग पचास वर्ष पहले अंगीकृत किया था। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना के पीछे शायद यह भावना भी काम कर रही थी। हमारा प्राथमिक उद्देश्य साधनहीन प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने का था। लेकिन जैसे-जैसे कोष की गतिविधियों का विस्तार हुआ तो उसमें कुछ नए आयाम भी जुड़ते गए। मैं उनके बारे में कुछ समय बाद लिखना चाहता था, किंतु पिछले गुरुवार को कॉलम छपने के तुरंद बाद कम से कम दो ऐसी उत्साहवद्र्धक प्रतिक्रियाएं मिलीं, जिन्होंने मुझे कोष के बारे में अधिक विस्तार से तत्काल लिखने प्रेरित किया। एक तो धमतरी के एक युवा मित्र ने कोष के बैंक खाते के विवरण मांगे और पच्चीस हजार रुपए की सहयोग राशि उसमें जमा कर दी, इस अनुरोध के साथ कि उनका नाम उजागर न किया जाए। इसी तरह एक सहृदय डॉक्टर मित्र ने अपने स्वर्गवासी पिताजी और पत्नी-इन दोनों की स्मृति में कोष के माध्यम से कोई ठोस कार्य करने की इच्छा प्रकट की।
देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष में अनेक सेवाभावी व्यक्तियों ने उदार भाव से छात्रवृत्तियां स्थापित करने हेतु सहयोग किया। इनमें डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का उल्लेख एक विशेष कारण से करना होगा। महरोत्राजी जाने-माने भाषाविज्ञानी थे। देशबन्धु में प्रकाशित उनके साप्ताहिक कॉलम का उल्लेख पहले हो चुका है। श्री-श्रीमती महरोत्रा ने अपने सामाजिक जीवन में और बहुत सी बातों के अलावा एक और मिशन ले लिया था। वे विधवा और परित्यक्ताओं के पुनर्विवाह के लिए तन-मन-धन से काम करते थे। पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. में जहां वे भाषाविज्ञान विभाग के प्रमुख थे, महरोत्रा दम्पति ने विधवा विवाह प्रोत्साहन के नाम पर स्वर्णपदक स्थापित किए। कोष में भी उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए पांच छात्रवृत्तियां स्थापित कीं। रविशंकर वि.वि. में ही अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त समाजशास्त्री प्रो. इंद्रदेव विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर अपनी पत्नी के निधन के बाद उनका पुस्तक संग्रह देशबन्धु लाइब्रेरी को दे दिया था और कोष को चार लाख रुपए की एकमुश्त राशि छात्रवृत्तियां स्थापित करने प्रदान कीं। कोष को प्राप्त यह सबसे बड़ा निजी आर्थिक योगदान था। इसी कड़ी में एनआईटी रायपुर के पूर्व डायरेक्टर प्रो. के.के. सुगंधी का भी जिक्र करना होगा, जिन्होंने अपने माता-पिता की स्मृति में शिक्षक सम्मान निधि की स्थापना कोष के द्वारा की।
यह उल्लेख करना शायद उचित होगा कि यद्यपि कोष की स्थापना देशबन्धु के द्वारा की गई है, लेकिन उसका संचालन एक न्यासी मंडल द्वारा किया जाता है, जिसके सदस्यों में शिक्षा, स्वास्थ, उद्योग, व्यापार आदि क्षेत्रों के जाने-माने व्यक्ति होते हैं। कोष की गतिविधियों से संबंधित कोई भी निर्णय लेने का संपूर्ण अधिकार उनके पास है तथा देशबन्धु का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता। हमारी भूमिका न्यास को हर संभव सहयोग देने तक सीमित रहती है। यदि प्रेस की तरफ से कोई प्रस्ताव दिया जाए तो उस पर भी निर्णय उनका ही होता है। प्रसंगवश बता देना होगा कि वरिष्ठ अधिवक्ता बी.एस. ठाकुर ने एक लंबे समय तक न्यासी मंडल के अध्यक्ष का कार्यभार सम्हाला और 2003 में उनके निधन के बाद से सेवाभावी इंजीनियर शिव टावरी इस जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। श्री ठाकुर के समय 1996 में न्यास ने छात्रवृत्ति देने से एक कदम आगे बढ़कर एक दूरगामी निर्णय लिया और साधनहीन बच्चों के लिए मानसरोवर विद्यालय की स्थापना की। प्रारंभ में यह स्कूल हमारे आवास पर ही प्रारंभ हुआ, लेकिन कालांतर में पे्रस काम्पलेक्स में कोष का अपना भवन बनने पर वहां स्थानांतरित हो गया। इस स्कूल में अभी दो सौ के लगभग बच्चे पढ़ रहे हैं। श्रीमती सविता लाल विगत तेईस वर्षों से लगातार प्रिंसिपल का पद संभाल रही हैं।
कोष का भवन प्रेस काम्पलेक्स में क्यों है, उसकी भी एक कहानी है। जब प्रेस काम्पलेक्स के लिए भूमि आबंटन हो रहा था, तब हमने भी इस हेतु आवेदन किया, लेकिन बाबूजी का स्पष्ट विचार था कि हमें प्रेस के व्यवसायिक प्रयोजन हेतु •ामीन नहीं चाहिए। अगर भूखंड मिल जाए तो उसका उपयोग शैक्षणिक-सांस्कृतिक कार्यों के लिए किया जाए। 18 दिसंबर 1998 को गुरु घासीदास के जन्मदिन पर भूमिपूजन कार्यक्रम में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने मुख्य अतिथि और रामकृष्ण मिशन रायपुर के स्वामी सत्यरूपानंद ने अध्यक्षता की। भवन निर्माण के पहले चरण का लोकार्पण गांधी जयंती 2 अक्टूबर 2009 को तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने किया और दूधाधारी व शिवरीनारायण मठों के महंत राजेश्री रामसुंदर दास ने अध्यक्षता की। यह सभी न्यासियों की एक राय थी कि भवन बाबूजी की स्मृति को समर्पित होना चाहिए। मेरे सुझाव पर इसका नामकरण ”मायाराम सुरजन स्मृति लोकायन भवनÓÓ रखा गया। रजबंधा मैदान, जहां रजबंधा तालाब के नाम से एक विशाल जलाशय विद्यमान था, में भवन निर्माण आसान काम नहीं था। सबसे पहली कठिनाई तो दलदली जमीन पर नींव खड़ी करना था। बहरहाल, आर्किटेक्ट घाटे साहब के निर्देशन में यह काम सुचारू हुआ। कहना न होगा कि उन्होंने इस कार्य के लिए कोई फीस नहीं ली।
भवन निर्माण के लिए विशाल धनराशि की आवश्यकता पडऩा ही थी। यह भी सरल काम नहीं था, खासकर तब जबकि भूखंड का गैर-शैक्षणिक प्रयोजन हेतु उपयोग नहीं करना था। देशबन्धु के अपने साधनों से जितना संभव था, वह किया गया। लेकिन इसके साथ कोष को कई स्रोतों से सहायता मिली। राज्यसभा सदस्य श्रीमती मोहसिना किदवई, मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह, विधायक कुलदीप जुनेजा, विधायक श्रीचंद सुंदरानी इन सबने अपनी विकास निधि या स्वेच्छानुदान निधि से सहयोग किया। राजेश्री महंत रामसुंदर दास और न्यासी अधिवक्ता जीवेंद्रनाथ ठाकुर, अधिवक्ता टी.सी. अग्रवाल के सद्प्रयत्नों से भी काम इतना बना कि पहला चरण पूरा हो गया। ट्रस्टीगण प्रो. के.के. सुगंधी, इंजी. एल.एन. तिवारी, इंजी. ओपी अग्रवाल, पूर्व महापौर संतोष अग्रवाल, अग्रज मित्र नारायण जोतवानी आदि का भी भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। सरकार से शैक्षणिक प्रयोजन के लिए भूखंड मिला तो भवन का उपयोग उसी मंशा के अनुरूप हो रहा है। अभी एक बड़े सभाकक्ष आदि का काम जारी और न्यासीगण उस हेतु धनसंग्रह की मुहिम में व्यस्त हैं।
”पत्र नहीं मित्रÓÓ ध्येय का पालन यहीं तक सीमित नहीं है। यह गांधीजी की एक सौ पचासवीं जयंती का वर्ष है तो उनके ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की याद आना स्वाभाविक है। जो समाज से अर्जित किया है, उसे समाजहित में ही विसर्जित करना है। इसे ध्यान में रखकर हम लगातार नए-नए उद्यम करते रहे हैं। मसलन देशबन्धु प्रदेश का पहला अखबार था जिसने रक्तदान की मुहिम आज से तीस साल पहले चलाई। रात-बिरात फोन आते थे और हम रक्तदान करने वालों से अस्पताल जाने का निवेदन करते थे। इसे हमने तब रोका जब मालूम पड़ा कि स्वार्थी लोग खुद रक्तदान करने से कतराते हैं। इसके बाद नेत्रदान की मुहिम भी लंबे समय तक चली और फिर देहदान की भी। इन सबका सुपरिणाम मिला। समाज में इस दिशा में जो जागरुकता आज देखने मिलती है, उसमें किंचित योगदान आपके अखबार का भी है। अखबार वितरकों के लिए भी हमने अपने साधनों से हॉकर कल्याण कोष की स्थापना की, ताकि गर्मी, सर्दी, बरसात हर मौसम में घर-घर तक पेपर पहुंचाने वाले उन जनों की वक्त •ारूरत मदद की जा सके, जिनके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं है। कारपोरेट मीडिया के वर्तमान युग में यह योजना अप्रासंगिक हो गई।
ललित सुरजन
(21 नवंबर 2019 को प्रकाशित)
यह एक सामान्य धारणा बना दी गई है कि आरक्षण की व्यवस्था में प्रतिभा और योग्यता की अनदेखी होती है और अधिकतर अयोग्यजन उसका लाभ उठा ले जाते हैं। हम अपने साठ साल के सांस्थानिक अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि यह धारणा गलत है। वर्चस्ववादी समूह आधे-अधूरे तथ्यों और आंकड़ों को सामने रख जानबूझ कर इस सोच को फैलाता है ताकि समाज के हाशिए पर पड़े समुदायों को आगे बढऩे के लिए समान अवसर मिलने में रुकावट पैदा की जा सके। देशबन्धु इसलिए आरक्षण नीति का स्पष्ट तौर पर समर्थन करते आया है, भले ही इस वजह से नुकसान क्यों न उठाना पड़े। प्रधानमंत्री वीपी सिंह के कार्यकाल में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का देशबन्धु ने अनुमोदन किया था। मैंने स्वयं उस समय कुछ लेख लिखे थे। समाज के एक वर्ग की कई तरीकों की नाराजगी इस कारण से हमें झेलनी पड़ी। हमने विगत दशकों में आरक्षण को न सिर्फ वैचारिक समर्थन दिया है, बल्कि अपने प्रतिष्ठान में उसे व्यवहारिक तौर पर लागू भी किया है। इस दिशा में हम जितना कुछ करना चाहते थे, उतना नहीं कर पाए हैं, जिसके कारणों पर हमारा वश नहीं है।
छत्तीसगढ़ की जनता नरसिंह मंडल के नाम से भली-भांति परिचित है। रायपुर की पहचान बन चुका $घड़ी चौक उनकी ही देन है, जब वे रायपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष थे। श्री मंडल को अधिकतर लोग प्रदेश की राजनीति के एक उभरते हुए सितारे के रूप में जानते आए हैं, जो असमय अस्त हो गया। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत देशबन्धु से ही की थी। वे कॉलेज में मुझसे शायद एक साल पीछे थे। राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे। 1966 में वे हमारे संपादकीय विभाग में आ गए थे। यहां वे दो साल के लगभग रहे। यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नरसिंह मंडल शायद रायपुर के पहले पत्रकार थे, जो किसी अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व करते थे। उन दिनों अन्य किसी हिंदी समाचारपत्र में या मध्यप्रदेश के किसी अखबार में कोई और भी दलित पत्रकार रहा हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं है।
भाई मंडल की सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी उन्हें पत्रकारिता की दुनिया से दूर ले गई, लेकिन अनुसूचित जाति या जनजाति के प्रतिभाशाली युवाओं का हमारे पेशे में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो उसका एक विशेष कारण है, जिस पर मीडिया की आलोचना करने वाले विद्वानों को ध्यान देना चाहिए। एक काबिल पत्रकार में जिन गुणों की तलाश की जाती है, वे गुण ही उसे अपेक्षाकृत सुरक्षित, संतोषजनक और आर्थिक दृष्टि से लाभकारी सरकारी पद हासिल करने में सहायक होते हैं। किसी निजी मीडिया संस्थान में काम करने के बजाय ऐसे युवाओं की सामान्य रुझान प्राध्यापक, जनसंपर्क अधिकारी, यहां तक कि क्लर्क बन जाने की ओर होती है। हमने देशबन्धु में कई वर्षों तक संपादकीय विभाग में आवश्यकता के विज्ञापन जारी करते हुए हमेशा एससी/एसटी के लिए आरक्षण तथा प्राथमिकता का उल्लेख किया, लेकिन उसका कोई खास लाभ नहीं हुआ। जो आए भी, वे जल्दी ही किसी सरकारी अद्र्धसरकारी दफ्तर में काम करने का अवसर पा गए।
प्रेस के अन्य विभागों की स्थिति इस मामले में संपादकीय विभाग से हमेशा बेहतर रही है। विज्ञापन, प्रसार, लेखा, कंपोजिंग, मशीन आदि विभागों में जो भी सहकर्मी आए, उन्हें अपनी योग्यता के बल पर लगातार आगे बढऩे का अवसर मिलता गया। संपादकीय विभाग में भी जिन साथियों को सरकारी नौकरी के सुरक्षित वातावरण की चाहत नहीं थी, उनके लिए भी प्रगति पथ पर कोई रुकावट नहीं थी। मुझे ऐसे साथी मिले हैं, जिन्होंने रात पाली में अखबार के बंडल बांधने से काम की शुरूआत की और आगे चलकर अखबार के संचालन में निर्णयकारी पद पर सेवा देकर यथासमय रिटायर हुए या फिर अखबार के बजाय कोई अन्य विकल्प चुन लिया। हमें इस बात का संतोष है कि देशबन्धु में जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर कभी भेदभाव नहीं किया गया। इतना ही नहीं, हमारे साथियों में बहुतायत उनकी रही जो छोटे-छोटे गांवों से या खेतिहर समाज से आगे आए। मुझे कई बार नरसिंह धुरंधर की याद आती है जो इसी तरह एक छोटे से गांव से आए थे। मुझसे आयु में दो-तीन वर्ष छोटे थे और प्रेस में क्लर्की से शुरूआत कर जनरल मैनेजर के पद तक पहुंचे थे। हमारा उन पर अटूट विश्वास था और नरसिंह ने उसे निभाया। उन्हें अक्सर लोग मेरा छोटा भाई ही समझते थे। न जाने कब-कैसे उन्हें मद्यपान की लत लग गई, जो उनकी सेवानिवृत्ति का कारण बनी, लेकिन उनके साथ आत्मीयता अंत तक बनी रही।
एक अलग किस्म का प्रकरण एक आदिवासी किशोर युवक का है। उसकी मां कई घरों में चौका-बासन का काम करती थी। बड़ा भाई रिक्शा चलाता था। स्कूली शिक्षा किसी की भी नहीं हुई थी। बुधारू को उसकी मां के आग्रह पर हमने प्रेस में सुबह के समय साफ-सफाई करने के लिए रख लिया था। उन दिनों गत्ते के मैट्रिक्स से ब्लॉक बनाने की मशीन प्रेस में लग गई थी। उस पर भी सुबह के समय ही काम होता था। बुधारू वैसे भले ही अनपढ़ था, लेकिन मेहनती था, सीखने की ललक थी, और तकनीकी प्रतिभा थी। सुबह की अपनी ड्यूटी के समय वह मशीन पर ब्लॉक बनते देखता था। स्वाभाविक ही उसकी पदोन्नति हो गई। कुछ साल बाद जब नहरपारा से वर्तमान भवन में आए तो यहां हमने छपाई के छोटे-मोटे कामों याने जॉब प्रिंिटंग के लिए ट्रेडल मशीनें डालीं। बुधारू ने यह काम भी सीख लिया और दक्ष मशीनमैन बन गया। उसका छोटा भाई राधेलाल भी इस बीच प्रेस में आ गया था। उसने ऑफसेट मशीन पर काम करना सीखा और हैड मशीनमैन के पद पर पहुंच गया। एक बार राधेलाल को जबलपुर की मशीन पर कुछ काम करने भेजा था। इधर रायपुर में ही मशीन में कुछ समस्या आ गई। मैंने रात ग्यारह बजे उसे फोन किया और उसके असिस्टेंट से बात करवाई। उसने समस्या समझी और फोन पर उसे सुलझाने के लिए आवश्यक निर्देश दे दिए। बात बन गई अन्यथा अगली सुबह अखबार न छप पाता।
एक और ऐसे प्रतिभाशाली सहयोगी की मृत्यु अभी कुछ माह पूर्व हुई है। वासुदेव मंडलवार ने लगभग पैंतीस-चालीस साल हमारे साथ काम किया और सेवानिवृत्ति के बाद भी पिछले दो साल से बदस्तूर काम कर रहे थे। वासुदेव ने भी प्रेस में साफ-सफाई और चाय-पानी पिलाने के काम से शुरूआत की थी। इस बीच हमने पाया कि वह अद्भुत स्मरणशक्ति का धनी है। फोन पर अगर कोई बात करो तो हू-ब-हू लिख लेगा। परिणाम यह हुआ कि उसे संपादकीय विभाग में टेलीफोन पर समाचार नोट करने की ड्यूटी दे दी गई। इस बीच विभिन्न केंद्रों के बीच टेलीप्रिंटर सेवा स्थापित की तो टाइपिंग ज्ञान के चलते उसे टेलीप्रिंटर विभाग की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। जब यह तकनीकी पुरानी पड़ गई और कंप्यूटर लग गए तो वासुदेव ने एक कुशल कंप्यूटर ऑपरेटर के रूप में अपनी योग्यता का परिचय देने में कसर बाकी नहीं रखी। इसी तरह किसी सहयोगी ने व्यवस्था विभाग में तो किसी ने समाचार लेखन में तो और किसी ने लेखा अधिकारी के पद तक पहुंचकर अपनी कर्मठता, परिश्रमशीलता और प्रतिभा की धाक जमाई। ये चमकदार अनुभव व हमें निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की पैरवी करने प्रेरित करते हैं।
ललित सुरजन
28 नवंबर 2019 को प्रकाशित
समाचारपत्र जगत पर प्रारंभ से ही पुरुषों का वर्चस्व रहा है। अन्य अनेक व्यवसायों की भांति पत्रकारिता को महिलाओं के लिए निषिद्ध या अनुपयुक्त क्षेत्र माना जाता था। अखबार का स्वामित्व, संचालन, प्रबंधन, संपादन इन सभी विभागों की बागडोर पुरुषों के हाथ में ही हुआ करती थी। यह प्रवृत्ति भारत की नहीं, बल्कि समूची दुनिया में थी। आश्चर्यजनक रूप से स्वाधीनता पूर्व भारत में कम से कम ऐसे तीन उदाहरण मिलते हैं, जहां स्त्रियों ने किसी पत्रिका का प्रकाशन-संपादन किया हो। हेमंत कुमारी चौधरी ने (रतलाम) 1888 में ”सुगृहिणीÓÓ व सुभद्राकुमारी चौहान (जबलपुर) ने 1947 में ”नारीÓÓ शीर्षक पत्रिका प्रारंभ की जबकि महादेवी वर्मा इलाहाबाद से प्रकाशित चांद के संपादक मंडल में थीं। आ•ाादी मिलने के बाद इस परिपाटी को निभाने के लिहाज से मुझे एक ही नाम याद आता है- मनमोहिनी का, जिन्होंने अपने पति प्रकाश जैन के साथ बराबरी से चलते हुए अजमेर से प्रतिष्ठित पत्रिका ”लहरÓÓ का संपादन किया। विदेशों के बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है, लेकिन एक महत्वपूर्ण अपवाद के रूप में कैथरीन ग्राहम का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने पति फिलिप की मृत्यु के बाद वाशिंगटन पोस्ट का कारोबार सम्हाला था और जिनके निर्देशन में अखबार ने वाटरगेट कांड का खुलासा किया था। मेरे ध्यान में एक-दो नाम और भी हैं, लेकिन उनका प्रभाव उतना व्यापक नहीं था।
भारत में भी इसी तरह पारिवारिक घटनाचक्र के चलते अखबार का कामकाज अपने हाथों लेने वाली कुछ महिलाएं हुई हैं। हिंदुस्तान टाइम्स में शोभना भरतिया, महाराष्ट्र हेराल्ड (पुणे) में नलिनी गेरा और पुणे के ही मराठी पत्र सकाल में क्लॉड लीला परुलेकर- इन तीनों को ही अपने-अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने का अवसर मिला। संचालन से हटकर संपादन की बात की जाए तो सबसे पहले प्रभा दत्त का नाम याद आता है, जिन्होंने 1964 में हिन्दुस्तान टाइम्स से संपादकीय विभाग में काम करना शुरू किया था। सामान्यत: उन्हें देश की पहली महिला पत्रकार माना जाता है। आज तो खैर, क्या अखबार और क्या टीवी चैनल, सब में स्त्री पत्रकारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। उनका वीमेंस प्रेस कोर ऑफ इंडिया नामक एक पृथक संगठन बन चुका है जिसका दिल्ली में एक सुव्यवस्थित दफ्तर भी चलता है। इसके साथ-साथ मीडिया संस्थानों के प्रबंध विभाग में महिला कर्मियों की नियुक्ति आम बात हो गई है। इतनी सब जानकारी और कहीं लिखने का प्रसंग आए या न आए, यह सोचकर यहां लिख दी है। यह पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए संदर्भ सामग्री के रूप में काम आ सकती है।
इस पृष्ठभूमि में मुझे यह बताने में खुशी है कि देशबन्धु अविभाजित मध्यप्रदेश का संभवत् पहला अखबार था, जब 1970 में उसी समय कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर निकली उषा घोष हमारे व्यवस्था विभाग में काम करने आईं और लगभग तेरह साल तक अपनी सेवाएं इस संस्थान को दीं। मुझे जितना याद पड़ता है, भोपाल, ग्वालियर, इंदौर, जबलपुर के किसी भी पत्र में कोई महिला तब तक नियुक्त नहीं थी। मेरे सहयोगी रमेश शर्मा के माध्यम से उषा आईं थीं और उनको नियुक्ति देने में मुझे सोच-विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, हमारा दफ्तर इस तरह की संकीर्णता से सदैव मुक्त रहा है। उषा घोष का आना रायपुर के पत्र जगत के लिए एक नई घटना थी, किंतु समय बदल रहा था। संपादकीय और व्यवस्था दोनों विभागों में धीरे-धीरे कर सभी अखबारों में महिलाओं का आगमन प्रारंभ हुआ और कहीं एकाध अपवाद छोड़कर इन सबने जिस भी पत्र में सेवाएं कीं, अपनी मेहनत, और काम के प्रति लगन से सहयोगियों की प्रशंसा अर्जित की। यहां कुछ सहकर्मियों का उल्लेख करना उचित होगा।
