डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव एक विरल कोटि के व्यक्ति थे। जब उनके आत्मकथात्मक लेखों का संकलन ‘सुनी सबकी करी मन की’ प्रकाशित होने जा रहा था तब लेखक परिचय लिखते हुए मैंने उन्हें राजर्षि निरूपित किया था। सिंहदेवजी के विलक्षण व्यक्तित्व को एक शब्द में समेटने के लिए इससे बेहतर और कोई संज्ञा नहीं हो सकती थी। याद आता है कि न्यायमूर्ति गुलाब गुप्ता ने कभी चर्चा चलने पर मुझसे कहा था कि रामचन्द्र तो साधु हैं जब यह बात मैंने सिंहदेव जी को बताई तो उन्होंने निहायत सादगी से जवाब दिया था- गुलाब गलत कहता है। मैं साधु होता तो राजनीति में नहीं आता, हिमालय की किसी गुफा में तपस्या कर रहा होता। मैं समझता हूं कि न तो गुलाब गुप्ता की टिप्पणी गलत थी और न सिंहदेव जी का उत्तर। जिन्होंने दूर या पास से सिंहदेव जी को देखा वे उनके बारे में कोई अन्य राय कायम नहीं कर सकते थे। दूसरी ओर सिंहदेव जी स्वयं के बारे में जानते थे कि वे राजनीति किन शर्तों पर कर रहे थे।
रामचन्द्र सिंहदेव कोरिया रियासत के अंतिम शासक रामानुज शरण सिंहदेव के सबसे छोटे बेटे थे। वे राजकुमार तो थे लेकिन प्रिंस ऑफ वेल्स या युवराज नहीं थे। देश आ•ााद हुआ तब वे सत्रह साल के भी नहीं थे। लेकिन इतने बड़े तो थे कि अंग्रेजी राज खत्म होने के बाद नवस्वाधीन देश में बदलाव की जो बयार चल रही थी उसे समझ पाते। रायपुर के राजकुमार कॉलेज से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहां उन्हें चन्द्रशेखर, वी.पी. सिंह और अर्जुन सिंह जैसे सहपाठी मिले। सबके सब नेहरू और समाजवाद से प्रभावित थे। यहां सुभाष काश्यप आदि भी उनके सहपाठी थे जिनकी विचारधारा दूसरी दिशा में थी। श्री सिंहदेव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहते हुए छात्र राजनीति में सक्रिय भाग लिया। दक्षिणपंथी छात्र संगठनों से टक्कर भी ली। पढ़ाई खत्म होने के बाद वे कलकत्ता चले गए जहां वे सीपीआई के संपर्क में आए, कुछ वर्षों तक पार्टी के बाकायदा सदस्य भी रहे; लेकिन जल्दी ही उन्होंने सक्रिय राजनीति छोडक़र स्वतंत्र व्यापार करना शुरू किया और उसी में रम गए। वे शायद कलकत्ता में ही रहे आते यदि 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें घर लौटने और चुनाव लडऩे के लिए प्रेरित न किया होता। उस दौर की राजनीति आज से शायद कुछ बेहतर थी, फिर भी मैं कहूंगा रामचन्द्र सिंहदेव तब भी अपनी तरह के अलग राजनेता थे जैसे कि वे अंत तक बने रहे। उन्होंने राजमहल में जन्म लिया, लेकिन राजसी ठाट-बाट कभी नहीं अपनाया। वे चुनावी राजनीति के दांवपेंच बखूबी समझते थे, लेकिन स्वयं चुनाव लडऩे के लिए अनीति का आश्रय नहीं लिया। जिस दिन लगा कि अपनी शर्तों पर राजनीति करना कठिन हो गया है उस दिन चुनावी राजनीति से सन्यास ले लिया। उन्होंने राजसत्ता को करीब से देखा, महत्वपूर्ण ओहदे संभाले लेकिन सत्ता के अहंकार को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया।
मेरे आग्रह पर उन्होंने अपने राजनीतिक संस्मरण लिखना प्रारंभ किया था। उन्होंने सात मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया और हरेक के कार्यकाल के बारे में रोचक संस्मरण लिखे। मैंने उनसे कहा कि आपने हरेक के बारे में अच्छी-अच्छी बातें ही लिखीं हैं, लेकिन यह तो अधूरा सच हुआ, आप अपने पूरे अनुभव क्यों नहीं लिखते। इस पर भी उनका सहज उत्तर था- मैंने जिनके साथ काम किया है उनकी बुराई नहीं लिखूंगा। जो व्यक्ति छह बार विधायक चुना गया हो, मंत्रिमंडल में जिसने महत्वपूर्ण विभाग संभाले हों, उसके पास तो शासन की और अपने नेता की राई रत्ती खबर रहती होगी। लेकिन उन्होंने व्यक्तिगत रागद्वेष से ऊपर उठकर व्यापक लोकहित के बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित रखना बेहतर समझा। जिस मुख्यमंत्री ने उन्हें चुनाव में हराने के लिए पूरी कोशिश की उसकी भी सार्वजनिक आलोचना उन्होंने नहीं की। उनका यही उदात्त स्वभाव था जो उन्हें समकालीन राजनेताओं से अलग कर देता था।
मुझे 1980-81 के आसपास श्री सिंहदेव को कुछ निकट से जानने का अवसर मिला। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण का गठन किया था। सिंहदेव जी राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष होने के नाते प्राधिकरण के पदेन सदस्य थे। मैं एक अशासकीय सदस्य के तौर पर मनोनीत था। प्राधिकरण की पहली ही बैठक में हम दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से विस्तारपूर्वक कुछ प्रस्ताव पेश किए थे। इस बैठक के कुछ दिनों बाद ही सिंहदेव जी रायपुर मेरे घर बिना किसी पूर्व सूचना के आए। उनके साथ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विकास के बारे में चर्चाओं का जो सिलसिला उस दिन प्रारंभ हुआ वह उनके अंतिम समय तक चलता रहा। दो माह पूर्व ही सिंहदेव जी ने छत्तीसगढ़ के विकास के लिए बुद्धिजीवियों व विशेषज्ञों का एक स्वतंत्र फोरम बनाने की बात सोची थी, जिसमें उन्होंने मुझे तो शामिल किया ही था, कुछ और नाम भी प्रस्तावित करने कहा था जिन्हें इस पहल से जोड़ा जा सके। यह प्रयत्न पहली बैठक से आगे नहीं बढ़ पाया।
सिंहदेव जी के साथ मेरी आखिरी भेंट इसी 8 जून को तिल्दा में हुई थी जहां बस्तर और मध्यभारत में शांति स्थापना के लिए एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन विकल्प संगम नामक संस्था ने किया था। इसमें अरविंद नेताम, रामचन्द्र सिंहदेव, चितरंजन बख्शी, शरतचन्द्र बेहार आदि के साथ मैं भी आमंत्रित था। सिंहदेव जी ने इस सभा में अपने जाने-पहचाने तर्क रखे थे कि तथाकथित विकास के नाम पर जो हड़बड़ी हो रही है वह उचित नहीं है। ऐसा करके हम अपनी आने वाली पीढिय़ों का भविष्य नष्ट कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि धरती के नीचे दबे खनिज भंडार कहीं भागे नहीं जा रहे हैं उनका दोहन युक्तिसंगत ही होना चाहिए। उन्होंने इस बात को भी दोहराया था कि नैसर्गिक संसाधनों पर पहला हक उस क्षेत्र के आदिवासियों का बनता है और जो भी योजनाएं बनें उन्हें ध्यान में रखकर बनें तभी स्थायी शांति का रास्ता खुल सकेगा।
सिंहदेव जी की यह सोच बहुत पहले से रही है। वे जनतंत्र के सच्चे हिमायती थे। उन्होंने सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार से क्या खतरे पैदा हो सकते हैं इसका विश्लेषण 1960 के आसपास कर लिया था। 1984 में मध्यप्रदेश राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने ‘‘सिविलाइजेशन इन हरी’’ याने सभ्यता हड़बड़ी में जैसी पुस्तिका लिखी थी व तर्कों एवं आंकड़ों से सिद्ध किया था कि बड़े बांध बनाने का समय गुजर गया है, उनसे नुकसान हो रहा है। जब दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में सरदार सरोवर के मुद्दे पर मेधा पाटकर भोपाल में अनशन पर बैठीं तब मंत्री रहते हुए भी सिंहदेव जी उनसे मिलकर उन्हें अपना समर्थन देने गए थे। 2001 में रायपुर में गौतम बंदोपाध्याय ने पानी पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। उसमें मेधा जी आई थीं। सिंहदेव जी का मुझे आदेश था कि हम एयरपोर्ट से मेधा जी को पहले उनके घर पर लेकर आएं जबकि वे उस समय प्रदेश के वित्तमंत्री थे।
सिंहदेव जी के साथ मेरी बहुत सी स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। इस कॉलम की सीमा में उनका पूरा वर्णन करना संभव नहीं है। फिलहाल एक रोचक संस्मरण मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। 2007 में जब देश स्वाधीनता के हीरक जयंती मना रहा था तब सिंहदेव जी और मैंने तय किया कि हम प्रदेश के अप्रतिम स्वाधीनता सेनानियों के गांव जाएंगे और ग्रामजनों से खुली बात करेंगे कि वे आज लोकतंत्र को किस तरह से देखते हैं। इस सिलसिले में हम पं. सुंदरलाल शर्मा के गांव चमसूर, बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के गांव कंडेल, ठाकुर प्यारे लाल सिंह के गांव सेमरा देहान व डॉ. खूबचंद बघेल के गांव पथरी गए और वहां ग्रामवासियों के साथ कई घंटे तक बातचीत की। सिंहदेव जी ने उन्हें अपनी ओर से प्रेरित करने का भरसक प्रयास किया कि महापुरुषों से प्रेरणा लेकर वे अपने गांव की किस्मत स्वयं संवार सकते हैं। अस्तु!
भारतीय राजनीति में ऐसे लोग धीरे-धीरे कर कम होते जा रहे हैं जिन्होंने राज के बजाय नीति को न सिर्फ अधिक महत्व दिया हो बल्कि उसे आत्मसात भी कर लिया हो। डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव लुप्त होती उस परंपरा के प्रतिनिधि थे। उनकी पुस्तिका ‘सिविलाइजेशन इन हरी’ की चर्चा देश-विदेश में बहुत हुई है। मेरे पिछले लेख में उसका जिक्र था। उन्होंने कुछ और लेख लिखे थे जो ‘थॉट फॉर फुड’ शीर्षक पुस्तिका में संकलित है। इन दोनों प्रकाशनों में उन्होंने पर्यावरण, जलसंरक्षण, खाद्यान्न संकट, कृषि नीति, वनोपज आदि ऐसे बुनियादी मुद्दों पर विचार किया है जो हर व्यक्ति के जीवनयापन से जुड़े हुए हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में जो कुछ पढ़ने-लिखने वाले विधायक और जनप्रतिनिधि हुए हैं उनमें रामचन्द्र सिंहदेव का नाम अग्रणी होगा। वे विधानसभा में तर्कसंगत बातें करते थे। सदन के बाहर भी उन्होंने कभी निराधार बातें नहीं की। कलकत्ता में राजभवन के पास ही पुस्तकों की एक बड़ी पुरानी दुकान थी। वे अक्सर वहां से किताबें खरीदा करते थे। विश्व की जानी-मानी पत्रिका ‘द इकॉनामिसट’ और भारत की अग्रणी वैचारिक पत्रिका ई.पी. डब्ल्यू (इकॉनामिक एंड पोलिटिकल वीकली) के लेखों को वे रुचिपूर्वक पढ़ते थे और समानधर्मा मित्रों के साथ उन पर चर्चा भी करते थे। मुझे यहां अविभाजित मध्यप्रदेश की विधानसभा के अंतिम सत्र में दिया उनका भाषण ध्यान आता है। इसमें उन्होंने मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को यह कहते हुए बधाई दी थी कि अब आपका प्रदेश नक्सलवाद से मुक्त हो जाएगा और हमारे नवगठित प्रदेश को इस समस्या का समाधान खोजना पड़ेगा। तीन सौ बीस सदस्यों वाली विधानसभा में यह बिन्दु और किसी विधायक के ध्यान में नहीं आया। जिस तरह उन्होंने सोवियत संघ के पराभव को कोई पच्चीस साल पहले देख लिया था, वैसे ही यह भी उनकी दूरदृष्टि का प्रमाण था। कहना होगा कि गंभीर अध्ययन मनन से ही उन्होंने यह राजनीतिक दृष्टि हासिल की थी।
वरिष्ठ लेखक कांतिकुमार की पुस्तक ‘बैकुण्ठपुर में बचपन’ प्रकाशित हुई तो मैंने उसकी प्रति सिंहदेव जी को पढ़ने के लिए दी। चार-पांच दिन बाद वे मेरे दफ्तर आए। बोले-कांतिकुमार से बात करवाओ। मैंने फोन मिला दिया। सिंहदेवजी ने कांतिकुमार जी का ध्यान दो-तीन छोटी-मोटी तथ्यात्मक भूलों की ओर दिलाया। पुस्तक पर बधाई देते हुए उनसे आग्रह किया कि वे उनके पिता और कोरिया रियासत के राजा रामानुजशरण सिंहदेव के बारे में भी लिखें। यहां से दोनों के बीच नियमित संवाद का सिलसिला प्रारंभ हुआ। एक तरफ उन्होंने कोरिया के अपने परिचितों को बैकुण्ठपुर में बचपन पढ़ने के लिए प्रेरित किया तो दूसरी ओर कांतिकुमार ने भी कुमार साहब के आग्रह का आदर करते हुए कोरिया रियासत के अंतिम राजा पर पुस्तक लिखना शुरू किया।
सिंहदेव जी ने कांतिकुमार से फोन पर ही बहुत से संस्मरण साझा किए। पुराने फोटोग्राफ, पत्र और दस्तावेज उपलब्ध कराए और इस तरह कांतिकुमार की एक और पुस्तक ‘एक था राजा’ प्रकाश में आई। कांतिकुमार की इन दोनों पुस्तकों को साथ-साथ रखकर देखें तो तत्कालीन कोरिया रियासत की एक मुकम्मल तस्वीर हमारे सामने उभरती है। सिंहदेव जी, जिन्हें कुमार साहब के नाम से ही जाना जाता था, का मकसद अपने पिता का विरुद गायन नहीं बल्कि एक सामंत की जनहितैषी और प्रगतिशील रीति-नीति को सामने लाना था ताकि वर्तमान में उससे कुछ प्रेरणा ली जा सके। उन्होंने मुझे भी रियासतकाल की दो पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन के लिए आदेश दिया था जिसके लिए वित्तीय व्यवस्था भी उन्होंने करवा दी थी। एक थी ‘कोरिया दरबार मैनुअल’ और दूसरी थी ‘जस्टिस इज़ द बेसिस ऑफ गवर्नमेंट’। इनको पढ़ने से पता चलता है कि कोरिया रियासत की शासन नीति क्या थी।