साठ के दशक में ”धर्मयुगÓÓ में मास्को से हेमलता आंजनेयलु के संस्मरण छपते थे। तब पता नहीं था कि उनका पैतृक घर रायपुर में है। संभवत: आकाशवाणी से सेवानिवृत्ति के बाद वे घर वापिस लौटीं और देशबन्धु से जुड़ गईं। 1990 में भोपाल संस्करण प्रारंभ हुआ तो उन्हें फीचर संपादक बनाकर वहां भेजा गया। वीरा चतुर्वेदी एक लोकप्रिय अध्यापिका और कहानी लेखिका थीं। हिंदी-अंग्रे•ाी पर उनका समान अधिकार था। वे भी रिटायर होने के बाद हमारे संपादकीय विभाग में आ गईं। उनके पढ़ाए अनेक छात्र प्रदेश और राजनीति और पत्रकारिता- इन दोनों क्षेत्रों में ख्यातिप्राप्त हैं। वीराजी ने बड़ी मेहनत से इंदर मलहोत्रा द्वारा लिखित इंदिरा गांधी की जीवनी का रोचक अनुवाद किया था। इंदरजी ने उसे धारावाहिक छापने की अनुमति भी दे दी थी, लेकिन प्रकाशक विदेशी मुद्रा में प्रकाशन अधिकार फीस चाहता था। उन दिनों यह एक कठिन क्या असंभव सा काम था, सो हमारे हाथ निराशा ही लगी। मनोरमा शुक्ला से हमारे पारिवारिक संबंध हैं। घर-परिवार के दायित्वों से कुछ अवकाश मिला तो फीचर संपादक का गुरुतर दायित्व सम्हाल लिया। वे सुबह आठ बजे प्रेस आ जाती थीं और शाम चार बजे तक लगातार अपने काम में जुटी रहती थीं। उनके कार्यकाल में अवकाश अंक में खूब निखार आया। मैं उन्हें ”भौजीÓÓ कहता था तो वे पूरे प्रेस में भौजी के आदरसूचक संबोधन से ही जानी जानें लगीं। इन तीनों विदुषियों की प्रौढ़ावस्था में भी ऊर्जा और काम के प्रति लगन देखते बनती थी। प्रभा टांक कई भाषाओं की ज्ञाता थीं- गुजराती, अंग्रेजी, हिंदी, बांग्ला, मराठी आदि। उन्होंने देशबन्धु लाइब्रेरी को व्यवस्थित रूप दिया, कई युवाओं को इस काम में प्रशिक्षित किया, कुछ स्थायी स्तंभों का काम भी सम्हाला। इन सबका अमूल्य योगदान देशबन्धु की प्रतिष्ठा वृद्धि में सहायक हुआ।
शिवानी झा ने अपने कैरियर का प्रारंभ ही देशबन्धु से किया था। उसने संपादकीय विभाग की हर डेस्क पर समान दक्षता के साथ काम किया। अदालत की रिपोर्टिंग करने गई तो किसी बात पर ख$फा एक जज साहब ने उसकी गिरफ्तारी का आदेश निकाल दिया। तत्कालीन डीआईजी आरएलएस यादव और सीएसपी रुस्तम सिंह की हिकमत से मामला सुलझा। जज ने प्रकरण वापस ले लिया। प्रेस के पास जवाहरनगर मोहल्ले में एक बालक के अपहरण और चतुराई से अपहरणकर्ताओं के चंगुल से भाग निकलने की खबर मिली तो शिवानी रिपोर्टिंग करने गईं। आकर बताया- बालक की कहानी मनगढ़ंत है। मैंने उसे उसी तरह समाचार बनाने की अनुमति दे दी। अगली सुबह मोहल्ले के लोग देशबन्धु से बेहद नारा•ा हुए, लेकिन शाम होते-होते पुलिस ने हमारी रिपोर्ट की पुष्टि कर दी। विशेष बात यह कि शिवानी को काम सीखते हुए कुछ हफ्ते ही हुए थे। उसने भारत अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी कई साल तक देशबन्धु के लिए रिपोर्टिंग की। शिवानी झा और आभा कोठारी, ऐसी दो युवा पत्रकार थीं, जिन्हें किसी भी पृष्ठ का काम सौंप दो, उसे अच्छे से करेंगी। उन दिनों प्रथम पृष्ठ के लिए रात्रि पाली में शायद ही महिलाएं कहीं काम करती थीं। इन दोनों ने बिना किसी संकोच के यह ड्यूटी भी पूरी की।
इन सबसे अलग और विशेष रूप से उल्लेखनीय गाथा सरिता धुरंधर की है। सरिता की कुछ माह पहले ही कैंसर से जूझते हुए पैंतालीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। सरिता ने बीस साल से कुछ अधिक समय तक देशबन्धु के संपादकीय विभाग में सेवाएं दीं। घर-परिवार की विषम परिस्थितियों के चलते हुए सरिता को इस कम उम्र में भी बहुत संघर्ष करना पड़ा। शिक्षक पिता की मृत्यु के बाद परिवार को सम्हालने की जिम्मेदारी उस पर ही थी। परिजनों की चिंता में सरिता ने कभी अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं की। अगर संयोगवश उसके पारिवारिक चिकित्सक डॉ. जवाहर अग्रवाल ने अपनी अनुभवी दृष्टि से अनुमान न लगाया होता तो उसे भान भी नहीं होता कि कैंसर कैसे उसकी जीवनशक्ति को क्षीण किए जा रहा था। बीमारी का पता चलने के बाद भी सरिता ने करीब चार साल तक काम किया। कीमोथैरिेपी के अगले दिन ही, लाख मना करने के बावजूद वह ड्यूटी पर आ जाती। मेरे बाद मेरी माँ और अन्य लोगों का क्या होगा, उसे इसी बात की फिक्र लगी रहती थी। सरिता धुरंधर उन बिरले लोगों में थी, जिनके लिए अपना काम सर्वोपरि होता है। उसने कभी भी किसी काम के लिए मना नहीं किया, बल्कि सहज भाव से हर ड्यूटी निभाई। सरिता का इस तरह असमय चले जाना पूरे देशबन्धु परिवार के लिए शोक का विषय बन गया। बहरहाल, इस कड़ी में अभी कुछ और नाम बाकी हैं, जिन पर यथासमय चर्चा होगी।
ललित सुरजन
देशबन्धु के स्थापना वर्ष 1959 से लेकर 1979 तक पे्रस का संचालन पहले एक, फिर दूसरे किराए के भवन से संचालित होता रहा। 1977 में जब ऑफसेट प्रिंटिंग मशीन लगाने पर विचार हुआ तो साथ-साथ अपना प्रेस भवन होने की बात भी उठी। हमारे लिए यह एक महत्वाकांक्षी योजना थी। मशीन और भवन के लिए आवश्यक पूंजी का प्रबंध कैसे होगा? इस चिंता का समाधान करने में अनेक स्रोतों से मदद मिली। बैंकों से उन दिनों अखबारों को पूंजीगत ऋण नहीं दिया जाता था। बैंकों का एक तरह से अघोषित नियम था कि प्रेस, पुलिस, प्लीडर और पॉलिटीशियन- इन चार ”पीÓÓ को कर्•ा न दिया जाए। डर होता था कि इनसे रकम वसूली करना टेढ़ी खीर साबित होगा। ऐसे समय म.प्र. वित्त निगम के रायपुर स्थित क्षेत्रीय प्रबंधक विश्वनाथ गर्ग सामने आए। आज 92 वर्ष की आयु में गर्ग भाई साहब का बाहर निकलना बंद हो गया है, लेकिन जब तक शरीर ने साथ दिया, वे पैदल ही नगर भ्रमण करते थे। बड़े पद पर होकर भी उन्होंने कार क्या, स्कूटर भी नहीं खरीदा। वे ऐसे वित्त प्रबंधक थे, जो कर्•ादारों से कमीशन लेने के बजाय उन्हें स्वयं चाय पिलाते थे और दोपहर के भोजन का समय हो गया हो तो घर पर साथ भोजन के लिए ले जाते थे। उनका घर और दफ्तर एक ही जगह था। उन्होंने हमसे न सिर्फ ऋण प्रस्ताव बनवाया, बल्कि उसे स्वीकार कराने इंदौर मुख्यालय तक खुद गए। ऋण स्वीकृति में इंदौर में जो परेशानियां आईं, उनका विस्तृत विवरण बाबूजी ने आत्मकथा में किया है।
यह जिम्मेदारी मेरे ऊपर गर्ग साहब ने डाली कि मैं ऋण प्रस्ताव बनाऊं। मैं तीन-चार दिन अपनी अकल से जैसा बना, प्रस्ताव लेकर गया तो उसे उन्होंने खारिज कर दिया। समझाया सरकार में यह देखा जाता है कि फाइल कितनी मोटी है, यह नहीं कि सामने वाली की मंशा क्या है। उनके सुझाव के अनुसार- मैंने दुबारा प्रस्ताव बनाया, जिसे देखकर वे खुश हुए। हमें मशीन व भवन के लिए चौवन लाख रुपए चाहिए, जिसमें लगभग पच्चीस प्रतिशत याने तेरह लाख की व्यवस्था हमें अपने स्रोतों से करनी थी। यह एक नई समस्या थी। हमारे पास तो तेरह हजार भी नहीं थे। यहां पर हमारे बैंक- सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने मदद की। बैंक ने तेरह लाख रुपए का ब्रिज लोन याने अस्थायी ऋण देना मंजूर कर लिया, गो कि इसके लिए भी बाबूजी को बंबई मुख्यालय तक दौड़ लगाना पड़ी। शर्त ये थी कि एक साल के भीतर हम यह रकम लौटा देंगे। भवन बनने में एक साल तो लगेगा ही, मशीन उसके बाद ही आएगी, नए कलेवर में अखबार छपेगा, आमदनी बढ़ेगी, तब कर्ज पटाया जाएगा; ऐसे में बैंक की शर्त पर अमल कैसे होगा, यह एक नया सवाल खड़ा हो गया। इस मोड़ पर हमने जो प्रयोग किया, वह पत्र जगत में व छत्तीसगढ़ के जनसाधारण में तो चर्चा का विषय बना ही, स्वयं हमें हैरत हुई कि यह कैसा कारनामा हो गया!
इंग्लैंड के प्रसिद्ध पत्रकार क्लाड मॉरिस की आत्मकथा ”आई बॉट अ न्यू•ापेपरÓÓ (मैंने एक अखबार खरीदा) 1962 में प्रकाशित हुई थी। बाबूजी उसकी एक प्रति ले आए थे और मैंने भी तभी उस पुस्तक को पढ़ लिया था। मॉरिस ने वेल्स प्रांत के कस्बे में बंद होने की कगार पर खड़ा एक अखबार खरीदा और पाठकों व स्थानीय समाज के सहयोग से उसे वापिस प्रतिष्ठित किया। बाबूजी की तो प्रारंभ से ही यही सोच रही कि अखबार जनसाधारण के लिए जनता के सहयोग से ही चल सकता है। इस सोच को आजमाने का वक्त अब आ गया था। वरिष्ठ साथियों की बैठक में धीरज भैया ने सुझाव रखा कि हम दो हजार पाठकों को चिह्नित कर उनसे छह सौ रुपए की राशि स्थायी सदस्यता के नाम पर देने का आग्रह करें। उस समय छह सौ रुपए का सालाना ब्याज लगभग साठ-पैंसठ रुपए होता था और अखबार की एक प्रति का सालाना बिल भी लगभग इतनी ही राशि का बनता था। याने स्थायी सदस्य बन जाने से पाठक को नुकसान नहीं होगा। बाबूजी ने प्रस्ताव में संशोधन किया कि एक हजार रुपए लेना चाहिए। अखबार के मूल्य में आगे वृद्धि होगी ही, उसकी भरपाई के लिए इतना कुशन रखना चाहिए। और जो स्नेही पाठक छह सौ देगा, वह एक हजार भी दे सकेगा। यह बात सबको जंच गई। ”आजीवन ग्राहक योजनाÓÓ पर काम शुरू हो गया।
मुझे जहां तक याद पड़ता है- तब तक धार्मिक पत्रिका ”कल्याणÓÓ ही शायद एकमात्र पत्रिका थी, जिसकी आजीवन सदस्यता उपलब्ध थी। संभव है कि कुछेक जातीय समाजों के मुखपत्रों में भी इस तरह की योजना रही हो! लेकिन एक दैनिक समाचारपत्र के लिए यह एक नई और किसी हद तक चौंकाने वाली पहल थी। इस पर तब ”टाइम्स ऑफ इंडियाÓÓ में भी रिपोर्ट छपी। बहरहाल, प्रेस में लगभग हर वह सदस्य जिसके थोड़े-बहुत सामाजिक संपर्क थे, इस मुहिम को सफल बनाने में जुट गया। स्वाभाविक ही शुरूआत रायपुर से की, लेकिन अभियान पूरे प्रदेश में चला। •िाला प्रतिनिधियों और संवाददाताओं ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। बाबूजी ने डोंगरगढ़ से लेकर रायगढ़ तक और बस्तर से लेकर सरगुजा तक जितना संभव हो सका दौरा किया। बाकी हम सब भी अपनी-अपनी संपर्क क्षमता की परीक्षा दे रहे थे। इस दौरान बहुत अच्छे अनुभव हुए। देशबन्धु को सहयोग देने में शायद ही किसी ने मना किया हो, बल्कि कई मित्रों ने आगे बढ़-चढ़कर सहायता की। कोई-कोई संभावित ग्राहक म•ााक में पूछ बैठता था- आजीवन किसके लिए? हम भी हँसकर जवाब देते- अखबार चलते बीस साल हो गए हैं और आपके साथ हमारा जीवन भी लंबा चलने वाला है।
मैंने इस अभियान के दौरान प्रदेश के दूरदरा•ा केंद्रों तक की यात्राएं कई-कई बार कीं जिनमें •िाला प्रतिनिधियों ने बराबरी से साथ दिया। धीरज भैया, बलवीर खनूजा, भरत अग्रवाल, हरिकिशन शर्मा, ज्ञान अवस्थी, जसराज जैन आदि का यहां स्मरण हो आना स्वाभाविक है। रायपुर में तो सारे साथी थे ही। प्रतिष्ठित समाजसेवी व्यवसायी रामावतार अग्रवाल का विशेष उल्लेख करना चाहूंगा। उन्होंने एक दिन फोन किया- चलो घूमकर आते हैं। वे अभनपुर और नयापारा राजिम में अपने परिचित बंधुओं के यहां ले गए और आठ-दस ग्राहक बनवा दिए। एक रात मैं जगदलपुर से चार दिन बाद लौटा ही था कि फोन आया- कल सुबह चलना है। थका तो था, लेकिन मुहिम को कैसे छोड़ता? अगले दिन रामावतार भैया के साथ मैं खरोरा गया और वहां भी कुछ ग्राहक बन गए। मेरे बचपन के मित्र महेश पांडे पहले अंबिकापुर, फिर राजनांदगांव में पदस्थ थे। उनके मधुर संपर्कों का लाभ मिला। अंबिकापुर से एक दिन पत्थलगांव होकर जशपुर नगर गया। रात को लौटने में काफी देर हो गई थी। सीतापुर के पास एक झरने पर आधी रात पानी पीने आए बाघ के दर्शन भी हो गए। कह सकते हैं कि वह मेरे हिस्से का बोनस था।
इस तरह प्रतिदिन जो धनराशि एकत्र होती, उसे सीधे बैंक में जमा करते जाते थे। बैंक ने जो भरोसा किया था, वह गलत सिद्ध नहीं हुआ। यथासमय काम चलाने लायक भवन निर्माण हो गया, दिल्ली से बंधु मशीनरी कं. से ऑफसेट मशीन भी आ गई। दिलचस्प संयोग यह है कि अपने समय के गणमान्य पत्रकार देशबन्धु गुप्ता के पुत्रों ने ही ऑफसेट मशीन का कारखाना डाला था। प्रारंभ में जो सहयोग राशि एक हजार निर्धारित की थी, उसे कुछ वर्ष बाद बढ़ाकर दो हजार किया। उसमें भी पाठकों का भरपूर सहयोग मिला। अधिकतर पुराने सदस्यों ने भी एक ह•ाार की अतिरिक्त राशि खुशी-खुशी दे दी। सन् 2000 के आसपास आर्थिक संकट आने पर योजना को पुनर्जीवित किया और पांच हजार रुपए की सहयोग राशि तय की। तीसरे चरण में भी देशबन्धु के चाहने वालों ने निराश नहीं किया और कुछ मित्रों ने तो स्वयं रुचि लेकर अपने परिचितों को प्रेरित किया कि वे देशबन्धु की विकास यात्रा में सहभागी बनें। कुल मिलाकर यह एक हर तरह से लाभदायी अनुभव था। मुझे इस बात की प्रसन्नता तथा उससे बढ़कर संतोष है कि पाठकों के एक बड़े वर्ग ने देशबन्धु को एक विश्वसनीय समाचारपत्र माना और इसीलिए पत्र की प्रगति में योगदान करना उन्होंने उचित समझा। अपने इन सभी पाठकों व सहयोगियों का जो ऋण हम पर है, उसकी कीमत भला कौन आंक सकता है?
ललित सुरजन
कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन में आए युवा अध्यापक बलराज साहनी को अंग्रे•ाी में लिखना छोड़कर मातृभाषा में लिखने की सलाह दी थी। उन्होंने कहा था- जब मैं मूलत: बांग्ला में लिख कर नाम कमा सका हूं तो तुम भी पंजाबी में क्यों नहीं लिख सकते? इस प्रसंग का उल्लेख करना आज आज की चर्चा में प्रासंगिक है।
देशबन्धु मेें 1969 में छत्तीसगढ़ी भाषा में स्तंभ लेखन प्रारंभ हो गया था। इस स्तंभ को सर्वप्रथम लिखने वाले थे- टिकेंद्रनाथ टिकरिहा। टिकरिहाजी वर्धा के गोविंदराम सेक्सरिया वाणिज्य महाविद्यालय में बाबूजी से जूनियर थे। इन लोगों ने मिलकर वर्धा हिंदी विद्यार्थी साहित्य समिति का गठन किया था और ”प्रदीपÓÓ नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली थी। 1941-42 में प्रकाशित इस पत्रिका के दो अंक आज भी देशबन्धु लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। मायाराम सुरजन संपादक थे। उनके साथ दो सह संपादक थे- सुखचैन बांसल व टिकेंद्रनाथ टिकरिहा। हमारे पास जो प्रतियां हैं, उनमें ये तीनों नाम लिखे हैं और ये बाबूजी की हस्तलिपि में हैं। मेरा अनुमान है कि बांसलजी और टिकरिहाजी संपादन में सहयोग के अलावा हस्तलिखित प्रतियां भी तैयार करते होंगे! आगे चलकर श्री बांसल उसी जी.एस. कॉलेज की जबलपुर शाखा में वाणिज्य के प्राध्यापक और शायद प्राचार्य भी बने। टिकरिहाजी भी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने घर रायपुर लौट आए होंगे।
मैं फिर अनुमान लगाता हूं कि रायपुर में अखबार स्थापित करने के समय बाबूजी और टिकरिहाजी के संपर्क दुबारा बने होंगे। यह संयोग था कि 1968-69 में ही मेरे आत्मीय मित्र, प्रसिद्ध रंगकर्मी व दुर्गा म.वि. में समाजशास्त्र के प्राध्यापक (स्व.) प्रदीप भट्टाचार्य ”बिल्लूÓÓ ने अपने एक छात्र भूपेंद्र को मेरे पास संपादकीय विभाग में काम सीखने भेजा। तभी मुझे मालूम पड़ा कि भूपेंद्र बाबूजी के छात्रजीवन के मित्र टिकरिहाजी के पुत्र हैं। बहरहाल, संपर्कों के इस नवीनीकरण का यह लाभ हुआ कि टिकेंद्रनाथ टिकरिहा की पत्रकारिता के प्रति रुचि फिर से जाग्रत हुई और उन्होंने हमारे लिए साप्ताहिक कॉलम लिखना शुरू कर दिया। मुझे फिलहाल याद नहीं आ रहा कि कॉलम का शीर्षक क्या था और उन्होंने स्वयं अपने लिए क्या छद्मनाम चुना था। जो भी हो, यह एक हिंदी समाचारपत्र में जनपदीय भाषा को प्रतिष्ठित करने का संभवत: पहला उपक्रम था। तब के मध्यप्रदेश के किसी भी अन्य अखबार में निमाड़ी, बघेली या बुंदेली में ऐसा कोई नियमित स्तंभ नहीं था और न शायद किसी अन्य प्रांत में किसी अन्य जनपदीय भाषा में। यह पहल छत्तीसगढ़ी भाषा में हुई और कहा जा सकता है कि इस तरह एक रिकॉर्ड बन गया।
टिकरिहाजी ने शायद अगले चार-पांच साल तक इस स्तंभ को जारी रखा। इस बीच परमानंद वर्मा हमारे संपादकीय विभाग में आए और किसी समय उन पर कॉलम को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई। परमानंद ने ”डहरचलतीÓÓ शीर्षक व ”डहरचलाÓÓ छद्मनाम से शायद बीस-पच्चीस साल तक छत्तीसगढ़ी का यह कॉलम लिखा। मैं अपनी स्मृति से ही ये सारे विवरण दे रहा हूं। (अफसोस कि अखबार की पुरानी फाइलें देखकर सही-सही समय लिखना संभव नहीं हो पा रहा है)। ”डहरचलतीÓÓ देशबन्धु का एक अत्यन्त लोकप्रिय कॉलम तो था ही, साथ-साथ स्तंभ लेखक के लिए भी कई दृष्टियों से लाभकारी सिद्ध हुआ। कालांतर में उनकी छत्तीसगढ़ी रचनाओं की अनेक पुस्तकें पाठकों के सामने आईं जो इस कॉलम के अंतर्गत प्रकाशित हो चुकी थीं। हमने छत्तीसगढ़ी भाषा का सम्मान करने के अपने प्रकल्प को एक साप्ताहिक स्तंभ तक ही सीमित न रख यथासमय उसे विस्तार देने की योजना पर भी काम किया।
1 नवंबर 2000 को जब छत्तीसगढ़ एक पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, लगभग उसी समय हमारे मन में एक विचार उठा कि देशबन्धु के संपादकीय पृष्ठ पर अग्रलेख के अलावा देश-दुनिया के मुद्दों पर एक संपादकीय छत्तीसगढ़ी में भी लिखा जाना चाहिए। इस दिशा में प्रयत्न हुआ, लेकिन यह प्रयोग अधिक दूर तक नहीं चल पाया। इसी दौरान देशबन्धु ने छत्तीसगढ़ी को राजभाषा घोषित करने व संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए भी एक हस्ताक्षर अभियान चलाया। इस मुहिम में लगभग एक लाख हस्ताक्षर इकट्ठे हुए जो हमने भारत के राष्ट्रपति को प्रेषित कर दिए। यहां कहना होगा कि इस मुहिम को वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी अपेक्षा हमने की थी। हस्ताक्षर संकलन के लिए शायद एक सघन अभियान की दरकार थी, जो किसी राजनैतिक दल के लिए ही मुमकिन था।
इसी दरमियान हमारे शुभेच्छु और रायपुर के भूतपूर्व लोकसभा सदस्य केयूर भूषण ने एक नया सुझाव सामने रखा, जिसे लागू करने में हमने देरी नहीं की। यह सुझाव था कि नए राज्य में एक साप्ताहिक कॉलम के बजाय हफ्ते में एक पूरा पेज छत्तीसगढ़ी भाषा को समर्पित करना चाहिए। इसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया। पन्ने का ”मड़ईÓÓ नामकरण भी उन्होंने ही किया। मैं चाहता था कि स्वयं केयूर जी ही ”मड़ईÓÓ का संपादन करें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी अहर्निश व्यस्तता के चलते यह संभव नहीं था सो शुरूआती दौर में परमानंद ने इसका संपादन भी किया। वे जब देशबन्धु से चले गए तो सुधा वर्मा ने यह दायित्व सम्हाल लिया। पिछले कई वर्षों से सुधा ही ”मड़ईÓÓ का संपादन कर रही हैं। उसने भी इस तरह से एक नया रिकार्ड बना लिया है। इस साप्ताहिक फीचर के माध्यम से छत्तीसगढ़ी के अनेक लेखकों को अपनी रचनाशील प्रतिभा का परिचय देने का अवसर मिला है।
”मड़ईÓÓ के नियमित प्रकाशन से मुझे प्रसन्नता तो है, लेकिन पूरी तरह संतोष नहीं है। हिंदी अखबार में छत्तीसगढ़ी को स्थान देने का निर्णय आकस्मिक और भावनात्मक नहीं, नीतिपरक और विचारात्मक था। हमारा मानना रहा है कि जनपदीय/क्षेत्रीय/आंचलिक/प्रादेशिक लघु भाषाओं का उन्नयन समाज के सर्वांगीण जनतांत्रिक विकास में सहयोगी होता है। इसलिए मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ी में लेखन का दायरा सिर्फ कविता-कहानी-व्यंग्य लेखन तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उसमें भी यदि नवोन्मेष न हो, किसी हद तक थोथा गौरव गान हो, वर्तमान की सच्चाईयों का वर्णन न हो तो ऐसा लेखन किस काम का? एक कमी जो हिंदी में हमेशा महसूस की जाती है, वह अधिक बड़े रूप में छत्तीसगढ़ी में भी है। राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल, विज्ञान इत्यादि तमाम विषयों में हमारी प्रादेशिक भाषा में लिखने की कोई पहल अब तक नहीं हुई है। इस कमी को दूर करने पर ही छत्तीसगढ़ी का एक समृद्ध भाषा के रूप में विकास हो सकेगा। मुझे कभी-कभी यह शंका भी होती है कि छत्तीसगढ़ी के नाम पर एक ऐसी जमात बन गई है जो अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए भाषा के चतुर्मुखी विकास को रोक रही है। शायद हो कि हमारे वर्तमान नीति नियामकों का ध्यान इस ओर जाए!