सिंहदेव जी को कोरिया के बाद अगर कोई दूसरी जगह पसंद थी तो वह कोलकाता थी जहां उन्होंने अपनी युवावस्था बिताई और जहां पहुंचकर उन्हें एक बौद्धिक संतुष्टि मिलती थी। वे रायपुर के बारे में मुझसे कहते थे कि बताओ यहां किससे बात करूं। सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है। इस टिप्पणी के बावजूद वे अपने मन को निराश नहीं होने देते थे। बस्तर से उन्हें बहुत लगाव था। साल में एक बार तो वे जाते ही थे। उनके जाने का मतलब होता था वन विभाग के अधिकारियों की परेड। वे उनके साथ बस्तर के विकास पर चर्चा करते, दूरदराज के इलाकों का दौरा करते और फिर सुझाव देते कि आदिवासियों के सुरक्षित सम्मानपूर्वक जीवनयापन के लिए क्या किया जाए। वे चाहते थे कि बस्तर सहित प्रदेश के अन्य इलाकों में लाख का उत्पादन बड़े पैमाने पर हो जिससे विशेषकर आदिवासियों को रोजगार मिले। बस्तर में चाय, कॉफी और काजू की फसल लेने और उसका स्थानीय स्तर पर प्रसंस्करण करने का सुझाव भी वे देते थे। उन्होंने 1984 में बस्तर विकास योजना तैयार की थी। इसमें वे तमाम विचार संकलित हैं जो आज भी उपयोगी और प्रासंगिक हैं। उन्होंने इसी तरह जशपुर जिले में जैतून की बागवानी करने की सलाह सरकार को दी थी। इन सबसे जब वे थक जाते थे तो जो एक स्थान उन्हें प्रिय था वह था – महासमुंद। इस छोटे से नगर में पहुंच कर वे शांति का अनुभव करते थे। मुझे अगर ठीक याद है तो वे नया साल अक्सर महासमुंद में ही मनाते थे। पूर्व विधायक अग्नि चन्द्राकर इस बारे में विस्तार से बता सकते हैं। लेकिन जब तक समाजवादी नेता पुरुषोत्तम लाल कौशिक थे तब तक वे उनके साथ बैठकर घंटों जनोन्मुखी राजनीति पर चर्चाएं करते थे।
डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव भारतीय सांस्कृतिक निधि याने इन्टैक के प्रारंभ से सदस्य थे और छत्तीसगढ़ में उसकी गतिविधियों में खासी दिलचस्पी लिया करते थे। यह श्रेय उन्हीं को जाता है कि सरगुजा, कोरिया और कवर्धा में इन्टैक के जिला अध्याय स्थापित हो सके। जब उन्हें मालूम हुआ कि केन्द्र सरकार ने इन्टैक को सौ करोड़ रुपए की एकमुश्त अनुदान निधि दी है तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार से भी हमें पांच करोड़ रुपए का एकमुश्त अनुदान मिल जाए तो प्रदेश की विरासत संपदा के संरक्षण की दिशा में काफी काम किया जा सकेगा। इसके लिए उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री को पत्र लिखा। यद्यपि उस पर कोई फैसला नहीं हो पाया। सिंहदेव जी की पर्यावरण में जो रुचि थी उसे देखकर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने एक बाद उन्हें छत्तीसगढ़ के पेड़-पौधों पर संदर्भ ग्रंथ लिखने का आग्रह किया था। सिंहदेव जी किन्हीं कारणों से उनका अनुरोध स्वीकार नहीं कर पाए। लेकिन हां, वे अपने मित्रों, परिचितों के खेतों, बगीचों में जाना पसंद करते थे और उन्हें सलाह देते थे कि खेती को किस तरीके से लाभकारी बनाया जा सकता है।
डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव के मन में अपने गृहनगर बैकुण्ठपुर और कोरिया जिले का विकास सर्वोपरि था। इसके लिए वे बराबर सतर्क रहे थे कि जिले के कलेक्टर पद और अन्य प्रशासनिक पदों पर साफ-सुथरी छवि के अफसर नियुक्त हों। के.के. चक्रवर्ती ने बैकुण्ठपुर से ही अपने कैरियर की शुरूआत की थी और वे आज भी सिंहदेवजी का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। मैं याद करता हूं कि दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में नीलम शम्मी राव पदस्थ थीं। एक बैठक में वे मिलीं तो उन्होंने मुझसे सबसे पहले यही पूछा कि सिंहदेव साहब कैसे हैं? उन्होंने भावुक होकर बैकुण्ठपुर को याद किया और कहा कि सिंहदेवजी मेरे लिए पिता समान थे। इधर दस-पन्द्रह साल में जो अन्य कलेक्टर आदि वहां रहे उनकी भी भावना शायद यही होगी।
उनका पुण्य स्मरण करते हुए आखिरी बात। वे चुनावी भ्रष्टाचार से बहुत व्यथित थे। एक दिन उन्होंने कहा लोग बहुत चतुर हो गए हैं। चुनाव की रात को अपनी झोपड़ी मे ंढिबरी जलाकर फटकी खुली रखते हैं कि अभी भी समय है, जिसको जो देना हो आकर दे जाए। बाकी वोट तो वे अपनी मर्जी से ही देते हैं।
खैरागढ़। 1984। ऋतुसंहार। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ऐसा आयोजन जिसे ‘न भूतो न भविष्यति’ की कोटि में रखा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। हिंदी कविता पर केंद्रित यह अखिल भारतीय कार्यक्रम था। वह भी पूरे चार दिन का। रमाकांत ने प्रस्ताव दिया कि इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय के सहयोग से इसे खैरागढ़ में आयोजित किया जाए। यूं तो वि.वि. की स्थापना 1954 में हो चुकी थी, लेकिन वह कोई बड़ा संस्थान नहीं था। ललित कलाओं की शिक्षा प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय की अपनी सीमाएं थीं। तिस पर छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले का मंझोले आकार का नगर। रियासत कालीन नगर जिसमें वि.वि. की स्थापना इसलिए संभव हो सकी थी कि पूर्ववर्ती राजपरिवार ने दिवंगत राजकुमारी इंदिरा की स्मृति में तत्कालीन सीपी एंड बरार सरकार को राजमहल दान में देने की पेशकश की थी। ऐसे स्थान पर जहां रेलगाड़ी भी न जाती हो, अखिल भारतीय स्तर का आयोजन करने का प्रस्ताव देना दुस्साहसिक ही माना जाएगा। किंतु सम्मेलन के अध्यक्ष बाबूजी (स्व. मायाराम सुरजन) ने डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, हिंदी विभागाध्यक्ष, इंदिरा कला संगीत वि.वि. की संगठन क्षमता पर विश्वास कर यह बड़ी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी और कहना होगा कि रमाकांत कसौटी पर सौ टंच खरे उतरे। एक नितांत अनौपचारिक, कह लें कि पारिवारिक चार दिनी कार्यक्रम तरतीबवार, सुचारू, सुव्यवस्थित ढंग से संपन्न हुआ। रमाकांत को सबकी सराहना मिली।
मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि रमाकांत से पहली मुलाकात कब हुई थी। वे मुझसे दो साल पूर्व एम.ए. कर चिरमिरी के महाविद्यालय में प्राध्यापक पद पर सेवाएं देने जा चुके थे। अगर सही स्मरण है तो 1965-70 तक चिरमिरी के पते से ही उनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं। शायद तब देशबन्धु में भी उनकी कृतियां छपीं हों? यह एक लेखक के साथ दूर का परिचय था। इस बीच कभी रायपुर में हुए साहित्यिक आयोजनों में हम कभी मिले हों या पारस्परिक मित्रों के साथ भेंट हुई हो तो उसकी कोई स्मृति मुझे नहीं है। हम शायद कायदे से पहली बार 1 जनवरी 1973 में भोपाल में संपन्न उत्सव-73 में मिले। बकौल रमाकांत यह भेंट हमारे परस्पर मित्र सुबोध श्रीवास्तव ने करवाई थी। बहरहाल, हमारे परिचय और चार दशकों की पारिवारिक मैत्री की शुरुआत 1974-75 में प्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ हुई। 1974 में रायपुर में आयोजित कबीर प्रसंग में परसाईजी आए थे। वे कुछ सप्ताह हमारे घर ठहरे थे। उनकी प्रेरणा व निर्देश से हम मित्रों ने प्रलेस की रायपुर इकाई का गठन किया और छत्तीसगढ़ में उसके विस्तार में जुट गए। देखते ही देखते अनेक स्थानों पर इकाईयां गठित हो गईं। इस उपक्रम में बिलासपुर में डॉ. राजेश्वर सक्सेना, राजनांदगांव में मलयजी और खैरागढ़ में रमाकांत ने काम आगे बढ़ाने का दायित्व अपने ऊपर लिया।
इस बीच मई 1976 में बाबूजी ने सम्मेलन के विदिशा अधिवेशन में अध्यक्ष पद संभाल लिया था। उसकी गतिविधियों का भी तेजी से विस्तार हुआ। रमाकांत उस तरफ भी सक्रिय दिलचस्पी लेने लगे। इन गतिविधियों के चलते हम लोगों का संपर्क बढऩे लगा। रमाकांत रायपुर आते तो घर पर ही ठहरते। वे भाभी को भी यदा-कदा साथ लाते, सो दोनों परिवारों के बीच आत्मीयता हो गई। प्रलेस की रायपुर इकाई ने युवा रचना शिविरों की एक श्रंृखला आयोजित करने का निर्णय लिया। पहला शिविर 4-5-6 मार्च 1978 को रायपुर के निकट चंपारन में संपन्न हुआ। इसकी आयोजन समिति में तथा आगे के भी अनेक कार्यक्रमों में रायपुर से बाहर के साथियों को जोडऩे के निश्चय स्वरूप रमाकांत, मलयजी, राजेश्वरजी शामिल हुए। सबके अपने-अपने गुण। रमाकांत बहुत अच्छे वक्ता तो हैं ही, कार्यक्रम का संचालन करना भी उन्हें बखूबी आता है। वे न विषय को भटकने देते हैं और न वक्ता को। मेरा मानना है कि यह गुण उन्होंने और मैंने जाने-अनजाने परसाईजी से सीखा है। हम इस बात पर एक-दूसरे की तारीफ भी करते हैं। अपनी पीठ आप ठोंक लेते हैं कि गोष्ठी के संचालन में हमसे अच्छा कोई नहीं।
रमाकांत की जीवन शैली भी वैसी ही सतर्क और सुगठित है। हिंदी के अध्यापकों में बारहां एक दैन्य भाव देखा जाता है, जो उनमेें बिल्कुल नहीं है। अपनी वेशभूषा, चाल-ढाल, बातचीत के तौर-तरीकों में वे हमेशा सावधान रहते हैं। और कमबख्त का चेहरा तो बिल्कुल फोटोजनिक है। भाभी उनके गायन पर मुग्ध होकर प्रेम में पड़ीं, उनके फोटो पर या उन्हें साक्षात सामने देखकर, यह मुझे नहीं पता; लेकिन रमाकांत के व्यक्तित्व में एक सहज आकर्षण है, सामने वाले को प्रभावित करने की चुंबकीय क्षमता। और शायद यह एक बड़ा कारण है कि उन्हें न तो खैरागढ़ नगर आज तक भूल पाया है, न उनका पूर्व विश्वविद्यालय, और बाहर भी वे जल्दी ही अपना प्रभामंडल बना लेते हैं। बस, प्रभाकर चौबे और ललित सुरजन ही दो प्राणी हैं जिन पर उनका रुआब तारी नहीं हो पाता। शायद डॉ. हरिशंकर शुक्ल भी जो उनके शोध दिग्दर्शक याने रिसर्च गाइड थे।
रमाकांत चिरमिरी से खैरागढ़ आए, यह अच्छा हुआ। नहीं, वहां उन्हें ससुराल पक्ष से किसी तरह का खतरा नहीं था। बल्कि इसलिए कि साहित्य के अलावा ललित कलाओं में उनकी सच्ची व गहरी दिलचस्पी है। वे संगीत, नृत्य, चित्रकला की बारीकियों को बखूबी समझते हैं। खैरागढ़ पधारने वाली अनेक विभूतियों के साथ उनके संबंध इस गुण के चलते विकसित हुए। रमाकांत ने सुमधुर कंठ स्वर पाया है। किसी आयोजन में हम कुछ साथी एक ही कमरे में ठहरेथे। रमाकांत ने फै•ा की ग•ाल ‘गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौ बहार चले’ गुनगुनाना प्रारंभ किया तो मैं सोते-सोते उठकर बैठ गया। फिर उन्होंने पूरी तल्लीनता के साथ गाया और हमने तन्मय होकर सुना। अब हाल यह कि रमाकांत जब भी मिलते हैं, मैं उनसे फरमाइश कर यही रचना सुनता हूं। उन्हें बांग्ला भाषा का भी अच्छा ज्ञान है तथा वे कविगुरु के अलावा अन्य कवियों की रचनाएं भी मन आने पर सुना देते हैं। उनकी ललित कलाओं में जो रुचि व समझ है, वह मुझे प्रभावित करती है। इसने उनके लेखन को भी समृद्ध किया है। ‘उस्ताद के सुर’ जैसी मार्मिक कहानी इस गहरी समझ से ही उपजी है।
यदि ‘ऋतुसंहार’ आयोजन रमाकांत के सांगठनिक कौशल व क्षमता का उत्स है तो छत्तीसगढ़ के कथागीतों पर किए गए शोधकार्य को मैं उनकी अकादमिक प्रतिभा का शिखर मानता हूं। प्रदेश के विभिन्न अंचलों व विविध सामाजिक समूहों में प्रचलित लोकगाथाओं पर उन्होंने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक शोध किया है। इस प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने, उससे आमजन को परिचित कराने व भविष्य के लिए संदर्भ उपलब्ध कराने इत्यादि दृष्टियों से यह एक उल्लेखनीय व ऐतिहासिक महत्व का कार्य है। मील का पत्थर कहूं तो गलत नहीं होगा। मुझे इस शोध कार्य के पुस्तक रूप में शीघ्र आने की प्रतीक्षा है, गो कि इसके अनेक अध्याय ‘अक्षर पर्व’ में प्रकाशित हो चुके हैं। एक सर्जनात्मक लेखक के नाते भी रमाकांत का फलक काफी विस्तृत है। मैं सिर्फ उन बिंदुओं का उल्लेख करना चाहूंगा जिन पर अभी विद्वत समाज का ध्यान ठीक से नहीं गया है। रमाकांत श्रीवास्तव को हिंदी के अधिकतर पाठक एक कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। कथा लेखन उनके कृतित्व का बड़ा एवं महत्वपूर्ण अंग है, किंतु संपूर्ण नहीं।
यह शायद बहुतों के ध्यान में न हो कि रमाकांत बाल साहित्य के एक श्रेष्ठ रचयिता हैं। उन्होंने किशोरवय के लिए ‘बच्चू चाचा के कारनामे’ शीर्षक से एक मनोरंजक उपन्यास लिखा है। इस विधा में उनकी अन्य रचनाएं भी हैं। वे फिल्मों के शौकीन हैं तथा एक समालोचक की दृष्टि से फिल्मों का विश्लेषण करते हैं। अमिताभ बच्चन को अपूर्व प्रतिष्ठा मिलने का उन्होंने समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है। इसके अलावा समय-समय पर फिल्मों पर सटीक लेख लिखे हैं। वे वैश्विक राजनीति के भी अध्येता हैं तथा उनकी कुछ कहानियां इस पृष्ठभूमि पर भी हैं। अमेरिका द्वारा ईराक पर किए गए एकतरफा व अन्यायपूर्ण हमले को अपनी कहानी का विषय उन्होंने बनाया है। शायद वर्तमान समय में वे अकेले कथाकार हैं जो सतह पर दीखते बाजारवाद के बजाय उसके प्रणेता नवपूंजीवाद व नवसाम्राज्यवाद के मूल में जाकर उसकी पड़ताल कर रहे हैं।
रमाकांत जब तक खैरागढ़ में थे, हर माह एक-दो बार मिलना हो जाता था। कभी वे आए, कभी हम चले गए। उन्होंने दाऊचौरा मोहल्ले में बड़े प्यार से अपना घर बनाया था। मुख्य मार्ग पर गली के एक तरफ जीवन यदु, दूसरी तरफ गोरेलाल चंदेल का घर, गली में प्रवेश करने के कुछ मीटर बाद रमाकांत व दीपा भाभी का घरौंदा। तीन साहित्यकार एक साथ। पारिवारिक कारणों से रमाकांत खैरागढ़ छोड़ पहले भोपाल गए, वहां से रायपुर लौटे, वापस खैरागढ़ जाने का निश्चय किया, लेकिन अंतत: भोपाल दुबारा गए और वहीं के होकर रह गए। अब मैं भोपाल जाता हूं तो भेंट होती ही है। अन्यथा फोन पर जब मन होता है, बातें कर लेते हैं, लेकिन मन कहां भरता है?