ललित सुरजन
आनंद भाटे रौबीले व्यक्तित्व के धनी थे। ऊंची पूरी कद-काठी। छह फुट से ऊपर के रहे होंगे। शुभ्र खादी का कुरता-पायजामा उन पर फबता था। प्रेस बूढ़ापारा में था तो उन्होंने भी पास में ही कहीं किराए पर घर ले लिया था। सड़क पर निकलते तो बारहां लोग उन्हें राजनीति के मशहूर शुक्ल बंधुओं का ही भाई समझने की गलती कर बैठते थे। भाटेजी पहले जबलपुर में बाबूजी के पास थे। फिर यहां-वहां घूमते-घामते शायद 1965 में रायपुर आ गए थे। हिंदी और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। उनकी दोनों में टाइपिंग भी बढिय़ा थी। पत्र लेखन की कला थी। इन्हीं गुणों के कारण बाबूजी ने उन्हें विज्ञापन प्रबंधक नियुक्त किया था। यदा-कदा वे बंबई व्यवसायिक दौरे पर भी जाते थे। बस, उनके जीवन में एक कमी थी कि वे नितांत अकेले थे। बाबूजी से कुछ ही बरस छोटे रहे होंगे, लेकिन विवाह नहीं किया था। रायपुर आए तो एक भोजनालय में मासिक ग्राहकी का अग्रिम शुल्क देकर सदस्य बन गए। फिर ऐसा हुआ कि अगले माह भोजनालय ने उनकी सदस्यता का नवीनीकरण करने से हाथ जोड़ लिए। तू नहीं और सही की तर्ज पर वे माह-दर-माह भोजनालय बदलते रहे। दरअसल, बात यह थी कि भाटेजी को क्षुधा तृप्ति के लिए जिस मात्रा में भोजन की आवश्यकता थी, वह तीन-चार ग्राहकों के बराबर होती थी। अग्रिम राशि ले ली तो एक माह सेवा करना मजबूरी थी, लेकिन उसके आगे नहीं। साल-डेढ़ साल बाद भाटेजी ने विवाह कर लिया और नागपुर से नवविवाहिता को साथ लेकर आ गए। उसके आगे न जाने क्या हुआ कि एक के बाद एक दोनों रायपुर छोड़कर चले गए। हमें बाद में उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली। देशबन्धु के साठ साल के इतिहास का यह एक व्यक्तिपरक लेकिन रोचक अध्याय है।
आज कुछ ऐसी ही हल्के-फुल्के प्रसंग ध्यान आ रहे हैं। एक किस्सा राजनादगांव का है। यह साठ के दशक की बात है जब प्रदेश में रायपुर ही एकमात्र प्रकाशन केंद्र था और यहां से चार दैनिक समाचारपत्र प्रकाशित होते थे। स्वाभाविक है कि प्रदेश में अखबार जहां तक पहुंचते हों, वहां हर पत्र का अपना एक संवाददाता हो। इन दूरस्थ केंद्रों में पत्रकारों के बीच समाचार संकलन के लिए होड़ हो, स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा हो, यह भी स्वाभाविक अपेक्षा होती थी। लेकिन प्रदेश की संस्कारधानी के रूप में ख्यातिप्राप्त राजनादगांव इस मामले में एक अपवाद था। देशबन्धु (तब नई दुनिया रायपुर) में रानूलाल झाबक, नवभारत में मातादीन अग्रवाल, महाकौशल में दुलीचंद बरडिय़ा व युगधर्म में रामेश्वर जोशी क्रमश: कार्यरत थे। ये सभी मृदुभाषी, मिलनसार, व्यवहारकुशल सज्जन थे। खैर, यह मेरी ड्यूटी का अंग था कि सभी अखबारों का नितदिन तुलनात्मक अध्ययन करूं। इस प्रक्रिया में मैंने गौर किया कि राजनादगांव के समाचार चारों पत्रों में हू-ब-हू छपते हैं। मैंने झाबकजी से पूछा तो पता चला कि चारों मित्र एक साथ बैठकर समाचार तैयार करते हैं। लेखन का काम शायद जोशीजी सम्हालते थे। बाकी तीनों के अपने छोटे-बड़े व्यापार भी थे। एक ने लिखा, अन्य ने अपनी लिखावट में प्रतिलिपि तैयार की और लिफाफा रायपुर भेज दिया। मुझे मजबूरन आदर्श मैत्री संबंध को तोडऩे के अपराध का भागी बनना पड़ा। हमने नए संवाददाता की नियुक्ति की लेकिन अन्य पत्रों में यह सिलसिला कुछ और वर्षों तक चलता रहा। आज पचपन साल बाद हम फिर शायद उसी दौर में लौट आए हैं; बल्कि जो रिवा•ा सिर्फ एक केंद्र तक सीमित था, वह चारों तरफ फैल गया है। यह आज का व्यापक चलन है कि गांव में कोई एक पत्रकार, या शायद कंप्यूटर केंद्र का हिंदी ऑपरेटर ही सारी खबरें तैयार करता है और उसे अपने डेस्क टॉप से सभी पत्रों को भेज देता है। उसमें कई दफे हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मूलत: जो संवाददाता समाचार बनाता है, वह एक दिन या एक समाचार के लिए सभी पत्रों का संवाददाता बन जाता है।
बहरहाल, पाठक जानते हैं कि समाचारपत्रों को अनेक तरह के दबावों का सामना क रना पड़ता है और इसके उद्गम भी अनेक हंै। उन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष चर्चा इस लेखमाला में बीच-बीच में होती रही है। आपके अखबार पर दबाव बनाने का एक दिलचस्प प्रसंग सत्तर के दशक में आया। उन दिनों छत्तीसगढ़ में सड़क परिवहन में कुछ कंपनियों का लगभग एकाधिकार था। अखबार के पार्सल दूर-दराज के गांवों तक बसों से ही भेजे जाते थे। इन बसों के परिचालन में बहुत सी धांधलियों की शिकायतें आती थीं- समय पर न चलना, कहीं भी रोक देना, टिकिट न देना, पैसे न लौटाना, ठसाठस सवारी भर लेना आदि। इस बारे में समाचार छपने से नारा•ा एक कंपनी मालिक ने बाबूजी को फोन-किया- आपका राजिम का संवाददाता ठीक नहीं है। उसे बदल दीजिए। मैं दूसरा बेहतर आदमी आपको देता हूं। बाबूजी ने जवाब दिया- मैं जिस दिन आपकी बस का ड्राइवर बदलने की सिफारिश करूं, उसी दिन आप मुझे, संवाददाता बदलने की सलाह दीजिए। उन्हें इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। उनका बस चलता तो शायद पेपर के पार्सल ले जाना ही बंद कर देते लेकिन वह दौर अपेक्षाकृत सहिष्णुता का था। आज की तरह अखबारों की भरमार नहीं थी। यह भी जानते थे कि देशबन्धु को झुकाना संभव नहीं है।
इसी से कुछ-कुछ मिलता-जुलता एक और प्रसंग संभवत् 1971 के आम चुनावों के समय घटित हुआ। संपादकीय विभाग में सारंगढ़ के आसपास किसी स्थान के एक श्री वाजपेयी कार्यरत थे। कविहृदय थे। हिंदी बहुत अच्छी थी। समाचारों की समझ भी वैसी ही थी। वे एक दिन लंबे अवकाश का आवेदन लेकर आए। इतनी लंबी छुट्टी किसलिए? मुझे अपने इलाके में चुनाव प्रचार के लिए जाना है। भैया का आदेश है कि छुट्टी लेकर आ जाऊं। बहुत काम करना है। मैंने अवकाश स्वीकृत नहीं किया। चुनाव का समय है। दफ्तर में ही इतना काम है। आपके जैसे कुशल साथी को छुट्टी दूंगा तो काम कैसे चलेगा? वे मन मसोस कर चले गए। दो दिन बाद भैया याने केंद्रीय राजनीति में प्रभाव रखने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का फोन आया- अरे भाई ललित! वाजपेयीजी की •ारूरत है। तुम उन्हें छुट्टी दे दो। यह तो संभव नहीं है। हमारे ऊपर ही इस वक्त काम का अतिरिक्त बोझ है। फिर वैसे भी हमारी घोषित नीति है कि हमारे पत्रकार किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं बन सकते। बात यहीं खत्म हो गई। श्री वाजपेयी बिना अवकाश स्वीकृत हुए चले गए। चुनाव समाप्त होने के बाद लौटे तो उनके लिए जगह खाली नहीं थी। फिर वे कहां गए, मालूम नहीं।
आज का अध्याय मैं एक बहुत मनोरंजक किस्सा बयान करके समाप्त करना चाहूंगा। यह घटना जबलपुर कार्यालय की है। साल 1962। एक सज्जन बाबूजी से मिलने आए। परिचय दिया- मैं कविताएं लिखता हूं। आपको सुनाना चाहता हूं। भाई, यह मेरे काम करने का समय है। इस वक्त कविता नहीं सुन सकता। किसी दिन गोष्ठी में आऊंगा तो सुन लूंगा। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कुरते की जेब से एक मोटा लिफाफा निकाला। इसे देख लीजिए। मेरे स्वलिखित गीत हैं। एकदम ता•ाा लिखे हैं। इनको पढऩे का भी समय नहीं है। आप संपादकीय विभाग में हीरालाल जी गुप्त से मिल लीजिए। वे भी कवि हैं। आप उनको अपनी कविताएं दे दीजिए। छपने योग्य समझेंगे तो अवश्य छपेंगी। कवि महोदय ने इतना सुनकर भी न तो धैर्य खोया और न हिम्मत हारी। कुरते की दूसरी पॉकेट से एक पुड़ा निकाला। यह तो स्वीकार कीजिए। यह क्या है? जी, अपनी चौक पर पान की दूकान है। आपके लिए अपने हाथ से बनाकर लाया हूं। इतना सुनना था कि बाबूजी का पारा चढ़ गया। तुम कविता छपाने के लिए मुझे पान की रिश्वत देने आए हो। बाबूजी के तेवर देखकर कविजी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वे चुपचाप बाहर आए और अपना रास्ता पकड़ा।
ललित सुरजन
आज नए साल का दूसरा दिन है। अपने तमाम पाठकों को शुभकामनाएं देते हुए मेरा ध्यान फिर उन सारे व्यक्तियों की ओर जाता है, जिनके सद्भाव और सहयोग के बल पर देशबन्धु की यात्रा जारी है। पिछली किश्तों में और ऐसे कुछ शुभचिंतकों से आपका परिचय हो चुका है, लेकिन यह एक लंबी सूची है जिसे मैं अपनी गति से पूरी करने की कोशिश में लगा हूं। आज सबसे पहले देशपांडे चाचा का नाम स्मृति पटल पर दस्तक दे रहा है। एम.एन. देशपांडे वर्धा के वाणिज्य महाविद्यालय में बाबूजी से एक साल आगे थे। हम जब रायपुर आए, लगभग उसी समय वे भी इस प्रदेश के पहले चार्टर्ड एकाउंटेंट (सी.ए.) के रूप में अपना कार्यालय खोलने यहां आ गए थे। एक व्यापारिक उपक्रम होने के कारण अखबार को अपने लेखा प्रमाणित करने के लिए सी.ए. की आवश्यकता होना ही थी। विशेषकर इसलिए भी कि समाचारपत्रों की प्रसार संख्या प्रमाणित करने वाली संस्था एबीसी (ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन) की सदस्यता के लिए भी एक आंतरिक लेखा परीक्षक (इंटरनल ऑडीटर) नियुक्त करना अनिवार्य शर्त थी। एबीसी द्वारा प्रसार संख्या प्रमाणित होने पर राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापन मिलना सहज हो जाता था। उस प्रक्रिया की बारीकियां जानने में पाठकों को शायद दिलचस्पी न होगी। हमने काफी बाद में एबीसी की सदस्यता क्यों त्याग दी, वह किस्सा अवश्य कभी लिखूंगा।
बहरहाल, पुराने मध्यप्रदेश (सीपी एंड बरार) की प्रतिष्ठित ऑडिट फर्म के.के. मानकेश्वर एंड कंपनी की शाखा स्थापित करने उसके भागीदार देशपांडेजी रायपुर आए थे। उनकी फर्म को न सिर्फ देशबन्धु, बल्कि अन्य पत्रों ने भी ऑडिट का काम सौंपा। देशपांडे चाचा और बाबूजी दोनों राजनैतिक विचार से विपरीत ध्रुव पर थे, लेकिन इसका कोई प्रभाव न तो व्यवसायिक संबंधों पर पड़ा और न पारिवारिक मैत्री पर। चाचा भी पुस्तक व्यसनी थे तथा दोनों मित्रों के बीच पुस्तकों का विनिमय व उन पर जीवंत चर्चाएं होती थीं, जिनमें यदा-कदा भाग लेने का अवसर मुझे भी मिला। देशपांडेजी का बाबूजी पर पूरा विश्वास था और हमारे यहां से जो लेखा तैयार होता था, उसे सरसरी निगाह से देखकर ही वे उसे पास कर देते थे। एबीसी की ओर से हर तीन साल में आंतरिक लेखापाल द्वारा जारी प्रमाण पत्र का पुनर्परीक्षण करवाने का नियम था। उसमें भी कभी देशपांडेजी द्वारा प्रमाणित लेखा में त्रुटि नहीं पाई गई। वर्तमान समय में जब ऐसा परस्पर विश्वास और स्नेह दुर्लभ हो चुका है, इस मित्रता को रेखांकित किया जाना किसी दृष्टि से प्रासंगिक हो सकता है। मुझे प्रसन्नता है कि चाचा के सुयोग्य सुपुत्र किशोर देशपांडे ने अपनी संस्था की प्रामाणिकता और अपने संबंधों की ऊष्मा को बरकरार रखा है।
मैंने पिछली किश्तों में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का उल्लेख किया है। एक समय एन.एस.एस. राव रायपुर शाखा में मुख्य प्रबंधक नियुक्त होकर आए। आगे चलकर वे बैंक के सर्वोच्च पद महाप्रबंधक तक पहुंचे। एक दिन बाबूजी रायपुर में नहीं थे। बैंक खाता उनके ही हस्ताक्षर से चलता था। हमें किसी को चेक जारी करना था, लेकिन बाबूजी के दस्तखत बिना काम कैसे चले? मैं बैंक गया। राव साहब को समस्या बताई। उन्होंने मुझसे चेक पर दस्तखत करने कहा, उसे अपने दस्तखत और सील से प्रमाणित किया। बाबूजी लौटकर आए तो उन्हें उलाहना देते हुए सलाह दी- ललित काम संभालने लगा है। उसे आप हस्ताक्षर करने का अधिकार क्यों नहीं देते। यह तो एक छोटा प्रसंग है, लेकिन देशबन्धु के वित्तीय प्रबंधन में राव साहब की सलाह और सहयोग आगे भी बहुत काम आए। सेंट्रल बैंक में जी.डी. मनचंदा, एच.एल. बजाज, बृजगोपाल व्यास, एस.एस. पंड्या, एम. रहमान, श्रीधर उन्हेलकर, जयकिशन भट्टर ‘भगतजीÓ, जी.पी. शुक्ला आदि अनेक अधिकारियों ने हमारी नेकनीयत पर विश्वास कायम रखा और समय-समय पर हमारे मददगार सिद्ध हुए। इन सबके बारे में लिखूं तो एक अलग पुस्तक बन जाए।
यूं तो सेंट्रल बैंक ही हमारा मुख्य बैंक था, लेकिन बीच-बीच में आवश्यकता पडऩे पर अन्य बैंकों के साथ भी हमने संबंध बनाए। इनमें इलाहाबाद बैंक से जुड़ा एक प्रसंग खासा दिलचस्प है। हमने मालवीय रोड स्थिति शाखा में खाता तो खोल लिया था, किंतु लेन-देन कुछ विशेष नहीं था। उन दिनों नहरपारा स्थित प्रेस से शाम के समय बाबूजी पैदल नगर भ्रमण करते हुए घर पहुंचते थे। एक शाम शाखा प्रबंधक गणेश प्रसाद लाल ने बैंक की बाल्कनी से बाबूजी को पैदल जाते हुए देखा। साथ में खड़े गोडाऊन कीपर राजेंद्र तिवारी से उन्होंने कहा- अखबार के मालिक हैं, लेकिन इतनी सादगी का जीवन है! वे बाबूजी से बहुत प्रभावित हुए और अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर हमारी जितनी सहायता कर सकते थे, उतनी की। उनके बाद शब्दस्वरूप श्रीवास्तव मैनेजर बनकर आए तो उन्होंने भी देशबन्धु को सहयोग देने में कोई कमी नहीं की। नेशनल हेराल्ड से जो छपाई मशीन हमने खरीदी थी, उसके लिए ऋण श्रीवास्तवजी के प्रयत्नों से ही मिला। इन प्रसंगों में नोट करने लायक बात यही है कि आज से चालीस-पचास साल पहले बैंक और ग्राहकों के रिश्ते किस तरह से बनते और निभते थे। वर्तमान में जब बैकों की डूबत रकम सारे काग•ा-पत्तर दुरुस्त होने के बावजूद अरबों-खरबों में पहुंच गई है, तब क्या ये उदाहरण कहीं दिशा संकेतक का काम कर सकते हैं?
व्यवसायिक बैंक ही नहीं, देसी बैंकर्स और गैर-औपचारिक तौर पर लेन-देन करने में भी हमें तरह-तरह के अनुभव हासिल हुए। रायपुर के जवाहर बा•ाार में देसी बैंकर्स के अनेक प्रतिष्ठान थे, जहां अमूमन नब्बे दिन की दर्शनी हुंडी पर ब्याज का कारोबार चलता था। इनके साथ लेन-देन में सामान्यत: कोई मुरव्वत या छूट की गुंजाइश नहीं होती थी। लेकिन लखमीचंद परमानंद फर्म के वरिष्ठ पार्टनर परमानंद भाई छाबडिय़ा एक अपवाद थे। वे बाबूजी के प्रति गहरा सम्मान भाव रखते थे और हमें आवश्यकता पडऩे पर यथासंभव सहयोग करते थे। 1994 में बाबूजी के निधन के बाद के बेहद कठिन दिनों में उन्होंने सीमा से परे जाकर हमारी जो मदद की, उसे मैं नहीं भुला सकता। उन्होंने अपना निजी कारोबार काफी समेट लिया था लेकिन वे अपनी गारंटी पर दूसरे महाजनों से हमें ऋण दिलवा देते थे। परमानंद भाई मुझसे कहते भी थे- आपके बाबूजी जैसे सज्जन मैंने और नहीं देखे। सन् 2000 में जब मैंने आजीवन ग्राहक योजना पुन: प्रारंभ की तो वे मुझे अपने तमाम परिचितों के यहां ले गए और उन्हें ग्राहक बनवा दिया। उनके उपकारी स्वभाव के कारण किसी ने भी मना नहीं किया। उसी बीच मैं बीमार पड़ा तो एक दिन वे थोक फल मार्केट से चुनिंदा फलों का पिटारा लेकर दूसरी मंजिल चढ़कर मेरे घर आ गए। ऐसे उम्दा फल रायपुर में हमने न पहले और न बाद में कभी चखे। दुर्भाग्यवश कुछ वर्ष पूर्व उनकी असमय मृत्यु हो गई और मुझे एक सच्चे शुभचिंतक के साथ से वंचित होना पड़ा।
आज की कड़ी बृजगोपाल व्यास से जुड़े दो छोटे-छोटे प्रसंगों के जिक्र के साथ समाप्त होगी। श्री व्यास बूढ़ापारा में हमारे पड़ोसी थे। उनके अनुज प्रख्यात भजनगायक रविशंकर मेरे सहपाठी थे। इसलिए व्यासजी को मैं भैया का संबोधन देता था। वे सेंट्रल बैंक में मैनेजर थे। एक दिन ऐसा हुआ कि मैं एक शवयात्रा में शरीक होने के बाद सीधा बैंक पहुंचा। वह मेरे जीवन में शवयात्रा का पहला अनुभव था। मन विचलित था। व्यासजी ने ओवरड्राफ्ट देने से मना कर दिया तो उसी मनोदशा में उन्हीं के सामने चेक फाड़कर प्रेस आ गया। लेकिन आज का काम कैसे होगा, यह चिंता बनी हुई थी। इतने में स्वयं व्यासजी का फोन आ गया- तुम्हारा काम कर रहा हूं। नया चेक लेकर आओ। फिर डांट पड़ी- तुम क्या समझते हो; मुझे भी ऊपर जवाब देना पड़ता है; ”नैस्टी लैटरÓÓ आते हैं। खैर, काम बन गया। एक शाम बैंक बंद होने के समय तक मैं उनके साथ बैठा था। उनके कक्ष में एक पांच फीट ऊंची दीवार का पार्टीशन कर दूसरी ओर रिकॉर्ड रूम था। चलने का समय हुआ तो व्यासजी ने पार्टीशन वाले दरवाजे पर ताला लगाया। मैंने विस्मय से पूछा- ताला क्यों? आपकी टेबल पर चढ़कर कोई भी पार्टीशन फांदकर उस ओर जा सकता है। उनका सारगर्भित उत्तर था- ”ताला साहूकार के लिए होता है, चोर के लिए नहीं।
ललित सुरजन
आप इतना तो जानते हैं कि अखबार छापने के लिए न्यू•ाप्रिंट या कि अखबारी कागज का इस्तेमाल होता है। आपको इसके आगे शायद यह जानने में भी दिलचस्पी हो कि हम यह बुनियादी कच्चा माल कहां से और कैसे हासिल करते हैं। एक समय था जब देश के समाचारपत्र उद्योग की आवश्यकता का शत-प्रतिशत न्यू•ाप्रिंट सुदूर कनाडा से आयात किया जाता है। साठ के दशक के अंत-अंत में स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे, सोवियत संघ से भी अखबारी काग•ा आने लगा। गौर कीजिए कि ये सारे देश उत्तरी गोलाद्र्ध में हैं। हिमप्रदेशों में ऊंचाई पर पाए जाने वाले गगनचुंबी वृक्षों की लुगदी से ही न्यू•ाप्रिंट का उत्पादन किया जाता था। भारत में ह•ाारों मील दूर से न्यू•ाप्रिंट लाने के रास्ते में कुछ व्यवहारिक अड़चने थीं। सबसे बड़ी दिक्कत विदेशी मुद्रा की थी। हमारे देश में आ•ाादी मिलने के बाद से कई दशक तक निर्यात से कोई खास आय नहीं थी और जो भी विदेशी मुद्रा भंडार था, उसका उपयोग खाद्यान्न, पेट्रोल, आयुध सामग्री आदि विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्राथमिकता के आधार पर करना होता था। समाचारपत्रों को न्यू•ाप्रिंट मिल सके, इस दिशा में भी सरकार का रुख सकारात्मक था, लेकिन उसके लिए कुछ बंदिशें लागू थीं।
हमें न्यू•ाप्रिट आयात करने के लिए केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय में आयात-निर्यात महानिदेशक के कार्यालय से वास्तविक उपभोक्ता (एक्चुअल यू•ार या ए.यू) लाइसेंस हासिल करना होता था। भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक (आर.एन.आई.) अखबार की प्रसार संख्या प्रमाणित करते थे, उसी आधार पर ए.यू. लाइसेंस जारी होता था। यह लाइसेंस हम बंबई (अब मुंबई) में किसी आयात-निर्यात एजेंट (क्लीयरिंग एंड फॉरवर्डिंग फर्म)को दे देते थे। वे हमारी ओर से कनाडा या किसी अन्य देश को न्यू•ाप्रिट उत्पादक कंपनी को ऑर्डर देते, उसके लिए बैंक से विदेशी मुद्रा भुगतान की व्यवस्था करते, जहा•ा आ जाने पर माल उतारने और मालगाड़ी में चढ़ाकर हम तक भेजने का सारा प्रबंध करते थे। इसके लिए हम उन्हें एक निर्धारित कमीशन देते थे। अब देखिए कि फैक्टरी से काग•ा रवाना होते समय उसकी जितनी कीमत होती थी, लगभग उतनी ही राशि समुद्री जहा•ा के भाड़े में लग जाती थी। उसके बाद कमीशन और उस पर रेलभाड़ा। कुल मिलाकर पाठकों तक अखबार पहुंचाना सस्ता सौदा नहीं था। वह आज भी नहीं है।
बहरहाल, कनाडा से चलकर रायपुर तक न्यू•ाप्रिट आने की लंबी प्रक्रिया में कई बार अप्रत्याशित परेशानियां सामने आ जाती थीं। एक बार ऐसा हुआ कि बंबई डॉकयार्ड (बंदरगाह) से चली वैगन लगभग बीस दिन बाद भी रायपुर नहीं पहुंची। यहां हमारे गोदाम में रखा स्टॉक खत्म होते जा रहा था। तब हमने पहले तो भिलाई के पास चरौदा मार्शलिंग यार्ड में पता किया कि हमारी वैगन वाली मालगाड़ी कहीं वहां आकर तो नहीं खड़ी है। फिर बाबूजी ने राजू दा को वैगन खोज मिशन पर रवाना किया। नागपुर में पता किया तो वहां वैगन पहुंची ही नहीं थी। दा वहां से भुसावल गए। पता चला कि भुसावल के यार्ड मेें ”सिक लाइनÓÓ पर किसी कारण से वैगन कई दिन से खड़ी हुई है। वहां से वैगन को निकलवाया, रायपुर की तरफ आ रही किसी मालगाड़ी में उसे जोड़ा, और खुद गार्ड के डिब्बे में साथ बैठकर आए। दूसरे-तीसरे दिन ले-देकर वैगन रायपुर पहुंची। उस दिन अगर वैगन न आती तो अगले दिन अखबार छप नहीं सकता था, क्योंकि गोदाम में काग•ा बचा ही नहीं था।
एक बार और कुछ ऐसी ही स्थिति बनी, जब कलकत्ता से रवाना हुई वैगन राउरकेला के पास बंड़ामुंडा यार्ड में अकारण कुछ दिन रोक दी गई। खैर, बंबई में हमारे दो क्लीयरिंग एजेंटों से संबंध बन गए थे। एक थी इंडियन गुड्स सप्लाइंग कं., जिसके मालिक दो शाह बंधु थे। दूसरे थे- अब्दुल्ला भाई फिदाअली एंड कंपनी। इन दोनों ने लंबे अरसे तक हमारे लिए न्यू•ाप्रिंट आयात का काम किया। दूसरी फर्म के फिदाहुसैन सेठ ने तो वक्त-बेवक्त हमारी और भी मदद की। जैसे मोनोटाइप मशीनें खरीदने के लिए बैंक में मार्जिन मनी जमा करना थी। उनसे रकम उधार ली कि न्यू•ाप्रिंट की अगली खेप के बिल में इसे जोड़ लेना। 1986 में जब बाबूजी बंबई में अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ. ए.बी. बावड़ेकर के अस्पताल में बारह दिन भर्ती थे तो उनका बिल चुकाने की प्रत्याशा में मैं इन्हीं दोनों एजेंसियों में गया और उनसे रुपए लेकर आया। यह एक मार्मिक प्रसंग है कि डॉ. बावड़ेकर ने पहली बार का परिचय होने के बावजूद बाबूजी के इला•ा की फीस और अन्य खर्चे लेने से इंकार कर दिया। उनका ”विद कांप्लीमेंट्सÓÓ (शुभकामनाओं सहित) का मात्र पांच हजार रुपए का बिल आज भी मेरे काग•ाातों में सुरक्षित रखे हैं।
बहरहाल, पं. नेहरू के कार्यकाल में ही भारत में न्यू•ाप्रिंट उत्पादन की योजना पर काम प्रारंभ हो गया था। बिड़ला घराने को अमलाई पेपर कारखाने का लाइसेंस इस शर्त पर दिया गया था कि वे पचास प्रतिशत न्यू•ाप्रिंट और पचास प्रतिशत व्हाइट पेपर या दूसरा कागज बनाएंगे। उन्होंने किसी तरकीब से इस शर्त को निरस्त कर शत-प्रतिशत व्हाइट पेपर बनाने की अनुमति हासिल कर ली। इस कारखाने में मध्यप्रदेश के जंगलों में प्रचुरता से होने वाले बांस की लुगदी से काग•ा का उत्पादन होना था। लगभग इसी समय बुरहानपुर के पास नेपानगर में सार्वजनिक उपक्रम के रूप में न्यू•ाप्रिंट कारखाने की स्थापना की गई। नेपा में बांस की लुगदी से बने काग•ा में वह गुणवत्ता नहीं थी, जो आयातित न्यू•ाप्रिंट में थी। कनाडा का काग•ा सफेद झक्क होता था, आसानी से फटता नहीं था, और वजन में भी अपेक्षाकृत हल्का था। इसलिए अधिकतर अखबार नेपा से काग•ा खरीदने से कतराते थे। लेकिन विदेशी मुद्रा की पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण कुछ मात्रा में तो काग•ा लेना ही पड़ता था।
रुपए के अवमूल्यन व विदेशी मुद्रा के गहराते संकट के कारण भी समाचारपत्र संस्थान नेपा की ओर प्रवृत्त हुए। नेपा ने अपने उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाने के प्रयत्न भी जारी रखे। एक समय तो यह स्थिति आई कि नेपानगर में कारखाने के बाहर ट्रकों की कई-कई दिनों तक कतारें लगने लगीं। आपूर्ति कम, मांग अधिक। इसी बीच भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में तमिलनाडु पेपर मिल्स, मैसूर पेपर मिल्स एवं केरल में हिंदुस्तान पेपर मिल्स की स्थापना की। इनमें विदेशों से आयातित लुगदी से काग•ा बनाने के संयंत्र लगाए गए। बंबई, कलकत्ता या नेपा के मुकाबले इन सुदूर स्थानों से न्यू•ाप्रिंट खरीदना महंगा पड़ता था, लेकिन देश में अखबारों की संख्या बढ़ रही थी, पेजों की संख्या बढ़ रही थी और प्रसार संख्या भी बढ़ रही थी; तब जहां से, जैसे भी, जिस दाम पर भी, काग•ा मिले खरीदना ही था। जिन अखबार मालिकों के अपने दूसरे व्यवसाय थे, उन्हें कोई अड़चन नहीं थी। लेकिन मुश्किल देशबन्धु जैसे पत्रों के सामने थी, जिनके पास आय के अन्य स्रोत नहीं थे।
समाचारपत्र उद्योग पर पूंजीपतियों का वर्चस्व स्थापित होने की यह एक तरह से शुरुआत थी। यदि हम अपनी जगह पर टिके रह सके तो इसकी एक वजह थी कि विगत दो-ढाई दशकों में पुराने न्यू•ाप्रिंट को रिसाइकिल करने की प्रविधि विकसित हो जाने से न्यू•ाप्रिंट के अनेक नए कारखाने खुल गए हैं। अब न्यू•ाप्रिंट अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध हो जाता है। यद्यपि आयातित न्यू•ाप्रिंट अथवा नेपानगर की गुणवत्ता उसमें नहीं है। आप जब इनामी योजनाओं के लालच में अखबार के ग्राहक बनते हैं, तब याद रखिए कि पूरी कीमत देकर अखबार खरीदने की आपको अनिच्छा भी कहीं न कहीं निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता का मार्ग अवरुद्ध करती है।
ललित सुरजन
आज से साठ साल पूर्व के उस समय की कल्पना कीजिए जब स्मार्टफोन नहीं था, वाट्स अप नहीं था! पी, सी., लैपटॉप, टैबलेट नहीं थे; इंटरनेट नहीं था; डाकघर तो काफी थे, लेकिन तारघरों की संख्या उतनी नहीं थी (अब तो तारघर बंद ही हो गए हैं); और टेलीफोन भी एक दुर्लभ सेवा थी। अब तनिक विचार करिए कि उस समय के अखबार, समाचारों का संकलन किस विधि से करते थे! देश-विदेश की खबरें देने के लिए एकमात्र समाचार एजेंसी थी-प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया याने पीटीआई। अखबार के संपादकीय कक्ष में एक कोने में पीटीआई का टेलीप्रिंटर लगा होता था, जो सुबह नौ बजे चालू होता था और रात बारह-एक बजे तक उस पर समाचार आते रहते थे। जब कोई खास खबर हो तो प्रिंटर पर सामान्य टिक-टिक के अलावा ते•ा आवाज में घंटी बजने लगती थी। पीटीआई पर संवाद प्रेषण की भाषा अंग्रे•ाी होती थी, इसलिए संपादकों को अंग्रे•ाी ज्ञान होना लगभग एक अनिवार्य शर्त थी। उसके बिना समाचार का अनुवाद कैसे होता? जिन्हें अंग्रे•ाी नहीं आती थी, उनका जीवन प्रांतीय समाचार डेस्क पर ही बीत जाता था। अपवाद स्वरूप ऐसे पत्रकार भी होते थे, जो अपने सामान्य ज्ञान और सहजबुद्धि के बलबूते कामचलाऊ अनुवाद कर लेते थे।
पीटीआई की सेवा भी सहज उपलब्ध नहीं थी। हमारे अखबार का जब प्रकाशन शुरू हुआ तो तकनीकी कारणों से प्रिंटर लगते-लगते छह माह बीत गए। इस दौरान आकाशवाणी से समाचार लेना ही एकमात्र उपाय था। 1963 में जब बाबूजी ने जबलपुर समाचार का प्रकाशन हाथ में लिया, तब भी यही मुश्किल पेश आई। हम लोग तब सुबह-दोपहर-शाम आकाशवाणी पर समाचार सुनते और द्रुत गति से उसे लिखते जाते। देवकीनंदन पांडेय, विनोद कश्यप, इंदु वाही आदि उस दौर के सुपरिचित समाचार वाचक थे। हममें से जिनके कान अंग्रे•ाी सुनने के अभ्यस्त थे, वे अंग्रे•ाी की बुलेटिन भी सुन लेते थे। इन दिनों संघ परिवार ने भी हिंदुस्तान समाचार नामक एक समाचार एजेंसी प्रारंभ की, लेकिन उसके समाचार डाक से ही भेजे जाते थे। पीटीआई के मुकाबले एक नई सेवा यूएनआई (यूनाइटेड न्यू•ा ऑफ इंडिया) के नाम से 1968-69 में प्रारंभ हुई। वरिष्ठ पत्रकार जीडी मीरचंदानी इसके महाप्रबंधक व मुख्य संपादक थे। उनके आग्रह पर हमने शायद 1972 या 73 में पीटीआई बंद कर यूएनआई की सेवाएं ले लीं। रायपुर में हम अकेले ग्राहक थे तो उन्होंने अलग से दफ्तर नहीं खोला। नहरपारा के प्रेस में प्रिंटर लगा दिया गया। दिल्ली से एक युवा तकनीशियन सुधीर डोगरा को यूएनआई ने रायपुर भेज दिया, ताकि मशीन का रख-रखाव होता रहे। हंसमुख, मिलनसार और काम में मुस्तैद सुधीर कुछ ही समय में हमारे परिवार के सदस्य जैसे बन गए और वह आत्मीयता आज तक कायम है।
यह तो बात हुई देश-विदेश की खबरों की। प्रकाशन स्थल अर्थात रायपुर के समाचार लाने के लिए नगर संवाददाताओं की टीम होना ही थी। मुझे अगर ठीक याद आता है तो ”द स्टेट्समैनÓÓ व ”हितवादÓÓ के संवाददाता मेघनाद बोधनकर के सिवाय किसी अन्य रिपोर्टर के पास स्कूटर या बाइक नहीं थी। हम सब साइकिल पर चलते थे। शारीरिक श्रम करने का अभ्यास था। भागते-दौड़ते काम करना दैनंदिन जीवन का अंग था। फिर शहर आज जैसा फैला हुआ भी नहीं था। पश्चिम में साइंस कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज; दक्षिण में टिकरापारा; उत्तर में फाफाडीह रेलवे क्रासिंग; और पूर्व में कृषि महाविद्यालय। रेलवे स्टेशन बहुत दूर नहीं था, बस स्टैंड शहर के बीचोंबीच था; आयुक्त, जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक कार्यालय; अस्पताल, सर्किट हाउस, जनसंपर्क विभाग, सब पास-पास ही थे। कहीं से खबर मिलने की संभावना बनी तो साइकिल उठाई और दस-पंद्रह मिनट में वहां पहुंच गए। उन दिनों भी प्रेस विज्ञप्तियां आती थीं, लेकिन वे अधिकतर सूचनात्मक होती थीं। आज की तरह रेडीमेड खबरें छापने का चलन नहीं था।
रायपुर के बाहर के केंद्रों से अखबार के दफ्तर तक समाचार पहुंचाना अपेक्षाकृत समयसाध्य और कष्टसाध्य था। जशपुर हो या अंबिकापुर, जगदलपुर हो या कवर्धा, अमूमन समाचार डाक से ही भेजे जाते थे। उन दिनों डाकघर में तीन दिन में तीन बार डाक छंटाई और वितरण की व्यवस्था थी। संवाददाताओं के भेजे हुए लिफाफे काफी कुछ तो अगले दिन मिल जाते थे, लेकिन बरसात के समय इसमें विलंब हो जाना स्वाभाविक था। फिर भी आज की खबर कल भेजी, परसों मिलीं, नरसों छपी-इस तरह एक खबर के छपने में तीन दिन लग जाना सामान्य बात थी। बहुत आवश्यक, तत्काल छपने लायक समाचार हुआ तो संवाददाता टेलीफोन का सहारा लेते थे, या तार भेजते थे। किंतु सब जगह न तो फोन थे और न तार की व्यवस्था। एक और विकल्प था- रेलवे स्टेशन अथवा बस स्टैंड पर रायपुर जा रहे किसी परिचित को खोजकर उसके हाथ में लिफाफा थमा देना- भैया, प्रेस तक पहुंचा देना। परिचित जन सहयोग देने में कोताही नहीं करते थे। फिर एक नई तरकीब निकाली। रायपुर बस स्टैंड पर हमने अपना मेल बॉक्स लगा दिया। ड्राइवर, कंडक्टर या परिचित यात्री रायपुर उतरकर उसमें खबरों का लिफाफा डाल देते। नियत समय पर कोई प्रेसकर्मी ऐसी डाक लेकर आ जाता।
उन दिनों देशबन्धु सहित सभी अखबारों में एक और प्रथा थी। अखबार के शीर्षक सहित संवादपत्र और साथ में अपना पता लिखे, डाकटिकिट लगे लिफाफे छापकर संवाददाताओं को देते थे। संवाददाता माह-दो माह में रायपुर आते तो संवादपत्र व लिफाफों का बंडल लेकर वापिस लौटता या फिर खबर आती कि स्टॉक समाप्त हो गया है, तब पेपर की पार्सल में उन्हें नया स्टॉक भेजा जाता था। संपादकीय कक्ष में हम लोग समाचार बनाने के लिए या तो न्यूजप्रिंट काटकर बनाए गए लगभग ए-4 आकार के पन्नों का या फिर अमेरिकी, सोवियत अथवा ब्रिटिश सूचना कार्यालय से आए लेखों के पृष्ठभाग का इस्तेमाल करते थे। सोवियत सूचना केंद्र से सामग्री चिकने काग•ा पर आती थी, जो हमारी पहली पसंद होती थी। कुछ साथी तो बच्चों के उपयोग के लिए रफ कॉपी बनाने भी ये कागज घर ले जाते थे।
एक तरफ संवाद संकलन की यह तस्वीर थी तो दूसरी तरफ मुद्रित समाचार पत्र को जगह-जगह तक पहुंचाना कम दिलचस्प नहीं था। लगभग सभी अखबार रेल या बस से गंतव्य तक भेजे जाते थे। रापयुर से रात 10 बजे हावड़ा एक्सप्रेस से रायगढ़ की पार्सल रवाना की जाती। उसी के भीतर घरघोड़ा, धर्मजयगढ़, पत्थलगांव, कुनकुरी, जशपुर तथा सीतापुर, अंबिकापुर की छोटी पार्सलें रखी जाती थीं। यह रायगढ़ के एजेंट की जवाबदेही थी कि तीन बजे स्टेशन पहुंचकर पार्सल उतरवाएं, उसमें से आगे पार्सल निकालें और चार बजे सीधे रेलवे स्टेशन से ही जशपुर और अंबिकापुर जाने वाली बसों में उन्हें चढ़ाएं। सुनने में आसान, लेकिन व्यवहार में कठिन। कभी प्रेस से ही पार्सल स्टेशन पहुंचाने में देर हो गई, कभी ट्रेन लेट हो गई, कभी एजेंट रायगढ़ स्टेशन समय पर नहीं पहुंचा। सब कुछ समय से चला तो आज रात दस बजे रवाना की गई पार्सल अगले दिन अपरान्ह तीन बजे जशपुर पहुंचेगी। वहां पेपर वितरित करते-करते शाम हो जाएगी। अगर किसी भी बिंदु पर विलंब हुआ, मान लीजिए रास्ते में बस ही बिगड़ गई, तो पेपर फिर एक दिन बाद ही बंटेगा। हम रेलवे से भेजे जाने वाली पार्सलों का एक मुद्रित फार्म रखते थे- जिसमें गंतव्य और वजन का उल्लेख करना होता था। एक कॉपी रेलवे के पार्सल ऑफिस को, एक अपने रिकॉर्ड में।
इसी तरह अनेक स्थानों पर बस से पार्सलें भेजी जातीं। यहां भी एजेंट को नियत समय पर बस स्टैंड आना होता था। दुर्ग, राजनादगांव, जगदलपुर, कांकेर की पार्सलों के भीतर आसपास के छोटे केंद्रों की पार्सलें आगे भेजने की जिम्मेदारी उन पर होती थी। यहां भी देर-अबेर होती ही थी। हमें एक प्रतिस्पद्र्धी समाचार पत्र से हमेशा सतर्क रहना पड़ता था। उन्हें मौका मिलता तो रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड से वे हमारी पार्सल चोरी करवा लेते थे। संभवत: 1970 में सबसे पहले हमने सड़क मार्ग से भेजी जाने वाली पार्सलों के लिए राजनादगांव मार्ग पर बस के बजाय टैक्सी की व्यवस्था की। यह टैक्सी कांग्रेस के दो युवा कार्यकर्ताओं ने साझीदारी में खरीदी थी। वे दोनों आज प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। कभी ड्राइवर नहीं आया तो दफ्तर से फोन पर सूचना मिलने पर मैं या मेरे अनुज दिनेश अपनी कार से महोबाबा•ाार, टाटीबंद, कुम्हारी, चरौदा, भिलाई-3, भिलाई, सुपेला, सेक्टर 4, दुर्ग, सोमनी में पार्सल उतारते हुए राजनादगांव तक जाते थे।
ललित सुरजन
16 जनवरी 2020
आप यदि दिन के समय किसी अखबार के दफ्तर में जाएं तो आपको वहां अमूमन शांतिमय वातावरण मिलेगा। लेकिन शाम छह बजे के बाद से जो गहमागहमी शुरू होती है तो सुबह लगभग पांच बजे तक बनी रहती है। संपादन कक्ष से लेकर कंपोजिंग कक्ष तक, फिर मशीन रूम से लेकर अखबार की पार्सलें रवाना करने तक सब लोग दौड़ते-भागते न•ार आते हैं। साठ साल पहले यह भागदौड़ आज की बनिस्बत दुगनी-तिगनी थी। नर्ई तकनीकी के प्रयोग से पूर्वापेक्षा काम करना आसान जो हुआ है। इन दिनों देशबन्धु में जो छपाई मशीन है, उस पर एक बार में सोलह पेज एक साथ छप सकते हैं तथा उसकी गति एक घंटे में तीस हजार कॉपियां छापने की है। देश-विदेश के अनेक अखबारों में इससे भी अधिक क्षमता की मशीनों पर काम होता है। कई जगह तो ऐसी मशीनें भी हैं जो छपाई के बाद अखबार की पार्सल भी स्वचालित प्रक्रिया से बांध सकती हैं। मैं आपको उस दौर में ले जाना चाहता हूं जब फ्लैट बैड सिलिंडर मशीन पर मात्र एक हजार प्रति घंटा की गति से एक बार में सिर्फ दो पेज छापे जा सकते थे। याने आगे-पीछे चार पेज की एक हजार प्रतियां मुद्रित करने के ॅिलए दो घंटे लगते थे। हमने कुछ समय तक वैसी ही एक और मशीन समानांतर स्थापित की ताकि इधर तरफ दो पृष्ठ मुद्रित हो जाने के बाद दूसरी तरफ के दो पेज लगभग साथ-साथ छापे जा सकें और समय की बचत हो।
गौर कीजिए कि आपके घर जो भी अखबार आता है, वह चौथाई मुड़े (क्वार्टर फोल्ड) आकार में आता है। शुरूआती दौर में अखबार की पूरी शीट को बीच से मोडऩा, फिर उसे आधा मोडऩा एक समयसाध्य और श्रमसाध्य कार्य था। अगर काम समय पर पूरा होना हो तो उसके लिए चपलता का गुण आवश्यक था। यह •िाम्मेदारी फोल्डिंग विभाग के सहयोगियों पर होती थी। दो-दो करके चार पेज छपे, उन्हें लगातार मशीन की दूसरी ओर से उतार कर •ामीन पर रखते जाओ, 22ÓÓ ङ्ग 33ÓÓ पूर्ण आकार के दो पन्नों की थप्पियां बनाओ, उन पर बीच में अंगूठे से सलवट बनाकर मोड़ो, एक-एक कर अलग करो, फिर एक बार बीच से मोड़ो और पेज के आधे आकार में लाओ। कहां, कितनी कॉपियों की पार्सल जाना है, उस हिसाब से अलग-अलग पार्सल बनाओ, उसे मोटे ब्राउन पेपर या न्यूजप्रिंट में पैक करो, ऊपर से सुतली या मोटे-मजबूत धागे (ट्वाइन) से बांध कर सुरक्षित करो और उसके ऊपर गंतव्य का लेबल चिपकाओ। इसके बाद स्टेशन और बस स्टैंड की ओर भागो।