मैंने रमाकांत की साहित्यिक उपलब्धियों पर यहां चर्चा करने से बचना चाहा है। यह सुधी समीक्षकों का काम है। मैं तो एक प्यारे दोस्त को, जिससे कई बार तीखी बहसें भी होती हैं, पचहत्तर साल के हो जाने के अवसर का उपयोग कुछ मीठी यादों को ताजा करने के साथ बधाई व शुभकामनाएं देने के लिए कर रहा हूं।
भाई शरद कोठारी का स्मरण करते हुए सबसे पहले ध्यान आता है कि यह उनकी ही दौड़-धूप का परिणाम था जो मुक्तिबोधजी नागपुर छोडक़र राजनांदगांव आए। उनके जीवन के अंतिम छह वर्ष इसी नगरी में बीते और कहना गलत न होगा कि उनके घनघोर संघर्षमय जीवन का यह सबसे सुकून भरा समय था। शरद कोठारी एक तरुण छात्र के रूप में नागपुर में मुक्तिबोधजी के संपर्क में आए थे और अपने अन्य कई मित्रों की तरह उनसे बेहद प्रभावित हुए थे। उन्हीं दिनों में शरद कोठारी की राजनीतिक चेतना का विकास हुआ था तथा वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी बन गए थे। मुक्तिबोधजी के संसर्ग में ही उन्होंने पत्रकारिता का पहला पाठ पढ़ा था। शरदजी के नागपुर के दिनों के मित्रों के बारे में मैं बहुत अधिक नहीं जानता किन्तु उनके तब के दो साथियों के साथ भी मेरा निकट संबंध रहा है- रम्मू श्रीवास्तव तथा लज्जाशंकर हरदेनिया। रम्मू भैया राजनांदगांव के ही निवासी थे तथा अनेक वर्षों तक देशबन्धु में मेरे सहयोगी रहे। हरदेनियाजी आज भी बढ़ती उम्र के बावजूद प्रगतिशील विचारों के प्रचार-प्रसार में तन-मन से सक्रिय हैं।
शरद कोठारी ने नागपुर में अपने व्यक्तित्व का जो विकास किया उसी ने उनके जीवन का पथ निर्धारित कर दिया। वे यूं तो एक व्यवसायी परिवार के कुलदीपक थे, किन्तु उससे हटकर उन्होंने एक समय न सिर्फ जनांदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई बल्कि एक बौद्धिक व्यक्तित्व के रूप में भी राजनांदगांव के सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भरपूर योगदान किया। शरद भाई ने ‘सबेरा’ नाम से एक साप्ताहिक पत्र प्रारंभ किया, जो उन दिनों बेहद लोकप्रिय हुआ। इस पत्र में उन्होंने अपनी कलम के तेवर भरपूर दिखाए। जहां तक मुझे याद आता है उन्होंने राजनांदगांव की पृष्ठभूमि पर दो शृंखलाएं धारावाहिक प्रकाशित कीं जिनका आगे चलकर पुस्तक रूप में प्रकाशन हुआ। राजनांदगांव के अंतिम राजा दिग्विजय सिंह के जीवन पर उन्होंने ‘‘और दिग्बी मर गया’’ शीर्षक से लिखा। इस पुस्तक में उन्होंने नगर के कई नामचीन महानुभावों के व्यक्तित्व के अज्ञात पहलुओं से पाठकों को परिचित कराया। इसी तरह ‘‘चंगू मंगू की दास्तान’’ में भी नगर के कुछ रसूखदार लोगों के कृत्यों को उजागर किया। कहना होगा कि यह सब लिखना एक जोखिम भरा काम था। इस कारण शरद भाई पर कोई विपत्ति आई हो तो उससे मैं अवगत नहीं हूं।
सबेरा काफी समय तक साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हुआ, फिर 1975 में उन्होंने पत्र को दैनिक के रूप में प्रकाशित करना प्रारंभ किया। कुछ तकनीकी अड़चन के कारण पत्र का नाम बदल कर ‘सबेरा संकेत’ करना पड़ा। पत्र का प्रकाशन बदस्तूर जारी है और अब इसे उनके पुत्र देखते हैं। यह उल्लेख विशेष तौर पर करना आवश्यक है कि सबेरा संकेत राजनांदगांव से प्रकाशित पहला दैनिक समाचार पत्र है। व्यवसाय की दृष्टि से यह एक जोखिम भरा प्रयोग था, लेकिन शरद कोठारी इसमें सफल हुए। 26 जनवरी 1975 को दैनिक पत्र के उद्घाटन कार्यक्रम में मैं भी उपस्थित था। यह दिलचस्प संयोग था कि जिन महानुभावों को शरदजी ने अपनी लेखनी का शिकार बनाया था, उनमें से दो व्यक्ति उस दिन मंच पर विशिष्ट अतिथि के रूप में शोभायमान थे। उस समय तक शरदजी संभवत: कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ चुके थे एवं कांग्रेस की ओर उनका झुकाव बढऩे लगा था। आगे चलकर वे कांग्रेस में बाकायदा शामिल हुए तथा पार्टी में कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी निभाईं।
मेरी शरद भाई से पहली मुलाकात 1964 की गर्मियों में हुई थी जब राजनांदगांव में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का नागरिक अभिनंदन किया गया था। रायपुर से हम कई लोग मिनी बस में गए थे। उस संक्षिप्त यात्रा के दौरान ही साथी रमेश याज्ञिक से भी पहले-पहल परिचय हुआ था। शरद भाई और रमेश भाई दोनों आमने-सामने रहते थे, एक ही विचारधारा के अनुयायी थे और मुक्तिबोध ही दोनों के प्रेरणास्रोत थे। सबेरा संकेत में रमेश भाई ने भी लंबे समय तक निरंतर लेखन किया। दरअसल राजनांदगांव को यदि छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी कहा जाता है तो यह हवा में उड़ाई गई बात नहीं है। मानस मर्मज्ञ बल्देवप्रसाद मिश्र, सरस्वती के संपादक व अप्रतिम कथा शिल्पी बख्शीजी, समर्थ कवि कुंजबिहारी चौबे इत्यादि ने इस रियासती शहर की सांस्कृतिक चेतना की आधारशिला रखी। बेगम अख्तर ने भी कभी यहां कुछ बरस बिताए थे। किशोरीलाल शुक्ल तेजतर्रार वकील व बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ समादृत राजनेता थे जिन्होंने राजनांदगांव जिले का निर्माण कराया। शरद कोठारी ने इस माहौल की पृष्ठभूमि में ही मुक्तिबोधजी से राजनांदगांव आकर बसने का आग्रह किया था। यहां प्रकाश राय, अटलबिहारी दुबे, कन्हैयालाल अग्रवाल जैसे वामपंथी बुद्धिजीवी भी थे जिनके बीच मुक्तिबोध का मन लग गया था।
1972 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अनेक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण वार्षिक अधिवेशन राजनांदगांव में हुआ। बल्देवप्रसाद मिश्र स्वागताध्यक्ष और शरद कोठारी स्वागतमंत्री थे, ऐसा मुझे याद पड़ता है। जनकवि नंदूलाल चोटिया, रमेश याज्ञिक, बलबीर खनूजा इत्यादि रचनाकारों के साथ नगर का बुद्धिजीवी समुदाय अधिवेशन को सफल बनाने के लिए हर संभव प्रयत्न कर रहा था। इसी अवसर पर सम्मेलन के लिए नया संविधान बनाने का प्रस्ताव आया। अध्यक्ष प्रभुदयाल अग्निहोत्री ने दो सदस्यों की एक समिति बना दी। पहला नाम शरद कोठारी का दूसरा ललित सुरजन का। उस समय हम दोनों के बीच निरंतर संवाद हुआ। हमारी समिति ने जो संविधान बनाया, बहुत कम फेरबदल के साथ उसे आगामी अधिवेशन में मान्य कर लिया गया और आज तक वह चला आ रहा है। जब सबेरा संकेत का दैनिक के रूप में प्रकाशन प्रारंभ हुआ, तब शरद भाई को जब आवश्यकता होती थी वे बाबूजी के पास मार्गदर्शन के लिए आते थे। उस दौरान भी हम लोगों के संपर्क कुछ और प्रगाढ़ हुए। मध्यप्रदेश शासन की पत्रकार अधिमान्यता समिति में भी हम लोग एक साथ सदस्य रहे और वहां भी यथासंभव सकारात्मक भूमिका निभाई।
हरिशंकर परसाई शरद कोठारी को नागपुर के दिनों से ही जानते थे। संभव है कि वसुधा के प्रचार-प्रसार में शरद भाई ने भी कुछ सहयोग किया हो! शरदजी चूंकि मुक्तिबोध के प्रिय थे इसलिए वे परसाईजी के भी प्रिय हो गए थे। यह संभवत: इसलिए भी था कि शरद कोठारी की वैचारिक दिशा और कलम के तेवर उन्हें प्रभावित करते रहे। मुक्तिबोधजी के निधन के बाद परसाईजी रायपुर आए। राजू दा याने राजनारायण मिश्र और मैं उन्हें लेकर राजनांदगांव गए। मेरे सहपाठी इंदरचंद धाड़ीवाल अपनी कार में खुद ड्राइव करते हुए हमें ले गए। तब हमारे पास वाहन न था। राजनांदगांव में परसाईजी हम लोगों के साथ शरद भाई के घर गए। हम सबका भोजन वहीं हुआ। शरद कोठारी के पिताजी अपने बेटे को लेकर चिंतित रहते थे। हम लोगों के सामने ही उन्होंने परसाईजी को कहा- इनसे कहिए कि कुछ काम-धाम भी करें।
इसके बाद तीन-चार मौके और आए जब मैं परसाईजी के साथ राजनांदगांव गया। वे मुख्यत: शरद कोठारी से मिलने ही वहां जाते थे। शरद भाई के पिताजी तो उन्हें मानते ही थे, भाभी भी उन्हें पितृ-स्थानीय आदर देती थीं। 1964 में तो पिताजी या परसाईजी की सलाह पर शरद भाई ने अमल नहीं किया किन्तु आगे चलकर जीवन की कठोर सच्चाईयों ने उन्हें व्यवहारिक रुख अपनाने के लिए प्रेरित कर ही दिया। मेरी दृष्टि में वे एक प्रखर बौद्धिक चेतनासम्पन्न व्यक्ति थे। वे अध्ययनशील और कलम के धनी थे। एक सम्पन्न व्यापारी परिवार में जन्म लेकर भी समाज को वापिस देने की लालसा उनके मन में हमेशा थी। राजनीति में उनकी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं हुआ। मैं सोचता हूं कि उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का संपूर्ण आकलन होना अभी बाकी है।
एक संपादक के लिए इससे बढक़र संतोष और प्रसन्नता का विषय क्या हो सकता है कि उसे सुधी पाठक मिल जाएं! डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त बरसैंया को मैं इन सुधी पाठकों की श्रेणी में रखता हूं। कुछ वर्ष पूर्व लॉर्ड मेघनाद देसाई की अंग्रेजी पुस्तक ‘गीता किसने लिखी’ पर मेरा एक कुछ परिचयात्मक, कुछ विश्लेषणात्मक आलेख अक्षर पर्व में प्रकाशित हुआ तो उसे पढऩे के तुरंत बाद बरसैंयाजी ने न सिर्फ मुझे फोन किया बल्कि पत्र लिखकर उन बिन्दुओं पर अपने विचार रखे जहां वे मेघनाद देसाई से सहमत नहीं थे अथवा कुछ और खुलासा चाहते थे। उसी तरह जब प्रोफेसर माधव हाडा की किताब ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ पर गनपत तेली का समीक्षात्मक लेख छपा तो उस पर भी उन्होंने तुरंत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने चित्तौड़ स्थित मीरा शोध संस्थान का उल्लेख किया। वहां से जो मीरायान पत्रिका निकलती है उसके बारे में बताया और यही नहीं, मीरायान के संपादक सत्यनारायण समदानी से परिचय कराया।
इन दोनों प्रसंगों से श्री बरसैंया के अनेक गुण मेरे सामने प्रकट होते हैं। एक तो यह पता चलता है कि वे हिन्दी साहित्य के गहन अध्येता हैं। दूसरे उनके पास एक समालोचक की दृष्टि है। वे अपने विचार बिना किसी पूर्वाग्रह के व्यक्त करते हैं और किसी विषय की तह में जाने के लिए संवाद को श्रेष्ठ मानते हैं। उनका तीसरा गुण एक उत्तम अध्यापक होने का है। जिस व्यक्ति ने खुद पढ़ा-लिखा हो और जो प्रभावी ढंग से अपनी बात सामने रख सके वही एक बेहतर अध्यापक हो सकता है। यह भी मानना होगा कि डॉक्टर साहब इधर-उधर की व्यर्थ बातों में समय नष्ट करने के बजाय अध्ययन मनन में विश्वास रखते हैं। वे विद्यार्थियों से, साथी अध्यापकों से, समकालीन लेखकों से, संपादकों से, जो प्रत्यक्ष संवाद तथा पत्राचार करते हैं उसे देखकर यह भी कहा जा सकता है कि वे अत्यंत परिश्रमी, जीवट के धनी व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व का एक और पहलू है जिसका उल्लेख करना आवश्यक है।