इतना सब विवरण देने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन पढ़कर आपने जान लिया होगा कि आप तक अखबार पहुंचाने में पत्र के फोल्डिंग विभाग की कितनी अहम भूमिका होती है। प्रेस के अन्य विभागों में दिनपाली और रातपाली में अदला-बदली कर काम करने की सुविधा होती है, लेकिन फोल्डिंग में तो सारा काम रातपाली में ही होता है। एक बंधी-बंधाई यंत्रवत् किंतु अनिवार्य ड्यूटी। इसी विभाग से संबंधित एक म•ोदार प्रसंग उसी शुरूआती दौर का है। एक रात 2-3 बजे बाबूजी आकस्मिक निरीक्षण के लिए प्रेस पहुंचे। सब सहकर्मी अपने काम में जुटे थे, लेकिन एक व्यक्ति चारों तरफ से बेखबर सो रहा था। बाबूजी आए हैं जान हड़बड़ा कर उठा या उठाया गया। बाबूजी नारा•ा हुए। काम के समय सो रहे हो। तुम्हारी छुट्टी। दिन में आकर हिसाब कर लेना। क्या नाम है तुम्हारा? साहब, नाम मत पूछिए। बाबूजी का पारा और चढ़ा। तुमसे नाम पूछ रहे हैं, नाम बताओ। धीमे स्वर में जो जवाब आया तो उसे सुनकर गुस्सा खत्म। बाबूजी के ओठों पर मुस्कुराहट आई। तुम नालायक हो। नाम मायाराम और ऐसी लापरवाही। ठीक है, काम करो, लेकिन आइंदा ऐसी गलती नहीं होना चाहिए।
जिस जगह सौ-दो सौ लोग काम करते हों, वहां ऐसे खट्टे-मीठे प्रसंग घटित होना अस्वाभाविक नहीं है। एक प्रसंग 1964 का है। रमनलाल सादानी प्रसार प्रबंधक थे। फोल्डिंग विभाग का प्रबंध उनके ही जिम्मे थे। बूढ़ापारा की भव्य सादानी बिल्डिंग उनके पिताजी रायसाहब नंदलाल सादानी ने बनवाई थी। उसी नाम पर सादानी चौक कहलाया। एक शाम एक सुंदर युवती रमन भैया (उन्हें मेरा यही संबोधन था) से मिलने आई। मुझे उनका परिचय दिया गया- ये सूसन हैं। अखबार के बंडल पर जो लेबल चिपकाते हैं, उन्हें इनसे लिखवाते हैं। तीस रुपए महीना देते हैं। इनकी सहायता हो जाती है। मैंने सुन लिया और मान लिया। कुछ दिन बाद देखा कि लेबल तो रमन भैया की लिखावट में हैं। पूछा भेद खुला कि देवीजी उनकी प्रेमिका हैं। किसी स्कूल में शिक्षिका हैं। मैंने उन्हें दिया जाने वाला मानदेय बंद करवा दिया। लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती। रमन भैया ने कुछ साल बाद उनसे विधिवत विवाह किया और संतानों को अपना नाम दिया। रमन सादानी इकलौते पुत्र थे, बिंदास तबियत के थे, होशियार किंतु लापरवाह। जो भी हो, समय आने पर उन्होंने नैतिक दृढ़ता का परिचय दिया, यह बात मुझे अच्छी लगी। हमारे साथ संभवत: 1971-72 तक उन्होंने काम किया।
प्रसार विभाग से ही जुड़ा एक और रोचक प्रसंग ध्यान आ रहा है। यह मानी हुई बात है कि हर अखबार अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के उपक्रम करता है। इसमें अभिकर्ता या न्यू•ापेपर एजेंट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आखिरकार, ग्राहक के दरवाजे तक वह स्वयं या उसका हॉकर ही जाता है। मुझे याद है कि 1967 में प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा दिल्ली में आयोजित प्रबंधन कार्यशाला में जब मैं भाग ले रहा था, तब दिल्ली की सेंट्रल न्यू•ा एजेंसी के प्रमुख कत्र्ताधर्ता श्री पुरी ने एक सत्र में हमें प्रसार संख्या में वृद्धि करने के गुर सिखाए थे। खैर, मैं जिस प्रसंग की चर्चा कर रहा हूं, वह इसके पहले की है। हमें ऐसा कुछ अनुमान हुआ कि रायपुर के कुछ अभिकत्र्तागण देशबन्धु की बिक्री बढ़ाने में खास दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यह 1965 की बात है। उस समय होलाराम बुधवानी नामक एक सज्जन ने हमारी एजेंसी ली और प्रसार वृद्धि के बारे में तमाम वायदे किए। आवश्यक धरोहर निधि या कि एडवांस डिपॉजिट भी उन्होंने जमा की। उनमें व्यापार बुद्धि तो थी, लेकिन अखबार की एजेंसी चलाने के लिए जिस जीतोड़ मेहनत की आवश्यकता होती है, वह उनमें नहीं थी। असफल होकर उन्होंने कुछ ही माह में एजेंसी छोड़ दी।
बुधवानीजी करीब एक साल बाद फिर प्रेस आए। उनके चेहरे पर सफलता की चमक थी। कहां थे आप इतने दिन? कभी दिखाई तक नहीं दिए! पता चला कि वे इस बीच मॉरीशस हो आए। वहां उन्होंने व्यापार की संभावनाएं तलाशीं और शीघ्र ही भारत से समुद्री मार्ग से बड़े-बड़े ड्रमों में भरकर गंगाजल मॉरीशस को निर्यात करने लगे। वे गंगाजल कहां से भरते हैं, यह गुप्त जानकारी भी उन्होंने हम लोगों के साथ साझा की। गंगा मैया की कृपा से उनका व्यापार चल निकला। देशबन्धु की एजेंसी में जो घाटा हुआ था, उसकी भरपाई तो जल्दी ही हो गई थी।
इसी सिलसिले में पाठकों को अपने एक अभिनव प्रयोग की जानकारी देना उचित होगा। प्रेस में मेरे हमउम्र जितने साथी थे, सबने मिलकर स्कूल में पढऩे वाले अपने छोटे भाईयों को जोड़ा। अनुज न्यू•ा एजेंसी नाम से एजेंसी बनाई। मेरे छोटे भाई दीपक, वरिष्ठ साथी शरद जैन के छोटे भाई अनिल और इस तरह लगभग एक दर्जन किशोरों की टीम तैयार हो गई। इन्होंने घर-घर जाकर ग्राहक बनाए। जिनके घर जाते वे परिचय जानकर प्रसन्न हो जाते। खुशी-खुशी ग्राहक बनते। इस तरह 1973-74 मेंं प्रसार संख्या में लगभग एक हजार प्रतियों का इ•ााफा हुआ जो उस वक्त के लिहा•ा से बड़ी उपलब्धि थी।
ललित सुरजन
सामान्य तौर पर अखबार की आमदनी के दो ही स्रोत होते हैं- ग्राहक शुल्क और विज्ञापन आय। पुराने समय के जूट प्रेस और आज के कारपोरेट मीडिया की लीला निराली है। वे अखबार मुफ्त में बांट सकते हैं और उनके लेखे विज्ञापन से प्राप्त आय हाथी के दांत समतुल्य है। अखबार की ओट में वैध-अवैध क्या-क्या कारोबार चलते हैं, उनकी चर्चा का अवसर अभी नहीं है। आम धारणा है कि अखबार निकालने का प्रमुख उद्देश्य विज्ञापन बटोरना है, कि उससे उन्हें अकूत आमदनी होती है। यह सतह के ऊपर दिखने वाली सच्चाई है। पूरा सच जानने के लिए गहरे उतरना होगा। एक आदर्श स्थिति मानी गई थी कि अखबार में अधिकतम तीस प्रतिशत विज्ञापन तथा शेष सत्तर प्रतिशत स्थान समाचारों व अन्य संपादित सामग्री के लिए सुरक्षित रखा जाना चाहिए। पं. नेहरू के समय गठित प्रथम प्रेस आयोग ने यह प्रावधान भी दिया था कि अखबार की कीमत पृष्ठ संख्या के अनुपात में रखी जाए याने जितने अधिक पन्ने, उतनी अधिक कीमत। इन दोनों बातों का पालन होता तो पाठक ही अखबार के सच्चे संरक्षक बनते और पत्र को विज्ञापनदाता की कृपा पर निर्भर न रहना पड़ता। उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी बुद्धिमत्ता में इसे अभिव्यक्ति की स्वाधीनता पर कुठाराघात निरूपित किया और प्रावधान लागू न हो पाया। परिणामस्वरूप पूंजीपतियों या अन्य न्यस्त स्वार्थों द्वारा प्रकाशित अखबारों पर कोई नियंत्रण न रहा और वे समाज के प्रति अपने बुनियादी दायित्व से विमुख होते चले गए। शनै: शनै: अखबार साबुन या टूथपेस्ट की मानिंद ”प्रॉडक्टÓÓ में तब्दील कर दिए गए।
यह स्थिति प्रारंभ से ही स्वतंत्र समाचारपत्रों के अनुकूल न थी, लेकिन समय के साथ स्थिति बदतर होती गई। साठ साल पहले समाचारपत्रों की संख्या सीमित थी, इसलिए प्रतिस्पद्र्धा कम थी। दूसरे, अनेक क्षेत्रीय पत्र स्वयं कलमजीवी पत्रकारों द्वारा निकाले गए थे, इसलिए उनके प्रति समाज में एक सम्मान का भाव भी था। फिर भी विज्ञापन जुटाने के लिए दौड़धूप करना पड़ती थी। स्थानीय स्तर पर दीपावली विशेषांक आदि में शुभचिंतक व्यापारियों के विज्ञापन मिल जाते थे, गो कि व्यवसायिक विज्ञापनों का बहुत चलन नहीं था। कभी कोई नई दूकान खुली तो शुभारंभ का विज्ञापन मिल जाता था। नेताओं के विज्ञापन आम चुनाव के समय ही मिलते थे, और उसका बिल वसूल करना आसान नहीं होता था। अधिकतर विज्ञापन उपभोक्ता सामग्री निर्माताओं की ओर से उनकी विज्ञापन एजेंसी जारी करती थी, जिसमें नीचे स्थानीय वितरक का नाम कभी-कभार डाल दिया जाता था। दूसरे शब्दों में विज्ञापन बढ़ाने का एक ही रास्ता था कि महानगरों की एजेंसियों तथा निर्माता कंपनियों के विज्ञापन अधिकारियों को अपने पत्र की खूबियों के बारे में संतुष्ट कर विज्ञापन जारी करने के लिए राजी किया जाए।
बाबूजी ने नवभारत, रायपुर में विज्ञापन प्रबंधक के रूप में सेवा प्रारंभ की थी तथा पत्र के महाप्रबंधक व समूह संपादक के पद पर पहुंच जाने के बाद भी उनके इन विज्ञापन एजेंसियों के प्रमुख लोगों के साथ अच्छे संबंध थे। मेरा अनुमान है कि जब अपना अखबार निकाला व व्यापार कुछ जम गया तो इन एजेंसियों ने यथासंभव सहयोग किया होगा। बाबूजी लगभग हर माह एक सप्ताह के लिए बंबई जाते थे। अन्य महानगरों का दौरा भी बीच-बीच में लगता था। इन सभी स्थानों पर अंशकालिक विज्ञापन प्रतिनिधि नियुक्त थे। वह इस तरह कि एक पत्र मध्यप्रदेश का ले लिया, एक बिहार का, एक राजस्थान का, एक उत्तरप्रदेश का। याने उनके बीच कोई व्यवसायिक प्रतिद्वंद्विता न हो। ये सभी सामान्यत: अपने घर में काम करते थे। खुद का या पत्र का कोई दफ्तर शायद ही होता था। एक अपवाद दिल्ली था, जहां इंडियन एंड ईस्टर्न न्यू•ापेपर्स सोसायटी (बाद में इंडियन न्यू•ापेपर्स सोसायटी) अर्थात आईएनएस के भवन में दिल्ली से बाहर के पुराने अखबारों को दफ्तर के लिए कमरे उपलब्ध थे, किंतु नए अखबारों के लिए जगह की गुंजाइश नहीं थी। 1980 के दशक में आईएनएस की एनेक्सी का निर्माण हुआ, तब देशबन्धु को भी दिल्ली में स्थायी ठिकाना मिल पाया।
एक समय इंग्लैंड-अमेरिका की अनेक विज्ञापन एजेंसियां भारत में कारोबार करती थीं। विज्ञापनदाता कंपनियों में भी बड़ी संख्या विदेशी निर्माताओं की थी। वक्त बदला और इनका देशीकरण होने लगा। 1960 के दशक तक अमेरिका की जे. वाल्टर थॉम्सन शायद दुनिया की सबसे बड़ी विज्ञापन एजेंसी थी। उसका नाम बदलकर हिंदुस्तान थॉम्सन हो गया। कंपनियों के संचालक मंडल में भी विदेशी प्रबंधकों का स्थान भारतीय प्रबंधक लेने लगे। 1990 के आसपास जब आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण एवं निजीकरण का मंत्र गूंजा तो विदेशी कंपनियों का भारत में नए सिरे से निवेश करना प्रारंभ हुआ। अनेक विज्ञापन एजेंसियों का स्वामित्व पूरी तरह विदेशी हाथों में चला गया या उनका नियंत्रण स्थापित हो गया। यह दौर फिलहाल जारी है, बल्कि पूर्वापेक्षा अधिक मजबूत हुआ है। खैर, विज्ञापन से संबंधित मेरी अधिकांश स्मृतियां व नवपूंजीवादी युग के पहले की हैं। बंबई (अब मुंबई) देश की आर्थिक-औद्योगिक-वाणिज्यिक राजधानी थी। बैंक, कारखाने, विज्ञापन एजेंसी आदि के मुख्यालय ज्य़ादातर वहीं थे। मैं पहली बार एक हफ्ते की विज्ञापन यात्रा पर 1968 में बंबई गया। हमारे प्रतिनिधि महेश भाई मेहता स्टेशन पर मुझे लेने आ गए थे। हम एक दूसरे से परिचित नहीं थे। वे देशबन्धु (नई दुनिया रायपुर) की एक प्रति साथ लेकर आए थे। एक प्रति मैंने सामने कर ली थी। पहचानने में दिक्कत नहीं हुई। महेशभाई बाबूजी के हमउम्र या कुछ बरस छोटे रहे होंगे। दुबले-पतले, सादगीपसंद सज्जन। हिंदी और अंग्रे•ाी का कामचलाऊ ज्ञान। लेकिन अपनी व्यवहारकुशलता से वे लोगों को प्रभावित कर लेते थे।
विज्ञापन एजेंसियों के अधिकांशत: दफ्तर फोर्ट इलाके में थे। बंबई में सुबह नौ बजे काम शुरू हो जाता था। हम भी उसके तुरंत बाद किसी एजेंसी में पहुंच जाते थे। दिन भर में आठ-दस एजेंसियों से मिलना हो जाता था। हर दिन दोपहर के भोजन याने लंच पर हम किसी एक एजेंसी के अधिकारियों को निमंत्रित करते थे। रात को डिनर का कार्यक्रम कभी-कभार ही बनता था, क्योंकि लौटने के लिए साधन आसानी से उपलब्ध नहीं थे। मेरे बंबई जाने का नियमित क्रम बन गया था। साल भर के भीतर महानगर का कोई भी नामी रेस्तोरां नहीं बचा था, जिसके भोजन का स्वाद न लिया हो, सिवाय ताज के, जिसके लिए मेरा पर्स इजा•ात नहीं देता था। यह जानना रोचक होगा कि चर्चगेट पर ”पुरोहितÓÓ नामक लोकप्रिय रेस्तोरां था। वहां तीन रुपए में सामान्य थाली मिलती थी और चांदी की थाली में खाने का मन करे तो पांच रुपए लगते थे। एजेंसी वाले लंच की आवभगत से संतुष्ट हो जाते थे। एक बार किसी कारणवश बंबई में बा•ाार से सिगरेट गायब हो गई। उस समय मैं रायपुर से सिगरेट के बहुत सारे पैकेट एजेंसी वालों को भेंट करने ले गया। वे लोग उसमें भी खुश हो गए।
बंबई के अलावा कलकत्ता, मद्रास, बैंगलोर, दिल्ली, पूना, हैदराबाद, अहमदाबाद में भी छोटी-बड़ी विज्ञापन एजेंसियां थीं। (शहरों के नाम यहां तत्कालीन महत्व के क्रम में लिखे हैं)। पूना (अब पुणे) में अंग्रे•ाी नामधारी दो एजेंसियां थीं। एक स्टुडियो पार्करसंस और दूसरी टॉम एंड बे। मैं जब इनसे मिलने गया तो म•ोदार जानरकारी सामने आई। स्टुडियो पार्करसंस के मालिक श्री पराड़कर थे और टॉम एंड बे के कत्र्ताधत्र्ता थे श्री तांबे। यह अंग्रे•ाी का रुतबा था। एक दफे मैं नासिक भी गया। वहां बिटको दंतमंजन का कारखाना था। वे अपना विज्ञापन बिना किसी एजेंसी के सीधा जारी करते थे। बंबई में विको वज्रदंती की अपनी घरेलू एजेंसी थी। विज्ञापन पर कमीशन उनके खाते में जाता था। ये दोनों ”स्वदेशीÓÓ उत्पाद थे, इस नाते अखबारों से रियायती दर मांगते थे। कलकत्ता (कोलकाता) में क्लेरियन एडवरटाइजिंग का मुख्यालय था। उसके एक संचालक सी.एच. बोस से बाबूजी की मित्रता हो गई थी। वे एक बार रायपुर-जबलपुर घूमने के लिए सपरिवार आए। रायपुर में उन दिनों एक भी होटल इस स्तर का नहीं था कि उन्हें ठहरा सकते। तब आयुक्त या जिलाधीश से कहकर उनके लिए सर्किट हाउस में कक्ष आरक्षित करवाया गया। कहना होगा कि सन् नब्बे के पहले दौर में व्यापार-व्यवसाय में व्यक्तिगत साख व संबंध काफी मायने रखते थे। विज्ञापन का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं था।
ललित सुरजन
1990 के दशक तक बंबई (मुंबई) ही विज्ञापन व्यवसाय की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था, लेकिन दिल्ली का महत्व दो कारणों से था और है। देश की राजधानी में विज्ञापन एजेंसियों के अलावा केंद्र सरकार के दृश्य श्रव्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) का मुख्यालय होने के कारण भारत सरकार के विभिन्न विभागों के टेंडर नोटिस आदि विज्ञापन वहीं से जारी होते आए हैं। भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक (आरएनआई) द्वारा प्रमाणित प्रसार संख्या के आधार पर डीएवीपी सरकारी विज्ञापनों के लिए दर निर्धारण करता है जो व्यवसायिक विज्ञापन दर से अक्सर अलग होती है। विज्ञापन जगत में महानगरों से प्रकाशित अंग्रे•ाी अखबारों के सामान्यत: तरजीह दी जाती है। ये अखबार मिलकर ”नेशनल प्रेसÓÓ कहलाते हैं, भले ही ये सारे अखबार अपने प्रकाशन केंद्र के आसपास ही प्रसारित होते हैं। ऐसा मान लिया गया था कि इन अखबारों में विज्ञापन दे दिए तो पूरे देश में संदेश चला गया। प्रथम दृष्टि में बात ठीक लगती है, लेकिन जब केंद्र सरकार के आदिमजाति कल्याण मंत्रालय द्वारा आदिवासी विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के विज्ञापन भी दिल्ली-बंबई के अंग्रे•ाी अखबारों में छपें तो उसे कैसे उचित ठहराया जाए?
देशबन्धु जैसे क्षेत्रीय और भाषाई समाचारपत्रों के सामने और भी समस्याएं थीं, जिनका समाधान डीएवीपी के स्तर पर होना संभव नहीं था। इन अखबारों ने केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री तथा प्रधानमंत्री तक विभिन्न मंचों से अपनी बात पहुंचाई। इंदिरा गांधी की सरकार ने इन पर ध्यान भी दिया और अनेक नीतिगत निर्णय लिए गए। लघु और मध्यम समाचारपत्रों की मात्रा में सरकारी विज्ञापन मिलें, इस हेतु डीएवीपी ने एक अनुपात तय किया, जिसमें समय-समय पर इन पत्रों के पक्ष में बदलाव भी किए गए। विदेशी मुद्रा के संकट आदि के चलते न्यू•ाप्रिंट की कीमतों में जब-तब बढ़ोतरी होती थी, उसका दुष्प्रभाव कम करने के लिए अखबारों को डीएवीपी की निर्धारित दर के ऊपर कभी बीस प्रतिशत, कभी चालीस प्रतिशत, इस तरह सरचार्ज लगाने की अनुमति दी गई। फिर यह निर्णय भी हुआ कि सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा जारी विज्ञापनों पर डीएवीपी के बजाय व्यवसायिक दर लागू होगी। ऐसे उपायों से निश्चित ही क्षेत्रीय अखबारों को काफी राहत मिली।
केंद्र सरकार या उसकी एजेंसी डीएवीपी कुछ निश्चित आधार लेकर अपनी विज्ञापन नीति तय करती थी, किंतु राज्य सरकारों का, खासकर मध्यप्रदेश का हाल बेहाल था। यहां जैसे कोई नीति ही नहीं थी। मुख्यमंत्री के मन में जो आए, वैसा तय हो जाए। एक बार श्यामाचरण शुक्ल के मुख्यमंत्री काल में बाबूजी ने उनसे शिकायत की- आपकी सरकार इंदौर के एक अखबार विशेष पर विशेष रूप से प्रसन्न है, जबकि रायपुर, जबलपुर के पत्रों की उपेक्षा हो रही है। शुक्लजी ने कहा- क्या करें, इंदौर वाले फलाने विधायक के साथ आकर बैठ जाते हैं। बाबूजी ने जवाब दिया- आप कहें तो मैं उन विधायक सहित एक दर्जन अन्य विधायकों को लेकर आ जाता हूं। शुक्लजी को बात समझ आई। कुछ नए निर्देश जारी हुए। लेकिन विज्ञापन में तदर्थवाद चलता रहा। उन दिनों राज्य शासन के विज्ञापन जारी करने की कोई केंद्रीकृत व्यवस्था भी नहीं थी। हर सरकारी विभाग अपने स्तर पर विज्ञापन देता था और उसमें भी संभागीय या जिला कार्यालयों को निर्णय लेने की छूट थी। इसलिए हमें विज्ञापन जुटाने के लिए दफ्तर-दफ्तर जाना पड़ता था।
सबसे बुरी स्थिति 1967 में गोविंदनारायण सिंह के नेतृत्व में गठित संविद सरकार के समय थी। विज्ञापन तो मिलते थे, लेकिन भुगतान का कोई ठिकाना नहीं था। विभिन्न विभागों के मुख्यालयों के विज्ञापन जनसंपर्क विभाग से जारी होते थे। अखबार अपने बिल उन्हें भेजते थे। पुलिस, सिंचाई, लोकनिर्माण, वन, शिक्षा आदि विभागों के बजट से जनसंपर्क विभाग को इन बिलों के भुगतान हेतु राशि आबंटित होती थी। कुल मिलाकर एक पेंचीदी प्रक्रिया थी। जब हमारे बिलों का भुगतान लंबे समय तक नहीं हुआ तो मैं भोपाल गया। गोलघर स्थित जनसंपर्क मुख्यालय में देखा कि तमाम अखबारों के बिलों के ढेर लगे हुए हैं। उन्हें आवक रजिस्टर तक में नहीं चढ़ाया गया था। यह 1968 की बात है। मैं एक सप्ताह भोपाल में रुका। रोज सुबह से देर शाम तक आवक क्लर्क का काम किया। सारे बिल रजिस्टर में चढ़ाए। उन्हें भुगतान के लिए लेखा विभाग को अग्रेषित किया। तब कहीं जाकर भुगतान मिल सका। हमारे साथ-साथ अन्य अखबारों का घर बैठे काम हो गया। चूंकि जनसंपर्क विभाग के अनेक अधिकारी पूर्व पत्रकार थे, उनमें से कई बाबूजी के साथ काम कर चुके थे, इसलिए वहां बैठकर मानद क्लर्की करने में कोई अड़चन पेश नहीं आई।
मध्यप्रदेश के जनसंपर्क विभाग की कार्यप्रणाली में, और खासकर इस लेख के संदर्भ में, अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री काल में आमूलचूल सुधार हुआ। उन्होंने इस विभाग को यथोचित महत्व दिया तथा अशोक बाजपेयी व सुदीप बनर्जी जैसे कल्पनाशील व कर्मठ अधिकारी विभाग में नियुक्त किए गए। उस दौर में एक बेहतरीन निर्णय यह हुआ कि डीएवीपी की विज्ञापन दर राज्य शासन के विज्ञापनों हेतु मान्य कर ली गई। याने एक पैमाना तय हो गया। दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय सभी अखबारों को लगभग बराबरी से विज्ञापन देने का था। जिसका प्रसार अधिक, उसकी दर अधिक। ऐसा नहीं कि अधिक प्रसार है तो दूसरों की तुलना में अधिक विज्ञापन दिए जाएं। याने कथित बड़े अखबारों को मनचाही वरीयता न देकर सबके साथ समान व्यवहार। तीसरा निर्णय यह हुआ कि जनसंपर्क विभाग एक निश्चित तिथि पर अखबारों को चेक द्वारा भुगतान करेगा, अन्य विभागों से राशि न आने के नाम पर रोका नहीं जाएगा। इन सभी निर्णयों से प्रदेश के सभी पत्रों को बहुत राहत मिली। दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद न जाने क्यों ये दो निर्णय पलट दिए गए। अजीत जोगी व रमन सिंह दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों ने किसकी सलाह पर अखबारों के साथ भेदभाव करना शुरू किया, वे ही बता सकते हैं।
व्यवसायिक विज्ञापन व सरकारी विज्ञापन के अलावा एक और श्रेणी है- व्यक्तिगत या निजी विज्ञापनों की। इसमें वैवाहिक, खरीद-बिक्री, नाम परिवर्तन, अदालती सम्मन आदि विज्ञापन शामिल हैं। इनका कोई व्यवसायिक प्रयोजन नहीं होता। बस, कुछ कानूनी औपचारिकताएं या फिर सामाजिक व्यवहार के लिए इनका प्रकाशन होता है। लेकिन ये विज्ञापन समाज से अर्थात पाठकों से सीधा ताल्लुक रखते हैं। यही सोचकर हमने ”देशबन्धु ग्राहक सेवाÓÓ नाम से लघु विज्ञापनों का प्रकाशन नाममात्र के शुल्क पर प्रारंभ किया। प्रेस के विज्ञापन विभाग व प्रबंध विभाग में ही इस नई नीति का विरोध किया गया, लेकिन कालांतर में इसका लाभ देशबन्धु की लोकप्रियता के रूप में मिला। सिनेमा के विज्ञापन भी, मल्टीफ्लैक्स का युग आने के पहले, हम पाठकों की सेवा के प्राथमिक उद्देश्य से ही रियायती दर पर छापते थे। जब टॉकी•ा ही बंद हों, तब विज्ञापन भी कहां से आएंगे! मेरे सुहृद मित्र पी.एस. बहल के सहयोग से चालीस साल पहले एन.ई.सी.सी. के विज्ञापन जनसेवा के उद्देश्य से प्रारंभ हुए थे, जो आज भी जारी है।
ललित सुरजन
6 फरवरी 2020
दृश्य-1
मि. म•ाूमदार! आई हैव डन माई इनिंग्•ा मोर ऑर लैस. बट गॉड विलिंग, यू हैव अ लॉंग वे टू गो. आफ्टर ऑल, यू एंड ललित आर ऑफ सेम ए•ा.