गंगाप्रसाद गुप्त बरसैंया एक सिद्धहस्त लेखक भी हैं। उनकी अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनमें से कुछ देशबन्धु के पुस्तकालय में हैं। एक पुस्तक बुंदेलखंड के रचनाकारों पर है। इसे लिखकर वे माटी के ऋण से उऋण हुए हैं। इस पुस्तक में उन्होंने बहुत यत्न के साथ प्रामाणिक जानकारी एकत्र की है तथा कुछेक भ्रांतियों का निवारण भी किया है। उसी पुस्तक में उन्होंने कुछेक रचनाकारों को विस्मृति के गर्भ से निकालकर उनका साहित्य जगत के साथ नए सिरे से परिचय करवाया है। कुल मिलाकर यह पुस्तक उनकी वस्तुनिष्ठ शोध दृष्टि का परिचय देती है। बरसैंया जी व्यंग्य लेखक भी हैं। कोई लेखक जबलपुर में रहे और व्यंग्य लेखक न बने, ऐसा हो ही नहीं सकता। आखिरकार हरिशंकर परसाई का नगर जो ठहरा। बहरहाल, व्यंग्य उनकी प्रमुख विधा नहीं है, फिर भी उन्होंने इसके अंतर्गत जितना कुछ लिखा है उससे मालूम होता है कि सामाजिक विसंगतियों की उन्हें सही पकड़ है। वे खीज निकालने के लिए व्यंग्य नहीं लिखते बल्कि समाज में व्याप्त विषमताओं और विद्रूप को बखूबी उजागर करते हैं। यह रेखांकित करना होगा कि पचास वर्ष पूर्व उन्होंने जो लिखा वह आज भी प्रासंगिक मालूम होता है।
अभी हाल में अक्षर पर्व में उनका बुंदेली भाषा में लिखा एक एकांकी प्रकाशित हुआ है। बुंदेली की जो मिठास है वह इस एकांकी में भरपूर है। इसमें उन्होंने एक रूपक खींचा है कि कैसे एक साधारण महिला समाज में येन-केन-प्रकारेण उच्चासन पर बैठ गए प्रभुओं को उनकी औकात बता देती है। एक बस यात्रा का प्रसंग है जहां पूरे पैसे में टिकट खरीद कर बैठी महिला सामने बैठती है और किसी प्रभावशाली व्यक्ति के लिए अपनी सीट छोडऩे से इंकार कर देती है। इस एकांकी ने मुझे अमेरिका में प्रेरणा बन चुकी अश्वेत महिला रोजा पार्क की याद ताजा कर दी जिसने सौ वर्ष पूर्व बस के भीतर श्वेत-अश्वेत की रेखा को मानने से इंकार कर दिया था। वहीं से अमेरिका की सार्वजनिक बस सेवा में रंगभेद समाप्त होने की शुरूआत हुई थी। मेरा अनुमान है कि बरसैंया जी ने यह एकांकी आकाशवाणी के लिए ध्वनि रूपक के रूप में लिखा होगा किन्तु इसका सार्वजनिक मंचन अगर हो सके तो बहुत अच्छा होगा।
बरसैंया जी की लिखने की गति खासी तेज है। वे निबंध, समीक्षा, शोध लेख आदि तो लिखते ही हैं, पत्रिकाओं के संपादकों को विस्तारपूर्वक पत्र लिखने में भी उन्हें आनन्द आता है। मुझे लगभग हर माह उनका हाथ से लिखा हुआ एक पत्र मिलता है जिसमें वे अक्षर पर्व में प्रकाशित सामग्री पर विस्तारपूर्वक राय देते हैं। मैंने हाल में वैश्विक राजनीति पर दो लेख लिखे तो उनकी प्रशंसा तो उन्होंने की, लेकिन साथ ही यह भी लिखा कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति वगैरह में उनकी गति ज्यादा नहीं है। इसे मैं उनके विनम्र स्वभाव का ही प्रतिबिंब मानता हूं। इस बीच उन्होंने अतीत राग में एक सुन्दर लेख लिखा जो देशबन्धु में प्रकाशित हुआ। इसका शीर्षक था- ‘मुझे लौटा दो मेरा वह गाँव’। बरसैंया जी की स्मरणशक्ति बहुत अच्छी है और वे बारीक से बारीक चीजों को देख लेते हैं। इस ललित निबंध में उन्होंने अपने गांव और अपने बचपन के वातावरण का डूबकर वर्णन किया है। हमारे संपादक मंडल को लेख छपने के बाद बधाई भी मिली कि उनकी रचना को खूब सज-धज के साथ छापा गया।
बरसैंया जी के साथ मेरे परिचय के कुछ संयोग और कुछ सूत्र हैं। उनके साथ पहला परिचय 1961 में हुआ जब वे पीएचडी करते हुए जबलपुर देशबन्धु (तब नई दुनिया) के संपादकीय विभाग में काम कर रहे थे। मैं प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था और तभी मैंने पत्रकारिता की व्यवहारिक पढ़ाई करना प्रारंभ की थी। संयोग ऐसा बना कि वे रायपुर के शासकीय विज्ञान म.वि. में प्राध्यापक बनकर आए और मैं भी एम.ए. की पढ़ाई के लिए जबलपुर से यहां आ गया था। तब हमारी यदा-कदा भेंटें साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहीं। 1970 में हम चौबे कॉलोनी में रहने आ गए, जहां बरसैंयाजी पहले से निवासरत थे, सो मुलाकातों का सिलसिला कुछ बढ़ गया। बाबूजी उन पर काफी स्नेह रखते थे। उसका एक कारण था। बरसैंया जी जबलपुर के सुप्रसिद्ध वैद्यराज पुरुषोत्तम दास जी हूंका के दामाद हैं जिनके साथ हमारा तीन पीढिय़ों का संबंध रहा है। अपने बचपन में मैं अपने दादाजी के साथ अक्सर हूंका जी के दवाखाने जाता था। दादाजी स्वयं आयुर्वेदिक चिकित्सा में विश्वास रखते थे। दवाखाने के सामने ही दाऊ जी का मंदिर था जहां वे नित्यप्रति दर्शनार्थ जाते थे। आते-जाते में वैद्यराज जी के साथ उनकी कुछ देर की बैठक हो जाती थी। उनकी टेबल पर दवा की बहुत सारी शीशियां रखी होती थीं। मुझे लवण भास्कर चूर्ण का खट्टा-मीठा स्वाद अच्छा लगता था तो वैद्यराज जी से स्नेह स्वरूप चूरण की एक पुडिय़ा का प्रसाद प्राप्त हो जाता था।
वैद्यराज जी के बेटे गोविंद हमउम्र थे। उनके साथ मेरी अच्छी बनती थी। बेटी लक्ष्मी भी हमउम्र थी। लक्ष्मी ही आगे चलकर हूंका से बरसैंया बनीं। बचपन की ये स्मृतियां 2011 के एक प्रसंग से पुन: जागीं। यही अप्रैल-मई के दिन होंगे। अचानक एक फोन आया- ललित जी बोल रहे हैं। जी हां। ललित मैं डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त बरसैंया। अरे बरसैंया जी, कहां से बोल रहे हैं, आज अचानक कैसे हमारी याद आ गई। छतरपुर में ही हैं न। हां हैं तो छतरपुर में, लेकिन अभी रायपुर से बोल रहा हूं। आज शाम को एक छोटा सा आयोजन है। सभी पुराने मित्रों को खबर की है, तुमको भी सपरिवार आना है। आप आए हैं, प्रीतिभोज पर बुला रहे हैं तो अवश्य आएंगे। लेकिन आयोजन क्या है और रायपुर आना कैसे हुआ है। जब मिलेंगे तब सब बताऊंगा, अभी इतना जान लो कि बेटा अभिलाष यहां भारतीय जीवन बीमा निगम में शाखा प्रबंधक है। इस हेतु उसके पास आए हैं। पत्नी भी साथ हैं। ठीक है, तब तो आएंगे ही आएंगे।
हम शाम को नियत समय और नियत स्थान पर पहुंचे। अनुमान लग गया था कि इनके विवाह की पचासवीं वर्षगांठ होगी। अनुमान सही निकला। कार्यक्रम में हम लोगों के अलावा रायपुर के उनके कुछ और पुराने मित्र परिचित शामिल हुए। बेटा-बहू, बेटी-दामाद, नाती-पोते सबसे मुलाकात हुई। जैसा कि चलन है खूब फोटो भी खिंचे। लक्ष्मी बहन से कोई साठ साल बाद मुलाकात हुई थी। उनको बहुत खुशी हुई कि विवाह की स्वर्ण जयंती पर मायके के लोग भी आ गए हैं। इस रायपुर प्रवास में बरसैंया जी कुछ महीनों तक यहां रहे, इसके बाद वापिस छतरपुर चले गए। अभिलाष का यहां से भोपाल तबादला हो गया। उन सबको सुविधाजनक लगा तो बरसैंया जी भी छतरपुर छोड़ भोपाल आकर बस गए हैं। इससे हमें परस्पर एक लाभ हुआ है कि मैं यदा-कदा भोपाल जाता हूं तो बरसैंया जी से भेंट हो जाती है। मेरी शुभकामना है कि उनकी साहित्य यात्रा निरंतर चलती रहे और वे हिन्दी की सेवा अनथक भाव से करते रहे।
केयूर भूषण अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके बारे में सोचते हुए मुझे अनायास देशबन्धु के साप्ताहिक पृष्ठ मड़ई का ध्यान आता है। यह नाम उन्होंने ही दिया था। वैसे तो देशबन्धु में 1968 से छत्तीसगढ़ी में एक साप्ताहिक स्तंभ प्रकाशित होता था, जिसकी शुरूआत बाबूजी के कॉलेज के दिनों के मित्र टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा ने की थी; किन्तु यह केयूर भूषण का ही परामर्श और प्रेरणा थी कि अखबार में छत्तीसगढ़ी भाषा में सप्ताह में कम से कम एक दिन पूरे पन्ने की सामग्री दी जाए। मुझे उनकी यह सलाह तुरंत जंच गई थी और इस तरह देश के किसी भी अखबार में संभवत: पहली बार जनपदीय भाषा को सम्मान के साथ स्थान मिला। केयूर भूषण जी ने सिर्फ सलाह ही नहीं दी; उन्होंने इस स्तंभ के लिए काफी नियमितता के साथ लेख इत्यादि भी लिखे। मड़ई की संपादक सुधा वर्मा ने बीते रविवार को इस बारे में विस्तार से लिखा है।
केयूर भूषण स्वाध्यायी व्यक्ति थे। उनकी औपचारिक शिक्षा कितनी हुई यह मुझे नहीं पता किन्तु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों में उन्होंने पर्याप्त लेखन किया है। स्मरण आता है कि एक समय दिल्ली के नवभारत टाइम्स में समसामयिक विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। देशबन्धु में भी संपादकीय पृष्ठ पर उनके विचारपूर्ण लेख लगातार प्रकाशित होते रहे। हमने जब सांध्य दैनिक हाईवे चैनल का प्रकाशन प्रारंभ किया तो केयूर भूषण जी को उसका मानसेवी विशेष संवाददाता मनोनीत किया था। मैं आज जहां बैठता हूं, उसी कमरे में हाईवे चैनल के प्रधान संपादक प्रभाकर चौबे और विशेष संवाददाता केयूर भूषण की टेबलें साथ-साथ लगी थीं। यह अलग बात है कि उनकी रुचि बंधकर काम करने में नहीं थी, इसलिए वे नियमित रूप से तो नहीं, जब जैसा मन हुआ पत्र के लिए रिपोर्टिंग करते रहे।
यह सर्वविदित है कि केयूर भूषण ने अनेक पुस्तकों की रचना की है। उन्होंने कविताएं लिखीं, कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखा और इस तरह छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध करने में भरसक भूमिका निभाई। लेकिन मेरा मानना है कि कविता, कहानी में उनकी उतनी रुचि नहीं थी, अपितु वे एक अच्छे निबंधकार थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ के आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पर अंतर्दृष्टि के साथ लिखा। देश की राजनीतिक परिदृश्य पर भी उनकी बराबर न•ार रहती थी, और वैश्विक राजनीति की भी उन्हें परख थी। उनके इन निबंधों का कोई संकलन संभवत: अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है! कह सकते हैं कि मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में अपने समकालीन राजनेताओं में इस मामले में वे एक अपवाद थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ के अल्पगत स्वाधीनता सेनानियों पर भी शोध करके काफी सामग्री जुटाई तथा उनकी गौरव गाथा को पहली बार जनता के समक्ष रखा। यद्यपि उनके आकलन में कुछ ऐसे नाम भी जुड़ गए जो संभवत: इस सूची में स्थान पाने योग्य नहीं थे!
केयूर भूषण ने एक किशोर स्वाधीनता सेनानी के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की थी। अंग्रेजों के राज में उन्हें कृष्ण मंदिर में कुछ समय बिताना पड़ा था। इसके बाद उनका झुकाव साम्यवादी विचारधारा की ओर हो गया था। मुझे नहीं पता कि वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे या नहीं। आगे चलकर वे कांग्रेस में आ गए थे। यहां उनकी दिलचस्पी सत्ता या चुनाव की राजनीति में नहीं थी। वे गांधीवाद से प्रभावित थे और रचनात्मक कार्यक्रम की ओर उनका झुकाव हो गया था। इस कारण जनता के बीच उनकी पहचान एक सर्वोदयी कार्यकर्ता की बन गई थी। वे इस दौर में हरिजन सेवक संघ से जुड़े और जीवन भर जुड़े रहे।
यह जानना दिलचस्प है कि एक कांग्रेसी-सर्वोदयी केयूर भूषण और दूसरे कम्युनिस्ट रामसहाय तिवारी, इन दो द्विजों ने जात-पांत, छुआ-छूत, प्रचलित रूढिय़ां इन सब का निषेध करते हुए प्रदेश में दलित समाज को मानवीय गरिमा और न्यायपूर्ण व्यवहार दिलवाने के लिए आजीवन संघर्ष किया। संभव है कि इस दिशा में काम करने के लिए उन्हें पंडित सुंदरलाल शर्मा के जीवन वृत्त से प्रेरणा मिली हो! केयूर भूषण ने इस मिशन पर काम करते हुए तरह-तरह की बाधाएं झेलीं। यहां तक कि दो बार उन्होंने अपनी जान खतरे में डाली। यह 1986 का प्रकरण है जब उन्होंने राजस्थान में स्थित वैष्णव तीर्थ नाथद्वारा में दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन किया था। उसके कुछ समय बाद केयूर भूषण ने छत्तीसगढ़ के पंडरिया के एक शिव मंदिर में दलितों के प्रवेश की मुहिम की अगुवाई की थी और इसमें वे बुरी तरह घायल हो गए थे।
दरअसल केयूर भूषण ने सार्वजनिक जीवन में हमेशा एक सक्रिय भूमिका निभाई। वे घर पर बैठकर बयान जारी करने वाले फर्जी नेता नहीं थे। दलित समाज के प्रति उनके मन में सच्ची और गहरी संवेदना थी और अन्य वंचित समुदायों के प्रति भी, कुल मिलाकर सर्वहारा के प्रति उनकी यही सोच थी। ट्रेड यूनियन में काम करने वाले पुराने मित्र बताते हैं कि केयूर भूषण ने उनके आंदोलनों को बढ़-चढ़ कर अपना समर्थन दिया। इसके पीछे उनकी कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं थी। सिविल सोसायटी के साथी भी केयूर भूषण को इसीलिए सम्मान के भाव से देखते हैं। छत्तीसगढ़ में जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर उन्होंने सरकारी नीतियों का सदैव मुखर विरोध किया। उनके स्वास्थ्य ने जब तक साथ दिया वे ऐसे मंचों पर शिरकत करते रहे जहां जनता के हक में आवाज उठाई जाती हो।
छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुड़ूम प्रारंभ हुआ और उसमें होने वाली ज्यादतियों की खबरें सामने आईं तो केयूर भूषण उससे विक्षुब्ध हुए। दिल्ली से एक नागरिक जांच समिति बस्तर जाने के लिए रायपुर आई। उसमें छत्तीसगढ़ में ही जन्मे, पले-बढ़े, स्वामी अग्निवेश भी थे। रायपुर के टाउन हाल में उनका कार्यक्रम रखा गया। केयूर भूषण इस सभा के अध्यक्ष थे। कुछ सरकार समर्थक तत्वों ने इस सभा में गड़बड़ करने की कोशिश की। उत्तेजित केयूर भूषण खड़े होकर सामने आ गए कि मैं खड़ा हूं जिसे जो करना है कर ले। तब मैं श्रोताओं के बीच से उठकर मंच पर गया और उनके व उपद्रवकारियों के बीच खड़ा हो गया ताकि हमारे इस बुजुर्ग नेता को कोई शारीरिक क्षति न पहुंचे। गनीमत थी कि बात आगे नहीं बढ़ी, लेकिन अभिव्यक्ति की आ•ाादी को रोकने का ऐसा कृत्य रायपुर में हो सकता है, वह भी केयूर भूषण के साथ, यह सोचकर आज भी मन कड़वा हो जाता है।
केयूर भूषण ने शायद कभी इच्छा नहीं की होगी कि वे किसी दिन देश की संसद में बैठेंगे। 1980 में जब उन्हें कांग्रेस ने रायपुर लोकसभा सीट पर उम्मीदवार बनाया तो यह शायद उनके लिए भी अचरज भरी खबर थी। इंदिरा गांधी ने उन्हें टिकट दिया था। वे शायद हरिजन सेवक संघ में केयूर जी के काम से परिचित रही होंगी। शायद इंदिरा जी की विश्वस्त और सर्वोदय आंदोलन की प्रमुख नेत्री निर्मला देशपांडे ने उनका नाम सुझाया हो या फिर अर्जुन सिंह ने। जो भी हो, केयूर भूषण ने लोकसभा में अपनी पहली पारी पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाई व इंदिरा जी के विश्वास की रक्षा की। इसे जानकर ही पार्टी में राजीव गांधी व अर्जुन सिंह ने उन पर दुबारा भरोसा जताया और दूसरी बार भी उन्होंने सक्षम भूमिका निभाई।
केयूर भूषण के बारे में उनके दस साल के संसदीय जीवन में और उसके बाद भी कोई अपवाद नहीं उठा। वे सायकिल पर चलते थे और जब तक शरीर ने साथ दिया सायकिल की ही सवारी की। अगर उनके वश में होता तो स्वर्गलोक भी वे शायद सायकिल से ही जाना पसंद करते! मैं उन्हें अपनी और देशबन्धु परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
मेरे एलबम में एक तस्वीर है। शायद 1955-56 के आसपास की। इसमें बाबूजी (मायाराम सुरजन) अपने सहयोगियों को संबोधित कर रहे हैं। उनमें एक बीस-बाइस साल का युवक भी है, सुंदर सलोना चेहरा। ये गोविंद लाल वोरा हैं। बाबूजी उन दिनों नवभारत के तीनों संस्करणों नागपुर, जबलपुर, भोपाल का काम देखते थे और वोराजी रायपुर में पत्र के संवाददाता थे। मेरा उनके साथ परिचय अप्रैल 1964 में हुआ जब मैं स्थायी तौर पर रायपुर आ गया। यह संयोग है कि रायपुर आने के कुछ दिन बाद ही वोराजी के साथ न सिर्फ मुलाकात हुई बल्कि एक तीन दिनी यात्रा में हम लोग साथ रहे। दक्षिण-पूर्व रेलवे ने अपने विकास कार्यों की जानकारी देने के लिए एक प्रेस टूर आयोजित किया था जिसमें पी.आर. दासगुप्ता, मधुकर खेर, गोविंद लाल वोरा, मेघनाद बोधनकर, पद्माकर भाटे और मैं शामिल थे। रायपुर से भिलाई मार्शिलिंग यार्ड याने बीएमवाय चरौदा, भिलाईनगर, वहां से बिलासपुर के आगे कटनी लाइन पर चल रहा रेलपात दोहरीकरण आदि कार्य हमने देखे और लौटकर उनके बारे में रिपोर्ताज लिखे।
मेरा ख्याल है कि इस पहली मुलाकात में खेर साहब और वोरा जी ने मेरे बारे में कोई अच्छी राय नहीं बनाई होगी; एक तो मैं दल का सबसे कम उम्र सदस्य था; दूसरे जबलपुर से पढक़र आया था तो स्वभाव में कुछ हेकड़बाजी थी; मैं तब सिगरेट भी पीता था और शुद्ध शाकाहारी नहीं था। यह सब उन्हें जमा नहीं और इसके लिए मुझे उनका उलाहना भी सुनना पड़ा। बहरहाल एक साल बाद ही एक चार दिवसीय यात्रा साथ-साथ करने का मौका पुन: आया। इस बार हम बैलाडीला गए। तब रायपुर से जगदलपुुर पहुंचने में ही दस घंटे से अधिक समय लग गया था। बैलाडीला में लौह अयस्क का उत्खनन प्रारंभ हो रहा था; डीबीके रेलवे लाइन बिछ रही थी; और बंगलादेश के विस्थापितों का दण्डकारण्य योजना के अंतर्गत पुनर्वास का काम चल रहा था। हम लोग नई-नई बिछ रही रेल लाइन को देखने ट्रॉली में बैठकर निकले। भांसी में तब बैलाडीला परियोजना का बेस कैम्प था। वहां रात को तंबुओं में सोए और इस तरह कुल मिलाकर चार दिन की कुछ-कुछ रोमांच भरी यात्रा पूरी हुई।
आज गोविंद लाल वोरा हमारे बीच नहीं हैं। जिस व्यक्ति को कभी बीमार पड़ते नहीं देखा वह कुछ दिन की बीमारी के बाद ही एकाएक हमारे बीच से चला जाएगा यह कल्पनातीत था। मैंने उनके जैसे इस आयु में भी सक्रिय व्यक्ति बहुत कम देखे। ध्यान आता है कि इस समय वोरा जी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक वरिष्ठ पत्रकार थे। उन्होंने 1950 के दशक में काम करना शुरू किया था और इस तरह साठ साल से कुछ अधिक समय तक उन्होंने पत्रकारिता की। काम करने का ऐसा सुदीर्घ अवसर बिरलों को ही प्राप्त हो पाता है। उन्होंने यद्यपि नवभारत से पत्रकारिता प्रारंभ की थी, लेकिन वे लंबे समय तक आकाशवाणी के संवाददाता भी रहे। 1983-84 में उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यवसाय अमृत संदेश की स्थापना की। इसके साथ-साथ वे अनेकानेक सामाजिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे। मेरा आकलन है कि वे व्यवहार कुशल तो थे ही, व्यवसायिक बुद्धि के भी धनी थे, जिसका भरपूर परिचय उन्होंने अपने जीवन में दिया।
यह रोचक संयोग है कि जिस पत्र समूह में बाबूजी ने एक लंबे समय तक अपनी सेवाएं दीं, गोविंद लाल वोरा भी उससे करीब तीस वर्ष तक जुड़े रहे। दूसरा संयोग है कि जब बाबूजी ने रायपुर से अखबार निकालना तय किया तो ठीक उसी समय उनके भूतपूर्व नियोक्ताओं ने भी रायपुर से ही नया संस्करण प्रारंभ करना तय किया और गोविंद लाल वोरा उसके पहले प्रबंधक और संपादक बनाए गए। यंू तो हमारे और वोरा जी के बीच संबंध मधुर ही थे, लेकिन व्यवसायिक प्रतिस्पद्र्धा के चलते इन संबंधों में कई बार तनावपूर्ण स्थितियां भी निर्मित हुईं। लेकिन मैं समझता हूं कि बाबूजी के प्रति गोविंद लाल वोरा का आदरभाव कभी कम नहीं हुआ। वे सिर्फ अपनी ड्यूटी कर रहे थे और बाबूजी का उनके प्रति प्रेमभाव भी कभी घटा नहीं। दरअसल, रायपुर में एक ऐसा ठिकाना था जहां लगभग नियमत: सुबह ग्यारह बजे के करीब बाबूजी, खेर साहब, बसंत तिवारी, वोराजी और कभी-कभी मैं चाय पर मिला करते थे। जगह थी बाबूलाल टाकीज जिसके कर्ताधर्ता सतीशचन्द्र जैन याने सतीश भैया अत्यन्त प्रबुद्ध सामाजिक व्यक्ति थे। उनके कक्ष में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ देश-प्रदेश की राजनीति के अलावा पुस्तकों पर भी चर्चा होती थी।
गोविंद लाल वोरा के साथ मेरा संबंध सिर्फ पत्रकारिता तक सीमित नहीं था। वे रोटरी क्लब के पुराने सदस्य थे। मैं भी 1970 में सदस्य बन गया था। इस नाते भी हमारा नियमित संपर्क बना रहा। एक स्थिति ऐसी भी आई जब डिस्ट्रिक्ट गवर्नर (ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाकौशल) के चुनाव में वे और मैं आमने-सामने हो गए। उन्हें ओल्ड गार्ड का समर्थन हासिल था और मुझे युवा तुर्कों का। वे चुनाव जीते, मैं हारा। मुझे लगा कि मुझे जानबूझ कर हराया गया है। इसके चलते हमारे बीच अनबोलेपन तक की स्थिति बनी, लेकिन चार साल बाद जब मैं डिस्ट्रिक्ट गवर्नर चुन लिया गया तब एक पल में तनाव दूर हो गया। मेरे साथियों ने हमारे घर पर ही प्रीतिभोज का आयोजन किया तो मैं वोराजी के घर गया और उन्हें साग्रह निमंत्रण देकर आया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसके बाद रोटरी ही नहीं, अनेक प्रसंगों में हम एक-दूसरे से सलाह-मशविरा करते रहे। एक नया संयोग इस बीच और जुड़ा। उनके पिता मोहन लाल वोरा और बाबूजी दोनों का निधन कुछ अंतराल से हुआ। वे दोनों रायपुर के प्राचीन गोकुल चन्द्रमा मंदिर के न्यासी थे। उनकी जगह पर हम लोगों को मनोनीत किया गया। वोराजी तो शायद उसमें बने रहे, लेकिन मुझे ट्रस्ट की रीति-नीति समझ नहीं आई तो मैं उसे जल्दी ही छोडक़र बाहर आ गया।
आज वोराजी के बारे में लिखने बैठा हूं तो उनका शांत, सौम्य और सुंदर चेहरा बार-बार आंखों के सामने आ रहा है। मैं ही नहीं, उन्हें जानने वाले सभी लोग अचरज करते थे कि उम्र कैसे उन पर अपना प्रभाव नहीं डाल पाई है। वे अपने ऑफिस नियमित रूप से जाते थे। देर शाम तक बैठते थे। उनको लोगों ने गुस्सा करते हुए शायद ही कभी देखा हो और एक पत्रकार के लिए उचित उनके संपर्क समाज के सभी वर्गों से थे। कांग्रेसी हों या भाजपाई, कम्युनिस्ट हों या समाजवादी, वे सबके विश्वासभाजन थे। एक समय तो श्यामाचरण शुक्ल ने महाकौशल का भार भी उन पर डाल दिया था। यह एक अजूबा ही था कि एक ही व्यक्ति दो प्रतिस्पर्धी अखबारों को एक साथ संभाल रहा है। मधुकर खेर और गोविंद लाल वोरा ने एक समय ‘‘नभ’’ नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रारंभ किया था, लेकिन नियोक्ताओं की नाराजगी के चलते उसे जल्दी ही बंद कर देना पड़ा था। वैसे वोराजी में लोगों को पहचानने की क्षमता बखूबी थी। वे जानते थे कि कौन व्यक्ति कितने काम का है और वे ऐसे संबंधों में एक व्यवहारिक दृष्टि रखते थे। दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनको जीवन में आगे बढऩे के लिए उन्होंने मुक्त भाव से सहायता की। बातें बहुत सी हैं, कहने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन एक बेहद निजी प्रसंग का जिक्र मुझे करना चाहिए।
31 दिसंबर 1994 की रात भोपाल में बाबूजी का अकस्मात निधन हुआ। मैं सतना जाने के लिए सारनाथ एक्सप्रेस में बैठ चुका था। बिलासपुर स्टेशन पर खबर मिली तो किसी वाहन का प्रबंध कर तुरंत रायपुर लौटा। घर आया तो मालूम पड़ा कि आधी रात यह दुखद सूचना मिलते साथ घर पर सबसे पहले आने वाले व्यक्ति गोविंद लाल वोरा ही थे। ऐसे सहृदय और सदाशयी पारिवारिक मित्र तथा पत्रकारिता और रोटरी में वरिष्ठ साथी के जाने से मैं अपने जीवन में एक रिक्ति महसूस कर रहा हंू।