(श्री म•ाूमदार! मैं अपनी पारियां लगभग खेल चुका हूं। लेकिन प्रभु कृपा से आपको लंबा सफर तय करना है। आखिरकार, आप और ललित हमउम्र हैं।
यह संवाद 1978 में किसी दिन रायपुर नगर निगम के प्रशासक कक्ष में हुआ। सुनाने वाले थे बाबूजी, और सुनने वाले थे प्रशासक डॉ. एस.सी. म•ाूमदार। निगम सचिव शारदाप्रसाद तिवारी और मैं कक्ष में मौजूद थे। बाबूजी का इतना कहना था कि तब तक चेहरे पर आक्रामक भाव भंगिमा लिए अकड़ कर बैठे डॉ. म•ाूमदार मानो एकदम से पिघल गए। उस क्षण के बाद से ही वे हमारे सदा के लिए शुभचिंतक बन गए।
इस घटना के एक-दो दिन पहले बाबूजी, और उनके साथ मैं, रायपुर के संभागायुक्त आर.पी. कपूर के पास अपनी समस्या लेकर गए थे। उनका रुख सहयोगपूर्ण था। उन्होंने बाबूजी को कहा- आप ललित को म•ाूमदार के पास सिर्फ शिष्टाचारवश मिलने भेज दीजिए। बाकी मैं उन्हें समझा दूंगा। बाबूजी ने कहा- ललित क्यों, मैं ही मिलने चले जाऊंगा। उनके पद का सम्मान तो होना ही चाहिए।
दृश्य-2
सन् फिर वही 1978। जबलपुर उच्च न्यायालय। न्यायमूर्ति सी.पी. सेन और न्यायमूर्ति बी.सी. वर्मा की खंडपीठ। पुकार हुई- ललित सुरजन बनाम नगर निगम रायपुर। जस्टिस सेन आंखें बंद किए बैठे थे। जस्टिस वर्मा ने फाइल देखी और बिना एक पल गंवाए आदेश दिया- ‘केस इ•ा डिस्मिस्डÓ। (प्रकरण खारिज किया जाता है)। मैं स्तब्ध और हमारे वकील के. एम. अग्रवाल कुछ क्षणों के लिए हतप्रभ। उन्होंने खुद को सम्हाला- मी लार्ड, दिस केस वा•ा एडमिटेड बाइ द ऑनरेबल ची$फ जस्टिस हिमसेल्फ, यू कैन नॉट डिसमिस इट समरीली. (सम्माननीय महोदय, यह प्रकरण स्वयं मुख्य न्यायाधीश के इजलास में दाखिल किया गया था। आप बिना सुनवाई एक झटके में इसे खारिज नहीं कर सकते)। जस्टिस सेन ने अब आंखें खोलीं। केस पर बहस प्रारंभ हुई। कुछ माह बाद फैसला हमारे पक्ष में हुआ, लेकिन नगर निगम को सीधे दोषारोपण और हर्जाना देने से बचा दिया। के.एम. अग्रवाल बाद में स्वयं हाईकोर्ट जज और ची$फ जस्टिस बने। वे छत्तीसगढ़ के पहले लोकायुक्त भी नियुक्त किए गए। देशबन्धु से उनका भावनात्मक लगाव प्रेस के स्थापना काल से ही था।
दृश्य-3
एक साल पीछे 1977 में लौटते हैं। दशहरे का दिन था। बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे। सुबह-सुबह सारे पेपर आए- देशबन्धु, नवभारत, युगधर्म, महाकौशल। अन्य अखबारों में लगभग एक भाषा-शैली में छपा समाचार पढ़कर चौंका। चिंता हुई। यह जानबूझकर किया गया है। बाबूजी उस दिन जबलपुर या भोपाल में थे। उन्हें खबर करने के पहले कुछ अन्य जगह फोन लगाए। पहला फोन-”मिश्राजी! विजयादशमी की बधाई। आपने अच्छा पीठ में छुरा भोंका है। आपको याद नहीं आया कि युगधर्म का भवन कांग्रेस राज में बना था और उसमें कांग्रेसियों ने भी आर्थिक सहयोग दिया था। आप यह भी भूल गए कि आपातकाल में युगधर्म बंद कर दिए जाने पर बाबूजी ने आपका साथ दिया था।ÓÓ
दूसरा फोन-”शुक्लजी! महाकौशल तो कांग्रेस का अखबार है। और आप बाबूजी के मित्र हैं। आश्चर्य है कि आपके पत्र में न सिर्फ देशबन्धु, बल्कि कांग्रेस के ही खिलाफ समाचार छप जाए।ÓÓ
तीसरा फोन- ”(नागपुर का यह फोन नंबर पत्नी माया को अचानक याद आ गया)। विनोद, बाबूजी ने नवभारत में अपनी सेवाएं दीं तो उसका यह प्रसाद मिल रहा है कि आप लोग इतने साल बाद भी हमें चैन से नहीं रहने देना चाहते।ÓÓ
इसके बाद बाबूजी को फोन पर मैंने खबर सुनाई।
दृश्य-4
रायपुर का सर्किट हाउस (जहां आजकल राजभवन है)। सन् 1977। समय-रात लगभग बारह बजे। घर में सब सो चुके थे। एक फोन आने के बाद बाबूजी और मैं उठकर भागे-भागे सर्किट हाउस पहुंचे। हमारे शुभचिंतक और केंद्रीय नागर विमानन एवं पर्यटन मंत्री पुरुषोत्तम लाल कौशिक का सूटकेस पैक हो चुका था और वे सड़क मार्ग से नागपुर निकलने के लिए लगभग तैयार थे। अगली सुबह उन्हें देशबन्धु के कार्यक्रम में आना था, जिसके निमंत्रण पत्र शहर में बंट चुके थे। कौशिकजी चले जाएंगे तो अखबार के बारे में दुनिया भर की बातें होंगी। वे नहीं माने। रवाना होने के पूर्व वे वॉशरूम गए। मैं वहीं दरवा•ो पर जाकर खड़ा हो गया। वे बाहर निकले तो मैंने कुछ तुर्शी से कहा- तो आप नहीं रुकेंगे। कौशिकजी नारा•ा हुए। तुम मुझसे इस तरह बात कर रहे हो! तो क्या करूं? आप जाइए लेकिन याद रखिए कि हम कल भी पत्रकार थे, आज भी हैं, आगे भी रहेंगे। लेकिन आप का मंत्रीपद आज है, कल नहीं रहेगा। बाबूजी ने मुझे डांटा-अपने से बड़ों से इस तरह बात नहीं की जाती। खैर, मेरी कोशिश निष्फल हुई। हमारा कार्यक्रम उनकी गैरमौजूदगी में भी शानदार ढंग से हुआ। करीब एक साल हमारे बीच मनमुटाव रहा, लेकिन पुरानी दोस्ती हमें वापिस साथ ले आई।
हमारे साथ घटे इन चारों प्रसंगों का संदर्भ मैंने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है। ये सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं याने इनका संदर्भ एक ही है। इनसे ज्ञात होता है कि देशबन्धु को अपनी स्वतंत्र नीति, सिद्धांतपरकता, निर्भीकता और राजाश्रय या सेठाश्रय के बिना कितनी मुश्किलों से गुजरना पड़ा है। इस समूचे प्रकरण पर यहां विस्तार से लिखने की आवश्यकता नहीं है। ”धूप-छाँह के दिनÓÓ में बाबूजी ने सब कुछ लिख ही दिया है। उस अध्याय को ही कभी पुनप्र्रकाशित करेंगे। देशबन्धु और साथ-साथ नवभारत को नगर निगम से भूखंड आबंटित किया गया था। उसके लिए दोनों पत्रों ने संयुक्त आवेदन किया था। युगधर्म का अपना भवन पंडरी सिटी रेलवे स्टेशन के सामने बन चुका था, जिसके लिए उनके प्रबंधक रामलालजी पांडे ने खूब दौड़धूप कर धनसंग्रह किया था। महाकौशल यद्यपि किराए के भवन में था, लेकिन उनके पास भी अपनी जमीन थी। इसलिए वे इस आवेदन में शामिल नहीं हुए। हमें एक भूखंड पहले आबंटित हो चुका था, लेकिन संविद सरकार के दौरान कूटरचना से उसे निरस्त कर दिया गया था। जब ओ.पी. दुबे रायपुर नगर निगम प्रशासक बनकर आए तो उन्होंने समाचारपत्रों को भूमि आबंटन करने में निजी दिलचस्पी ली और उक्त आवेदन के तहत सारी औपचारिकताएं पूरी कर आबंटन हो गया।
इस बीच 1977 में जनता पार्टी का शासन आ चुका था। कैलाश जोशी पहले जनसंघी मुख्यमंत्री बने, लेकिन जल्दी ही उनकी जगह वीरेंद्र कुमार सखलेचा को यह पद दे दिया गया। उनके कार्यकाल के दौरान ही देशबन्धु का भूखंड आबंटन रद्द करने, भूमिपूजन में बाधा उत्पन्न करने, सहयोगी समाचारपत्रों में विरुद्ध समाचार प्रकाशित करने जैसी कार्रवाईयों को अंजाम देने का काम विघ्नसंतोषियों ने किया। इसी कारण से हमें उच्च न्यायालय का रुख करना पड़ा। चिंता तो बराबर बनी रहती थी। दौड़धूप भी बहुत करना पड़ी। सच्चे-झूठे हितैषियों की पहचान भी इस ना•ाुक दौर में हुई। बड़े-बड़े नेता भी कैसे चाटुकारों के झांसे में आ जाते हैं, यह भी देखने मिला। लेकिन पाठकों के हम पर विश्वास में कोई कमी नहीं आई। बल्कि इसी अवधि में जारी आजीवन ग्राहक योजना में मिले सहयोग से हमारा मनोबल बढ़ा। बाबूजी के साथ बातचीत में हम लोग कभी अपनी चिंता व्यक्त करते थे तो दार्शनिक अंदा•ा में उनका उत्तर मिलता था- जो तुम्हारे भाग्य में है, वह तुमसे कोई छीन नहीं सकता। और जो भाग्य में नहीं है, वह मिल भी जाए तो टिकेगा नहीं।
ललित सुरजन
12 फरवरी 2020
रायपुर से रामनवमी 17 अप्रैल 1959 को नई दुनिया (अब देशबन्धु) की स्थापना के कुछ समय बाद ही बाबूजी ने पत्र का जबलपुर संस्करण प्रारंभ करने का निश्चय किया। इसके लिए जबलपुर जर्नल्स प्रा.लि. नामक अलग कंपनी बनाई गई, जिसमें नई दुनिया इंदौर का कोई भागीदार नहीं था। कांग्रेस नेता व बीड़ी उद्योगपति परमानंद भाई पटेल इस कंपनी के संचालक मंडल के अध्यक्ष बने और मायाराम सुरजन प्रबंध संचालक व संपादक। जो अन्य संचालक थे वे भी कांग्रेस से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े थे। सेठ गोविंददास के भतीजे नरसिंहदास जी भी एक संचालक थे जिन्होंने नए अखबार के लिए साउथ सिविल लाइंस में अपने स्वामित्व का एक अंग्रे•ाी शैली का बंगला उपलब्ध करा दिया था। इसके एक हिस्से में प्रेस और एक हिस्से में हमारा आवास बना। यहीं से प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जन्मदिन 3 दिसंबर 1959 को नई दुनिया जबलपुर (अब नवीन दुनिया) का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस अखबार से बाबूजी का संबंध कुल जमा तीन साल का रहा। पटेल साहब से अखबार के संचालन को लेकर बाबूजी के नीतिगत मतभेद हुए और उन्होंने 3 दिसंबर 1962 को वहां से विदा ले ली।
नई दुनिया जबलपुर में बिताए वे तीन साल कुछेक कारणों से मुझे विशेष उल्लेख योग्य जान पड़ते हैं। हरिशंकर परसाई ने अपने अत्यन्त लोकप्रिय स्तंभ ”सुनो भाई साधोÓÓ की शुरूआत यहीं से की थी। मुझे जितना याद है बाबूजी के आग्रह पर 1960 में कभी उन्होंने यह कॉलम हाथ में लिया था। उनका दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय स्तंभ ”पूछिए परसाई सेÓÓ 1983 में देशबन्धु में प्रारंभ हुआ था। ”सुनो भाई साधोÓÓ नई दुनिया के रायपुर, जबलपुर व इंदौर तीनों संस्करणों में एक साथ हर रविवार छपा करता था और लगभग बीस साल जारी रहा। परसाईजी के नियमित स्तंभ लेखन की तुलना में मुझे दुनिया में एक ही अन्य कॉलम ख्याल आता है जो अमेरिका के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आर्ट बुचवाल्ड वाशिंगटन पोस्ट में लिखा करते थे। मेरे ध्यान में दूसरी बात यह आती है कि हिंदी के दो प्रतिष्ठित कवियों ने उस समय नई दुनिया जबलपुर में अपनी सेवाएं दीं। इनमें से एक हैं- शिवकुमार शर्मा याने आपके-हमारे अति परिचित कवि मलय। मलयजी किसी निजी शाला में अध्यापक थे और रातपाली में संपादकीय डैस्क पर काम करते थे। दूसरे थे- डॉ. सोमदत्त गर्ग। सोमदत्त प्रेस के सामने ही पशु चिकित्सा महाविद्यालय में पढ़ रहे थे और अपनी साहित्यिक अभिरुचि के चलते प्रेस में रातपाली में ही काम करने लगे थे। सोम भाई बहुत जल्दी हमारे बीच से चले गए, लेकिन प्रसन्नता की बात है कि मलयजी नब्बे वर्ष की आयु में भी पूरी सजगता के साथ कविता कर्म में जुटे हैं।
उन दिनों इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से बिड़ला समूह के अंग्रे•ाी पत्र ”द लीडरÓÓ के विक्रय प्रतिनिधि मुंदर शर्मा व्यवसायिक दौरे पर जबलपुर आया करते थे और अक्सर बाबूजी से मिलते थे। बाबूजी ने शर्माजी को अखबार में प्रबंधक बनाकर जबलपुर बुला लिया, जहां उन्होंने शायद एकाध साल सेवाएं दीं और इलाहाबाद वापिस चले गए। बाबूजी के अखबार छोडऩे के बाद पटेल साहब ने शर्माजी को ही शायद संपादक-प्रबंधक बनाकर आमंत्रित कर लिया। वे जब दुबारा आए तो जबलपुर के ही होकर रह गए। वे 1980 में जबलपुर से लोकसभा के लिए चुने गए और कालांतर में मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी बने। जब 1972 में नई दुनिया इंदौर से अखबार की टाइटिल आगे देने के लिए मना किया, तब रायपुर में हमने देशबन्धु टाइटिल लिया और नई दुनिया जबलपुर का नाम बदलकर नवीन दुनिया हो गया। शर्माजी इस नए नाम वाले पत्र के साथ बदस्तूर जुड़े रहे। शर्माजी बाबूजी को बड़े भाई का दर्जा देते थे और यह भाव उन्होंने अंत तक कायम रखा।
पुराने लोगों को याद होगा कि हिंदुत्वादी शक्तियों ने फरवरी 1961 में जबलपुर में सांप्रदायिक दंगे भड़काए थे। यह तब स्वतंत्र भारत के सबसे भयानक दंगे माने गए थे। इनका एक बड़ा उद्देश्य जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता को जांचना और 1962 के आसन्न चुनावों में कांग्रेस को चुनौती देना था। संघ द्वारा संचालित अखबार के अलावा अन्य पत्रों ने ऐसे भीषण अवसर पर आग में घी डालने का काम किया था। लेकिन बाबूजी के संपादन व निर्देशन में नई दुनिया जबलपुर ने सांप्रदायिक हिंसा को रोकने व शांति स्थापना के लिए जो भूमिका निभाई, उसकी देश-विदेश के राजनैतिक प्रेक्षकों ने सराहना की थी। इस मौके पर बाबूजी व उनके मित्र जान हथेली पर लेकर दंगाग्रस्त इलाकों में जा-जाकर शांति स्थापना की पहल कर रहे थे। नेहरूजी ने श्रीमती सुभद्रा जोशी व बेगम अनीस किदवई को कांग्रेस की ओर से स्थिति का जायजा लेने भेजा था। उन्होंने भी अपनी रिपोर्ट में नई दुनिया व मायाराम सुरजन के रोल की तारीफ की थी। सांप्रदायिक ताकतों ने अखबार की होली जलाने से लेकर अखबार के दफ्तर पर धावा बोलने व बाबूजी को मारने की धमकियां सीधे या किसी माध्यम से पहुंचाई, लेकिन अखबार अपनी नीति पर अडिग रहा।
इससे परे 1961-62 का एक रोचक प्रसंग याद आता है। एक बंगाली सज्जन श्री लहरी संपादकीय विभाग में आ गए थे। वे हर मिलने वाले को पकड़कर बताते थे कि वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आ•ााद हिंद फौ•ा के सेनानी रहे हैं। इसके आगे वे यह समझाने की कोशिश करते थे कि नेताजी जीवित हैं। शोलमारी चर्चित आश्रम के बाबा और कोई नहीं नेताजी ही हैं। लहरीजी की बातों को कोई भी गंभीरतापूर्वक नहीं लेता था। जबलपुर से वे कब कहां चले गए, पता नहीं चला। अभी कुछ साल पहले उनसे अचानक मुलाकात हुई जब वे रायपुर मेरे पास किसी अन्य परिचित के साथ आए। मैंने पुरानी स्मृतियों को कुरेदा कि अरे! ये तो वही जबलपुर वाले लहरीजी हैं। वे मुझसे क्या चाहते थे, मैं नहीं समझ पाया, किंतु नेताजी के जीवित होने की थ्योरी पर वे अब भी कायम थे। खैर, बाद में पता चला कि बस्तर संभाग में ही कहीं उन्होंने डेरा जमा लिया है और नेताजी के सिपाही होने के नाते उनका यथेष्ट सत्कार भी होता रहा। तत्कालीन राज्य सरकार ने भी संभवत: उनकी वृद्धावस्था ठीक से कट जाने के लिए आवश्यक प्रबंध कर दिए थे।
सेठ गोविंददास जबलपुर से लोकसभा सदस्य थे। वे एक उत्कट हिंदी सेवी के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने अनेक नाटक भी लिखे थे। अक्टूबर 1961 में उनकी हीरक जयंती पर तीन दिवसीय भव्य समारोह का आयोजन हुआ। 14 अक्टूबर को शुभारंभ भलीभांति हो गया। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सहित अनेक गणमान्य लेखक आए थे। लेकिन 15 अक्टूबर को महाकवि निरालाजी का इलाहाबाद में निधन हो गया। बाबूजी समारोह बीच में छोड़ कर आए। चित्रकार मित्र शशिन को बुलाया। शशिनजी ने लिनोलियम पर निरालाजी का सुंदर रेखाचित्र उकेरा। वह स्कैच 16 अक्टूबर के अंक में पहले पेज पर छपा। उसी के नीचे बाबूजी का लिखा भावभीना संपादकीय था- ”महाप्राण का महाप्रयाणÓÓ। यह मार्मिक प्रसंग मेरे स्मृतिकोष में आज भी सुरक्षित है।
नई दुनिया जबलपुर के संदर्भ में आखिरी बात मेरे अपने बारे में। पत्रकारिता का मेरा प्रारंभिक प्रशिक्षण यहीं हुआ। 5 अप्रैल 1961 को मैंने काम सीखना शुरू किया। यह क्रम 2 दिसंबर 1962 तक लगातार जारी रहा। इस दो साल की अवधि में प्रेस के हर विभाग में, हर टेबल पर मैंने काम सीखने का प्रयास किया। यह मेरे लिए एक मूल्यवान अवसर था। देशबन्धु की इसके आगे की कहानी अगले लेखों में पढि़ए।
ललित सुरजन
बाबूजी ने जबलपुर में पत्रकारिता की पिच पर अपनी पहली पारी 1950 में प्रारंभ की थी, जब वे ”नवभारतÓÓ का संस्करण स्थापित करने वहां आए और 1956 तक रहे। इस बीच 1951 के अंत में उन्होंने भोपाल में भी नवभारत का संस्करण शुरू कर दिया था, जिसे वे नए मध्यप्रदेश राज्य की स्थापना व भोपाल के राजधानी बनने तक जबलपुर से ही देखते रहे। उनकी दूसरी पारी 1959 से 1962 तक चली, जिसका जिक्र पिछले लेख में हो चुका है। जबलपुर का सांस्कृतिक-साहित्यिक माहौल बाबूजी की रुचि के अनुकूल था। अनेक समानधर्मा मित्र भी वहीं थे और यह उन मित्रों के आग्रह और परामर्श के साथ स्वयं अपनी इच्छा का परिणाम था कि नई दुनिया जबलपुर के तुरंत बाद ही उन्होंने जबलपुर में तीसरी पारी खेलने का निर्णय ले लिया। लेकिन इस बार स्थितियां अनुकूल नहीं थीं और न ही आसान। रायपुर में अखबार शुरू करने के समय नई दुनिया इंदौर की भागीदारी थी; जबलपुर में मुख्यत: परमानंद भाई पटेल का पूंजी निवेश था। मध्यप्रदेश की संस्कारधानी में एक नया अखबार चालू करना है तो उसके लिए साधन कैसे जुटाए जाएं, यह यक्ष प्रश्न था। सिर्फ दोस्तों की शुभकामनाओं से तो काम चलना नहीं था।
इसे लेकर मित्र मंडली में काफी माथापच्ची हुई और रास्ता निकला। जबलपुर में कमानिया गेट के भीतर पास ही एक संकरी गली में चलचित्र प्रेस था, जहां से टैब्लाइड आकार के सांध्य दैनिक ”जबलपुर समाचारÓÓ का प्रकाशन होता था। इसके संपादक और स्वामी बाबूजी के आत्मीय मित्र नित्यगोपाल तिवारी थे- पुराने कांग्रेसी व स्वाधीनता सेनानी। यह तय हुआ कि एक सहकारी प्रकाशन संस्था बनाई जाए जो जबलपुर समाचार का अधिग्रहण कर ले। मायाराम सुरजन प्रधान संपादक और प्रबंध संचालक होंगे तथा नित्यगोपाल तिवारी संपादक व महाप्रबंधक। यह भी तय हुआ कि अखबार टैब्लाइड के बजाय पूर्ण आकार का होगा- सर्वांग संपूर्ण सांध्य दैनिक। इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए पूंजी भी चाहिए थी और नई छपाई मशीन तथा अन्य सरंजाम भी। दिन-रात की भागदौड़ से यह संभव हुआ। सिटी•ान न्यू•ापेपर्स लि. नाम से एक नई कंपनी बनाई गई। यह प्राइवेट लिमिटेड न होकर सार्वजनिक कंपनी थी, जिसके शेयर आम जनता को बेचे जाना थे। सौ-सौ रुपए के शेयर बेचना सरल नहीं था। बाबूजी के साथ-साथ परसाईजी, महेंद्र बाजपेयी, अजय चौहान, हनुमान वर्मा आदि ने घर-घर जाकर दस्तक देना शुरू किया। कटनी से लेकर खंडवा और सागर से लेकर छिंदवाड़ा तक बाबूजी ने दौरे किए। परसाईजी की सलाह पर कटनी के डॉ. एन.वी. रमन इस कंपनी के चेयरमैन बनाए गए। कटनी में उनका पैतृक व्यवसाय था, लेकिन वे उस समय जबलपुर मेडिकल कॉलेज में रेसीडेंट डॉक्टर थे। डॉ. रमन प्रगतिशील विचारों के युवा थे, राजनीति में सक्रिय दिलचस्पी लेते थे। आगे चलकर वे कटनी से कांग्रेस टिकिट पर विधायक भी चुने गए। इस सामूहिक श्रम का इतना नती•ाा निकला कि अखबार चालू करने के लिए प्रारंभिक पूंजी की व्यवस्था हो गई।