उस दिन छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध छायाचित्रकार बसन्त दीवान के स्मृति समारोह से लौटा तो मन में अचानक एक विचार कौंधा। तकनीकी प्रगति के चलते एक नया कलारूप लगभग डेढ़ सौ साल पूर्व अस्तित्व में आया जिसे हमने फोटोग्राफी के नाम से जाना। कैमरे के आविष्कार से यह कला प्रारंभ हुई और तकनीकी में परिष्कार के साथ ही फोटोग्राफी में भी निखार आता गया। लेकिन आज हम एक ऐसे मोड़ पर आ गए हैं जहां तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप फोटोग्राफी करना पहले के मुकाबले सरल, सहज, सामान्य हो चला है, वहीं उसका कला रूप लगभग विलुप्त हो गया है। आज के सेल्फी युग में कला पक्ष की बारीकियों को समझने, नए-नए प्रयोग करने का धीरज और समय अब किसके पास है? यह कुछ वैसा ही हुआ है जैसे संगीत में नई तकनीकी के कारण मुझ जैसा बेसुरा भी गाना गा सकता है! यही सोचते-सोचते मुझे एस. अहमद की याद आई। अपनी कला के प्रति समर्पित एक फोटोग्राफर जो बहुत कम उम्र में दुनिया से रुखसत हो गया।
छत्तीसगढ़ में फोटोग्राफी के वृहत्तर परिदृश्य पर गौर करते हुए मुझे सबसे पहले दयाराम चावड़ा का ध्यान आता है। वे काफी अरसा हुए गृहनगर रायपुर छोड़ बंबई जा बसे थे, जहां उन्होंने ग्लैमर फोटोग्राफर के नाते 60-70 के दशक में अन्तरराष्ट्रीय ख्याति हासिल की थी। मुझे उनसे एक-दो बार मिलने का सौभाग्य मिला था। मायाराम सुरजन फाउंडेशन द्वारा आयोजित गृहपत्रिका स्पद्र्धा (हाउस जर्नल कांपिटीशन) में मेरे अनुरोध पर वे दो बार जूरी के सदस्य भी रहे। प्रसंगवश जिक्र कर दूं। उनके रायपुर के ही मित्र कांतिलाल पटेल ने परिणय व कंकु जैसी फिल्में बनाकर भारतीय सिनेमा में अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया था। दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ अपने इन दो सपूतों को पूरी तरह भुला चुका है। बहरहाल प्रदेश में साठ के दशक में फोटोग्राफी के क्षेत्र में कुछ बहुत उल्लेखनीय नहीं था। या तो फुटपाथ पर तंबू लगाकर काम करने वाले फोटोग्राफर थे, या श्री गोडबोले और श्री बख्शी जैसे इक्का-दुक्का फोटोग्राफर जिनके अपने स्टूडियो थे, लेकिन वे प्रयोगधर्मी नहीं थे।
इनके अलावा श्री बोस का चलता-फिरता कलकत्ता फोटो स्टूडियो था। वे आर.डी. जोशी के मीनाबा•ाार और ऐसी अन्य प्रदशर्नियों में अपना स्टाल लगाया करते थे (बाद में उनके बेटों ने धमतरी व रायपुर में स्थायी स्टूडियो खोले)। बोस सीनियर भी व्यवसायिक फोटोग्राफर ही थे। आज उन पुराने दिनों की याद करता हूं तो यह दृश्य मुझे रंगहीन सा लगता है। क्योंकि तब जबलपुर में शशिन (शशिकांत यादव) जैसे फोटोग्राफर थे, जो शांतिनिकेतन से चित्रकला की शिक्षा लेकर लौटे थे। मुक्तिबोध का बीड़ी सुलगाते हुए यादगार फोटो उन्होंने ही लिया था। भोपाल में राजधानी बन जाने के कारण वहां भी कुछ सिद्धहस्त फोटोग्राफर आ चुके थे, जिनमें वामन ठाकरे का नाम अभी याद आ रहा है। रायपुर की इस जड़ता को सबसे पहले बसन्त दीवान ने ही तोड़ा; और फिर एस. अहमद ने जो राज्य के जनसंपर्क विभाग में छायाचित्रकार थे। अहमद 1975-76 में भोपाल से तबादले पर आए तो फिर यहीं के होकर रह गए।
रायपुर में उस वक्त कुल जमा पांच दैनिक समाचारपत्र थे जिनमें एक सांध्य दैनिक था। •िांदगी की रफ्तार आज जैसी तेज नहीं थी। एक-दूसरे से मिलने, बात करने, समझने का माहौल था। देशबन्धु ऐसा अखबार था जिसमें प्रयोगधर्मिता को प्रोत्साहित किया जाता था। बात फिर चाहे रिपोर्टिंग की हो या संपादन कौशल की। हम नए-नए विषय खोजते थे, नए स्तंभकारों को जोडऩे का यत्न करते थे, नए लेखकों को स्थान देते थे। स्टाफ के सदस्यों को भी नए प्रयोग करने की छूट जनतांत्रिक माहौल में थी। इसमें फोटोग्राफी जैसी कला कैसे छूट जाती, जिसका पत्रकारिता से निकट का रिश्ता बन चुका था? मैंने 1964 में पे्रस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की हिंदी पत्रकारिता की कार्यशाला में सीखा था कि एक फोटो एक ह•ाार शब्दों के समतुल्य होता है। स्वाभाविक है कि एस. अहमद का देशबन्धु के साथ पहला संपर्क भले ही विभागीय औपचारिकता की पृष्ठभूमि में हुआ हो, हमारे युवा सहयोगियों के साथ उनकी मित्रता स्थापित होने में अधिक वक्त नहीं लगा।
देशबन्धु में समाचारों के साथ फोटोग्राफी को समुचित महत्व दिया जाता था। प्रतिदिन विशेष घटनाओं के फोटो तो छपते ही थे; रविवारीय परिशिष्ट, जिसे अवकाश अंक की संज्ञा हमने दी है, में भी कलात्मक चित्रों को स्थान मिल रहा था। एक विशेष स्तंभ ‘सप्ताह का चित्र’ नाम से प्रारंभ किया, जिसमें पहले या शायद आखिरी पन्ने पर एक खूबसूरत, नयनाभिराम फोटो छपने लगा। इस स्तंभ में अहमद की खींची तस्वीरें अक्सर प्रकाशित होती थीं। वे एक अच्छे लैंडस्केप फोटोग्राफर थे। निसर्ग की शोभा को सुंदरता से अपने लैंस में समेट लेते थे। यही नहीं, प्रदेश के जनजीवन का भी चित्रांकन उन्होंने नए-नए और दुर्लभ कोणों से किया। बस्तर की प्राकृतिक छटा और आदिवासी समाज के जीवन को भी अहमद ने गहरी समझ के साथ रूपायित किया। उन्होंने अपने चित्रों की कई बार एकल प्रदर्शिनियां आयोजित कीं, जिनमें से दो-एक को देखने का अवसर मुझे मिला।
1979 में देशबन्धु में ऑफसेट छपाई मशीन आई। उस समय सोहन अग्रवाल नामक हरफनमौला युवा हमारे साथ जुड़े। वे संपादकीय कार्य में सिद्धहस्त थे, गो कि उनकी नियुक्ति मुद्रण विभाग में तकनीकीविद् के रूप में हुई थी। इसके अलावा वे एक सक्षम फोटोग्राफर थे। लगभग उन्हीं दिनों स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में श्रीकांत खरे नामक युवा कर्मी बिलासपुर से रायपुर आए। उन्हें भी फोटोग्राफी का बहुत शौक था। इस तरह रायपुर में युवा फोटोग्राफरों की एक टोली तैयार हो गई थी। ये एक-दूसरे से मिलते थे, स्पद्र्धा भी करते और सहयोग भी करते थे। मुझसे इनका यदा-कदा मिलना होता था, लेकिन आयु का अंतर और वरिष्ठता का संकोच बना रहता था। तथापि मैंने इन सबको यथासंभव प्रेरित और प्रोत्साहित किया। एस. अहमद इनमें सबसे अधिक प्रतिभावान और समर्पित कलाकार थे। फोटोग्राफी उनका व्यवसाय था और जीवन की साधना भी। इस प्रतिभाशाली कलाकार को हमने 2012 में कम आयु में ही खो दिया।
बीते सोमवार याने 18 जून को मैंने कहा- आज तुम्हारा कॉलम छपा है। अगले हफ्ते का कब लिखोगे। रायपुर के एम्स अस्पताल के आपातकालीन चिकित्सा कक्ष में रोगशैय्या पर पड़े उनका जवाब था- तुम्हारी तुम जानो। मैंने अपना काम कर दिया है। इतने सालों में एक बार भी नागा नहीं किया। उन्हें बोलने में तकलीफ हो रही थी, लेकिन तेवर वही थे। अगली सुबह बेटे जीवेश से कहा- पैन-कागज लाकर दो, कॉलम लिखना है। वे मौत से लड़ रहे थे। शायद जानते थे कि जीत नहीं पाएंगे, किंतु आखिरी साँस तक हार मानने के लिए तैयार नहीं थे। चंद दिनों की बीमारी में शरीर कमजोर हो गया था, दवाईयां चल रही थीं, जीवन रक्षक उपकरणों के सहारे जीवन आगे बढ़ रहा था। ऐसे में कॉलम कहां से लिख पाते!
18 जून को प्रकाशित लेख उनका अंतिम लेख सिद्ध हुआ। इसे उन्होंने घर में ही बिस्तर पर लेटे-लेटे जीवेश के सहयोगी दुर्गेश को डिक्टेशन देकर लिखवाया था। इसके पहले के लेख हेतु छोटे बेटे आलोक को डिटेक्शन दिया था। ये प्रभाकर चौबे थे- सच्चे मायनों में कलम के सिपाही। वे यश के लिए, पद के लिए, धन के लिए नहीं लिखते थे। उनका एकमात्र मकसद था कि उनके विचार आम जनता तक पहुंचना चाहिए। लेखनी समाज के प्रति ऋण उतारने का माध्यम थी।
प्रभाकर चौबे देशबन्धु के प्रारंभ काल याने 1959 से ही अखबार के साथ जुड़ गए थे। यह रिश्ता उन्होंने जीवन भर कायम रखा। हरिशंकर परसाई का अस्सी प्रतिशत लेखन देशबन्धु में प्रकाशित हुआ तो प्रभाकर चौबे का पंचानवे प्रतिशत। साठ साल तो नहीं, लेकिन लगभग अठ्ठावन वर्षों तक प्रभाकर का लिखा देशबन्धु में प्रकाशित होता रहा- पत्र, कविताएं, व्यंग्य, लेख, कहानियां, उपन्यास, एकांकी, रिपोर्ताज, निबंध, गरज यह कि हर विधा में उन्होंने लिखा और खूब लिखा। परसाईजी की एक पुस्तक हँसते हैं, रोते हैं का शीर्षक उधार लेकर उन्होंने एक स्तंभ लिखा शुरू किया जो अनेक सालों तक सप्ताह में दो बार प्रकाशित होता रहा। 1988-89 में जबलपुर यात्रा के दौरान प्रभाकर और मैं नगर में प्रतिष्ठित समाजसेवी चिकित्सक डॉ. जे.एन. सेठ से मिलने गए। प्रभाकर चौबे का परिचय पाते ही वे उछल पड़े। अरे भाई, आपका कॉलम तो मैं नियमित रूप से पढ़ता हूं और सबको पढ़वाता हूं। यह थी एक पाठक की प्रथम परिचय में प्रतिक्रिया। ऐसे और भी अनुभव हैं।
एक रात रायपुर के रंगमंदिर से कोई नाटक देखकर हम लौट रहे थे। कोई पंद्रह साल पुरानी बात होगी। हम दोनों रिक्शे में बैठे बात करते चले आ रहे थे। अग्रसेन चौक पर रिक्शे से उतरे। चालक ने पूछा- सर! आप प्रभाकर चौबे हैं। हां में उत्तर मिला तो वह रिक्शे का किराया लेने से मना करने लगा। आपके लेख मैं हमेशा पढ़ता हूं। सोचता हूं कोई तो है जो हमारे जैसे गरीबों के बारे में लिखता है। वह पैसे लेने तैयार नहीं था। मैंने जबरन यह कहकर पैसे थमाए कि इनका किराया मत लेना, मेरा किराया तो ले लो। ये प्रभाकर चौबे थे- मन, वचन, कर्म से एक। जैसा सोचते थे, वैसा ही जीवन जीते थे और वैसा ही लिखते थे। कहीं कोई खोट नहीं, एकदम पारदर्शी सोच; लेकिन राग द्वेष से हीन, न किसी का चरित्र हनन किया, न ओछी टिप्पणी की और न कभी घटिया चुटकुलेबाजी। उनके जैसे बेलाग लिखने वाले लोग, और वह भी जीवन में कभी डगमग हुए बिना, हां, बिना डगमग हुए, हमारे बीच कितने हैं?
व्यंग्य का नियमित स्तंभ लिखते हुए एक समय प्रभाकर के मन में विचार आया। व्यंजना के बजाय सीधी-सीधी बात कहने का समय आ गया है। उनका सोचना था कि व्यंग्य में अन्तर्निहित तमाम शक्ति के बावजूद लोक शिक्षण के लिए आवश्यक हो गया है कि पाठकों के सामने खुलकर मुद्दे रखे जाएं। इस तरह सोमवार को उनके नियमित स्तंभ की शुरूआत हुई। इस कॉलम का हमने कोई नाम नहीं दिया। लगभग बीस साल लगातार चलने के बाद अब यह स्तंभ सदा के लिए बंद हो गया है। प्रभाकर चौबे की जन पक्षधरता इन लेखों में बहुत स्पष्टता के साथ व्यक्त होती है। सन् नब्बे के दशक से भारत में जिस तरह से नवसाम्राज्यवादी तथा नवपूंजीवादी ताकतों ने अपने पैर जमाना शुरू किए, उससे प्रभाकर स्वाभाविकत: क्षुब्ध थे। वे जान रहे थे कि उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण का लुभावना नारा देकर ये ताकतें भारत को अघोषित रूप से अपना उपनिवेश बनाने का षडय़ंत्र रच रही हैं। देश का सत्ताधारी वर्ग जिस प्रकार लोभ, लालच में पड़ गया है, मदांध हो गया है, उसे भी वे ताड़ चुके थे। अपने साप्ताहिक स्तंभ में उन्होंने सरल-सुबोध भाषा में जनता को आगाह किया। वे एक तरफ रामचरित मानस की चौपाईयां उद्धृत करते थे तो अक्सर मुक्तिबोध की कविता पंक्तियों से अपने तर्क को पुष्ट कर लेख समाप्त करते थे।
मैं पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि प्रभाकर चौबे हिंदी साहित्य नहीं, बल्कि वाणिज्य के विद्यार्थी थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें इनकम टैक्स इंस्पैक्टर की नौकरी मिल गई थी। लेकिन यह नौकरी उन्हें उसी तरह रास नहीं आई, जैसे परसाईजी को महकमा-ए-जंगलात में नौकरी करना नहीं जंचा। प्रभाकर ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्थापित राष्ट्रीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया और समय आने पर शाला के प्राचार्य बने और उसी पद से सेवानिवृत्त हुए। प्रभाकर रिटायर हो चुके थे। देशबन्धु में उनका लेखन बदस्तूर चल रहा था। तभी हमने 1996 में सांध्य दैनिक ‘हाईवे चैनल’ निकालने की योजना बनाई। मेरे अनुरोध पर प्रभाकर चौबे प्रदेश के इस प्रथम संपूर्ण सांध्यकालीन पत्र के संपादक बने। उन्होंने पूरी तन्मयता और परिश्रम के साथ अठारह वर्षों से अधिक समय तक यह दायित्व निभाया। वे प्रतिदिन संपादकीय लिखते थे। उनकी पत्नी मालती भाभी 2005 में बीमार पड़ीं तो अस्पताल में उनके सिरहाने बैठकर भी वे अपना काम करते रहे। मुझे अगर ठीक याद है तो 7 सितम्बर 2005 याने जिस दिन भाभी की अंत्येष्टि हुई, सिर्फ उस दिन उन्होंने संपादकीय नहीं लिखा। अगले दिन से वे घर से लिखकर भेजते रहे, जबकि घर में रिश्तेदारों व मातमपुर्सी के लिए आने वालों का तांता लगा रहता था। कोई स्थितप्रज्ञ ही ऐसा कर सकता था!