इस बीच मकान और मशीन की तलाश जारी थी। सराफा बा•ाार की एक गली के भीतर गली में जैन मंदिर ट्रस्ट का एक बड़ा सा अहाता था। इसमें कुछेक आवासीय मकान थे और था एक बंद पड़ा छापाखाना। प्रतिभा प्रिंटिंग प्रेस जबलपुर के लोकप्रिय व अत्यन्त सम्मानित समाजवादी नेता सवाईमल जैन के परिवार का था। सवाईमलजी बाद में कांग्रेस के विधायक और विधानसभा उपाध्यक्ष भी बने। प्रसंगवश, उनके परिवार के द्वारा ही सुषमा साहित्य मंदिर नामक पुस्तक दूकान भी संचालित थी, जो हर पुस्तक प्रेमी के लिए आकर्षण का केंद्र थी। खैर, प्रेस में अच्छी-खासी हालत में फ्लैट बैड सिलिंडर मशीन के अलावा कंपोजिंग के उपकरण आदि मौजूद थे। प्रेस की इमारत बहुत बड़ी तो नहीं थी लेकिन चार पेज का अखबार निकालने के लिए पर्याप्त थी। प्रेस कुछ सालों में बंद था और चारों ओर धूल की मोटी परत जमी थी। सौदा हो जाने के बाद गर्द को साफ करना, बिजली कनेक्शन लेना, मशीन सहित सारे उपकरणों को चालू हालत में लाना जैसे बहुत से काम अब करना था। बाबूजी के अधिकांश विश्वस्त सहयोगी, जो जबलपुर, भोपाल, रायपुर, वापिस जबलपुर- हर जगह, हर वक्त उनके साथ रहे, नवीनतम उपक्रम में भी बिना कहे, बिना बुलाए आ गए। मेरी ड्यूटी भी उनके साथ लग गई। हम सब सुबह नौ बजे के करीब प्रेस पहुंच कर साफ-सफाई में जुट जाते, देर शाम बाहर निकलते और घमंडी चौक पर स्थित एक प्रसिद्ध चाय दूकान पर चाय पीकर घर वापिस लौटते। कुछ ही दिनों में प्रेस परिसर की शकल बदल गई। काम करने लायक वातावरण बन गया। रामनवमी 1963 के दिन नए कलेवर में जबलपुर समाचार का प्रकाशन प्रारंभ हो गया।
संपादकीय विभाग में भी कुछ पुराने सहयोगी आ गए थे, किंतु उतने में काम नहीं चलना था। बाबूजी ने रायपुर से राजनारायण मिश्र याने राजू दा को बुला लिया। इस बीच एक संयोग हुआ कि रायपुर कार्यालय में प्रशिक्षण पा रहे एम.ए. के विद्यार्थी लोकेंद्र चतुर्वेदी अपने पिताजी के तबादले के कारण उनके साथ-साथ जबलपुर आ गए। इस तरह संपादकीय विभाग में एक टीम बन गई। चूंकि टेलीप्रिंटर नहीं था, इसलिए देश-विदेश की खबरें रेडियो से लेते थे। प्रारंभ में हमारा जोर प्रांतीय समाचारों पर नहीं था, फिर भी आसपास के गांवों-कस्बों में अखबार की मांग होने लगी थी। शाम का पत्र उसी रोज जहां तक पहुंच सकता था, जाने लगा, लेकिन अधिकांश वितरण जबलपुर नगर में ही था। परसाईजी और हनुमान वर्मा प्राय: प्रतिदिन प्रेस आते थे। परसाईजी ने ”सबका मुजरा लेयÓÓ शीर्षक से नया साप्ताहिक स्तंभ प्रारंभ किया। वे समसामयिक विषयों पर यदा-कदा टिप्पणियां भी लिखते थे। हनुमान वर्मा भी ”टिटबिट की डायरीÓÓ नाम से एक दैनिक कॉलम लिखने लगे, जिसमें स्थानीय घटनाचक्र पर चुटीली टिप्पणियां होती थीं। बाबूजी तो अर्थप्रबंध के लिए लगातार भागदौड़ में लगे रहते थे। उन्हें बीच-बीच में रायपुर भी आना पड़ता था। संपादकीय लिखने का काम नित्यगोपाल तिवारी जी के अलावा गंगाप्रसाद ठाकुर और राजू दा करते थे।
इस समय का एक भावपूर्ण प्रसंग याद आता है। 1962 में चीनी आक्रमण के बाद ”डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्सÓÓ (डीआईआर) नामक एक नया कानून लागू हो गया था। नागपुर में बाबूजी के पूर्व नियोक्ता के अखबार के अलावा कुछ अन्य व्यवसाय भी थे। उनमें किसी अनियमितता के आरोप में उन्हें डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। यह खबर जबलपुर समाचार में छप गई। बाबूजी उस दिन रायपुर में थे और उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। वे लौटकर आए तो खबर देखकर बहुत व्यथित हुए और हम सब पर बरस पड़े। ”वे मेरे गुरु हैं। मैं जो कुछ बन सका हूं, यह उनके ही आशीर्वाद से है। मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा।ÓÓ हम लोग खामोश रहकर बाबूजी की नारा•ागी झेलते रहे। अपना गुस्सा उतारने के बाद बाबूजी ने नागपुर के लिए तुरंत एक पत्र लिखकर क्षमायाचना की कि मेरी अनुपस्थिति और गैर-जानकारी में आपके खिलाफ यह समाचार छप गया जिसकी मुझे ग्लानि है। बाबूजी ने इस तरह निजी आचरण में नैतिकता के साथ-साथ पत्रकारिता में भी मर्यादा का पालन करने का पाठ हमें सिखा दिया कि कलम का उपयोग निजी हिसाब-किताब चुकाने में नहीं, वरन् वृहत्तर लोकहित में होना ही अभीष्ट है।
ललित सुरजन
दुनिया के अनेक प्रमुख अखबारों के साथ उनके प्रकाशन स्थल का नाम जोडऩे की परंपरा रही है और इसी रूप में उनकी पहिचान बनी है जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, लास ऐंजल्स टाइम्स, सेंट लुई पोस्ट एंड डिस्पैच, बोस्टन मेल एंड ग्लोब इत्यादि। गार्जियन का भी नाम मूलत: मैनचेस्टर गार्जियन था, लेकिन लंदन स्थानांतरित होने के बाद वह सिर्फ गार्जियन रह गया। लंडन टाइम्स ने भी कालांतर में शहर का नाम निकाल दिया। भारत में अखबारों के नामकरण की परिपाटी इसके विपरीत रही है। यहां अधिकतर नामों से किसी व्यापक वैचारिकता का आभास होता है, खासकर हिंदी अखबारों में यथा राष्ट्रदूत, अमर उजाला, नवज्योति, सैनिक, विशाल भारत, जयहिंद, नवभारत, युगधर्म, स्वदेश, नई दुनिया इत्यादि। गोया अखबार के साथ स्थान का नाम जुड़ा हो तो उसका एक संकीर्ण दायरे में सिमटा होना अनिवार्य होगा!! इस सोच का कुछ नुकसान जबलपुर समाचार को भी उठाना पड़ा।
जबलपुर समाचार टैब्लाइड फार्म में जब तक प्रकाशित होता था, वह वाकई एक स्थानीय स्तर तक सीमित पत्र था; किंतु नए प्रबंधन की मंशा तो उसका विस्तार महाकौशल प्रदेश में सर्वत्र करने की थी। इसमें यह मूल नाम आड़े आ रहा था। अखबार चल तो निकला था, लेकिन प्रसार क्षेत्र सीमित हो जाने के अलावा कुछ अन्य बाधाएं भी थीं। एक स्वतंत्र अखबार विज्ञापनों के बिना नहीं चल सकता किंतु विज्ञापनदाता शाम के अखबार में विज्ञापन देना उचित नहीं मानते थे। यह हकीकत है कि सुबह का पत्र मुहल्ले-मुहल्ले, घर-घर पहुंचता है, जबकि शाम के पत्र की बिक्री सामान्यत: बा•ाार क्षेत्र में ही होती है। दूसरे शब्दों में प्रात:कालीन अखबार को संभावित ग्राहक पढ़ते हैं, इसलिए उसमें विज्ञापन देना लाभकारी है, जबकि सांध्यकालीन पत्र इस उद्देश्य को पूरा नहीं करता। तो यह दूसरी बाधा थी कि जबलपुर समाचार को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप विज्ञापन नहीं मिल रहे थे। इसके कारण आर्थिक प्रबंधन में तकली$फें आना ही थीं।
पत्र के संचालन के लिए पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन गई थी, लेकिन यह उन दिनों की बात है जब अधिकतर भारतीय शेयर मार्केट की अवधारणा से अपरिचित थे। टाटा और यूनिलीवर जैसी कंपनियों के शेयरों में भी गिने-चुने लोग निवेश करते थे। एक नए अखबार के शेयर भला कितने लोग खरीदते? परिणाम यह हुआ कि शेयर बिक्री से धन राशि का प्रवाह धीरे-धीरे कर सूखता गया और बाबूजी को यहां-वहां से कर्•ा लेने के लिए दिन-रात भागदौड़ करना पड़ी। एक दिन तो बाबूजी सुबह आठ बजे मेरी साईकिल लेकर करीब सात-आठ किमी दूर मदन महल के आगे अपने मित्र शांतिलाल शाह के कारखाने चले गए। उस दिन उन्होंने न जाने कितने बरसों बाद साईकिल चलाई होगी। उस प्रसंग को याद करता हूं तो आज भी आंखों में आंसू आते हैं। इसी तरह एक रोज वे कटनी जाने के लिए निकले। बस स्टैंड के पास रूपराम की पान दूकान पर रुके। रूपरामजी (जिनके बारे में परसाईजी व बाबूजी दोनों ने संस्मरण लिखे हैं) से पान बंधवाया, कटनी का बस टिकिट भी उनसे मंगवाया, कटनी में हाजी गुलाम अहमद गुलाम (भाई) से राशि उधार ली और देर शाम जबलपुर लौटे।
इन परिस्थितियों में कुछ साल बाद ही कंपनी को तो खत्म होना ही था। अखबार कैसे जीवित रहे, यह प्रश्न सामने खड़ा था। तब पहले तो पत्र का नाम जबलपुर समाचार से बदलकर ”सार समाचारÓÓ किया गया और फिर सांध्य दैनिक के बजाय बाकायदा प्रात:कालीन दैनिक में परिवर्तित कर दिया गया। सराफा के जैन मंदिर प्रांगण से निकलकर दफ्तर भी बलेदवबाग में किराए की एक नई जगह पर आ गया। समस्या से निबटना अब भी शेष था। यह दौर था जब एक ओर ते•ाी से नए-नए अखबार प्रारंभ हो रहे थे तो दूसरी तरफ बहुसंस्करणीय पत्रों को विज्ञापन जगत में प्राथमिकता मिलने लगी थी। अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग अखबारों को विज्ञापन देने के बजाय बेहतर था कि एक पत्र को विज्ञापन दे दो जो उसके सभी संस्करणों में एक साथ छप जाए। मलयाल मनोरमा (मलयाली), आनंद बा•ाार पत्रिका (बांग्ला) और नई दुनिया, इंदौर (हिंदी) ही ऐसे अखबार थे जो सिंगल एडीशन होने के बावजूद विज्ञापनदाताओं की पसंद थे। इसी तथ्य पर शायद गौर करते हुए बाबूजी ने भी एक दिन सार समाचार का नाम बदलकर देशबन्धु जबलपुर कर दिया।
इस तरह देशबन्धु के अब दो संस्करण हो गए- रायपुर और जबलपुर। इस समय (1972 के आसपास) रायपुर संस्करण हर तरह से प्रगति कर रहा था। परेशानियों के बादल काफी छंट चुके थे। वक्त आ गया था कि जबलपुर संस्करण को भी स्थिर आधार मिल जाए। मैं 1973 की जनवरी में अस्थायी तौर पर जबलपुर गया और लगभग छह माह बाद छोटे भाई देवेंद्र के हवाले कामकाज सौंपकर जून-जुलाई में रायपुर वापिस आ गया। कुछ साल बाद जबलपुर में भी पे्रस भवन बना, ऑफसेट मशीन आई और भावी उन्नति का रास्ता खुला। यहां एक घटनाक्रम का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। मध्यप्रदेश सरकार ने समाचारपत्रों को रियायती दर पर भूखंड आबंटित करने की नीति बनाई थी। इंदौर, भोपाल व काफी बाद में रायपुर में बाकायदा प्रेस काम्प्लेक्स भी विकसित किए गए। मैं उन दिनों की बात कर रहा हूं जब जबलपुर में हमारे पास •ामीन नहीं थी। 1980 में अर्जुनसिंह मुख्यमंत्री बने। उनसे शायद 83-84 में कभी बात हुई होगी तो जबलपुर में न•ाूल संपत्ति का एक भूखंड हमें आबंटित कर दिया गया, लेकिन ऐसी परिस्थिति बनी कि हमने उसे छोड़ दिया।
1985 के विधानसभा चुनाव के पूर्व युवक कांग्रेस के नेता (बाद में राज्यसभा सदस्य व प्रभावशाली केंद्रीय मंत्री) सुरेश पचौरी एक सुबह अचानक रायपुर में हमारे घर आ गए। वे एक संदेश लेकर आए थे- साहब (अर्जुनसिंह) चाहते हैं कि आप जबलपुर में आबंटित उस भूखंड को छोड़ दीजिए। ललित श्रीवास्तव उस विधानसभा क्षेत्र से अपने प्रत्याशी हैं। उस •ामीन को लेकर कुछ विवाद उठ खड़ा हुआ है, जिसका विपरीत असर चुनाव पर पड़ सकता है। लेकिन चुनाव के बाद आपको वहीं या उससे बेहतर जगह मिल जाएगी। बाबूजी उस रोज भोपाल में थे। मैंने फोन पर सारी बात बताई। सहज उत्तर था जिन्होंने •ामीन दी है, वे ही वापिस लेना चाहते हैं तो ठीक है। मैंने सुरेश भाई को इसी के अनुसार बता दिया कि हम भूखंड छोड़ देंगे। वे आश्वस्त होकर चले गए। 1985 के चुनाव में अर्जुनसिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को लगातार दूसरी बार विजय मिली। लेकिन उसके तत्काल बाद अप्रत्याशित रूप से उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया। सो चुनाव पूर्व के आश्वासन पर अमल नहीं हो सका। हमें फिर कितने जतन करने के बाद दूसरा भूखंड मिला, यह एक अलग कहानी है। लेकिन 1985 में नई जगह पर भवन बना, मशीन आई और संयोग देखिए कि दुबारा मुख्यमंत्री बनकर लौटे अर्जुनसिंह के हाथों ही उसका उद्घाटन हुआ।
ललित सुरजन
5 मार्च 2020
सन् 1974 की तीन या चार जनवरी को मैं सुदूर दक्षिण में तिरुनलवेली स्टेशन पर सुबह-सुबह उतरा था। मदुरै से आगे और कन्याकुमारी को मात्र अस्सी किमी पहले। साथ में पत्नी और दो नन्हीं बेटियां भी थीं। नहीं, हम देशाटन या तीर्थाटन पर नहीं थे। हमारे वरिष्ठ मशीनमैन छोटेलालजी भी साथ थे, जिनका उल्लेख लेखमाला के प्रारंभ में हो चुका है। तमिल अखबार ‘दिनमलारÓ की सेकंडहैंड रोटरी मशीन का सौदा हो चुका था। उसे खोलकर भोपाल भेजना था। एक लाख रुपए की मशीन के लिए तीस हजार रुपए नकद देना थे, जो मैंने बहुत सम्हालकर कर रखे थे। शेष की बैंक बिल्टी होना थी। याने गंतव्य पर मशीन पहुंचने पर रकम देने के बाद ही ट्रांसपोर्ट से हम उसे उठा सकते थे। बतौर एहतियात बाबूजी ने दस हजार का एक चेक दे दिया था, जिस पर हमारे बैंक मैनेजर ने पीछे लिख दिया था- गुड फॉर पेमेंट। यह लिखकर मैनेजर डागाजी ने एक तरह से व्यक्तिगत जिम्मेदारी ले ली थी। बहरहाल, स्टेशन से उतर कर न•ादीक के एक होटल में डेरा डाला। दिनमलार के दफ्तर गया। संचालक के छोटे बेटे सत्यमूर्ति से भेंट हुई। उन्होंने सपरिवार दोपहर भोज पर घर आमंत्रित किया। कार से घर ले गए। स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया। उनके बुजुर्ग पिताजी के हाथों नकद राशि थमाई। उसके बाद जो हुआ वह एंटी क्लाइमेक्स था। सत्यमूर्ति ने कहा कि वे दोपहर भोजन के बाद आराम करते हैं सो हम रिक्शा लेकर अपने होटल लौट जाएं। उनका सौजन्य नकदी मिलने तक था।
अगले दिन से मशीन खुलने का कार्यक्रम था। पत्नी-बच्चों को होटल में और छोटेलालजी को अखबार के मशीनरूम में छोड़कर सत्यमूर्ति के ही साथ उनके बैंक गया। बैंक मैनेजर ने आपत्ति की कि मार्जिन जमा किए बिना बैंक बिल्टी नहीं बनेगी। कैसे बताते कि हम तो नकद राशि पहले ही दे चुके हैं। तभी ”गुड फॉर पेमेंटÓÓ का चेक काम आया। उसे देखकर मैनेजर ने सत्यमूर्ति से तमिल में जो कहा वह समझ में आ गया- ये नार्थ इंडियन ऐसे ही चालाक होते हैं। बहरहाल, काम हो गया। दरअसल, उन दिनों तमिलनाडु में हिंदी का काफी विरोध था, जिसका अनुभव स्टेशन पर उतरकर टैक्सी लेते समय ही हो गया था; लेकिन यह एक अधूरी तस्वीर थी, जिसका दूसरा पक्ष भी इसी यात्रा में देखने मिला तथा परवर्ती यात्राओं में जिसकी पुष्टि हुई। मोटे तौर पर मेरा निष्कर्ष रहा है कि समाज का वर्चस्ववादी, मुखर तबका ही ऐसे भेदभाव को बढ़ावा देता है जिससे साधारण जन भी तात्कालिक उत्तेजना में आ जाते हैं, यद्यपि उनकी मूल प्रवृत्ति संकीर्णता की नहीं होती।
नौंवे-दसवें दिन मशीन खुल जाने के बाद उनकी पैकिंग होना थी और रवानगी के लिए ट्रकों का इंत•ााम करना था। मैं बा•ाार में घूम रहा था कि लकड़ी के मजबूत बक्से मिल जाएं जिनमें छोटे कलपुर्जों की पैकिंग हो सके। कुछ तो भाषा और कुछ भावना के व्यवधान के चलते काम सध नहीं रहा था। इतने में एक सज्जन ने अपनी दूकान से आवा•ा दी- मिस्टर सुरजन। मैंने चौंककर देखा। इन महोदय से दो दिन पूर्व रोटरी क्लब की बैठक में भेंट हुई थी। उन्होंने मेरी परेशानी समझी। बक्सों का प्रबंध करवाया। फिर मेरे साथ ट्रांसपोर्ट कंपनी तक गए। सही भाड़े पर दो ट्रक बुक करवा दिए। छोटेलालजी को ट्रकों के साथ भोपाल के लिए रवाना किया और हम बस से मदुरै के लिए निकले। मदुरै में संयोगवश ट्रांसपोर्ट के दफ्तर फोन किया तो मालूम पड़ा कि वाणिज्यकर चौकी पर ट्रक रोक लिए गए हैं। परदेस में एक नई परेशानी? मैं दिनमलार के स्थानीय दफ्तर गया। उसके ब्यूरो प्रमुख से बात की। वे मेरे साथ वाणिज्यकर उपायुक्त के दफ्तर गए जिन्होंने अपना एक सहायक साथ कर दिया। चौकी पर पहुंचकर उनकी सलाह से एक सौ रुपए का नजराना भेंट किया। तब ट्रक आगे बढ़े और आगे बिना किसी विघ्न-बाधा के भोपाल पहुंच गए।
रायपुर और जबलपुर के बाद देशबन्धु का तीसरा संस्करण 1974 में भोपाल से प्रारंभ हुआ, उसकी पृष्ठभूमि में यह मेरा छोटा सा अनुभव भी है। अफसोस कि पांच साल बीतते न बीतते 1979 में इस तीसरे संस्करण को बंद करने की नौबत आ गई। देशबन्धु की एक दशक से भी अधिक की संघर्षपूर्ण यात्रा के बाद 1971-72 में कुछ आराम करने का समय आया था। अखबार की प्रतिष्ठा वृद्धि तथा आर्थिक प्रगति दोनों के लिए प्रदेश की राजधानी में अपनी उपस्थिति होना चाहिए, संभवत: इसी विचार ने बाबूजी को भोपाल संस्करण स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। बाबूजी का भोपाल आना-जाना तो 1951 से ही लगा हुआ था और 1956 में नए मध्यप्रदेश की राजधानी बन जाने के बाद एक सक्रिय संपादक के रूप में उनका समय-समय पर भोपाल जाना सहज-स्वाभाविक था। 1972 में श्रीमती इंदिरा गांधी की नारा•ागी के चलते श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा था और उनकी जगह प्रकाशचंद्र सेठी आ गए थे। बाबूजी ने संपादकीय लिखकर गैर-जनतांत्रिक तरीके से शुक्लजी को हटाने का विरोध किया था; लेकिन सेठीजी से उनका पुराना परिचय था। और कहना होगा कि राजधानी का राजनैतिक माहौल देशबन्धु के लिए पहले से बेहतर था। लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या है, इसका कोई अनुमान नहीं था।
बाबूजी ने अपने पुराने साथी भाई रतनकुमारजी को भोपाल संस्करण का संपादक नियुक्त किया। रतनकुमारजी तपे हुए स्वाधीनता सेनानी और शहर के अत्यन्त सम्मानित नागरिक थे। उनके संपादक बनने से भोपाल के पुराने बाशिन्दों का देशबन्धु से जुड़ाव होने की अपेक्षा स्वाभाविक थी। लेकिन राजधानी पुराने भोपाल तक ही सीमित नहीं थी। इसी बीच शाकिर अली साहब के निधन से रिक्त विधानसभा सीट पर उपचुनाव की स्थिति उत्पन्न हुई। घटनाचक्र ऐसा चला कि भाई साहब कांग्रेस के प्रत्याशी घोषित हुए। उनके सामने थे जनसंघ के बाबूलाल गौर। देश की राजनैतिक फि•ाां बदल रही थी। गौर साहब ने इस उपचुनाव के माध्यम से अपनी अविजित चुनावी पारी की पहली जीत दर्•ा की। इस प्रसंग से देशबन्धु को एक धक्का लगा। उसे शायद हम झेल भी जाते, किंतु अखबार चलाने के लिए जितनी पूंजी की आवश्यकता थी, वह भी हमारे पास नहीं थी। संस्करण प्रारंभ करते समय जो उम्मीदें थीं, वे फलीभूत नहीं हो रही थीं। खींचतान कर काम चल रहा था। इधर 1977 के आम चुनावों में कांग्रेस को लोकसभा व विधानसभा दोनों में करारी हार का सामना करना पड़ा।
मध्यप्रदेश में कैलाश जोशी के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। कैलाशजी सहृदय व्यक्ति थे, व्यक्तिगत रागद्वेष से परे। उन्हें देशबन्धु से वैचारिक मतभेद के बावजूद कोई शिकायत नहीं थी। उन्हें पार्टी की अन्र्तकलह के कारण जल्दी ही पद छोडऩा पड़ा। वीरेंद्र कुमार सकलेचा नए मुख्यमंत्री बने। देशबन्धु में मई 1978 में किरंदूल गोलीकांड की रिपोर्ट छपने से वे बेहद ख$फा हुए। भोपाल संस्करण में सरकारी विज्ञापन बंद हो गए व रायपुर-जबलपुर में अनुपात एकदम घट गया। इधर रायपुर में नए भवन व ऑफसेट मशीन की योजना पर काम चल रहा था। उसके लिए भी साधन जुटाना था। ऐसे में भोपाल संस्करण को बंद करना ही बेहतर समझा गया। बरसों बाद संसद के सेंट्रल हॉल में सकलेचाजी से मुलाकात हुई तो उन्होंने अफसोस जताया- सुरजनजी! देशबन्धु को समझने में मुझसे गलती हुई।