प्रभाकर चौबे ने इस एकाग्रता, तन्मयता, कर्मनिष्ठा, दायित्वबोध का परिचय जीवन में हर मोड़ पर, हर समय दिया। वे अशासकीय शिक्षकों के संगठन म.प्र. माध्यमिक शिक्षक संघ के महासचिव थे। अध्यक्ष थे स्व. मुरलीधर गनौदवाले। एक वामपंथी, एक धुर दक्षिणपंथी। लेकिन संगठन के प्रति दोनों ने जिम्मेदारी बहुत समझदारी और ईमानदारी के साथ निभाई। राजनीति को बीच में नहीं आने दिया। उन्होंने अपनी शाला में भी आंदोलन किए, लेकिन प्रबंधन के प्रति कटुता नहीं पाली। राइस किंग सेठ नेमीचंद प्रबंध समिति के अध्यक्ष थे, उन्होंने प्रभाकर चौबे को वरिष्ठता के सिद्धांत पर प्राचार्य नियुक्त किया। इस पद पर भी प्रभाकर ने न तो अपने दायित्व में कोताही की और न अपने सिद्धांतों से समझौता किया। उनके साथ काम करने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं कह सकता था कि प्रभाकर चौबे ने किसी से अन्याय किया हो, दुराव किया हो, पीठ पीछे बात की हो, काम ठीक से न किया हो। उनकी फितरत में यह सब नहीं था। दरअसल, वे कई मायनों में निस्पृह व्यक्ति थे। जिन जनसंगठनों में वे सक्रिय रहे, वहां वे पहले एक कार्यकर्ता थे, फिर नेता। पद के लिए साथियों को आगे कर दिया, फिर किसी ने मार्गदर्शन मांगा तो ठीक, नहीं तो अपन अपने घर में भले।
प्रभाकर ने जितना विपुल लेखन साठ वर्षों की अवधि में किया, हिन्दी में फिलहाल उसकी मिसाल मिलना असंभव प्रतीत होता है। विभिन्न विषयों पर लिखे संपादकीय व अन्य रचनाओं की संख्या दस हजार के आसपास होगी। यह भी कमाल की बात है कि उन्होंने देशबन्धु के अलावा और किसी पत्र-पत्रिका के लिए लेखन नहीं किया। एक अखबार और एक लेखक अठ्ठावन साल तक साथ-साथ रहे, यह सचमुच एक विश्व रिकॉर्ड है। लेकिन न उनका लिखना, न देशबन्धु का उन्हें छापना रिकॉर्ड बनाने के उद्देश्य से था। वे मुक्तिबोध और परसाई के परंपरा के लेखक थे। प्रभाकर जितना लिखते थे, उतना पढ़ते भी थे। उनकी रुचि समकालीन राजनीति, अर्थनीति, दर्शनशास्त्र, इतिहास इन तमाम विषयों में थी। साहित्य की विधाओं में उनकी अधिक रुचि कथा साहित्य पढऩे में थी। पत्र-पत्रिकाओं में वे सबसे पहले कहानियां ही पढ़ते थे। कोई रचना पसंद आ जाए और रचनाकार का फोन नंबर उपलब्ध हो तो फोन करके बधाई देने में देरी या कंजूसी नहीं करते थे। इस तरह देश के कितने ही नए लेखकों को उन्होंने खासकर प्रोत्साहित किया। वे फिर मुझे बताते थे कि फलानी पत्रिका में फलाने की कहानी छपी है। तुम भी पढ़ लेना।
एक दिलचस्प तथ्य है कि मैंने जब कोई नई कविता लिखी तो सबसे पहले प्रभाकर को ही सुनाई। 1996 में एक रात अचानक मेरी नींद खुली और मैं सात साल बाद लंबे समय से अधूरी पड़ी एक कविता को पूरी करने के लिए टेबल पर बैठ गया। सुबह चार बजे कविता पूरी हुई। अब बेचैनी थी कि प्रभाकर को सुना दूं। सुबह छह बजे नहीं कि मैंने फोन खटखटा दिया। प्रभाकर नींद में ही थे। मैंने कहा- कविता सुनो। लंबी कविता थी। उन्होंने सुनी और सजग प्रतिक्रिया दी- अच्छी है लेकिन आखिरी पैरा में झोल है। मैं निराश हो गया। कहा- यार! इतने साल बाद कविता लिखी पर तुम उसे खारिज कर रहे हो। खैर, मैंने कविता को नए सिरे से पढ़ा। प्रभाकर की राय ठीक लगी। कविता को संशोधित किया। उन्हें दुबारा सुनाई। जब प्रभाकर का अनुमोदन मिल गया तो संतोष हुआ कि वाकई मैंने एक अच्छी कविता लिख ली है। ‘तिमिर के झरने में तैरती अंधी मछलियां’ मेरी प्रिय कविता है और उसका श्रेय प्रभाकर को ही है।
यह स्थान पिछले बीस साल से प्रभाकर चौबे के प्रति सोमवार प्रकाशित स्तंभ के लिए सुरक्षित था। आज उनकी स्मृति में यह लेख है।
प्रभाकर चौबे अब हमारे बीच नहीं हैं, इस निर्मम सच्चाई को स्वीकार करने के लिए मन एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी तैयार नहीं है। कितनी यादें उमड़-घुमडक़र आ रही हैं। कहने-लिखने बैठूं तो एक पोथा भर जाए। आखिरकार, सन्तावन साल की अंतरंग दोस्ती की कथा को आसानी से तो नहीं समेटा जा सकता। हम लोगों ने साथ-साथ अनगिनत यात्राएं कीं, प्रदेश में और देश में; अनेक संस्थाओं में साथ रहे; कितने ही मंच साझा किए; और संयोगवश कई सालों तक निकट पड़ोसी भी बने रहे। पत्नी माया ने याद दिलाया कि 1970 में जब हम विवेकानंद नगर छोड़ चौबे कॉलोनी में दूसरे किराए के घर में रहने पहुंचे तो सबसे पहले प्रभाकर और भाभी से ही मिलने गए, जो हमसे कुछ पहले वहीं रहने आ गए थे। आज बाबूजी के नाम पर जो मायाराम सुरजन शास. उच्च. माध्यमिक विद्यालय चौबे कॉलोनी में है, उसका नाम तब शास. प्राथमिक शाला डंगनिया (ब) था। हम दोनों मित्रों ने अपने बच्चों को चार टूटे-फूटे कमरों वाली उसी शाला में दाखिल करवाया; और प्रधान पाठक बोधनलाल पांडे तथा छविराम वर्मा के साथ कॉलोनी के अलावा आसपास के इलाके में घर-घर जाकर चंदा मांगा कि इस शाला को एक आदर्श स्कूल बनाने के लिए साधन जुटाए जा सकें। प्रभाकर और मैंने पच्चीस साल से अधिक समय तक शाला विकास समिति का काम संभाला, नागरिकों का सहयोग लिया, शिक्षकों की हौसला अफजाई की और एक सरकारी स्कूल को ऐसा रूप देने में सहायक बने कि शिक्षा जगत में उसकी धूम मच गई। यह प्रभाकर चौबे की समाज सक्रियता की एक मिसाल है।
हम लोगों ने साथ-साथ जो यात्राएं कीं, उनका तो कोई हिसाब ही नहीं है। इन यात्राओं में गुरुजी (डॉ. हरिशंकर शुक्ल) अक्सर साथ होते थे। अनेक बार ठाकुर भैया (स्व. भगवान सिंह ठाकुर एडवोकेट) भी। मैंने अपने यात्रा-वृत्तांतों की एक पुस्तक इन्हीं तीन अग्रज साथियों को समर्पित की है। हम कहां-कहां साथ नहीं गए! दिल्ली, गुवाहाटी, हैदराबाद, द्वारिका, भोपाल, ग्वालियर, इलाहाबाद, सागर, सतना, विशाखापट्टनम, कटक, भुवनेश्वर, संबलपुर, कहां तक याद करूं। प्रभाकर बाबूजी के साथ भी बहुत घूमे, चित्रकूट, और कुरुक्षेत्र से बंबई, गोवा और त्रिवेंद्रम तक। अगर मेरी स्मरणशक्ति धोखा नहीं दे रही है तो 1964 की मई में सबसे पहले हम रायपुर से बस में बैठकर राजनांदगांव गए थे। स्वनामधन्य पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का सार्वजनिक अभिनंदन था। देर रात हम फिर किसी ट्रेन से वापिस लौटे थे। उसके शायद साल भर बाद ही कल्याण कॉलेज भिलाई के परिसर में छत्तीसगढ़ विभागीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था। दो या तीन दिन के कार्यक्रम में तब हम साथ रहे थे। हमने प्रदेश में भी अनेक यात्राएं कीं। कभी पवन दीवान और कृष्णारंजन के बुलावे पर राजिम जा रहे हैं; कभी धमतरी तो कभी मुंगेली। सभा-सम्मेलनों-शिविरों में सरगुजा से बस्तर तक और रायगढ़ से कवर्धा तक दौड़ लगाई।
देशबन्धु में स्थानीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए 74-75 में ‘‘पड़ाव’’ नामक कार्यक्रम शुरु किया था। प्रभाकर चौबे इसके सूत्रधार बने। भाटापारा, मुंगेली, धमतरी, इत्यादि स्थानों पर वे जाते थे। दिनभर की साहित्यिक गोष्ठी होती थी। वे रचनाएं सुनते थे, सुझाव देते थे, प्रकाशन योग्य समझी गई रचनाओं को लेकर लौटते थे। फिर संपादन होकर एक विशेष परिशिष्ट में उनका प्रकाशन होता था। साहित्य के प्रति ऐसी लगन, नवोदित लेखकों का मनोबल बढ़ाने का ऐसा उपक्रम, स्थानीय प्रतिभाओं को सामने लाने की ऐसी सोच विरल मानी जाएगी। हम दोनों रायपुर में न जाने कितनी बार स्कूल-कॉलेज की भाषण, वाद-विवाद इत्यादि प्रतियोगिताओं में साथ-साथ निर्णायक की भूमिका में रहे। इनके माध्यम से जिन प्रतिभाओं में निखार आया, उनमें से कुछ आज भी हमें याद कर लेते हैं। राजिम से कुछ किलोमीटर दूर स्थित कोमा गांव हम छह नवोदित कवियों को प्रोत्साहन देने गए थे, जो शायद उस समय ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा के छात्र थे! छह में से एक एकांत श्रीवास्तव ने न्यौता दिया था और हमने उसे तत्परता से स्वीकार कर लिया था। भावना वही रहती थी कि प्रदेश और देश में साहित्य और समाज के बीच का रिश्ता कैसे मजबूत बने।
दो-तीन यात्राओं का विशेषकर उल्लेख करना चाहूंगा। 1976 में म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के विदिशा अधिवेशन में बाबूजी अध्यक्ष पद ग्रहण करने वाले थे। इस कारण सारे प्रदेश में उत्साह का वातावरण था। छत्तीसगढ़ से हम कोई पचास-साठ प्रतिनिधि नई-नई चली छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से एक साथ रवाना हुए। ट्रेन तब भोपाल तक ही जाती थी। भोपाल से बस से विदिशा पहुंचे। भीषण गर्मी के दिन, ठहरने-खाने के प्रबंध में थोड़ी अव्यवस्था फिर भी गजब का माहौल। हम चार-पांच लोग नहाने के लिए नगर के बाहर एक खेत तक पहुंचे, वहां नलकूप की मोटी धार के नीचे नहाए। दिन के भोजन के समय बाजू में बुंदेली के समर्थ कवि बालकृष्ण गुरु (शायद यही नाम था!) बैठे थे। परिचय हुआ तो हुलस उठे, भोजन बीच में छोडक़र उठे, कविता की डायरी ले आए कि हम उनकी रचनाएं सुन लें। रात को सार्वजनिक कवि सम्मेलन में एक सौ से अधिक कवि, मंच पर तिलमात्र जगह नहीं। हम लोगों ने खूब हूटिंग भी की। लेकिन मुख्य अतिथि बाबू जगजीवन राम का अर्थगंभीर, ओजस्वी व्याख्यान आज भी याद आता है। दूसरा प्रसंग सतना का है। म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम अधिवेशन सतना में 1976 में ही हुआ। इसमें भी छत्तीसगढ़ से हम बहुत सारे लेखक मित्र एक साथ सतना गए। बिलासपुर और कटनी में ट्रेन बदली। वहां मुझे अपनी बेटी के अचानक गंभीर रूप से अस्वस्थ होने की सूचना मिली। ज्ञानरंजन ने फोन सुना था। उन्होंने आकर कहा- आई थिंक यू मस्ट गो इमीडियेटली। रात बारह बजे काशी एक्सपे्रस में कंडक्टर की सहानुभूति से बैठने लायक जगह पाकर जबलपुर पहुंचे। देशबन्धु के स्थानीय संपादक राजेंद्र अग्रवाल को घर जाकर उठाया। उन्होंने आश्वस्त किया कि चिंता की कोई बात नहीं थी। सुबह जबलपुर से राज्य परिवहन की बस पकड़ शाम ढले रायपुर लौटे। दुश्चिंता के बीच की गई इस यात्रा में प्रभाकर चौबे मेरे साथ ही रायपुर लौट आए। मुझे अकेले नहीं आने दिया।
अनेक बरस बाद सतना में ही एक दूसरा प्रसंग घटित हुआ। प्रभाकर, गुरुजी और मैं सम्मेलन द्वारा आयोजित वंृदावन लाल वर्मा शताब्दी समारोह में भाग लेने गए थे। यहां गुरुजी के पिताजी के निधन की सूचना मिली। हम तीनों किसी ट्रेन से कटनी पहुंचे, वहां उत्कल एक्सप्रेस पकड़ी। ट्रेन बीच के किसी स्टेशन पर एक घंटा रुकी रही। ड्राइवर, गार्ड सभी पास में कहीं टीवी पर महाभारत देखने चले गए थे। विलंब से बिलासपुर और फिर किसी अन्य साधन से रायपुर ऐन वक्त पर पहुंचे जब गुरुजी के पिता की अर्थी उठने ही वाली थी। एक अन्य निजी प्रसंग मुझसे जुड़ा हुआ है। 31 दिसंबर 1994 को बाबूजी का भोपाल में निधन हुआ। 3 जनवरी को अस्थि संकलन करना था। मैं श्मशान घाट पहुंच गया था कि उसी समय ट्रेन से उतरकर प्रभाकर और ठाकुर भैया भी वहां पहुंच गए। उनका आ जाना उस समय मेरे लिए बहुत बड़ा संबल था। प्रभाकर चौबे, चाहे हमारे घर में सुख-दु:ख का कोई प्रसंग हो; प्रेस के सहज या कठिन दिन हों; किसी संस्था के कार्यक्रम अथवा योजना का विषय हो, हर समय इसी तरह मेरा संबल बन जाते थे। और यह सिर्फ मेरा अनुभव नहीं है। उनमें संबंधों को निभाने की एक अपूर्व सिफत थी। सब काहू से दोस्ती, न काहू से बैर मानों उनका मूलमंत्र था।
हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग; प्रगतिशील लेखक संघ, अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन, छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन, भारत सोवियत मैत्री संघ, देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष, मायाराम सुरजन फाउंडेशन जैसी कुछ संस्थाएं थीं, जिनमें हमने मिलकर काम किया। वे ट्रेड यूनियन कौंसिल तथा शिक्षक संघ आदि से भी जुड़े थे। 1978 से 1980 के बीच छत्तीसगढ़ में हमने म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले लगातार युवा रचना शिविरों का आयोजन किया। पहिला शिविर 4,5,6 मार्च 1978 को चंपारन में हुआ जो तब एक लगभग निर्जन स्थान था। इसके बाद बतौली (सरगुजा), कुरुद (धमतरी), जशपुरनगर, दल्लीराजहरा, कवर्धा, महासमुंद, कांकेर आदि अनेक स्थानों पर तीन दिवसीय शिविर हुए। इन शिविरों से प्रलेस की एक मुकम्मल पहचान कायम हुई, अगर मैं यह दावा करूं तो गलत नहीं हो। प्रभाकर चाहते तो इनके माध्यम से अपनी निजी छवि बना सकते थे, लेकिन वे प्रचारप्रियता और गुटबाजी से कोसों दूर थे। लगभग चालीस साल बाद उनके योगदान का मूल्यांकन हुआ, जब 2016 के बिलासपुर राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष मंडल का सदस्य चुना गया। अभी राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र राजन ने उचित निर्णय लिया है कि आगामी माह पटना में आयोजित राष्ट्रीय कार्यक्रम के सभास्थल का नाम प्रभाकर चौबे भवन रखा जाएगा।
प्रभाकर लंबे समय तक मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की प्रबंधकारिणी के सदस्य रहे, छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन के तो वे संस्थापक सदस्य तथा संरक्षक थे। इसी 29-30 मार्च को म.प्र. सम्मेलन का शताब्दी समारोह मनाया गया तो सभी साथियों की राय बनी कि उद्घाटन के लिए प्रभाकर चौबे से उत्तम कोई अन्य मुख्य अतिथि नहीं हो सकता। सम्मेलन ने लगभग दस वर्ष पूर्व उनके पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर सार्वजनिक अभिनंदन किया था जिसमें कोई सौ-पचास संगठन उनका सम्मान करने आगे आए थे। सम्मेलन का मायाराम सुरजन स्मृति लोकचेतन अलंकरण भी उन्हें प्रदान किया गया, यद्यपि वे स्वयं सदस्य होने के नाते इसे नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने साहित्य सेवा के लिए दो-तीन बार सम्मान स्वीकार किए लेकिन वे सिर्फ किसी लेखक, साहित्यकार के हाथों ही सम्मान लेने तैयार होते थे। जिनका साहित्य से कोई सरोकार नहीं, जो किताबें नहीं पढ़ते, जो लेखक को जानते भी नहीं, उनके ‘‘करकमलों’’ से सम्मान क्यों लिया जाए? वे हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थायी समिति के सदस्य थे, उसके वार्षिक अधिवेशनों में भाग लेने के लिए सदा उत्साहित रहते थे और समिति की बैठकों में भी भरसक शामिल होते थे। शनिवार 23 जून को प्रयाग में उनके शोक में एक दिन अवकाश रख सम्मान प्रकट किया गया।
अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो)की गतिविधियों में भी प्रभाकर गहरी दिलचस्पी रखते थे। मध्यप्रदेश के दिनों में रायपुर में प्रादेशिक अधिवेशन करने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई; क्यूबा, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका व बांग्लादेश के जनतांत्रिक आंदोलनों के समर्थन में रायपुर में आयोजित कार्यक्रमों में वे हमेशा आगे रहते थे, एप्सो के तीन राज्य सम्मेलन तो उनकी प्रेरणा से ही संभव हो पाए। इन सारे संगठनों के आयोजनों में भाग लेने के लिए हमने एक साथ दूर-दूर की यात्राएं कीं। आयोजनों में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते थे। ये निठल्लेपन की यात्राएं नहीं थीं। हम लोग किताबों पर बात करते थे, राजनीति और दीगर मुद्दों पर बहस कहते थे; बस में, ट्रेन में सहयात्री चकित होकर हमारी चर्चाएं सुनते थे, और कई बार उनमें शामिल भी हो जाते थे। पं. नेहरू ने विजयलक्ष्मी पंडित को एक पत्र में लिखा था- चाहे जीवन यात्रा हो, या साधारण यात्रा, हमेशा कम बोझ लेकर चलना चाहिए। प्रभाकर ने मानों इस सीख का ही अनुकरण करते हुए अपनी जीवन यात्रा पूरी कर ली।
मई 1976 का कोई दिन। तारीख याद नहीं। भोपाल बस स्टैण्ड। विदिशा जाने वाली बस में कुछ सवारियां बैठ चुकी थीं। कुछ यात्री मोटर चालू होने के इंतजार में बाहर खड़े थे। बस पर सामान चढ़ रहा था। उसमें तरबूज का एक भारी-भरकम पिटारा भी था। एक व्यक्ति नीचे से तरबूज ऊपर फेंक रहा था और बस की छत पर चढ़ा उसका साथी लपक रहा था। इस बीच एक मजेदार वाकया हुआ। कोई चालीस साल का औसत कद-काठी का व्यक्ति देखते ही देखते छत पर चढ़ गया और उसने नीचे से आ रहे तरबूजों को बड़ी कुशलता से झेलकर ऊपर के पिटारे में रखना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति के नीचे जो साथी थे वे इस खेल को देखकर कुछ हैरान से थे लेकिन अपने साथी के करतब पर प्रशंसा भाव भी उनकी आंखों से झलक रहा था। ये सभी लोग छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों के लेखक मित्र थे जो मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ऐतिहासिक विदिशा अधिवेशन में भाग लेने जा रहे थे। उनके ये बिंदास साथी थे- डॉ. हरिशंकर शुक्ल, दुर्गा महाविद्यालय रायपुर में हिन्दी के प्राध्यापक और इलाहाबाद वि.वि. में तैराकी के स्वर्ण पदक विजेता होने के साथ अनेक खेलों के ब्ले•ारधारी। डॉ. हरिशंकर शुक्ल की ख्याति एक लोकप्रिय और विद्वान अध्यापक की थी, किन्तु उनके खिलाड़ी रूप से साथी लोग अपरिचित ही थे। उनके स्वभाव में एक संकोच सा था जो उन्हें आत्मप्रचार करने से रोकता था। यहां तक कि अपने लिखे उपन्यासों और गीतों की चर्चा भी वे नहीं करते थे। वे एक ऐसे शिक्षक थे जो नए-पुराने नोट्स देखकर नहीं बल्कि दिल से पढ़ाते थे। उन्हें क्लासिक से लेकर आधुनिक कवियों तक की सैकड़ों कविताएं कंठस्थ थीं। निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसी कठिन और लंबी कविता भी उन्हें कंठस्थ थीं जिसे वे पूरे आरोह-अवरोह के साथ सुनाते थे। कविता हो या कहानी या उपन्यास, व्याख्या करने के लिए उन्हें किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती थी। इसकी प्रमुख वजह शायद यह थी कि वे एक अत्यन्त अध्ययनशील व्यक्ति थे। मैं अगर कहूं कि वे ज्ञानपिपासु थे तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। डॉ. हरिशंकर शुक्ल को किताबों से बेपनाह मोहब्बत थी। उस समय निजी म.वि. के सीमित वेतन और बाद में सीमित पेंशन से यथासंभव वे पुस्तकें खरीदा करते थे। उन्होंने बहुत सुचारु ढंग से अपनी निजी लाइब्रेरी बना ली थी। हर किताब पर पढऩे के पहले वे कवर चढ़ाते थे और उन्हें पता होता था कि किस अलमारी में कौन सी किताब कहां रखी है। पुस्तक संचय का यह शौक उन्हें अंतत: बना रहा। मुझे जितना मालूम है परीक्षा कार्य से उन्हें जो भी आय होती थी उसे पूरा का पूरा वे पुस्तक खरीदने में लगा देते थे। वे अन्य पुस्तक-प्रेमी मित्रों से पुस्तकें उधार लेकर भी पढ़ते थे, लेकिन उनकी बड़ी खूबी थी कि पढऩे के बाद नियमत: उसे लौटा देते थे। उनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर पत्नी उनका पहला प्रेम थीं तो पुस्तकें दूसरा। इसके अलावा वे हिन्दी की तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं भी खरीद कर पढ़ते थे और इस तरह हिन्दी साहित्य की नवीनतम प्रवृत्तियों से खुद को परिचित रखते थे। मैं जब 1964 में एम.ए. करने के लिए रायपुर लौटा तब कुछ ही दिनों के भीतर जिन लोगों से मेरा परिचय हो गया था उनमें हरि ठाकुर, नरेन्द्र देव वर्मा, प्रभाकर चौबे, जमालुद्दीन आदि के अलावा डॉ. हरिशंकर शुक्ल भी थे। इन सबसे मेरा परिचय दा याने राजनारायण मिश्र ने कराया था। मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. करना चाहता था। डॉ. शुक्ल ने सलाह दी- हिन्दी में तुम्हारे डिस्टिंक्शन मार्क (75 प्रतिशत से ऊपर) हैं तो तुम्हें हिन्दी में एम.ए. करना चाहिए। मैंने पूछा- पढ़ाएगा कौन? उनका उत्तर था- हम पढ़ाएंगे। मैंने प्रत्युत्तर में कहा- तब तो आपको शुक्लाजी कहने के बजाय गुरुजी कहना पड़ेगा। उन्होंने जवाब दिया- हां, ठीक है। हम तुम्हारे गुरुजी हो जाएंगे। मैंने उन्हें कभी सर कहकर संबोधित नहीं किया। वे धीरे-धीरे मेरे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के तमाम साहित्यिक मित्रों के बीच गुरुजी के नाम से ही लोकप्रिय हो गए। गुरुजी से मित्रता तो 1964 के ग्रीष्मावकाश में साथ-साथ ताश खेलने के साथ हुई थी। लेकिन फिर वे मेरे अध्यापक बन गए। कई मायनों में मार्गदर्शक रहे। हम पारिवारिक मित्र तो क्या, एक-दूसरे के परिवार के सदस्य ही बन गए और प्रदेश की साहित्यिक व सामाजिक गतिविधियों में हम लोगों ने मिलकर बरसों काम किया और देश-प्रदेश की अनेक यात्राओं में हम सहयात्री भी रहे। मैंने हिन्दी साहित्य में एम.ए. तो उनकी प्रेरणा से किया ही, दो अन्य मौकों पर उनका मार्गदर्शन बेहद कीमती साबित हुआ। मैंने एम.ए. करने के बाद पीएचडी करने की ठानी। पंजीयन करवा लिया। कुलपति डॉ. बाबूलाल सक्सेना ने साक्षात्कार भी ले लिया, लेकिन गुरुजी ने यह कहकर मुझे रोक दिया कि तुम्हें अखबार के काम में बाबूजी का हाथ बंटाना चाहिए। कुछ समय बाद मन में आई.ए.एस. बनने की लहर उठी। तब भी गुरुजी ने बड़े भाई के अधिकार से मुझे रोक दिया। आज मैं यदि पत्रकारिता में कहीं हूं तो गुरुजी की समयोचित प्रेरणा भी इसका एक कारण है। 1974-75 में जब राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ पुनर्जीवित हुआ तो प्रारंभ में छत्तीसगढ़ में हम चार साथियों ने उसका बीड़ा उठाया था- प्रभाकर चौबे, डॉ. हरिशंकर शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल और ललित सुरजन। आगे चलकर मलय, राजेश्वर सक्सेना और रमाकांत श्रीवास्तव भी साथ में जुड़ गए थे। हमने 4-5-6 मार्च 1978 को चंपारण में प्रलेस का पहला रचना शिविर आयोजित किया था। इसे लेकर हम सबके मन में बहुत उत्साह था। इस अवसर पर हमने चंपारण घोषणापत्र जारी करने के बारे में सोचा और उसका मसौदा तैयार करने का दायित्व डॉ. हरिशंकर शुक्ल को सौंपा गया। उन्होंने घोषणापत्र तैयार किया। उस पर पन्द्रह दिन तक हम चार लोगों ने बैठकर लगातार चर्चा की और 4 मार्च 1978 की सुबह शिविर के प्रारंभ में उसे जारी किया गया। गुरुजी प्रगतिशील लेखक संघ से तो जुड़े ही रहे। रायपुर में इप्टा के गठन और आगे की गतिविधियों में भी उन्होंने लंबे समय तक दिलचस्पी ली। वे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी रायपुर आने के बाद से ही जुड़े रहे और सम्मेलन के विभिन्न कार्यक्रमों में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। मुझे जहां तक पता है, वे सम्मेलन के एक समय महामंत्री रहे ठाकुर हरिहर बख्श सिंह हरीश के मार्गदर्शन में संचालित, हिन्दी साहित्य मंडल की गोष्ठियों में नियमित भाग लेते थे। बहरहाल, नया राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संरक्षक सदस्य बने और इसके लिए आवश्यक राशि भी उन्होंने अपने मन से दी। यह सम्मेलन और साहित्य से उनके आत्मिक जुड़ाव का ही उदाहरण था। 1985 में जब भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के रायपुर अध्याय की स्थापना हुई, तो वे उसके भी सदस्य बने। इतिहास और पुरातत्व में उनकी बेहद रुचि थी। विगत पचास वर्षों में वे भारत-सोवियत मैत्री संघ (इस्कस) अखिल भारतीय शांति और एकजुटता संघ (एप्सो) में भी सक्रिय रहे। जब तक उनका स्वास्थ्य साथ देता रहा वे इन प्रगतिशील संस्थाओं के कार्यक्रमों में भागीदारी निभाते रहे। गुरुजी के बारे में लिखने के लिए बहुत कुछ है। वे जहां मैदान के खिलाड़ी थे वहीं इंडोर गेम्स में भी उन्हें महारत हासिल थी। शतरंज, ताश, चाइनी•ा चेकर जैसे खेलों में मैंने उन्हें कभी हारते नहीं देखा। उनका व्यक्तित्व निर्मल और पारदर्शी था। संतोष, संतुलन और संयम उनके जीवन के अमूल्य मंत्र जैसे थे। उनका छोटा सा परिवार था, जिसमें हमारी भौजी श्रीमती मनोरमा शुक्ल और दोनों बेटियां पारमिता और संगीता ने सुख-शांतिमय बनाए रखने में अपनी भूमिका अच्छे से निभाई। 13 नवम्बर 2018 को गुरुजी के जाने के बाद छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिवेश में और मेरे अपने जीवन में सूनापन कुछ और बढ़ गया है। लेकिन मुझे विश्वास है कि गुरुजी ने स्वर्गलोक पहुंचकर देवताओं को चाइनी•ा चेकर सिखाना प्रारंभ कर दिया होगा।
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