भोपाल की चर्चा राज भारद्वाज के उल्लेख के बिना अधूरी रहेगी। भारद्वाजजी पहले संभवत: दैनिक मध्यदेश में कार्यरत थे। हमारा व्यवसायिक नाता जब नई दुनिया इन्दौर से छूटा तो भोपाल में एक पृथक संवाददाता नियुक्त करने की आवश्यकता सामने आई। भारद्वाजजी 1972 के आसपास देशबन्धु से जुड़े तो अपने अंतिम समय तक साथ बने रहे। वे 1993 में एक दुर्घटना के कारण अस्वस्थ हुए और ना•ाुक स्थिति में पहुंच गए, तब नए-नए मुख्यमंत्री बने दिग्विजय सिंह ने उन्हें शासकीय विमान से एम्स दिल्ली भिजवाया, जहां वे कई माह भरती रहे और सकुशल वापिस आए। भारद्वाजजी के सभी दलों और सभी नेताओं के साथ अच्छे संबंध थे। उन्होंने न तो कभी राजनीति में मध्यस्थता की, न कोई अनुचित लाभ उठाया, और न इधर की बात उधर की। इस वजह से मंत्री, अधिकारी उनके साथ बात करने में हिचकते नहीं थे। वे चूंकि छल-कपट से दूर थे, इसलिए उन्हें सम्मान तो पर्याप्त मिला, लेकिन बदलते समय के साथ पत्रकारिता के बदलते रंग-ढंग वे कभी अपना नहीं सके। मुझे इस बात का संतोष है कि राज भारद्वाज के रूप में हमें एक विश्वास योग्य सहयोगी मिला।
ललित सुरजन
साठ साल (जिसे अब शीघ्र इकसठ साल होने जा रहे हैं) के इस सफर में शायद सबसे बेहतर समय 1979-80 से लेकर 1993-94 तक का था। इस दौरान छोटी-बड़ी बाधाओं के बावजूद अखबार ने सर्वांगीण प्रगति दर्ज की। रायपुर में खुद का भवन बना; नई तकनीक की मशीनें लगीं; संपादक साथियों को पुरस्कार और सम्मान हासिल हुए; आर्थिक मोर्चे पर परेशानियां काफी दूर हुईं; और इन सबसे बढ़कर मुझे जिस बात की आंतरिक खुशी हुई यह कि बाबूजी ने ‘दरअसलÓ शीर्षक से नियमित स्तंभ लिखने की शुरुआत की। उन्होंने मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास पर ”मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश केÓÓ शीर्षक निबंध श्रृंखला भी इसी बीच समानांतर साप्ताहिक कॉलम के रूप में लिखी। अविभाजित म. प्र. की राजनीति पर एक पत्रकार द्वारा रचित यह आज भी सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। दीपक तिवारी (वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी वि.वि. के कुलपति) सहित अनेक पत्रकारों व शोधार्थियों ने अपनी पुस्तकों में इस ग्रंथ से भरपूर सामग्री उठाई है। ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता में देशबन्धु के योगदान को इसी अवधि में पत्रजगत में व्यापक स्वीकृति मिली।
यही दौर था जब 1 फरवरी 1985 को विंध्यप्रदेश की व्यवसायिक राजधानी सतना से देशबन्धु का एक और संस्करण प्रारंभ हुआ। इसी समय हमने भोपाल में फिर कदम रखे तथा साप्ताहिक देशबन्धु का प्रकाशन शुरू किया, जिसने 1990 की पहली जनवरी को दैनिक पत्र में परिवर्तित कर दिया गया। एक साल बाद 1 मई 1991 को बिलासपुर संस्करण की स्थापना हो गई। इन नए उपक्रमों के लिए दौड़धूप करना लाजिमी था, लेकिन मानसिक दबाव नहीं था। दुश्चिंताएं थीं भी तो इतनी भारी नहीं कि उनसे उबर न पाएं। इन दिनों की कुछ यादें उभर कर सामने आ रही हैं। विंध्यप्रदेश में तब रीवां से कांग्रेस से जुड़े गुप्ता परिवार का ”दैनिक जागरणÓÓ व पूर्व महाराजा का ”बांधवीय समाचारÓÓ ऐसे दो पत्र मुख्यत: प्रकाशित होते थे। सतना में एक कपूर महाशय का ”सतना टाइगरÓÓ शीर्षक दैनिक पत्र था। सतना में अखबारों और पत्रकारों की प्रतिष्ठा कुछ ऐसी थी कि हमें प्रेस के लिए किराए का भवन तलाश करने के लिए काफी मशक्कत करना पड़ी। गनीमत थी कि निवास के लिए बाबूजी के कॉलेज जीवन के परिचित श्री एस.आर. नेमा ने अपना एक मकान उपलब्ध करा दिया। प्रेस के लिए भी डॉक्टर वाधवानी के नर्सिंग होम के भूतल पर बड़ा सा हॉल मिल गया, जो तत्काल काम चलाने के लिए पर्याप्त था।
सतना में अखबार स्थापित करने की हलचल शुरू हुई तो प्रेस जगत तथा राजनीतिक हल्कों में चर्चा चली कि इसके पीछे अर्जुन सिंह का हाथ है। वे उन दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री जो थे। वस्तुस्थिति यह है कि श्री सिंह की सद्भावना अवश्य हमारे साथ थी, लेकिन इसके आगे कोई बात नहीं थी। वैसे भी पत्र प्रारंभ होने के कुछ दिन बाद ही वे पंजाब के राज्यपाल होकर चले गए थे। एक जनसंपर्क प्रवीण अधिकारी ने रायपुर में मुझसे बहुत टोह लेने की कोशिश की कि अर्जुनसिंह ने पत्र में कितना निवेश किया है आदि। मैं उन्हें समझा नहीं पाया कि अगर ऐसा कुछ होता तो दफ्तर के लिए जगह ढूंढने में हमें परेशानी क्यों उठाना पड़ती। प्रेस में बिजली कनेक्शन लेने हेतु भी विभाग के अधिकारियों ने खूब चक्कर लगवाए। मैंने जब विद्युत मंडल के संचालक व पूर्व परिचित आर.एस. मेहता से परेशानी बयान की तब उनकी डांट फटकार के बाद कनेक्शन मिल पाया। उस पर हास्यास्पद स्थिति तब उत्पन्न हुई कि जब विद्युत मंडल के अधिकारी ने हमारे प्रबंधक से गुहार लगाई कि कनेक्शन तो आपने लगवा लिया है, लेकिन चाय-नाश्ते के लिए तो कुछ प्रबंध कर देते। अब इतना दस्तूर भी न निभाते तो क्या करते? सतना में संपादक के लिए मैंने देशबन्धु के सुपरिचित लेखक व प्रखर बुद्धिजीवी रमेश याज्ञिक का नाम प्रस्तावित किया था; किंतु बाबूजी ने श्यामसुंदर शर्मा को नियुक्त किया, जो सन् पचास के दशक में जबलपुर में बाबूजी के साथ काम कर चुके थे। बाबूजी के आमंत्रण पर शर्माजी ने जनसंपर्क विभाग के संयुक्त संचालक पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और भोपाल से सतना आ गए।
बाबूजी ने श्री अर्जुनसिंह को जब बात-बात में अपना इरादा बतलाया था तो उनका सुझाव था कि अखबार रीवां से निकाला जाए। लेकिन बाबूजी ने अनेक दृष्टियों से विचार करने के बाद सतना को ही प्राथमिकता देना बेहतर समझा। सतना संस्करण को प्रारंभ करने के कुछ ही दिनों के भीतर विंध्यप्रदेश में (बुंदेलखंड के तीन पुराने •िालों सहित) चारों तरफ पाठकों ने हाथों-हाथ ले लिया। ऐसी सफलता अमूमन किसी नए अखबार को नहीं मिलती है। यह अतिशयोक्ति नहीं है कि उस क्षेत्र के पाठकों को देशबन्धु के रूप में पहली बार एक स्वतंत्र और विश्वसनीय अखबार देखने मिला। बघेलखंड और बुंदेलखंड का यह इलाका हमारे लिए नया था, लेकिन जबलपुर नवभारत के दिनों से बाबूजी के संपर्क यहां के राजनेताओं व बुद्धिजीवियों के साथ थे। मुझे अपने बचपन की याद है कि विंध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष शिवानंदजी जबलपुर आते थे तो हमारे घर पर ही ठहरते थे। महेंद्र कुमार मानव, दशरथ जैन, डॉ. लालता प्रसाद खरे, जगदीश जोशी, बैरिस्टर गुलशेर अहमद, यमुना प्रसाद शास्त्री, रामहित गुप्ता, भगवानदास सफडिय़ा, देवीशरण ग्रामीण, कमलाप्रसाद, सेवाराम त्रिपाठी, प्रहलाद अग्रवाल, बाबूलाल दहिया, विजय अग्रवाल इत्यादि सभी पीढिय़ों, सभी पार्टियों व विभिन्न व्यवसायों में जुटे सक्रिय जनों से उनका किसी न किसी स्तर पर मेलजोल था। इसका यह लाभ हुआ कि प्रदेश की अनेक रचनात्मक प्रतिभाएं देशबन्धु के साथ जुड़ गईं। उनमें से कुछ के तो नियमित स्तंभ भी प्रकाशित होने लगे। एक अन्य स्तर पर सतना के बीड़ी व्यवसायी उमाचरण गुप्ता ने समय-असमय जो हमारा साथ दिया, उसका भी उल्लेख मुझे करना चाहिए।
सतना संस्करण जम जाने के बाद हमारा ध्यान एक बार फिर भोपाल की ओर गया। वहां से साप्ताहिक देशबन्धु का प्रकाशन तो हम कर ही रहे थे। इस साप्ताहिक पत्र ने भी पश्चिमी व उत्तरी मध्यप्रदेश में खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली थी। ग्वालियर, इंदौर, धार, झाबुआ, खंडवा आदि तमाम जगहों पर हमने •िाला प्रतिनिधि नियुक्त कर दिए थे, जिनकी भेजी रिपोर्टों की चर्चा राजनीति के गलियारों में होने लगी थी। माधवराव सिंधिया की पुत्री के विवाह को लेकर जब राजनैतिक विवाद खड़ा किया गया तो सिंधियाजी के निजी आग्रह पर मैंने एक वरिष्ठ साथी को ग्वालियर भेजा, ताकि एक वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट प्रदेश की जनता के सामने रखी जा सके। बाबूजी ने ”मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश केÓÓ श्रंृखला भी मूलत: साप्ताहिक देशबन्धु के लिए ही लिखी थी। डॉ. सुशील त्रिवेदी ने प्रदेश की सांस्कृतिक गतिविधियों पर जो नियमित कॉलम लिखा, उसकी भी काफी चर्चा होने लगी थी। कुल मिलाकर दैनिक पत्र निकालने के लिए मजबूत पृष्ठभूमि तैयार थी। और हां, इंदिरा प्रेस काम्प्लेक्स में हमें आबंटित भूखंड भी कई बरसों से भवन निर्माण की राह तक रहा था। उस पर इस बीच स्वाभाविक ही काफी अतिक्रमण भी हो चुके थे।
भोपाल से दैनिक संस्करण प्रारंभ करने का निर्णय काफी हद तक मेरा था, जिसे बाबूजी ने बेमन से स्वीकृति दे दी थी। उन्होंने कहा- भोपाल मुझे फला नहीं। यहीं मुझे नवभारत (और एमपी क्रॉनिकल भी जिसे बाबूजी ने ही शुरू किया था) छोडऩा पड़ा और देशबन्धु भी यहां चल नहीं सका। बहरहाल, भवन बनना शुरू हुआ; मशीन का ऑर्डर भी दे दिया गया; प्रकाशन की तारीख भी तय कर ली- 1 जनवरी 1990। मशीन लगने में विलंब हो रहा था तो पड़ोस में ”स्वदेशÓÓ के संचालक-संपादक, राजेंद्र शर्मा ने आगे बढ़कर सहयोग किया। शुरूआत के कुछेक दिन अखबार उन्हीं के प्रेस में छपा। हमारा इरादा इसे भोपाल के स्थानीय पत्र के बजाय राजधानी का पत्र बनाने का था। इस दृष्टि से मैंने रायपुर संस्करण के कुछ अनुभवी संवाददाताओं को इंदौर, राजगढ़, बैतूल, होशंगाबाद, सागर इत्यादि स्थानों पर ब्यूरो प्रमुख बनाकर भेजा। भोपाल संस्करण के लिए पूंजी की व्यवस्था भी रायपुर के मेरे कुछ मित्रों ने ही की। मैं आज भी आर्थिक और नैतिक दृष्टि से इन दोस्तों का कर्•ादार हूं।
ललित सुरजन
यह लेखमाला सभापन की ओर बढ़ रही है। पहली किश्त 11 अप्रैल 2019 को छपी थी, जब अखबार के साठ साल पूरे होने में मात्र छह दिन बचे थे। उस समय अपने सभी शुभचिंतकों व सहयोगदाताओं के प्रति सार्वजनिक रूप से कृतज्ञता ज्ञापित करने की भावना ही मन में थी। लेकिन कुछ अंतराल के बाद इस विचार ने जोर पकड़ा कि मुझे पत्र की सुदीर्घ यात्रा का विवरण भी लिपिबद्ध कर देना चाहिए, जो शायद कभी दस्तावे•ा की शक्ल में काम आ सके। यूं तो हर संस्था, हर प्रतिष्ठान के जीवन में उतार-चढ़ाव के दौर आते हैं; लेकिन मेरा मानना है कि समाचारपत्र जगत में देशबन्धु का सफर अन्य अखबारों से काफी हद तक अलग रहा है, जिसके ब्यौरे पत्रकारिता के अध्येताओं व पत्र के पाठकों के अलावा देशबन्धु से जुड़े सभी जनों को मालूम होना उपयोगी होगा। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं एक लेख की चंद पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा।
”पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है।… अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।ÓÓ
आप शायद सोचें कि यह लेख हाल-फिलहाल में लिखा गया होगा। आखिरकार, इन दिनों पत्रकारिता पर जब कभी चर्चा होती है तो सबसे पहले एक कथन जड़ दिया जाता है कि पत्रकारिता पहले मिशन थी, लेकिन अब व्यापार बन गई है। इस उद्धरण में इसी कथन की प्रतिध्वनि है। लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पत्रकारिता के बारे में ऐसी तीखी और बेबाक टिप्पणी आज से लगभग एक सदी पूर्व शहीदे आ•ाम भगतसिंह ने की थी। उनका एक लेख ”किरतीÓÓ पत्रिका के जून 1928 अंक में छपा था, जहां से ये पंक्तियां मैंने उठाई हैं। इन्हें पाठकों के सामने रखने का मेरा मकसद यही है कि भगतसिंह ने अखबारों के जिस असली कर्तव्य की चर्चा की है, देशबन्धु ने यथाशक्य उसी रास्ते पर चलने की कोशिश की है। इस रास्ते पर ”द गार्जियनÓÓ के विश्व विश्रुत संपादक सी.पी. स्कॉट का उद्बोधन हमारे लिए पथ का प्रदीप रहा है। उन्होंने कहा था-”ष्टशद्वद्वद्गठ्ठह्लह्य द्बह्य द्घह्म्द्गद्ग, ड्ढह्वह्ल ह्लद्धद्ग द्घड्डष्ह्लह्य ड्डह्म्द्ग ह्यह्म्ड्डष्ह्म्द्गस्र.ÓÓ अर्थात टीका-टिप्पणी करने आप स्वतंत्र हैं, किंतु तथ्य पवित्र हैं (जिनके साथ छूट नहीं ली जा सकती)। इसके साथ उन्होंने एक चेतावनी भी दी थी- ढ्ढह्ल द्बह्य 2द्गद्यद्य ह्लश ड्ढद्ग द्घह्म्ड्डठ्ठद्म, द्बह्ल द्बह्य द्ग1द्गठ्ठ ड्ढद्गह्लह्लद्गह्म् ह्लश ड्ढद्ग द्घड्डद्बह्म्.ÓÓ याने निर्भीक होना अच्छा है, लेकिन उससे भी बेहतर है निष्पक्ष होना।
स्कॉट ने जो बात पूरे सौ साल पहले सन् 1921 में कही थी, वह आज भी उतनी ही सच है। अफसोस यह है कि कारपोरेट स्वामित्व के इस दौर में पत्रकारिता जगत के लिए सी.पी. स्कॉट हों या भगतसिंह, उनकी बातों का कोई महत्व नहीं रह गया है। देशबन्धु भी अपने द्वारा अंगीकृत इन मूल्यों का कितना पालन कर सका है, यह हमारे नहीं पाठकों के निर्णय का विषय है। इस हेतु पिछली पैंतीस किश्तों में साठ साल का जो ब्यौरा मैंने पेश किया है, को आधार बनाया जा सकता है। मुझे यह स्पष्ट करना चाहिए कि यह लेखमाला पूरी तरह मेरे निजी अनुभवों व स्मरणशक्ति पर आधारित है। अनेक मित्रों ने बीच-बीच में पूछा है कि क्या मैं कोई डायरी रखता हूं। मैं उन्हें बतलाता हूं-नहीं। बाबूजी अवश्य एक गांधी डायरी में अपनी दिनचर्या लिखते थे, लेकिन मैंने उसका भी सहारा नहीं लिया है। दूसरी बात। अभी यह लेखमाला अधूरी है। लेकिन मैं पाठकों के धैर्य की परीक्षा नहीं लेना चाहता। कुछेक बातों का संक्षिप्त जिक्र मैं फिलहाल करूंगा, जो देशबन्धु के इतिहास का हिस्सा हैं, किंतु बहुत पुरानी नहीं हैं। मसलन सांध्य दैनिक ”हाईवे चैनलÓÓ का प्रकाशन, जिसे चौबीस साल पूरे हो चुके हैं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती 23 जनवरी 1996 को रायपुर संस्करण प्रारंभ किया था, जिसके संपादन का दायित्व मेरे अनन्य मित्र प्रभाकर चौबे ने सम्हाला था।
हमें एक अच्छे हिंदी शीर्षक की तलाश थी, परंतु भारत के समाचारपत्र पंजीयक (आरएनआई)ने हमारे द्वारा प्रस्तावित ऐसे किसी भी नाम को स्वीकृति नहीं दी। उन दिनों टीवी पर नए-नए चैनल खुल रहे थे तथा हमारा प्रारंभिक लक्ष्य नेशनल हाईवे पर रायपुर-दुर्ग-भिलाई के पाठकों तक पहुंचना था। यह सोचकर हाईवे चैनल नाम मांगा तो तुरंत मंजूरी मिल गई। रायपुर के बाद बिलासपुर, जबलपुर, भोपाल और जगदलपुर में भी यह सांध्य दैनिक प्रारंभ किया, लेकिन भोपाल व जबलपुर संस्करण जल्दी ही बंद करना पड़े। फिर अप्रैल 1997 में देशबन्धु के वार्षिकांक के रूप में ‘अक्षर पर्वÓ का प्रकाशन शुरू हुआ जिसे 1999 में मासिक पत्रिका का स्वरूप दे दिया गया। अक्षर पर्व के पहले अंक में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का बनाया चित्र मुखपृष्ठ पर छपा। हमारे उस समय के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख विनोद वर्मा के प्रयत्नों से यह संभव हुआ। अगले साल सैय्यद हैदर र•ाा ने मेरे आग्रह पर अपनी पेंटिंग मुखपृष्ठ पर छापने के लिए उदारतापूर्वक दे दी। इन तीनों वार्षिकांकों का मनोयोगपूर्वक संपादन हमारे मित्र डॉ. राजेंद्र मिश्र ने किया था। 1999 के अप्रैल से जनवरी 2019 तक अक्षर पर्व का मासिक प्रकाशन चलता रहा, लेकिन अनेक कारणों से इसे बंद करने का निर्णय लेना पड़ा।
हमने देशबन्धु में बाकायदा एक प्रकाशन विभाग की स्थापना भी 1995 में की, जिसके अन्तर्गत संदर्भ मध्यप्रदेश, संदर्भ छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ के तीर्थ और पर्यटन स्थल, अंग्रे•ाी में ”छत्तीसगढ़: ब्यूटीफुल एंड बाउंटीफुलÓÓ इत्यादि उपयोगी संदर्भ ग्रंथ छापे गए। हम एक अभिनव प्रयोग में भी भागीदार बने। लंडन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्सके प्रोफेसर रहे सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री जोनाथन पी. पैरी विश्व के जाने-माने सामाजिक नृतत्वशास्त्री हैं। उनकी पत्नी मार्गरेट डिकिन्सन एक विख्यात वृत्तचित्र निर्माता हैं। मार्गरेट के प्रस्ताव पर भिलाई में ”जनदर्शनÓÓ नामक एक तीन वर्षीय वृत्तचित्र प्रशिक्षण एवं निर्माण प्रकल्प चला, जिसमें जर्मनी व इंग्लैंड के भागीदारों के अलावा देशबन्धु स्थानीय पार्टनर बना। 1999 से 2002 तक इसका सफलतापूर्वक संचालन हुआ। यूरोपीय संघ-भारत आर्थिक-सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रम (ई यू इंडिया इकानॉमिक क्रॉस-कल्चरल प्रोग्राम) के अंतर्गत चले इस प्रकल्प को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली तथा देश-विदेश के अनेक फिल्मकारों, समाजशास्त्रियों, संस्कृतिकर्मियों आदि के साथ देशबन्धु के संपर्क बने। 2002 के बाद भी हमने अपने स्रोतों से इसे जारी रखने की कोशिश की, लेकिन उसमें अधिक दूर तक सफलता नहीं मिली।
गुड़ी पड़वा 7 अप्रैल 2008 को देशबन्धु का दिल्ली संस्करण प्रारंभ हुआ। इस तरह छत्तीसगढ़ की धरती के अपने एकमात्र अखबार को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने का काम हुआ। इस बीच सूचना तकनीकी का ते•ाी के साथ विकास हो रहा था। समय के साथ चलना अपरिहार्य था। इस दृष्टि से पहले देशबन्धु का ऑनलाइन संस्करण अर्थात ई-पेपर शुरू हुआ और अभी दो साल पहले यू-ट्यूब आदि प्लेटफॉर्मों पर ”डीबी लाइवÓÓ नामक ऑनलाइन वीडियो संस्करण चालू हुआ, जिसके अभी लगभग तेरह लाख सबस्क्राइबर हैं। बाबूजी की स्मृति में स्थापित मायाराम सुरजन फाउंडेशन लोक शिक्षण और लोकअभियान की दिशा में सक्रियतापूर्वक काम कर रहा है। इन सब के बारे में विस्तार से लिखने की आवश्यकता है, लेकिन बेहतर होगा कि परिवार के अन्य सदस्य तथा सहयोगी जो इन सब ची•ाों को देख रहे हैं, वे समय आने पर अपने अनुभव लिखें। मैं स्वयं इसके बाद राजनीति व प्रशासन के साथ समय-समय पर हमारे कैसे संबंध रहे हैं, उनको साझा करना चाहता हूं। शायद एक संक्षिप्त विराम के बाद मैं इस लेखमाला का भाग दो लिखूं। तब तक के लिए नमस्कार। (समाप्त)
ललित सुरजन
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